शुक्रवार, 1 मई 2015

जिन्होंने दुधवा को दुधवा बनाया

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जैसे भीष्म पितामह नहीं होते, तो महाभारत नहीं होता, वैसे ही बिली अर्जन सिंह नहीं होते तो दुधवा नहीं होता।
यह बात नसीम गाइड ने हमसे कही थी। दुधवा के अनुभवी गाइड, नसीम ही हमें बिली सर के घर ले गए थे। बात पिछले ही महीने यानी बीते साल 2009 के दिसंबर की है। रोमांच प्रेम हमें बहुत सारे राष्ट्रीय पार्को के भ्रमण को ले जा चुका था और इसी क्रम में हम दुधवा को भी देखना चाहते थे। लेकिन प्रसिद्घ वन्य-जीव संरक्षक और लेखक बिली अर्जन सिंह से रू-ब-रू होने की इच्छा के कारण हम सबसे पहले उनके घर ही गए। इस अद्भुत मुलाकात के दौरान जब मैने बिली सर से पूछा कि दुनिया आपको किस रूप में याद रखे? तो उन्होंने कहा, मै केवल बाघों से बेइंतहा प्यार करने वाले और इन्हें इंसानों से सुरक्षित व जीवित बचाने के लिए लडाई लडने वाले व्यक्ति अर्जन सिंह के नाम से जाने जाता रहना चाहता हूं। आज वाकई वह इसी रूप में अपना नाम अमर कर गए।
बिली सर से आखिरी मुलाकात
सोचा न था कि बिली सर से वह मुलाकात आखिरी साबित होगी। बिली अर्जन सिंह का दुधवा के समीप स्थित घर में 1 जनवरी, 2010 की रात को निधन हो गया। वह 94 वर्ष के थे। बिली कुछ समय से बीमार चल रहे थे। वह सेना से जुडी पृष्ठभूमि के थे और इसीलिए उन्होंने अपने जीवन में भी अनुशासन को कायम रखा था। इस वृद्घ व्यक्ति को देखकर मेरी आंखें विस्मय से भर उठी थीं कि उम्र के उस पडाव में भी यह व्यक्ति जंगल के बाशिंदों को उनके प्राकृतिक आवास में सुरक्षित रखने की चिंता में ही व्यस्त है। वहां दुधवा के बारे में हमें बिली सर से कई रोचक जानकारी मिली। वास्तव में हमने उनकी आंखों से ही पूरा दुधवा घूम लिया था।
कपूरथला परिवार से जुडे बिली कई दशकों पूर्व भारत-नेपाल सीमा से लगे उत्तर प्रदेश के लखीमपुर-खीरी जनपद के घने जंगल के लगभग मध्य में स्थित अपने फार्म हाउस में बस गए थे। यह पूरी तरह से उन्हीं का प्रयास था कि यह जंगल बाद में दुधवा राष्ट्रीय पार्क घोषित हुआ जो विश्व प्रसिद्घ कार्बेट राष्ट्रीय पार्क के बाद संभवतया उत्तर भारत का दूसरा सबसे बडा टाइगर रिजर्व है।
कमजोर बदन वाले जिस वृद्घ व्यक्ति को मैने देखा था, वह शल्य-चिकित्सा के बाद स्वास्थ्य लाभ ले रहे थे। वह पूरी तरह से अकेले जी रहे थे और सब कुछ स्वयं ही करना चाहते थे। उनकी आजाद तबियत उनकी आंखों की चमक से जाहिर हो रही थी। एक विनम्र व्यक्ति जिसने अपने स्वास्थ्य के बजाय दुधवा के भविष्य के बारे में अत्यंत उत्साह के साथ बातचीत की। नब्बे से अधिक की उम्र में भी वह अगले चार साल में दुधवा की बेहतरी के लिए क्या-क्या कर सकते हैं, यही सोचने में व्यस्त थे।
बिली पूरी तरह से वन को समर्पित कडे इरादों वाले मजबूत व्यक्ति थे जिनके शरीर पर बाघ व तेंदुए प्रेम से लोटते थे क्योंकि इन्होंने ही सर्वप्रथम इन शानदार जंतुओं को कैद से आजाद कराकर जंगल में छोडा था। आज जो कुछ भी दुधवा है, उसका श्रेय इन्हीं को है। दुधवा की सफलता इस असाधारण व्यक्ति के यथेष्ट प्रयास का साक्षात् प्रमाण है। कई वर्षो में कुछ सरकारों द्वारा उपेक्षित और अन्य द्वारा सम्मानित बिली सर अपने कर्तव्य-पथ से कभी भी पीछे नहीं हटे। वह अपने दृढ विचारों के लिए सदा लडते रहे।
उन्होंने कहा था, बाघों के लिए लडना छोडो, यह राजनीति की चीज नहीं है, इसके लिए हमारे संविधान में अत्यंत कडा कानून होना चाहिए। बिली महानता शब्द से कहीं ऊपर थे जो बाघों की हिफाजत के लिए भारत में हुए विभिन्न आंदोलनों का अभिन्न हिस्सा थे। बिली द्वारा जलाई गई मशाल को धारण कर हम उनके अनोखे जीवन को सच्ची श्रद्घांजलि अर्पित कर सकते हैं।
बिली अर्जन सिंह ने अपना पूरा जीवन वन्य-जीवों की देखभाल को ही समर्पित कर दिया था। उन्होंने हमें अपनी युवावस्था के दिनों में अपनी बाघिन तारा के साथ कुछ फोटोग्राफ्स भी दिखाए थे जिसे वह अपनी बच्ची की तरह मानते थे। इंग्लैंड से मिली बाघिन तारा इंदिरा गांधी का विशिष्ट उपहार थी। बिली जी ने दुधवा में अपने 65 वर्ष व्यतीत किए। लेकिन दुधवा में सैलानियों व रोमांच प्रेमियों की कम आवक से परेशान भी थे। शायद सुविधाओं के अभाव में सैलानी वहां आना पसंद न करते हों, यह ख्याल उनके मन को हमेशा सालता रहता था। उनका विचार था कि एक बार यदि दुधवा में पर्यटकों की आवक बढ जाए तो वापस लौटने पर वे यहां की दयनीय दशा का हाल बयां करें तो सरकार विकास के काम करने को प्रेरित होगी।
उनके अनुसार बाघ जैसे शानदार जंतु के संरक्षण में राजनीति व भ्रष्टाचार ही सबसे बडा बाधक हैं। केंद्र सरकार को संरक्षण पर गंभीरता से ध्यान देना चाहिए और यह विभिन्न विभागों वाले एक स्वायत्त निकाय द्वारा संचालित किया जाना चाहिए। उन्हें यह भी लगता था कि यहां एक एयरपोर्ट भी विकसित किया जाना चाहिए। साथ ही सरकार व अन्य गैर सरकारी संगठनों को विभिन्न तरीकों से दुधवा का विकास सुनिश्चित करना चाहिए। चूंकि तारा साइबेरियन नस्ल की बाघिन थी इसलिए वह कई मौकों पर और अपने कई समर्थकों द्वारा भी रॉयल बंगाल टाइगर के जीन-पूल को खराब करने के जिम्मेदार ठहराए गए। उन्होंने इससे न तो इनकार किया न ही इससे बचने का प्रयास किया बल्कि बेबाकी से कहा कि कम से कम उन्होंने इस शानदार प्राणी को जीवित रखने का भरसक प्रयास किया जो सरकार को करना चाहिए था। उनके अनुसार वन्य-जीवन को वास्तव में नुकसान पहुंचाने वाले कारकों में बढती जनसंख्या अहम कारण है। अंत में स्वयं में एक किंवदंती बन चुके इस महान व्यक्ति ने अपनी आंखों में आंसू लिए हुए बेबसी से कहा कि उनके साथ ही दुधवा भी खत्म हो जाएगा।
महान लोगों का जीवन, हमें याद दिलाता है कि, हम भी अपना जीवन महान बना सकते हैं, और समय के रेत पर अपने पद्-चिह्न छोड सकते हैं।
खास बातें
कहां: भारत-नेपाल सीमा, उत्तर प्रदेश, क्षेत्रफल: 490 वर्ग किमी उत्कृष्ट समय: नवम्बर से मई [जुलाई से अक्टूबर के मध्य पार्क बंद रहता है।]
कैसे पहुंचें
वायुमार्ग: लखनऊ यहां का निकटतम एयरपोर्ट है। लखनऊ से देश के सभी प्रमुख शहरों के लिए रोजाना कई सारी उडानें संचालित होती हैं।
रेलमार्ग: दुधवा (4 किमी), पलियां (10 किमी) और मैलानी (37 किमी)यहां के निकटतम रेलवे स्टेशन हैं। हालांकि लखनऊ से यहां आना अधिक सुविधाजनक है।

सडक मार्ग: राज्य परिवहन निगम की बसें और विभिन्न प्राइवेट बस सेवायें पलियां को लखीमपुर-खीरी, शाहजहांपुर, बरेली और दिल्ली से जोडती हैं। पलियां और दुधवा के बीच भी बसें उपलब्ध हैं।
प्रमुख शहरों से दुधवा राष्ट्रीय पार्क की दूरी
लखनऊ: 182 किमी (4 घंटे) रामनगर: 50 किमी दिल्ली: 410 किमी मुंबई: 1277 किमी
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प्रस्तुति- रिद्धि सिन्हा नुपूर



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