सोमवार, 7 फ़रवरी 2022

डॉ अम्बेडकर का एक दुर्लभ पत्र


30 दिसंबर, 1930 को डॉ. भीमराव आंबेडकर ने लंदन से रमाबाई को एक पत्र लिखा था, उसी पत्र का सम्पादित संपादित अंश।


रमा! कैसी हो रमा तुम?

तुम्हारी और यशवंत की आज मुझे बहुत याद आई। तुम्हारी यादों से मन बहुत ही उदास हो गया है। मेरी बौद्धिक ताकत बहुत ही प्रबल बन गई है। शायद मन में बहुत सारी बातें उमड़ रही हैं। हृदय बहुत ही भाव प्रवण हो गया है। मन बहुत ही विचलित हो गया है और घर की, तुम सबकी बहुत यादआ रही है। तुम्हारी यादआ रही है। यशवंत की याद आ रही है। मुझे तुम जहाज पर छोड़ने आयी थी। मैं मना कर रहा था। फिर भी तुम्हारा मन नही माना। तुम मुझे पहुंचाने आई थी। मैं राउंड टेबल कांफ्रेंस के लिए जा रहा था। हर तरफ मेरी जय-जयकार गूंज रही थी और ये सब तुम देख रही थी। तुम्हारा मन भर आया था, कृतार्थता से तुम उमड़ गयी थी। तुम्हारे मुंह से शब्द नही निकल रहे थे। परंतु, तुम्हारी आंखें, जो शब्दों से बयां नहीं हो पा रहा था, सब बोल रही थीं। तुम्हारा मौन शब्दों से भी कई ज्यादा मुखर बन गया था। तुम्हारे गले से निकली आवाज तुम्हारे होठों तक आकर टकरा रही थी।


और अब यहां लंदन में इस सुबह ये बातें मन में उठ रही हैं। दिल कोमल हो गया है। जी में घबराहट सी हो रही है। कैसी हो रमा तुम? हमारा यशवंत कैसा है? मुझे याद करता है वह? उसकी संधिवात [जोड़ों] की बीमारी कैसी है? उसको संभालो रमा! हमारे चार बच्चे हमें छोड़कर जा चुके हैं। अब है तो सिर्फ यशवंत ही बचा है। वही तुम्हारे मातृत्व का आधार है। उसे हमें संभालना होगा। यशवंत का खयाल रखना रमा। यशवंत को खूब पढ़ाना। उसे रात को पढ़ने उठाती रहना। मेरे बाबा मुझे रात को पढ़ने के लिए उठाया करते थे। तब तक वह जगते रहते थे। मुझे यह अनुशासन उन्होंने ही सिखाया। मैं उठकर पढ़ने बैठ जाऊं, तब वह सोते थे। पहले-पहले मुझे पढ़ाई के लिए रात को उठने पर बहुत ही आलस आता था। तब पढ़ाई से भी ज्यादा नींद अच्छी लगती थी। आगे चलकर तो जिंदगीभर के लिए नींद से अधिक पढ़ाई ही अहम लगने लगी।


रमा, यशवंत को भी ऐसी ही पढ़ाई की लगन लगनी चाहिए। किताबों के लिए उसके मन में उत्कट इच्छा जगानी होगी।


रमा, अमीरी-ऐश्वर्य, ये चीजें किसी काम की नहीं। तुम अपने इर्द-गिर्द देखती ही हो। लोग ऐसी ही चीजों के पीछे हमेशा से लगे हुए रहते हैं। उनकी जिन्दगियां जहां से शुरू होती है, वहीं पर ठहर जाती है। इन लोगों की जिंदगी, जगह बदल नहीं पाती। हमारा काम ऐसी जिंदगी जीने से नही चलेगा रमा। हमारे पास सिवाय दुख के कुछ भी नहीं है। दरिद्रता, गरीबी के सिवाय हमारा कोई साथी नहीं। मुश्किलें और दिक्कतें हमें छोड़ती नहीं हैं। अपमान, छलावा, अवहेलना यही चीजें हमारे साथ छांव जैसी बनी हुई हैं।

सिर्फ अंधेरा ही है। दुख का समंदर ही है। हमारा सूर्योदय हमको ही होना होगा रमा। हमें ही अपना मार्ग बनना है। उस मार्ग पर दीयों की माला भी हमें ही बनानी है। उस रास्ते पर जीत का सफर भी हमें ही तय करना है। हमारी कोई दुनिया नहीं है। अपनी दुनिया हमें ही बनानी होगी।


हम ऐसे ही हैं रमा। इसलिए कहता हूं कि यशवंत को खूब पढ़ाना। उसके कपड़ों के बारे में फिक्रमंद रहना। उसको समझाना-बुझाना। यशवंत के मन में ललक पैदा करना। मुझे तुम्हारी बहुत याद आती है। यशवंत की याद आती है। मैं समझता नहीं हूं, ऐसा नहीं है रमा, मैं समझता हूं कि तुम इस आग में जल रही हो। पत्ते टूटकर गिर रहे हैं और जान सूखती जाए ऐसी ही तू होने लगी है। पर रमा, मैं क्या करूं? एक तरफ से पीठ पीछे पड़ी दरिद्रता और दूसरी तरफ मेरी जिद और लिया हुआ दृढ संकल्प। संकल्प ज्ञान का!


सच कहूं रमा, मैं निर्दयी नहीं। परंतु, जिद के पंख पसारकर आकाश में उड़ रहा हूं। किसी ने पुकारा तो भी यातनाएं होती हैं। मेरे मन पर खरोंच पड़ती है और मेरा गुस्सा भड़कता है। मेरे पास भी हृदय है रमा! मैं तड़पता हूं। पर, मैं बंध चुका हूं क्रांति से! इसलिए मुझे खुद की भावनाएं चिता पर चढ़ानी पड़ती हैं। उसकी आंच तुम्हारे और यशवंत तक भी कभी-कभी पहुंचती है। यह सच है। पर, इस बार रमा मैं बाएं हाथ से लिख रहा हूं और दाएं हाथ से उमड़ आए आंसू पोंछ रहा हूं।

रमा, तुम मेरी जिंदगी में न आती तो?


तुम मन-साथी के रूप में न मिली होती तो? तो क्या होता? मात्र संसार सुख को ध्येय समझने वाली स्त्री मुझे छोड़ के चली गई होती। आधे पेट रहना, उपला (गोइठा) चुनने जाना या गोबर ढूंढकर उसका उपला थापना या उपला थापने के काम पर जाना किसे पसंद होगा? चूल्हे के लिए ईंधन जुटाकर लाना, मुम्बई में कौन पसंद करेगा? घर के चिथडे़ हुए कपड़ों को सीते रहना। इतना ही नहीं, 'एक माचिस में पूरा माह निकालना है, इतने ही तेल में और अनाज, नमक से महीने भर का काम चलाना चाहिए', मेरा ऐसा कहना। गरीबी के ये आदेश तुम्हें मीठे नहीं लगते तो?


तो मेरा मन टुकड़े-टुकड़े हो गया होता। मेरी जिद में दरारें पड़ गई होतीं। मुझे ज्वार आ जाता और उसी समय तुरन्त भाटा भी आ जाता। मेरे सपनों का खेल पूरी तरह से तहस-नहस हो जाता।

रमा, मेरे जीवन के सब सुर ही बेसुरे बन जाते। सब कुछ तोड़-मरोड़ कर रह जाता। सब दुखमय हो जाता। मैं शायद बौना पौधा ही बना रहता।


संभालना खुद को, जैसे संभालती हो मुझे। जल्द ही आने के लिए निकलूंगा। फिक्र नहीं करना।

सब को कुशल कहना।


तुम्हारा,

भीमराव

लंदन

30 दिसंबर, 1930


साभार : मराठी पुस्तक ‘रमाई’, लेखक – प्रो. यशवंत मनोहर


#BheemRaoAmbedkar #RamabaiAmbedkar #Birthanniversary


शनिवार, 5 फ़रवरी 2022

रानी अवंतीबाई

 

अवंतीबाई

महान वीरांगना क्रांतिकारी रानी अवंतीबाई लोधी

रानी अवन्तीबाई लोधी भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली प्रथम महिला शहीद वीरांगना थीं। 1857 की क्रांति में रामगढ़ की रानी अवंतीबाई रेवांचल में मुक्ति आंदोलन की सूत्रधार थी। 1857 के मुक्ति आंदोलन में इस राज्य की अहम भूमिका थी, जिससे भारत के इतिहास में एक नई क्रांति आई।[1]

2001 के एक डाक टिकट पर अवन्तीबाई का चित्र
रानी अवन्तीबाई
(16 अगस्त 1831 - 20 मार्च 1858)
जन्मस्थल :ग्राम मनकेड़ीजिला सिवनीमध्य प्रदेश
मृत्युस्थल:देवहारगढ़मध्य प्रदेश
आन्दोलन:भारतीय स्वतंत्रता संग्राम

1817 से 1851 तक रामगढ़ राज्य के शासक लक्ष्मण सिंह थे। उनके निधन के बाद विक्रमाजीत सिंह ने राजगद्दी संभाली। उनका विवाह बाल्यावस्था में ही मनकेहणी के जमींदार राव जुझार सिंह की कन्या अवंतीबाई से हुआ। विक्रमाजीत सिंह बचपन से ही वीतरागी प्रवृत्ति के थे अत: राज्य संचालन का काम उनकी पत्नी रानी अवंतीबाई ही करती रहीं। उनके दो पुत्र हुए-अमान सिंह और शेर सिंह। अंग्रेजों ने तब तक भारत के अनेक भागों में अपने पैर जमा लिए थे जिनको उखाड़ने के लिए रानी अवंतीबाई ने क्रांति की शुरुआत की और भारत में पहली महिला क्रांतिकारी रामगढ़ की रानी अवंतीबाई ने अंग्रेजों के विरुद्ध ऐतिहासिक निर्णायक युद्ध किया जो भारत की आजादी में बहुत बड़ा योगदान है जिससे रामगढ़ की रानी अवंतीबाई उनका नाम पूरे भारत मैं अमरशहीद वीरांगना रानी अवंतीबाई के नाम से हैं।

रानी अवंतीबाई की मूर्ति, बालाघाट जिला, मध्य प्रदेश

शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2022

अंग्रेजों से पहले कैसा था भारत

 अंग्रेजों के आने से पूर्व का भारत कैसा था इसका वर्णन 18वीं सदी के प्रख्यात अमेरिकी लेखक और राजनायिक जे.टी. संडरलैंड की पुस्तक india in bondage में मिलता है।


"लगभग प्रत्येक प्रकार का निर्माण या उत्पादharat, जिसे सहले भ्य विश्व जानता है–मनुष्य के मस्तिष्क या हाथों से निर्मित किसी भी प्रकार की और विश्व के किसी भी कोने में मौजूद रचना, जो अपनी उपयोगिता अथवा सुन्दरता के कारण मूल्यवान हो, भारत में लम्बे समय से बनाई जा रही थी। यूरोप अथवा एशिया के किसी भी अन्य राष्ट्र की तुलना में भारत कहीं अधिक औद्योगिक और निर्माता राष्ट्र था। उसकी कपड़े से बनी वस्तुएँ–बढ़िया सूती, ऊनी, लिनन एवं रेशमी करघा उत्पाद–सभ्य विश्व में ख़ूब प्रसिद्ध थे। इतने ही उत्कृष्ट यहाँ के आभूषण एवं क़ीमती रत्न थे जिन्हें सुन्दर रूपों में ढाला गया था। ऐसी ही गुणवत्ता और हर तरह के रंगों और सुन्दर आकारों में ढला यहाँ का चीनी मिट्टी का सामान था। ऐसा ही बढ़िया काम धातु–लोहा, स्टील, चाँदी व सोना–में देखने को मिलता था। यहाँ की स्थापत्य कला भी महान थी, जो विश्व की किसी भी स्थापत्य कला से सुन्दरता में लोहा ले सकती थी। यहाँ इंजीनियरी का कार्य भी उच्च कोटि का था। यहाँ बड़े व्यापारी, व्यवसायी थे, महान बैंकिंग विशेषज्ञ और पूँजीपति थे। भारत केवल महानतम जलपोत निर्माता देश ही नहीं था अपितु इसका वाणिज्य एवं व्यापार थल एवं जल मार्ग से सभी विख्यात सभ्य देशों तक फैला हुआ था। जब ब्रिटिश शासकों ने भारत में प्रवेश किया तो उन्हें ऐसा ही फलता–फूलता भारत मिला था।"


#स्वराज्य_75

✍🏻मिथिलेश कुमार


लूट सके तो लूट.... 

लेखक :- प्रशांत पोळ 


भारत से संबंध आने के बाद, अंग्रेजों के शब्दकोष में हिंदी व अन्य भारतीय शब्द प्रवेश करने लगे. अब तो ‘जुगाड’, ‘दादागिरी’, ‘ सूर्य नमस्कार’, ‘अच्छा’, ‘चड्डी’ आदि शब्द भी ऑक्सफोर्ड अंग्रेजी शब्दकोष में अपना स्थान बनाए हुए हैं. किंतू इस ऑक्सफोर्ड अंग्रेजी शब्दकोष में शामिल होने वाला पहला हिंदी शब्द कौन सा था? 


वह शब्द था… ‘लूट…!’


ऐसा कहते हैं कि ईस्ट इंडिया कंपनी पर इंग्लैंड की संसद का नियंत्रण था. यदि यह सच है, तो ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत को जो जी भरकर लूटा है, उसमें इंग्लैंड की संसद अर्थात ब्रिटिश शासन भागीदार था. 


अंग्रेज कितने लुटेरे थे, ये उन्होंने भारत के एक हिस्से, बंगाल पर हुकूमत कायम करते ही साथ दिखा दिया. १७५७ में प्लासी के युद्ध में बंगाल के नवाब को परास्त करने के बाद अंग्रेजों ने कोई विवेक नहीं दिखाया, और न हीं ‘सोफेस्टिकेशन’. उन्होंने तो ठेठ लुटेरों के जैसे, बंगाल के पूरे खजाने को १०० जहाजों में भरा और गंगा में, नवाब महल से, कलकत्ता के उनके मुख्यालय, ‘फोर्ट विलियम’ में पहुंचाया. 


उन दिनों बंगाल देश का संपन्न प्रांत था. बंगाल का खजाना अत्यंत समृद्ध था. ऐसे भरे पूरे खजाने का अंग्रेजों ने क्या किया ? 


इसमें का अधिकतम हिस्सा इंग्लैंड पहुंचाया गया, और उसी पैसों के एक बडे हिस्से से, इंग्लैंड के वेल्स प्रांत में स्थित पोविस के किले का जीर्णोद्धार किया गया. इस किले का मालकाना हक, बाद में रोबर्ट क्लाईव के परिवार के पास आया.  


बंगाल की इस लूट के बाद भी, सत्ता में होने के कारण अंग्रेज, बंगाल को निचोडते रहे, और ज्यादा लूटते रहे. किंतू कुछ ही वर्षों बाद जब बंगाल का महाभयानक सूखा पडा, तब इन अंग्रेज शासकों ने क्या किया ? 


कुछ नहीं ! कुछ भी नहीं..!! 


१७६९ से १७७१ यह तीन वर्ष भयानक सूखे के रहे. लेकिन आज लोकतंत्र का दंभ भरने वाले अंग्रेजों ने क्या किया ? लूटे हुए खजाने का एक छोटा हिस्सा भी सूखाग्रस्तों को दिया ? 


उत्तर नकारात्मक है. 


इस महाभयानक सूखे में लगभग एक करोड लोगों की जानें गईं. अर्थात एक तिहाई जनसंख्या मारी गई. लेकिन कंपनी, बंगाल का सारा राजस्व इंग्लैंड भेजती रही, और बंगाल में लोग मरते रहे. क्रिस होल्टे लिखते हैं, “The East India Company was devoted to organized theft. Bengal’s wealth rapidly drained into Britain.” 


बंगाल में सूखे के कारण हुई मौतें यह प्राकृतिक आपदा नहीं थी, यह था नरसंहार ! 


मेथ्यु व्हाइट यह प्रख्यात अमेरिकन इतिहासकार हैं. वर्ष २०११ में उन्होने एक पुस्तक लिखी, जिसकी चर्चा सारे विश्व में हो रही हैं. पुस्तक हैं – The Great Big Book of Horrible Things. इस पुस्तक में उन्होने विश्व की १०० सबसे ज्यादा क्रूरतापूर्ण घटनाओं का वर्णन किया हैं. इस सूची में चौथे क्रमांक पर हैं, अंग्रेजों की हुकूमत में भारत में पडा अकाल..! इस विपदा मे, मेथ्यु व्हाइट के अनुसार २ करोड़ ६६ लाख भारतियों की मृत्यु हुई थी. इसमे द्वितीय विश्व युध्द के समय बंगाल के अकाल में मृत ३० से ५० लाख भारतीयों की गिनती नहीं हैं. अर्थात भारत में अंग्रेजी सत्ता के रहते ३ करोड़ से ज्यादा भारतीयों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था. 


नोबल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने भी वर्ष १७६९ के अकाल में मरने वालों की संख्या १ करोड़ से ऊपर बताई हैं. बंगाल उन दिनों अत्यंत उपजाऊ और समृध्द प्रदेश माना जाता था. ऐसे बंगाल में इतनी ज्यादा संख्या में लोक भूखमरी से मारे गए, यह समझ से बाहर हैं.  


अकाल यह तो प्राकृतिक आपदा थी. इसमे भला अंग्रेजी हुकूमत का क्या कसूर.? ऐसा प्रश्न सामने आना स्वाभाविक हैं. किन्तु इस संदर्भ में प्रख्यात इतिहासकार एवं तत्ववेत्ता विल ड्यूरांट लिखते हैं –

“भारत में १७६९ में आए महाभयंकर अकाल की जड़ में निर्दयता से किया गया शोषण, संसाधनों का असंतुलन और अकाल के समय में भी अत्यंत क्रूरता से वसूल किए गए महंगे कर थे. अकाल के कारण हो रही भुखमरी से तड़पते किसान कर भरने की स्थिति में नहीं थे. किन्तु ऐसे मरणासन्न किसानों से भी अंग्रेज़ अधिकारियों ने अत्यंत बर्बरतापूर्वक कर वसूली की.“


जिस भ्रष्टाचार के द्वारा अंग्रेजों ने ईस्ट इंडिया कंपनी के माध्यम से भारत में सत्ता हथियाई, उसी भ्रष्टाचार की घुन, कंपनी को बडी संख्या में लगी थी. कुछ अनुपात में तो, प्रारंभ से ही कंपनी ने अपने कर्मचारियों को व्यक्तिगत कमाने की छूट दे रखी थी. अन्यथा इतने साहसी, कठिन और अनिश्चित अभियान पर कर्मचारी मिलना, कंपनी को कठिन जा रहा था. 


राबर्ट क्लाईव ने सारे छल कपट का प्रयोग कर के बंगाल की सत्ता हथियाई थी. उसके बाद अंग्रेजों ने बंगाल को जी भर के लूटा. इस लूट का एक बडा हिस्सा रॉबर्ट क्लाईव के पास गया. वो जब ब्रिटन वापस गया, तब उसके व्यक्तिगत संपत्ती की कीमत आंकी गई थी - २,३४,००० पाउंड. तत्कालीन युरोप का वह सबसे अमीर व्यक्ति बन गया था. प्लासी की लडाई में जीतने के बाद, बंगाल के नवाब का जो खजाना, कंपनी के पास पहुंचा, उसकी कीमत आंकी गई थी, २५ लाख पाउंड.


अर्थात आज के दर से निकालें तो प्लासी की लडाई के बाद कंपनी को मिले थे २५ करोड पाउंड और रॉबर्ट क्लाईव को मिले थे २.३ करोड पाउंड !


स्टर्लिंग मीडिया के चेयरमन एवं प्रख्यात पत्रकार मेहनाज मर्चंट ने इस संदर्भ काफी खोजबीन कर के लिखा हैं, जो देश के अधिकतम बुध्दीजीवियों को स्वीकार्य हैं. मर्चंट लिखते हैं, “१७५७ से १९४७ इन १९० वर्षों में अंग्रेजों ने भारत की जो लूट की हैं, वह २०१५ के विदेशी मुद्रा विनिमय के आधार पर ३ लाख करोड़ डॉलर होती हैं. इसकी तुलना में १७३८ में नादिरशाह ने दिल्ली लूटी थी, उसकी कीमत, १४,३०० करोड़ डॉलर छोटी लगाने लगती हैं. 


१ अक्तूबर २०१९ को वॉशिंग्टन डीसी मे, ‘अटलांटिक काउंसिल’ इस विचार समूह (थिंक टैंक) के सदस्यों के सम्मुख बोलते हुए भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने कहा, “अंग्रेजों ने भारत को लगभग दो सौ वर्ष न केवल अपमानित और तिरस्कृत किया, वरन भारत को जी भर के लूटा. इस लूट की कीमत आज के दर से ४५ ट्रिलियन डॉलर होती हैं (अर्थात ४५ लाख करोड़ डॉलर या रुपयों में ३,३५,६८,९६,५०,००,००,००० रुपये).


यह लूट, पूरे भारत के एक वर्ष के कुल खर्चे से भी ज्यादा हैं. (सन २०२० – २१ के भारत सरकार के राष्ट्रीय बजट में कुल खर्चा ३४.५० ट्रिलियन डॉलर दिखाया गया हैं.)


ये अटलांटिक काउंसिल क्या हैं..?


साठ के दशक में, जब अमेरिका और रशिया के बीच शीतयुद्ध चरम पर था, तब अमेरिका ने १९६१ मे, अपने हितों की रक्षा के लिए एक विचार समूह (थिंक टैंकl) बनाया – ‘अटलांटिक काउंसिल’. मूलतः यह समूह, अमेरिका और युरोपियन देशों के बीच ज्यादा से ज्यादा सहयोग बढ़े, इसकी चिंता करने के लिए बनाया गया था. बाद में इस विचार समूह का विस्तार होता गया. आज विश्व के दस स्थानों से इस समूह का कार्य चलता हैं. 


इस विचार समूह ने, मंगलवार १ अक्तूबर २०१९ को वॉशिंग्टन डीसी में एक कार्यक्रम रखा था. इस कार्यक्रम में भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर को आमंत्रित किया गया था. इस कार्यक्रम में बोलते हुए, एस जयशंकर ने अमेरिका और नाटो के अधिकारियों को खरी – खरी सुनाई थी. 


यह ४५ ट्रिलियन डॉलर का आंकड़ा कहां से आया..?


प्रसिध्द अर्थशास्त्री श्रीमति उत्सा पटनायक ने उपनिवेश के दिनों का गहराई से अध्ययन कर के यह निष्कर्ष निकाला हैं. अमेरिका की कोलम्बिया युनिवर्सिटी ने इस शोध को प्रकाशित भी किया हैं. 


श्रीमति उत्सा पटनायक और उनके पति, प्रभात पटनायक, यह दोनों मार्क्सवादी अर्थशास्त्री के रूप में जाने जाते हैं. 


चाहे उत्सा पटनायक का शोध प्रबंध हो, या वर्ष १९०१ में दादाभाई नौरोजी द्वारा बताई गई ‘ड्रेन थियरी’ हो, इतिहासकार विल ड्यूरंट का ‘द स्टोरी ऑफ सिविलाइजेशन’ इस पुस्तक में दिया गया सिध्दांत हो, या प्रोफेसर अंगस मेडिसन ने दिये हुए आंकड़े हो.... यह सब एक ही बात की ओर इंगित करते हैं – १९० वर्षों के राज में अंग्रेजों ने भारत को जमकर लूटा. भर – भर के लूटा. ‘एन इरा ऑफ डार्कनेस’ इस पुस्तक की शुरुआत ही शशि थरूर ने ‘द लूटिंग ऑफ इंडिया’ इस अध्याय से की हैं.  


शशि थरूर ने जॉन सलिवन (John Sullivan) को इस संदर्भ में उद्धृत (quote) किया हैं. जॉन सलिवन को इतिहास, ऊटी (उटकमंड) इस पर्वतीय पर्यटक स्थल के संस्थापक के रूप में पहचानता हैं. सन १८४० में इन जॉन सलिवन महोदय महोदय ने लिख कर रखा हैं की, “छोटे राज्य समाप्त हुए. व्यापार की दुर्दशा हो गई. रियासतों की राजधानियों की रौनक चली गई. लोग गरीब होते चले गए. किन्तु अंग्रेजों की हालत एकदम सुधर गई. अंग्रेज़ एक स्पंज जैसे हो गए हैं. गंगा के पानी में डुबोना, और लंदन के थेम्स नदी में निचोड़ना..!”


बंगाल पर कब्जा करने के बाद, और पूरे देश पर कब्जा करने के बीच, अर्थात वर्ष १७६५ से १८१८ के बीच, अंग्रेजों ने प्रतिवर्ष १८ करोड़ पाउंड भारत से कमाए. अर्थात कुल ९०० करोड़ पाउंड कमाएं. उन दिनों, यूरोप के बहुत थोड़े ही अमीर – उमराव या राजे – महाराजे ऐसे थे, जो ईस्ट इंडिया कंपनी के संचालकों से भी ज्यादा धनवान थे. 


ईस्ट इंडिया कंपनी के जो अधिकारी बहुत ज्यादा धन कमाकर इंग्लैंड वापस लौटते थे, उन्हे ‘नबोब’ कहा जाता था. भारतीय ‘नवाब’ के जैसा यह शब्द गढ़ा था, एडमंड बर्क ने. कंपनी के अनेक अधिकारी, कंपनी की नौकरी करने के साथ ही निजी व्यापार भी करते थे. यह करना एक प्रकार से जायज माना जाता था. प्लासी की लड़ाई जीत कर, भारत में अङ्ग्रेज़ी शासन का प्रारंभ करने वाले  रॉबर्ट क्लाइव ने तो सारे नियम कायदे ताक पर रख कर खूब संपत्ति बटोरी और इंग्लैंड में आलीशान महल बनवाएं. पहली बार जब वह इंग्लैंड गया, तब वह २ लाख ३४ हजार पाउंड (आज के भाव से इसकी कीमत २ करोड़ ३० लाख पाउंड से भी ज्यादा होगी) लेकर गया. दूसरी बार सन १७६५ से १७६७ तक वह भारत में रहा और इंग्लैंड वापस जाते समय ४ लाख पाउंड से भी ज्यादा की संपत्ति ले कर गया. इन पैसों से उसने अपने पिता के लिए और खुद के लिए इंग्लैंड के संसद में स्थान सुनिश्चित किया. उसने खूब सारी जमीन खरीदी और उस जमीन, याने ‘काउंटी क्लेयर इस्टेट’ को ‘प्लासी’ यह नाम दिया. 


ये तो आधिकारिक रूप से इंग्लैंड में ले जाई गई संपत्ति के आंकड़े हैं. किन्तु चोरी छिपे कितने हीरे, कितना सोना, कितनी प्राचीन दुर्लभ मूर्तियां भारत के बाहर गई, इसकी कोई गिनती ही नहीं हैं. आज बड़ी संख्या में जो प्राचीन भारतीय मूर्तियां विदेशों के विभिन्न संग्रहालयों में या अनेक धनवानों के निजी संग्रह में दिखती हैं, उन में से अधिकतम, अंग्रेजी शासन के दौरान ही भारत से बाहर गई हैं. 


जो भूभाग अंग्रेजों के सीधे नियंत्रण में नहीं था, या जहां राजे – रजवाड़ों का शासन था, रियासते थी, वहां पर अंग्रेजों ने उन राजाओं से जबरदस्त ‘प्रोटेक्शन मनी’ (आज की भाषा में ‘गुंडा टैक्स’) वसूला. अगर ये प्रोटेक्शन मनी नहीं दिया, तो उस राज्य / रियासत में तैनात अंग्रेज़ फौज, उस राजा के विरोध में युध्द के लिए तैयार हो जाती थी. 


सन १८२६ में, अपने मृत्यु से कुछ दिन पहले, बिशप रेजीनाल्ड हेबर ने लिखा की, “हम (अंग्रेज़) जितना कर वसूलते हैं, उतना कोई भी भारतीय राजा नहीं वसूलता और पहले भी नहीं वसूला था”. बंगाल में शासन में आने के मात्र ३० वर्षों में जमीन का राजस्व ८,१७,५५३ पाउंड से बढ़कर २५,८०,००० पाउंड तक जा पहुंचा. इसका कारण था, ‘अत्यंत क्रूरता से और अमानुष पध्दति से वसूला गया कर..!’ इस के बदले भारतीय किसानों को या छोटे व्यवसायियों को क्या मिला.?


कुछ भी नहीं, सिवाय जुलूम ज़बरदस्ती के !


(दिल्ली के प्रभात प्रकाशन द्वारा शीघ्र प्रकाशित, ‘विनाशपर्व’ इस पुस्तक से)

-  ✍🏻 प्रशांत पोळ 

 #विनाशपर्व