गुरुवार, 27 जनवरी 2022

#ऋग्वेद_में_भूगोल /


प्रस्तुति - स्वामी शरण 

आज हमें बताया जाता है कि सबसे पहले आर्यभट ने कहा था कि पृथ्वी गोल है... 

लेकिन हमें तो बचपन में यह पढ़ाया गया था कि सबसे पहले कॉपरनिकस ने कहा था कि पृथ्वी गोल है। 


और तब कोपरनिकस के साथ ईसाइयों ने बड़ा ही अमानवीय व्यवहार किया था। क्योंकि बाइबिल के जेनेसिस के अध्याय में लिखा था कि पृथ्वी चपटी है। 


हमारे अंदर जब थोड़ी जागरूकता आई तो हम कॉपरनिकस से थोड़ा पीछे गए।तब जाकर हमें पता चला कि आर्यभट ने हमें पहले ही बताया था कि पृथ्वी गोल है। 


परंतु ऋग्वेद 1/33/8 में कहा गया है - 

चक्राणास: परिणहं पृथिव्या। 

यानी पृथ्वी चक्र के जैसी गोल है। 

पृथ्वी से जुड़ा जो भी विषय हम पढ़ते हैं - उस विषय का नाम है - 'भूगोल'.(भू = पृथ्वी     और      गोल = वृत्ताकार) यह नाम ही साबित करता है कि पृथ्वी गोल है। फिर हमें वैदिक ऋषियों ने बताया कि - 

माता भूमि: पुत्रोस्हं पृथिव्या:। 

यानी हम पृथ्वी की संतानें हैं, 

अर्थात पृथ्वी हमारी माँ है। 

पृथ्वी माता कैसे हैं? 

माँ के गर्भ में हम एक झिल्ली में होते हैं, ताकि माता के शरीर के अंदर के बैक्टीरिया हमें नुकसान नहीं पहुँचा सकें। माँ के गर्भ में इस झिल्ली द्वारा ही हमें सुरक्षित रखा जाता है। अन्यथा हम वहीं सड़ - गल जाते...और कभी जन्म नहीं ले पाते। ठीक इसी प्रकार... पृथ्वी भी एक झिल्ली में सुरक्षित है। इसे हम 'ओजोन परत' कहते हैं। यह परत हमें सूर्य के हानिकारक अल्ट्रावॉइलेट विकिरणों से सुरक्षित रखती है। बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में नासा ने ओज़ोन परत का चित्र लिया है। यह सुनहरे रंग की दिखती है।


ऐसा ही उल्लेख ऋग्वेद में पाया जाता है। वहाँ पृथ्वी को 'हिरण्यगर्भा' कहा गया है। 'हिरण्य' अर्थात 'हिरन के जैसा' या सुनहरे रंग का। मतलब, जिस जिस तथ्य की जानकारी आधुनिक विज्ञान को आज पता चली, उसकी जानकारी हमारे ऋषियों को लाखों साल पहले प्राप्त हो चुकी थी। इस जानकारी का इतनी सूक्ष्मता से वर्णन हमारे ऋग्वेद में मिलता है।


आज हम जानते हैं कि पृथ्वी पश्चिम से पूरब की ओर घूम रही है। इसलिए सूर्योदय हमेशा पूरब में होता है। इस सम्बंध में ऋग्वेद (7/992) में ऋषि कहते हैं - कि 

बूढ़ी महिला की तरह झुकी हुई पृथ्वी पूरब की ओर जा रही है। ऋग्वेद हमें यह भी बताता है कि 

पृथ्वी अपने अक्ष पर झुकी हुई है। 

आज आधुनिक विज्ञान भी यही बताता है कि पृथ्वी अपने अक्ष पर 23.44 डिग्री पर झुकी हुई है।


इसके अतिरिक्त एक घूमते हुए लट्टू में जो एक लहर सी आती है, उसी प्रकार पृथ्वी के घूर्णन में भी एक लहर आती है। इसके कारण पृथ्वी की एक और गति बनती है। इस चक्र को पूरा करने में पृथ्वी को  छब्बीस हजार वर्ष लगते हैं। 

भास्कराचार्य ने इसे 'भचक्र सम्पात' कहा है  और इसकी कालावधि 25812 वर्ष निकाली थी। यह आज की गणना के लगभग बराबर ही है। इस गति के कारण पृथ्वी का उत्तरी ध्रुव तेरह हजार वर्षों तक सूर्य के सामने और तेरह हजार वर्षों तक सूर्य के विपरीत में होता है। जब यह सूर्य के विपरीत में होता है तो 'हिम युग' होता है और जब यह सूर्य के सामने होगा तो यहाँ ताप बढ़ जाएगा जिससे बर्फ पिघलने लगेगी। इसके लिए आधुनिक विज्ञानियों ने पिछले 161 वर्षों के 

उत्तरी ध्रुव में होने वाले तापमान में परिवर्तन की एक तालिका बनाई है। इससे भी यह बात सिद्ध हो जाती है।

तो क्यों न हम गर्व करें स्वयं के सनातनी होने पर।

✍️प्रमोद शुक्ला जी की वॉल पर राष्ट्रवादी रवि कांत मिश्र  जी के पटल से


विश्व की पहली भूगोल पुस्तक - श्री विष्णु पुराण . World's first Geography Book - Shri Vishnu Puran 


जी हाँ! ठीक शीर्षक पढ़ा आपने, पृथ्वी का संपूर्ण लिखित वर्णन सबसे पहले विष्णु पुराण में देखने को मिलता है... विष्णु पुराण के रचियता है... महान ऋषि पाराशर...


ऋषि पाराशर महर्षि वसिष्ठ के पौत्र, गोत्रप्रवर्तक, वैदिक सूक्तों के द्रष्टा एवं ग्रंथकार थे... राक्षस द्वारा मारे गए वसिष्ठ के पुत्र शक्ति से इनका जन्म हुआ। बड़े होने पर माता अदृश्यंती से पिता की मृत्यु की बात ज्ञात होने पर राक्षसों के नाश के निमित्त इन्होंने राक्षस सत्र नामक यज्ञ शुरू किया जिसमें अनेक निरपराध राक्षस मारे जाने लगे। यह देखकर पुलस्त्य आदि ऋषियों ने उपदेश देकर इनकी राक्षसों के विनाश से निवृत्त किया और पुराण प्रवक्ता होने का वर दिया। इसके पश्चात् इन्होने विष्णु पुराण की रचना की...


यह पुराण अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तथा प्राचीन है। इस पुराण में आकाश आदि भूतों का परिमाण, समुद्र, सूर्य आदि का परिमाण, पर्वत, देवतादि की उत्पत्ति, मन्वन्तर, कल्प-विभाग, सम्पूर्ण धर्म एवं देवर्षि तथा राजर्षियों के चरित्र का विशद वर्णन है। अष्टादश महापुराणों में श्रीविष्णुपुराण का स्थान बहुत ऊँचा है। इसमें अन्य विषयों के साथ भूगोल, ज्योतिष, कर्मकाण्ड, राजवंश और श्रीकृष्ण-चरित्र आदि कई प्रंसगों का बड़ा ही अनूठा और विशद वर्णन किया गया है। 


यहाँ स्वयं भगवान् कृष्ण महादेवजी के साथ अपनी अभिन्नता प्रकट करते हुए श्रीमुखसे कहते हैं-


“त्वया यदभयं दत्तं तद्दत्तमखिलं मया। 

मत्तोऽविभिन्नमात्मानं द्रुष्टुमर्हसि शङ्कर।

योऽहं स त्वं जगच्चेदं सदेवासुरमानुषम्। 

मत्तो नान्यदशेषं यत्तत्त्वं ज्ञातुमिहार्हसि। 

अविद्यामोहितात्मानः पुरुषा भिन्नदर्शिनः। 

वन्दति भेदं पश्यन्ति चावयोरन्तरं हर॥"


इस पुराण में इस समय सात हजार श्लोक उपलब्ध हैं। कई ग्रन्थों में इसकी श्लोक संख्या तेईस हजार बताई जाती है। विष्णु पुराण में पुराणों के पांचों लक्षणों अथवा वर्ण्य-विषयों-सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर और वंशानुचरित का वर्णन है। सभी विषयों का सानुपातिक उल्लेख किया गया है। बीच-बीच में अध्यात्म-विवेचन, कलिकर्म और सदाचार आदि पर भी प्रकाश डाला गया है।


ये निम्नलिखित भागों मे वर्णित है-

१. पूर्व भाग-प्रथम अंश

२. पूर्व भाग-द्वितीय अंश

३. पूर्व भाग-तीसरा अंश

४. पूर्व भाग-चतुर्थ अंश

५. पूर्व भाग-पंचम अंश

६. पूर्व भाग-छठा अंश

७. उत्तरभाग


यहाँ पर मैं सारे भागों का संछिप्त वर्णन भी नहीं करना चाहता... क्योकिं लेख के अत्याधिक लम्बे हो जाने की सम्भावना है ... परन्तु लेख की विषय वस्तु के हिसाब से इसके "पूर्व भाग-द्वितीय अंश" का परिचय देना चाहूँगा .... इस भाग में ऋषि पाराशर ने पृथ्वी के द्वीपों, महाद्वीपों, समुद्रों, पर्वतों, व धरती के समस्त भूभाग का विस्तृत वर्णन किया है...


ये वर्णन विष्णु पुराण में ऋषि पाराशर जी श्री मैत्रेय ऋषि से कर रहे हैं उनके अनुसार इसका वर्णन सहस्त्र वर्षों में भी नहीं हो सकता है। यह केवल अति संक्षेप वर्णन है। हम इससे इसकी महानता तथा व्यापकता का अंदाजा लगा सकते हैं...


जो मनुष्य भक्ति और आदर के साथ विष्णु पुराण को पढते और सुनते है,वे दोनों यहां मनोवांछित भोग भोगकर विष्णुलोक में जाते है।


ऋषि पाराशर के अनुसार ये पृथ्वी सात महाद्वीपों में बंटी हुई है... (आधुनिक समय में भी ये ७ Continents में विभाजित है यानि - Asia, Africa, North America, South America, Antarctica, Europe, and Australia)


ऋषि पाराशर के अनुसार इन महाद्वीपों के नाम हैं -

१. जम्बूद्वीप

२. प्लक्षद्वीप

३. शाल्मलद्वीप

४. कुशद्वीप

५. क्रौंचद्वीप

६. शाकद्वीप

७. पुष्करद्वीप


ये सातों द्वीप चारों ओर से क्रमशः खारे पानी, नाना प्रकार के द्रव्यों और मीठे जल के समुद्रों से घिरे हैं। ये सभी द्वीप एक के बाद एक दूसरे को घेरे हुए बने हैं, और इन्हें घेरे हुए सातों समुद्र हैं। जम्बुद्वीप इन सब के मध्य में स्थित है।

इनमे से जम्बुद्वीप का सबसे विस्तृत वर्णन मिलता है... इसी में हमारा भारतवर्ष स्थित है...


सभी द्वीपों के मध्य में जम्बुद्वीप स्थित है। इस द्वीप के मध्य में सुवर्णमय सुमेरु पर्वत स्थित है। इसकी ऊंचाई चौरासी हजार योजन है और नीचे कई ओर यह सोलह हजार योजन पृथ्वी के अन्दर घुसा हुआ है। इसका विस्तार, ऊपरी भाग में बत्तीस हजार योजन है, तथा नीचे तलहटी में केवल सोलह हजार योजन है। इस प्रकार यह पर्वत कमल रूपी पृथ्वी की कर्णिका के समान है।


सुमेरु के दक्षिण में हिमवान, हेमकूट तथा निषध नामक वर्ष पर्वत हैं, जो भिन्न भिन्न वर्षों का भाग करते हैं। सुमेरु के उत्तर में नील, श्वेत और शृंगी वर्षपर्वत हैं। इनमें निषध और नील एक एक लाख योजन तक फ़ैले हुए हैं। हेमकूट और श्वेत पर्वत नब्बे नब्बे हजार योजन फ़ैले हुए हैं। हिमवान और शृंगी अस्सी अस्सी हजार योजन फ़ैले हुए हैं।

मेरु पर्वत के दक्षिण में पहला वर्ष भारतवर्ष कहलाता है, दूसरा किम्पुरुषवर्ष तथा तीसरा हरिवर्ष है। इसके दक्षिण में रम्यकवर्ष, हिरण्यमयवर्ष और तीसरा उत्तरकुरुवर्ष है। उत्तरकुरुवर्ष द्वीपमण्डल की सीमा पार होने के कारण भारतवर्ष के समान धनुषाकार है।


इन सबों का विस्तार नौ हजार योजन प्रतिवर्ष है। इन सब के मध्य में इलावृतवर्ष है, जो कि सुमेरु पर्वत के चारों ओर नौ हजार योजन फ़ैला हुआ है। एवं इसके चारों ओर चार पर्वत हैं, जो कि ईश्वरीकृत कीलियां हैं, जो कि सुमेरु को धारण करती हैं,


ये सभी पर्वत इस प्रकार से हैं:-


पूर्व में मंदराचल

दक्षिण में गंधमादन

पश्चिम में विपुल

उत्तर में सुपार्श्व


ये सभी दस दस हजार योजन ऊंचे हैं। इन पर्वतों पर ध्वजाओं समान क्रमश कदम्ब, जम्बु, पीपल और वट वृक्ष हैं। इनमें जम्बु वृक्ष सबसे बड़ा होने के कारण इस द्वीप का नाम जम्बुद्वीप पड़ा है। यहाँ से जम्बु नद नामक नदी बहती है। उसका जल का पान करने से बुढ़ापा अथवा इन्द्रियक्षय नहीं होता। उसके मिनारे की मृत्तिका (मिट्टी) रस से मिल जाने के कारण सूखने पर जम्बुनद नामक सुवर्ण बनकर सिद्धपुरुषों का आभूषण बनती है।


मेरु पर्वत के पूर्व में भद्राश्ववर्ष है, और पश्चिम में केतुमालवर्ष है। इन दोनों के बीच में इलावृतवर्ष है। इस प्रकार उसके पूर्व की ओर चैत्ररथ , दक्षिण की ओर गन्धमादन, पश्चिम की ओर वैभ्राज और उत्तर की ओर नन्दन नामक वन हैं। तथा सदा देवताओं से सेवनीय अरुणोद, महाभद्र, असितोद और मानस – ये चार सरोवर हैं।


मेरु के पूर्व में


शीताम्भ, 

कुमुद, 

कुररी, 

माल्यवान, 

वैवंक आदि पर्वत हैं।


मेरु के दक्षिण में


त्रिकूट, 

शिशिर, 

पतंग, 

रुचक 

और निषाद आदि पर्वत हैं।


मेरु के उत्तर में


शंखकूट, 

ऋषभ, 

हंस,

नाग 

और कालंज पर्वत हैं।


समुद्र के उत्तर तथा हिमालय के दक्षिण में भारतवर्ष स्थित है। इसका विस्तार नौ हजार योजन है। यह स्वर्ग अपवर्ग प्राप्त कराने वाली कर्मभूमि है। इसमें सात कुलपर्वत हैं: महेन्द्र, मलय, सह्य, शुक्तिमान, ऋक्ष, विंध्य और पारियात्र ।


भारतवर्ष के नौ भाग हैं: 


इन्द्रद्वीप, 

कसेरु, 

ताम्रपर्ण, 

गभस्तिमान, 

नागद्वीप, 

सौम्य, 

गन्धर्व 

और वारुण, तथा यह समुद्र से घिरा हुआ द्वीप उनमें नवां है।


यह द्वीप उत्तर से दक्षिण तक सहस्र योजन है। यहाँ चारों वर्णों के लोग मध्य में रहते हैं। शतद्रू और चंद्रभागा आदि नदियां हिमालय से, वेद और स्मृति आदि पारियात्र से, नर्मदा और सुरसा आदि विंध्याचल से, तापी, पयोष्णी और निर्विन्ध्या आदि ऋक्ष्यगिरि से निकली हैं। गोदावरी, भीमरथी, कृष्णवेणी, सह्य पर्वत से; कृतमाला और ताम्रपर्णी आदि मलयाचल से, त्रिसामा और आर्यकुल्या आदि महेन्द्रगिरि से तथा ऋषिकुल्या एवंकुमारी आदि नदियां शुक्तिमान पर्वत से निकलीं हैं। इनकी और सहस्रों शाखाएं और उपनदियां हैं।


इन नदियों के तटों पर कुरु, पांचाल, मध्याअदि देशों के; पूर्व देश और कामरूप के; पुण्ड्र, कलिंग, मगध और दक्षिणात्य लोग, अपरान्तदेशवासी, सौराष्ट्रगण, तहा शूर, आभीर एवं अर्बुदगण, कारूष, मालव और पारियात्र निवासी; सौवीर, सन्धव, हूण; शाल्व, कोशल देश के निवासी तथा मद्र, आराम, अम्बष्ठ और पारसी गण रहते हैं। भारतवर्ष में ही चारों युग हैं, अन्यत्र कहीं नहीं। इस जम्बूद्वीप को बाहर से लाख योजन वाले खारे पानी के वलयाकार समुद्र ने चारों ओर से घेरा हुआ है। जम्बूद्वीप का विस्तार एक लाख योजन है।


प्लक्षद्वीप का वर्णन -


प्लक्षद्वीप का विस्तार जम्बूद्वीप से दुगुना है। यहां बीच में एक विशाल प्लक्ष वृक्ष लगा हुआ है। यहां के स्वामि मेधातिथि के सात पुत्र हुए हैं। ये थे:

शान्तहय, 

शिशिर, 

सुखोदय, 

आनंद, 

शिव,

क्षेमक, 

ध्रुव ।


यहां इस द्वीप के भी भारतवर्ष की भांति ही सात पुत्रों में सात भाग बांटे गये, जो उन्हीं के नामों पर रखे गये थे: शान्तहयवर्ष, इत्यादि।


इनकी मर्यादा निश्चित करने वाले सात पर्वत हैं: 


गोमेद, 

चंद्र, 

नारद, 

दुन्दुभि, 

सोमक, 

सुमना 

और वैभ्राज।


इन वर्षों की सात ही समुद्रगामिनी नदियां हैं अनुतप्ता, शिखि, विपाशा, त्रिदिवा, अक्लमा, अमृता और सुकृता। इनके अलावा सहस्रों छोटे छोटे पर्वत और नदियां हैं। इन लोगों में ना तो वृद्धि ना ही ह्रास होता है। सदा त्रेतायुग समान रहता है। यहां चार जातियां आर्यक, कुरुर, विदिश्य और भावी क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र हैं। यहीं जम्बू वृक्ष के परिमाण वाला एक प्लक्ष (पाकड़) वृक्ष है। इसी के ऊपर इस द्वीप का नाम पड़ा है।


प्लक्षद्वीप अपने ही परिमाण वाले इक्षुरस के सागर से घिरा हुआ है।


शाल्मल द्वीप का वर्णन


इस द्वीप के स्वामि वीरवर वपुष्मान थे। इनके सात पुत्रों : 

श्वेत, 

हरित, 

जीमूत, 

रोहित, 

वैद्युत, 

मानस 

और सुप्रभ के नाम संज्ञानुसार ही इसके सात भागों के नाम हैं। इक्षुरस सागर अपने से दूने विस्तार वाले शाल्मल द्वीप से चारों ओर से घिरा हुआ है। यहां भी सात पर्वत, सात मुख्य नदियां और सात ही वर्ष हैं।


इसमें महाद्वीप में 

कुमुद, 

उन्नत, 

बलाहक, 

द्रोणाचल, 

कंक, 

महिष, 

ककुद्मान नामक सात पर्वत हैं।


इस महाद्वीप में -

योनि, 

तोया, 

वितृष्णा, 

चंद्रा, 

विमुक्ता, 

विमोचनी 

एवं निवृत्ति नामक सात नदियां हैं।


यहाँ - 

श्वेत, 

हरित, 

जीमूत, 

रोहित, 

वैद्युत, 

मानस 

और सुप्रभ नामक सात वर्ष हैं। 


यहां - 

कपिल, 

अरुण, 

पीत

और कृष्ण नामक चार वर्ण हैं। 


यहां शाल्मल (सेमल) का अति विशाल वृक्ष है। यह महाद्वीप अपने से दुगुने विस्तार वाले सुरासमुद्र से चारों ओर से घिरा हुआ है।


कुश द्वीप का वर्णन


इस द्वीप के स्वामि वीरवर ज्योतिष्मान थे। 


इनके सात पुत्रों : 

उद्भिद, 

वेणुमान, 

वैरथ, 

लम्बन, 

धृति, 

प्रभाकर,

कपिल


इनके नाम संज्ञानुसार ही इसके सात भागों के नाम हैं। मदिरा सागर अपने से दूने विस्तार वाले कुश द्वीप से चारों ओर से घिरा हुआ है। यहां भी सात पर्वत, सात मुख्य नदियां और सात ही वर्ष हैं।


पर्वत -

विद्रुम, 

हेमशौल, 

द्युतिमान, 

पुष्पवान, 

कुशेशय, 

हरि 

और मन्दराचल नामक सात पर्वत हैं।


नदियां -


धूतपापा, 

शिवा, 

पवित्रा, 

सम्मति, 

विद्युत, 

अम्भा

और मही नामक सात नदियां हैं।


सात वर्ष - 


उद्भिद, 

वेणुमान,

वैरथ, 

लम्बन, 

धृति, 

प्रभाकर, 

कपिल नामक सात वर्ष हैं। 


वर्ण - 


दमी, 

शुष्मी, 

स्नेह 

और मन्देह नामक चार वर्ण हैं। 


यहां कुश का अति विशाल वृक्ष है। यह महाद्वीप अपने ही बराबर के द्रव्य से भरे समुद्र से चारों ओर से घिरा हुआ है।


क्रौंच द्वीप का वर्णन - 


इस द्वीप के स्वामि वीरवर द्युतिमान थे। 


इनके सात पुत्रों : 


कुशल, 

मन्दग, 

उष्ण, 

पीवर, 

अन्धकारक, 

मुनि 

और दुन्दुभि के नाम संज्ञानुसार ही इसके सात भागों के नाम हैं। यहां भी सात पर्वत, सात मुख्य नदियां और सात ही वर्ष हैं।


पर्वत -


क्रौंच, 

वामन, 

अन्धकारक, 

घोड़ी के मुख समान रत्नमय स्वाहिनी पर्वत, 

दिवावृत, 

पुण्डरीकवान, 

महापर्वत 

दुन्दुभि नामक सात पर्वत हैं।


नदियां -


गौरी, 

कुमुद्वती, 

सन्ध्या, 

रात्रि, 

मनिजवा, 

क्षांति 

और पुण्डरीका नामक सात नदियां हैं।


सात वर्ष -


कुशल, 

मन्दग, 

उष्ण, 

पीवर, 

अन्धकारक, 

मुनि और 

दुन्दुभि ।


वर्ण -


पुष्कर, 

पुष्कल, 

धन्य 

और तिष्य नामक चार वर्ण हैं। 


यह द्वीप अपने ही बराबर के द्रव्य से भरे समुद्र से चारों ओर से घिरा हुआ है। यह सागर अपने से दुगुने विस्तार वाले शाक द्वीप से घिरा है।


शाकद्वीप का वर्णन - 


इस द्वीप के स्वामि भव्य वीरवर थे।


इनके सात पुत्रों : 


जलद, 

कुमार, 

सुकुमार, 

मरीचक,

कुसुमोद, 

मौदाकि 

और महाद्रुम के नाम संज्ञानुसार ही इसके सात भागों के नाम हैं। 


यहां भी सात पर्वत, सात मुख्य नदियां और सात ही वर्ष हैं।


पर्वत - 


उदयाचल, 

जलाधार, 

रैवतक, 

श्याम, 

अस्ताचल, 

आम्बिकेय 

और अतिसुरम्य गिरिराज केसरी नामक सात पर्वत हैं।


नदियां - 


सुमुमरी, 

कुमारी, 

नलिनी, 

धेनुका, 

इक्षु, 

वेणुका 

और गभस्ती नामक सात नदियां हैं।


सात वर्ष -


जलद, 

कुमार, 

सुकुमार, 

मरीचक, 

कुसुमोद, 

मौदाकि 

और महाद्रुम । 


वर्ण - 


वंग, 

मागध, 

मानस 

और मंगद नामक चार वर्ण हैं।


यहां अति महान शाक वृक्ष है, जिसके वायु के स्पर्श करने से हृदय में परम आह्लाद उत्पन्न होता है। यह द्वीप अपने ही बराबर के द्रव्य से भरे समुद्र से चारों ओर से घिरा हुआ है। यह सागर अपने से दुगुने विस्तार वाले पुष्कर द्वीप से घिरा है।


पुष्करद्वीप का वर्णन -


इस द्वीप के स्वामि सवन थे।


इनके दो पुत्र थे: 


महावीर 

और धातकि। 


यहां एक ही पर्वत और दो ही वर्ष हैं।


पर्वत -


मानसोत्तर नामक एक ही वर्ष पर्वत है। यह वर्ष के मध्य में स्थित है । यह पचास हजार योजन ऊंचा और इतना ही सब ओर से गोलाकार फ़ैला हुआ है। इससे दोनों वर्ष विभक्त होते हैं, और वलयाकार ही रहते हैं।


नदियां -

यहां कोई नदियां या छोटे पर्वत नहीं हैं।


वर्ष - 


महवीर खण्ड 

और धातकि खण्ड। 


महावीरखण्ड वर्ष पर्वत के बाहर की ओर है, और बीच में धातकिवर्ष है । 


वर्ण - 


वंग, 

मागध, 

मानस 

और मंगद नामक चार वर्ण हैं।


यहां अति महान न्यग्रोध (वट) वृक्ष है, जो ब्रह्मा जी का निवासस्थान है यह द्वीप अपने ही बराबर के मीठे पानी से भरे समुद्र से चारों ओर से घिरा हुआ है।


समुद्रो का वर्णन -


यह सभी सागर सदा समान जल राशि से भरे रहते हैं, इनमें कभी कम या अधिक नही होता। हां चंद्रमा की कलाओं के साथ साथ जल बढ़्ता या घटता है। (ज्वार-भाटा) यह जल वृद्धि और क्षय 510 अंगुल तक देखे गये हैं।


पुष्कर द्वीप को घेरे मीठे जल के सागर के पार उससे दूनी सुवर्णमयी भूमि दिल्खायी देती है। वहां दस सहस्र योजन वाले लोक-आलोक पर्वत हैं। यह पर्वत ऊंचाई में भी उतने ही सहस्र योजन है। उसके आगे पृथ्वी को चारों ओर से घेरे हुए घोर अन्धकार छाया हुआ है। यह अन्धकार चारों ओर से ब्रह्माण्ड कटाह से आवृत्त है। (अन्तरिक्ष) अण्ड-कटाह सहित सभी द्वीपों को मिलाकर समस्त भू-मण्डल का परिमाण पचास करोड़ योजन है। (सम्पूर्ण व्यास)


आधुनिक नामों की दृष्टी से विष्णु पुराण का सन्दर्भ देंखे तो... हमें कई समानताएं सिर्फ विश्व का नक्शा देखने भर से मिल जायेंगी...

१. विष्णु पुराण में पारसीक - ईरान को कहा गया है,

२. गांधार वर्तमान अफगानिस्तान था, 

३. महामेरु की सीमा चीन तथा रशिया को घेरे है.

४. निषध को आज अलास्का कहा जाता है.

५. प्लाक्ष्द्वीप को आज यूरोप के नाम से जाना जाता है.

६. हरिवर्ष की सीमा आज के जापान को घेरे थी.

७. उत्तरा कुरव की स्तिथि को देंखे तो ये फ़िनलैंड प्रतीत होता है.

इसी प्रकार विष्णु पुराण को पढ़कर विश्व का एक सनातनी मानचित्र तैयार किया जा सकता है... ये थी हमारे ऋषियों की महानता। - 


अंत में एक बात और - महाभारत में पृथ्वी का पूरा मानचित्र हजारों वर्ष पूर्व ही दे दिया गया था। 


महाभारत में कहा गया है कि - यह पृथ्वी चन्द्रमंडल में देखने पर दो अंशों मे खरगोश तथा अन्य दो अंशों में पिप्पल (पत्तों) के रुप में दिखायी देती है- 


उक्त मानचित्र ११वीं शताब्दी में रामानुजचार्य द्वारा महाभारत के निम्नलिखित श्लोक को पढ्ने के बाद बनाया गया था- 


"सुदर्शनं प्रवक्ष्यामि द्वीपं तु कुरुनन्दन। 

परिमण्डलो महाराज द्वीपोऽसौ चक्रसंस्थितः॥ 

यथा हि पुरुषः पश्येदादर्शे मुखमात्मनः। 

एवं सुदर्शनद्वीपो दृश्यते चन्द्रमण्डले॥ 

द्विरंशे पिप्पलस्तत्र द्विरंशे च शशो महान्।c


"अर्थात हे कुरुनन्दन ! सुदर्शन नामक यह द्वीप चक्र की भाँति गोलाकार स्थित है, जैसे पुरुष दर्पण में अपना मुख देखता है, उसी प्रकार यह द्वीप चन्द्रमण्डल में दिखायी देता है। इसके दो अंशो मे पिप्पल और दो अंशो मे महान शश(खरगोश) दिखायी देता है।"


अब यदि उपरोक्त संरचना को कागज पर बनाकर व्यवस्थित करे तो हमारी पृथ्वी का मानचित्र बन जाता है, जो हमारी पृथ्वी के वास्तविक मानचित्र से शत प्रतिशत समानता दिखाता है।

महाभारत क़ो नये तरीके से देखने की पहल /पवन विजय

 सिनौली के प्रमाणों के उजाले में महाभारत को देखने का प्रयास कर रहे पुरातत्वविदों को महादेव ने एक और सत्य से परिचित कराया। मेरठ में जानी खुर्द रसूलपुर धौलडी गाँव में स्थित शिवलिंग पर जो लिपि मिली है उसे पढ़ने की कोशिश में यह बताया जा रहा है कि लिपि ईसापूर्व की है। यह तथ्य उन धूर्त वामियों के मुंह पर जोरदार तमाचा है जो कहते थे कि भारत मे लेखन की परंपरा का कोई प्रमाण नही मिलता है। जो मृदभांडों के सहारे ही इतिहास की मनगढ़ंत और सुविधाजनक व्याख्या करते आ रहे उनसे पूछा जाना चाहिए कि उन्होंने  श्रुत परंपरा को साक्षर भारत की परंपरा होने से क्यों इनकार किया। अब लेखन के प्रमाण आ रहे हैं तो क्या वे लोग अपने कृत्यों और ऊल जलूल लेखन के लिए क्षमा मांगेंगे। 


मेरठ का पुराना नाम मयराष्ट्र था जिसे मंदोदरी के पिता दानवराज मय ने बनाया बसाया था।  मय के उत्तराधिकारियों को भी मय ही कहा गया उन्ही मय के द्वारा इंद्रप्रस्थ का निर्माण किया गया था। वहीं  एक जगह है बरनावा जहां पर मोम के बने जले आवासों  के प्रमाण मिले हैं यह वही जगह है जिसे महाभारत में वारणावत कहा गया है जहां पुरोचन ने पांडवों को मारने के लिए लाख का घर बनाया और बाद में उसे जला दिया था। किंतु कामरेडों ने मेरठ की पहचान आलमगीरपुरी सभ्यता को जोड़कर बड़ी चालाकी से महाभारतकालीन प्रमाणों को छिपाने का काम किया। 


जाने कितने कुहासे अभी और छंटेंगे। देवासुर संग्राम को मूल निवासी बनाम बाहरी आर्य बताने वालों ने खूब प्रयत्न किए कि सत्य बाहर न आये। सिनौली के उत्खनन को 2005 में रोक दिया पर आभार मोदी जी का और योगी जी का कि उन्होंने इस कार्य को पुनः शुरू करवाया है। हम आशान्वित हैं कि यह बात निश्चित रूप से स्थापित होगी कि मोहनजोदारो की सभ्यता नागवंशियों की सभ्यता के रूप में प्रमाणित होगी। तक्षशिला वही जगह है जो तक्षक की राजधानी हुआ करती थीऔर नागों व महाराज परीक्षित के संघर्ष का प्रमाण है।


मेरठ, नाम बदल गया पर मिट्टी नही बदली। जिस मिट्टी को मय ने सजाया संवारा, जिस मिट्टी को स्वयं विश्वामित्र ने शिव की उपासना हेतु चुना उस मिट्टी पर सिंधु घाटी सभ्यता का आखिरी छोर होने का आवरण डाल कर छद्म  इतिहासकारों ने इति श्री कर दी लेकिन उन्हें यह पता नही कि सत्य पर आवरण पड़ सकता है किंतु उसे नष्ट कभी नही किया जा सकता। 


अंधेरा छंटेगा, सूरज निकलेगा और सत्य का कमल विकसित , विलसित होगा।

पवन विजय

संविधान की प्रस्तावना की व्याख्या*

 *आप सभी को गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं*

26 जनवरी 2022 गणतंत्र दिवस के अवसर पर    

        


प्रस्तावना किसी भी संविधान का महत्वपूर्ण अध्याय (भाग) होता है! प्रस्तावना में संविधान निर्माताओं का विजन (दर्शन)होता है, तथा साथ ही सविंधान के लक्ष्यों और उद्देश्यों का वर्णन होता है। इसलिए प्रस्तावना को उदेशिका भी कहा जाता है।प्रस्तावना में संविधान निर्माताओं का राष्ट्र निर्माण के प्रति दृष्टिकोण,समाज निर्माण के प्रति दृष्टिकोण,तथा नागरिक निर्माण के प्रति दृष्टिकोण परिलक्षित होता है।भारतीय संविधान में संविधान निर्माताओं की इसी तरह की दृष्टि देखने को मिलती है।

(1) *हम भारत के लोग*:- भारतीय संविधान की शुरुआत "हम भारत के लोग" शब्दों से होती है!अमेरिका संविधान की शुरुआत भी "we the people of United State of America" शब्दों से होती है। जिसका अर्थ है भारतीय संविधान का निर्माण भारत की जनता ने किया है सर्वोच्च शक्ति जनता के हाथों में है किसी व्यक्ति या संस्था के हाथों में नहीं।जनता ही अंतिम सकती है।

(2) *संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न* :-प्रभुसत्ता वह शक्ति है जो किसी भी राष्ट्र को राज्य बनाती है। जब एक देश अपने आंतरिक (घरेलू )व बाह्य (विदेशी) मामलों में स्वतंत्र होता है तो वह प्रभुत्व संपन्न होता है। जिस पर किसी बाहरी शक्ति का कोई हस्तक्षेप नहीं होता।15 अगस्त 1947 से पहले भारत न तो अपने आंतरिक मामलों में एवं न बाहरी मामलों में स्वतंत्रत था। बल्कि अंग्रेजी साम्राज्य का एक अंग (उपनिवेश) मात्र था।भारत एक राष्ट्र तो था परंतु राज्य नही।

(3) *समाजवादी* :-समाजवादी राज्य वह राज्य होता है जहां किसी एक व्यक्ति या वर्ग का या कुछ व्यक्तियों के कल्याण के लिए कार्य न होकर संपूर्ण समाज के कल्याण के लिए कार्य होता है। व्यक्ति प्रधान नहीं होता बल्कि समाज प्रधान होता है। स्वतंत्रता के बाद बहुत सी संस्थाओं का राष्ट्रीयकरण किया गया ताकि ज्यादा से ज्यादा जनता का कल्याण किया जा सके।1969 में 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण तथा 1980 में 6 बैंकों का राष्ट्रीयकरण इसी दिशा में कदम था।

(4) *पंथनिरपेक्षता*:-42 वें संविधान संशोधन 1976 द्वारा पंथनिरपेक्ष शब्द भारतीय संविधान की प्रस्तावना में जोड़ा गया।भारतीय परिपेक्ष में पंथनिरपेक्ष का अर्थ है राज्य का कोई धर्म नहीं होगा।संविधान राज्य की शक्तियों और धर्म को मिलाने(mixing) की छूट नहीं देगा। जिसका अर्थ है धर्म के आधार पर किसी भी व्यक्ति के साथ कोई भेदभाव नहीं होगा।देश के सभी नागरिकों को किसी भी धर्म को अपनाने या किसी भी धर्म को न अपनाने,उसकी उपासना करने या न करने,उपासना के तरीकों को अपनाने तथा प्रचार की स्वतंत्रता होगी।राज्य किसी भी प्रकार की सहायता करते समय नागरिकों से धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा।धर्म नागरिकों का निजी मसला होगा।

(5) *लोकतंत्रात्मक*:- लोकतंत्र का अर्थ है जनता का शासन (लोक-जनता, तंत्र-शासन)अर्थात जिस देश में जनता द्वारा चुनी हुई सरकार हो उसे लोकतंत्र कहते हैं। अब्राहम लिंकन के शब्दों में जनता का,जनता के लिए,जनता द्वारा शासन,ही लोकतंत्र है। लोकतंत्र में एक निश्चित समय के बाद चुनाव द्वारा सरकार बदल दी जाती हैं।उसका चुनाव होता है। भारत में यह अवधि 5 वर्ष है।एक सच्चे लोकतंत्र में न केवल जनता द्वारा चुनी हुई सरकार होनी चाहिए बल्कि सरकार का रवैया भी जनतंत्रवादी होना चाहिए। वरना लोकतंत्र तंत्र भीड़ तंत्र में बदल जाएगा।जागरूक जनता(जनमत) ही लोकतंत्र की रक्षा कर सकती है।

(6) *गणतंत्रात्मक* :- जिस देश का मुखिया जनता द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से सुना हुआ हो उसे गणतंत्र कहते हैं।भारत का राष्ट्रपति जो कि देश का मुखिया है अप्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित होता है। 26 जनवरी (गणतंत्र दिवस) केवल इसलिए नहीं मनाया जाता कि उस दिन हमारे देश का संविधान लागू हुआ था बल्कि उस दिन हम गणतंत्र भी हुए थे।अर्थात नागरिकों को देश के मुखिया को चुनने का अधिकार भी प्राप्त हुआ था।प्रत्येक गण तांत्रिक देश लोकतांत्रिक होता है, परंतु प्रत्येक लोकतांत्रिक देश गणतंत्र हो ऐसा आवश्यक नहीं। इंग्लैंड और जापान लोकतांत्रिक देश है परंतु गणतांत्रिक नहीं क्योंकि दोनों देशों के मुखिया वंश परंपरा के तहत एक परिवार से आते हैं, चुने नहीं जाते जिसे राजतंत्र कहते हैं।

(7) *सामाजिक न्याय* :-सामाजिक न्याय में देश के नागरिकों से किसी भी आधार पर भेदभाव (जैसे जाति,धर्म,क्षेत्र, लिंग,स्तर इत्यादि) नहीं किया जाता। समाज के कमजोर वर्गों को विशेष सुविधाएं देकर सामाजिक सुरक्षा के तहत समाज के दूसरे वर्गों के बराबर लाने के प्रयास किए जाते हैं, ताकि उनका सामाजिक उत्पीड़न न किया जा सके। किसी को भी विशेष अधिकार नहीं दिए जाते।

(8) *आर्थिक न्याय* :-आर्थिक न्याय से अभिप्राय देश के प्रत्येक नागरिक को भूख और अभाव से छुटकारा दिलाना है। प्रत्येक नागरिक की मूलभूत आवश्यकताओं (रोटी,कपड़ा, मकान,चिकित्सा,शिक्षा) की पूर्ति राज्य द्वारा की जाती है।नागरिकों का आर्थिक शोषण नहीं होता। सभी लोगों को काम की उचित मजदूरी दी जाती है। वंचित तबकों के साथ-साथ बेकारी, बुढ़ापा, विकलांगता की स्थिति में आर्थिक सुरक्षा के तहत राज्य द्वारा सहायता दी जाती है।धन का संचय मुट्ठी भर लोगों के हाथ में नए होता और समान काम के लिए समान वेतन दिया जाता है व्यक्ति की न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति की जाती है। न्यूनतम और अधिकतम आय के अंतर को कम किया जाता है।

(9) *राजनीतिक न्याय* :-देश के समस्त नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के देश के शासन कार्यों में भाग लेने के अधिकार को राजनीतिक न्याय कहते हैं। इनमें मुख्यत: शामिल है ((वोट देने का अधिकार(2) चुनाव लड़ने का अधिकार(3) सरकारी पद प्राप्त करने का अधिकार (4)सरकार की आलोचना करने का अधिकार(5) प्रार्थना पत्र देने का अधिकार इत्यादि। इस तरह के अधिकार केवल लोकतांत्रिक व्यवस्था में मिलते हैं तानाशाही में नहीं। परंतु राजनीतिक नयाय की वास्तविक प्राप्ति तभी होती है जब आर्थिक न्याय हो।आर्थिक न्याय के अभाव में राजनीतिक न्याय केवल कल्पना मात्र है।

(10) *विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता*:- संविधान ने देश के नागरिकों को भाषण देने और अपने विचार लिखकर या छपवा कर प्रकट करने की स्वतंत्रता दी है ।समाचार पत्रों की स्वतंत्रता (प्रिंट मीडिया तथा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया) भी इसमें शामिल है। इसी अधिकार को मौलिक अधिकारों के अध्याय 19(1)  में शामिल किया गया है)स्वस्थ जनमत के निर्माण के लिए और सरकारों पर अंकुश लगाने के लिए यह अधिकार आवश्यक है। सरकार चाहे तानाशाही हो या लोकतांत्रिक हो इस अधिकार से सबसे ज्यादा भयभीत होती हैं।

(11) *विश्वास धर्म और उपासना की स्वतंत्रता*:- संविधान ने नागरिकों को यह स्वतंत्रता दी है कि वे किसी भी विचारधारा में विश्वास रख सकते हैं। चाहे वे समाजवादी,पूंजीवादी या अन्य किसी विचारधारा में विश्वास करें। वे किसी भी इष्ट देवता, धर्म ,पूजा पद्धति में विश्वास रख सकते हैं या नहीं रख सकते हैं,और उसे अपना सकते हैं।विस्तृत विवरण के लिए ऊपर पंथनिरपेक्षता का अध्याय देखें।

(12) *प्रतिष्ठा और अवसर की समता* :-प्रतिष्ठा की समता से अभिप्राय है सविधान के अनुसार प्रत्येक नागरिक सममान है( चाहे वह अमीर हो, गरीब हो, किसी भी जाति, धर्म या समुदाय से संबंधित हो)।प्रत्येक को पूरी गरिमा (गौरव, शान) से जीने की आजादी है किसी को भी किसी की मानहानि करने का अधिकार नहीं है।

 अवसर की समता से अभिप्राय प्रत्येक नागरिक को बराबर अवसर प्रदान करना है। संविधान के अनुसार शिक्षा के अवसरों तथा नियुक्ति के अवसरों में  किसी के साथ भेदभाव नहीं किया जाएगा। नागरिकों की नियुक्ति का आधार योग्यता होगी पहचान नहीं।

(13) *व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता व अखंडता*:- संविधान द्वारा प्रत्येक नागरिक की गरिमा (प्रतिष्ठा, गौरव) कायम रखी जाएगी और इस तरह का वातावरण तैयार किया जाएगा जिससे नागरिकों में भाईचारा (बंधुता) बना रहे। जिससे देश की एकता और अखंडता सुनिश्चिते की जा सके

      26 नंबवर 1949 को सविधानसभा में इस संविधान को स्वीकृत (अंगीकृत) कानून बनाकर (अधिनियमित )स्वयं को इस के सम्मुख समर्पित (आत्मार्पित) करते हैं।


बुधवार, 26 जनवरी 2022

कैसा भी कैंसर रोग हो, उसका 🎯अचूक इलाज*





🐮 *सुबह बिना ब्रश किए 10 ग्राम गोझरण अर्क और 10 ग्राम पानी मिलाकर मुंह में घुमाये और घूंट को अंदर पी ले l  मुंह की लार के और गोझरण अर्क से कैंसर के कीटाणु मरेंगे l*


🍃 *दोपहर को और शाम को सूर्यास्त से पहले*  ⤵️

50- 60 तुलसी के पत्तों से   *20 ग्राम तुलसी का रस निकाल लें  l और 50 ग्राम दही  साथ में दें l*


दिन में दो बार तुलसी का रस और दही कैंसर के कीटाणुओं को मार देगा l 


*०००००००००००००००००*


📒 *ऋषिप्रसाद, सितम्बर 2015 से भी* 👇👇


1️⃣🦀 *कैंसर का अनुभूत उपाय* 


🌿🌺 *कैंसर के रोगी को 10 ग्राम तुलसी का रस तथा 10 ग्राम शहद मिलाकर सुबह-दोपहर-शाम देने से अथवा 10* ग्राम • तुलसी का रस एवं 50 ग्राम ताजा दही (खट्टा नहीं) देने से उसे राहत मिलती है। एक-एक घंटे के अंतर से दो-दो तुलसी के पत्ते भी मुँह में रखकर चूसते रहें।


🌿🌺 *सुबह-दोपहर-शाम दही व तुलसी का रस कैंसर मिटा देता है (सूर्यास्त के बाद दही नहीं खाना* चाहिए)। 'वज्र रसायन' की आधी गोली दिन में 2 बार लें।


🪴🌺 *🍋नींबू के छिलके चाकू से निकाल के उनके छोटे-छोटे टुकड़े कर लें। अथवा नींबू को फ्रीजर में रखें और* सख्त हो जाने पर उसके छिलके को कद्दूकश कर लें। 


🪴🌺 *उन टुकड़ों या कद्दूकस किये छिलकों को दाल, सब्जी, सलाद, सूप आदि खाद्य पदार्थों में मिला के नियमित सेवन करने से कैंसर रोग में लाभ होता है ।*


 1 दिन के लिए 1 नींबू का छिलका पर्याप्त है।


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पुराणों में भारतवर्ष की महिमा - /प्रो. कुसुमलता केडिया

 


ये पृथ्वी सप्तद्वीपा है । इनके नाम हैं - जम्बूद्वीप, प्लक्षद्वीप, शाल्मलिद्वीप, कुशद्वीप, क्रौंचद्वीप, शाकद्वीप, तथा पुष्करद्वीप । सातों द्वीपों के मध्य जम्बूद्वीप है । जम्बूद्वीप के अधिपति महाराज आग्नीध्र के नौ पुत्र हुए - जिनके नाम थे - नाभि, किम्पुरूष, हरिवर्ष, इलावृत, रम्यक, हिरण्मय, कुरू, भद्राश्व और केतुमाल । राजा आग्नीध्र ने जम्बूद्वीप के नौ खंड कर अपने प्रत्येक नौ पुत्रों को वहाँ का राजा  बनाया । इन खंड़ो का विस्तार नौ नौ हजार योजन बताया गया है । इन्हीं पुत्रों के नाम से नौ वर्ष (अर्थात् खंड ) प्रसिद्ध हुये ।


    राजा नाभि के नाम से ही एक वर्ष अर्थात् एक खंड का नाम अजनाभ वर्ष हुआ । राजा नाभि एवं उनकी पत्नी मेरूदेवी के एक पुत्र थे जिनका नाम था ऋषभदेव । ऋषभेदव जी के सबसे बड़े पुत्र का नाम था भरत ।


राजा भरत

वे अत्यंत प्रतापी तथा धर्मात्मा थे, अतः अजनाभ वर्ष का नाम हो गया  भारतवर्ष ।


‘‘अजनाभं नामऐतद्भारात्वर्षं भारतमिति ।’’


क्या पृथ्वी का यही खंड जहाँ हम लोग रहते हैं , भारतवर्ष है ? इसका प्रमाण क्या है ?


शास्त्रों में बताया गया है की भारतवर्ष में नर-नारायण हैं | इसी भारतवर्ष में भगवान श्रीहरि नर-नारायण रूप में है । केदारनाथ, बद्रीनाथ के रास्ते में दो पर्वत नर और नारायण हैं ऐसा माना जाता है कि देवर्षि नारद जी भगवान की आराधना नर-नारायण के रूप में करते हैं ।

नर और नारायण पर्वत


विष्णु पुराण में भी भारतवर्ष की स्थिति के बारे में बताया गया है - 

उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेष्चैव दक्षिणम् ।

वर्शं तद् भारतं नाम भारती यत्र संततिः ।।

    ऐसा भूखण्ड जो समुद्र के उत्तर तथा हिमालय से दक्षिण में स्थित है वही भारतवर्ष है और वहीं पर चक्रवर्ती भरत जी की संतति निवास करती है ।पुराणों के आधार पर इस  भारतवर्ष का विस्तार 9000 योजन माना जाता है । एक योजन में 9 मील माना जाता है । अतः भारतवर्ष का विस्तार 81000 मील माना जा सकता है ।

भारतवर्ष अन्य वर्षों से श्रेष्ठ है क्यों कि यह कर्म भूमि है तथा अन्य वर्ष भोग भूमियाँ हैं -


‘यतो हि कर्मभूरेशा ह्यतो न्या भोगभूमयः’ (विष्णुपुराण) ।


ऐसा कहा जाता है कि मानव भगवान की सुन्दरतम रचना है और मानव को स्वतंत्रता है कर्मों को करने की । अच्छे कर्मों के द्वारा मानव अपना उद्धार कर सकता है । ऐसी स्वतंत्रता देवताओं को भी प्राप्त नहीं है क्योंकि वह भोगयोनि है । परंतु मनुष्यों में भी भारतवर्ष में जन्म लेने वाले को ही ऐसी स्वतंत्रता प्राप्त है क्योंकि भारतवर्ष कर्मभूमि है तथा अन्य वर्ष भोगभूमि है । यही कारण है कि पृथ्वी पर भारतवर्ष के अतिरिक्त कहीं भी कर्म विधि नहीं है । उसका विधान हमारे वर्णाश्रम व्यवस्था में है । वर्णाश्रम व्यवस्था सनातन धर्म का मूल है । सभी वर्णांे तथा आश्रमों में पूर्णतया प्रतिष्ठित मनुष्य जीवन के सर्वोत्तम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त करने का अधिकारी होता है । यहाँ पर पैदा होने वाले मनुष्य अपने-अपने कर्मों के आधार पर स्वर्ग तथा अपवर्ग प्राप्त कर सकते हैं । इसलिए संसार के किसी अन्य धर्मों में वर्णाश्रम व्यवस्था का विधान नहीं है । अन्य धर्म भोग को बढ़ावा देता है परंतु सनातन धर्म योग को बढावा देता है । अतः भारतवर्ष में पैदा होने वाले प्राणी अन्य जगहों पर पैदा होने वालों से अधिक प्रबुद्ध होता है । भारतवर्ष का कण-कण ऊर्जा से भरा हुआ तीर्थ है जिसने भी भारतवर्ष की पदयात्रा की है उन्हें नई ऊर्जा तथा दिषा मिली है । पाण्डवों ने भारतवर्ष की पदयात्रा की थी वनवास काल में तभी उन्हें नई ऊर्जा मिली और धर्मराज्य की स्थापना हुई । भगवान राम ने भी वनवास काल में भारतवर्ष की पदयात्रा की तभी वह रामराज्य स्थापित करने में सफल रहें । आदिशंकराचार्य ने भारतवर्ष की पदयात्रा कर दिग्विजय किया और भारतवर्ष के एकता के सूत्र को और भी मजबूत किया । वर्तमान काल में भी महात्मा गांधी ने पूरे भारतवर्ष की पदयात्रा की तभी वे ब्रिटिश साम्राज्य का नाश कर पाये ।


 भारतवर्ष अपने आप में तीर्थ है जिस तरह तीर्थस्थानों की परिक्रमा से नई ऊर्जा मिलती है उसी तरह भारतवर्ष की परिक्रमा से भी नई ऊर्जा मिलती है । ये स्वयं प्रमाणित है ।  आप यहाँ पर किसी से भी भाग्य, भगवान, आत्मा, परमात्मा के बारे में बातें करके देख सकते हैं सभी के पास कुछ-न-कुछ अपने विचार होते हैं और वे विचार हमारे किसी-न-किसी शास्त्र में वर्णित होते हैं । हलाँकि वे उन शास्त्रों से हो सकता है अवगत नही हों । इसलिये यहाँ पर मनुष्य ही नहीं देवता भी जन्म लेकर यज्ञ यागादि अच्छे कर्मों के द्वारा पुण्य अर्जित कर अच्छे लोकों में जाना चाहते हैं । हमारे सनातन धर्म में ही भगवान के अवतार लेने की बात है । अन्य धर्मों मे नहीं क्योंकि सनातन धर्म भारतवर्ष में ही प्रचलित है और यह भारतवर्ष योगभूमि है । अतः यहाँ पर नये  कर्म किये जा सकते है और अन्य खण्डों में नये कर्म नहीं हो सकते है - केवल पुरातन कर्मों का भोग ही हो सकता है । अतः देवगण भी यही गान करते हैं -

गायन्ति देवाः किल गीतकानि

धन्यास्ते तु भारतभूमि भागे।

स्वर्गापवर्गास्पदमार्गभूते

भवन्ति भूयः पुरुषाः सुरत्वात् ।।

  (श्रीविष्णुपुराण 2/3/24)

     

    अर्थात् जिन्होंने स्वर्ग और अपवर्ग के मार्गभूत भारतवर्ष में जन्म लिया है, वे पुरुष हम देवताओं की अपेक्षा भी अधिक धन्य हैं ।


हिंदू संसार में सबसे अधिक राष्ट्र प्रेमी  और राष्ट्रभक्त लोग हैं।ऐसी उत्कृष्ट और गहरी और व्यापक राष्ट्रभक्ति संसार में लगभग कहीं भी नहीं है क्योंकि इतना प्राचीन और स्वाभाविक राष्ट्र विश्व में और कोई नहीं हैं ।

परंतु अंग्रेजो के द्वारा भारतीय शिक्षा का सर्वनाश करके फिर अपने चेलों को सत्ता सौंपने के बाद उन लोगों ने जो भारतीय ज्ञान परंपरा का सर्वनाश किया है ,उसके बाद से हिन्दू  लोगों के पास राजनीतिक चेतना बहुत अल्प है और वे तोतों की तरह से वे ही बातें करते रहते हैं जो हिंदू द्रोही  सत्ताधीशो ने शोर मचाया है और जो  उनके द्वारा प्रायोजित विद्यालय विद्या संस्थानों में पढ़ाया जाता है जो कि  झूठ है, भयंकर झूठ। पर हिन्दू अब वही दुहराते रहते हैं।

भारत को एक राष्ट्र मानकर अन्य लघु राष्ट्रों जैसा एक मानना घोर अज्ञान है।

यह यूरोप के 37 राष्ट्रों के बराबर आज है।पहले यह समस्त यूरोप से बड़ा था।

50 से अधिक मुस्लिम देशों के बराबर है अकेले भारत।

इसके विषय में सोचते और बोलते समय सदा यह ध्यान रखें, कृपया।

✍🏻रामेश्वर मिश्रा पंकज 


स्वाभाविक राष्ट्र है भारत


यह आज हमें पता है कि भारत का वर्तमान स्वरूप 15 अगस्त 1947 की देन है। आज अखंड भारत की कल्पना में हम केवल पाकिस्तान और बांग्लादेश को जोड़ते हैं। परंतु हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि बर्मा, श्रीलंका, अफगानिस्तान आदि भी भारत के ही भाग रहे हैं। यदि हम केवल 15 अगस्त 1947 के बाद के भारत को ही लें तो भी इस समय विश्व में केवल छह नेशन स्टेट या राष्ट्र ऐसे हैं जो आकार में भारत से बड़े हैं और ये छहों अस्वाभाविक राष्ट्र हैं। एक एक कर सभी पर विचार करते हैं।

पहला राष्ट्र है आस्ट्रेलिया। आस्ट्रेलिया क्या है? उसके केवल तटीय इलाकों में लोग बसे हैं। दिल्ली के बराबर आबादी है। इस नाम का भी कोई इतिहास नहीं है। यह बीसवीं शताब्दी में बना एक अस्वाभाविक राष्ट्र है। दूसरा बड़ा राष्ट्र है यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ अमेरिका। अमेरिका तो इस इलाके का नाम भी नहीं है। आज भी यूनाइटेड स्टेट्स किसी अमेरिगो नामक आदमी के नाम से जाना जाता है। इसे वेस्ट इंडिया ही कह दिया होता या वेस्ट इंडियन सबकोंटिनेंट ही कह दिया होता। यदि आपको किसी स्थान को उनके मूल नाम से नहीं बुलाना है तो कुछ पहचाना सा नाम तो रखना चाहिए था। किसी को पता ही नहीं है कि अमेरिगो कौन था। अमेरिका का मूल नाम तो टर्टल कोंटीनेंट यानी कि कच्छप महाद्वीप है। संयुक्त राष्ट्र अमेरिका तो उन्नीसवीं-बीसवीं शताब्दी में अस्तित्व में आया है। इसके टूटने का रुदन सैमुएल हंटिंगटन अपनी पुस्तक क्लैश ऑफ सिविलाइजेशन में कर रहे हैं। भारत में इस पर काफी बहस चल रही है, परंतु बहस करने वालों ने ठीक से उसकी प्रस्तावना तक नहीं पढ़ी है। प्रस्तावना में ही वह कह रहा है कि संयुक्त राष्ट्र अमेरिका टूट रहा है। क्यों? क्योंकि उसके नीचे मैक्सिको उसे धक्का दे रहा है। मैक्सिको वहाँ का मूल है। वे वहाँ के मूलनिवासी हैं। उनका अपना क्षेत्र है। दीवाल बनाने से क्या होगा? दीवाल तो चीन ने भी बनाई थी। फिर भी उसे मंगोल, हूण, शक, मांचू सभी पराजित करते रहे।

तीसरा राष्ट्र है कैनेडा। संयुक्त राष्ट्र के ऊपर कैनेडा है। यहाँ कुछ फ्रांसीसी लोग हैं, कुछ अंग्रेज हैं और इन्होंने एक राष्ट्र बना लिया। यहां का पूरा इतिहास खंगाल डालिये, कैनेडा नाम नहीं मिलेगा। अस्वाभाविक राष्ट्र है। चौथा राष्ट्र है ब्राजील। यह नाम भी आपको इतिहास में नहीं मिलेगा। उन्नीसवीं शताब्दी तक ब्राजील का कोई अस्तित्व नहीं है। यह संयुक्त राष्ट्र अमेरिका से भगाए गए कुछेक फ्रांसीसी, अंग्रेज और जर्मन लोगों की रचना है। ये कृत्रिम सीमाएं हैं।

पाँचवां बड़ा राष्ट्र है जिसे हम पहले यूएसएसआर के नाम से जानते रहे हैं सोवियत संघ। उससे टूट कर सोलह राष्ट्र अलग हो गए, अब बचा है रूस। रूस के तीन चौथाई हिस्से के बारे में उसे स्वयं ही उन्नीसवीं शताब्दी तक पता नहीं था। यह हिस्सा था रूस का एशियायी हिस्सा। यह तो प्राचीन काल से भारत का हिस्सा रहा है। साइबेरिया का उच्चारण बदलें तो सिबिरिया होता है यानी शिविर का स्थान। इतालवी लोग स्थानों को स्त्रीलिंग से बुलाते हैं। इसलिए शिविर शिविरिया बन गया जिसे हम आज साईबेरिया कहते हैं। यह रूस का हिस्सा नहीं था। यह हिस्सा रहा है भरतवंशी शकों का, भरतवंशी मंगोलों का। इसे आप नक्शों में आसानी से देख सकते हैं। कब तक रहा है? उन्नीसवीं शताब्दी तक। यह कोई प्राचीन इतिहास नहीं है, जिसे ढूंढना पड़े। यह आधुनिक इतिहास है। फ्रांसीसी क्रांति या पुनर्जागरण के काल के बाद के इतिहास को आधुनिक काल माना जाता है। परंतु यह तो उससे भी कहीं नई घटना है। उन्नीसवीं शताब्दी तक रूस इस इलाके को जानता भी नहीं है। वह स्वयं उसे क्या बतलाता है, इसे देख लीजिए। अ_ारहवीं शताब्दी तक रूस अपनी सीमाएं क्या बता रहा है, देख लीजिए। जैसे हम कहते हैं न कि हमारी सीमाएं गांधार तक रही हैं, रूस अपनी सीमाओं के बारे में क्या कहता है? इसलिए यह भी स्वाभाविक राष्ट्र नहीं है। कृत्रिम देश है। शीघ्र ही अपनी स्वाभाविक सीमाओं में आ जाएगा। इसकी स्वाभाविक सीमाएं क्या हैं? आज के यूक्रेन में एक स्थान है कीव। कीव के उत्तर में एक नदी चलती है। उस नदी के आस-पास का इलाका ही वास्तविक रूस है। और कीव सहित यूक्रेन आज रूस से बाहर है।

पाँच विशाल देशों के बाद अगला देश है चीन। चीन का वर्तमान आकार तो पंडित नेहरू का दिया हुआ है। तिब्बत तो कभी उसका था ही नहीं। जिसे भारत के यूरोपीय चश्मेवाले बुद्धिजीवी पूर्वी तूर्कीस्तान या फिर चीनी तूर्कीस्तान कहते हैं, वह भी उसका नहीं रहा है। इसे भी वर्ष 1949 में जवाहरलाल नेहरू ने चीन के लिए छोड़ दिया। यह तो महाकाल के उपासकों का स्थान रहा है। महाकाल के उपासक रहे महान मंगोल सम्राट कुबलाई खाँ ने चीन को पराजित किया था। चीन में मंगोलिया और मंचूरिया का हिस्सा मिला हुआ है। ये दोनों इलाके साम्यवादी चीन का हिस्सा 1949 के बाद रूस और चीन की सहमति से बने। रूस में लेनिन, स्टालिन जैसे कुछ तानाशाह लोग सत्ता में आ गए थे। उन्हें दुनिया भर में मित्र चाहिए था। कहा जाता है दुनिया भर में परंतु उसका वास्तविक अर्थ होता है यूरेशिया में। शेष चारों महादेश तो गिनती में होते ही नहीं हैं। तो साम्यवादी रूस को केवल एक सहयोगी मिला माओ के नेतृत्व वाला साम्यवादी चीन। साम्यवादी रूस ने मंगोलिया और मंचुरिया को चीन का हिस्सा मान लिया।

दूसरा विश्वयुद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्र की रचना हुई जिसमें यूएसएसआर स्थायी सदस्य था। दूसरा स्थायी सदस्य बनने का प्रस्ताव भारत को मिला था, परंतु जवाहरलाल नेहरू ने कूटनीतिक मूर्खता में वह प्रस्ताव चीन को दिलवा दिया। इन दोनों साम्यवादी देशों ने मिल कर बंदरबाँट की। परंतु आज चीन टूट रहा है। तीन हिस्सों में। यह अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट है। मंचुरिया और मंगोलिया, दोनों ही चीन को अपने कब्जे में रखने वाले देश हैं। वर्ष 1914 तक मंचुरिया का गुलाम रहा है। यह तो हमें कहीं पढ़ाया नहीं जाता कि तेरहवीं शताब्दी से लेकर वर्ष 1914 तक चीन भरतवंशी मंगोलों तथा मंचुओं का गुलाम रहा है।

हमने देखा कि 15 अगस्त 1947 के भारत से दुनिया के छह नेशन-स्टेटों का क्षेत्रफल अधिक है और वे छहों अस्वाभाविक राष्ट्र हैं और ये छहों अतिशीघ्र टूट जाएंगे। आज के दिन भी भारत क्षेत्रफल की दृष्टि से दुनिया का सबसे बड़ा स्वाभाविक राष्ट्र है। हम जानते हैं कि पाकिस्तान और बांग्लादेश का जन्म कैसे हुआ है। अक्सर यह कहा जाता है कि हम पड़ोसी रोज नहीं बदल सकते। परंतु हमने हर रोज पड़ोसी ही तो बदला है। पाकिस्तान हमारा पड़ोसी कब था, वह तो हमारा घर था। हमारा पड़ोसी अफगानिस्तान भी कब था, वह भी हमारा घर ही था। चीन भी आपका पड़ोसी कब था, नेपाल कब था हमारा पड़ोसी? हमने तो घरवालों को ही पड़ोसी बना दिया है।

याद करें कि युद्ध अपराध के कारण संयुक्त राष्ट्र ने ट्रीटी ऑफ वर्साई के कारण जर्मनी के दो हिस्से कर दिए, वह जर्मनी एक हो गया। अंतरराष्ट्रीय कानूनों के तहत एक हो गया। ऐसे में पाकिस्तान और भारत क्यों एक नहीं हो सकते? भारत का नक्शा देखिए, नीचे पेनिनसुलर भारत है, परंतु ऊपर विराट हिमालय है। अफगानिस्तान तो दुर्योधन का ननिहाल गाँधार ही तो था। शकुनि यहीं का था। और निकट इतिहास में महाराजा रणजीत सिंह का राज्य गाँधार तक था। वर्ष 1905-10 में पंडित दीनदयालू शर्मा काबुल और कांधार में संस्कृत पर भाषण देने जाते हैं, सनातनधर्मरक्षिणी और गौरक्षिणी सभाएं करते हैं। गाँधी जी के जाने पर वायसराय खड़ा नहीं होता, पंरतु पंडित दीनदयालू शर्मा से मिलने के लिए इंग्लैंड का राजा भी खड़ा होता है। वर्ष 1910 में अफगानिस्तान नाम का कोई देश था ही नहीं। वर्ष 1922 में अंग्रेजों ने इसे बनाया रूस और उनके ब्रिटिश इंडिया के बीच बफर स्टेट के रूप में।

महाभारत में राजा युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में ढेर सारे राजा आते हैं। वे राजा जो युधिष्ठिर को कर देते हैं, वे सभी आते हैं। जो प्रदेश भारत के चक्रवर्ती सम्राट को कर देते हैं, वे भारत ही कहलाएंगे न? यह भारत कहाँ से कहाँ तक है? यवन प्रांत जिसे आज ग्रीक कहते हैं। परंतु ग्रीक स्वयं को ग्रीक नहीं कहते। वे स्वयं को एलवंशीय कहते हैं। उनके देश का नाम आज भी ग्रीस नहीं एलेनिक रिपब्लिक है। एलवंश मतलब बुद्ध और इला की संतान। यह भारतीय ग्रंथों में मिल जाएंगे। राजसूय यज्ञ के बाद युद्ध के वर्णन में स्पष्ट वर्णन है कि कौन-कौन सी सेनाएं पांडवों के साथ हैं और कौन-कौन कौरवों के साथ। वहाँ 250 जनपदों का उल्लेख है जिसमें दरद, काम्बोज, गाँधार, यवन, बाह्लीक, शक सभी नाम आते हैं। जिसे आज हम इस्लामिक देश के रूप में जानते हैं, यह पूरा इलाका शिव. ब्रह्मा, दूर्गा का पूजक सनातन धर्मावलम्बी चक्रवर्तीं भारतीय सम्राट के जनपद रहे हैं।

यह एक रोचक सत्य है कि अंग्रेजों को वर्ष 1910 तक पता नहीं था कि अशोक, देवानां पियदासी कौन है? वे महाभारत को नकार देते हैं। यदि हम महाभारत को गलत भी मान लें तो वायुपुराण, विष्णुपुराण, रामायण, कालीदास का रघुवंश, पाणिनी के अष्टाध्यायी आदि में किए गए भारतसंबंधी वर्णनों को देखें। यदि इन भारतीय संदर्भों से हमारी तुष्टि न हो तो फिर एक मुस्लिम लेखक का संदर्भ देखिए। अल बिरुनी का भारत पुस्तक को पढि़ए। अल बिरुनी की पुस्तक में भारत की सीमाओं और लोगों का वर्णन है। इसमें एक वर्णन है कि भारत के लोगों ने चारों दिशाओं में चार नगरों से आकाशीय गणना की है। उसकी आज तो जाँच की जा सकती है। वह कह रहा है कि इन चारों स्थानों पर भारत के लोग रहते हैं। ये चारों स्थान हैं – उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव, और पूरब तथा पश्चिम के शहरों का अक्षांश और देशांतर गणना दी हुई है। अल बिरुनी का कहना है कि ये गणनाएं तभी सही हो सकती हैं, जब आप वहाँ लगातार जा रहे हों।

पिरी राइस का नक्शा दुनिया का एक नक्शा है। यह फटी-पुरानी अवस्था में किसी विद्वान को मिला। उसने उसे देखा। उस नक्शे की विशेषता है कि उसमें दक्षिणी ध्रुव दिखाया गया है। दक्षिणी ध्रुव पर दो किलोमीटर मोटी बर्फ की परत जमी हुई है। वर्ष 1966 में इंग्लैंड और स्वीडेन ने एक सिस्मोलोजिकल सर्वेक्षण किया और उसके आधार पर दक्षिणी ध्रुव का नक्शा बनाया। यह नक्शा पिरी राइस के नक्शे के एकदम समान है। तो प्रश्न उठा कि पिरी राइस का नक्शा इतना पहले कैसे बना? उस विद्वान ने उस नक्शे को अमेरिका के एयर फोर्स के टेक्नीकल डिविजन के स्क्वैड्रन लीडर को भेजा। स्क्वैड्रन लीडर ने उत्तर लिखा कि नक्शा तो सही है, परंतु उस समय जब बर्फ नहीं थी, जब जानने के लिए जो यंत्र और तकनीकी ज्ञान चाहिए, वह नहीं रहा होगा। वह कहता है कि इस दो किलोमीटर की बर्फ की तह जमने में कई दशक लाख वर्ष लगे। यह नक्शा लगभग तबका बना हुआ है। यह उद्धरण मैप्स ऑफ एनशिएंट सी किंग्स के हैं। पिरी राइस तूर्क का डकैत था। तूर्कों को आमतौर पर हम मुसलमान मान लेते हैं। परंतु ध्यान दें कि ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी तक इसे यूरोप अनातोलिया बोलते थे। तूर्क लोग जब वर्तमान तूर्किस्तान पहुँचे, तब उसका नाम तूर्किस्तान रखा। वे वास्तव में दूर्गा और शिव के उपासक रहे हैं।

पिरी राइस लिख रहा है कि उसने यह नक्शा पुराने नक्शों के आधार पर बनाया है। अमेरिकन नक्शा बनाने वाले विद्वान लिखते हैं कि इस रास्ते पर लगातार समुद्री यात्राएं होती रही हैं। दक्षिणी ध्रुव पर यात्राएं हो रही हैं व्यापारिक और सैन्य कारणों से। अलग-अलग हिमयुगों में नक्शे बनाए गए हैं। इसे बनाने वाले और यात्रा करने वाले वे लोग हैं, जिनके नाम से एक महासागर का नाम ही रख दिया गया है। हिंद महासागर। दूसरे किसी भी देश के नाम पर महासागर का नाम नहीं रखा गया है, क्यों? इस हिंद महासागर में हिंद का तटीय प्रदेश छोटा सा ही है। फिर भी इसका नाम हिंद महासागर इसलिए है कि इसमें भारतीय ऐसे चलते हैं जैसे कनॉट प्लेस में दिल्ली पुलिस और जनता चलती है। इसी प्रकार हिंद महासागर में भारतीय व्यापारी और उनकी रक्षा के लिए चतुर्गिंणी सेना चलती है। चतुर्गिंणी में चौथा अंग कौन है? चार प्रकार की सेना है नौसेना। इसका प्रमाण है अजंता में बड़े-बड़े जहाजों का चित्रण है जिसमें हाथी-घोड़े और हथियार लदे होते हैं। ऐसे ही भित्तिचित्र भारत के उत्तर में स्थित पाँच स्तानों में भी मिले हैं।

इस प्रकार हम पाते हैं कि भारत एक स्वाभाविक राष्ट्र है और अत्यंत विशाल राष्ट्र रहा है। इसके ढेरों प्रमाण मिलते हैं। कुछ प्रमाण यहाँ प्रस्तुत किए गए हैं।

✍🏻प्रो. कुसुमलता केडिया

(लेखिका धर्मपाल शोधपीठ, भोपाल की निदेशक हैं।)

रविवार, 23 जनवरी 2022

भारत की राष्ट्रीयता - अरुण उपाध्याय

 

१. द्वीप तथा वर्ष-पुराणों में ७ महाद्वीपों के साथ अष्टम महाद्वीप अनन्त (अण्टार्कटिका) का भी वर्णन किया है। इनके नाम हैं-जम्बू द्वीप (एशिया),प्लक्ष द्वीप (यूरोप), कुश द्वीप (विषुव के उत्तर का अफ्रीका), शाल्मलि द्वीप (विषुव के दक्षिण का अफ्रीका), शक या अग्नि द्वीप (आस्ट्रेलिया), क्रौञ्च द्वीप (उत्तर अमेरिका), पुष्कर द्वीप (दक्षिण अमेरिका)। यहां द्वीप का अर्थ यह नहीं है कि वे हर दिशा में समुद्र से घिरे हैं, समुद्र, पर्वत, मरुभूमि या अन्य प्राकृतिक सीमा भी हो सकती है। पृथ्वी पर द्वीपों के जो नाम हैं, सौरमण्डल में पृथ्वी के चारों तरफ ग्रहों की परिक्रमा द्वारा जो वलयाकार क्षेत्र बने हैं उनके नाम भी पृथ्वी के द्वीपों जैसे हैं। उनके बीच के भागों को भी पृथ्वी के सागरों का नाम दिया है। इसी प्रकार ब्रह्माण्ड के केद्रीय वलय को भी आकाशगंगा कहा गया है, यद्यपि वह गंगा जैसी नदी नहीं है। आधुनिक युग में भी आकाशीय रचनाओं के नाम इसी प्रकार रखे जाते हैं। सौर मण्डल के द्वीप तथा सागर वृत्त या वलय आकार के हैं, पृथ्वी के द्वीप अनियमित आकार के हैं। सौर मण्डल का पुष्कर द्वीप यूरेनस कक्षा द्वारा बना वलय है, जिसकी मोटाई १६ कोटि योजन है, जो स्पष्टतः १००० योजन व्यास की पृथ्वी पर नहीं हो सकती है। महाभारत के बाद पुराण संकलन करने वालों का आस्ट्रेलिया, अमेरिका से कोई सम्पर्क नहीं था न सौर मण्डल की माप कर रहे थे। सभी माप महाभारत पूर्व के हैं।

२. भारत के ३ अर्थ-(१) भू पद्म का दल-उत्तर गोल का नक्शा ४ समान खण्डों में बनता था, जिनको भूपद्म का ४ दल कहते थे (विष्णु पुराण, २/२/२४,४०)। यहां भारत-दल का अर्थ है विषुवत रेखा से उत्तरी ध्रुव तक, उज्जैन (७५०४३’ पूर्व) के दोनों तरफ ४५-४५ अंश पूर्व-पश्चिम। इसके पश्चिम में इसी प्रकार केतुमाल, पूर्व में भद्राश्व तथा विपरीत दिशा में (उत्तर) कुरु, ९०-९० अंश देशान्तर में हैं। इस भारत दल को इन्द्र का ३ लोक कहते थे। मध्य में चीन था जिसे वे लोग आज भी मध्य राज्य कहते हैं। वहां बृहस्पति ने हर शब्द के लिए अलग अलग चिह्न दिए, जिसे शब्द पारायण कहा गया। १५,००० से अधिक अक्षरों को सीखना किसी के लिए सम्भव नहीं था, अतः इन्द्र और मरुत् ने ४९ मरुतों को अनुसार शब्दों को ४९ मूल खण्डों में बांटा तथा उच्चारण क्रम के अनुसार व्यवस्थित किया। चीन वाले अपनी पद्धति पर अड़े रहे। भारत तथा रूस की पद्धति एक हो गयी। आज भी रूसी भाषा के अधिकांश वैदिक शब्द उसी अर्थ में प्रयुक्त हो रहे हैं। 

(२) भारत वर्ष-हिमालय को पॄर्व-पश्चिम समुद्र तक फैलाने पर उसके दक्षिण समुद्र तक भाग को ९ खण्ड का भारतवर्ष कहते हैं।

अत्र ते कीर्तयिष्यामि वर्षं भारत भारतम्। प्रियमिन्द्रस्य देवस्य मनोर्वैवस्वतस्य च॥५॥

पृथोस्तु राजन् वैन्यस्य तथेक्ष्वाकोर्महात्मनः। ययातेरम्बरीषस्य मान्धातुर्नहुषस्य च॥६॥

तथैव मुचुकुन्दस्य शिवेरौशीनरस्य च। ऋषभस्य तथैलस्य नृगस्य नृपतेस्तथा॥७॥

कुशिकस्य च दुर्द्धर्ष गाधेश्चैव महात्मनः। सोमकस्य च दुर्द्धर्ष दिलीपस्य तथैव च॥८॥

अन्येषां च महाराज क्षत्रियाणां बलीयसाम्। सर्वेषामेव राजेन्द्र प्रियं भारत भारतम्॥९॥

कुमारिका खण्ड के दक्षिण ध्रुव तक का समुद्र भी कुमारिका खण्ड ही है जिस प्रकार आज भारत महासागर कहते हैं।

मत्स्य पुराण, अध्याय ११४-अथाहं वर्णयिष्यामि वर्षेऽस्मिन् भारते प्रजाः। भरणच्च प्रजानां वै मनुर्भरत उच्यते॥५॥

निरुक्तवचनाच्चैव वर्षं तद् भारतं स्मृतम्। यतः स्वर्गश्च मोक्षश्च मध्यमश्चापि हि स्मृतः॥६॥

भारतस्यास्य वर्षस्य नव भेदान् निबोधत॥७॥

इन्द्रद्वीपः कशेरुश्च ताम्रपर्णो गभस्तिमान्। नागद्वीपस्तथा सौम्यो गन्धर्वस्त्वथ वारुणः॥८॥

अयं तु नवमस्तेषां द्वीपः सागर संवृतः। योजनानां सहस्रं तु द्वीपोऽयं दक्षिणोत्तरः॥९॥

आयतस्तु कुमारीतो गङायाः प्रवहावधिः। तिर्यगूर्ध्वं तु विस्तीर्णः सहस्राणि दशैव तु॥१०॥

यस्त्वयं मानवो द्वीपस्तिर्यग् यामः प्रकीर्तितः। य एनं जयते कृत्स्नं स सम्राडिति कीर्तितः॥१५॥

इन्द्रद्वीप = दक्षिण पूर्व एशिया, जहां आज भी इन्द्र सम्बन्धित ५० वैदिक शब्द प्रचलित हैं। गरुड़ के नाम पर कम्बोडिया का वैनतेय जिला भी है। कशेरु = बोर्नियो, सेलेबीज, फिलीपीन। ताम्रपर्ण= तमिलनाडु के निकटवर्त्ती सिंहल (श्रीलंका)। गभस्तिमान = पूर्वी इण्डोनेसिया। पपुआ न्यूगिनी आस्ट्रेलिया का भी भाग था, जहां की गभस्ति नदी को शक द्वीप में कहा गया है। नागद्वीप = अण्डमान निकोबार से पश्चिमी इण्डोनेसिया तक। नाग का अर्थ हाथी भी है। हाथी की सूंड के आकार में होने के कारण इण्डोनेसिया के पश्चिम-पूर्व भागों को बड़ा तथा छोटा शुण्डा कहते हैं। सौम्य = उतर में तिब्बत। गन्धर्व -अफगानिस्तान, ईरान। वारुण = अरब, ईराक। 

यह (अखण्ड भारत) कुमारिका या भारत खण्ड है जो दक्षिण समुद्र से गंगा उद्गम तक चौड़ा होता गया है।

(३) कुमारिका खण्ड-प्रायः वर्तमान भारत है। दक्षिण से देखने पर यह अधोमुख त्रिकोण है अतः तन्त्र के अनुसार शक्ति त्रिकोण है। शक्ति का मूल रूप कुमारी है, अतः भारत के ९ खण्डों में मुख्य होने से इसे कुमारिका कहते हैं। ऋषभ के पुत्र भरत के नाम पर इसे भारत कहा गया। प्रजा का या विश्व का भरण (अन्न द्वारा) करने के कारण भी इसे भारत कहते हैं।

३. भारत के नाम-

(१) भारत- इन्द्र के ३ लोकों में भारत का प्रमुख अग्रि (अग्रणी) होने के कारण अग्नि कहा जाता था। इसी को लोकभाषा में अग्रसेन कहते हैं। प्रायः १० युग (३६०० वर्षों) तक इन्द्र का काल था जिसमें १४ प्रमुख इन्द्रों ने प्रायः १००-१०० वर्ष शासन किया। इसी प्रकार अग्रि = अग्नि भी कई थे।  अन्न उत्पादन द्वारा भारत का अग्नि पूरे विश्व का भरण करता था, अतः इसे भरत कहते थे। देवयुग के बाद ३ भरत और थे-ऋषभ पुत्र भरत (प्रायः ९५०० ई.पू.), दुष्यन्त पुत्र भरत (७५०० ई.पू.), राम के भाई भरत जिन्होंने १४ वर्ष (४४०८-४३९४ ई.पू.) शासन सम्भाला था।

दिवा यान्ति मरुतो भूम्याऽग्निरयं वातो अंतरिक्षेण याति । 

अद्भिर्याति वरुणः समुद्रैर्युष्माँ इच्छन्तः शवसो नपातः ।  (ऋक् संहिता, १/१६१/१४)

= देव आकाश की मरुत् अन्तरिक्ष की तथा अग्नि पृथ्वी की रक्षा करते हैं। वरुण जल के अधिपति हैं।

अग्नेर्महाँ ब्राह्मण भारतेति । एष हि देवेभ्य हव्यं भरति । (तैत्तिरीय संहिता, २/५/९/१, तैत्तिरीय ब्राह्मण, ३/५/३/१, शतपथ ब्राह्मण, १/४/१/१) 

= ब्रह्मा ने अग्नि को महान् तथा भारत कहा था क्योंकि यह देवों को भोजन देता है। 

विश्व भरण पोषण कर जोई। ताकर नाम भरत अस होई॥

(रामचरितमानस, १/१९६/७)  

भारत के बारे में यही विचार सभी ग्रीक लेखकों के भी हैं, पर उन लोगों को इसका आकार का पता नहीं था (जैसे मेगास्थनीज, इण्डिका, ३६)। यूरोप के लोग इसे १७५० ई तक चौकोर लिखते थे। 

(२) अजनाभ-विश्व सभ्यता के केन्द्र रूप में इसे अजनाभ वर्ष कहते थे। इसके शासक को जम्बूद्वीप के राजा अग्नीध्र (स्वयम्भू मनु पुत्र प्रियव्रत की सन्तान) का पुत्र नाभि कहा गया है। (विष्णु पुराण, २/१/१५-३२)

(३) हिमवत वर्ष- भौगोलिक खण्ड के रूप में इसे हिमवत वर्ष कहा गया है क्योंकि यह जम्बू द्वीप में हिमालय से दक्षिण समुद्र तक का भाग है। अलबरूनी ने इसे हिमयार देश कहा है (प्राचीन देशों के कैलेण्डर में उज्जैन के विक्रमादित्य को हिमयार का राजा कहा है, जिसने मक्का मन्दिर की मरम्मत कराई थी)। वर्ष शब्द के ३ अर्थ हैं। मेघ से जल की बून्दें गिरती हैं, वह वर्षा है। वर्षा से आगामी वर्षा तक का समय भी वर्ष है। पर्वत के कारण एक वर्षा क्षेत्र (मॉनसून) को वर्ष कहते हैं तथा उस सीमावर्त्ती पर्वत को वर्ष पर्वत कहते हैं। इस प्रकार पूर्ण रूप से परिभाषित वर्ष भारत ही है।

(४) इन्दु-आकाश में सृष्टि विन्दु से हुयी, उसका पुरुष-प्रकृति रूप में २ विसर्ग हुआ-जिसका चिह्न २ विन्दु हैं। विसर्ग का व्यक्त रूप २ विन्दुओं के मिलन से बना ’ह’ है। इसी प्रकार भारत की आत्मा उत्तरी खण्ड हिमालय में है जिसका केन्द्र कैलास विन्दु है। यह ३ विटप (वृक्ष, जल ग्रहण क्षेत्र) का केन्द्र है-विष्णु विटप से सिन्धु, शिव विटप (शिव जटा से गंगा) तथा ब्रह्म विटप से ब्रह्मपुत्र। इनको मिलाकर त्रिविष्टप = तिब्बत स्वर्ग का नाम है। इनका विसर्ग २ समुद्रों में होता है-सिन्धु का सिन्धु समुद्र (अरब सागर) तथा गंगा-ब्रह्मपुत्र का गंगा-सागर (बंगाल की खाड़ी) में होता है। हुएनसांग ने लिखा है कि ३ कारणों से भारत को इन्दु कहते हैं-(क) उत्तर से देखने पर अर्द्ध-चन्द्राकार हिमालय भारत की सीमा है, चन्द्र या उसका कटा भाग = इन्दु। (ख) हिमालय चन्द्र जैसा ठण्ढा है। (ग) जैसे चन्द्र पूरे विश्व को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार भारत पूरे विश्व को ज्ञान का प्रकाश देता है। ग्रीक लोग इन्दु का उच्चारण इण्डे करते थे जिससे इण्डिया शब्द बना है। (ह्वेनसांग की भारत यात्रा, अध्याय २ के आरम्भ में)

(५) हिन्दुस्थान-ज्ञान केन्द्र के रूप में इन्दु और हिन्दु दोनों शब्द हैं-हीनं दूषयति = हिन्दु। १८ ई. में उज्जैन के विक्रमादित्य के मरने के बाद उनका राज्य १८ खण्डों में बंट गया और चीन, तातार, तुर्क, खुरज (कुर्द) बाह्लीक (बल्ख) और रोमन आदि शक जातियां। उनको ७८ ई. में विक्रमादित्य के पौत्र शालिवाहन ने पराजित कर सिन्धु नदी को भारत की पश्चिमी सीमा निर्धारित की। उसके बाद सिन्धुस्थान या हिन्दुस्थान नाम अधिक प्रचलित हुआ। देवयुग में भी सिधु से पूर्व वियतनाम तक इन्द्र का भाग था, उनके सहयोगी थे-अफगानिस्तान-किर्गिज के मरुत्, इरान मे मित्र और अरब के वरुण तथा यमन के यम।

(६) कुमारिका-अरब से वियतनाम तक के भारत के ९ प्राकृतिक खण्ड थे, जिनमें केन्द्रीय खण्ड को कुमारिका कहते थे। दक्षिण समुद्र की तरफ से देखने पर यह अधोमुख त्रिकोण है जिसे शक्ति त्रिकोण कहते हैं। शक्ति (स्त्री) का मूल रूप कुमारी होने के कारण इसे कुमारिका खण्ड कहते हैं। इसके दक्षिण का महासागर भी कुमारिका खण्ड ही है जिसका उल्लेख तमिल महाकाव्य शिलप्पाधिकारम् में है। आज भी इसे हिन्द महासागर ही कहते हैं।

४. सनातन भारत-(१) प्राचीन राष्ट्र-भारत प्राचीन काल से राष्ट्र के रूप में विख्यात है।

महाभारत, भीष्मपर्व, अध्याय ९-

अत्र ते कीर्तयिष्यामि वर्षं भारत भारतम्। प्रियमिन्द्रस्य देवस्य मनोर्वैवस्वतस्य च॥५॥

पृथोस्तु राजन् वैन्यस्य तथेक्ष्वाकोर्महात्मनः। ययातेरम्बरीषस्य मान्धातुर्नहुषस्य च॥६॥

तथैव मुचुकुन्दस्य शिवेरौशीनरस्य च। ऋषभस्य तथैलस्य नृगस्य नृपतेस्तथा॥७॥

कुशिकस्य च दुर्द्धर्ष गाधेश्चैव महात्मनः। सोमकस्य च दुर्द्धर्ष दिलीपस्य तथैव च॥८॥

अन्येषां च महाराज क्षत्रियाणां बलीयसाम्। सर्वेषामेव राजेन्द्र प्रियं भारत भारतम्॥९॥

(२) विविधता की रक्षा-१९२३ में अविनाश चन्द्र दास ने ऋग्वेदिक भारत (अंग्रेजी) में लिखा था कि भारत में सभी प्रकार की जलवायु है, अतः सर्वाङ्गीण ज्ञान तथा वेद का केन्द्र यही देश हो सकता था।

वेद केन्द्र रूप में भारत विश्व का हृदय है। दक्षिण भारत के त्रिकोण के ऊपर अर्ध चन्द्राकार हिमालय मिलाने से जो आकार बनता है उसे हृदय या प्रेम चिह्न कहते हैं। वास्तविक हृदय वैसा नहीं है, यह भारत का ही प्रतीक है।

विश्व के वनों का विस्तृत वर्गीकरण श्यामकिशोर सेठ ने १९५८ में किया था जो चैम्पियन द्वारा पुराने वर्गीकरण का संशोधन था। उसके १६ मुख्य तथा ६४ गौण वर्ग हैं। केवल भारत में ही सभी ६४ प्रकार के वन आज भी हैं।

सनातन सभ्यता होने के कई कारण हैं-

(३) हिमालय से रक्षा (क) -हिमालय सशक्त प्राकृतिक दुर्ग है।

(ख) हिमालय के कारण भारत में नियमित वर्षा होती है। 

(ग) हिम युग में कनाडा, रूस, उत्तर यूरोप आदि पूरी तरह हिम से ढंक कर नष्ट हो जाते हैं। उत्तर के शीत युग से हिमालय के कारण भारत बच जाता है। अतः यहां की सभ्यता २२,००० वर्षीय हिमयुग चक्र से नष्ट नहीं हुई।

(४) यज्ञ संस्था-यज्ञ चक्र को नियमित चलाने से सभ्यता अबाध रूप से चलती रही। गीता के अनुसार अपनी आवश्यक वस्तुओं के उत्पादन ने साधन को यज्ञ कहा गया है। जीवन के लिए सबसे मुख्य अन्न है, अतः उसी के अनुसार पर्जन्य, अन्न आदि की परिभाषा हैं। यज्ञ का बचा भाग खाते हैं, बाकी बीज को भविष्य में भी यज्ञ चलाने के लिए बचा कर रखते हैं।  

सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरो वाच प्रजापतिः।अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्॥१०॥ 

यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः॥१३॥

अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्न सम्भवः। यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः॥१४॥

एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः। अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति॥१६॥ (गीता, अध्याय ३)

पुरुष सूक्त के अन्तिम मन्त्र के अनुसार मूल यज्ञ से अन्य यज्ञों की व्यवस्था चला कर ही साध्य लोग उन्नति के शिखर पर पहुंचे और देव बने।

यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्।

ते ह नाकं महिमानः सचन्तः यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः॥ (वाज, यजु, ३१/१६)

जो यज्ञ के बदले बल (असु) द्वारा सम्पत्ति लूट कर काम चलाते थे, उनको असुर कहा गया। लूट के माल का १/५ भाग राजा को देने का नियम इसाई तथा इस्लाम मतों में है (माल-ए-गनीमत, Royal fifth)। जब लूटने योग्य नहीं बचता तो ये सभ्यतायें नष्ट हो जाती हैं। इनको दिति सन्तान भी इसी कारण कहते है। दिति का अर्थ है काटना। दूसरों को काट कर आय करना, या सभ्यता को २ भागों में बांटना। जो उनका मत माने वह अच्छा, बाकी काफिर। या पैगम्बर के बाद सब ठीक, उसके पहले का सभी चिह्न और ज्ञान नष्ट करना है।

५. देव संस्था-पिण्ड या तत्त्व रूप को देव तथा क्षेत्र या क्रिया रूप को देवी कहते हैं। मनुष्य रूप में जन्म के लिए पुरुष का योग विन्दु मात्र है, जन्म का स्थान या क्षेत्र स्त्री का गर्भ है। इसी अर्थ का विस्तार सभी पुल्लिंग-स्त्रीलिंग शब्दों में है।

(१) देवी रूप-(क) राष्ट्री-देव्यथर्व शीर्ष में देवी ने अपने को कहा है-अहं राष्ट्री संगमनी। यहां राष्ट्री का अर्थ है, राष्ट्र की भूमि स्वरूप। संगमनी का अर्थ है, एक साथ चलने वाला व्यक्ति गण, जिसकी व्याख्या ऋग्वेद के अन्तिम सौमनस्य सूक्त में है।

संसमिद्युवसे वृषन्नग्ने विश्वान्यर्य आ। इळस्पदे समिध्यसे स नो वसून्या भर॥१॥

संगच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम्। देवा भागं यथा पूर्वेसंजानाना उपासते॥२॥

समानो मन्त्रः समितिः समानी समानं मनः सह चित्तमेषाम्।

समानं मन्त्रमभि मन्त्रये वः समान्न वो हविषा जुहोमि॥३॥

समानी व आकूतिः समाना हृदयानि वः। समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति॥४॥ 

(ऋक्, १०/१९१/१-४)

अर्थात्, हमारे सभी कर्म, विचार, गति, उपभोग आदि एक साथ हों। यहां मन, चित्त, हृदय, ज्ञान आदि भिन्न भिन्न कहा है। वसु का अर्थ खनिज, अन्न आदि उत्पाद है, जिनका उत्पादन, संग्रह और उपभोग मिल कर होता है।

(ख) नव दुर्गा- ९ दुर्गा की तरह भारत वर्ष के ९ खण्ड हैं। मुख्य कुमारिका खण्ड अधोमुख त्रिकोण है जिसे शक्ति त्रिकोण कहते हैं। शक्ति का मूल रूप कुमारी होने से इसे कुमारिका खण्ड कहते हैं। इसका मूल विन्दु कन्याकुमारी है। त्रिकोण रूप में उत्तर पूर्व में कामाख्या पीठ महाकाली रूप, दक्षिण में शारदा पीठ महा सरस्वती रूप तथा पश्चिमोत्तर में महालक्ष्मी स्वरूप है (विष्णु विटप कश्मीर में वैष्णोदेवी)।

(ग) शक्ति पीठ- ४९ मरुत् स्वरूप देवनागरी के ४९ वर्ण हैं। इसे इन्द्र-मरुत् ने आरम्भ किया था। इन्द्र पूर्व के तथा मरुत् उत्तर के लोकपाल थे। आज भी यह लिपि असम से अफगानिस्तान सीमा तक प्रचलित है। आकाश में पृथ्वी से क्रमशः २-२ गुणा बड़े ४९ धाम ब्रह्माण्ड सीमा तक हैं, जिसकी माप भूरिक् जगती छन्द है। उसके बाद ५२ धाम तक कूर्म या गोलोक है जिसमें ब्रह्माण्ड उत्पन्न हुआ। इन अक्षरों से शब्द रूप विश्व बना, अतः इनको मातृका कहते हैं। शरीर विश्व की प्रतिमा है, अतः उसमें भी अक्षरों की स्थिति या न्यास विभिन्न विन्दुओं पर माने गये हैं। अ से ह तक वर्णमाला है, अतः शरीर का क्षेत्र अहं है। इसे जानने वाला आत्मा क्षेत्रज्ञ है (गीता, अध्याय १३) अतः ४९ अक्षरों के बाद क्ष, त्र, ज्ञ जोड़ कर ५२ अक्षर हैं जिसे सिद्ध क्रम कहते हैं। केवल क्ष जोड़ने पर ५० अक्षर रूप काली की मुण्डमाला है जिसे अक्ष माला भी कहते हैं। ५२ अक्षरों के स्वरूप भारत भूमि में ५२ शक्ति पीठ हैं, जो शिव पत्नी सती के अंग हैं। इनकी सूची तन्त्र चूड़ामणि, देवी पुराण के अध्याय ३९ में है। 

१६ स्वर वर्णों के उदात्त-अनुदात्त-स्वरित, ह्रस्व-दीर्घ-प्लुत, अल्पप्राण-महाप्राण बेदों से १०८ रूप होते हैं। या क्रान्तिवृत्त के १२ राशि तथा २७ नक्षत्र विभाजन के मिलन से १०८ भाग हैं जो नक्षत्र पाद हैं। इनके प्रतिरूप १०८ शक्तिपीठों की सूची देवी भागवत पुराण, अध्याय (७/३०) में है।

(ग) सैन्य क्षेत्र- सैन्य क्षेत्रों के अनुसार कार्त्तिकेय ने भारत को ६ भागों में बांटा था जिनको कार्त्तिकेय की ६ माता कहते हैं (तैत्तिरीय संहिता, ४/४/५/१, तैत्तिरीय ब्राह्मण, ३/१/४/४, ब्रह्माण्ड पुराण, ३/४/३२/२९)-दुला (बंगाल, ओड़िशा, दुला देवी मन्दिर, दुलाल = कार्त्तिकेय), अभ्रयन्ती (२ मॉनसून का सारम्भ-आन्ध्र, महाराष्ट्र), मेघयन्ती (गुजरात, राजस्थान, जहां मेघ कम किन्तु मेघानी उपाधि है), वर्षयन्ती (अधिक वर्षाअसम), नितत्नि (नीचे फैलने वाली लता-तमिलनाडु), चुपुणिका (पंजाब-चोपड़ा)।

(२) शिव रूप- (क) ज्योतिर्लिंग-पिण्ड या अग्नि रूप में शिव ८ वसु हैं, वायु रूप में ११ रुद्र तथा तेज रूप में १२ आदित्य है। सौर मण्डल के ये ३३ धाम हैं, अग्नि-वायु तथा वायु-तेज सन्धियों पर दो नासिक्य या अश्विन हैं। पृथ्वी पर १२ मासों में सूर्य के १२ प्रकार की ज्योति १२ आदित्य हैं। इनके स्वरूप १२ ज्योतिर्लिंग हैं।

(ख) लिंग परिभाषा- लिंग (बाह्य चिह्न) रूप में ३ प्रकार के विभाग हैं-स्वयम्भू लिंग जिसमें विश्व की उत्पत्ति तथा लय होता है, बाण लिंग गति की ३ दिशा हैं, जो आकाश के ३ आयाम हैं। इतर लिंग अनन्त प्रकार के रूप हैं जिनका १२ ज्योति में विभाजन है। लिंग का अर्थ है-लीनं गमयति यस्मिन्।

मूल स्वरूप लिङ्गत्वान्मूलमन्त्र इति स्मृतः । सूक्ष्मत्वात्कारणत्वाच्च लयनाद् गमनादपि । 

लक्षणात्परमेशस्य लिङ्गमित्यभिधीयते ॥ (योगशिखोपनिषद्, २/९, १०)

(ग) भौतिक रूप-आकाश मे अव्यक्त या व्यक्त दृश्य जगत् स्वयम्भू लिंग है। अव्यक्त स्वयम्भू लिंग भुवनेश्वर का लिंगराज (जगन्नाथ धाम की सीमा) तथा व्यक्त स्वयम्भू लिंग मेवाड़ का एकलिंग (पुष्कर के ब्रह्म धाम की सीमा) है। 

आकाश के ३ आयाम त्रिलिंग हैं, जिसका भौतिक रूप त्रिलिंग (तेलांगना) है, जहां के ३ पीठों को ३ प्रकार के आराम कहते हैं। ये शिव के ३ नेत्रों के प्रतीक हैं-द्राक्षारामम् (सूर्य), सोमारामम् (चन्द्र), कुमारारामम् (कुमार अग्नि या पृथ्वी)। पञ्चमुख रूप में २ और आराम हैं-क्षीराराम (विष्णु), अमराराम (अमरावती, इन्द्र)।

आध्यात्मिक रूप में मूलाधार में स्वयम्भू लिंग (उसके अंगों से मनुष्य जन्म), अनाहत चक्र में बाण लिंग (श्वास, रक्त सञ्चार केन्द्र) तथा आज्ञा चक्र में इतर लिंग। इतर का अर्थ है भिन्न रूप (other)। इनको आंख से देखते हैं तथा मस्तिष्क से पहचानते हैं। १२ रूपों के अनुसार मीमांसा दर्शन में १२ प्रकार की शब्द शक्ति हैं। (शिव संहिता, पटल ५)

(घ) शब्द लिंग-वाक् का व्यक्त रूप भी लिंग (Lingua, language) है। लिंग पुराण (१/१७/८३-८८) में कई प्रकार के शब्द लिंग या लिपियों के उल्लेख हैं-

गायत्री के २४ अक्षर-४ प्रकार के पुरुषार्थ के लिये।

कृष्ण अथर्व के ३३ अक्षर-अभिचार के लिये।

३८ अक्षर-धर्म और अर्थ के लिये (मय लिपि के ३७ अक्षर = अवकहडा चक्र + ॐ)

यजुर्वेद के ३५ अक्षर-शुभ और शान्ति के लिये-३५ अक्षरों की गुरुमुखी लिपि।

साम के ६६ अक्षर-संगीत तथा मन्त्र के लिये।

(ङ) गुरु रूप- गुरु-शिष्य परम्परा रूप मस्तिष्क में आज्ञा चक्र के ऊपर त्रिकूट या कैलास है, जहां इड़ा-पिंगला-सुषुम्ना का मिलन होता है। यहां मस्तिष्क के वाम-दक्षिण भाग के वार्त्तालाप से १८ प्रकार की विद्या उत्पन्न होती है (द्वा सुपर्ण सूक्त- मुण्डक उप. ३/१/१, श्वेताश्वतर उप. ४/६, ऋक् १/१६४/२०, अथर्व ९/९/२०)। 

समुन्मीलत् संवित्-कमल मकरन्दैक रसिकं, भजे हंस-द्वन्द्वं किमपि महतां मानसचरम्।

यदालापादष्टादश गुणित विद्या परिणतिः, तदादत्ते दोषाद् गुणमखिल-मद्भ्यः पय इव॥ 

(शंकराचार्य, सौन्दर्य लहरी, ३८)

इसके भौतिक रूप हैं-हिमालय में कैलास, मध्य में काशी तथा दक्षिण में काञ्ची। 

(च) सिख मत- सिख मत में भी गुरु को शिव रूप माना गया है। गुरु गोविन्द सिंह जी की उक्ति है-देहु शिवा वर मोहि इहै, शुभ कर्मन तें कबहूं न टरौं। भारत को गुरु रूप मान कर विभिन्न स्थानों में गुरु की कल्पना की गयी है। मंझी साहब की कथा है वहां गुरु नानक मंझी (खाट) पर बैठे थे। कटक में दान्तन साहब की कथा है कि वहां दातून किया था। अन्य स्थानों पर भी वे यह काम करते थे, पर सती के अंगों की तरह पूरा भारत उनका स्वरूप मानने की यह विधि है। शरीर में कण्ठ स्थान में जालन्धर बन्ध किया जाता है। उसके ऊपर मस्तिष्क के चोटी स्थान में विन्दु चक्र या अमृत-सर है। पंजाब में भी जालन्धर के उत्तर पश्चिम अमृतसर है। 

६. लोकपाल संस्था-२९१०२ ई.पू. में ब्रह्मा ने ८ लोकपाल बनाये थे। यह उनके स्थान पुष्कर (उज्जैन से १२ अंश पश्चिम बुखारा) से ८ दिशाओं में थे। यहां से पूर्व उत्तर में (चीन, जापान) ऊपर से नीचे, दक्षिण पश्चिम (भारत) में बायें से दाहिने तथा पश्चिम में दाहिने से बांये लिखते थे जो आज भी चल रहा है। 

बाद के ब्रह्मा स्वायम्भुव मनु की राजधानी अयोध्या थी, और लोकपालों का निर्धारण भारत के केन्द्र से हुआ। पूर्व से दाहिनी तरफ बढ़ने पर ८ दिशाओं (कोण दिशा सहित) के लोकपाल हैं-इन्द्र, अग्नि, यम, निर्ऋति, वरुण, मरुत्, कुबेर, ईश। इनके नाम पर ही कोण दिशाओं के नाम हैं-अग्नि, नैर्ऋत्य, वायव्य, ईशान। 

इन्द्रो वह्निः पितृपतिर्नैर्ऋतो वरुणो मरुत्। कुबेर ईशः पतयः पूर्वादीनां दिशाः क्रमात्॥ (अमरकोष, १/३/२) 

अतः बिहार से वियतनाम और इण्डोनेसिया तक इन्द्र के वैदिक शब्द आज भी प्रचलित हैं। इनमें ओड़िशा में विष्णु और जगन्नाथ सम्बन्धी, काशी (भोजपुरी) में शिव, मिथिला में शक्ति, गया (मगध) में विष्णु के शब्द हैं। शिव-शक्ति (हर) तथा विष्णु (हरि) क्षेत्र तथा इनकी भाषाओं की सीमा आज भी हरिहर-क्षेत्र है। इन्द्र को अच्युत-च्युत कहते थे, अतः आज भी असम में राजा को चुतिया (च्युत) कहते हैं। इनका नाग क्षेत्र चुतिया-नागपुर था जो अंग्रेजी माध्यम से चुटिया तथा छोटा-नागपुर हो गया। ऐरावत और ईशान सम्बन्धी शब्द असम से थाइलैण्ड तक, अग्नि सम्बन्धी शब्द वियतनाम. इण्डोनेसिया में हैं। दक्षिण भारत में भी भाषा क्षेत्रों की सीमा कर्णाटक का हरिहर क्षेत्र है। उत्तर में गणेश की मराठी, उत्तर पूर्व के वराह क्षेत्र में तेलुगु, पूर्व में कार्त्तिकेय की सुब्रह्मण्य लिपि तमिल, कर्णाटक में शारदा की कन्नड़, तथा पश्चिम में हरिहर-पुत्र की मलयालम। 

७. भाषा संस्था-भाषा की भिन्नता लिपि के कारण है। अंग्रेजी में भी गणित चिह्न, रसायन विज्ञान में धातुओं के नाम, जीव विज्ञान में जीवों, वृक्षों के नाम ग्रीक तथा लैटिन पर आधारित हैं। प्राचीन मिस्र में भी ग्रहों के नाम संस्कृत में थे जो कटपयादि सूत्र के अनुसार उनकी दूरी होती थी। क, ट, प, य-इन वर्णों से १, २,---९,० तक के अंक सूचित होते थे। जैसे महताब = ५८६३ योजन। यहां योजन = विषुव वृत्त का ७२० भाग = ५५.५ किलोमीटर। यह चन्द्र की औसत दूरी है, अतः महताब का अर्थ चन्द्र हुआ। भारत में भी राशि नाम के लिए अवकहड़ा चक्र का व्यवहार होता है। इसमें २० व्यञ्जन वर्ण तथा ५ स्वर हैं-अ, इ, उ, ए, ओ। रोमन लिपि के भी यही ५ स्वर हैं-a, e, i, o, u। इसमें वर्ण संख्या २५ सांख्य तत्त्वों के बराबर है। गायत्री को सांख्यायन गोत्र सांख्य अत्रि के कारण कहा है (छन्द सूत्र, ३/६३,६६)। सांख्य अत्रि उत्तर पश्चिम दिशा में गये थे, अतः भारत से उस दिशा में यह लिपि प्रचलित हुई। आत्रेय जनपद भारत के उत्तर पश्चिम कहा गया है (मार्कण्डेय पुराण, ५४/३९)। उसके निकट पश्चिमोत्तर हिमालय में अत्रि आश्रम में पुरुरवा ने तप किया था (मत्स्य पुराण, ११८)। पश्चिमोत्तर भाग में अत्रि को असुरों ने बन्दी बनाया था (ब्रह्म पुराण, २/७०, ऋग्वेद सूक्त, १/१०८,११७)। इनको अरबी में इद्रीस, यूरोप में एट्रुस्कन कहा है। 

भारत में प्राचीन लिपि ब्राह्मी थी, जिसमें ६३ या ६४ अक्षर थे (पाणिनीय शिक्षा, ३)। यह प्राकृत तथा संस्कृत दोनों में थे। ब्राह्मी का प्राकृत रूप अभी तेलुगू, कन्नड़ हैं। ब्राह्मी का लघु रूप (short hand) कार्त्तिकेय ने तमिल रूप में किया। स्पर्श वर्णों के प्रत्येक वर्ग के प्रथम ४ अक्षरों का एक ही चिह्न कर दिया। क्रौञ्च द्वीप (उत्तर अमेरिका) पर आक्रमण के लिए उनको प्रशान्त महासागर में जल-स्थल उभय की सेना बनानी थी, जिसे मयूर कहा गया। बाहरी देशों में प्रयोग के लिए छोटी लिपि बनाई। आज भी मयूरी सेना के वंशजों माओरी की भाषा पूरे प्रशान्त सागर में आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड, हवाई आदि में एक ही है। तमिल में तकनीकी ग्रन्थों के लिये गाथा लिपि बनी रही जिसमें सभी अक्षर थे। देवनागरी लिपि में ४९ अक्षरों के वर्ग बने। जो अक्षर किसी वर्ग में नहीं आये उनको अयोगवाह कहा गया। 

तन्त्र के लिए शैव दर्शन की तत्त्व संख्या ३६ अक्षर की लिपि का प्रयोग हुआ। वेद के वैज्ञानिक वर्णन के लिए (८+९) = १७ के वर्ग की लिपि का प्रयोग हुआ, जिसमें ३६ x ३ स्वर, ३६ x ५ व्यञ्जन वर्ण तथा १ ॐ है। सहस्राक्षरा लिपि का प्रयोग व्योम अर्थात् तिब्बत के परे चीन जापान में हुआ। सभी लिपियों का उल्लेख वेद में है-

गौरीर्मिमाय सलिलानि तक्षति एक पदी द्विपदी सा चतुष्पदी। 

अष्टापदी नवपदी बभूवुषी सहस्राक्षरा परमे व्योमन्। (ऋक्, १/१६४/४१)

८. मूल निवासी-सिकन्दर के समकालीन सभी ग्रीक लेखकों ने लिखा है कि भारत विश्व का एकमात्र देश है, जहां बाहर से कोई नहीं आया, यथा मेगास्थनीज की इण्डिका (३८)। भारतीय साहित्य में भी बाहर से आर्यों के आने का कोई उल्लेख नहीं है। अतः अंग्रेजों ने अपनी तरह भारतीयों को विदेशी सिद्ध करने के लिए पुरातत्त्व तथा इतिहास शोध आरम्भ कर दिया जिस का निष्कर्ष पहले से तय था। राजा बलि के समय कूर्म अवतार हुआ था (प्रायः १६,००० ईपू)। उस समय संयुक्त खनिज निष्कासन के लिए उत्तर अफ्रीका से असुर झारखण्ड के निकट खनिज क्षेत्रों में आये। वही भाषा पश्चिम भारत के अरब में कही जाती थी जहां के यवनों को राजा सगर ने निष्कासित किया (६,७६२ ईपू-६७७७ ईपू के बाक्कस आक्रमण के १५ वर्ष बाद)। हेरोडोटस के अनुसार यवन पहले तुर्की के इजमीर तट पर गये, फिर ग्रीस में गये। उसके बाद ग्रीस का नाम इयोनिया (यूनान) हुआ। आज भी अरबी औषधि को ही यूनानी कहते हैं। ग्रीक तथा झारखण्ड निवासियों का एक भाषा मूल होने के कारण आज भी उनकी उपाधियां वही हैं, जो ग्रीक भाषा में खनिजों के नाम हैं। खालको = खालकोपाइराइट (ताम्र अयस्क), टोप्पो = टोपाज, ओराम (औरम = स्वर्ण), सिंकू (स्टैनिक-टिन), हेम्ब्रम (हाइग्रेरियम - पारा), किस्कू (कियोस्क-लोहे के लिए धमन भट्टी)। उन विदेशियों का चेहरा स्पष्ट रूप से अफ्रीकी लोगों से मिलता है, जैसा पश्चिम तट पर बाद में अफ्रीकी सिद्दियों का चेहरा है। पर उनको बिना किसी प्रमाण के मूल निवासी मान लिया। केवल मूल भारतीयों की बार बार डीएनए की जांच होती रहती है। 

९. जाति प्रथा-विश्व के हर भाग में जाति प्रथा है। पर भारत जैसा व्यवस्थित कर्म विभाजन कहीं नहीं है। यही भारत की सबसे बड़ी शक्ति रही है। किसी भी व्यक्ति में हर प्रकार की योग्यता नहीं हो सकती है। सभी जातियों का मिलन समाज को पूर्ण शक्ति देता है। मुस्लिम तथा अंग्रेजी शासन में कई जातियों का व्यवसाय नष्ट हो गया या किया गया। इस कारण बहुत से सम्पन्न वर्ग दलित हो गये। मालवा के प्रतापी गर्दभिल्ल राजा थे। उनका समाज युद्ध तथा व्यापार के लिए सामान की ढुलाई करता था, अतः आज के व्यापारियों की तरह सबसे धनी था। विदेशी शासन ने व्यवसाय नष्ट कर दिया, अतः गदहेड़ा या बन्जारा आज का दलित समाज है। इसी प्रकार अकबर के समय सबसे शक्तिशाली गोण्डावना था जिसकी रानी दुर्गावती ने समझौता नहीं किया। अतः आज गोण्ड लोग दलित जनजाति है। किन्तु दुर्गावती के पुरोहित तथा रसोइया को अकबर ने भेद देने के लिए काशी-मिथिला की नमकहरामी जागीर दी-वे सम्मानित हो गये (वृन्दावनलाल वर्मा-रानी दुर्गावती)। पद दलित राजाओं को अपमानित करने के लिए उनको सिर पर मैला ढोने के लिए बाध्य किया। राज्य भंग होने से वे भंगी हुए (नाच्यौ बहुत गोपाल-अमृतलाल नागर)। जाति व्यवस्था द्वारा शक्ति सम्पन्न होने के कारण भगवान् राम ने बिना किसी राज्य सहायता के रावण को पराजित किया। मध्य युग में भी राणा प्रताप, शिवाजी ने २० गुणी बड़ी सेनाओं को बार बार पराजित किया। युद्ध में बलि देते समय जाति गौरव की रक्षा ही मूल भाव था, उस समय यह विचार नहीं किया कि किन पूर्वजों ने कब-कब कर्म अनुसार जाति बदली। जातिगत कर्त्तव्य के पालन द्वारा ही ८०० वर्षों तक बिना किसी तकनीकी या सामान्य विद्यालय के भारत में वेद, आयुर्वेद, ज्योतिष, शिल्प, तन्त्र, राजनीति शास्त्र आदि का ज्ञान सुरक्षित रहा। जाति व्यवस्था के कारण बचे शास्त्रों को पढ़ कर कृतघ्न लोग इसकी निन्दा करते हैं।

१०. एकत्व-एक व्यक्ति का एकत्व नहीं होता, भिन्न लोगों में ही होता है। पर भारत को भिन्न-भिन्न देश दिखाने के लिए कई वाक्य गढ़े गये हैं-विविधता में एकता, उप महाद्वीप, गंगा-यमुनी संस्कृति। क्षेत्र फल में बहुत बड़े देशों रूस, चीन, अमेरिका को किसी ने उप महाद्वीप कहने का साहस नहीं किया है। अमेरिका में ऐसा कहने वाला जेल चला जायेगा। हर व्यक्ति तथा स्थान भिन्न होते हैं। परस्पर सम्बन्धित होने से बाद में एकत्व दीखता है। अतः इसे अनुपश्यतः कहा है (ईशावास्योपनिषद्, ७)। विविधता भारत को स्वावलम्बी तथा शक्तिशाली बनाती

✍🏻अरुण उपाध्याय


रविवार, 16 जनवरी 2022

सूर्य सिद्धांत , आधुनिक खगोलविज्ञान की नीव है।

 

पहली से तीसरी शताब्दी में लिखे इस ग्रन्थ ने जो खोजे कि वह इतनी सटीक बैठी की आज लोग आश्चर्यचकित हो जाते है।

सिंध के पंडित कनक से यह ग्रन्थ बगदाद पहुँचा , मंसूर ने इसका अरबी में अनुवाद किया उस पुस्तक नाम रखा हिंद -सिंध । उस समय स्पेन पर अरबो का कब्जा था , यह पुस्तक वहाँ पहुँची।

यही सूर्यसिद्धांत यूरोप में Astronomy ,  mathmatics का आधार बन गई।

वाह्य आक्रमणों जूझते भारत को यह समय नहीं मिल सका कि इसका प्रयोग कर सके , कुछ हमारी मूढ़ता भी है। हम संस्कृत को मंत्र मानकर जपते रहे।

स्वंत्रता के बाद सारे प्राचीन ज्ञान को हमारी शिक्षा प्रणाली से निकाल दिया गया।

यह घृणा इतनी रक्तरंजित थी कि विज्ञान को भी धर्म बनाकर कूड़ेदान में फेंक दिया गया।

सूर्यसिद्धांत में सबसे पहले बताया गया कि पृथ्वी गोल है -

सर्वश्रेव महिगोले सवस्थानम उपस्थितम,

मन्यन्ते यत्रो गोलस्य तस्यो क्वॉध्वमेव वाधहः। (सूर्यसिद्धांत )

लोग सोचते वह सबसे उचे स्थान पर खड़े है , जबकि पृथ्वी गोल है। उपर नीचे कुछ नहीं है।


कुरान में पृथ्वी चपटी थी तो अरबो ने बसरी आंदोलन के बाद सभी सूर्यसिद्धांत की पुस्तकों को जला दिया।

लेकिन यूरोप में इस पर बहुत शोध हुये।

सूर्य सिद्धांत ने पृथ्वी ही नहीं अन्य ग्रहों की सटीक जानकारी दी, जो 19 वी सदी में विज्ञान के वृहद विकास के बाद सिद्ध हुआ।

शनि ग्रह का व्यास 63882 मील,

बुध ग्रह का व्यास 3006 मील है।यह आधुनिक शक्तिशाली टेलिस्कोप से मात्र 1% से ही कम है।

वर्ष में 365.242 दिन होते है , यह सूर्यसिद्धांत ने ही बताया था।

पृथ्वी पर बैठकर आप यह बता दे कि सूर्य , चंद्रमा , शनि, मंगल की गति क्या है , व्यास क्या है! तो उस पर सुगमता से पहुँच भी सकते है।

हमारी शिक्षा व्यवस्था आने वाली पीढ़ी को शिक्षित करती तो उनको पता चलता , हम क्या थे ?

अब क्या है।


✍🏻रविशंकर सिंह


बड़ा हुआ सो का हुआ…..


pi क्या होता है, ऐसा तो कभी मैंने सोचा ही नहीं ! आज इतने दिनों बाद, पहली बार मुझे अपने मोबाइल की याद आयी, जो गिर्राज जी के कहने के बाद मैंने एक बैग में डाल लिया था, कपड़ों के साथ और आज तक वो वैसा ही पडा है, बिना चार्जिंग के | और अभी वो मोबाइल मेरे होटल में था | मैंने उसे चार्ज भी नहीं किया था, इतने दिनों से | आज इतने दिनों बाद मुझे उस मोबाइल की जरूरत महसूस हुई | अगर मेरे पास मोबाइल होता, तो अभी गूगल करके इनको बता देता क्योंकि मुझे तो सही में नहीं पता था कि pi होता क्या है ! कभी सोचा ही नहीं !!! pi के बारे में शायद पहली बार कक्षा ८ में पढ़ा था और उसके बाद से इन्जिनीरिंग तक हजारों बार उसका प्रयोग भी किया होगा लेकिन कभी ये प्रश्न ही दिमाग में नहीं आया कि ये है क्या बला ! आयी कहाँ से ! 


अब मुझे किशोर जी की बात थोड़ी थोड़ी समझ में आ रही थी | ये सही कह रहे थे कि ऐसी जिज्ञासा कभी पनपने ही नहीं दी गयी, बस बता दिया गया कि pi की वैल्यू क्या होती है | कभी किसी ने समझाया ही नहीं कि ये आया कहाँ से ! क्या मेरे अध्यापको को पता होता होगा ? शायद उन्हें भी न पता हो ! मेरी बेटी जिस स्कूल में पढ़ती है, क्या उसकी गणित की अध्यापिका को पता होगा ! मुझे नहीं लगता | पर पता तो होना चाहिए ! जो पढ़ रहे हैं, उसके बारे में इतना बेसिक ज्ञान तो होना ही चाहिए कि वो आया कहाँ से ! मैंने पूरे जीवन में ऐसी कितनी बातें पढ़ी होंगी, ऐसे तो, जिनके बारे में मुझे आज तक नहीं पता | अब तो बेज्जती होनी ही थी | बिना गूगल के तो मैंने इस प्रश्न का उत्तर नहीं दे सकता था | मैंने शर्मिंदगी में बोला - 


“नहीं, मुझे नहीं पता कि pi क्या होता है |” 


“शाब्बाश !!! यही है शिक्षा पद्धति | यदि मैं अध्यापक होता तो बताता कि सूर्य सिद्धांत में विदित है कि -


योजनानि शतान्यष्टो भूकर्णों द्विगुणानि तु |

तद्वर्गतो दशगुणात्पदे भूपरिधिर्भवते || (1*)


अर्थात पृथ्वी का व्यास ८०० के दूने १६०० योजन है, इसके वर्ग का १० गुना करके गुणनफल का वर्गमूल निकालने से जो आता है, वह पृथ्वी कि परिधि है |


इस श्लोक में pi के बारे में ही बताया गया है | - ये कहते हुए, किशोर जी उठ कर गए और एक पेन और खाली पेन ले आये, दूसरे कमरे से | आगे बताते हुए बोले -


“मान लो कि व्यास A और परिधि P है तो इस श्लोक के हिसाब से जो फार्मूला बनेगा वो होगा 


P = ѵ(A2  x 10) 

P = A x ѵ10

P = A x 3.1631


इसका अर्थ ये हुआ कि वृत्त की परिधि व्यास का ३.१६३१ गुना होती है | आजकल इस सम्बन्ध को ३.१४१६ तक ४ अंको तक शुद्ध माना गया है जो कि ३.१६२३ से थोडा भिन्न है परन्तु इससे ये नहीं समझना चाहिए कि सूर्यसिद्धांत जिसने लिखा उसे व्यास और परिधि का ठीक ठीक सम्बन्ध नहीं मालूम था; क्योंकि दूसरे अध्याय में अर्धव्यास और परिधि का अनुपात ३४३८:२१६०० माना गया है, जिससे परिधि व्यास का ३.१४१३६ गुना ही ठहरती है | इसलिए इस श्लोक में परिधि को व्यास का ѵ10, मात्र सुविधा के लिए और गणित की क्रिया  को संक्षिप्त करने के लिए, माना गया है | ठीक वैसे, जैसे आजकल जब संक्षिप्त में लिखना हो तो कोई २२/७ लिखता है या ३.१४ ही लिखता है और जहाँ बहुत सूक्ष्म गणना करनी हो, मात्र वहां दशमलव के ५-६ अंको तक की गणना की जाती है | 


सूर्य सिद्धांत को बहुत लोगो ने अंग्रेजी में ट्रांसलेट किया, जैसे Ebenezer Burgess. "Translation of the Surya-Siddhanta, a text-book of Hindu Astronomy", Journal of the American Oriental Society 6 (1860): 141–498, Victor J. Katz. A History of Mathematics: An Introduction, 1998, Dwight William Johnson. Exegesis of Hindu Cosmological Time Cycles, 2003. (२*) लेकिन इसका काल वराहमिहिर से भी पुराना माना जाता है | सूर्य सिद्धांत किसने लिखा, ये सही सही प्राप्त नहीं है क्योंकि पुराने समय में अपने नाम से पुस्तकें लिखने का चलन नहीं था | उपलब्ध पाठ में मय नामक दैत्य का नाम है, जिसने इसका उपदेश दिया | ये वही मय दैत्य है, जो रावण का ससुर था और जिसने त्रिपुर बनाया था और जो रचनाकारों में सर्वश्रेष्ठ था | 


pi के सर्वप्रथम प्रयोग के लिये π संकेत का प्रयोग सर्वप्रथम सन् १७०६ में विलियम जोन्स ने सुझाया और बस तबसे pi विदेशी हो गया | हमारे यहाँ के लोग काम बहुत करते थे, पर नाम के लिए नहीं करते थे वर्ना  एक लेखक को ऐसी रचना करने के लिए मयासुर के नाम की जरूरत क्यों पड़ेगी भला ! ठीक वैसे, जैसे शून्य का आविष्कार भारत में ही माना जाता है और इसका श्रेय आर्यभट को दिया जाता है किन्तु क्या आर्यभट से पहले किसी ने शून्य का प्रयोग नहीं किया था ? क्या तुम्हे नहीं पता कि रावण के १० सर थे और कौरवों की संख्या 100 थी ? और पुराने जाओगे तो शुक्ल यजुर्वेद के १८ वें अध्याय में चतस्रश् च मे ऽष्टौ च मे ऽष्टौ च मे द्वादश च मे द्वादश च मे षोडश च मे षोडश च मे विशतिश् च मे विशतिश् च मे चतुर्विशतिश् च मे चतुर्विशतिश् च मे ऽष्टाविशतिश् च मे (३*) का जो पाठ है, वो क्या है ? ४ का पहाड़ा है ! यदि ४ का पहाड़ा पता था कि ४ तीय १२ होता है और ४ चौके १६ होता है तो क्या ये संभव है कि शून्य की खोज आर्यभट ने की हो | आर्यभट के काल में सिर्फ इसे लिखा पाया गया, इसलिए इसे आर्यभट तक सीमित कर दिया गया क्योंकि उस से पहले का कोई लिखित सूत्र प्राप्त नहीं है, क्योंकि हमारे यहाँ श्रौत परम्परा थी, सुनने की और यदि लिखा भी लोगो ने बाद में, तो अपना नाम नहीं लिखा | आर्यभट ने तो सिर्फ इसे अपने प्रयोगों को सहेजने के लिए लिखा और शून्य के अविष्कारक के रूप में उनका नाम हो गया | 


खैर, जब मैं बच्चो को ये बता देता तो बच्चो को सूर्य के बारे में, पृथ्वी के बारे में, ज्योतिष के बारे में, सूर्य सिद्धांत के बारे में पता तो चलता | बच्चो को कोई बात शोर्ट में बताना उनके लिए घातक है, उनकी कल्पनाओं के लिए, उनकी ग्रोथ के लिए | जब आप बच्चे को आगे बताओगे तो उसे मजा भी आएगा और वो उसके २ कदम आगे भी सोच पायेगा | पर आज शिक्षा व्यवस्था रटाने पर आमादा है, जबकि सत्य ये है कि रटंत विद्या, फलंत नाही | 


भारतीय ज्योतिष इतना उन्नत था कि जब विदेशी लोग कपडे पहनना भी नहीं जानते थे, तब हम लोगो ने पृथ्वी से सूर्य की दूरी, सभी ग्रहों की दूरी, व्यास, परिक्रमण इत्यादि निकाल लिया था और तुम बात करते हो कि भारत ने दिया क्या है ! यदि भारत ने ये सब न दिया होता, तो पश्चिमी देश क्या भौतिक विज्ञान में उन्नति पाते और क्या आज हमारे देश को उपदेश दे रहे होते | अफ़सोस, आज हमारे ही शास्त्रों को, आजकल की जनरेशन बिना पढ़े ही रिजेक्ट करना चाहती है | बचपन से पढाये नहीं जाते सो बड़े होने पर ऊट पटांग अवधारणायें, ये लोग पोंगा पंडितों के कहने पर बना लेते हैं जैसे तुमने बना ली कि हमारे देश के विज्ञान ने दुनिया को दिया क्या है | जो आज भी शास्त्रों को पढता है, उन्हें गुनता है, उन पर विश्वास करता है, वो मंजुल भार्गव बन जाता है और आज भी (२०१४) में गणित का फील्ड मैडल (गणित का  नोबल पुरूस्कार) प्राप्त कर लेता है और वो भी pi की वैल्यू को निष्पादित करने के लिए और तुम जैसे मूर्ख लोग, अपने शास्त्रों को संदेह की दृष्टी से ही देखते रह जाते हो |  

✍🏻अभिनंदन शर्मा


ज्‍योतिष के यन्‍त्र : कैसे-कैसे ?


ज्‍योतिष के यन्‍त्रों की अनुपम विरासत है। ज्‍योतिष के प्राचीन यन्‍त्रों का विवरण यदि हमें पंचसिद्धांतिका, सूर्यसिद्धांत, सिद्धांत शेखर, सिद्धांत शिरोमणि, ब्रह्मस्‍फुट सिद्धांत, बटेश्‍वर सिद्धांत आदि में मिलता है तो सौर वेधशालाओं की स्‍थापना के बाद, नए सिरे से विकसित यन्‍त्रों की स्‍थापना हुई तो खगोल-भूगोल की गणनाओं के लिए मानक रूप से यन्‍त्रों की स्‍थापना की जाने लगी। इस कार्य में खास दिलचस्‍पी जयपुर नरेश सवाई जयसिंह (राज्‍यारोहण 1693 ई.) ने ली। जयसिंह ने देश-विदेश की समय गणना पर आधारित ग्रंथों का अध्‍ययन के लिए न केवल संग्रह किया, बल्कि नए सिरे से स्‍वयं ने भी लिखा और अपने आश्रित दैवज्ञों से सौर वेधशालाओं के लिए यन्‍त्र और यन्‍त्रों के निर्माण-नियोजन के प्रयोजन से कृतियों की रचना भी करवाई। 

इनमें ग्रीक भाषा में साबजूस यूस नामक लेखक की कृति को 'उकरा' के नाम से नयनसुख उपाध्‍याय ने संस्‍कृत में अनूदित किया। इसमें गोलीय ज्‍यामिति विषयक सिद्धांत का प्रतिपादन है। इसका संपादन पं. विभूतिभूषण भट्टाचार्य ने किया। जयसिंह ने स्‍वयं 'यन्‍त्रराज रचना' का प्रणयन किया। यह प्रणयन उनके द्वारा स्‍थापित वेधशालाओं में बनवाए जाने वाले यन्‍त्रों की रचना के प्रयोजन से किया गया। यह मूलत: पारिभाषिक ग्रंथ की कोटि का है जिसका संपादन पंडित केदारनाथ ज्‍योतिर्विद ने किया। इसके अतिरिक्‍त जगन्नाथ दैवज्ञ कृत 'सम्राट्सिद्धांत' नामक ग्रंथ में भी वेधशालाओं के यन्‍त्रों का विवरण दिया गया है। श्रीनाथद्विज ने यन्‍त्र प्रभा की रचना की तो पं. केदारनाथ ने 'यन्‍त्रराज प्रभा' का संकलन किया। पंडित  नयनसुख उपाध्‍याय ने 'यन्‍त्रराजविचार विंशाध्‍यायी' की रचना भी की।

इस प्रकार ज्‍योतिष विषयक यन्‍त्रों के संबंध में हमारे यहां ग्रंथों का प्रणयन हुआ। साथ ही साथ ज्‍योतिष के यन्‍त्रों का निर्माण भी हुआ। बूंदी के राज्‍याश्रय में यन्‍त्र निर्माण करने वाले दैवज्ञ का विवरण मुंशी देवीप्रसाद ने दिया है। हाल ही मुझे मित्रवर श्री विक्रमार्क अत्रि ने यन्‍त्रराज का एक चित्र भेजा और इस संबंध में लिखने  को प्रेरित किया। इस यन्‍त्र पर उत्‍कीर्ण है- 

'' संवत् 1700 चैत्र कृष्‍णैकादश्‍यां, 

मणि रामेण कारितं। 

श्रीलीलानाथ्‍ा ज्‍येातिर्विदीयम्।'' 

इससे विदित होता है कि चैत्र माह के कृष्‍ण पक्ष की एका‍दशी संवत् 1700 को इस यंत्र का निर्माण मणिराम ने किया था। यह यत्र ज्‍येातिर्विद श्रीलीलानाथ के लिए बनाया गया था। इसमें जिस तरह सूची आदि का प्रयोग किया गया है, वह इसकी आं‍तरिक रचना को भी जाहिर करता है। इसमें बाह़य, मध्‍य और आन्‍तरिक वृत्‍तों में संख्‍याओं को लिखा गया है। बाह्य चक्र पर छह की संख्‍या से आरंभ करते हुए आगे तक बढ़ाया गया है। यह लेखन उभय क्रम से हुआ है यथा- 6, 12, 18, 24, 30, 36, 42, 48, 54,  60, 66... 90 और फिर छह-छह की संख्‍या को पुन: घटाते हुए संख्‍याओं को उत्‍कीर्ण किया गया है। वृत्‍तीय रूप में ऐसा चार बार हुआ है। मध्‍य के वृत्‍त पर नीचे 1 से लेकर 12 तक अंक है और मध्‍य में छह के अंकों का पूर्वानुसार ही न्‍यास हुआ है। ऐसा हुआ  है और मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्‍या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुंभ और मीन इन बारह राशियों के नाम लिखे गए हैं। मध्‍य में ऊर्ध्‍व रेखा पर 90, उस पर 6 घटाकर 84 का अंक उत्‍कीर्ण किया गया है...।

हमारे लिए तो यह बात ही रोचक है कि ज्‍योतिष में ऐसे यन्‍त्र से राश्‍यानुसार नक्षत्रादि, शर व क्रांति, वेध आदि की गणना की जाती रही होगी मगर यह गणित है जरा कठिन, हमें तो उठते ही वाट्सएप पर पूरा पंचांग मिल जाता है, हम समय देखने के लिए घड़ी तक नहीं बांध रहे हैं तो फिर ऐसा समझना तो कठिन लगेगा ही। बहरहाल, यदि आपके ध्‍यान में भी ऐसे यंत्रों की कोई जानकारी है तो मैं भी देखना चाहूंगा और मित्र भी...। 

✍🏻श्रीकृष्ण जुगनू


....बड़ा रहस्यमयी है यह जंतर मंतर ...


यह जंतर मंतर ग्रहो की गति को माप लेता है, ध्यान रहें, आज विज्ञान इसी में अरबो खरबों खपा रहा है, जो ज्ञान भारतीय राजाओ ने हमे फ्री में दिया .... खुद मेहनत करके ।।


राजा जयसिंह द्वितीय बहुत छोटी आयु से गणित में बहुत ही अधिक रूचि रखते थे। उनकी औपचारिक पढ़ाई ११ वर्ष की आयु में छूट गयी क्योंकि उनकी पिताजी की मृत्यु के बाद उन्हें ही राजगद्दी संभालनी पड़ी थी। २५जनवरी, १७०० में गद्दी संभालने के बाद भी उन्होंने अपना अध्ययन नहीं छोडा। उन्होंने बहुत खगोल विज्ञानं और ज्योतिष का भी गहरा अध्ययन किया। उन्होंने अपने कार्यकाल में बहुत से खगोल विज्ञान से सम्बंधित यंत्र एवम पुस्तकें भी एकत्र कीं। उन्होंने प्रमुख खगोलशास्त्रियों को विचार हेतु एक जगह एकत्र भी किया। कहते है जयसिंह जी ने 40,000 पन्नो की पढ़ाई की थी, मात्र जंतर मंतर के लिए ।। 


जंतर-मंतर के प्रमुख यंत्रों में सम्राट यंत्र, नाड़ी वलय यंत्र, दिगंश यंत्र, भित्ति यंत्र, मिस्र यंत्र, आदि प्रमुख हैं, जिनका प्रयोग सूर्य तथा अन्य खगोलीय पिंडों की स्थिति तथा गति के अध्ययन में किया जाता है। जंतर-मंतर के प्रमुख यंत्रों में सम्राट यंत्र, नाड़ी वलय यंत्र, दिगंश यंत्र, भित्ति यंत्र, मिस्र यंत्र, आदि प्रमुख हैं, जिनका प्रयोग सूर्य तथा अन्य खगोलीय पिंडों की स्थिति तथा गति के अध्ययन में किया जाता है। जो खगोल यंत्र राजा जयसिंह द्वारा बनवाये गए थ, उनकी सूची इस प्रकार से है:


सम्राट यन्त्र

सस्थाम्सा

दक्सिनोत्तारा भित्ति यंत्र

जय प्रकासा और कपाला

नदिवालय

दिगाम्सा यंत्र

राम यंत्र

रसिवालाया

राजा जय सिंह तथा उनके राजज्योतिषी पं। जगन्नाथ ने इसी विषय पर 'यंत्र प्रकार' तथा 'सम्राट सिद्धांत' नामक ग्रंथ लिखे।


५४ वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु के बाद देश में यह वेधशालाएं बाद में बनने वाले तारामंडलों के लिए प्रेरणा और जानकारी का स्रोत रही हैं। हाल ही में दिल्ली के जंतर-मंतर में स्थापित रामयंत्र के जरिए प्रमुख खगोलविद द्वारा शनिवार को विज्ञान दिवस पर आसमान के सबसे चमकीले ग्रह शुक्र की स्थिति नापी गयी थी। इस अध्ययन में नेहरू तारामंडल के खगोलविदों के अलावा एमेच्योर एस्ट्रोनामर्स एसोसिएशन और गैर सरकारी संगठन स्पेस के सदस्य भी शामिल थे।


भारत - ज्ञान के रथ के देश मे जयसिंहजी जैसे राजा का सम्मान नही, किंतु .....

✍🏻शंकर शांडिल्य

शनिवार, 8 जनवरी 2022

कमाल की है ‘मूंग की दाल’*

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हम इसे बीमारियों में क्यों खाते हैं..?

सभी जानते हैं कि दालें प्रोटीन से भरपूर होती हैं, लेकिन दालों में सबसे उत्तम, स्वास्थवर्द्धक तथा शक्तिवर्द्धक दाल मूंग की होती है।

● मूंग की दाल की खास बात है कि यह सुपाच्य होती है।

● इसके अतिरिक्त मूंग की दाल में कार्बोहाइड्रेट, कई प्रकार के विटामिन, फॉस्फोरस और खनिज तत्व पाए जाते हें, जो अनेक बीमारियों से लड़ने की क्षमता रखते हैं।

● मूंग साबूत हो या धुली, पोषक तत्वों से भरपूर होती है।

● अंकुरित होने के बाद तो इसमें पाए जाने वाले पोषक तत्वों कैल्शियम, आयरन, प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट और विटामिन्स की मात्रा दोगुनी हो जाती है।

अंकुरित मूंग दाल में मैग्नीशियम, कॉपर, फोलेट, राइबोफ्लेविन, विटामिन-सी, फाइबर, पोटेशियम, फॉस्फोरस, मैग्नीशियम, आयरन, विटामिन बी-6, नियासिन, थायमिन और प्रोटीन होता है।


● कुछ लोगों को लगता है कि मूंग दाल बीमारी में खाने के लिए होती है, जबकि मूंग दाल में इतने पौष्टिक तत्व होते है कि अपनी खुराक में उसे शामिल करना ही चाहिए।

● मात्र एक कटोरी पकी हुई मूंग की दाल में 100 से भी कम केलौरी होती है।

● इसे खाने के बाद लम्बे समय तक भूख नहीं लगती है।

● रात के खाने में रोटी के साथ एक कटोरी मूंग दाल खाने से भरपूर पोषण मिलता है और जल्द ही बढ़ा वजन कम होता है।

● इस तरह मोटापा घटने में मूंग दाल महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

● शोध बताते हैं कि मूंग दाल खाने से त्वचा कैंसर से सुरक्षा भी मिलती है। 


● मूंग की मदद से आसानी से रक्तचाप को नियंत्रित किया जा सकता है, साथ ही मूंग कोलेस्ट्रॉल के स्तर को भी कम करती है।

● ये सोडियम के प्रभाव को कम कर देती है, जिससे रक्तचाप बढ़ता नहीं है।

● मूंग आयरन की कमी को पूरा करने में सक्षम है।

आमतौर पर, शाकाहारी लोग अपने खाने में कम आयरन लेते हैं।

● अपनी खुराक में मूंग को शामिल करके आयरन की कमी दूर की जा सकती है, जिससे एनीमिया का जोखिम भी अपनी आप कम हो जाएगा।

● दाद, खाज-खुजली की समस्या में मूंग की दाल को छिलके सहित पीस कर लेप बनाकर उसे प्रभावित जगह पर लगाने से लाभ होता है।


● टायफॉयड होने पर मूंग की दाल खाने से मरीज को बहुत आराम मिलता है।

● किसी भी बीमारी के बाद शरीर कमजोर हो जाता है।

● मूंग की दाल खाने से शरीर को ताकत मिलती है।


● मूंग की दाल के लेप से ज्यादा पसीना आना भी रुक जाता है।

● दाल को हल्का गर्म करके पीस लें। फिर इस पाउडर में कुछ मात्रा पानी की मिला कर लेप की तरह पूरे शरीर पर मालिश करें, ज्यादा पसीना आने की शिकायत दूर हो जाएगी।

● मूंग को अंकुरित करके भी उपयोग में लाया जा सकता है, यह बहुत ही गुणकारी और स्वास्थ्वर्द्धक है तथा इसके सेवन से अनेक रोगों से बचाव किया जा सकता है और मुक्ति पायी जा सकती है।

● अंकुरित मूंग का सेवन अवश्य करना चाहिए क्योंकि यह शरीर में आवश्यक तत्वों की कमी पूरी करती है और शरीर को मजबूत बनाती है।

● यह सुपाच्य भी है।

● इससे बेहतर शाकाहारी खाद्य सामग्री कोई नहीं होती है।


● अंकुरित मूंग में ग्लूकोज लेवल बहुत कम होता है इस वजह से मधुमेह रोगी इसे खा सकते हैं।

● अंकुरित मूंग के सेवन से पाचन क्रिया हमेशा सही बनी रहती है जिसके कारण पेट सम्बंधी समस्या नहीं होती है और जीवन खुशहाल रहता है।

● अंकुरित मूंग में शरीर के विषाक्त तत्वों को निकालने का गुण होता है।

● इसके सेवन से शरीर में विषाक्त तत्वों में कमी आती है और शरीर स्वस्थ तथा चुस्त रहता है।

● अंकुरित मूंग का नियमित सेवन करने से उम्र का असर जल्दी ही चेहरे पर दिखाई नहीं देता है।

● अंकुरित मूंग में पेप्टिसाइड होता है जो रक्तचाप को संतुलित रखता है और शरीर को स्वस्थ एवं सुदृढ़ बनाए रखने में कारगर होता है।


● अंकुरित मूंग में फाइबर की भरपूर मात्रा होती है, जिससे अपच और कब्ज की समस्या नहीं होती है तथा पाचन क्रिया दुरुस्त बनी रहती है।

● मूंग की दाल में ऐसे गुण होते हैं जो शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ा देते हैं और उसे बीमारियों से लड़ने की ताकत देते हैं।


अब मर्जी आपकी, आप मूंग की दाल खायें या कुछ और।

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