गुरुवार, 23 जुलाई 2020

जापान में सम्मान


भारत का गौरव, जापान में सम्मानित है
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             ***12 नवंबर, 1948***
( टोक्यो के बाहरी इलाके में एक विशाल बगीचेवाले घर में टोक्यो ट्रायल चल रहा है। द्वितीय विश्वयुद्ध में हारने के बाद, जापान के तत्कालीन प्रधान मंत्री तोजो सहित पचपन जापानी युद्धबन्दियों का मुकदमा चालू है .)

इनमें से अट्ठाईस लोगों की पहचान क्लास-ए (शांतिभंग का अपराध) युद्ध अपराधियों के रूप में की गई है। यदि सिद्ध ह़ो जाता है, तो एकमात्र सजा "मृत्युदण्ड" है।

दुनियाभर से ग्यारह अन्तर्राष्ट्रीय न्यायाधीश ...... "दोषी" की घोषणा कर रहे हैं .... "दोषी" ...... "दोषी" .........

 अचानक एक गर्जना, "दोषी नहीं! "

दालान में एक सन्नाटा छा गया।  यह अकेला असंतुष्ट कौन है ?

उनका नाम था राधा बिनोद पाल भारत से एक न्यायाधीश थे !

1886 में पूर्वी बंगाल के कुंभ में उनका जन्म हुआ। उनकी माँ ने अपने घर और गाय की देखभाल करके जीवन यापन किया। बालक राधा बिनोद गांव के प्राथमिक विद्यालय के पास ही गाय को चराने ले जाता था।

जब शिक्षक स्कूल में पढ़ाते थे, तो राधा बाहर से सुनता था। एक दिन स्कूल इंस्पेक्टर शहर से स्कूल का दौरा करने आये।  उन्होंने कक्षा में प्रवेश करने के बाद छात्रों से कुछ प्रश्न पूछे। सब बच्चे चुप थे।
राधा ने कक्षा की खिड़की के बाहर से कहा .... "मुझे आपके सभी सवालों का जवाब पता है।" और उसने एक-एक कर सभी सवालों के जवाब दिए।
इंस्पेक्टर ने कहा ... "अद्भुत! .. आप किस कक्षा में पढ़ते हो ?"
जवाब आया, "... मैं नहीं पढ़ता ... मैं यहां एक गाय को चराता हूं।"

जिसे सुनकर हर कोई हैरान रह गया। मुख्याध्यापक को बुलाकर, स्कूल निरीक्षक ने लड़के को स्कूल में प्रवेश लेने के साथ-साथ कुछ छात्रवृत्ति प्रदान करने का निर्देश दिया।

इस तरह राधा बिनोद पाल की शिक्षा शुरू हुई। फिर जिले में सबसे अधिक अंकों के साथ स्कूल फाइनल पास करने के बाद, उन्हें प्रेसीडेंसी कॉलेज में भर्ती कराया गया।
M. Sc.गणित  होने के बाद कोलकाता विश्वविद्यालय से, उन्होंने फिर से कानून का अध्ययन किया और डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की।
दो चीजों के विपरीत चुनने के संदर्भ में उन्होंने एक बार कहा था, "कानून और गणित सब के बाद इतने अलग नहीं हैं।"

फिर से वापस आ रहा है... अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय टोक्यो।

बाकी न्यायाधीशों के प्रति अपने ठोस तर्क में उन्होंने संकेत दिया कि मित्र राष्ट्रों (WWII के विजेता) ने भी संयम और अंतरर्राष्ट्रीय कानून की तटस्थता के सिद्धांतों का उल्लंघन किया है।
जापान के आत्मसमर्पण के संकेतों को अनदेखा करने के अलावा, उन्होंने परमाणु बमबारी का उपयोग कर लाखों निर्दोष लोगों को मार डाला।
राधा बिनोद पाल द्वारा बारह सौ बत्तीस पृष्ठों पर लिखे गए तर्क को देखकर न्यायाधीशों को क्लास-ए से बी तक के कई अभियुक्तों को छोड़ने के लिए मजबूर किया गया था।

इन क्लास-बी युद्ध अपराधियों को एक निश्चित मौत की सजा से बचाया गया था।  अंतर्राष्ट्रीय अदालत में उनके फैसले ने उन्हें और भारत को विश्व प्रसिद्ध प्रतिष्ठा दिलाई।

जापान इस महान व्यक्ति का सम्मान करता है। 1966 में सम्राट हिरोहितो ने उन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान *'कोक्को कुनासाओ'* से सम्मानित किया।
टोक्यो और क्योटो में दो व्यस्त सड़कों का नाम उनके नाम पर रखा गया है।
उनके निर्णय को कानूनी पाठ्यक्रम में भी शामिल किया गया है। टोक्यो की सुप्रीम कोर्ट के सामने उनकी प्रतिमा लगाई गई है।

2007 में, प्रधान मंत्री शिंजो आबे ने दिल्ली में उनके परिवार के सदस्यों से मिलने की इच्छा व्यक्त की और वे उनके बेटे से मिले।

डॉ. राधा बिनोद पाल (27 जनवरी 1886 - 10 जनवरी 1967) का नाम जापान के इतिहास में याद किया जाता है।  जापान के टोक्यो में, उनके नाम एक संग्रहालय और यासुकुनी मंदिर में एक मूर्ति है।

उनके नाम पर जापान विश्वविद्यालय का एक शोध केंद्र है। जापानी युद्ध अपराधियों पर उनके फैसले के कारण, चीनी लोग उनसे नफरत करते हैं।

वे कानून से संबंधित कई पुस्तकों के लेखक हैं।
भारत में लगभग कोई भी उन्हें नहीं जानता है और शायद उनके पड़ोसी भी उन्हें नहीं जानते हैं!
इरफान खान अभिनीत टोक्यो ट्रायल्स पर एक हिंदी फिल्म बनाई गई थी, लेकिन उस फिल्म ने कभी सुर्खियां नहीं बटोरीं।

_.... बहुत सारे अज्ञात भारतीयों में से एक।_
              वहाटसऐप से आभार सहित
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भोलाराम का जीव / हरिशंकर परसाई



भोलाराम का जीव

हरिशंकर परसाई

ऐसा कभी नहीं हुआ था।
धर्मराज लाखों वर्षो से असंख्य आदमियों को कर्म और सिफारिश के आधार पर स्वर्ग और नरक में निवास-स्थान अलाट करते आ रहे थे। पर ऐसा कभी नहीं हुआ था।
सामने बैठे चित्रगुप्त बार-बार चश्मा पोंछ, बार-बार थूक से पन्ने पलट, रजिस्टर देख रहे थे। गलती पकड में ही नहीं आरही थी। आखिर उन्होंने खीझकर रजिस्टर इतनी ज़ोरों से बन्द किया कि मख्खी चपेट में आगई। उसे निकालते हुए वे बोले, ''महाराज, रिकार्ड सब ठीक है। भोलाराम के जीव ने पांच दिन पहले देह त्यागी और यमदूत के साथ इस लोक के लिए रवाना हुआ, पर अभी तक यहां नहीं पहुंचा।''
धर्मराज ने पूछा, ''और वह दूत कहां है?''
''महाराज, वह भी लापता है।''
इसी समय द्वार खुले और एक यमदूत बडा बदहवास-सा वहां आया। उसका मौलिक कुरूप चेहरा परिश्रम, परेशानी और भय के कारण और भी विकृत होगया था। उसे देखते ही चित्रगुप्त चिल्ला उठे, ''अरे तू कहां रहा इतने दिन? भोलाराम का जीव कहां है?''
यमदूत हाथ जोडक़र बोला, ''दयानिधान, मैं कैसे बतलाऊं कि क्या हो गया। आज तक मैने धोखा नहीं खाया था, पर इस बार भोलाराम का जीव मुझे चकमा दे गया। पांच दिन पहले जब जीव ने भोलाराम की देह को त्यागा, तब मैंने उसे पकडा और इस लोक की यात्रा आरम्भ की। नगर के बाहर ज्योंही मैं इसे लेकर एक तीव्र वायु-तरंग पर सवार हुआ त्योंही वह मेरे चंगुल से छूटकर न जाने कहां गायब होगया। इन पांच दिनों में मैने सारा ब्रह्यांड छान डाला, पर उसका पता नहीं चला।''
धर्मराज क्रोध से बोले, ''मूर्ख, जीवों को लाते-लाते बूडा हो गया, फिर एक मामूली आदमी ने चकमा दे दिया।''
दूत ने सिर झुकाकर कहा, ''महाराज, मेरी सावधानी में बिलकुल कसर नहीं थी। मेरे अभ्यस्त हाथों से अच्छे-अच्छे वकील भी नहीं छूट सके, पर इस बार तो कोई इन्द्रजाल ही हो गया।''
चित्रगुप्त ने कहा, ''महाराज, आजकल पृथ्वी पर इसका व्यापार बहुत चला है। लोग दोस्तों को फल भेजते है, और वे रास्ते में ही रेलवे वाले उडा देते हैं। होज़री के पार्सलों के मोज़े रेलवे आफिसर पहनते हैं। मालगाडी क़े डब्बे के डब्बे रास्ते में कट जाते हैं। एक बात और हो रही है। राजनैतिक दलों के नेता विरोधी नेता को उडा कर कहीं बन्द कर देते हैं। कहीं भोलाराम के जीव को भी किसी विरोधी ने, मरने के बाद, खराबी करने के लिए नहीं उडा दिया?''
धर्मराज ने व्यंग्य से चित्रगुप्त की ओर देखते हुए कहा, ''तुम्हारी भी रिटायर होने की उम्र आ गई। भला, भोलाराम जैसे दीन आदमी को किसी से क्या लेना-देना?''
इसी समय कहीं से घूमते-घामते नारद मुनि वहां आ गए। धर्मराज को गुमसुम बैठे देख बोले, ''क्यों धर्मराज, कैसे चिंतित बेठे हैं? क्या नरक में निवास-स्थान की समस्या अभी हल नहीं हुई?''
धर्मराज ने कहा, ''वह समस्या तो कभी की हल हो गई। नरक में पिछले सालों से बडे ग़ुणी कारीगर आ गए हैं। कई इमारतों के ठेकेदार हैं, जिन्होंने पूरे पैसे लेकर रद्दी इमारतें बनाई। बडे-बडे इंजीनियर भी आ गए हैं जिन्होंने ठेकेदारों से मिलकर भारत की पंचवर्षीय योजनाओं का पैसा खाया। ओवरसीयर हैं, जिन्होंने उन मज़दूरों की हाज़री भरकर पैसा हडपा, जो कभी काम पर गए ही नहीं। इन्होंने बहुत जल्दी नरक में कई इमारतें तान दी हैं। वह समस्या तो हल हो गई, पर एक विकट उलझन आगई है। भोलाराम के नाम के आदमी की पांच दिन पहले मृत्यु हुई। उसके जीव को यमदूत यहां ला रहा था, कि जीव इसे रास्ते में चकमा देकर भाग गया। इसने सारा ब्रह्यांड छान डाला, पर वह कहीं नहीं मिला। अगर ऐसा होने लगा, तो पाप-पुण्य का भेद ही मिट जाएगा।''
नारद ने पूछा, ''उस पर इनकम टैक्स तो बकाया नहीं था? हो सकता है, उन लोगों ने उसे रोक लिया हो।''
चित्रगुप्त ने कहा, ''इनकम होती तो टैक्स होता। भुखमरा था।''
नारद बोले, ''मामला बडा दिलचस्प है। अच्छा, मुझे उसका नाम, पता बतलाओ। मैं पृथ्वी पर जाता हूं।''
चित्रगुप्त ने रजिस्टर देखकर बतलाया - ''भोलाराम नाम था उसका। जबलपुर शहर के घमापुर मुहल्ले में नाले के किनारे एक डेढ क़मरे के टूटे-फूटे मकान पर वह परिवार समेत रहता था। उसकी एक स्त्री थी, दो लडक़े और एक लडक़ी। उम्र लगभग 60 वर्ष। सरकारी नौकर था। पांच साल पहले रिटायर हो गया था, मकान का उस ने एक साल से किराया नहीं दिया था इसलिए मकान-मालिक उसे निकालना चाहता था। इतने मे भोलाराम ने संसार ही छोड दिया। आज पांचवां दिन है। बहुत संभव है कि, अगर मकान-मालिक वास्तविक मकान-मालिक है, तो उसने भोलाराम के मरते ही, उसके परिवार को निकाल दिया होगा। इसलिए आपको परिवार की तलाश में घूमना होगा।''
मां बेटी के सम्मिलित क्रंदन से ही नारद भोलाराम का मकान पहिचान गए।
द्वार पर जाकर उन्होंने आवाज़ लगाई, ''नारायण नारायण !'' लडक़ी ने देखकर कहा, ''आगे जाओ महाराज।''
नारद ने कहा, ''मुझे भिक्षा नहीं चाहिए, मुझे भोलाराम के बारे में कुछ पूछताछ करनी है। अपनी मां को ज़रा बाहर भेजो बेटी।''
भोलाराम की पत्नी बाहर आई। नारद ने कहा, ''माता, भोलाराम को क्या बिमारी थी?
''क्या बताऊं? गरीबी की बिमारी थी। पांच साल हो गए पैन्शन पर बैठे थे, पर पेन्शन अभी तक नहीं मिली। हर 10-15 दिन में दरख्वास्त देते थे, पर वहां से जवाब नहीं आता था और आता तो यही कि तुम्हारी पेन्शन के मामले पर विचार हो रहा है। इन पांच सालों में सब गहने बेचकर हम लोग खा गए। फिर बर्तन बिके। अब कुछ नहीं बचा। फाके होने लगे थे। चिन्ता मे घुलते-घुलते और भूखे मरते-मरते उन्होंने दम तोड दिया।''
नारद ने कहा, ''क्या करोगी मां? उनकी इतनी ही उम्र थी।''
''ऐसा मत कहो, महाराज। उम्र तो बहुत थी। 50-60 रूपया महीना पेन्शन मिलती तो कुछ और काम कहीं करके गुज़ारा हो जाता। पर क्या करें? पांच साल नौकरी से बैठे हो गए और अभी तक एक कौडी नहीं मिली।''
दुख की कथा सुनने की फुरसत नारद को थी नहीं। वे अपने मुद्दे पर आए, ''मां, यह बताओ कि यहां किसी से उनका विषेश प्रेम था, जिसमें उनका जी लगा हो?''
पत्नी बोली, ''लगाव तो महाराज, बाल-बच्चों से होता है।''
''नहीं, परिवार के बाहर भी हो सकता है। मेरा मतलब है, कोई स्त्री?''
स्त्री ने गुर्राकर नारद की ओर देखा। बोली, ''बको मत महाराज ! साधु हो, कोई लुच्चे-लफंगे नहीं हो। जिन्दगी भर उन्होंने किसी दूसरी स्त्री को आंख उठाकर नहीं देखा।''
नारद हंस कर बोले, ''हां, तुम्हारा सोचना भी ठीक है। यही भ्रम अच्छी गृहस्थी का आधार है। अच्छा माता, मैं चला।'' व्यंग्य समझने की असमर्थता ने नारद को सती के क्रोध की ज्वाला ने बचा लिया।
स्त्री ने कहा, ''महाराज, आप तो साधु हैं, सिध्द पुरूष हैं। कुछ ऐसा नहीं कर सकते कि उनकी रूकी पेन्शन मिल जाय। इन बच्चों का पेट कुछ दिन भर जाए?''
नारद को दया आ गई। वे कहने लगे, ''साधुओं की बात कौन मानता है? मेरा यहां कोई मठ तो है नहीं? फिर भी सरकारी दफ्तर में जाऊंगा और कोशिश करूंगा।''
वहां से चलकर नारद सरकारी दफ्तर में पहुंचे। वहां पहले कमरे में बैठे बाबू से भोलाराम के केस के बारे में बातें की। उस बाबू ने उन्हें ध्यानपूर्वक देखा और बोला, ''भोलाराम ने दरखास्तें तो भेजी थीं, पर उनपर वज़न नहीं रखा था, इसलिए कहीं उड ग़ई होंगी।''
नारद ने कहा, ''भई, ये पेपरवेट तो रखे हैं, इन्हें क्यों नहीं रख दिया?''
बाबू हंसा, ''आप साधु हैं, आपको दुनियादारी समझ में नहीं आती। दरखास्तें पेपरवेट से नहीं दबती। खैर, आप उस कमरे में बैठे बाबू से मिलिए।''
नारद उस बाबू के पास गये। उसने तीसरे के पास भेजा, चौथे ने पांचवें के पास। जब नारद 25-30 बाबुओं और अफसरों के पास घूम आए तब एक चपरासी ने कहा, '' महाराज, आप क्यों इस झंझट में पड ग़ए। आप यहां साल-भर भी चक्कर लगाते रहें, तो भी काम नहीं होगा। आप तो सीधा बडे साहब से मिलिए। उन्हें खुश कर लिया, तो अभी काम हो जाएगा।''
नारद बडे साहब के कमरे में पहुंचे। बाहर चपरासी ऊंघ रहे थे, इसलिए उन्हें किसी ने छेडा नहीं। उन्हें एकदम विजिटिंग कार्ड के बिना आया देख साहब बडे नाराज़ हुए।बोले, इसे कोई मन्दिर-वन्दिर समझ लिया है क्या? धडधडाते चले आए ! चिट क्यों नहीं भेजी?''
नारद ने कहा, ''कैसे भेजता, चपरासी सो रहा है।''
''क्या काम है?'' साहब ने रौब से पूछा।
नारद ने भोलाराम का पेन्शन-केस बतलाया।
साहब बोले, ''आप हैं बैरागी। दफ्तरों के रीत-रिवाज नहीं जानते। असल मे भोलाराम ने गलती की। भई, यह भी मन्दिर है। यहां भी दान-पुण्य करना पडता है, भेंट चढानी पडती है। आप भोलाराम के आत्मीय मालूम होते हैं। भोलाराम की दरख्वास्तें उड रही हैं, उन पर वज़न रखिए।''
नारद ने सोचा कि फिर यहां वज़न की समस्या खडी हो गई। साहब बोले, ''भई, सरकारी पैसे का मामला है। पेन्शन का केस बीसों दफ्तरों में जाता है। देर लग जाती है। हज़ारों बार एक ही बात को हज़ारों बार लिखना पडता है, तब पक्की होती है। हां, जल्दी भी हो सकती है, मगर  '' साहब रूके।
नारद ने कहा, ''मगर क्या?''
साहब ने कुटिल मुस्कान के साथ कहा, ''मगर वज़न चाहिए। आप समझे नहीं। जैसे आप की यह सुन्दर वीणा है, इसका भी वज़न भोलाराम की दरख्वास्त पर रखा जा सकता है। मेरी लडक़ी गाना सीखती है। यह मैं उसे दे दूंगा। साधु-संतों की वीणा के अच्छे स्वर निकलते हैं। लडक़ी जल्दी संगीत सीख गई तो शादी हो जाएगी।''
नारद अपनी वीणा छिनते देख ज़रा घबराए। पर फिर संभलकर उन्होंने वीणा टेबिल पर रखकर कहा, ''लीजिए। अब ज़रा जल्दी उसकी पेन्शन का आर्डर निकाल दीजिए।''
साहब ने प्रसन्नता से उन्हें कुर्सी दी, वीणा को एक कोने में रखा और घंटी बजाई। चपरासी हाजिर हुआ।
साहब ने हुक्म दिया, ''बडे बाबू से भोलाराम के केस की फाइल लाओ।''
थोडी देर बाद चपरासी भोलाराम की फाइल लेकर आया। उसमें पेन्शन के कागज़ भी थे। साहब ने फाइल पर नाम देखा और निश्चित करने के लिए पूछा, ''क्या नाम बताया साधुजी आपने!''
नारद समझे कि ऊंचा सुनता है। इसलिए ज़ोर से बोले, ''भोलाराम।''
सहसा फाइल में से आवाज़ आई, ''कौन पुकार रहा है मुझे? पोस्टमैन है क्या? पेन्शन का आर्डर आ गया क्या?''
साहब डरकर कुर्सी से लुढक़ गए। नारद भी चौंके। पर दूसरे क्षण समझ गए। बोले, ''भोलाराम, तुम क्या भोलाराम के जीव हो?''
''हां।'' आवाज़ आई।
नारद ने कहा, ''मैं नारद हूं। मैं तुम्हें लेने आया हूं। स्वर्ग में तुम्हारा इन्तजार हो रहा है।''
आवाज़ आई, ''मुझे नहीं जाना। मैं तो पेन्शन की दरखास्तों में अटका हूं। वहीं मेरा मन लगा है। मैं दरखास्तों को छोडक़र नहीं आ सकता

बुधवार, 22 जुलाई 2020

उत्स्व / देवेंद्र कुमार



(कहानी)
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एक नया और अनूठा उत्सव—उसमें वे सब शामिल हुए जिन्हें इससे पहले कभी नहीं बुलाया गया था और फिर...
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मम्मी-पापा ने मना कर दिया। कई बार मनुहार करने पर भी नहीं पसीजे तो रेखा और अजय दादी जयंती के पास जा पहुंचे, लेकिन एकदम चाकलेट की मांग करना ठीक नहीं लगा। अजय बोला—“दादी, क्या आपको याद है कि आज आपका जन्मदिन है।”
“ हाँ, याद क्यों नहीं है, मैं तो कब से तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही थी।”-- दादी ने मुस्कराते हुए कहा और दोनों को चाकलेट के लिए पैसे देते हुए उनके सिर सहला दिए। रेखा और अजय चाकलेट लेने दौड़ गए। इसके बाद जयंती ने अपने बेटे रमेश को बुलाया। कहा—“ अजय ने मुझे बताया है कि आज मेरा जन्म दिन है। इस मौके पर मैं बच्चों को दावत देना चाहती हूँ।” और ठठा कर हंस पड़ी।
बच्चों की इस चाकलेटी शरारत पर रमेश को भी हंसी आ गयी। उन्होंने समझ लिया कि आज माँ आस पड़ोस के बच्चों को दावत देना चाहती हैं। इससे पहले भी उनकी माँ कई बार यह कह कर पूरे घर को चौंका दिया करती थीं कि आज उनका जन्म दिन है, और वह बच्चों को दावत देना चाहती हैं।
अजय और रेखा मित्रों की लिस्ट बनाने लगे तो दादी ने रोक दिया। कहा—“अजय और रेखा के मित्रों को तो हमने न जाने कितनी बार बुलाया है। आज दूसरे बच्चों को बुलाने का मन है, वे बच्चे जिन्हें मैंने आज तक नहीं बुलाया है।’’
माँ की बात ने रमेश को चौंका दिया। पूछा—“ऐसे बच्चे कौन से हैं? बताइए तो सही।”
माँ ने कहा—‘’ उन्हें मैं भी नहीं जानती, कई बार आते जाते हुए देखा है उन बच्चों को-- सड़क पर दौड़ भाग करते हुए। वे हम लोगों की तरह आरामदेह घरों में नहीं रहते, शायद पढने भी न जाते हों। क्या करते हैं यह भी पता नहीं। उनके बारे में ज्यादा जानने के लिए ही मैं आज ऐसे बच्चों को बुलाने की सोच रही हूँ।”
1
रसोई में बर्तन साफ़ करते हुए कंचन भी उनकी बातें सुन रही थी। कई बार काम निपटा कर लौटते समय सोसाइटी के बाहर वाली मुंडेर पर बैठ जाया करती थी कुछ देर के लिए। तब उन बच्चों को निकट से देखने का मौका मिला था कई बार। उस समय सोसाइटी के गार्ड इकट्ठे भोजन किया करते थे। तभी सड़कों पर भाग दौड़ करने वाले कई बच्चे भी वहां आ जाते थे। उनके हाथों में रूखी रोटी, ब्रेड पीस आदि होते थे। सोसाइटी के कर्मचारी उन बच्चों को भी अपने भोजन में से कुछ देकर साथ खाने के लिए बैठा लेते थे। यह दृश्य कंचन को बहुत अच्छा लगता था।
कंचन ने रमेश से कहा—“ बाबू जी, ऐसे कई बच्चों को मैंने सोसाइटी के बाहर अक्सर डोलते देखा है।’’
रमेश ने सुना तो झट बोले—“ तब तो तुम उन बच्चों को जरूर जानती होगी।”
“ जी नहीं, मैं उनमें से मैं किसी को नहीं जानती। सोसाइटी के गार्ड जरूर जानते होंगे।”
रमेश सोसाइटी के गेट पर गार्डों से मिले। उनमें से एक रवि ने कहा—“हाँ बाबूजी, ऐसे बच्चों से तो रोज ही मिलता हूँ।”
रमेश ने उसे माँ की इच्छा के बारे में बताया तो रवि ने कहा—“बाबूजी, एकदम तो कुछ कहना मुश्किल है कि मैं कितने बच्चों को अम्मा की जन्मदिन पार्टी में ला सकता हूँ। क्योंकि ऐसे बच्चों का कोई पता ठिकाना तो होता नहीं। फिर भी मैं कोशिश करूंगा।’’
रमेश ने यही बात अपनी माँ को बता दी। सुन कर जयंती का मन जैसे कुछ बुझ सा गया। उन्हें लगा शायद उनकी इच्छा पूरी न हो सके। लेकिन कुछ देर बाद रवि उनके पास आया। बोला—‘’अम्माजी, कुछ देर पहले वैसे कई बच्चे गेट पर आए थे। मैंने उन्हें आपके जन्म दिन के बारे में बताया तो खूब खुश हुए। उछलते हुए बोले -- हम जरूर जायेंगे।”
2
तय हो गया कि रवि सड़क पर घूम फिर कर मेहनत मजूरी करने वाले सात-आठ बच्चों को कल दोपहर में लेकर आएगा। अगली सुबह जयंती ने रमेश से कहा—“ ऐसा करो पंद्रह बच्चों के लिए सूखा नाश्ता ले आओ। खाना बनाने में झन्झट होगा। बच्चे ज्यादा हुए तो और नाश्ता मंगवा लेंगे।” रमेश ने पूछा-“ लेकिन उन बच्चों को कहाँ बैठा कर खिलाएंगे?”
जयंती बेटे की उलझन समझ गईं। हंस कर बोलीं—‘’इसकी चिंता मत करो। जब बच्चे आयेंगे तब देखा जाएगा।” जब रेखा और अजय के मित्र आते थे तो खूब धमाल मचता था। वे सोफों पर या और कहीं भी बैठ जाते थे। सारे घर में उछल कूद करते थे, लेकिन सड़कों पर मजूरी करने वाले अनजान बच्चों को तो इतनी छूट नहीं दी जा सकती थी।
दोपहर को दरवाजे के बाहर शोर सुनाई दिया। रमेश ने दरवाजा खोला तो रवि के पीछ कई बच्चे खड़े दिखाई दिए। वे जोर जोर से बोल रहे थे। वे वैसे ही थे जैसा रमेश ने सोचा था--
इखरे बिखरे बाल, मैले चेहरे, मैले कपडे लेकिन सब हंस रहे थे। वे खुश थे, दादी की जन्म दिन पार्टी में जो आये थे। जयंती उस समय आराम कर रही थीं। रमेश ने रवि से कहा—“अभी तो माँ आराम कर रही हैं। जैसे ही उनकी नींद खुलेगी मैं तुम्हें बता दूंगा, तब इन्हें ऊपर ले आना।” रवि के इशारे पर बच्चे शोर मचाते हुए नीचे उतर गए। और सोसाइटी के पीछे की तरफ चले गए। वहां पुराना काठ कबाड़ पड़ा था। बच्चे मिल कर सफाई में जुट गए। थोड़ी ही देर में कबाड़ के बीच में अपने खेलने की जगह बना ली उन्होंने। वहाँ कई पिचकी हुई गेंदें मिल गईं, बस खेल शुरू हो गया। कबाड़ में मिली एक फटी हुई दरी बिछा कर वे सब बैठ गए। वे रह रह कर उस फ़्लैट की तरफ देख रहे थे जहाँ से दावत का बुलावा आने वाला था।
3
दादी की नींद टूटी तो उन्होंने बच्चों के बारे में पूछा।
रवि बच्चों को बुलाने गया तो देखा बच्चे फटी दरी पर एक कतार में बैठे थे। उन्होंने कहा –““देखो हमने कितनी मेहनत से सफाई की है। जो खिलाना है यहीं ले आओ।”
जयंती को पता चला तो वह स्वयं बच्चों के पास चली आईं। उन्होंने रमेश से कहा—“ ठीक है यहीं खाना लगवा दो।”
रमेश और रवि ने प्लास्टिक की प्लेटों में बच्चों के सामने नमकीन और मिठाई परोस दीं। जयंती ने हंसकर कहा—“बच्चो, खाना शुरू करो।” लेकिन बच्चे अब भी चुप थे। कुछ समय इसी तरह बीत गया। दादी ने कहा—“ क्या मेरे जन्मदिन की ख़ुशी नहीं है जो इस तरह चुप बैठे हो।” जवाब आया—“ दादी हम सब बहुत खुश हैं, लेकिन आप भी हमारे साथ बैठ कर खाइए, तभी हमें अच्छा लगेगा।”
“ बस इतनी सी बात।”—दादी ने हंस कर कहा और बच्चों के बीच जा बैठीं। अब तक वहां कई लोग आ जुटे थे,और इस अनोखे दृश्य को देख रहे थे। रमेश ने हडबडा कर कहा—“ माँ,आप यहाँ इन बच्चों के साथ बैठ कर …नहीं नहीं, यह ठीक नहीं होगा।”
“ रमेश, इसमें क्या गलत है। ये बच्चे मेरे जन्म दिन की दावत में आये हैं। मुझे इनके साथ खाने से क्यों रोक रहे हो। मेरा बचपन गाँव में बीता है। वहां हम अपनी सहेलियों के साथ इसी तरह खुले में खेलते और मौज करते थे। आज इन बच्चों ने साथ बैठ कर खाने को कहा तो मुझे अपना बचपन याद आ गया। मुझे यह सब बहुत अच्छा लग रहा है।”
4
जन्मदिन की दावत खत्म हुई। बच्चों ने जूठी प्लेटें उठा कर डस्ट बिन में डाल कर उस जगह को पूरी तरह साफ़ कर दिया। जयंती दादी ने कहा—“ शाबाश मेरे नन्हे मेहमानों।”
“ दादी, आपका अगला जन्म दिन कब आएगा?”’-आवाज़ आई।
“ जल्दी ही मेरे जन्म दिन की दावत होगी। और अगली बार अपने ज्यादा दोस्तों के साथ आना।”
बच्चे चुप खड़े थे। उन्होंने कहा—“ दादी, हम तो जन्म दिन पर आपके लिए कोई उपहार नहीं लाये।”
“ तो अगली बार ले आना।”—दादी ने हंस कर कहा। और बारी बारी से हर बच्चे का सिर  सहला दिया।
बच्चे चले गए। दादी कुछ देर तक बच्चों को जाते देखती रहीं फिर धीरे धीरे घर में चली गईं। वह सोच रही थीं कि उन्होंने हर बच्चे से उसका परिचय क्यों नहीं लिया। यह बात काफी देर तक मन में कसकती रही। जयंती सोच रही थीं कि उन बच्चों को जल्दी ही फिर बुलाएंगी। लेकिन इसके लिए ज्यादा इन्तजार नहीं करना पड़ा।
दो घंटे बाद दरवाजे की घंटी बजी। रमेश ने देखा बाहर रवि के साथ वही बच्चे खड़े थे। रवि और उन बच्चों के साथ एक अनजान आदमी और था। उसके हाथ में एक बड़ा गुलदस्ता था। उसने बताया कि वह सड़क के मोड़ पर फूल और गुलदस्ते बेचता है। फिर उसने गुलदस्ता बच्चों के हाथों में थमा दिया। बच्चों ने मिलकर गुलदस्ता दादी को देते हुए कहा--“दादी, हैप्पी बर्थ डे।”
दादी ने फूल वाले से पूछा—“ तुम यह गुलदस्ता क्यों लाये हो? क्या इन बच्चों ने खरीदा है?”
“जी नहीं। इन बच्चों से मैं कई बार काम में मदद लेता हूँ। आज इन्होने आपके जन्म दिन के बारे में बताया। फूल मैंने दिए, गुलदस्ता इन सबने मिलकर बनाया है। “
दादी देखती रहीं, सचमुच बहुत सुंदर गुलदस्ता बनाया था बच्चों ने। उन्होंने फूल वाले से पूछा— “इस गुलदस्ते की कीमत क्या होगी?”
“दादी, यह तो उपहार है –अमूल्य।”
“अगर इसे किसी ग्राहक को बेचो तो कितने दाम लोगे?”
फूल वाला चुप खड़ा था। दादी ने फिर पूछा तो उसने बताया—“कम से कम चार सौ।”
5
दादी ने कहा—“ फूल तुमने दिए और बनाने में मेहनत इन बच्चों ने की। मेरा कहना है कि मेरे पास यह गुलदस्ता जल्दी ही मुरझा जायेगा। तुम इसे बेच दो और जो रकम मिले उसे इन बच्चों में बाँट दो। इसे इन बच्चों के लिए मेरी ओर से उपहार समझ लेना।”’
कमरे में कुछ देर तक मौन छाया रहा। बच्चों को दादी का यह प्रस्ताव पसंद नहीं था, लेकिन दादी के समझाने पर वे मान गए। दादी ने कहा—“मेरे अगले जन्म दिन की दावत जल्दी ही होने वाली है। उसमें अपने और दोस्तों को भी साथ लेकर आना”
“ दादी जिंदाबाद।” कमरे में खिल खिल तैरने लगी। सारा घर दादी के अनोखे जन्म दिन का उत्सव मना रहा था। ( समाप्त)

सोमवार, 20 जुलाई 2020

भस्मासुर पाले?



हमने भस्मासुर पाले?

मध्य प्रदेश के गुना में पुलिस की बर्बरता से त्रस्त किसान दंपति के कीटनाशक पी लेने  के समाचार से एक बार फिर साबित हो गया कि भारतीय लोकतंत्र की कब्र खोदने का काम इस महादेश के अतिशय मुस्तैद पुलिस तंत्र ने ही अपने जिम्मे ले रखा है। अब समस्या इतनी सरल नहीं रही है कि मीडिया में निंदा करने और कोसने से सुलझ जाए।  अगर हम सोचते हैं कि कुछ पुलिसकर्मियों और अधिकारियों के तबादले और बर्खास्तगी से इस महारोग से मुक्ति मिल जाएगी, तो हम मूर्खों के स्वर्ग में रह रहे हैं। आंध्र प्रदेश या तमिलनाडु हो, चाहे उत्तर प्रदेश या अब मध्य प्रदेश, सारे देश में अभय दान देकर खुद हमीं ने भस्मासुर पाल रखे हैं। कानून के ये रखवाले जब कानून को ताक पर रख कर खुले आम हिंसा का पिशाच-नृत्य करते हैं, तो हमीं इन्हें हीरो बनाते हैं और गुणगान करते हुए इनकी आरती उतारते हैं। कथित कर्तव्यपालन और आत्मरक्षा के नाम पर पुलिस की स्वेच्छाचारिता पर पर्दा डालना भी जैसे लड़खड़ाए हुए लोकतंत्र का दैनिक उपचार बन गया है। हमने  चुप्पी की अश्वगंधा से पोस-पोस कर सारे पुलिस तंत्र की इम्युनिटी इतनी बढ़ा दी है, कि वह खुद को जन-गण का माई-बाप समझने लगा है। पुलिस की ऐसी निरंकुशता किसी भी लोकतंत्र के लिए श्रेयस्कर नहीं हो सकती। इस तरह की घटनाओं की जितनी भी निंदा की जाए, कम है।

गौरतलब है कि मध्य प्रदेश में किराये की जमीन पर खेती कर रहे एक किसान दंपति के साथ पुलिस की मारपीट पर चौतरफा आक्रोश व्याप्त है। क्योंकि हर किसी को यह अहसास है कि ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति एक न एक कानून और व्यावस्था की धज्जियाँ उड़ा कर लोकतंत्र को पुलिस राज में बदल देगी। सयाने बता रहे हैं  कि  पुलिस एक जमीन से अवैध कब्जा हटाने पहुंची थी। इस पर खेती कर रहे राजकुमार नाम के किसान ने उससे कहा कि उसने फसल के लिए दो लाख रुपये का लोन लिया है, इसलिए उसे फसल काटने तक की मोहलत दी जाए। पुलिस को तो शायद संवेदनहीन होने का विधिवत प्रशिक्षण दिया जाता है। सो, पुलिस नहीं मानी और उसने खेत में बुलडोजर चला दिया। टोकने पर मारपीट शुरू कर दी। इससे क्षुब्ध किसान और उसकी पत्नी ने खेत में ही कीटनाशक पी लिया। अफरा तफरी में राजकुमार के भाई ने एक महिला पुलिसकर्मी को धक्का दे दिया। बस फिर क्या था!  पुलिसकर्मियों ने किसान को ताबड़तोड़ पीटना शुरू कर दिया। उसे बचाने आई उसकी पत्नी को भी नहीं बख्शा गया। हो सकता है कि इस समय इस कथित अत्याचार के खिलाफ बोलना राजनीति करने जैसा लगे, लेकिन यह ज़रूरी है कि सरकारी पार्टियाँ हों या विपक्षी दल, सभी को पुलिसिया निरंकुशता के प्रतिरोध के लिए खड़े होना चाहिए और ऐसी वैक्सीन खोजनी चाहिए जो इस बर्बर संक्रमण से मरणशील लोकतंत्र को बचा सके। कहना न होगा कि जब विधयिका और न्यायपालिका अपनी अपनी ज़िम्मेदारियाँ ठीक से नहीं निभातीं, तो प्रशासन निरंकुश हो जाता है और उसका दुष्परिणाम जनता को पुलिस राज के रूप में झेलना पड़ता ही है। इसका उल्टा भी सच है। यानी, अगर किसी देश की व्यवस्था पुलिस राज में ढलती दिखाई दे, तो समझना चाहिए कि विधयिका और न्यायपालिका अपने दायित्व-निर्वहन में कहीं चूक रही हैं। अतः पुलिस की चूलें कसनी हैं, तो पहले विधयिका और न्यायपालिका को ज़िम्मेदार बनाना होगा।

अंततः, यहाँ प्रसंगहीन होकर भी 'धूमिल' की कविता 'पटकथा' का यह सवाल कितना प्रासंगिक है कि-

"अचानक, इस तरह,क्यों चुक गये हो?
वह क्या है जिसने तुम्हें
बर्बरों के सामने अदब से
रहना सिखलाया है?
क्या यह विश्वास की कमी है जो तुम्हारी भलमनसाहत बन गई है?
या कि शर्म अब तुम्हारी सहूलियत बन गई है?"
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ख्याति


एक गाँव में *एक कायस्थ परिवार* रहता था, उसकी बुद्धि की ख्याति दूर दूर तक फैली थी।

एक बार वहाँ के राजा ने उसे चर्चा पर बुलाया। काफी देर चर्चा के बाद राजा ने कहा –

“महाशय, आप बहुत ज्ञानी है, इतने पढ़े लिखे है पर आपका लड़का इतना मूर्ख क्यों है ? उसे भी कुछ सिखायें।

उसे तो *सोने चांदी* में मूल्यवान क्या है यह भी नहीं पता॥” यह कहकर राजा जोर से हंस पड़ा.. *कायस्थ* को बुरा लगा, वह घर गया व लड़के से पूछा “सोना व चांदी में अधिक मूल्यवान क्या है ?”
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*सोना*, बिना एक पल भी गंवाए उसके लड़के ने कहा।

“तुम्हारा उत्तर तो ठीक है, फिर राजा ने ऐसा क्यूं कहा-? सभी के बीच मेरी खिल्ली भी उड़ाई।”
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लड़के के समझ मे आ गया, वह बोला “राजा गाँव के पास एक खुला दरबार लगाते हैं,

जिसमें सभी प्रतिष्ठित व्यक्ति  शामिल होते हैं। यह दरबार मेरे स्कूल जाने के मार्ग मे ही पड़ता है।
.
मुझे देखते ही बुलवा लेते हैं, अपने एक हाथ में सोने का व दूसरे में चांदी का सिक्का रखकर, जो अधिक मूल्यवान है वह ले लेने को कहते हैं...

और मैं चांदी का सिक्का ले लेता हूं। सभी ठहाका लगाकर हंसते हैं व मज़ा लेते हैं। ऐसा तक़रीबन हर दूसरे दिन होता है।”
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“फिर तुम सोने का सिक्का क्यों नहीं उठाते, चार लोगों के बीच अपनी फजिहत कराते हो व साथ मे मेरी भी❓”
.
लड़का हंसा व हाथ पकड़कर पिता  को अंदर ले गया

और कपाट से एक पेटी निकालकर दिखाई जो चांदी के सिक्कों से भरी हुई थी।
.
यह देख कर *उस बालक के पिता* हतप्रभ रह गया।
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लड़का बोला “जिस दिन मैंने सोने का सिक्का उठा लिया उस दिन से यह खेल बंद हो जाएगा।

वो मुझे मूर्ख समझकर मज़ा लेते हैं तो लेने दें, यदि मैं बुद्धिमानी दिखाउंगा तो कुछ नहीं मिलेगा। कायस्थ का बेटा हूँ अक़्ल से काम लेता हूँ

मूर्ख होना अलग बात है
और मूर्ख समझा जाना अलग..

स्वर्णिम मॊके का फायदा उठाने से बेहतर है, हर मॊके को स्वर्ण में तब्दील करना।
.
 *चित्रांश* *को भगवान के द्वारा  बुद्धी दिया गया है।*
इस पे शक मत करना!!

     इस पोस्ट को सिर्फ *चित्रांश परिवार* को ही भेजना  ।।
*चित्रगुप्त जी महाराज की जय।
👽👽👽👽👽👽ख्याति 

रविवार, 19 जुलाई 2020

सेव खाओ डॉक्टर दूर भगाओ


🌹सेवफल (सेब) सेवन से स्वास्थ्य लाभ🌹

👉प्रातःकाल खाली पेट सेवफल का सेवन स्वास्थ्य के लिए लाभदायक है । सेब को छीलकर नहीं खाना चाहिए क्योंकि इसके छिलके में कई महत्त्वपूर्ण क्षार होते हैं । इसके सेवन से मसूड़े मजबूत व दिमाग शांत होता है तथा नींद अच्छी आती है । यह रक्तचाप कम करता है ।

👉सेब वायु तथा पित्त का नाश करने वाला, पुष्टिदायक, कफकारक, भारी, रस तथा पाक में मधुर, ठंडा, रुचिकारक, वीर्यवर्धक हृदय के लिए हितकारी व पाचनशक्ति को बढ़ाने वाला है।

👉सेब के छोटे-छोटे टुकड़े करके काँच या चीनी मिट्टी के बर्तन में डालकर चाँदनी रात में ऐसी खुली जगह रखें जहाँ उसमें ओस पड़े। इन टुकड़ों को सुबह एक महीने तक प्रतिदिन सेवन करने से शरीर तंदरुस्त बनता है।

👉कुछ दिन केवल सेब के सेवन से सभी प्रकार के विकार दूर होते हैं। पाचनक्रिया बलवान बनती है और स्फूर्ति आती है।

👉यूनानी मतानुसार सेब हृदय, मस्तिष्क, यकृत तथा जठरा को बल देता है, खून बढ़ाता है तथा शरीर की कांति में वृद्धि करता है।

👉इसमें टार्टरिक एसिड होने से यह एकाध घंटे में पच जाता है और खाये हुए अन्य आहार को भी पचा देता है।

👉सेब के गूदे की अपेक्षा उसके छिलके में विटामिन सी अधिक मात्रा में होता है। अन्य फलों की तुलना में सेब में फास्फोरस की मात्रा सबसे अधिक होती है। सेब में लौहतत्त्व भी अधिक होता है अतः यह रक्त व मस्तिष्क सम्बन्धी दुर्बलताओं के लिए हितकारी है।

🔷औषधी प्रयोगः🔷

🌹रक्तविकार एवं त्वचा रोगः रक्तविकार के कारण बार-बार फोड़े-फुंसियाँ होती हों, पुराने त्वचारोग के कारण चमड़ी शुष्क हो गयी हो, खुजली अधिक होती हो तो अन्न त्यागकर केवल सेब का सेवन करने से लाभ होता है।

🌹पाचन के रोगः सेब को अंगारे पर सेंककर खाने से अत्यंत बिगड़ी पाचनक्रिया सुधरती है।

🌹दंतरोगः सेब का रस सोडे के साथ मिलाकर दाँतों पर मलने से दाँतों से निकलने वाला खून बंद व दाँत स्वच्छ होते हैं।

🌹बुखारः बार-बार बुखार आने पर अन्न का त्याग करके सिर्फ सेब का सेवन करें तो बुखार से मुक्ति मिलती है व शरीर बलवान बनता है।

🔷सावधानीः सेब का गुणधर्म शीतल है। इसके सेवन से कुछ लोगों को सर्दी-जुकाम भी हो जाता है। किसी को इससे कब्जियत भी होती है। अतः कब्जियत वाले पपीता खायें।

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व्याकरण


*हिन्दी व्याकरण*

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*लिंग*

*व्याकरण के नजरिए से लिंग (Gender) किसे कहते हैं ?*

जिस चिह्न से यह बोध होता हो कि अमुक शब्द पुरुष जाति का है अथवा स्त्री जाति का वह  *लिंग* कहलाता है ।

शब्द के जिस रूप से किसी व्यक्ति, वस्तु आदि के पुरुष जाति अथवा स्त्री जाति के होने का ज्ञान हो उसे लिंग कहते हैं ।

जैसे- बाघ, बाघिन, लड़का,  लड़की इत्यादि ।

इनमें *बाघ*  और *लड़का*  पुल्लिंग तथा      *बाघिन* और *नारी*  स्त्रीलिंग हैं।

*लिंग के भेद-*

*1. पुल्लिंग*
जिन संज्ञा शब्दों से पुरुष जाति का बोध हो अथवा जो शब्द पुरुष जाति के अंतर्गत माने जाते हैं वे पुल्लिंग हैं ।

जैसे- शेर, पेड़,  बैल,  घर, बालक इत्यादि ।

*2. स्त्रीलिंग*
जिन संज्ञा शब्दों से स्त्री जाति का बोध हो अथवा जो शब्द स्त्री जाति के अंतर्गत माने जाते हैं, वे स्त्रीलिंग हैं ।

जैसे- नारी, छड़ी, गाय,  घड़ी,  लड़की,  कुर्सी इत्यादि ।

*पुल्लिंग की पहचान*

*1.  आ,  आव,  पा,  पन, न-* ये प्रत्यय जिन शब्दों के अंत में हों वे प्रायः पुल्लिंग होते हैं ।
जैसे- कपड़ा, चढ़ाव,  बुढ़ापा,  लड़कपन, लेन-देन ।

*2. पर्वत,  मास,  वार और कुछ ग्रहों के नाम पुल्लिंग होते हैं ।*
 जैसे- हिमालय, विंध्याचल,  वैशाख,  सूर्य,  चंद्र, मंगल,  बुध,  राहु,  केतु ।

*3.  पेड़ों के नाम पुल्लिंग होते हैं ।*
जैसे- आम,  शीशम,  सागौन,  जामुन,  बरगद इत्यादि ।
*4.  अनाजों के नाम पुल्लिंग होते हैं ।*
जैसे-  गेहूँ,  चावल,  चना,  मटर,  जौ,  उड़द आदि ।

*5.  द्रव पदार्थों के नाम पुल्लिंग होते हैं ।*
जैसे- पानी,  सोना,  ताँबा,  लोहा,  घी,  तेल आदि ।

*अपवाद- चांदी ।*

*6.  रत्नों के नाम पुल्लिंग होते हैं ।*
जैसे- हीरा,  पन्ना,  मूँगा,  मोती आदि ।

*7.  शरीर के अंगों के नाम सामान्यत: पुल्लिंग होते हैं ।*
जैसे- सिर,  मस्तक,  दाँत, मुख,  कान,  गला,  हाथ,  पाँव,  होंठ,  तालु,  नख,  रोम आदि ।

*अपवाद- आँख*

*8.  जल, स्थान और भू-मंडल के भागों के नाम पुल्लिंग होते हैं।*

जैसे- समुद्र,  भारत,  देश,  नगर,  द्वीप,  आकाश,  पाताल,  घर,  सरोवर आदि ।

*स्त्रीलिंग की पहचान*

*1. जिन संज्ञा शब्दों के अंत में ख होते है, वे स्त्रीलिंग कहलाते हैं ।*
जैसे- आँख, भूख,  चोख,  राख,  कोख,  लाख,  देखरेख आदि ।

*2. जिन भाववाचक संज्ञाओं के अंत में ट, वट, या हट होता है  वे स्त्रीलिंग कहलाती हैं ।*
जैसे- झंझट, आहट, चिकनाहट, बनावट, सजावट आदि ।

*3.अनुस्वारांत,  ईकारांत,  ऊकारांत,  तकारांत,  सकारांत संज्ञाएँ  स्त्रीलिंग कहलाती है ।*
जैसे- रोटी,  टोपी,  नदी,  चिट्ठी,  उदासी,  रात,  बात,  छत,  भीत,  लू,  बालू,  दारू,  सरसों,  खड़ाऊँ,  प्यास, वास,  साँस आदि ।

*4.भाषा, बोली और लिपियों के नाम स्त्रीलिंग होते हैं ।*
 जैसे- मैथिली, हिन्दी,  संस्कृत,  देवनागरी,  पहाड़ी,  तेलुगु, पंजाबी, गुरुमुखी ।

*5. जिन शब्दों के अंत में इया आता है वे स्त्रीलिंग होते हैं।*
जैसे- कुटिया,  खटिया,  चिड़िया आदि ।

*6.  नदियों के नाम स्त्रीलिंग होते हैं ।*
 जैसे-  नर्मदा, यमुना,  गोदावरी,  सरस्वती आदि ।

*7. तारीखों और तिथियों के नाम स्त्रीलिंग होते हैं ।*
जैसे- पहली,  दूसरी,  प्रतिपदा,  पूर्णिमा आदि ।

*शब्दों का लिंग-परिवर्तन*

*पुल्लिंग स्त्रीलिंग पुल्लिंग  स्त्रीलिंग*
घोड़ा  घोड़ी   देव.   देवी
लड़का  लड़की  ब्राह्मण. ब्राह्मणी
नर.  नारी   बकरा   बकरी
चूहा  चुहिया   चिड़ा   चिड़िया
बेटा   बिटिया    गुड्डा   गुड़िया
लोटा   लुटिया   माली    मालिन
कहार। कहारिन.  सुनार.  सुनारिन
लुहार.  लुहारिन.  धोबी    धोबिन
मोर.   मोरनी      हाथी     हाथिन
सिंह.  सिंहनी     नौकर.   नौकरानी
चौधरी चौधरानी   देवर.    देवरानी
सेठ.   सेठानी      जेठ.     जेठानी
पंडित पंडिताइन  ठाकुर. ठाकुराइन
बाल.   बाला        सुत.     सुता
छात्र    छात्रा      शिष्य.    शिष्या
पाठक  पाठिका  अध्यापक अध्यापिका
बालक   बालिका    लेखक   लेखिका
सेवक.   सेविका    तपस्वी  तपस्विनी
हितकारी  हितकारिनी   स्वामी स्वामिनी

*वैसे प्राणिवाचक शब्द जो हमेशा ही स्त्रीलिंग हैं या पुल्लिंग हैं उन्हें पुल्लिंग अथवा स्त्रीलिंग जताने के लिए उनके साथ‘नर’ व‘मादा’ शब्द लगा देते हैं ।*

जैसे-
स्त्रीलिंग. पुल्लिंग. पुल्लिंग  स्त्रीलिंग
मक्खी  नर मक्खी  कोयल नर कोयल
गिलहरी  नर गिलहरी  मैना   नर मैना
तितली  नर तितली   बाज. मादा बाज
खटमल. मादा खटमल चील  नर चील
कछुआ  नर कछुआ  कौआ नर कौआ
भेड़िया  मादा भेड़िया  उल्लू  मादा उल्लू
मच्छर मादा मच्छर

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शनिवार, 18 जुलाई 2020

नंबर नहीं बनाते नंबर वन / चण्डीदत्त शुक्ला


आवरण कथा


दसवीं-बारहवीं की परीक्षाओं में ढेर सारे अंक हासिल करने वाले छात्रों को बधाई, साथ में उन्हें भी खूब मुबारक, जिन्होंने कम अंकों से परीक्षा उत्तीर्ण की। आखिरकार, सिर्फ अंकों से जीवन का परिणाम तय नहीं होता…

.....

नंबर नहीं बनाते नंबर वन

.....

● *चण्डीदत्त शुक्ल*


इन दिनों हर ओर हाईस्कूल व इंटरमीडियट की परीक्षाओं में 85-90 फीसदी अंक हासिल करने वाले सफल विद्यार्थियों को बधाई देने की होड़ लगी है। ये कोई नई बात नहीं, न ही अस्वाभाविक है। हर अभिभावक बच्चों की सफलता पर ख़ुश होता ही है, लेकिन क्या आपने कभी सोचा है, जिन सोशल कम्युनिटीज़ पर लोग अपने ‘अधिक सफल’ बच्चों की मार्कशीट की तसवीरें पोस्ट कर रहे हैं, वहीं कम अंक लाने के बाद अवसादग्रस्त बच्चों के गलत कदम उठा लेने की ख़बरें भी दिख रही हैं।

पिछले कुछ वक्त से एक संदेश काफी वायरल हो रहा है - 'मार्कशीट तो कागज का टुकड़ा है। कुछ वक्त बाद ये दराज में रखने और बर्थ सर्टिफिकेट की तरह इस्तेमाल करने के सिवा किस काम आएगा?' कागज के टुकड़े के लिए क्या किसी के जिगर के टुकड़े की भावनाओं से खिलवाड़ किया जा सकता है? यकीनन नहीं।


सफलता का हो सम्मान, लेकिन...

अकादमिक परीक्षा में उच्च अंकों से सफल रहे बच्चे अच्छे नंबर हासिल करने के लिए जी-जान लगा देते हैं। उनके श्रम और सफलता को दरकिनार करना न्यायोचित नहीं है, उसे कम महत्वपूर्ण नहीं माना जा सकता। एक स्तर तक औपचारिक शिक्षा पूर्ण होनी ही चाहिए, क्योंकि आज के प्रतिस्पर्धी समय में 'मसि कागद छुयो नहीं, कलम गह्यो नहीं हाथ' जैसी स्थिति होने पर (बगैर पढ़े, सिर्फ हुनर और ज्ञान की बदौलत) कामयाबी व सम्मान पाने की कल्पना नहीं की जा सकती, लेकिन ये भी सच है कि डिवीज़न का दबाव किसी छात्र की संभावनाओं को सीमित कर देना भर है। ऊंचे अंक किसी की संपूर्ण मेधा का पैमाना नहीं हैं।

कई बच्चे पूरी कोशिश के बावजूद वांछित सफलता हासिल नहीं कर पाते। वे दोषी नहीं हैं, बस अंकों की होड़-दौड़ में जरा पीछे रह गए। इसके बहुतेरे कारण हो सकते हैं। मुमकिन है कि ऐसे छात्र-छात्राओं को परीक्षा की व्यवस्था ही समझ में न आती हो। संभव है, उनकी रुचि पढ़ाई से अधिक अन्य विद्याओं-विधाओं में हो। बाज दफा ऐसा हुआ ही है कि परीक्षाओं में कम अंक लाने वाले बच्चे जीवन में सम्मानजनक ऊंचाई तक पहुंचे हैं।


अंक कम थे, क्षमता नहीं

उज्जैन के सर्जन डॉ. दिनेश यादव नवीं में थर्ड डिवीजन से किसी तरह उत्तीर्ण हुए थे। परिजनों ने उन्हें खेती के काम में लगा दिया था। दिनेश ने खराब परीक्षा परिणाम को ही अपने लिए चुनौती मान लिया और आज सफल सर्जन हैं। डॉ. यादव का मानना है कि कुछ असफलताओं से जीवन में प्रगति के रास्ते बंद नहीं हो जाते। असफलता आगे बढ़ने के रास्ते तैयार करती है।

हाल में ही गुजरात के आईएएस अधिकारी नितिन सांगवान ने बारहवीं की मार्कशीट ट्वीट कर जानकारी दी कि केमिस्ट्री में उन्हें 70 में से 24 अंक मिले थे, यानी उत्तीर्ण होने के लिए आवश्यक 23 अंक से सिर्फ एक नंबर ज्यादा। सांगवान ने बताया कि इन अंकों से मेरी ज़िंदगी की निर्णायक दिशा तय नहीं हो गई। मैंने कड़ी मेहनत जारी रखी।

छत्तीसगढ़ के आईएस अधिकारी (2009 बैच) अवनीश शरन के तो दसवीं में सिर्फ 44.5 फीसदी अंक आए थे। सोचिए, सांगवान और शरन अगर अंकों के फेर में उलझ जाते् तो उनका व्यक्तित्व कैसे रंग-रूप में ढल पाता? गूगल प्रमुख सुंदर पिचाई और बैंकिंग के क्षेत्र में उपलब्धियों के कीर्तिमान बनाने वाली इंदिरा नूई का आकलन भी यदि अंकों पर आधारित उपलब्धि के प्रमाण के रूप में होता तो उन्हें औसत से ‘जरा-सा ही बेहतर’ माना जाता।

शुरुआती अवरोधों के बाद सफल रही शख्सियतों के उदाहरण छोड़ दें तो भी कई लोग ऐसे हुए, जिन्होंने पूरे देश के विचारों की दिशा ही बदल दी। महात्मा गांधी इनमें अव्वल थे। राजकोट के शिक्षाविद् जेएम उपाध्याय ने अपनी पुस्तक में लिखा है, 'बापू तीसरी क्लास में 238 दिनों में सिर्फ 110 दिन स्कूल गए। एक बार अनुत्तीर्ण भी हुए थे।'

1886 में गांधी जी ने मैट्रिक पास की। आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ के ‘विलायत की तैयारी’ खंड में बापू खुद बयान करते हैं कि भावनगर के शामदास कॉलेज में वे असहज महसूस करते थे और जब

कुटुंब के पुराने मित्र और सलाहकार मावजी दवे ने उनसे पूछा- 'क्यों, तुझे विलायत जाना अच्छा लगेगा या यहीं पढ़ते रहना?' तब बापू के शब्दों में - ’मुझे जो भाता था, वही वैद्य ने बता दिया। मैं कॉलेज की कठिनाइयों से डर तो गया ही था। मैंने कहा, 'मुझे विलायत भेजें, तो बहुत ही अच्छा है। मुझे नहीं लगता कि मैं कॉलेज में जल्दी-जल्दी पास हो सकूंगा।’

इस वर्णन से साफ है कि पहले परदेस और फिर देश में संपूर्ण बदलाव की मशाल जलाने वाले गांधी जी के व्यक्तित्व की ऊर्जा किसी मार्कशीट पर दर्ज कुछ नम्बरों पर आश्रित नहीं थी।


अपमान व व्यंग्य से भटकाव

कम नंबर पाने वाले बच्चों को मां-पिता की फटकार का सामना क्यों करना पड़ता है, इसे समझना मुश्किल नहीं है। अक्सर अभिभावक अपनी अधूरी इच्छाओं और खंडित सपनों को बच्चों के कांधे पर रखकर पूरे करना चाहते हैं। वे नहीं चाहते कि उनकी संतान असफल हो। इस सिलसिले में वे भूल जाते हैं कि हार के लिए भी हरदम तैयार रहना चाहिए, क्योंकि जीवन फूलों की सेज नहीं है।

अभिभावकों की बात दीगर है, पड़ोसी और नाते-रिश्तेदार कम अंक पाने वाले बच्चे पर व्यंग्य क्यों कसने लगते हैं, ये समझना दुरूह है। उनका तर्क होता है कि हमें बच्चे के भविष्य की चिंता है, लेकिन दो प्रमुख बातें भूल जाते हैं। पहली ये कि अपमानजनक तरीके से व्यंग्य कर किसी को सही रास्ता नहीं दिखाया जा सकता और दूसरी बात - ऐसा करने वाले गंभीरता से विचार करें। कहीं तुलना कर वे अपने मन की कुंठा मासूम बचपन पर उड़ेल तो नहीं रहे। ऐसे लोग परिचितों के बच्चों की रचनात्मक उपलब्धियों का बखान नहीं करते, कविता-पेंटिंग-गायन जैसी विधाओं में उल्लेखनीय प्रदर्शन को उत्साहित नहीं करते, ऐसे में जीवन को झुलसा देने वाली कटु आलोचना का क्या मतलब है?


कुछ भी अंतिम सत्य नहीं...

किसी एक कालखंड में आए परिणामों के सहारे शेष जीवन की दिशा तय नहीं हो सकती, चाहे वे परिणाम किसी परीक्षा के ही क्यों ना हों। आज की असफलता कल की कामयाबी का प्रस्थान बिंदु हो सकती है। आवश्यक है कि नई पीढ़ी ज़िंदगी की जद्दोजहद से जूझने के लिए तैयार रहे। खुद को विवेकवान बनाए, हालात से जूझने की काबिलियत खुद में पैदा करे। नई चीजें जानने और अमल में लाने को उत्सुक रहे।

अच्छी बात है कि नौकरियों और पढ़ाई में चयन के उच्च प्राप्तांकों के पारंपरिक मानदंड धीरे-धीरे बदल रहे लगे हैं। ताज़ा खबर है कि आईआईटी में दाखिला लेने के लिए इस साल 12वीं में 75 फीसदी अंक हासिल करने की अनिवार्यता भी नहीं रहेगी। सबकी उपलब्धियों और मेहनत का सम्मान बना रहे - यही कामना!

तीन पुतले


( लोक-कथा)

महाराजा चन्द्रगुप्त का दरबार लगा हुआ था। सभी सभासद अपनी अपनी जगह पर विराजमान थे। महामन्त्री चाणक्य दरबार की कार्यवाही कर रहे थे।

महाराजा चन्द्र्गुप्त को खिलौनों का बहुत शौक था। उन्हें हर रोज़ एक नया खिलौना चाहिए था। आज भी महाराजा के पूछने पर कि क्या नया है; पता चला कि एक सौदागर आया है और कुछ नये खिलौने लाया है। सौदागर का ये दावा है कि महाराज या किसी ने भी आज तक ऐसे खिलौने न कभी देखें हैं और न कभी देखेंगे। सुन कर महाराज ने सौदागर को बुलाने की आज्ञा दी। सौदागर आया और प्रणाम करने के बाद अपनी पिटारी में से तीन पुतले निकाल कर महाराज के सामने रख दिए और कहा कि अन्नदाता ये तीनों पुतले अपने आप में बहुत विशेष हैं। देखने में भले एक जैसे लगते हैं मगर वास्तव में बहुत निराले हैं। पहले पुतले का मूल्य एक लाख मोहरें हैं, दूसरे का मूल्य एक हज़ार मोहरे हैं और तीसरे पुतले का मूल्य केवल एक मोहर है।

सम्राट ने तीनों पुतलों को बड़े ध्यान से देखा। देखने में कोई अन्तर नहीं लगा, फिर मूल्य में इतना अन्तर क्यों? इस प्रश्न ने चन्द्रगुप्त को बहुत परेशान कर दिया। हार के उसने सभासदों को पुतले दिये और कहा कि इन में क्या अन्तर है मुझे बताओ। सभासदों ने तीनों पुतलों को घुमा फिराकर सब तरफ से देखा मगर किसी को भी इस गुत्थी को सुलझाने का जवाब नहीं मिला। चन्द्रगुप्त ने जब देखा कि सभी चुप हैं तो उस ने वही प्रश्न अपने गुरू और महामन्त्री चाणक्य से पूछा।

चाणक्य ने पुतलों को बहुत ध्यान से देखा और दरबान को तीन तिनके लाने की आज्ञा दी। तिनके आने पर चाणक्य ने पहले पुतले के कान में तिनका डाला। सब ने देखा कि तिनका सीधा पेट में चला गया, थोड़ी देर बाद पुतले के होंठ हिले और फिर बन्द हो गए। अब चाणक्य ने अगला तिनका दूसरे पुतले के कान में डाला। इस बार सब ने देखा कि तिनका दूसरे कान से बाहर आगया और पुतला ज्यों का त्यों रहा। ये देख कर सभी की उत्सुकता बढ़ती जा रही थी कि आगे क्या होगा। अब चाणक्य ने तिनका तीसरे पुतले के कान में डाला। सब ने देखा कि तिनका पुतले के मुँह से बाहर आगया है और पुतले का मुँह एक दम खुल गया। पुतला बराबर हिल रहा है जैसे कुछ कहना चाहता हो।
चन्द्रगुप्त के पूछ्ने पर कि ये सब क्या है और इन पुतलों का मूल्य अलग अलग क्यों है, चाणक्य ने उत्तर दिया।

राजन, चरित्रवान सदा सुनी सुनाई बातों को अपने तक ही रखते हैं और उनकी पुष्टी करने के बाद ही अपना मुँह खोलते हैं। यही उनकी महानता है। पहले पुतले से हमें यही ज्ञान मिलता है और यही कारण है कि इस पुतले का मूल्य एक लाख मोहरें है।

कुछ लोग सदा अपने में ही मग्न रहते हैं। हर बात को अनसुना कर देते हैं। उन्हें अपनी वाह-वाह की कोई इच्छा नहीं होती। ऐसे लोग कभी किसी को हानि नहीं पहुँचाते। दूसरे पुतले से हमें यही ज्ञान मिलता है और यही कारण है कि इस पुतले का मूल्य एक हज़ार मोहरें है।

कुछ लोग कान के कच्चे और पेट के हलके होते हैं। कोई भी बात सुनी नहीं कि सारी दुनिया में शोर मचा दिया। इन्हें झूठ सच का कोई ज्ञान नहीं, बस मुँह खोलने से मतलब है। यही कारण है कि इस पुतले का मूल्य केवल एक मोहर है।

अज़गर


(लोक-कथा)

बहुत वर्ष पहले एक राजा की दो रानियाँ थीं। बड़ी रानी शोभा बहुत अच्छे स्वभाव की दयावान स्त्री थी। छोटी रानी रूपा बड़ी कठोर और दुष्ट थी। बड़ी रानी शोभा के एक पुत्री थी, नाम था देवी। रानी रूपा के भी एक बेटी थी, नाम था तारा।

रानी रूपा बड़ी चालाक और महत्वाकाँक्षी स्त्री थी। वह चाहती थी कि राज्य की सत्ता उसके हाथ में रहे। राजा भी उससे दबा हुआ था। रानी रूपा बड़ी रानी और उसकी बेटी से नफरत करती थी। एक दिन उस ने राजा से कह दिया कि रानी शोभा और देवी को राजमहल से बाहर निकाल दिया जाये। राजा रानी रूपा की नाराजी से डरता था। उसे लगा कि उसे वही करना पड़ेगा जो रूपा चाहती है। उस ने बड़ी रानी और उस की बेटी को राजमहल के बाहर एक छोटे से घर में रहने के लिए भेज दिया। लेकिन रानी रूपा की घृणा इससे भी नहीं हटी।

उस ने देवी को आज्ञा दी कि वह प्रतिदिन राजा की गायों को जंगल में चराने के लिए ले जाया करे। रानी शोभा यह अच्छी तरह जानती थी कि यदि देवी गायों को चराने के लिए गई तो रानी रूपा उन्हें किसी और परेशानी में डाल देगी। इसलिए उसने अपनी लड़की से कहा कि वह रोज सुबह गायों को जंगल में चरने के लिए ले जाया करे और शाम के समय उन्हें वापिस ले आया करे।

देवी को अपनी माँ का कहना तो मानना ही था, इस लिए वह रोज़ सुबह गायों को जंगल में ले जाती। एक शाम जब वह जंगल से घर लौट रही थी तो उसे अपने पीछे एक धीमी सी आवाज़ सुनाई दी-
‘‘देवी, देवी, क्या तुम मुझसे विवाह करोगी ?’’

देवी डर गई। जितनी जल्दी हो सका उसने गायों को घर की ओर हाँका। दूसरे दिन भी जब वह घर लौट रही थी तो उस ने वही आवाज़ पुन: सुनी। वही प्रश्न उससे फिर पूछा गया।

रात को देवी ने अपनी माँ को उस आवाज़ के बारे में कहा। माँ सारी रात इस बात पर विचार करती रही। सुबह तक उस ने निश्चय कर लिया कि क्या किया जाना चाहिए।
‘‘सुनो बेटी,’’ वह अपनी लड़की से बोली- ‘‘मैं बता रही हूँ कि यदि आज शाम के समय भी तुम्हें वही आवाज़ सुनाई दे तो तुम्हें क्या करना होगा।’’
‘‘बताइये माँ,’’ देवी ने उत्तर दिया।
‘‘तुम उस आवाज़ को उत्तर देना,’’ रानी शोभा ने कहा, ‘‘कल सुबह तुम मेरे घर आ जाओ, फिर मैं तुम से विवाह कर लूँगी।’’
‘‘लेकिन माँ,’’ देवी बोली- ‘‘हम उसे जानते तक नहीं।’’

‘‘मेरी प्यारी देवी,’’ माँ ने दु:खी होकर कहा- ‘‘जिस स्थिति में हम जीवित हैं उस से ज्यादा बुरा और क्या हो सकता है। हमें इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लेना चाहिए। ईश्वर हमारी सहायता करेगा।’’
उस संध्या को जब देवी गायों को लेकर लौट रही थी उसे वही आवाज़ फिर सुनाई दी।
आवाज़ कोमल और दु:ख भरी थी।
‘‘देवी, देवी क्या तुम मुझ से विवाह करोगी ? क्या तुम मुझ से विवाह करोगी ?’’ आवाज़ बोली।
देवी रुक गई। उस ने पीछे मुड़कर देखा लेकिन उसे कोई नहीं दिखाई दिया। वह हिचकिचायी। वह वहाँ से भाग जाना चाहती थी लेकिन फिर उसे माँ के शब्द याद आ गये। वह जल्दी से बोली- ‘‘हाँ, यदि तुम कल सुबह मेरे घर आ जाओ तो मैं तुम से विवाह कर लूँगी।

तब वह बड़ी तेजी से गायों को हाँकती हुई घर चली गई।
अगले दिन सुबह रानी शोभा जरा जल्दी उठ गई। उस ने जाकर बाहर का दरवाजा खोला, देखने के लिए कि कोई प्रतीक्षा तो नहीं कर रहा।
वहाँ कोई भी न था। अचानक उसे एक धक्का सा लगा और वह स्तब्ध रह गई। एक बड़ा अजगर कुण्डली मारे सीढ़ियों पर बैठा था।

रानी शोभा सहायता के लिए चिल्लायी। देवी और नौकर भागे-भागे आये कि क्या बात है।
तभी एक आश्चर्यजनक बात हुई। अजगर बोला :-
‘‘नमस्कार,’’ उसका स्वर बहुत विनम्र था- ‘‘मुझे निमन्त्रित किया गया था इसलिये मैं आया हूँ। आपकी लड़की ने मुझसे वायदा किया था कि यदि मैं सुबह घर आ सकूँ तो वह मुझ से विवाह कर लेगी। मैं इस लिये आया हूँ।

रानी शोभा की समझ में नहीं आ रहा था कि वह करे तो क्या करे | उसे तो यही आशा थी कि किसी दिन कोई सुन्दर नौजवान उसकी लड़की से विवाह करने आयेगा । उसने यह कभी नहीं सोचा था कि वह अजगर होगा !

एक नौकर भाग कर रानी रूपा के पास गया और उसे उसने सारी घटना बतला दी । रानी यह सुन कर प्रसन्न हुई। वह उसी समय अपने नौकरों के साथ रानी शोभा के घर गई ।

“यदि राजकुमारी देवी ने किसी के साथ विवाह का वायदा किया है,” वह बोली--- तो उसे अपना वायदा अवश्य निभाना चाहिए । रानी होने के कारण यह देखना मेरा कर्त्तव्य है कि वह अपना वायदा पूरा करें।

उसी दिन विवाह हो गया । रानी शोभा और देवी के लिए यह कोई प्रसन्नता का समय नहीं था लेकिन इतने दुर्भाग्य सहने के बाद वे किसी भी प्रकार की विपत्ति का सामना करने को तैयार थीं ।
विवाह के पश्चात्‌ अजगर अपनी पत्नी के साथ उसके कमरे में गया ।

सारी रात रानी शोभा ने प्रार्थना करते हुए बिताई कि उसकी बच्ची ठीकठाक रहें। दूसरे दिन बड़े सवेरे उसने देवी के कमरे का दरवाज़ा खट- खटाया। एक सुन्दर नवयुवक ने दरवाज़ा खोला । देवी उसके पीछे खड़ी थी।

“मैं आपको कह नहीं सकता कि मेरी जान बचाने के लिए मैं आपका और देवी का कितना आभारी हूँ,” वह नवयुवक बोला--- मैं एक शाप के कारण अजगर बन गया था । एक वन-देवता मुझसे क्रुद्ध थे और उन्होंने मुझे अजगर बना दिया । बाद में उन्हें अपनी करनी पर दुख हुआ । तब उन्होंने कहा कि यदि कोई राजकुमारी मुझसे विवाह कर लेगी तो मैं फिर से मनुष्य बन जाऊँगा । और अब देवी ने मुझ से विवाह कर लिया है, मेरा शाप उतर गया है। अब मैं फिर कभी अजगर नहीं बनूंगा ।”

रानी शोभा बहुत प्रसन्न हुई। वह्‌ अपनी लड़की और दामाद को राजा से मिलाने के लिए ले गई। यह बड़ी विचित्र घटना थी। चारों ओर से लोग इस विचित्र नवयुवक को देखने राजमहल में आने लगे । सभी उत्सुक थे--सिवाय रानी रूपा के ।

रानी रूपा बहुत गुस्से में थी | उसने झल्लाते और खीझते हुए अपने आपको कमरे में बन्द कर लिया । देवी का भाग्य उससे देखा नहीं जा रहा था। वह चाहती थी कि उसकी बेटी तारा भी ऐसी भाग्यशाली बने । आखिरकार उसे एक युक्ति सूझी ।
उसने झपनी लड़की को बुलाया ।

“देवी का विवाह तो अब हो गया है,” वह बोली---“ इस लिए गायों को जंगल में चराने के लिए तुम ले जाया करो । ” “नहीं!” तारा चीख कर बोली--"इतने नौकर हैं तो फिर में क्यों गायें चराने जाऊं?”

“यह मेरी आज्ञा है!” रानी क्रुद्ध होकर बोली--“ एक बात और भी सुनो । यदि जंगल में कोई तुमसे विवाह का प्रस्ताव करे तो तत्काल कह देना कि तुम विवाह के लिए राज़ी हो, यदि वह अगले दिन सुबह हमारे घर आ जाये। ”

“तारा माँ की इस योजना से भयभीत हो गई । वह गायों को जंगल में नहीं ले जाना चाहती थी। वह खूब रोई। लेकित रानी फिर भी नहीं पिघली । तारा को उसकी आज्ञा माननी पड़ी ।

तारा रोज़ सुबह गायों को जंगल में चराने के लिए ले जाती और फिर शाम के समय वापिस ले आती ।

लेकिन उसने एक बार भी जंगल में किसी तरह की आवाज़ नहीं सुनी जो यह कह रही हो, “क्‍या तुम मुझसे विवाह करोगी ?”

फिर भी रानी निराश नहीं हुई । जंगल में कोई अजगर तो था नहीं जो तारा से विवाह का प्रस्ताव करता। इसलिए उसने खुद अजगर ढूंढने का निश्चय किया ।

उसने अपने नौकरों को एक अजगर लाने की आज्ञा दी । बहुत खोज करने पर काफी दिनों पश्चात्‌ उन्हें एक बहुत बड़ा अजगर मिला । उसे पकड़ कर वे राजमहल में ले आये ।

आखिरकार रानी का अभिप्रायः पूरा हो गया और उसने तारा का विवाह इस अजगर से कर दिया। अब रानी को संतोष हुआ ।
विवाह की रात तारा तथा अजगर को एक कमरे में बन्द कर दिया गया।

रानी अधीरता से सुबह की प्रतीक्षा कर रही थी । रानी रूपा ने सवेरे सवेरे ही लड़की के कमरे का दरवाज़ा खटखटाया लेकिन कोई उत्तर न मिला । उसने ज़रा और जोर से दरवाज़ा खटखटाया लेकिन दरवाज़ा तब भी न खुला । रानी से और प्रतीक्षा न की गई और उसने धक्का देकर दरवाज़ा खोल दिया । मोटा अजगर ज़मीन पर पड़ा हुआ था लेकिन तारा का कहीं पता नहीं था।

रानी चीख पड़ी। महल में सभी ने उसका चीखना सुना । राजा और नौकर भागे आये कि क्या बात है। राजकुमारी कहाँ है?” सब चिल्लाये ।

“वह तो अजगर के पेट में होंगी,” रसोइया बोला--- देखो वह कितना मोटा हो गया है?” रानी अब बड़ी ज़ोर-जोर से रोने लगी। राजा भी रोने लगा ।

रसोइया अपना सबसे बड़ा चाकू ले आया । वह बोला-- यदि वह अब तक जीवित हुई तो मैं राजकुमारी को बचाने की कोशिश करूँगा।

उसने अजगर का पेट चीर डाला । तारा अच्छी भली जीवित थी । रसोइये ने उसे बाहर खींचा । वह चीख मारकर अपनी माँ की तरफ भागी।

अजगर की मृत्यु हो गई और साथ में रानी रूपा की इस इच्छा की भी कि तारा का विवाह देवी की तरह ही किसी योग्य और सम्पन्न नवयुवक से हो ।

तेजीमाला की वापसी



( असमिया लोक-कथा)

तेजीमाला की माँ का देहांत हुए बहुत समय बीत गया था। नदी के किनारे बने सुंदर घर में वह अपने पिता बसंत के साथ रहती थी। एक दिन उसके पिता एक गाँव में विवाह की दावत में गए। वहाँ से लौटे तो तेजीमाला की दूसरी माँ मिनती उनके साथ थी।

मिनती ने तेजीमाला को गोद में खींचकर ढेर-सा प्यार दिया। बसंत निश्चिंत हो गए कि मिनती उनकी बेटी का पूरा-पूरा ध्यान रखेगी। बसंत के बाहर जाते ही मिनती ने धम्म से तेजीमाला को गोद से पटक दिया और मुँह बनाकर बोली-
'दैया रे दैया! इतनी बड़ी होकर भी बाप से लाड़ लड़ाती है।'

तेजीमाला चुपचाप उठकर घर के काम-काज में लग गई। उसने समझ लिया कि मिनती उसे प्यार नहीं करती। फिर भी उसने पिता से कुछ नहीं कहा।

दिन बीतते गए। बसंत के बाहर जाते ही मिनती अपने असली रूप में आ जाती। एक दिन धान की कोठरी के पास काला साँप दिखाई पड़ा। देखते ही देखते साँप ओझल हो गया।

मिनती ने बहाने से तेजीमाला को सारा दिन धान की कोठरी के बाहर बिठाए रखा ताकि साँप निकले और उसे डस ले। परंतु तेजी का भाग्य अच्छा था। वह बच गई।

उसके पिता दूर स्थानों की यात्रा करके व्यवसाय करते थे। कई बार उन्हें महीनों घर से बाहर रहना पड़ता था। उनके सामने मिनती तेजी को बहुत प्यार से पुकारती।
'तेजी बिटिया, जरा इधर तो आना।'

जब बसंत नहीं होता तो सौतेली माँ अपनी कर्कश आवाज में पुकारती, 'अरी कलमुँही! कहाँ मर गई?'

तेजीमाला के घर के बाहर रंगीन पत्तियों वाला वृक्ष था। वह वहाँ बैठकर रोती रहती। एक दिन एक सुंदर युवक उनके घर आया। वह उसके पिता के मित्र का इकलौता बेटा था। उसने तेजीमाला के आगे विवाह का प्रस्ताव रखा। मिनती ओट से उनकी बातें सुन रही थी। वह झट से सामने आई और हाथ नचाकर बोली-

'क्यों री तेजीमाला, मक्खी की तरह क्‍या मँडरा रही है। चल करघे पर कपड़ा बुनने बैठ।'

बेचारा युवक अपना-सा मुँह लेकर लौट गया। अब मिनती को एक और चिंता सताने लगी। यदि तेजीमाला का विवाह होगा तो उसे बहुत-सा दहेज देना पड़ेगा।
क्यों न तेजी को जान से मार दिया जाए? न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी।

बस यह विचार आते ही उसने तेजी को मारने की योजना बना ली। अगले दिन उसने तेजीमाला के खाने में जहरीला कीड़ा डाल दिया। तेजी ने खाना खाया परंतु उसे कुछ न हुआ।

सौतेली माता का गुस्सा साँतवें आसमान पर जा पहुँचा। उसने तेजीमाला को ढेंकी में धान डालने को कहा। बेचारी लड़की चुपचाप काम कराने लगी। मिनती ने जोर से मूसल का वार किया तो तेजी का हाथ कुचल गया। वह दर्द के मारे तिलमिला उठी। मिनती हँसकर बोली-
'इतनी-सी चोट से घबराते नहीं हैं, चल दूसरे हाथ से डाल।'

इस तरह उसने तेजीमाला का दूसरा हाथ भी कुचल दिया। फिर घबराकर कहने लगी, 'देख, शायद ढेंकी में कुछ चमक रहा है?'

ज्यों ही तेजीमाला सिर झुकाकर देखने लगी। माँ ने उसका सिर भी कुचल दिया। तेजी ने कुछ ही देर में तड़पकर दम तोड़ दिया। मिनती ने उसकी लाश, घर के बगीचे में गाड़ दी। कुछ दिन में वहाँ कड़बी मोटी मिर्च का पौधा उग आया।
एक राहगीर उसे तोड़ने लगा तो पौधे में से आवाज आई-

'मिनती माँ ने दुश्मनी निभाई, तेजीमाला ने जान गँवाई।' सौतेली माँ ने यह आवाज सुनी तो उसने वह पौधा ही उखाड़ दिया। जिस जगह पर उसे फेंका था, कुछ दिनों बाद वहाँ कद्दू की बेल लग गई।

वह पौधा भी बोलता था। मिनती ने डर के मारे आधी रात को बेल उखाड़ी और नदी में फेंक दी। वह पौधा नदी में जाकर कमल का फूल बन गया।

संयोगवश तेजी के पिता नाव से लौट रहे थे। कमल का फूल देखा तो सोचा कि तेजी के लिए ले चलें। ज्यों-ही फूल को हाथ लगाया तो उसमें आवाज आई-

'मिनती माँ ने दुश्मनी निभाई, तेजीमाला ने जान गँवाई।'
बसंत काँप उठे। घर पहुँचते ही पत्नी से पूछा, 'तेजीमाला कहाँ है?' मिनती ने झूठ बोला, 'वह मेरी माँ के घर गई है।'

बसंत ने कमल का फूल हाथ में लेकर कहा-

'मुझको सारा हाल बता जा
तेजी, असली रूप में आ जा'

पिता की प्यार-भरी आवाज सुनते ही तेजीमाला फूल में से बाहर आ गई। उसकी सारी बातें सुनकर बसंत ने मिनती को धक्के दे-देकर निकाल दिया।

(रचना भोला 'यामिनी')

एक थी सरमा


 (असमिया लोक-कथा)

असम के ग्वालपाड़ा जिले में एक नदी के किनारे लक्ष्मीनंदन साहूकार रहता था। घर में पत्नी व एक बच्ची सरुमा के सिवा कोई न था। परंतु भाग्य पर किसका बस चला है?

तीन दिन के बुखार में ही सरुमा की माँ के प्राण जाते रहे। लक्ष्मीनंदन ने सरुमा को बहुत समझाया परंतु बच्ची दिन-रात माँ के लिए रोती रहती।

लक्ष्मीनंदन के चाचा ने उपाय सुझाया, 'क्यों न तुम दूसरा ब्याह कर लो, बच्ची को माँ भी मिल जाएगी। तुम्हारा घर भी सँवर जाएगा।' साहुकार ने सोच-विचारकर दूसरे विवाह का फैसला कर लिया।

सरुमा की सौतेली माता का स्वभाव अच्छा न था। साहूकार को राजा के काम से कुछ महीने के लिए बाहर जाना पड़ा। उसके घर से निकलते ही माँ ने सरुमा के हाथ में मछली पकड़ने की टोकरी थमाकर कहा,
'चल अच्छी अच्छी खावाई मछलियां पकड़ कर ला।'

बेचारी छोटी-सी सरुमा को मछलियाँ पकड़नी नहीं आती थीं। वह नदी किनारे बैठकर रोने लगी। तभी पानी में हलचल हुई और एक सुनहरी मछली ने पानी से सिर निकाला।
'सरुमा बिटिया, मैं तुम्हारी माँ हूँ। तुम रोती क्यों हो?'
उसकी बात सुनकर मछली ने उसे खाने को भोजन दिया और उसकी टोकरी मछलियों से भर दी।

विमाता को पता लगा तो उसने सरुमा का नदी पर जाना बंद करवा दिया। एक दिन चिलचिलाती धूप में उससे बोली, 'चलो, सारे बाग को पानी दो।'

भूखी-प्यासी सरुमा पेड़ के नीचे बैठी रो रही थी। उसकी मरी हुई माँ एक तोते के रूप में आई। उसने सरुमा को मीठे-मीठे फल खाने को दिए और रोज आने को कहा।

विमाता तो सरुमा को भोजन देती नहीं थी। सरुमा रोज पेड़ के नीचे बैठ जाती और तोता उसे मीठे-मीठे फल खिलाता।
सौतेली माँ ने यह बात सुनी तो वह पेड़ ही कटवा दिया। सरुमा का बाग में जाना भी बंद हो गया।

फिर उसकी माँ एक गाय के रूप में आने लगी। सौतेली माँ ने देखा कि सरुमा तो दिन-रात मोटी हो रही है। उसने पता लगाया कि एक गाय रोज सरुमा को अपना दूध पिलाती है।
सौतेली माँ ने गाय को मारने की कोशिश की परंतु गाय उसे ही सींग मारकर भाग गई।

वह गुस्से से आग-बबूला हो गई। सरुमा पर कड़ी नजर रखी जाने लगी। कुछ दिन बाद उसने देखा कि सरुमा घर के पिछवाड़े खेती में से टमाटर तोड़कर खाती है।

उसने वह पौधा बेरहमी से उखाड़ दिया। सरुमा को एक कमरे में बंद कर दिया। भोली-भाली सरुमा को उसने पीने के लिए पानी तक न दिया। सरुमा की माँ ने एक चूहे का रूप धारण किया। उस अँधेरे कमरे में वह सरुमा के सामने जा पहुँची! आँखों में आँसू भरकर बोली-

सरुमा मत रो, मैं आई हूँ
तेरे लिए भुने कराई (अनाज का मिश्रण) लाई हूँ

सरुमा ने जी भरकर कराई खाया ओर मां द्वारा लाया गया पानी पिया। बंद कमरे में भी सरुमा फल-फूल रही है, यह देखकर सौतेली माँ ने उसे जान से मारने का निश्चय कर लिया। साहूकार के लौटने में चार दिन की देर थी। सरुमा की माँ ने उसे ऐसे वस्त्र दे दिए, जिसे पहनकर वह सुरक्षित हो गई।

उन वस्त्रों पर तलवार के वार का असर नहीं होता था। सौतेली माता का हर वार खाली गया। साहुकार लौटा तो सरुमा के लिए बहुत-सा सामान लाया। वह सरुमा को पुकारने लगा। तभी कमरे में से आवाज आई।
'अगर सरुमा के प्राण बचाना चाहो तो नई माँ को धक्के देकर निकालो'

लक्ष्मीनंदन ने सरुमा से सारी पिछली बातें सुनीं तो उसे पत्नी पर बड़ा गुस्सा आया। ज्यों-ही वह बाजार से लौटी तो लक्ष्मीनंदन ने उसे घर में घुसने नहीं दिया। वह रोती-कलपती अपनी माँ के घर लौट गई।

सरुमा अपने पिता के साथ सुख से रहने लगी। उस दिन के बाद माँ की आत्मा फिर नहीं आई।

(रचना भोला 'यामिनी')

लालच बुरी बलाय



(असमिया लोक-कथा)

आसाम के एक गाँव में तोराली नाम की लड़की रहती थी। गोरा रंग, माथे पर लाल बिंदिया व हाथों में चाँदी की चूडियाँ खनकाती तोराली सबको प्रिय थी। बिहुतली रंगमंच पर उसका नृत्य देखकर लोग दाँतों तले उँगली दबा लेते।

एक दिन उसके पिता के पास अनंत फुकन आया। वह उसी गाँव में रहता था। उसने तोराली के पिता से कहा, 'मैं आपकी लड़की से विवाह करना चाहता हूँ।'

फुकन के पास धन-दौलत की कमी न थी। तोराली के पिता ने तुरंत हामी भर दी।

सुबाग धान (मंगल धान) कूटा जाने लगा। तोराली, अनंत की पत्नी बन गई। कुछ समय तो सुखपूर्वक बीता किंतु धीरे-धीरे अनंत को व्यवसाय में घाटा होने लगा। देखते ही देखते फुकन के घर में गरीबी छा गई।

तोराली को भी रोजी-रोटी की तलाश में घर से बाहर निकलना पड़ता था। इस बीच उसने पाँच बेटों को जन्म दिया। एक दिन पेड़ के नीचे दबने से फुकन की आँखें जाती रहीं। तोराली को पाँचों बेटों से बहुत उम्मीद थी। वह दिन-रात मेहनत-मजदूरी करती। गाँववालों के धान कूटती ताकि सबका पेट भर सके।

तोराली भगवान से प्रार्थना करती कि उसके बेटे योग्य बनें किंतु पाँचों बेटे बहुत अधिक आलसी थे।

उन्हें केवल अपना पेट भरना आता था। माता-पिता के कष्टों से उनका कोई लेना-देना नहीं था।

तोराली ने मंदिर में ईश्वर से प्रार्थना की कि उसे एक मेहनती व समझदार पुत्र पैदा हो। परंतु उसने बालक की जगह एक साँप को जन्म दिया। जन्म लेते ही साँप जंगल में चला गया। तोराली अपनी फूटी किस्मत पर रोती रही।
तोराली के पाँचों बेटे उसे ताना देते-
'तुम माँ हो या नागिन, एक साँप को जन्म दिया।'

फुकन के समझाने पर भी लड़कों के स्वभाव में कोई अंतर नहीं आया। कोई-कोई दिन ऐसा भी आता जब घर में खाने को कुछ न होता। पाँचों बेटे तो माँग-मूँगकर खा आते। फुकन और तोराली अपने छठे साँप बेटे को याद करके रोते।

एक रात तोराली को सपने में वही साँप दिखाई दिया। उसने कहा, 'माँ, मेरी पूँछ सोने की है। मैं रोज घर आऊँगा। तुम मेरी पूँछ से एक इंच हिस्सा काट लिया करना। सोने को बेचकर घर का खर्च आराम से चलेगा।'

तोराली ने मुँह पर हाथ रखकर कहा, 'ना बेटा, अगर मैं तुम्हारी पूँछ काटूँगी तो तुम्हें पीड़ा होगी।'

“नहीं माँ, मुझे कोई दर्द नहीं होगा।' साँप ने आश्वासन दिया और लौट गया।

वही सपना तोराली को सात रातों तक आता रहा। आठवें दिन सचमुच साँप आ पहुँचा। तोराली ने कमरा भीतर से बंद कर लिया। डरते-डरते उसने चाकू से पूँछ पर वार किया। सचमुच उसके हाथ में सोने का टुकड़ा आ गया। साँप की पूँछ पर कोई घाव भी नहीं हुआ। माँ से दूध भरा कटोरा पीकर साँप लौट गया।

तोराली ने वह सोना बेचा और घर का जरूरी सामान ले आई। शाम को खाने में पीठा व लड्डू देखकर लड़के चौंके। तोराली ने झूठ बोल दिया कि उनके नाना ने पैसा दिया था।

इसी तरह साँप आता रहा और तोराली घर चलाती रही। उसका झूठ ज्यादा दिन चल नहीं सका। बेटों ने जोर डाला तो तोराली को पैसों का राज बताना ही पड़ा। बड़ा लड़का दुत्कारते हुए बोला, 'मूर्ख माँ, यदि हमारे साँप-भाई की पूरी पूँछ सोने की है तो ज्यादा सोना क्‍यों नहीं काटती?'

छोटा बोला, 'हाँ, इस तरह तो हम कभी अमीर नहीं होंगे। रोज थोड़े-थोड़े सोने से तो घरखर्च ही पूरा पड़ता है।'

तोराली और फुकन चुपचाप बेटों की बातें सुनते रहे। बेटों ने माँ पर दबाव डाला कि वह कम-से-कम तीन इंच सोना अवश्य काटे ताकि बचा हुआ सोना उनके काम आ सके।

तोराली के मना करने पर उन्होंने उसकी जमकर पिटाई की। बेचारा अंधा फुकन चिल्लाता ही रहा। रोते-रोते तोराली ने मान लिया कि वह अगली बार ज्यादा सोना काटेगी। अगले दिन साँप बेटे ने दरवाजे पर हमेशा की तरह आवाज लगाई-

दरवाजा खोलो, मैं हूँ आया
तुम्हारे लिए सोना हूँ लाया
क्या तुमने खाना, भरपेट खाया?

सदा की तरह तोराली ने भीतर से ही उत्तर दिया-

मेरा बेटा जग से न्यारा
माँ के दुख, समझने वाला
क्या हुआ गर इसका है रंग काला

साँप भीतर आया, तोराली ने उसे एक कटोरा दूध पिलाया, बेटों की मार से उसका अंग-अंग दुख रहा था। उसने नजर दौड़ाई, पाँचों बेटे दरारों से भीतर झाँक-झाँककर उसे जल्दी करने को कह रहे थे।

तोराली ने चाकू लिया और पूँछ का तीन इंच लंबा टुकड़ा काट दिया। अचानक चाकू लगते ही पूँछ से खून की धार बह निकली। साँप बेटा तड़पने लगा और कुछ ही देर में दम तोड़ दिया। तोराली, बेटे की मौत का गम मनाती रही और बेटों को अपने लालच का फल मिल गया।
हाँ, वह तीन इंच टुकड़ा भी तीन घंटे बाद माँस का टुकड़ा बन गया।

(रचना भोला 'यामिनी')

अनमोल राय




 (असमिया लोक-कथा)

बहुत समय पहले की बात है, सिलचर के समीप एक गाँव में जयंत फुकन रहता था। उसके माता-पिता बहुत अमीर थे। अत: उसे पैसे की कोई कमी न थी।

एक दिन वह चाचा के पोते की शादी में दूर गाँव गया। विवाह के पश्चात्‌ वह वहीं रुक गया। अगले दिन वह हाट में गया। वहाँ की रौनक देखकर उसे बड़ा मजा आया।

शाम होते ही सभी दुकानदार लौटने लगे किंतु एक व्यक्ति चुपचाप दुकान लगाए बैठा था। जयंत ने हैरानी से पूछा, 'अरे भई, तुम घर नहीं जाओगे?!
वह दुकानदार मायूसी से बोला, 'मेरी सलाह नहीं बिकी, उसे बेचकर ही जाऊँगा।'
'कौन-सी सलाह, कैसी सलाह?'
'पहले कीमत तो चुकाओ।' दुकानदार ने हाथ नचाते हुए कहा।
'कितने पैसे लगेंगे?' जयंत ने लापरवाही से पूछा।
'एक सलाह का एक हजार रुपया लगेगा, मेरे पास दो ही हैं।'
दुकानदार ने व्यस्तभाव से कहा।

उसकी बात सुनकर जयंत को हँसी आ गई। भला सलाह भी खरीदी जाती है? परंतु जाने जयंत के मन में क्या आया, उसने दो हजार रुपए गिनकर उसके सामने रख दिए।
दुकानदार हिल-हिलकर बोला-

काँटेदार बाड़ न लगाना
घरवाली को राज न बताना
नहीं तो पीछे पड़ेगा पछताना।

जयंत ने उसकी सलाह याद कर ली! घर पहुँचा तो पत्नी दरवाजे पर खड़ी मिली। बाग का माली भी वहीं था। वह माली से दरवाजे के ऊपर बाड़ लगवा रही थी। जयंत को नई-नई सलाह याद थी। उसने पत्नी को वह बाड़ लगाने से मना किया। दो हजार रुपए वाली बात भी बताई। उसकी पत्नी खिलखिलाकर हँस दी।

'मान गए आपको, कोई भी घड़ी-भर में मूर्ख बना जाता है। अरे, इतने रुपए पानी में बहा आए। मेरे लिए जेवर बनवा देते।' जयंत चुपचाप भीतर आ गया। उसे अपनी गलती पर क्रोध आ रहा था। ठीक ही तो कहा पत्नी ने, दो हजार रुपए गँवा दिए।
उस रात जयंत को सोते-सोते विचार आया, 'क्यों न, इन सलाहों को आजमाया जाए।'

उसने एक सूअर के बच्चे का सिर काटकर जंगल में छिपा दिया। फिर खून से सना चाकू, पत्नी को दिखाकर बोला, 'अरी, मुझसे एक आदमी का खून हो गया है, तू किसी से कहना मत, वरना आफत आ जाएगी।'

जयंत की पत्नी के पेट में बात पचना आसान न था। वह मटका लेकर पनघट पर जा पहुँची। वहाँ वह अपने पति की बहादुरी की डींगें हाँकने लगी। एक सखी ने ताना दिया, 'अरी सोनपाही, बहुत बड़ाइयाँ कर रही है। ऐसा कौनसा बड़ा काम कर दिया तेरे पति ने?'

जयंत की पत्नी सोनपाही ने पीछे हटना नहीं सीखा था। बात में नमक-मिर्च लगाकर, उसने शान से सबको बताया कि जयंत ने एक आदमी का खून करके उसकी लाश जंगल में छिपा दी है।

शाम होते-होते पूरे गाँव में यह खबर फैल गई। जयंत खेत से लौट रहा था। लोग उसे देखते और हाय राम! जान बचाओ। कहकर भाग खड़े होते।

जयंत कुछ समझ नहीं पाया। अगले दिन राजा का बुलावा आ पहुँचा। हड़बड़ाहट में जयंत घर से निकला। दरवाजे की कंटीली बाड़ में उसके सिर की पगड़ी गिर गई। जयंत उसे बिना पहने ही चल दिया।

राजा के दरबार में नंगे सिर जाने की सख्त मनाही थी। जयंत को देख, राजा गुस्से से भर उठा। तब जयंत को याद आई वह सलाह- 'काँटेदार बाड़ न लगाना!'
फिर राजा ने उससे गरजकर पूछा, 'तुमने एक आदमी का खून किया है?'
जयंत ने हकलाते हुए उत्तर दिया, 'जी मैं ... नहीं ... ।'
'क्या मैं ... मैं लगा रखी है। स्वयं तुम्हारी पत्नी, उस खून की गवाह है।'
जयंत के कानों में गूँजने लगा।

“घरवाली को राज न बताना।
नहीं तो पीछे पड़ेगा पछताना।'

वह खिलखिलाकर हँस दिया। उसने धीरे-धीरे राजा को समझाया कि किस तरह उसने सलाहों की परीक्षा लेनी चाही। राजा से आज्ञा लेकर वह जंगल में से सूअर का कटा हुआ सिर ले आया। राजा ने सारी बात सुनी तो वह भी हँसते-हँसते लोटपोट हो गया।

जयंत को ढेरों ईनाम देकर विदा किया गया। सोनपाही कुछ नहीं जान पाई, परंतु जयंत ने उन सलाहों को सारी उम्र अमल में लाने का निश्चय कर लिया।

(रचना भोला 'यामिनी')

99 का चक्कर



: असमिया लोक-कथा

प्राचीनकाल की बात है । असम के ग्रामीण इलाके में तीरथ नाम का कुम्हार रहता था । वह जितना कमाता था, उससे उसका घर खर्च आसानी से चल जाता था । उसे अधिक धन की चाह नहीं थी । वह सोचता था कि उसे अधिक कमा कर क्या करना है । दोनों वक्त वह पेट भर खाता था, उसी से संतुष्ट था ।

वह दिन भर में ढेरों में बर्तन बनाता, जिन पर उसकी लागत सात-आठ रुपये आती थी । अगले दिन वह उन बर्तनों को बाजार में बेच आता था । जिस पर उसे डेढ़ या दो रुपये बचते थे । इतनी कमाई से ही उसकी रोटी का गुजारा हो जाता था, इस कारण वह मस्त रहता था ।

रोज शाम को तीरथ अपनी बांसुरी लेकर बैठ जाता और घंटों से बजाता रहता । इसी तरह दिन बीतते जा रहे थे । धीरे-धीरे एक दिन आया कि उसका विवाह भी हो गया । उसकी पत्नी का नाम कल्याणी था ।

कल्याणी एक अत्यंत सुघड़ और सुशील लड़की थी । वह पति के साथ पति के काम में खूब हाथ बंटाने लगी । वह घर का काम भी खूब मन लगाकर करती थी । अब तीरथ की कमाई पहले से बढ़ गई । इस कारण दो लोगों का खर्च आसानी से चल जाता था ।

तीरथ और कल्याणी के पड़ोसी यह देखकर जलते थे कि वे दोनों इतने खुश रहते थे । दोनों दिन भर मिलकर काम करते थे । तीरथ पहले की तरह शाम को बांसुरी बजाता रहता था । कल्याणी घर के भीतर बैठी कुछ गाती गुनगुनाती रहती थी ।

एक दिन कल्याणी तीरथ से बोली कि तुम जितना भी कमाते हो वह रोज खर्च हो जाता है । हमें अपनी कमाई से कुछ न कुछ बचाना अवश्य है ।

इस पर तीरथ बोला - "हमें ज्यादा कमा कर क्या करना है ? ईश्वर ने हमें इतना कुछ दिया है, मैं इसी से संतुष्ट हूं । चाहे छोटी ही सही, हमारा अपना घर है । दोनों वक्त हम पेट भर कर खाते हैं, और हमें क्या चाहिए ?"

इस पर कल्याणी बोली - "मैं जानती हूं कि ईश्वर का दिया हमारे पास सब कुछ है और मैं इसमें खूब खुश भी हूं । परन्तु आड़े वक्त के लिए भी हमें कुछ न कुछ बचाकर रखना चाहिए ।"

तीरथ को कल्याणी की बात ठीक लगी और दोनों पहले से अधिक मेहनत करने लगे । कल्याणी सुबह 4 बजे उठकर काम में लग जाती । तीरथ भी रात देर तक काम करता रहता । लेकिन फिर भी दोनों अधिक बचत न कर पाते । अत: दोनों ने फैसला किया कि इस तरह अपना सुख-चैन खोना उचित नहीं है और वे पहले की तरह मस्त रहने लगे ।

एक दिन तीरथ बर्तन बेचकर बाजार से घर लौट रहा था । शाम ढल चुकी थी । वह थके पैरों खेतों से गुजर रहा था कि अचानक उसकी निगाह एक लाल मखमली थैली पर गई । उसने उसे उठाकर देखा तो उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा । थैली में चांदी के सिक्के भरे थे ।

तीरथ ने सोचा कि यह थैली जरूर किसी की गिर गई है, जिसकी थैली हो उसी को दे देनी चाहिए । उसने चारों तरफ निगाह दौड़ाई । दूर-दूर तक कोई दिखाई नहीं दिया । उसने ईश्वर का दिया इनाम समझकर उस थैली को उठा लिया और घर ले आया ।
घर आकर तीरथ ने सारा किस्सा कल्याणी को कह सुनाया । कल्याणी ने ईश्वर को धन्यवाद दिया ।
तीरथ बोला - "तुम कहती थीं कि हमें आड़े समय के लिए कुछ बचाकर रखना चाहिए । सो ईश्वर ने ऐसे आड़े समय के लिए हमें उपहार दिया है ।"
"ऐसा ही लगता है ।" कल्याणी बोली - "हमें गिनकर देखना चाहिए कि ये चांदी के रुपये कितने हैं ।"

दोनों बैठकर रुपये गिनने लगे । पूरे निन्यानवे रुपये थे । दोनों खुश होकर विचार-विमर्श करने लगे । कल्याणी बोली - "इन्हें हमें आड़े समय के लिए उठा कर रख देना चाहिए, फिर कल को हमारा परिवार बढ़ेगा तो खर्चे भी बढ़ेंगे ।"
तीरथ बोला - "पर निन्यानवे की गिनती गलत है, हमें सौ पूरा करना होगा, फिर हम इन्हें बचा कर रखेंगे ।"

कल्याणी ने हां में हां मिलाई । दोनों जानते थे कि चांदी के निन्यानवे रुपये को सौ रुपये करना बहुत कठिन काम है, परंतु फिर भी दोनों ने दृढ़ निश्चय किया कि इसे पूरा करके ही रहेंगे । अब तीरथ और कल्याणी ने दुगुनी-चौगुनी मेहनत से काम करना शुरू कर दिया । तीरथ भी बर्तन बेचने सुबह ही निकल जाता, फिर देर रात तक घर लौटता ।

इस तरह दोनों लोग थक कर चूर हो जाते थे । अब तीरथ थका होने के कारण बांसुरी नहीं बजाता था, न ही कल्याणी खुशी के गीत गाती गुनगुनाती थी । उसे गुनगुनाने की फुरसत ही नहीं थी। न ही वह अड़ोस-पड़ोस या मोहल्ले में कहीं जा पाती थी ।

दिन-रात एक करके दोनों लोग एक-एक पैसा जोड़ रहे थे । इसके लिए उन्होंने दो वक्त के स्थान पर एक भक्त भोजन करना शुरू कर दिया, लेकिन चांदी के सौ रुपये पूरे नहीं हो रहे थे ।

यूं ही तीन महीने बीत गए । तीरथ के पड़ोसी खुसर-फुसर करने लगे कि इनके यहां जरूर कोई परेशानी है, जिसकी वजह से ये दिन-रात काम करते हैं और थके-थके रहते हैं ।

किसी तरह छ: महीने बीतने पर उन्होंने सौ रुपये पूरे कर लिए । अब तक तीरथ और कल्याणी को पैसे जोड़ने का लालच पड़ चुका था । दोनों सोचने लगे कि एक सौ से क्या भला होगा । हमें सौ और जोड़ने चाहिए । अगर सौ रुपये और जुड़ गए तो हम कोई व्यापार शुरू कर देंगे और फिर हमारे दिन सुख से बीतेंगे ।

उन्होंने आगे भी उसी तरह मेहनत जारी रखी । इधर, पड़ोसियों की बेचैनी बढ़ती जा रही थी । एक दिन पड़ोस की रम्मो ने फैसला किया कि वह कल्याणी की परेशानी का कारण जानकर ही रहेगी । वह दोपहर को कल्याणी के घर जा पहुंची । कल्याणी बर्तन बनाने में व्यस्त थी ।

रम्मो ने इधर-उधर की बातें करने के पश्चात् कल्याणी से पूछ ही लिया - "बहन ! पहले जो तुम रोज शाम को मधुर गीत गुनगुनाती थीं, आजकल तुम्हारा गीत सुनाई नहीं देता ।"

कल्याणी ने 'यूं ही' कहकर बात टालने की कोशिश की और अपने काम में लगी रही । परंतु रम्मो कब मानने वाली थी । वह बात को घुमाकर बोली - "आजकल बहुत थक जाती हो न ? कहो तो मैं तुम्हारी मदद कर दूं ।"

कल्याणी थकी तो थी ही, प्यार भरे शब्द सुनकर पिघल गई और बोली - "हां बहन, मैं सचमुच बहुत थक जाती हूं, पर क्या करूं हम बड़ी मुश्किल से सौ पूरे कर पाए हैं ।"

"क्या मतलब ?" रम्मो बोली तो कल्याणी ने पूरा किस्सा कह सुनाया । रम्मो बोली - "बहन, तुम दोनों तो गजब के चक्कर में पड़ गए हो, तुम्हें इस चक्कर में पड़ना ही नहीं चाहिए था । यह चक्कर आदमी को कहीं का नहीं छोड़ता ।"

कल्याणी ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा - "तुम किस चक्कर की बात कर रही हो ? मैं कुछ समझी नहीं ।"
"अरी बहन, निन्यानवे का चक्कर ।" रम्मो का जवाब था ।

(रुचि मिश्रा मिन्की)

गुरुभक्ति


"गुरु गूंगे गुरू बावरे गुरू के रहिये दास "

एक बार की बात है नारद जी विष्णु भगवानजी से मिलने गए !
भगवान ने उनका बहुत सम्मान किया ! जब नारद जी वापिस गए तो विष्णुजी ने कहा हे लक्ष्मी जिस स्थान पर नारद जी बैठे थे ! उस स्थान को गाय के गोबर से लीप दो !

जब विष्णुजी यह बात कह रहे थे तब नारदजी बाहर ही खड़े थे ! उन्होंने सब सुन लिया और वापिस आ गए और विष्णु भगवान जी से पुछा हे भगवान जब मै आया तो आपने मेरा खूब सम्मान किया पर जब मै जा रहा था तो आपने लक्ष्मी जी से यह क्यों कहा कि जिस स्थान पर नारद बैठा था उस स्थान को गोबर से लीप दो !

भगवान ने कहा हे नारद मैंने आपका सम्मान इसलिए किया क्योंकि आप देव ऋषि है और मैंने देवी लक्ष्मी से ऐसा इसलिए कहा क्योंकि आपका कोई गुरु नहीं है ! आप निगुरे है ! जिस स्थान पर कोई निगुरा बैठ जाता है वो स्थान गन्दा हो जाता है !

यह सुनकर नारद जी ने कहा हे भगवान आपकी बात सत्य है पर मै गुरु किसे बनाऊ ! नारायण! बोले हे नारद धरती पर चले जाओ जो व्यक्ति सबसे पहले मिले उसे अपना गुरु मानलो !

नारद जी ने प्रणाम किया और चले गए ! जब नारद जी धरती पर आये तो उन्हें सबसे पहले एक मछली पकड़ने वाला एक मछुवारा मिला ! नारद जी वापिस नारायण के पास चले गए और कहा महाराज वो मछुवारा तो कुछ भी नहीं जानता मै उसे गुरु कैसे मान सकता हूँ ?

यह सुनकर भगवान ने कहा नारद जी अपना प्रण पूरा करो ! नारद जी वापिस आये और उस मछुवारे से कहा मेरे गुरु बन जाओ ! पहले तो मछुवारा नहीं माना बाद में बहुत मनाने से मान गया !

मछुवारे को राजी करने के बाद नारद जी वापीस भगवान के पास गए और कहा हे भगवान! मेरे गुरूजी को तो कुछ भी नहीं आता वे मुझे क्या सिखायेगे ! यह सुनकर विष्णु जी को क्रोध आ गया और उन्होंने कहा हे नारद गुरु निंदा करते हो जाओ मै आपको श्राप देता हूँ कि आपको ८४ लाख योनियों में घूमना पड़ेगा !
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यह सुनकर नारद जी ने दोनों हाथ जोड़कर कहा हे भगवान! इस श्राप से बचने का उपाय भी बता दीजिये !भगवान नारायण ने कहा इसका उपाय जाकर अपने गुरुदेव से पूछो ! नारद जी ने सारी बात जाकर गुरुदेव को बताई ! गुरूजी ने कहा ऐसा करना भगवान से कहना ८४ लाख योनियों की तस्वीरे धरती पर बना दे फिर उस पर लेट कर गोल घूम लेना और विष्णु जी से कहना ८४ लाख योनियों में घूम आया मुझे माफ़ करदो आगे से गुरु निंदा नहीं करूँगा !
😷😷😷😪😪😪
नारद जी ने विष्णु जी के पास जाकर ऐसा ही किया उनसे कहा ८४ लाख योनिया धरती पर बना दो और फिर उन पर लेट कर घूम लिए और कहा नारायण मुझे माफ़ कर दीजिये आगे से कभी गुरु निंदा नहीं करूँगा ! यह सुनकर विष्णु जी ने कहा देखा जिस गुरु की निंदा कर रहे थे उसी ने मेरे श्राप से बचा लिया !😌☝
✨नारदजी गुरु की महिमा अपरम्पार है ! ✨
गुरु गूंगे गुरु बाबरे गुरु के रहिये दास,
गुरु जो भेजे नरक को, स्वर्ग कि रखिये आस !

गुरु चाहे गूंगा हो चाहे गुरु बाबरा हो (पागल हो) गुरु के हमेशा दास रहना चाहिए ! गुरु यदि नरक को भेजे तब भी शिष्य को यह इच्छा रखनी चाहिए कि मुझे स्वर्ग प्राप्त होगा ,अर्थात इसमें मेरा कल्याण ही होगा! यदि शिष्य को गुरु पर पूर्ण विश्वास हो तो उसका बुरा "स्वयं गुरु" भी नहीं कर सकते

इन नामो के बारे में भी जाने


क्या आप जानते हैं कि हमारे देश, गाँव व शहरों के असली नाम क्या थे ?
१. हिन्दुस्तान, इंडिया या भारत का असली नाम - आर्यावर्त्त !
२. कानपुर का असली नाम - कान्हापुर !
३. दिल्ली का असली नाम - इन्द्रप्रस्थ !
४. हैदराबाद का असली नाम - भाग्यनगर !
५. इलाहाबाद का असली नाम - प्रयाग !
६. औरंगाबाद का असली नाम - संभाजी नगर !
७. भोपाल का असली नाम - भोजपाल !
८. लखनऊ का असली नाम - लक्ष्मणपुरी !
९. अहमदाबाद का असली नाम - कर्णावती !
१०. फैजाबाद का असली नाम - अवध !
११. अलीगढ़ का असली नाम - हरिगढ़ !
१२. मिराज का असली नाम - शिव प्रदेश !
१३. मुजफ्फरनगर का असली नाम - लक्ष्मी नगर !
१४. शामली का असली नाम - श्यामली !
१५. रोहतक का असली नाम - रोहितासपुर !
१६. पोरबंदर का असली नाम - सुदामापुरी !
१७. पटना का असली नाम - पाटलीपुत्र !
१८. नांदेड का असली नाम - नंदीग्राम !
१९. आजमगढ का असली नाम - आर्यगढ़ !
२०. अजमेर का असली नाम - अजयमेरु !
२१. उज्जैन का असली नाम - अवंतिका !
२२. जमशेदपुर का असली नाम काली माटी !
२३. विशाखापट्टनम का असली नाम - विजात्रापश्म !
२४. गुवाहटी का असली नाम - गौहाटी !
२५. सुल्तानगँज का असली नाम - चम्पानगरी !
२६. बुरहानपुर का असली नाम - ब्रह्मपुर !
२७. इंदौर का असली नाम - इंदुर !
२८. नशरुलागंज का असली नाम - भीरुंदा !
२९. सोनीपत का असली नाम - स्वर्णप्रस्थ !
३०. पानीपत का असली नाम - पर्णप्रस्थ !
३१.बागपत का असली नाम - बागप्रस्थ !
३२. उसामानाबाद का असली नाम - धाराशिव (महाराष्ट्र में) !
३३. देवरिया का असली नाम - देवपुरी ! (उत्तर प्रदेश में)
३४. सुल्तानपुर का असली नाम - कुशभवनपुर
३५. लखीमपुर का असली नाम - लक्ष्मीपुर ! (उत्तर प्रदेश में)
ये सभी नाम मुगलों, अंग्रेजों, राजाओं और आज तक की सरकारों ने बदले हैं ।               ....जय हिन्द,,!!

राजा वीर विक्रमादित्य कथा




कौन थे राजा वीर विक्रमादित्य..... ????


बड़े ही शर्म की बात है कि महाराज विक्रमदित्य के बारे में देश को लगभग शून्य बराबर ज्ञान है, जिन्होंने भारत को सोने की चिड़िया बनाया था, और स्वर्णिम काल लाया था

उज्जैन के राजा थे गन्धर्वसैन , जिनके तीन संताने थी , सबसे बड़ी लड़की थी मैनावती , उससे छोटा लड़का भृतहरि और सबसे छोटा वीर विक्रमादित्य...

बहन मैनावती की शादी धारानगरी के राजा पदमसैन के साथ कर दी , जिनके एक लड़का हुआ गोपीचन्द , आगे चलकर गोपीचन्द ने श्री ज्वालेन्दर नाथ जी से योग दीक्षा ले ली और तपस्या करने जंगलों में चले गए , फिर मैनावती ने भी श्री गुरू गोरक्ष नाथ जी से योग दीक्षा ले ली ,

आज ये देश और यहाँ की संस्कृति केवल विक्रमदित्य के कारण अस्तित्व में है,

अशोक मौर्य ने बोद्ध धर्म अपना लिया था और बोद्ध बनकर 25 साल राज किया था ।

भारत में तब सनातन धर्म लगभग समाप्ति पर आ गया था, देश में बौद्ध और जैन हो गए थे ।
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रामायण, और महाभारत जैसे ग्रन्थ खो गए थे, महाराज विक्रम ने ही पुनः उनकी खोज करवा कर स्थापित किया।

विष्णु और शिव जी के मंदिर बनवाये और सनातन धर्म को बचाया
विक्रमदित्य के 9 रत्नों में से एक कालिदास ने अभिज्ञान शाकुन्तलम् लिखा, जिसमे भारत का इतिहास है ।

अन्यथा भारत का इतिहास क्या मित्रो हम भगवान् कृष्ण और राम को ही खो चुके थे

हमारे ग्रन्थ ही भारत में खोने के कगार पर आ गए थे,

उस समय उज्जैन के राजा भृतहरि ने राज छोड़कर श्री गुरू गोरक्ष नाथ जी से योग की दीक्षा ले ली और तपस्या करने जंगलों में चले गए , राज अपने छोटे भाई विक्रमदित्य को दे दिया ,

वीर विक्रमादित्य भी श्री गुरू गोरक्ष नाथ जी से गुरू दीक्षा लेकर राजपाट सम्भालने लगे और आज उन्ही के कारण सनातन धर्म बचा हुआ है, हमारी संस्कृति बची हुई है ।
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महाराज विक्रमदित्य ने केवल धर्म ही नही बचाया
उन्होंने देश को आर्थिक तौर पर सोने की चिड़िया बनाई, उनके राज को ही भारत का स्वर्णिम राज कहा जाता है ।
विक्रमदित्य के काल में भारत का कपडा, विदेशी व्यपारी सोने के वजन से खरीदते थे ।
भारत में इतना सोना आ गया था की, विक्रमदित्य काल में सोने की सिक्के चलते थे , आप गूगल इमेज कर विक्रमदित्य के सोने के सिक्के देख सकते हैं।
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हिन्दू कैलंडर भी विक्रमदित्य का स्थापित किया हुआ है
आज जो भी ज्योतिष गणना है जैसे , हिन्दी सम्वंत , वार , तिथीयाँ , राशि , नक्षत्र , गोचर आदि उन्ही की रचना है , वे बहुत ही पराक्रमी , बलशाली और बुद्धिमान राजा थे ।
कई बार तो देवता भी उनसे न्याय करवाने आते थे ,
विक्रमदित्य के काल में हर नियम धर्मशास्त्र के हिसाब से बने होते थे, न्याय , राज सब धर्मशास्त्र के नियमो पर चलता था
विक्रमदित्य का काल राम राज के बाद सर्वश्रेष्ठ माना गया है, जहाँ प्रजा धनि और धर्म पर चलने वाली थी
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बुधवार, 15 जुलाई 2020

चंगेज़ खान के बारे में



*#चंगेज_खान - 1162 - 1227*

*बहुत से लोगो को इतिहास की अनभिज्ञता के कारण लगता है की चंगेज खान मुस्लिम था । जबकि ऐसा नही है, चंगेज खान मुस्लिम नही था, बल्कि इस्लाम के महान शत्रुओ में उनका नाम शुमार होता है ।। पिछले 1500 वर्षों में अगर किसी एक राजा ने सबसे बड़ी भूमि जीती हो, तो वह चंगेज खान ही है।*

*चंगेज खान मंगोल जाति से थे, मंगोलों का सम्बन्ध मंगोलिया से है, जो संस्कृत के मङ्गल नाम का अपभ्रंस है । मंगोलों ओर भारतीयों की संस्कृति में भी काफी समानता है, अपने ध्वज को वे स्वयम्भू (सायंबू )कहते है, इसमें भू स्वर संस्कृत का है । मंगोलिया के एक भूतपूर्व राष्ट्रपति का नाम शंभु था।*

*कुब्लेखान नाम के मंगोल ने चीन की विष्वविख्यात महाभित्ती के पश्चिमीद्वार पर उष्णीश विजयाधारणी नामक संस्कृत मंत्र लिखवायाः-*

*ॐ नमो भगवत्यै आर्य समन्त विमलोष्णीषविजयायै।*

*यह मंत्र सबसे ऊपर संस्कृत में, फिर तिब्बती में और फिर मंगोल और चीनी लिपियों में लिखा गया।*

*मंगोल देश के विहारों में स्थान-स्थान पर संस्कृत मंत्र लिखे रहते हैं। वे संस्कृत लिखने के लिये लांछा लिपि का प्रयोग करते हैं। भारत में बंगाल के पाल वंश में संस्कृत मंत्र लिखने के लिए जो सुन्दर अक्षर प्रयोग किये जिन्हें रंजना लिपि कहा जाता था, उसी रंजना लिपि को लांछा के रूप में मंगोलिया में प्रयोग किया जाता है। संस्कृत अक्षर सिखाने के लिये जो पुस्तक है उसे आलि, कालि, बीजहारम् कहते हैं। आलि अर्थात् अ, क इत्यादि स्वर व्यंजन। क्यांकि संस्कृत के अक्षर बीजमंत्र के रूप में भी प्रयोग में लाये जाते हैं।इस कारण अक्षर माला को बीजहारम् की संज्ञा दी गई।*

*मंगोल ओर भारत का इतना अटूट सम्बन्ध संस्कृत और संस्कृति दोनो से है, मंगोलिया के लोग शिखा भी रखते थे । इसी मंगोल वंश में हुआ था चंगेज खान, जिसका वास्तविक नाम Genghis खान उर्फ गांगेश खान था, गांगेश भी संस्कृत का ही नाम है, जैसे भीष्म पितामह को गांगेय कहा जाता था, यह गांगेश नाम भी उसी का समानार्थी नाम है, मंगोलियन लोग भी गंगा नदी को बहुत पवित्र मानते है , इस कारण वहां के किसी राजा का नाम गंगापुत्र के नाम पर हो, तो यह आश्चर्य की बात नही ।*

*चंगेज खान ने अपना मंत्रिमंडल ईरान भेजा था, इस्लामिक नीति के अनुसार ईरानी मुसलमानो ने चंगेज खान के मंत्रियों को मार डाला, चंगेज खान इस बात से इतना बिफर गया कि उसने ईरान और इराक की 70% आबादी को ही समाप्त कर दिया, बगदाद पहुंचकर उसने आसमानी ग्रन्थो को भी घोड़े की टॉप के नीचे मसल दिया था ।।*

*चंगेज खान इतना शक्तिशाली था, की इसने गजनी और पेशावर तक आकर वहां के शासक अल्लाउद्दीन मूहम्मद को खदेड़ कर मारा था, लेकिन उसके बाद भी चंगेज खान भारत की तरफ नही आया, जहां हिन्दू थे । पेशावर गजनी के सुल्तान अल्लाउदीन के बेटे जलालउद्दीन ने चंगेज खान से बचने के लिए उस समय के दिल्ली सल्तनत के बादशाह इल्तुतमिश से अपने ही अफगान भाई से मदद मांगी की वह उसे शरण दे, लेकिन चंगेज खान का तहलका इतना ज्यादा था, की उससे भयाक्रांत इल्तुतमिश ने जलालउद्दीन को शरण देने से मना कर दिया ।।।*

*आगे चलकर चेंगेज खान के वंशज इस्लाम के आगे ढेर हो गए, ओर भारत मे चलने वाला मुगल वंश उसी मंगोल राजवंश का एक छोटा सा टुकड़ा था ।।*

*खान शब्द इस्लाम के जन्म से बहुत पहले से भारत के उत्तर-पूर्वी क्षेत्रो की कई सभ्यताओं में प्रयोग होता रहा है। यह एक उपाधि की तरह भी प्रयोग की जाती थी ,  जो शासकों और अत्यंत शक्तिशाली सिपहसालारों को दी जाती थी - बाद में मंगोलों से ये उपाधि मंगोलों के गुलाम बने तुर्कों के बीच पहुँचा और वहाँ से भारत में तलवार के बल पर बनाये कई मुसलमानों ने इसे अपने नाम के साथ जोड़ लिया।


चंगेज़ खान के बारे में