नालंदा विश्वविद्यालय | |
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नवनिर्मित नालंदा विश्वविद्यालय का लोगो |
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स्थापना | 2010 |
कुलाधिपति | अमर्त्य सेन[1][2] |
उपकुलपति | गोपा सभर्वाल[3] |
अवस्थिति | राजगीर, नालंदा के समीप, बिहार, भारत |
जालस्थल | नालंदा विश्वविद्यालय जालस्थल(आधिकारिक) |
अनुक्रम
- 1 स्थापना व संरक्षण
- 2 स्वरूप
- 3 परिसर
- 4 प्रबंधन
- 5 आचार्य
- 6 प्रवेश के नियम
- 7 अध्ययन-अध्यापन पद्धति
- 8 अध्ययन क्षेत्र
- 9 पुस्तकालय
- 10 छात्रावास
- 11 छात्र संघ
- 12 आर्थिक आधार
- 13 अवसान
- 14 ऐतिहासिक उल्लेख
- 15 प्राचीन अवशेषों का परिसर
- 16 अन्य स्थल
- 17 पुनर्जीवन प्रयास
- 18 आवागमन
- 19 चित्र दीर्घा
- 20 टीका टिप्पणी
- 21 सन्दर्भ
- 22 बाहरी कड़ियाँ
स्थापना व संरक्षण
इस विश्वविद्यालय की स्थापना का श्रेय गुप्त शासक कुमारगुप्त प्रथम ४५०-४७० को प्राप्त है।[4][5] इस विश्वविद्यालय को कुमार गुप्त के उत्तराधिकारियों का पूरा सहयोग मिला। गुप्तवंश के पतन के बाद भी आने वाले सभी शासक वंशों ने इसकी समृद्धि में अपना योगदान जारी रखा। इसे महान सम्राट हर्षवर्द्धन और पाल शासकों का भी संरक्षण मिला। स्थानीय शासकों तथा भारत के विभिन्न क्षेत्रों के साथ ही इसे अनेक विदेशी शासकों से भी अनुदान मिला।स्वरूप
यह विश्व का प्रथम पूर्णतः आवासीय विश्वविद्यालय था। विकसित स्थिति में इसमें विद्यार्थियों की संख्या करीब १०,००० एवं अध्यापकों की संख्या २००० थी। सातवीं शती में जब ह्वेनसाङ आया था उस समय १०,००० विद्यार्थी और १५१० आचार्य नालंदा विश्वविद्यालय में थे। इस विश्वविद्यालय में भारत के विभिन्न क्षेत्रों से ही नहीं बल्कि कोरिया, जापान, चीन, तिब्बत, इंडोनेशिया, फारस तथा तुर्की से भी विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने आते थे। नालंदा के विशिष्ट शिक्षाप्राप्त स्नातक बाहर जाकर बौद्ध धर्म का प्रचार करते थे। इस विश्वविद्यालय को नौवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त थी।परिसर
अत्यंत सुनियोजित ढंग से और विस्तृत क्षेत्र में बना हुआ यह विश्वविद्यालय स्थापत्य कला का अद्भुत नमूना था। इसका पूरा परिसर एक विशाल दीवार से घिरा हुआ था जिसमें प्रवेश के लिए एक मुख्य द्वार था। उत्तर से दक्षिण की ओर मठों की कतार थी और उनके सामने अनेक भव्य स्तूप और मंदिर थे। मंदिरों में बुद्ध भगवान की सुन्दर मूर्तियाँ स्थापित थीं। केन्द्रीय विद्यालय में सात बड़े कक्ष थे और इसके अलावा तीन सौ अन्य कमरे थे। इनमें व्याख्यान हुआ करते थे। अभी तक खुदाई में तेरह मठ मिले हैं। वैसे इससे भी अधिक मठों के होने ही संभावना है। मठ एक से अधिक मंजिल के होते थे। कमरे में सोने के लिए पत्थर की चौकी होती थी। दीपक, पुस्तक इत्यादि रखने के लिए आले बने हुए थे। प्रत्येक मठ के आँगन में एक कुआँ बना था। आठ विशाल भवन, दस मंदिर, अनेक प्रार्थना कक्ष तथा अध्ययन कक्ष के अलावा इस परिसर में सुंदर बगीचे तथा झीलें भी थी।प्रबंधन
समस्त विश्वविद्यालय का प्रबंध कुलपति या प्रमुख आचार्य करते थे जो भिक्षुओं द्वारा निर्वाचित होते थे। कुलपति दो परामर्शदात्री समितियों के परामर्श से सारा प्रबंध करते थे। प्रथम समिति शिक्षा तथा पाठ्यक्रम संबंधी कार्य देखती थी और द्वितीय समिति सारे विश्वविद्यालय की आर्थिक व्यवस्था तथा प्रशासन की देख-भाल करती थी। विश्वविद्यालय को दान में मिले दो सौ गाँवों से प्राप्त उपज और आय की देख-रेख यही समिति करती थी। इसी से सहस्त्रों विद्यार्थियों के भोजन, कपड़े तथा आवास का प्रबंध होता था।आचार्य
इस विश्वविद्यालय में तीन श्रेणियों के आचार्य थे जो अपनी योग्यतानुसार प्रथम, द्वितीय और तृतीय श्रेणी में आते थे। नालंदा के प्रसिद्ध आचार्यों में शीलभद्र, धर्मपाल, चंद्रपाल, गुणमति और स्थिरमति प्रमुख थे। ७ वीं सदी में ह्वेनसांग के समय इस विश्व विद्यालय के प्रमुख शीलभद्र थे जो एक महान आचार्य, शिक्षक और विद्वान थे। एक प्राचीन श्लोक से ज्ञात होता है, प्रसिद्ध भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलज्ञ आर्यभट भी इस विश्वविद्यालय के प्रमुख रहे थे। उनके लिखे जिन तीन ग्रंथों की जानकारी भी उपलब्ध है, वे हैं: दशगीतिका, आर्यभट्टीय और तंत्र। ज्ञाता बताते हैं, कि उनका एक अन्य ग्रन्थ आर्यभट्ट सिद्धांत भी था, जिसके आज मात्र ३४ श्लोक ही उपलब्ध हैं। इस ग्रंथ का ७ वीं शताब्दी में बहुत उपयोग होता था।प्रवेश के नियम
प्रवेश परीक्षा अत्यंत कठिन होती थी और उसके कारण प्रतिभाशाली विद्यार्थी ही प्रवेश पा सकते थे। उन्हें तीन कठिन परीक्षा स्तरों को उत्तीर्ण करना होता था। यह विश्व का प्रथम ऐसा दृष्टांत है।[5] शुद्ध आचरण और संघ के नियमों का पालन करना अत्यंत आवश्यक था।अध्ययन-अध्यापन पद्धति
इस विश्वविद्यालय में आचार्य छात्रों को मौखिक व्याख्यान द्वारा शिक्षा देते थे। इसके अतिरिक्त पुस्तकों की व्याख्या भी होती थी। शास्त्रार्थ होता रहता था। दिन के हर पहर में अध्ययन तथा शंका समाधान चलता रहता था।अध्ययन क्षेत्र
यहाँ महायान के प्रवर्तक नागार्जुन, वसुबन्धु, असंग तथा धर्मकीर्ति की रचनाओं का सविस्तार अध्ययन होता था। वेद, वेदांत और सांख्य भी पढ़ाये जाते थे। व्याकरण, दर्शन, शल्यविद्या, ज्योतिष, योगशास्त्र तथा चिकित्साशास्त्र भी पाठ्यक्रम के अन्तर्गत थे। नालंदा कि खुदाई में मिली अनेक काँसे की मूर्तियो के आधार पर कुछ विद्वानों का मत है कि कदाचित् धातु की मूर्तियाँ बनाने के विज्ञान का भी अध्ययन होता था। यहाँ खगोलशास्त्र अध्ययन के लिए एक विशेष विभाग था।पुस्तकालय
नालंदा में सहस्रों विद्यार्थियों और आचार्यों के अध्ययन के लिए, नौ तल का एक विराट पुस्तकालय था जिसमें ३ लाख से अधिक पुस्तकों का अनुपम संग्रह था।[5] इस पुस्तकालय में सभी विषयों से संबंधित पुस्तकें थी। यह 'रत्नरंजक' 'रत्नोदधि' 'रत्नसागर' नामक तीन विशाल भवनों में स्थित था। 'रत्नोदधि' पुस्तकालय में अनेक अप्राप्य हस्तलिखित पुस्तकें संग्रहीत थी। इनमें से अनेक पुस्तकों की प्रतिलिपियाँ चीनी यात्री अपने साथ ले गये थे।छात्रावास
यहां छात्रों के रहने के लिए ३०० कक्ष बने थे, जिनमें अकेले या एक से अधिक छात्रों के रहने की व्यवस्था थी। एक या दो भिक्षु छात्र एक कमरे में रहते थे। कमरे छात्रों को प्रत्येक वर्ष उनकी अग्रिमता के आधार पर दिये जाते थे। इसका प्रबंधन स्वयं छात्रों द्वारा छात्र संघ के माध्यम से किया जाता था।छात्र संघ
यहां छात्रों का अपना संघ था। वे स्वयं इसकी व्यवस्था तथा चुनाव करते थे। यह संघ छात्र संबंधित विभिन्न मामलों जैसे छात्रावासों का प्रबंध आदि करता था।आर्थिक आधार
छात्रों को किसी प्रकार की आर्थिक चिंता न थी। उनके लिए शिक्षा, भोजन, वस्त्र औषधि और उपचार सभी निःशुल्क थे। राज्य की ओर से विश्वविद्यालय को दो सौ गाँव दान में मिले थे, जिनसे प्राप्त आय और अनाज से उसका खर्च चलता था।अवसान
१३ वीं सदी तक इस विश्वविद्यालय का पूर्णतः अवसान हो गया। मुस्लिम इतिहासकार मिनहाज़ और तिब्बती इतिहासकार तारानाथ के वृत्तांतों से पता चलता है कि इस विश्वविद्यालय को तुर्कों के आक्रमणों से बड़ी क्षति पहुँची। तारानाथ के अनुसार तीर्थिकों और भिक्षुओं के आपसी झगड़ों से भी इस विश्वविद्यालय की गरिमा को भारी नुकसान पहुँचा। इसपर पहला आघात हुण शासक मिहिरकुल द्वारा किया गया। ११९९ में तुर्क आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी ने इसे जला कर पूर्णतः नष्ट कर दिया।[4]ऐतिहासिक उल्लेख
प्रसिद्ध चीनी विद्वान यात्री ह्वेन त्सांग और इत्सिंग ने कई वर्षों तक यहाँ सांस्कृतिक व दर्शन की शिक्षा ग्रहण की। इन्होंने अपने यात्रा वृत्तांत व संस्मरणों में नालंदा के विषय में काफी कुछ लिखा है।[5][क] ह्वेनत्सांग ने लिखा है कि सहस्रों छात्र नालंदा में अध्ययन करते थे और इसी कारण नालंदा प्रख्यात हो गया था। दिन भर अध्ययन में बीत जाता था। विदेशी छात्र भी अपनी शंकाओं का समाधान करते थे। इत्सिंग ने लिखा है कि विश्वविद्यालय के विख्यात विद्वानों के नाम विश्वविद्यालय के मुख्य द्वार पर श्वेत अक्षरों में लिखे जाते थे।प्राचीन अवशेषों का परिसर
इस विश्वविद्यालय के अवशेष चौदह हेक्टेयर क्षेत्र में मिले हैं। खुदाई में मिली सभी इमारतों का निर्माण लाल पत्थर से किया गया था। यह परिसर दक्षिण से उत्तर की ओर बना हुआ है। मठ या विहार इस परिसर के पूर्व दिशा में व चैत्य (मंदिर) पश्चिम दिशा में बने थे। इस परिसर की सबसे मुख्य इमारत विहार-१ थी। आज में भी यहां दो मंजिला इमारत शेष है। यह इमारत परिसर के मुख्य आंगन के समीप बनी हुई है। संभवत: यहां ही शिक्षक अपने छात्रों को संबोधित किया करते थे। इस विहार में एक छोटा सा प्रार्थनालय भी अभी सुरक्षित अवस्था में बचा हुआ है। इस प्रार्थनालय में भगवान बुद्ध की भग्न प्रतिमा बनी है। यहां स्थित मंदिर नं. ३ इस परिसर का सबसे बड़ा मंदिर है। इस मंदिर से समूचे क्षेत्र का विहंगम दृश्य देखा जा सकता है। यह मंदिर कई छोटे-बड़े स्तूपों से घिरा हुआ है। इन सभी स्तूपों में भगवान बुद्ध की विभिन्न मुद्राओं में मूर्तियां बनी हुई है।अन्य स्थल
- नालंदा पुरातात्विक संग्रहालय
- नव नालंदा महाविहार
- ह्वेनत्सांग मेमोरियल हॉल
- बड़गांव, सिलाव राजगीर
पुनर्जीवन प्रयास
नालंदा शिक्षा और ज्ञान-विज्ञान का प्रचीनतम केंद्र रहा है तथा कभी महान विश्वविद्यालय रहे इस विख्यात नालंदा के पुरावशेषों को यूनेस्को विश्व धरोहर बनाया जा सकता है। इस संबंध में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने यूनेस्को को अपनी सिफारिश भेज दी है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने नालंदा पुरावशेष प्राचीन स्मारक एवं पुरातात्विक स्थल और पुरावशेष अधिनियम १९५८ के तहत संरक्षित स्थल घोषित किया है। इस स्थान की मूल सामग्रियों से ही इसकी मरम्मत कराई गई है। यह पूरा प्रयास किया गया कि मूल रूप ना बदले।युनेस्को अधिकारियों के अनुसार नालंदा स्थित मंदिर संख्या तीन का निर्माण पंचरत्न स्थापत्य कला से किया गया है। यह दक्षिण-पूर्व एशिया के कई स्थलों के अलावा कंबोडिया के अंकोरवाट मंदिर से मेल खाता है। इसके अलावा नालंदा और तक्षशिला में भी काफी समानताएं हैं। भारत सरकार के पर्यटन मंत्रालय के अतुल्य भारत अभियान के साथ मिल कर एनडीटीवी द्वारा आयोजित एक राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षण के तहत कोणार्क सूर्य मंदिर, मीनाक्षी मंदिर, खजुराहो, लाल किला, दिल्ली, जैसलमेर दुर्ग, नालंदा विश्वविद्यालय और धौलावीर जैसे स्थलों को भारत के सात आश्चर्य के रूप में चुना गया है।[6]
नालंदा विश्वविद्यालय के नाम पर एक नए विश्वविद्यालय की स्थापना की जा रही है। प्रसिद्ध नोबल पुरस्कार विजेता साहित्यकार अमर्त्य सेन के अनुसार वर्ष २०१० तक शैक्षणिक सत्र भी आरंभ हो जाएगा। इसके पुनर्जीवन प्रयास में सिंगापुर, चीन, जापान व दक्षिण-कोरिया ने भी सहयोग देने का वादा किया है। इसके ऊपर संसद में विधेयक पारित होने पर इसके भवन का निर्माण भी शुरु हो जाएगा। इसमें ईस्ट एशिया सम्मेलन के १६ देश आर्थिक सहयोग देंगे।[7]
आवागमन
- वायु मार्ग: यहाँ से ८९ किलोमीटर दूर निकटतम हवाई अड्डा पटना का जयप्रकाश नारायण हवाई अड्डा है।
- रेल मार्ग: नालंदा में भी रेलवे स्टेशन है, किन्तु यहां का प्रमुख रेलवे स्टेशन राजगीर है। राजगीर जाने वाली सभी ट्रेने नालंदा होकर जाती है।
- सड़क मार्ग: नालंदा सड़क मार्ग द्वारा कई निकटवर्ती शहरों से जुड़ा है:
*राजगीर (१२ किमी),
- बोधगया (११० किमी),
- गया (९५ किमी),
- पटना (९० किमी),
- पावापुरी (२६ किमी) तथा
- बिहार शरीफ (१३ किमी)
चित्र दीर्घा
टीका टिप्पणी
क. ^- "उस जमाने में विश्व के कई जगहों, सुमात्रा, चीन, थाइलैंड कोरिया, श्रीलंका आदि जगहों से विद्यार्थी ज्ञानार्जन करने आते थे पर इस विश्वविद्यालय की नामांकन प्रक्रिया बहुत मुश्किल थी…ह्वेन त्सांग
सन्दर्भ
- सेन, अमर्त्य. "२०१० तक नालंदा विश्वविद्यालय में शुरू हो जाएगी पढ़ाई" (हिन्दी में) (एचटीएम). आईएएनएस. अभिगमन तिथि: २००८.
बाहरी कड़ियाँ
- विश्व का प्रथम आवासीय शिक्षण संस्थान था नालन्दा विश्वविद्यालय (पाञ्चजन्य)
- नालंदा के अवशेषों के चित्र बीबीसी-हिन्दी पर
- नालंदा में अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय को नया जीवन
- नालंदा-ड्यूरिंग हर्षाज़ रेन(अंग्रेज़ी)
- 800 Years Later, Nalanda University Reopens (१ सितम्बर २०१४)
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