रविवार, 24 अक्तूबर 2021

रानी चेनम्मा का जन्म औऱ संघर्ष



रानी चेन्नम्मा की  वीरता 💐  । 


स्वतंत्रता संग्राम के संदर्भ में दक्षिण भारत  कर्नाटक में वही स्थान कित्तूर की रानी  चेन्नम्मा ने लक्ष्मीबाई से पहले ही अंग्रेजों की सत्ता को सशस्त्र चुनौती दी थी और अंग्रेजों की सेना को उनके सामने दो बार मुंह की खानी पड़ी थी। रानी चेनम्मा के साहस एवं उनकी वीरता के कारण देश के विभिन्न हिस्सों खासकर कर्नाटक में उन्हें विशेष सम्मान हासिल है और उनका नाम आदर के साथ लिया जाता है। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के संघर्ष के पहले ही रानी चेनम्मा ने युद्ध में अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए थे। हालांकि उन्हें युद्ध में कामयाबी नहीं मिली और उन्हें कैद कर लिया गया। अंग्रेजों के कैद में ही रानी चेनम्मा का निधन हो गया।

चेन्नम्मा का अर्थ होता है सुंदर कन्या। इस सुंदर बालिका का जन्म 1778 ई. में दक्षिण के काकातीय राजवंश में हुआ था। पिता धूलप्पा और माता पद्मावती ने उसका पालन-पोषण राजकुल के पुत्रों की भांति किया। उसे संस्कृत भाषा, कन्नड़ भाषा, मराठी भाषा और उर्दू भाषा के साथ-साथ घुड़सवारी, अस्त्र शस्त्र चलाने और युद्ध-कला की भी शिक्षा दी गई।

चेन्नम्मा का विवाह कित्तूर के राजा मल्लसर्ज के साथ हुआ। कित्तूर उन दिनों मैसूर के उत्तर में एक छोटा स्वतंत्र राज्य था। परन्तु यह बड़ा संपन्न था। यहां हीरे-जवाहरात के बाजार लगा करते थे और दूर-दूर के व्यापारी आया करते थे। चेन्नम्मा ने एक पुत्र को जन्म दिया, पर उसकी जल्दी मृत्यु हो गई। कुछ दिन बाद राजा मल्लसर्ज भी चल बसे। तब उनकी बड़ी रानी रुद्रम्मा का पुत्र शिवलिंग रुद्रसर्ज गद्दी पर बैठा और चेन्नम्मा के सहयोग से राजकाज चलाने लगा। शिवलिंग के भी कोई संतान नहीं थी। इसलिए उसने अपने एक संबंधी गुरुलिंग को गोद लिया और वसीयत लिख दी कि राज्य का काम चेन्नम्मा देखेगी। शिवलिंग की भी जल्दी मृत्यु हो गई।

अंग्रेजों की नीति डाक्ट्रिन आफ लैप्स के तहत दत्तक पुत्रों को राज करने का अधिकार नहीं था। ऐसी स्थिति आने पर अंग्रेज उस राज्य को अपने साम्राज्य में मिला लेते थे। कुमार के अनुसार रानी चेनम्मा और अंग्रेजों के बीच हुए युद्ध में इस नीति की अहम भूमिका थी। 1857 के आंदोलन में भी इस नीति की प्रमुख भूमिका थी और अंग्रेजों की इस नीति सहित विभिन्न नीतियों का विरोध करते हुए कई रजवाड़ों ने स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया था। डाक्ट्रिन आफ लैप्स के अलावा रानी चेनम्मा का अंग्रेजों की कर नीति को लेकर भी विरोध था और उन्होंने उसे मुखर आवाज दी। रानी चेनम्मा पहली महिलाओं में से थीं जिन्होंने अनावश्यक हस्तक्षेप और कर संग्रह प्रणाली को लेकर अंग्रेजों का विरोध किया।

अंग्रेजों की नजर इस छोटे परन्तु संपन्न राज्य कित्तूर पर बहुत दिन से लगी थी। अवसर मिलते ही उन्होंने गोद लिए पुत्र को उत्तराधिकारी मानने से इन्कार कर दिया और वे राज्य को हड़पने की योजना बनाने लगे। रानी चेन्नम्मा ने सन् 1824 में (सन् 1857 के भारत के स्वतंत्रता के प्रथम संग्राम से भी 33 वर्ष पूर्व) उन्होने हड़प नीति (डॉक्ट्रिन आफ लेप्स) के विरुद्ध अंग्रेजों से सशस्त्र संघर्ष किया था।

आधा राज्य देने का लालच देकर उन्होंने राज्य के कुछ देशद्रोहियों को भी अपनी ओर मिला लिया। पर रानी चेन्नम्मा ने स्पष्ट उत्तर दिया कि उत्तराधिकारी का मामला हमारा अपना मामला है, अंग्रेजों का इससे कोई लेना-देना नहीं। साथ ही उसने अपनी जनता से कहा कि जब तक तुम्हारी रानी की नसों में रक्त की एक भी बूंद है, कित्तूर को कोई नहीं ले सकता। रानी का उत्तर पाकर धारवाड़ के कलेक्टर थैकरे ने 500 सिपाहियों के साथ कित्तूर का किला घेर लिया। 23 सितंबर, 1824 का दिन था। किले के फाटक बंद थे। थैकरे ने बस कुछ मिनट के अंदर आत्मसमर्पण करने की चेतावनी दी। इतने में अकस्मात किले के फाटक खुले और दो हजार देशभक्तों की अपनी सेना के साथ रानी चेन्नम्मा मर्दाने वेश में अंग्रेजों की सेना पर टूट पड़ी। थैकरे भाग गया। दो देशद्रोही को रानी चेन्नम्मा ने तलवार के घाट उतार दिया। अंग्रेजों ने मद्रास और मुंबई से कुमुक मंगा कर 3 दिसंबर, 1824 को फिर कित्तूर का किला घेर डाला। परन्तु उन्हें कित्तूर के देशभक्तों के सामने फिर पीछे हटना पड़ा। दो दिन बाद वे फिर शक्तिसंचय करके आ धमके। छोटे से राज्य के लोग काफी बलिदान कर चुके थे। चेन्नम्मा के नेतृत्व में उन्होंने विदेशियों का फिर सामना किया, पर इस बार वे टिक नहीं सके। रानी चेन्नम्मा को अंग्रेजों ने बंदी बनाकर जेल में डाल दिया। उनके अनेक सहयोगियों को फांसी दे दी। कित्तूर की मनमानी लूट हुई। 02 फरवरी 1829 ई. को जेल के अंदर ही इस वीरांगना रानी चेन्नम्मा का देहांत हो गया।

भले ही रानी चिन्नम्मा अंग्रेजों को परास्त ना कर पायी हो लेकिन मातृभूमि के प्रति अपने प्रेम और अपनी वीरता के कारण अंग्रेज उनके विश्वास को अडिग नहीं कर पाए। स्त्री के साहस की मिसाल रानी चिन्नम्मा भले ही इतिहास के पन्नों में समा गई हों लेकिन उनका जीवन और साहस उन्हें उन विजित राजाओं से कहीं ऊपर रखता है जो आत्मसम्मान और गुलामी की कीमत पर अपनी साख और राज्य को बचाकर रखते हैं। ✍️ 🚩

✍🏻करंजे के यस


झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, रानी चेनम्मा, रानी अब्बक्का जैसी अंग्रेजों की गुलामी से ठीक पहले की रानियों का जिक्र होते ही एक सवाल दिमाग में आता है | युद्ध तलवारों से, तीरों से, भाले – फरसे जैसे हथियारों से लड़ा जाता था उस ज़माने में तो ! इनमे से कोई भी 5-7 किलो से कम वजन का नहीं होता | इतने भारी हथियारों के साथ दिन भर लड़ने के लिए stamina भी चाहिए और training भी |


रानी के साथ साथ उनकी सहेलियों, बेटियों, भतीजियों, दासियों के भी युद्ध में भाग लेने का जिक्र आता है | इन सब ने ये हथियार चलाने सीखे कैसे ? घुड़सवारी भी कोई महीने भर में सीख लेने की चीज़ नहीं है | उसमे भी दो चार साल की practice चाहिए | ढेर सारी खुली जगह भी चाहिए इन सब की training के लिए | Battle formation या व्यूह भी पता होना चाहिए युद्ध लड़ने के लिए, पहाड़ी और समतल, नदी और मैदानों में लड़ने के तरीके भी अलग अलग होते हैं | उन्हें सिखाने के लिए तो कागज़ कलम से सिखाना पड़ता है या बरसों युद्ध में भाग ले कर ही सीखा जा सकता है |


अभी का इतिहास हमें बताता है की पुराने ज़माने में लड़कियों को शिक्षा तो दी ही नहीं जाती थी | उनके गुरुकुल भी नहीं होते थे ! फिर ये सारी महिलाएं युद्ध लड़ना सीख कैसे गईं ? ब्राम्हणों के मन्त्र – बल से हुआ था या कोई और तरीका था सिखाने का ?


लड़कियों की शिक्षा तो नहीं होती थी न ? लड़कियों के गुरुकुल भी नहीं ही होते थे ?


आम तौर पर आपको दल हित चिन्तक और एक आयातित विचारधारा के प्रवर्तक ये बताएँगे कि भारत में स्त्री शिक्षा का कोई प्रावधान नहीं था | लड़कियों को कहने के लिए तो दुर्गा-काली कहा जाता था लेकिन उन्हें हथियार चलाना नहीं सिखाया जाता था | अगर आप रानी लक्ष्मीबाई का उदाहरण देंगे तो वो कहेंगे वो तो रानी थी | जब आप बताएँगे कि उन्होंने कुछ ही दिनों में 5000 स्त्री सैनिक कैसे जमा कर लिए थे तो वो कोई और कुतर्क गढ़ेंगे |


ऐसा करते समय वो एक बुरी सी चीज़ भूल जाते हैं | भारत श्रुति की परम्पराओं से चलता है | अब किताबें लिखने के बदले अगर लोगों ने उसे पूरा का पूरा याद ही कर रखा हो तो उसे मिटाना संभव नहीं होता | हर याद कर चुके व्यक्ति की हत्या कर डालेंगे तभी वो पूरी तरह ख़त्म होगा | एक भी अगर बचा रह गया तो वो किसी ना किसी को सिखा देने में कामयाब हो जायेगा | गुरुकुलों और अखाड़ों की परम्पराओं को तोड़ने के लिए हर घृणित षडयंत्र रचने के वाबजूद गोर साहब और उनके ये भूरे गुलाम नाकाम ही रहे |


इन तथाकथित दल हित चिंतकों और आयातित विचारधारा वाले प्रख्यात कहे जाने वाले नारीवादियों ने बड़े प्यार से जिनका नाम मनु-स्मृति इरानी रखा है उन्होंने कुछ दिन पहले एक फोटो लगाने का अभियान और चला दिया | उन्होंने हस्तशिल्प और हथकरघा को बढ़ावा देने के लिए हथकरघा से निर्मित साड़ी में अपनी तस्वीर डाल दी | सोशल मीडिया पर ये एक मुहीम की तरह जब शुरू हुआ तो कई महिलाओं ने इसमें शिरकत की | इसी कड़ी में चेन्नई के लॉयला कॉलेज की एक शिक्षिका ऐश्वर्या मानिवान्नन ने तस्वीर के बदले अपना विडियो डाला | वो सिलम्वम नाम से जाने जाने वाली लाठी चलाने की कला में भी अभ्यस्त हैं | उनका विडियो वायरल हो चला है |


याद दिलाते चलें, कि इस दौर में भारत में रानी चेनम्मा, k के विरुद्ध लड़ रही थी | इसी दौर में रानी अबक्का पुर्तगालियों के खिलाफ लड़ रही थी | इसके बाद रानी लक्ष्मीबाई की पांच हज़ार महिलाओं की सैन्य टुकड़ी थी | बाकी तथाकथित नारीवादियों के हिसाब से हिन्दुओं में नारी को पैर की जूती और पश्चिम में आजादी की अवधारणा भी समझिये | काहे कि परसेप्शन (perception) और रियलिटी (reality) का फर्क तो हैएये है |

ये सारे पन्ने हमारी किताबों से गायब हो गए हैं | शुक्र है की रानी चेनम्मा और रानी लक्ष्मीबाई ज्यादा पुराने समय की नहीं हैं | लोक कथाओं ने इन्हें भारत के कल्पित इतिहास में विलुप्त होने से बचा लिया |

✍🏻आनन्द कुमार

मंगलवार, 19 अक्तूबर 2021

शरद पूर्णिमा🌕 20 अक्टूबर 221

 🛑

*🌕इस बर्ष यह 20.10.2021 को है।


प्रस्तुति - दिलीप कुमार सिन्हा 



🌏     वर्ष के बारह महीनों में ये पूर्णिमा ऐसी है, जो तन, मन और धन तीनों के लिए सर्वश्रेष्ठ होती है। इस पूर्णिमा को चंद्रमा की किरणों से अमृत की वर्षा होती है, तो धन की देवी महालक्ष्मी रात को ये देखने के लिए निकलती हैं कि कौन जाग रहा है और वह अपने कर्मनिष्ठ भक्तों को धन-धान्य से भरपूर करती हैं।


🌏    शरद पूर्णिमा का एक नाम *कोजागरी पूर्णिमा* भी है यानी लक्ष्मी जी पूछती हैं- कौन जाग रहा है? अश्विनी महीने की पूर्णिमा को चंद्रमा अश्विनी नक्षत्र में होता है इसलिए इस महीने का नाम अश्विनी पड़ा है। 


🌓      एक महीने में चंद्रमा जिन 27 नक्षत्रों में भ्रमण करता है, उनमें ये सबसे पहला है और आश्विन नक्षत्र की पूर्णिमा आरोग्य देती है। 


🌎    केवल शरद पूर्णिमा को ही चंद्रमा अपनी सोलह कलाओं से संपूर्ण होता है और पृथ्वी के सबसे ज्यादा निकट भी। चंद्रमा की किरणों से इस पूर्णिमा को अमृत बरसता है।


🌏    आयुर्वेदाचार्य वर्ष भर इस पूर्णिमा की प्रतीक्षा करते हैं। जीवनदायिनी रोगनाशक जड़ी-बूटियों को वह शरद पूर्णिमा की चांदनी में रखते हैं। अमृत से नहाई इन जड़ी-बूटियों से जब दवा बनायी जाती है तो वह रोगी के ऊपर तुंरत असर करती है।


🌓   चंद्रमा को वेदं-पुराणों में मन के समान माना गया है- *चंद्रमा मनसो जात:।* वायु पुराण में चंद्रमा को जल का कारक बताया गया है। प्राचीन ग्रंथों में चंद्रमा को औषधीश यानी औषधियों का स्वामी कहा गया है। 


🌏   ब्रह्मपुराण के अनुसार- सोम या चंद्रमा से जो सुधामय तेज पृथ्वी पर गिरता है उसी से औषधियों की उत्पत्ति हुई और जब औषधी 16 कला संपूर्ण हो तो अनुमान लगाइए उस दिन औषधियों को कितना बल मिलेगा।


🌏   शरद पूर्णिमा की शीतल चांदनी में रखी खीर खाने से शरीर के सभी रोग दूर होते हैं। ज्येष्ठ, आषाढ़, सावन और भाद्रपद मास में शरीर में पित्त का जो संचय हो जाता है, शरद पूर्णिमा की शीतल धवल चांदनी में रखी खीर खाने से पित्त बाहर निकलता है। 


🌓    लेकिन इस खीर को एक विशेष विधि से बनाया जाता है। पूरी रात चांद की चांदनी में रखने के बाद सुबह खाली पेट यह खीर खाने से सभी रोग दूर होते हैं, शरीर निरोगी होता है।


🌏   शरद पूर्णिमा को रास पूर्णिमा भी कहते हैं। स्वयं सोलह कला संपूर्ण भगवान श्रीकृष्ण से भी जुड़ी है यह पूर्णिमा। इस रात को अपनी राधा रानी और अन्य सखियों के साथ श्रीकृष्ण महारास रचाते हैं। 


🌏   कहते हैं जब वृन्दावन में भगवान कृष्ण महारास रचा रहे थे तो चंद्रमा आसमान से सब देख रहा था और वह इतना भाव-विभोर हुआ कि उसने अपनी शीतलता के साथ पृथ्वी पर अमृत की वर्षा आरंभ कर दी।


🌓  गुजरात में शरद पूर्णिमा को लोग रास रचाते हैं और गरबा खेलते हैं। मणिपुर में भी श्रीकृष्ण भक्त रास रचाते हैं। पश्चिम बंगाल और ओडिशा में शरद पूर्णिमा की रात को महालक्ष्मी की विधि-विधान के साथ पूजा की जाती है। मान्यता है कि इस पूर्णिमा को जो महालक्ष्मी का पूजन करते हैं और रात भर जागते हैं, उनकी सभी कामनाओं की पूर्ति होती है।


🌏   ओडिशा में शरद पूर्णिमा को कुमार पूर्णिमा के नाम से मनाया जाता है। आदिदेव महादेव और देवी पार्वती के पुत्र कार्तिकेय का जन्म इसी पूर्णिमा को हुआ था। गौर वर्ण, आकर्षक, सुंदर कार्तिकेय की पूजा कुंवारी लड़कियां उनके जैसा पति पाने के लिए करती हैं। 


🌏   शरद पूर्णिमा ऐसे महीने में आती है, जब वर्षा ऋतु अंतिम समय पर होती है। शरद ऋतु अपने बाल्यकाल में होती है और हेमंत ऋतु आरंभ हो चुकी होती है और इसी पूर्णिमा से कार्तिक स्नान प्रारंभ हो जाता है।

रविवार, 17 अक्तूबर 2021

दशहरा / दुर्गापूजा / अरुण उपाध्याय



‘दशहरा’ एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है “दस को हरने वाली [तिथि]”। “दश हरति इति दशहरा”। ‘दश’ कर्म उपपद होने पर ‘हृञ् हरणे’ धातु से “हरतेरनुद्यमनेऽच्” (३.२.९) सूत्र से ‘अच्’ प्रत्यय होकर ‘दश + हृ + अच्’ हुआ, अनुबन्धलोप होकर ‘दश + हृ + अ’, “सार्वधातुकार्धधातुकयोः” (७.३.८४) से गुण और ‘उरण् रपरः’ (१.१.५१) से रपरत्व होकर ‘दश + हर् + अ’ से ‘दशहर’ शब्द बना और स्त्रीत्व की विवक्षा में ‘अजाद्यतष्टाप्‌’ से ‘टाप्’ (आ) प्रत्यय होकर ‘दशहर + आ’ = ‘दशहरा’ शब्द बना। 


संस्कृत में यह शब्द गङ्गादशहरा के लिये और हिन्दी और अन्य भाषाओं में विजयादशमी के लिये प्रयुक्त होता है। दोनों उत्सव दशमी तिथि पर मनाए जाते हैं। 


‘स्कन्द पुराण’ की ‘गङ्गास्तुति’ के. अनुसार ‘दशहरा’ का अर्थ है “दस पापों का हरण करने वाली”। पुराण के अनुसार ये दस पाप हैं  

१) “अदत्तानामुपादानम्” अर्थात् जो वस्तु न दी गयी हो उसे अपने लिये ले लेना

२) “हिंसा चैवाविधानतः” अर्थात् ऐसी अनुचित हिंसा करना जिसका विधान न हो

३) “परदारोपसेवा च” अर्थात् परस्त्रीगमन (उपलक्षण से परपुरुषगमन भी)

ये तीन “कायिकं त्रिविधं स्मृतम्” अर्थात् तीन शरीर-संबन्धी पाप हैं।


४) “पारुष्यम्” अर्थात् कठोर शब्द या दुर्वचन कहना

५) “अनृतम् चैव” अर्थात् असत्य कहना

६) “पैशुन्यं चापि सर्वशः” अर्थात् सब-ओर कान भरना (किसी की चुगली करना)

७) “असम्बद्धप्रलापश्च” अर्थात् ऐसा प्रलाप करना (बहुत बोलना) जिसका विषय से कोई संबन्ध न हो

ये चार “वाङ्मयं स्याच्चतुर्विधम्” अर्थात् चार वाणी-संबन्धी पाप हैं।


८) “परद्रव्येष्वभिध्यानम्” अर्थात् दूसरे के धन का [उसे पाने की इच्छा से] एकटक चिन्तन करना 

९) “मनसानिष्टचिन्तनम्” अर्थात् मन के द्वारा किसी के अनिष्ट का चिन्तन करना

१०) “वितथाभिनिवेशश्च” अर्थात् असत्य का निश्चय करना, झूठ में मन को लगाए रखना

ये तीन “मानसं त्रिविधं स्मृतम्” अर्थात् तीन मन-संबन्धी पाप हैं। 


जो तिथि इन दस पापों का हरण करती है वह ‘दशहरा’ है। यद्वा ‘दश रावणशिरांसि रामबाणैः हारयति इति दशहरा’ जो तिथि रावण के दस सिरों का श्रीराम के बाणों द्वारा हरण कराती है वह दशहरा है। रावण के दस सिरों को पूर्वोक्त दस शरीर, वाणी, और मन संबन्धी पापों का प्रतीक भी समझा जा सकता है।


अस्तु, आपको दशहरा की हार्दिक शुभकामनाएँ।

✍🏻नित्यानंद मिश्रा


विजया-दशमी- (क) शक्ति के १० रूप-यह शक्ति की पूजा है। विश्व का मूल स्रोत एक ही है पर वह निर्माण के लिये २ रूपों में बंट जाता है, चेतन तत्त्व पुरुष है, पदार्थ रूप श्री या शक्ति है। शक्ति माता है अतः पदार्थ को मातृ (matter) कहते हैं। सभी राष्ट्रीय पर्वों की तरह यह पूरे समाज के लिये है पर क्षत्रियों के लिये मुख्य है, जो समाज का क्षत से त्राण करते हैं-

क्षतात् किल त्रायत इत्युदग्रः शब्दस्य अर्थः भुवनेषु रूढः। (रघुवंश, २/५३) 

वेद में १० आयाम के विश्व का वर्णन है अतः दश, दशा, दिशा-ये समान शब्द हैं। १० आयाम कई प्रकार से हैं-

(१) ५ तन्मात्रा = भौतिक विज्ञान में माप की ५ मूल इकाइयां। इनके सीमित और अनन्त रूप ५-५ प्रकार के हैं। 

(२) आकाश के ३ आयाम, पदार्थ, काल, चेतना या चिति, ऋषि (रस्सी-दो पदार्थों में सम्बन्ध), वृत्र या नाग (गोल आवरण), रन्ध्र (घनत्व में कमी-बेशी, आनन्द या रस। 

(३) ३ गुणों (सत्व, रज, तम) के १० प्रकार के समन्वय-क, ख, ग,कख, खक, कग, गक, खग, गख, कखग। 

(ख) महाविद्या-१० आयाम की तरह १० महा-विद्या हैं, जो ५ जोड़े हैं-

(१) काली-काला रंग, तारा-श्वेत।

(२) त्रिपुरा के २ रूप-सुन्दरी, भैरवी (शान्त, उग्र)।

(३) कमला-विष्णु-पत्नी, स्थायी सम्पत्ति, युवती, सुन्दर, रोहिणी नक्षत्र, इन्द्र-लक्ष्मी-कुबेर

धूमावती-विधवा, चञ्चल-दुष्ट, वृद्धा, कुरूप, ज्येष्ठा नक्षत्र, वरुण-अलक्ष्मी-यम।

(४) भुवनेश्वरी भुवन का निर्माण करती है, छिन्नमस्ता काटती है।

(५) मातङ्गी वाणी को निकालती है, बगलामुखी (वल्गा = लगाम) रोकती है।

१० महाविद्या के आयाम हैं-

(१) तारा-शून्य विन्दु, इसकी दिशा रेखा रूप में प्रथम आयाम।

(२) भैरवी-उग्र रूप-सतह रूप में दूसरा आयाम।

(३) त्रिपुरा-३ आयाम।

(४) भुवनेश्वरी-भुवन का निर्माण-४ मुख के ब्रह्मा की तरह।

(५) काली-काल रूप में ५वां आयाम। परिवर्तन का आभास काल है।

(६) कमला-विष्णु चेतना रूप में ६ठा आयाम, उनकी पत्नी।

(७) बगलामुखी-वल्गा, रस्सी, एक रोकता है, दूसरा जोड़ता है।

(८) मातङ्गी=हाथी, वृत्र घेरकर कता है, हाथी को रोकना (वारण) कठिन है।

(९) छिन्नमस्ता-काटना रन्ध्र बनाता है।

(१०) धूमावती-१०वां आयाम अस्पष्ट है, धूम जैसा।

विश्व के रचना स्तरों के अनुसार इनके रूप हैं-

(१) काली-पूर्ण विश्व, जिसमें १ खर्व ब्रह्माण्ड तैर रहे हैं।

(२) तारा-ब्रह्माण्ड के तारा।

(३) त्रिपुरा (षोड़शी)-सूर्य के तेज से यज्ञ हो रहा है, यह १६ कला का पुरुष है, क्रिया षोड़शी है।

(४) भुवनेश्वरी-क्रन्दसी (ब्रह्माण्ड) तथा रोदसी (सौर मण्डल) के बीच में सूर्य।

(५) छिन्नमस्ता-सूर्य से निकला तेज।

(६) भैरवी-निर्माण में लगी शक्ति।

(७) धूमावती-बिखरी शक्ति जिसका प्रयोग नहीं हुआ।

(८) बगलामुखी-पृथ्वी द्वारा रोकी या शोषित शक्ति।

(९) मातङ्गी-सूर्य के विपरीत दिशा में पृथ्वी का रात्रि भाग।

(१०) कमला-पृथ्वी पर की सृष्टि।

आध्यात्मिक रूप-शरीर के चक्रों में इनका स्थान है-

(१) काली-यह मूलाधार में सोयी हुई कुण्डलिनी शक्ति है।

(२) तारा-स्वाधिष्ठान चक्र का समुद्र और चन्द्रमा है। पश्यन्ती वाक् के रूप में यह तारा है। इसका देवता राकिनी है जो तारक मन्त्र रं (राम) है।

(३) त्रिपुर सुन्दरी-यह सहस्रार में १६ कला के चन्द्र जैसा विहार करती है। वहां सुधा-सिन्धु है (भौतिक रूप में मस्तिष्क का द्रव)।

(४) भुवनेश्वरी-बीज मन्त्र ह्रीं है जिसका अर्थ हृदय है। यह हृदय के अनाहत चक्र के नीचे चिन्तामणि पीठ पर विराजमान है, इसके सभी रूप भुवनेश्वर में हैं, अतः इस नगर का यह नाम है-

सुधा-सिन्धोर्मध्ये सुर-विटप-वाटी परिवृते, मणिद्वीपे नीपो-पवन-वति चिन्तामणि गृहे।

शिवाकारे मञ्चे परम शिव पर्यङ्क निलयां, भजन्ति त्वां धन्याः कतिचन चिदानन्द लहरीम्॥ (सौन्दर्य लहरी, ८)

सुधा-सिन्धु = बिन्दुसागर। मणिद्वीप-उसके निकट लिङ्गराज। नीप (वट वृक्ष) का उपवन-मूल = बरगढ़, तना -यज्ञाम्र = जगामरा, मुण्ड = बरमुण्डा, द्रुम से द्रुम = दुमदुमा। चिन्तामणि गृह = चिन्तामणीश्वर। शिव रूपी मञ्च = मञ्चेश्वर। परमशिव = लिङ्गराज।

(५) त्रिपुरा भैरवी-मूलाधार में कुण्डलिनी का जाग्रत रूप।

(६) छिन्नमस्ता-आज्ञा चक्र में ३ नाड़ियों का मिलन-इड़ा, पिङ्गला, सुषुम्ना।

(७) धूमावती-मूलाधार के धूम्र रूप स्वयम्भू लिङ्ग को घेरे हुये।

(८) बगलामुखी-कण्ठ में वाणी तथा प्राण का नियन्त्रण-जालन्धर बन्ध द्वारा।

(९) मातङ्गी-यह कण्ठ के ऊपरी भाग में है, जहां से वाणी निकलती है।

(१०) कमला-यह नाभि का मणिपूर चक्र है जिसे मणि-पद्म कहते हैं।

(ग) नवरात्रि- नवम आयाम रन्ध्र या कमी है जिसके कारण नयी सृष्टि होती है, अतः नव का अर्थ नया, ९-दोनों है-नवो नवो भवति जायमानो ऽह्ना केतुरूपं मामेत्यग्रम्। (ऋक् १०/८५/१९)

सृष्टि का स्रोत अव्यक्त है, उसे मिलाकर सृष्टि के १० स्तर हैं , जिनक् दश-होता, दशाह, दश-रात्रि आदि कहा गया है- 

यज्ञो वै दश होता। (तैत्तिरीय ब्राह्मण २/२/१/६) 

विराट् वा एषा समृद्धा, यद् दशाहानि। (ताण्ड्य महाब्राह्मण ४/८/६) 

विराट् वै यज्ञः। ...दशाक्षरा वै विराट् । (शतपथ ब्राह्मण १/१/१/२२, २/३/१/१८, ४/४/५/१९)

विराट् एक छन्द है जिसके प्रति पाद में १० अक्षर हैं। पुरुष (मनुष्य या विश्व) का कर्त्ता रूप भी अक्षर है, जो १० प्रकार से कार्य करता है-

अन्तो वा एष यज्ञस्य यद् दशममहः। (तैत्तिरीय ब्राह्मण २/२/६/१)

अथ यद् दशरात्रमुपयन्ति। विश्वानेव देवान्देवतां यजन्ते। (शतपथ ब्राह्मण १२/१/३/१७ )

प्राणा वै दशवीराः। (यजु १९/४८, शतपथ ब्राह्मण १२/८/१/२२)

वर्ष के ३६० दिनों में ४० नवरात्र होंगे। अतः यज्ञ के वेद यजुर्वेद में ४० अध्याय हैं, तथा ४० ग्रह हैं (ग्रह = जो ग्रहण करे)-

यद् गृह्णाति तस्माद् ग्रहः। (शतपथ ब्राह्मण १०/१/१/५)

षट् त्रिंशाश्च चतुरः कल्पयन्तश्छन्दांसि च दधत आद्वादशम्। 

यज्ञं विमाय कवयो मनीष ऋक् सामाभ्यां प्र रथं वर्त्तयन्ति। (ऋक् १०/११४/६)

४० नवरात्रके लिये महाभारत में युद्ध के बाद ४० दिन का शोक बनाया गया था, जो आज भी इस्लाम में चल रहा है। आजकल वर्ष में चन्द्रमा की १३ परिक्रमा के लिये १३ दिन का शोक मनाते हैं। ४० नवरात्रों में ४ मुख्य हैं-

(१) दैव नवरात्र-उत्तरायण के आरम्भ में जो प्रायः २२ दिसम्बर को होता है। भीष्म ने इसी दिन देह त्याग किया था। वे ५८ दिन शर-शय्या पर थे-युद्ध के ८ दिन बाकी थे, ४० दिन का शोक, ५ दिन राज्याभिषेक, ५ दिन उपदेश।

(२) पितर नवरात्र-दक्षिणायन आरम्भ-प्रायः २३ जून को। 

(३) वासन्तिक नवरात्र-उत्तरायण में जब सूर्य विषुव रेखा पर हो।

(४) शारदीय नवरात्र-दक्षिणायन मार्ग में जब सूर्य विषुव रेखा पर हो।-ये दोनों मानुष नवरात्र हैं।

सभी नवरात्र इन समयों के चान्द्र मास के शुक्ल पक्ष में होते हैं-पौष, आषाढ़, चैत्र, आश्विन। आश्विन मास का नवरात्र सबसे अच्छा मानते हैं क्योंकि यह देवों की अर्द्ध-रात्रि है। रात्रि की शान्ति में ही सृष्टि होती है। मनुष्य का भी भोजन और कर्म दिन में होता है, पर शरीर का विकास रात्रि में सोते समय ही होता है।

शरत् काले महापूजा क्रियते या च वार्षिकी। (दुर्गा सप्तशती १२/१२)

आश्विन शुक्ल प्रतिपदा (१ तिथि) के एक दिन पहले आश्विन अमावास्या को महालया होता है, जो विश्व के अव्यक्त स्वरूप का प्रतीक है और इस दिन पितरों की पूजा होती है। उसके बाद नवरात्रि के ९ दिन सृष्टि के ९ सर्गों के प्रतीक हैं। ७वें दिन चन्द्रमा मूल नक्षत्र में रहता है, जो ब्रह्माण्ड (galaxy) का केन्द्र है और इस दिन महाकाली की पूजा होती है। अगले नक्षत्र आषाढ़ के २ भाग हैं-पूर्व, उत्तर। इन दिनों महा-लक्ष्मी, महा-सरस्वती की पूजा होती है।

दुर्गा पूजा में दुर्गा-सप्तशती का पाठ होता है, जो मार्कण्डेय पुराण का अंश है।

(घ) २ दुर्बलता-राजा सुरथ ने मन्त्री-शत्रु के राजनीतिक षड्यन्त्र से राज्य खोया। समाधि वैश्य ने परिवार के षड्यन्त्र से सम्पत्ति खोयी।

अमात्यैर्बलिभिर्दुष्टैर्दुर्बलस्य दुरात्मभिः। कोशो बलं चापहृतं तत्रापि स्वपुरे ततः॥८॥

पुत्रदारैर्निरस्तश्च धनलोभादसाधुभिः। विहीनश्च धनैर्दारैः पुत्रैरादाय मे धनम्॥२२॥ (दुर्गा सप्तशती, १)

इन समस्याओं के साथ वे सुमेधा ऋषि के पास गये, जिन्होंने मिथिला के धनुष यज्ञ के बाद महेन्द्र पर्वत पर परषुराम को भी दीक्षा दी थी। उनका उपदेश ३ विशाल खण्डों में त्रिपुरा-रहस्य है। सुमेधा ऋषि को ही बौद्ध ग्रन्थों में सुमेधा बुद्ध कहा गया है, जिनका स्थान ओड़िशा में बौध जिला है। १० महाविद्या को बौद्ध १० प्रज्ञा-पारमिता कहते हैं। 

अपनी दुर्बलता दूर करने के लिये आन्तरिक तथा बाहरी शत्रुओं से युद्ध करना पड़ता है जिसके लिये समाज में एकता होनी चाहिये। विश्व तथा एकत्व की प्रतीक दुर्गा हैं। देवी तथा उनके आयुधों का निर्माण ही देवों की सम्मिलित शक्ति से हुआ। युद्ध में शुम्भ ने जब आक्षेप कियाकि तुम दूसरों के सहारे क्यों लड़ रही हो तो देवी ने कहा कि उनके अतिरिक्त और कोई नहीं है तथा सभी शक्तियां पुनः उनके शरीर में ही समा गयीं।

अन्येषां चैव देवानां शक्रादीनां शरीरतः। निर्गतं सुमहत्तेजस्तच्चैक्यं समगच्छत॥११॥

अतीव तेजसः कूटं ज्वलन्तमिव पर्वतम्। ददृशुस्ते सुरास्तत्र ज्वालाव्याप्त दिगन्तरम्॥१२॥

अतुलं तत्र तत्तेजः सर्वदेवशरीरजम्। एकस्थं तदभून्नारी व्याप्तलोकत्रयं त्विषा॥१३॥ (सप्तशती, अध्याय २)

बलावलेपाद्दुष्टे त्वं मा दुर्गे गर्वमावह्। अन्यासां बलमाश्रित्य युद्ध्यसे यातिमानिनी॥३॥ देव्युवाच॥४॥

एकैवाहं जगत्यत्र द्वितीया का ममापरा। पश्यैता दुष्ट मय्येव विशन्त्यो मद्विभूतयः॥५॥ (अध्याय १०)

✍🏻अरुण उपाध्याय

बुधवार, 13 अक्तूबर 2021

प्रतिहार क्षत्रिय राजवंश का इतिहास

 वीर प्रतिहार राजवंश



प्रतिहार क्षत्रिय (राजपूत) एक ऐसा वंश है जिसकी उत्पत्ति पर कई इतिहासकारों ने शोध किए जिनमे से कुछ अंग्रेज भी थे और वे अपनी सीमित मानसिक क्षमताओं तथा भारतीय समाज के ढांचे को न समझने के कारण इस वंश की उतपत्ति पर कई तरह के विरोधाभास उतपन्न कर गए। प्रतिहार एक शुद्ध क्षत्रिय वंश है जिसने गुर्जरादेश से गुज्जरों को खदेड़ कर गुर्जरदेश के स्वामी बने। इन्हे बेवजह ही गूजर जाति से जोड दिया जाता रहा है। जबकि प्रतिहारों ने अपने को कभी भी गुजर जाति का नही लिखा है। बल्कि नागभट्ट प्रथम के सेनापति गल्लक के शिलालेख जिसकी खोज डा. शांता रानी शर्मा जी ने की थी जिसका संपूर्ण विवरण उन्होंने अपनी पुस्तक " Society and culture Rajasthan c. AD. 700 - 900 पर किया है। इस शिलालेख मे नागभट्ट प्रथम के द्वारा गुर्जरों की बस्ती को उखाड फेकने एवं प्रतिहारों के गुर्जरों को बिल्कुल भी नापसंद करने की जानकारी दी गई है।

मनुस्मृति में प्रतिहार,परिहार, पडिहार तीनों शब्दों का प्रयोग हुआ हैं। परिहार एक तरह से क्षत्रिय शब्द का पर्यायवाची है। क्षत्रिय वंश की इस शाखा के मूल पुरूष भगवान राम के भाई लक्ष्मण जी हैं। लक्ष्मण का उपनाम, प्रतिहार, होने के कारण उनके वंशज प्रतिहार, कालांतर में परिहार कहलाएं। ये सूर्यवंशी कुल के क्षत्रिय हैं। हरकेलि नाटक, ललित विग्रह नाटक, हम्मीर महाकाव्य पर्व, कक्कुक प्रतिहार का अभिलेख, बाउक प्रतिहार का अभिलेख, नागभट्ट प्रशस्ति, वत्सराज प्रतिहार का शिलालेख, मिहिरभोज की ग्वालियर प्रशस्ति आदि कई महत्वपूर्ण शिलालेखों एवं ग्रंथों में परिहार वंश को सूर्यवंशी एवं साफ - साफ लक्ष्मण जी का वंशज बताया गया है।


लक्ष्मण के पुत्र अंगद जो कि कारापथ (राजस्थान एवं पंजाब) के शासक थे,उन्ही के वंशज प्रतिहार है। इस वंश की 126 वीं पीढ़ी में राजा हरिश्चन्द्र प्रतिहार (लगभग 590 ईस्वीं) का उल्लेख मिलता है। इनकी दूसरी पत्नी भद्रा से चार पुत्र थे।जिन्होंने कुछ धनसंचय और एक सेना का संगठन कर अपने पूर्वजों का राज्य माडव्यपुर को जीत लिया और मंडोर राज्य का निर्माण किया, जिसका राजा रज्जिल प्रतिहार बना। इसी का पौत्र नागभट्ट प्रतिहार था, जो अदम्य साहसी,महात्वाकांक्षी और असाधारण योद्धा था।


इस वंश में आगे चलकर कक्कुक राजा हुआ, जिसका राज्य पश्चिम भारत में सबल रूप से उभरकर सामने आया। पर इस वंश में प्रथम उल्लेखनीय राजा नागभट्ट प्रथम है, जिसका राज्यकाल 730 से 760 माना जाता है। उसने जालौर को अपनी राजधानी बनाकर एक शक्तिशाली परिहार राज्य की नींव डाली। इसी समय अरबों ने सिंध प्रांत जीत लिया और मालवा और गुर्जरात्रा राज्यों पर आक्रमण कर दिया। नागभट्ट ने इन्हे सिर्फ रोका ही नहीं, इनके हाथ से सैंनधन,सुराष्ट्र, उज्जैन, मालवा भड़ौच आदि राज्यों को मुक्त करा लिया। 750 में अरबों ने पुनः संगठित होकर भारत पर हमला किया और भारत की पश्चिमी सीमा पर त्राहि-त्राहि मचा दी। लेकिन नागभट्ट कुद्ध्र होकर गया और तीन हजार से ऊपर डाकुओं को मौत के घाट उतार दिया जिससे देश ने राहत की सांस ली। भारत मे अरब शक्ति को रौंदकर समाप्त करने का श्रेय अगर किसी क्षत्रिय वंश को जाता है वह केवल परिहार ही है जिन्होने अरबों से 300 वर्ष तक युद्ध किया एवं वैदिक सनातन धर्म की रक्षा की इसीलिए भारत का हर नागरिक इनका हमेशा कर्ज़ादार रहेगा।


इसके बाद इसका पौत्र वत्सराज (775 से 800) उल्लेखनीय है, जिसने प्रतिहार साम्राज्य का विस्तार किया। उज्जैन के शासक भण्डि को पराजित कर उसे परिहार साम्राज्य की राजधानी बनाया। उस समय भारत में तीन महाशक्तियां अस्तित्व में थी।

1 प्रतिहार साम्राज्य- उज्जैन, राजा वत्सराज

2 पाल साम्राज्य- बंगाल , राजा धर्मपाल

3 राष्ट्रकूट साम्राज्य- दक्षिण भारत , राजा ध्रुव

अंततः वत्सराज ने पालवंश के धर्मपाल पर आक्रमण कर दिया और भयानक युद्ध में उसे पराजित कर अपनी अधीनता स्वीकार करने को विवश किया। लेकिन ई. 800 में ध्रुव और धर्मपाल की संयुक्त सेना ने वत्सराज को पराजित कर दिया और उज्जैन एवं उसकी उपराजधानी कन्नौज पर पालों का अधिकार हो गया।

लेकिन उसके पुत्र नागभट्ट द्वितीय ने उज्जैन को फिर बसाया। उसने कन्नौज पर आक्रमण कर उसे पालों से छीन लिया और कन्नौज को अपनी प्रमुख राजधानी बनाया। उसने 820 से 825-826 तक दस भयावाह युद्ध किए और संपूर्ण उत्तरी भारत पर अधिकार कर लिया। इसने यवनों, तुर्कों को भारत में पैर नहीं जमाने दिया। नागभट्ट द्वितीय का समय उत्तम शासन के लिए प्रसिद्ध है। इसने 120 जलाशयों का निर्माण कराया-लंबी सड़के बनवाई। बटेश्वर के मंदिर जो मुरैना (मध्य प्रदेश) मे है इसका निर्माण भी इन्हीं के समय हआ, अजमेर का सरोवर उसी की कृति है, जो आज पुष्कर तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध है। यहां तक कि पूर्व काल में क्षत्रिय (राजपूत) योद्धा पुष्कर सरोवर पर वीर पूजा के रूप में नागभट्ट की पूजा कर युद्ध के लिए प्रस्थान करते थे।

नागभट्ट द्वितीय की उपाधि ‘‘परम भट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर थी। नागभट्ट के पुत्र रामभद्र प्रतिहार ने पिता की ही भांति साम्राज्य सुरक्षित रखा। इनके पश्चात् इनका पुत्र इतिहास प्रसिद्ध सनातन धर्म रक्षक मिहिरभोज सम्राट बना, जिसका शासनकाल 836 से 885 माना जाता है। सिंहासन पर बैठते ही मिहिरभोज प्रतिहार ने सर्वप्रथम कन्नौज राज्य की व्यवस्था को चुस्त-दुरूस्त किया, प्रजा पर अत्याचार करने वाले सामंतों और रिश्वत खाने वाले कामचोर कर्मचारियों को कठोर रूप से दण्डित किया। व्यापार और कृषि कार्य को इतनी सुविधाएं प्रदान की गई कि सारा साम्राज्य धनधान्य से लहलहा उठा। मिहिरभोज ने प्रतिहार साम्राज्य को धन, वैभव से चरमोत्कर्ष पर पहुंचाया। अपने उत्कर्ष काल में मिहिरभोज को 'सम्राट' उपाधि मिली थी।

अनेक काव्यों एवं इतिहास में उसे सम्राट भोज, मिहिर, प्रभास, भोजराज, वाराहवतार, परम भट्टारक, महाराजाधिराज परमेश्वर आदि विशेषणों से वर्णित किया गया है। इतने विशाल और विस्तृत साम्राज्य का प्रबंध अकेले सुदूर कन्नौज से कठिन हो रहा था। अस्तु मिहिरभोज ने साम्राज्य को चार भागो में बांटकर चार उप राजधानियां बनाई। कन्नौज- मुख्य राजधानी, उज्जैन और मंडोर को उप राजधानियां तथा ग्वालियर को सह राजधानी बनाया। प्रतिहारों का नागभट्ट प्रथम के समय से ही एक राज्यकुल संघ था, जिसमें कई क्षत्रिय राजें शामिल थे। पर मिहिरभोज के समय बुंदेलखण्ड और कांलिजर मण्डल पर चंदलों ने अधिकार जमा रखा था। मिहिरभोज का प्रस्ताव था कि चंदेल भी राज्य संघ के सदस्य बने, जिससे सम्पूर्ण उत्तरी पश्चिमी भारत एक विशाल शिला के रूप में खड़ा हो जाए और यवन, तुर्क, हूण, कुषाण आदि शत्रुओं को भारत प्रवेश से पूरी तरह रोका जा सके पर चंदेल इसके लिए तैयार नहीं हुए। अंततः मिहिरभोज ने कालिंजर पर आक्रमण कर दिया और इस क्षेत्र के चंदेलों को हरा दिया।

मिहिरभोज परम देश भक्त थे- उन्होने प्रण किया था कि उनके जीते जी कोई विदेशी शत्रु भारत भूमि को अपावन न कर पायेगा। इसके लिए उन्होंने सबसे पहले आक्रमण कर उन राजाओं को ठीक किया जो कायरतावश यवनों को अपने राज्य में शरण लेने देते थे। इस प्रकार राजपूताना से कन्नौज तक एक शक्तिशाली राज्य के निर्माण का श्रेय सम्राट मिहिरभोज को जाता है। मिहिरभोज के शासन काल में कन्नौज साम्राज्य की सीमा रमाशंकर त्रिपाठी की पुस्तक हिस्ट्री ऑफ कन्नौज के अनुसार, पेज नं. 246 में, उत्तर पश्चिम् में सतलज नदी तक, उत्तर में हिमालय की तराई, पूर्व में बंगाल तक, दक्षिण पूर्व में बुंदेलखण्ड और वत्स राज्य तक, दक्षिण पश्चिम में सौराष्ट्र और राजपूतानें के अधिक भाग तक विस्तृत थी। अरब इतिहासकार सुलेमान ने तवारीख अरब में लिखा है, कि हिंदू क्षत्रिय राजाओं में मिहिरभोज प्रतिहार भारत में अरब एवं इस्लाम धर्म का सबसे बडा शत्रु है सुलेमान आगे यह भी लिखता है कि हिंदुस्तान की सुगठित और विशालतम सेना मिहिरभोज की ही थी-

इसमें हजारों हाथी, हजारों घोड़े और हजारों

रथ थे। मिहिरभोज के राज्य में सोना और चांदी सड़कों पर विखरा था-किन्तु चोरी-डकैती का भय किसी को नहीं था। मिहिरभोज का तृतीय अभियान पाल राजाओ के विरूद्ध हुआ। इस समय बंगाल में पाल वंश का शासक देवपाल था। वह वीर और यशस्वी था- उसने अचानक कालिंजर पर आक्रमण कर दिया और कालिंजर में तैनात मिहिरभोज की सेना को परास्त कर किले पर कब्जा कर लिया। मिहिरभोज ने खबर पाते ही देवपाल को सबक सिखाने का निश्चय किया। कन्नौज और ग्वालियर दोनों सेनाओं को इकट्ठा होने का आदेश दिया और चैत्र मास सन् 850 ई. में देवपाल पर आक्रमण कर दिया। इससे देवपाल की सेना न केवल पराजित होकर बुरी तरह भागी, बल्कि वह मारा भी गया। मिहिरभोज ने बिहार समेत सारा क्षेत्र कन्नौज में मिला लिया। मिहिरभोज को पूर्व में उलझा देख पश्चिम भारत में पुनः उपद्रव और षड्यंत्र शुरू हो गये।

इस अव्यवस्था का लाभ अरब डकैतों ने

उठाया और वे सिंध पार पंजाब तक लूट पाट करने लगे। मिहिरभोज ने अब इस ओर प्रयाण किया। उसने सबसे पहले पंजाब के उत्तरी भाग पर राज कर रहे थक्कियक को पराजित किया, उसका राज्य और 2000 घोड़े छीन लिए। इसके बाद गूजरावाला के विश्वासघाती सुल्तान अलखान को बंदी बनाया- उसके संरक्षण में पल रहे 3000 तुर्की और हूण डाकुओं को बंदी बनाकर खूंखार और हत्या के लिए अपराधी पाये गए पिशाचों को मृत्यु दण्ड दे दिया। तदनन्तर टक्क देश के शंकरवर्मा को हराकर सम्पूर्ण पश्चिमी भारत को कन्नौज साम्राज्य का अंग बना लिया। चतुर्थ अभियान में मिहिरभोज ने प्रतिहार क्षत्रिय वंश की मूल गद्दी मण्डोर की ओर ध्यान दिया।

त्रवाण,बल्ल और माण्ड के राजाओं के सम्मिलित ससैन्य बल ने मण्डोर पर आक्रमण कर दिया। उस समय मण्डोर का राजा बाउक प्रतिहार पराजित ही होने वाला था कि मिहिरभोज ससैन्य सहायता के लिए पहुंच गया। उसने तीनों राजाओं को बंदी बना लिया और उनका राज्य कन्नौज में मिला लिया। इसी अभियान में उसने गुर्जरात्रा, लाट, पर्वत आदि राज्यों को भी समाप्त कर साम्राज्य का अंग बना लिया।

नोट : मंडोर के प्रतिहार (परिहार) कन्नौज के साम्राज्यवादी प्रतिहारों के सामंत के रुप मे कार्य करते थे। कन्नौज के प्रतिहारों के वंशज मंडोर से आकर कन्नौज को भारत देश की राजधानी बनाकर 220 वर्ष शासन किया एवं हिंदू सनातन धर्म की रक्षा की।

== प्रतिहार / परिहार क्षत्रिय वंश का परिचय ==

वर्ण - क्षत्रिय

राजवंश - प्रतिहार वंश

वंश - सूर्यवंशी

गोत्र - कौशिक (कौशल, कश्यप)

वेद - यजुर्वेद

उपवेद - धनुर्वेद

गुरु - वशिष्ठ

कुलदेव - श्री रामचंद्र जी , विष्णु भगवान

कुलदेवी - चामुण्डा देवी, गाजन माता

नदी - सरस्वती

तीर्थ - पुष्कर राज ( राजस्थान )

मंत्र - गायत्री

झंडा - केसरिया

निशान - लाल सूर्य

पशु - वाराह

नगाड़ा - रणजीत

अश्व - सरजीव

पूजन - खंड पूजन दशहरा

आदि पुरुष - श्री लक्ष्मण जी

आदि गद्दी - माण्डव्य पुरम ( मण्डौर , राजस्थान )

ज्येष्ठ गद्दी - बरमै राज्य नागौद ( मध्य प्रदेश)

== भारत मे प्रतिहार / परिहार क्षत्रियों की रियासत जो 1950 तक काबिज रही ==

नागौद रियासत - मध्यप्रदेश

अलीपुरा रियासत - मध्यप्रदेश

खनेती रियासत - हिमांचल प्रदेश

कुमारसैन रियासत - हिमांचल प्रदेश

मियागम रियासत - गुजरात

उमेटा रियासत - गुजरात

एकलबारा रियासत - गुजरात

== प्रतिहार / परिहार वंश की वर्तमान स्थिति==

भले ही यह विशाल प्रतिहार क्षत्रिय (राजपूत) साम्राज्य 15 वीं शताब्दी के बाद में छोटे छोटे राज्यों में सिमट कर बिखर हो गया हो लेकिन इस वंश के वंशज आज भी इसी साम्राज्य की परिधि में मिलते हैँ।

आजादी के पहले भारत मे प्रतिहार क्षत्रिय वंश के कई राज्य थे। जहां आज भी ये अच्छी संख्या में है।

मण्डौर, राजस्थान

जालौर, राजस्थान

लोहियाणागढ , राजस्थान

बाडमेर , राजस्थान

भीनमाल , राजस्थान

माउंट आबू, राजस्थान

पाली, राजस्थान

बेलासर, राजस्थान

शेरगढ , राजस्थान

चुरु , राजस्थान

कन्नौज, उतर प्रदेश

हमीरपुर उत्तर प्रदेश

प्रतापगढ, उत्तर प्रदेश

झगरपुर, उत्तर प्रदेश

उरई, उत्तर प्रदेश

जालौन, उत्तर प्रदेश

इटावा , उत्तर प्रदेश

कानपुर, उत्तर प्रदेश

उन्नाव, उतर प्रदेश

उज्जैन, मध्य प्रदेश

चंदेरी, मध्य प्रदेश

ग्वालियर, मध्य प्रदेश

जिगनी, मध्य प्रदेश

नीमच , मध्य प्रदेश

झांसी, मध्य प्रदेश

अलीपुरा, मध्य प्रदेश

नागौद, मध्य प्रदेश

उचेहरा, मध्य प्रदेश

दमोह, मध्य प्रदेश

सिंगोरगढ़, मध्य प्रदेश

एकलबारा, गुजरात

मियागाम, गुजरात

कर्जन, गुजरात

काठियावाड़, गुजरात

उमेटा, गुजरात

दुधरेज, गुजरात

खनेती, हिमाचल प्रदेश

कुमारसैन, हिमाचल प्रदेश

खोटकई , हिमांचल प्रदेश

जम्मू , जम्मू कश्मीर

डोडा , जम्मू कश्मीर

भदरवेह , जम्मू कश्मीर

करनाल , हरियाणा

खानदेश , महाराष्ट्र

जलगांव , महाराष्ट्र

फगवारा , पंजाब

परिहारपुर , बिहार

रांची , झारखंड

== मित्रों आइए अब जानते है प्रतिहार/परिहार वंश की शाखाओं के बारे में ==

भारत में परिहारों की कई शाखा है जो अब भी आवासित है। जो अभी तक की जानकारी मे है जिससे आज प्रतिहार/परिहार वंश पूरे भारत वर्ष में फैल गये। भारत मे परिहार लगभग 1000 हजार गांवो से भी ज्यादा जगहों में निवास करते है।

== प्रतिहार/परिहार क्षत्रिय वंश की शाखाएँ ==

(1) ईंदा प्रतिहार

(2) देवल प्रतिहार

(3) मडाड प्रतिहार

(4) खडाड प्रतिहार

(5) लूलावत प्रतिहार

(7) रामावत प्रतिहार

(8) कलाहँस प्रतिहार

(9) तखी प्रतिहार (परहार)

यह सभी शाखाएँ परिहार राजाओं अथवा परिहार ठाकुरों के नाम से है।

आइए अब जानते है प्रतिहार वंश के महान योद्धा शासको के बारे में जिन्होंने अपनी मातृभूमि, सनातन धर्म, प्रजा व राज्य के लिए सदैव ही न्यौछावर थे।

** प्रतिहार/परिहार क्षत्रिय वंश के महान राजा **

(1) राजा हरिश्चंद्र प्रतिहार

(2) राजा रज्जिल प्रतिहार

(3) राजा नरभट्ट प्रतिहार

(4) राजा नागभट्ट प्रथम

(5) राजा यशोवर्धन प्रतिहार

(6) राजा शिलुक प्रतिहार

(7) राजा कक्कुक प्रतिहार

(8) राजा बाउक प्रतिहार

(9) राजा वत्सराज प्रतिहार

(10) राजा नागभट्ट द्वितीय

(11) राजा मिहिरभोज प्रतिहार

(12) राजा महेन्द्रपाल प्रतिहार

(13) राजा महिपाल प्रतिहार

(14) राजा विनायकपाल प्रतिहार

(15) राजा महेन्द्रपाल द्वितीय

(16) राजा विजयपाल प्रतिहार

(17) राजा राज्यपाल प्रतिहार

(18) राजा त्रिलोचनपाल प्रतिहार

(19) राजा यशपाल प्रतिहार

(20) राजा मेदिनीराय प्रतिहार (चंदेरी राज्य)

(21) राजा वीरराजदेव प्रतिहार (नागौद राज्य के संस्थापक )

प्रतिहार क्षत्रिय वंश का बहुत ही वृहद इतिहास रहा है इन्होने हमेशा ही अपनी मातृभूमि के लिए बलिदान दिया है, एवं अपने नाम के ही स्वरुप प्रतिहार यानी रक्षक बनकर हिंदू सनातन धर्म को बचाये रखा एवं विदेशी आक्रमणकारियों को गाजर मूली की तरह काटा डाला, हमे गर्व है ऐसे हिंदू राजपूत वंश पर जिसने कभी भी मुश्किल घडी मे अपने आत्म विश्वास को नही खोया एवं आखरी सांस तक हिंदू धर्म की रक्षा की।

संदर्भ :

(1) राजपूताने का इतिहास - डा. गौरीशंकर हीराचंद ओझा

(2) विंध्य क्षेत्र के प्रतिहार वंश का ऐतिहासिक अनुशीलन - डा. अनुपम सिंह

(3) भारत के प्रहरी - प्रतिहार - डा. विंध्यराज चौहान

(4) प्राचीन भारत का इतिहास - डा. विमलचंद पांडे

(5) उचेहरा (नागौद) का प्रतिहार राज्य - प्रो. ए. एच. निजामी

(6) राजस्थान का इतिहास - डा. गोपीनाथ शर्मा

(7) कन्नौज का इतिहास - डा. रमाशंकर त्रिपाठी

(8) Society and culture Rajasthan (700 -900) - Dr. Shanta Rani sharma

(9) Origin of Rajput - Dr. J. N. Asopa

(10) Glory that was Gurjardesh - Dr. K. M. Munshi.

प्रतिहार/परिहार क्षत्रिय वंश ।।

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जय नागभट्ट।।

जय मिहिरभोज।।


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भारत के 25 टुकड़े हुए है अब तक

 #भारत_विभाजन


मात्र 150 साल में भारत का 9 टुकड़ा हुआ, 2500 वर्षों में 24वां टुकड़ा पाकिस्तान और 25वां टुकड़ा बंग्लादेश हुआ


सम्भवत: ही कोई पुस्तक (ग्रन्थ) होगी जिसमें यह वर्णन मिलता हो कि इन आक्रमणकारियों ने अफगानिस्तान, ब्रह्मदेश(बर्मा ,म्यांमार), श्रीलंका (सिंहलद्वीप), नेपाल, तिब्बत (त्रिविष्टप), भूटान, पाकिस्तान, मालद्वीप या बांग्लादेश पर आक्रमण किया। यहां एक प्रश्न खड़ा होता है कि यह भू-प्रदेश कब, कैसे गुलाम हुए और स्वतन्त्र हुए।

प्राय: #पाकिस्तान व #बांग्लादेश निर्माण का इतिहास तो सभी जानते हैं।

शेष इतिहास मिलता तो है परन्तु चर्चित नहीं है......सन 1947 में विशाल भारतवर्ष का पिछले 2500 वर्षों में 24वां विभाजन है।

सम्पूर्ण पृथ्वी का जब जल और थल इन दो तत्वों में वर्गीकरण करते हैं, तब सात द्वीप एवं सात महासमुद्र माने जाते हैं। हम इसमें से प्राचीन नाम #जम्बूद्वीप जिसे आज एशिया द्वीप कहते हैं तथा #इन्दू_सरोवरम् जिसे आज #हिन्द_महासागर कहते हैं, के निवासी हैं। इस जम्बूद्वीप (एशिया) के लगभग मध्य में #हिमालय पर्वत स्थित है। हिमालय पर्वत में विश्व की सर्वाधिक ऊँची चोटी #सागरमाथा, #गौरीशंकर हैं, जिसे 1835 में अंग्रेज शासकों ने #एवरेस्ट नाम देकर इसकी प्राचीनता व पहचान को बदलने का कूटनीतिक षड्यंत्र रचा।

हम पृथ्वी पर जिस भू-भाग अर्थात् राष्ट्र के निवासी हैं उस भू-भाग का वर्णन अग्नि, वायु एवं विष्णु पुराण में लगभग समानार्थी श्लोक के रूप में है :-


उत्तरं यत् समुद्रस्य, हिमाद्रश्चैव दक्षिणम्।

वर्ष तद् भारतं नाम, भारती यत्र संतति।।


अर्थात् हिन्द महासागर के उत्तर में तथा हिमालय पर्वत के दक्षिण में जो भू-भाग है उसे भारत कहते हैं और वहां के समाज को भारती या भारतीय के नाम से पहचानते हैं। बृहस्पति आगम में इसके लिए निम्न श्लोक उपलब्ध है :-


हिमालयं समारम्भ्य यावद् इन्दु सरोवरम।

तं देव निर्मित देशं, हिन्दुस्थानं प्रचक्षते।।


अर्थात् जब हम अपने देश (राष्ट्र) का विचार करते हैं तब अपने समाज में प्रचलित एक परम्परा रही है, जिसमें किसी भी शुभ कार्य पर संकल्प पढ़ा अर्थात् लिया जाता है। संकल्प स्वयं में महत्वपूर्ण संकेत करता है। संकल्प में काल की गणना एवं भूखण्ड का विस्तृत वर्णन करते हुए, संकल्प कर्ता कौन है ? इसकी पहचान अंकित करने की परम्परा है। उसके अनुसार संकल्प में भू-खण्ड की चर्चा करते हुए बोलते (दोहराते) हैं कि जम्बूद्वीपे (एशिया) भरतखण्डे (भारतवर्ष) यही शब्द प्रयोग होता है। सम्पूर्ण साहित्य में हमारे राष्ट्र की सीमाओं का उत्तर में हिमालय व दक्षिण में हिन्द महासागर का वर्णन है, परन्तु पूर्व व पश्चिम का स्पष्ट वर्णन नहीं है। परंतु जब श्लोकों की गहराई में जाएं और भूगोल की पुस्तकों अर्थात् एटलस का अध्ययन करें तभी ध्यान में आ जाता है कि श्लोक में पूर्व व पश्चिम दिशा का वर्णन है।

जब विश्व (पृथ्वी) का मानचित्र आँखों के सामने आता है तो पूरी तरह से स्पष्ट हो जाता है कि विश्व के भूगोल ग्रन्थों के अनुसार हिमालय के मध्य स्थल #कैलाश_मानसरोवर से पूर्व की ओर जाएं तो वर्तमान का इण्डोनेशिया और पश्चिम की ओर जाएं तो वर्तमान में ईरान देश अर्थात् #आर्यान_प्रदेश हिमालय के अंतिम छोर हैं। हिमालय 5000 पर्वत शृंखलाओं तथा 6000 नदियों को अपने भीतर समेटे हुए इसी प्रकार से विश्व के सभी भूगोल ग्रन्थ (एटलस) के अनुसार जब हम श्रीलंका (सिंहलद्वीप अथवा सिलोन) या कन्याकुमारी से पूर्व व पश्चिम की ओर प्रस्थान करेंगे या दृष्टि (नजर) डालेंगे तो हिन्द (इन्दु) महासागर इण्डोनेशिया व आर्यान (ईरान) तक ही है। इन मिलन बिन्दुओं के पश्चात् ही दोनों ओर महासागर का नाम बदलता है।


इस प्रकार से हिमालय, हिन्द महासागर, आर्यान (ईरान) व इण्डोनेशिया के बीच के सम्पूर्ण भू-भाग को आर्यावर्त अथवा भारतवर्ष अथवा हिन्दुस्तान कहा जाता है।

प्राचीन भारत की चर्चा अभी तक की, परन्तु जब वर्तमान से 3000 वर्ष पूर्व तक के भारत की चर्चा करते हैं तब यह ध्यान में आता है कि पिछले 2500 वर्ष में जो भी आक्रांत यूनानी (रोमन ग्रीक) यवन, हूण, शक, कुषाण, सिरयन, पुर्तगाली, फेंच, डच, अरब, तुर्क, तातार, मुगल व अंग्रेज आदि आए, इन सबका विश्व के सभी इतिहासकारों ने वर्णन किया। परन्तु सभी पुस्तकों में यह प्राप्त होता है कि आक्रान्ताओं ने भारतवर्ष पर, हिन्दुस्तान पर आक्रमण किया है। सम्भवत: ही कोई पुस्तक (ग्रन्थ) होगी जिसमें यह वर्णन मिलता हो कि इन आक्रमणकारियों ने अफगानिस्तान, (म्यांमार), श्रीलंका (सिंहलद्वीप), नेपाल, तिब्बत (त्रिविष्टप), भूटान, पाकिस्तान, मालद्वीप या बांग्लादेश पर आक्रमण किया।


यहां एक प्रश्न खड़ा होता है कि यह भू-प्रदेश कब, कैसे गुलाम हुए और स्वतन्त्र हुए। प्राय: पाकिस्तान व बांग्लादेश निर्माण का इतिहास तो सभी जानते हैं। शेष इतिहास मिलता तो है परन्तु चर्चित नहीं है। सन 1947 में विशाल भारतवर्ष का पिछले 2500 वर्षों में 24वां विभाजन है। अंग्रेज का 350 वर्ष पूर्व के लगभग ईस्ट इण्डिया कम्पनी के रूप में व्यापारी बनकर भारत आना, फिर धीरे-धीरे शासक बनना और उसके पश्चात् सन 1857 से 1947 तक उनके द्वारा किया गया भारत का 7वां विभाजन है। आगे लेख में सातों विभाजन कब और क्यों किए गए इसका संक्षिप्त वर्णन है।

सन् 1857 में भारत का क्षेत्रफल 83 लाख वर्ग कि.मी. था। वर्तमान भारत का क्षेत्रफल 33 लाख वर्ग कि.मी. है। पड़ोसी 9 देशों का क्षेत्रफल 50 लाख वर्ग कि.मी. बनता है।


भारतीयों द्वारा सन् 1857 के अंग्रेजों के विरुद्ध लड़े गए स्वतन्त्रता संग्राम (जिसे अंग्रेज ने गदर या बगावत कहा) से पूर्व एवं पश्चात् के परिदृश्य पर नजर दौडायेंगे तो ध्यान में आएगा कि ई. सन् 1800 अथवा उससे पूर्व के विश्व के देशों की सूची में वर्तमान भारत के चारों ओर जो आज देश माने जाते हैं उस समय देश नहीं थे। इनमें स्वतन्त्र राजसत्ताएं थीं, परन्तु सांस्कृतिक रूप में ये सभी भारतवर्ष के रूप में एक थे और एक-दूसरे के देश में आवागमन (व्यापार, तीर्थ दर्शन, रिश्ते, पर्यटन आदि) पूर्ण रूप से बे-रोकटोक था। इन राज्यों के विद्वान् व लेखकों ने जो भी लिखा वह विदेशी यात्रियों ने लिखा ऐसा नहीं माना जाता है। इन सभी राज्यों की भाषाएं व बोलियों में अधिकांश शब्द संस्कृत के ही हैं। मान्यताएं व परम्पराएं भी समान हैं। खान-पान, भाषा-बोली, वेशभूषा, संगीत-नृत्य, पूजापाठ, पंथ सम्प्रदाय में विविधताएं होते हुए भी एकता के दर्शन होते थे और होते हैं। जैसे-जैसे इनमें से कुछ राज्यों में भारत इतर यानि विदेशी पंथ (मजहब-रिलीजन) आये तब अनेक संकट व सम्भ्रम निर्माण करने के प्रयास हुए।


सन 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम से पूर्व-मार्क्स द्वारा अर्थ प्रधान परन्तु आक्रामक व हिंसक विचार के रूप में मार्क्सवाद जिसे लेनिनवाद, माओवाद, साम्यवाद, कम्यूनिज्म शब्दों से भी पहचाना जाता है, यह अपने पांव अनेक देशों में पसार चुका था। वर्तमान रूस व चीन जो अपने चारों ओर के अनेक छोटे-बडे राज्यों को अपने में समाहित कर चुके थे या कर रहे थे, वे कम्यूनिज्म के सबसे बडे व शक्तिशाली देश पहचाने जाते हैं। ये दोनों रूस और चीन विस्तारवादी, साम्राज्यवादी, मानसिकता वाले ही देश हैं। अंग्रेज का भी उस समय लगभग आधी दुनिया पर राज्य माना जाता था और उसकी साम्राज्यवादी, विस्तारवादी, हिंसक व कुटिलता स्पष्ट रूप से सामने थी।


#अफगानिस्तान :- सन् 1834 में प्रकिया प्रारम्भ हुई और 26 मई, 1876 को रूसी व ब्रिटिश शासकों (भारत) के बीच गंडामक संधि के रूप में निर्णय हुआ और अफगानिस्तान नाम से एक बफर स्टेट अर्थात् राजनैतिक देश को दोनों ताकतों के बीच स्थापित किया गया। इससे अफगानिस्तान अर्थात् पठान भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम से अलग हो गए तथा दोनों ताकतों ने एक-दूसरे से अपनी रक्षा का मार्ग भी खोज लिया। परंतु इन दोनों पूंजीवादी व मार्क्सवादी ताकतों में अंदरूनी संघर्ष सदैव बना रहा कि अफगानिस्तान पर नियन्त्रण किसका हो ?


अफगानिस्तान (#उपगणस्तान) शैव व प्रकृति पूजक मत से बौद्ध मतावलम्बी और फिर विदेशी पंथ इस्लाम मतावलम्बी हो चुका था। बादशाह शाहजहाँ, शेरशाह सूरी व महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल में उनके राज्य में कंधार (गंधार) आदि का स्पष्ट वर्णन मिलता है।

नेपाल :- मध्य हिमालय के 46 से अधिक छोटे-बडे राज्यों को संगठित कर पृथ्वी नारायण शाह नेपाल नाम से एक राज्य का सुगठन कर चुके थे। स्वतन्त्रता संग्राम के सेनानियों ने इस क्षेत्र में अंग्रेजों के विरुद्ध लडते समय-समय पर शरण ली थी। अंग्रेज ने विचारपूर्वक 1904 में वर्तमान के बिहार स्थित सुगौली नामक स्थान पर उस समय के पहाड़ी राजाओं के नरेश से संधी कर नेपाल को एक स्वतन्त्र अस्तित्व प्रदान कर अपना रेजीडेंट बैठा दिया। इस प्रकार से नेपाल स्वतन्त्र राज्य होने पर भी अंग्रेज के अप्रत्यक्ष अधीन ही था। रेजीडेंट के बिना महाराजा को कुछ भी खरीदने तक की अनुमति नहीं थी। इस कारण राजा-महाराजाओं में जहां आन्तरिक तनाव था, वहीं अंग्रेजी नियन्त्रण से कुछ में घोर बेचैनी भी थी। महाराजा त्रिभुवन सिंह ने 1953 में भारतीय सरकार को निवेदन किया था कि आप नेपाल को अन्य राज्यों की तरह भारत में मिलाएं। परन्तु सन 1955 में रूस द्वारा दो बार वीटो का उपयोग कर यह कहने के बावजूद कि नेपाल तो भारत का ही अंग है, भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. नेहरूने पुरजोर वकालत कर नेपाल को स्वतन्त्र देश के रूप में यू.एन.ओ. में मान्यता दिलवाई। आज भी नेपाल व भारतीय एक-दूसरे के देश में विदेशी नहीं हैं और यह भी सत्य है कि नेपाल को वर्तमान भारत के साथ ही सन् 1947 में ही स्वतन्त्रता प्राप्त हुई। नेपाल 1947 में ही अंग्रेजी रेजीडेंसी से मुक्त हुआ।


#भूटान :- सन 1906 में सिक्किम व भूटान जो कि वैदिक-बौद्ध मान्यताओं के मिले-जुले समाज के छोटे भू-भाग थे इन्हें स्वतन्त्रता संग्राम से लगकर अपने प्रत्यक्ष नियन्त्रण से रेजीडेंट के माध्यम से रखकर चीन के विस्तारवाद पर अंग्रेज ने नजर रखना प्रारम्भ किया। ये क्षेत्र(राज्य) भी स्वतन्त्रता सेनानियों एवं समय-समय पर हिन्दुस्तान के उत्तर दक्षिण व पश्चिम के भारतीय सिपाहियों व समाज के नाना प्रकार के विदेशी हमलावरों से युद्धों में पराजित होने पर शरणस्थली के रूप में काम आते थे। दूसरा ज्ञान (सत्य, अहिंसा, करुणा) के उपासक वे क्षेत्र खनिज व वनस्पति की दृष्टि से महत्वपूर्ण थे। तीसरा यहां के जातीय जीवन को धीरे-धीरे मुख्य भारतीय (हिन्दू) धारा से अलग कर मतान्तरित किया जा सकेगा। हम जानते हैं कि सन 1836 में उत्तर भारत में चर्च ने अत्यधिक विस्तार कर नये आयामों की रचना कर डाली थी। सुदूर हिमालयवासियों में ईसाईयत जोर पकड़ रही थी।


#तिब्बत :- सन 1914 में तिब्बत को केवल एक पार्टी मानते हुए चीनी साम्राज्यवादी सरकार व भारत के काफी बड़े भू-भाग पर कब्जा जमाए अंग्रेज शासकों के बीच एक समझौता हुआ। भारत और चीन के बीच तिब्बत को एक बफर स्टेट के रूप में मान्यता देते हुए हिमालय को विभाजित करने के लिए मैकमोहन रेखा निर्माण करने का निर्णय हुआ। हिमालय सदैव से ज्ञान-विज्ञान के शोध व चिन्तन का केंद्र रहा है। हिमालय को बांटना और तिब्बत व भारतीय को अलग करना यह षड्यंत्र रचा गया। चीनी और अंग्रेज शासकों ने एक-दूसरों के विस्तारवादी, साम्राज्यवादी मनसूबों को लगाम लगाने के लिए कूटनीतिक खेल खेला। अंग्रेज ईसाईयत हिमालय में कैसे अपने पांव जमायेगी, यह सोच रहा था परन्तु समय ने कुछ ऐसी करवट ली कि प्रथम व द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् अंग्रेज को एशिया और विशेष रूप से भारत छोड़कर जाना पड़ा। भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. नेहरू ने समय की नाजकता को पहचानने में भूल कर दी और इसी कारण तिब्बत को सन 1949 से 1959 के बीच चीन हड़पने में सफल हो गया। पंचशील समझौते की समाप्ति के साथ ही अक्टूबर सन 1962 में चीन ने भारत पर हमला कर हजारों वर्ग कि.मी. अक्साई चीन (लद्दाख यानि जम्मू-कश्मीर) व अरुणाचल आदि को कब्जे में कर लिया। तिब्बत को चीन का भू-भाग मानने का निर्णय पं. नेहरू (तत्कालीन प्रधानमंत्री) की भारी ऐतिहासिक भूल हुई। आज भी तिब्बत को चीन का भू-भाग मानना और चीन पर तिब्बत की निर्वासित सरकार से बात कर मामले को सुलझाने हेतु दबाव न डालना बड़ी कमजोरी व भूल है। नवम्बर 1962 में भारत के दोनों सदनों के संसद सदस्यों ने एकजुट होकर चीन से एक-एक इंच जमीन खाली करवाने का संकल्प लिया। आश्चर्य है भारतीय नेतृत्व (सभी दल) उस संकल्प को शायद भूल ही बैठा है। हिमालय परिवार नाम के आन्दोलन ने उस दिवस को मनाना प्रारम्भ किया है ताकि जनता नेताओं द्वारा लिए गए संकल्प को याद करवाएं।

श्रीलंका व म्यांमार :- अंग्रेज प्रथम महायुद्ध (1914 से 1919) जीतने में सफल तो हुए परन्तु भारतीय सैनिक शक्ति के आधार पर। धीरे-धीरे स्वतन्त्रता प्राप्ति हेतु क्रान्तिकारियों के रूप में भयानक ज्वाला अंग्रेज को भस्म करने लगी थी। सत्याग्रह, स्वदेशी के मार्ग से आम जनता अंग्रेज के कुशासन के विरुद्ध खडी हो रही थी। द्वितीय महायुद्ध के बादल भी मण्डराने लगे थे। सन् 1935 व 1937 में ईसाई ताकतों को लगा कि उन्हें कभी भी भारत व एशिया से बोरिया-बिस्तर बांधना पड़ सकता है। उनकी अपनी स्थलीय शक्ति मजबूत नहीं है और न ही वे दूर से नभ व थल से वर्चस्व को बना सकते हैं। इसलिए जल मार्ग पर उनका कब्जा होना चाहिए तथा जल के किनारों पर भी उनके हितैषी राज्य होने चाहिए। समुद्र में अपना नौसैनिक बेड़ा बैठाने, उसके समर्थक राज्य स्थापित करने तथा स्वतन्त्रता संग्राम से उन भू-भागों व समाजों को अलग करने हेतु सन 1965 में श्रीलंका व सन 1937 में म्यांमार को अलग राजनीतिक देश की मान्यता दी। ये दोनों देश इन्हीं वर्षों को अपना स्वतन्त्रता दिवस मानते हैं। म्यांमार व श्रीलंका का अलग अस्तित्व प्रदान करते ही मतान्तरण का पूरा ताना-बाना जो पहले तैयार था उसे अधिक विस्तार व सुदृढ़ता भी इन देशों में प्रदान की गई। ये दोनों देश वैदिक, बौद्ध धार्मिक परम्पराओं को मानने वाले हैं। म्यांमार के अनेक स्थान विशेष रूप से रंगून का अंग्रेज द्वारा देशभक्त भारतीयों को कालेपानी की सजा देने के लिए जेल के रूप में भी उपयोग होता रहा है।


पाकिस्तान, बांग्लादेश व #मालद्वीप :- 1905 का लॉर्ड कर्जन का बंग-भंग का खेल 1911 में बुरी तरह से विफल हो गया। परन्तु इस हिन्दु मुस्लिम एकता को तोड़ने हेतु अंग्रेज ने आगा खां के नेतृत्व में सन 1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना कर मुस्लिम कौम का बीज बोया। पूर्वोत्तर भारत के अधिकांश जनजातीय जीवन को ईसाई के रूप में मतान्तरित किया जा रहा था। ईसाई बने भारतीयों को स्वतन्त्रता संग्राम से पूर्णत: अलग रखा गया। पूरे भारत में एक भी ईसाई सम्मेलन में स्वतन्त्रता के पक्ष में प्रस्ताव पारित नहीं हुआ। दूसरी ओर मुसलमान तुम एक अलग कौम हो, का बीज बोते हुए सन् 1940 में मोहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में पाकिस्तान की मांग खड़ी कर देश को नफरत की आग में झोंक दिया। अंग्रेजीयत के दो एजेण्ट क्रमश: पं. नेहरू व मो. अली जिन्ना दोनों ही घोर महत्वाकांक्षी व जिद्दी (कट्टर) स्वभाव के थे।अंग्रेजों ने इन दोनों का उपयोग गुलाम भारत के विभाजन हेतु किया। द्वितीय महायुद्ध में अंग्रेज बुरी तरह से आर्थिक, राजनीतिक दृष्टि से इंग्लैण्ड में तथा अन्य देशों में टूट चुके थे। उन्हें लगता था कि अब वापस जाना ही पड़ेगा और अंग्रेजी साम्राज्य में कभी न अस्त होने वाला सूर्य अब अस्त भी हुआ करेगा। सम्पूर्ण भारत देशभक्ति के स्वरों के साथ सड़क पर आ चुका था। संघ, सुभाष, सेना व समाज सब अपने-अपने ढंग से स्वतन्त्रता की अलख जगा रहे थे। सन 1948 तक प्रतीक्षा न करते हुए 3 जून, 1947 को अंग्रेज अधीन भारत के विभाजन व स्वतन्त्रता की घोषणा औपचारिक रूप से कर दी गयी। यहां यह बात ध्यान में रखने वाली है कि उस समय भी भारत की 562 ऐसी छोटी-बड़ी रियासतें (राज्य) थीं, जो अंग्रेज के अधीन नहीं थीं। इनमें से सात ने आज के पाकिस्तान में तथा 555 ने जम्मू-कश्मीर सहित आज के भारत में विलय किया। भयानक रक्तपात व जनसंख्या की अदला-बदली के बीच 14, 15 अगस्त, 1947 की मध्यरात्रि में पश्चिम एवं पूर्व पाकिस्तान बनाकर अंग्रेज ने भारत का 7वां विभाजन कर डाला। आज ये दो भाग पाकिस्तान व बांग्लादेश के नाम से जाने जाते हैं। भारत के दक्षिण में सुदूर समुद्र में मालद्वीप (छोटे-छोटे टापुओं का समूह) सन 1947 में स्वतन्त्र देश बन गया, जिसकी चर्चा व जानकारी होना अत्यन्त महत्वपूर्ण व उपयोगी है। यह बिना किसी आन्दोलन व मांग के हुआ है।

भारत का वर्तमान परिदृश्य :- सन 1947 के पश्चात् फेंच के कब्जे से पाण्डिचेरी, पुर्तगीज के कब्जे से गोवा देव- दमन तथा अमेरिका के कब्जें में जाते हुए सिक्किम को मुक्त करवाया है। आज पाकिस्तान में पख्तून, बलूच, सिंधी, बाल्टीस्थानी (गिलगित मिलाकर), कश्मीरी मुजफ्फरावादी व मुहाजिर नाम से इस्लामाबाद (लाहौर) से आजादी के आन्दोलन चल रहे हैं। पाकिस्तान की 60 प्रतिशत से अधिक जमीन तथा 30 प्रतिशत से अधिक जनता पाकिस्तान से ही आजादी चाहती है। बांग्लादेश में बढ़ती जनसंख्या का विस्फोट, चटग्राम आजादी आन्दोलन उसे जर्जर कर रहा है। शिया-सुन्नी फसाद, अहमदिया व वोहरा (खोजा-मल्कि) पर होते जुल्म मजहबी टकराव को बोल रहे हैं। हिन्दुओं की सुरक्षा तो खतरे में ही है। विश्वभर का एक भी मुस्लिम देश इन दोनों देशों के मुसलमानों से थोडी भी सहानुभूति नहीं रखता। अगर सहानुभूति होती तो क्या इन देशों के 3 करोड़ से अधिक मुस्लिम (विशेष रूप से बांग्लादेशीय) दर-दर भटकते। ये मुस्लिम देश अपने किसी भी सम्मेलन में इनकी मदद हेतु आपस में कुछ-कुछ लाख बांटकर सम्मानपूर्वक बसा सकने का निर्णय ले सकते थे। परन्तु कोई भी मुस्लिम देश आजतक बांग्लादेशी मुसलमान की मदद में आगे नहीं आया। इन घुसपैठियों के कारण भारतीय मुसलमान अधिकाधिक गरीब व पिछड़ते जा रहा है क्योंकि इनके विकास की योजनाओं पर खर्च होने वाले धन व नौकरियों पर ही तो घुसपैठियों का कब्जा होता जा रहा है। मानवतावादी वेष को धारण कराने वाले देशों में से भी कोई आगे नहीं आया कि इन घुसपैठियों यानि दरबदर होते नागरिकों को अपने यहां बसाता या अन्य किसी प्रकार की सहायता देता। इन दर-बदर होते नागरिकों के आई.एस.आई. के एजेण्ट बनकर काम करने के कारण ही भारत के करोडों मुस्लिमों को भी सन्देह के घेरे में खड़ा कर दिया है। आतंकवाद व माओवाद लगभग 200 के समूहों के रूप में भारत व भारतीयों को डस रहे हैं। लाखों उजड़ चुके हैं, हजारों विकलांग हैं और हजारों ही मारे जा चुके हैं। विदेशी ताकतें हथियार, प्रशिक्षण व जेहादी, मानसिकता देकर उन प्रदेश के लोगों के द्वारा वहां के ही लोगों को मरवा कर उन्हीं प्रदेशों को बर्बाद करवा रही हैं। इस विदेशी षड्यन्त्र को भी समझना आवश्यक है।


सांस्कृतिक व आर्थिक समूह की रचना आवश्यक :- आवश्यकता है वर्तमान भारत व पड़ोसी भारतखण्डी देशों को एकजुट होकर शक्तिशाली बन खुशहाली अर्थात विकास के मार्ग में चलने की। इसलिए अंग्रेज अर्थात् ईसाईयत द्वारा रचे गये षड्यन्त्र को ये सभी देश (राज्य) समझें और साझा व्यापार व एक करन्सी निर्माण कर नए होते इस क्षेत्र के युग का सूत्रपात करें। इन देशों 10 का समूह बनाने से प्रत्येक देश का भय का वातावरण समाप्त हो जायेगा तथा प्रत्येक देश का प्रतिवर्ष के सैंकड़ों-हजारों-करोड़ों रुपयेरक्षा व्यय के रूप में बचेंगे जो कि विकास पर खर्च किए जा सकेंगे। इससे सभी सुरक्षित रहेंगे व विकसित होंगे

रविवार, 3 अक्तूबर 2021

भारत में आने से पहले इंग्लैंड



 18 वीं शताब्दी ईस्वी में जब इंग्लैंड के लोग भारत आए तब इंग्लैंड का कुल क्षेत्रफल 1 लाख 25000 वर्ग किलोमीटर था यानी लगभग 50000 वर्ग मील।(वस्तुतः मूल इंग्लैंड का क्षेत्रफल तो 80000 वर्ग किलोमीटर ही था।)

और उसकी जनसंख्या उस समय थी लगभग 90 लाख।वस्तुतः18 वीं के आरम्भ में तो केवल52 लाख थे।1790 में90 लाख हुए ।


 उस समय जो भारत में मराठा राज्य था उसकी 1760 ईस्वी में कुल जनसंख्या 18 करोड़ थी और क्षेत्रफल था 2500000 *(25लाख)वर्ग किलोमीटर अथवा 970000 वर्ग मील।।

उस समय भारत का कुल क्षेत्रफल था लगभग 6500000 (65लाख) वर्ग किलोमीटर या 2500000 वर्ग मील और जनसंख्या थी लगभग 36 करोड।यह अफगानिस्तान से म्यामार तक फैले भारत की बात है।


मुस्लिम राज्यों का कुल सबको मिलाकर 14लाख वर्गकिलो मीटर क्षेत्रफल ही था। 


यानी मराठा साम्राज्य इंग्लैंड से 20 गुना बड़ा था

।उसकी जनसंख्या भी20 गुणी अधिक थी इंग्लैंड से।

मुस्लिम राज्यों से मराठा साम्राज्य लगभग2 गुना बड़ा था।लगभग।


भारत का क्षेत्रफल इंग्लैंड से50 गुणा अधिक था और जनसंख्या 40 गुणी अधिक।राजपूत राजाओं का इलाका 5 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैला हुआ था और जनसंख्या थी साढ़े तीन करोड़।यानी राजपूत राजाओं का क्षेत्र इंग्लैंड से 4गुणा अधिक था।

वीरता में राजपूतों और मराठों से अंग्रेजों की कोई तुलना ही नहीं रही कभी।

ऐसे में जो अभागे लोग भारत को अंग्रेजों का गुलाम रहा बताते हैं, वे कितनी हीन चेतना के हैं, स्वयं जान लीजिए।

वे तो याचना करते आए थे, वंचना करते भगा दिए गए।

भारत को हराने की न कभी उनकी हैसियत थी, न लालसा।

झूठी विनय से दया पाई।कमीनगी से लात खाई।

जो लोग कभी भी न वीर रहे, न सत्यनिष्ठ, न आत्मगौरव सम्पन्न, न पूर्वजों के शौर्य से परिचित,

ऐसे आत्महीन हिन्दू ही भारत को अंग्रेजों का गुलाम बताते हैं।

✍🏻प्रो रामेश्वर मिश्र पंकज


पुरानी पोस्ट : कॉपी पेस्ट कर रहा हूँ, एक मित्र की वाल से। 


ईस्ट इंडिया कंपनी 1600 AD में मात्र 70,000 पौंड में बनाई गई एक व्यापारिक संस्था थी ( रोमेश दत्त)। 


जब ये यूरोपीय ईसाई जलदस्यु (Pirate या Buccaneers लिखा इनको विल दुरान्त ने - कितना अच्छा और सम्मानीय लगता है न, ठीक वैसे ही जैसे हमारे इतिहासकार सरेआम डाका हत्या बलात्कार लूट और विनाश को Emperealism या उपनिवेशवाद लिखते हैं!) 

विश्व के गैरईसाइयों की जऱ जोरू जमीन पर कब्जा करने के लिए 16वीं शताब्दी में बाहर निकले तो इनके प्रतियोगी अन्य यूरोपीय ईसाई दस्यु मैदान में थे ----- डच स्पेनिश, पुर्तगीज, फ्रेंच ------ सबमें एक ही चीज कॉमन थी ---

डकैती के लिए ये अपने यूरोपीय ईसाई भाइयों की उतनी ही क्रूरता से लूटते और कत्ल करते थे----

जितनी क्रूरता से उन गैरईसाइयों का, जिनको लूटने ये निकले थे। 


खैर ---- 

मुख्य धारा में आइये। 

कंपनी ने जिन अनैतिक सेमी लिटरेट और अनपढ़ यूरोपीय ईसाइयो को नौकरी पर रखा उनमे दो शर्ते होती थीं कि वेतन कम होगा .....

लेकिन #प्राइवेट_बिज़नेस की छूट होगी।


अब देखिए ये भी कितना रहस्यमयी शब्द है प्राइवेट बिज़नेस ---- अर्थात् सरकारी पद के सदुपयोग से गैर ईसाइयों के लूट की छूट।


(खैर आज भी यह प्रैक्टिस जारी है लेकिन अब आदत लग गयी है तो मुंशी और पटवारी से लेकर सांसद तक निरपेक्ष भाव से सबको लूट रहे हैं!)


अब इस प्राइवेट बिज़नेस का एक उदाहरण देखिये -----

इस लूट का सम्पूर्ण आँकड़ा आज तक नही मिला है। 


एक और बात जो भी इस कंपनी के इन्वेस्टर थे वे ब्रिटेन से बाहर कदम नहीं रखते थे ------ 

वे दस्यु संरक्षक डायरेक्टर जैसे सम्मानित शब्द से जाने जाते थे। 


तो प्राइवेट बिज़नेस का स्वरूप यह होगा कि सैलरी कम से कम रहेगी, 

.... बाकी जो लूट सको वह माल तुम्हारा। 

प्रदोष अइछ लिखते हैं कि इस पालिसी के कारण - Few became rich, few became richer and few became stinking rich. जिनको आज की भाषा में Filthy rich कहकर गौरवान्वित किया जाता है।


उन दस्युओं में एक दस्यु का उदाहरण यहाँ है। 

मनी ड्रेन के कई तरीकों में एक यह भी था जिसके कारण हजारो साल के भारत के वैभव का स्रोत रहा #कृषि_शिल्प_और_वाणिज्य का विनाश हुआ, 

जिसकी पैदाइश आज संविधान में SC/ST और ओबीसी कहलाता है। 


रोबर्ट क्लाइव का बाप उसको टेलर बनाना चाहता था ...

परंतु वह टेलरिंग भी न सीख पाया ....

तो उसके बाप ने 500 पौंड कंपनी के डायरेक्टर्स को #सिक्योरिटी_मनी जमाकर उसको क्लर्क की नौकरी दिलवाया। 

भारत आने पर उसको प्रमोट कर सिपाही बना दिया गया। 


1742 में वह भारत आया था। उस समय बोम्बे के गवर्नर की सालाना सैलरी 300 पौंड थी। 

70,000 पौंड की टोटल लागत से निर्मित इस कंपनी का क्लाइव जैसा मामूली प्यादा जब 10 साल बाद 1752 में इंग्लैंड वापस जाता है तो उसकी जेब मे 40,000 पौंड होते हैं। 

ये है प्राइवेट बिज़नेस का मॉडल जो उन्होंने शुरू किया था ---- जो आज भी जारी है। 


इंग्लैंड जाकर वह सम्मानित ब्रिटॉन बन जाता है। 

ये है गोरी नैतिकता ---- और यही वह #चरित्र है जो  कालांतर में #मैकाले #भारतीयों में #पैदा करना चाहता था।


वह #सफल रहा। 

सभी एडुकेटेड भारतीयों को लख लख बधाइयाँ।


उसी चरित्र का दर्शन आज पोलिटिकल माफिया और मीडिया माफिया के गठजोड़ के रूप में विकसित हुआ है।

✍🏻डॉ त्रिभुवन सिंह

शनिवार, 2 अक्तूबर 2021

रियासतों की सूची

 

ब्रिटिशकालीन भारत के रियासतों की सूची

सूची

सन १९४७ में स्वतंत्रता और विभाजन से पहले भारतवर्ष में ब्रिटिश शासित क्षेत्र के अलावा भी छोटे-बड़े कुल 565 स्वतन्त्र रियासत हुआ करते थे, जो ब्रिटिश भारत का हिस्सा नहीं थे। ये रियासतें भारतीय उपमहाद्वीप के वो क्षेत्र थे, जहाँ पर अंग्रेज़ों का प्रत्यक्ष रूप से शासन नहीं था, बल्कि ये रियासत सन्धि द्वारा ब्रिटिश राज के प्रभुत्व के अधीन थे। इन संधियों के शर्त, हर रियासत के लिये भिन्न थे, परन्तु मूल रूप से हर संधि के तहत रियासतों को विदेश मामले, अन्य रियासतों से रिश्ते व समझौते और सेना व सुरक्षा से संबंधित विषयों पर ब्रिटिशों की अनुमति लेनी होती थी, इन विषयों का प्रभार प्रत्यक्ष रूप से अंग्रेजी शासन पर था और बदले में ब्रिटिश सरकार, शासकों को स्वतन्त्र रूप से शासन करने की अनुमती देती थी।

सन १९१९ में भारतीय उपमहाद्वीप की मानचित्र। ब्रितिश साशित क्षेत्र व स्वतन्त्र रियासतों के क्षेत्रों को दरशाया गया है

सन १९४७ में भारत की स्वतंत्रता व विभाजन के पश्चात सिक्किम के अलावा अन्य सभी रियासत या तो भारत या पाकिस्तान अधिराज्यों में से किसी एक में शामिल हो गए, या उन पर कब्जा कर लिया गया। नव स्वतंत्र भारत में ब्रिटिश भारत की एजेंसियों को "दूसरी श्रेणी" के राज्यों का दर्जा दिया गया (उदाहरणस्वरूप: "सेंट्रल इण्डिया एजेंसी", "मध्य भारत राज्य" बन गया)। इन राज्यों के मुखिया को राज्यपाल नहीं राजप्रमुख कहा जाता था। १९५६ तक "राज्य पुनर्गठन अयोग" के सुझाव पर अमल करते हुए भारत सरकार ने राज्यों को पुनर्गठित कर वर्तमान स्थिती में लाया। परिणामस्वरूप सभी रियासतों को स्वतंत्र भारत के राज्यों में विलीन कर लिया गया। इस तरह रियासतों का अंत हो गया।

सन १९६२ में प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी के शासनकाल के दौरान इन रियासतों के शासकों के निजी कोशों को एवं अन्य सभी ग़ैर-लोकतान्त्रिक रियायतों को भी रद्ध कर दिया गया