शुक्रवार, 1 मई 2015

महोबा के गली-कूचों में आज भी जिंदा हैं आल्हा-ऊदल

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आल्हा और वीर भूमि महोबा एक दूसरे के पर्याय हैं। यहां की सुबह आल्हा से शुरू होती है और उन्हीं से खत्म। यहां नवजात बच्चों के नामकरण भी आल्हखंड के नायकों के नाम पर रखे जाते हैं। कोई भी सामाजिक संस्कार आल्हा की पंक्तियों के बिना पूर्ण नहीं होता। यहां का अपराध जगत भी बहुत कुछ आल्ह खंड से प्रभावित होता है। कुछ वषरें पहले एक व्यक्ति ने किसी आल्हा गायक को गाते सुना कि ‘जाके बैरी सम्मुख ठाड़े, ताके जीवन को धिक्कार’ तो उसने रात में ही जाकर अपने दुश्मन को गोली मार दी। आल्हा का व्यक्तित्व ही कुछ ऐसा था कि 800 वर्षो के बीत जाने के बावजूद वह आज भी बुंदेलखंड के प्राण स्वरूप हैं।
पौराणिक परंपरा
दक्षराज और देवल देवी के बड़े पुत्र आल्हा को पौराणिक परंपराओं में युधिष्ठिर का अवतार माना गया है। अतुलित बल के स्वामी होने के  बावजूद उन्होंने अपने बल का कभी अमर्यादित प्रदर्शन नहीं किया। आल्हा जिस युग की उपज थे, उसे परंपरागत रूप से सामंती काल कहा जाता है, और ‘जाकर कन्या सुंदर देखी तापर जाइ धरी तरवार’ इस युग का कटु सत्य था, लेकिन इसके बावजूद आल्हा एकपत्नी व्रती रहे। यहां तक कि चुनारगढ़ की लड़ाई के समय जब राजा नैपाली के पुत्रों जोगा और भोगा ने छल-छद्म से आल्हा को बंदी बना लिया तो राजकुमारी सोनवॉ ने आल्हा के समक्ष चुपके से भाग चलने का प्रस्ताव रखा, जिसे आल्हा ने अस्वीकार कर दिया और एक कुमारी कन्या के हाथ से भोजन ग्रहण करना भी अनुचित समझा। यद्यपि यही सोनवॉ कालांतर में आल्हा की पत्नी बनीं और उनका एक नाम मछला भी प्रचलन में आया, क्योंकि वो रोज मछलियों को दाना खिलाती थीं।
वीरता की साक्षात प्रतिमूर्ति
युधिष्ठिर के अवतार आल्हा ने अपने जीवन में कई लड़ाइयां लड़ीं। बनाफरों द्वारा किए युद्ध की संख्या आल्हखंड में 52 बताई गई है, किन्तु किसी युद्ध में आल्हा का युद्धोन्माद नहीं देखा जा सकता। बैरागढ़ के युद्ध में पृथ्वीराज चौहान और उनके योद्धाओं ने जब छल-बल से आल्हा के गुरु ताला सैयद और अनुज ऊदल की हत्या कर दी तब भी आल्हा ने द्वंद के समय पृथ्वीराज को पहले वार करने का मौका दिया।
यहां तक कि तत्कालीन भारत पर मुहम्मद गौरी के आक्रमणों को देखते हुए चंदबरदाई ने दोनों योद्धाओं के बीच संधि का भी प्रस्ताव रखा, जिसे आल्हा ने यह कहते हुए सहमति दे दी थी कि पृथ्वीराज आक्रांता हैं, अत: संधि का प्रस्ताव उसकी तरफ से आना चाहिए। किंतु चौहान को दिल्ली का अधिपति होने का गर्व था। वह आल्हा जैसे सामंत के समक्ष कैसे झुक सकता था? अत: दोनों के बीच युद्ध हुआ और अश्वत्थामा द्वारा दिए गए शब्दभेदी बाण के बावजूद इस युद्ध में पृथ्वीराज की पराजय हुई।
बुंदेलखंड की सुनो कहानी
बुंदेलखंड का जन-जन आज भी चटकारे लेकर गाता है- बुंदेलखंड की सुनो कहानी बुंदेलों की बानी में पानीदार यहां का घोड़ा, आग यहां के पानी में आल्हा-ऊदल गढ़ महुबे के, दिल्ली का चौहान धनी जियत जिंदगी इन दोनों में तीर कमानें रहीं तनी बाण लौट गा शब्दभेद का, दाग लगा चौहानी में पानीदार यहां का पानी, आग यहां के पानी में आल्हा की तरह उनके अनुज ऊदल भी अप्रतिम योद्धा थे। उन्हें भीम का अवतार माना गया है। संपूर्ण आल्हखंड उनके साहसिक कारनामों से भरा पड़ा है। उनकी वीरता को देखकर उन्हें बघऊदल कहा जाता है।
बैरागढ़ के मैदान में पृथ्वीराज के सेनापति चामुंडराय, जिसे आल्हखंड में चौड़ा कहा गया है, ने धोखे से ऊदल की हत्या कर दी थी। ऊदल की हत्या के बाद ही चौहान सेना चंदेल योद्धाओं का वध करने में सफल हुई थी। महोबा में इस वीर योद्धा के नाम से एक चौक का नाम ऊदल चौक रखा गया है। ऊदल को आदर देते हुए आज भी लोग इस चौक पर घोड़े से सवार होकर नहीं जाते हैं। महोबा के अंग्रेज प्रशासक जेम्स ग्रांट ने लिखा है कि ‘एक बार बारात जा रही थी और दूल्हा घोड़े पर बैठा था। जैसे ही बारात ऊदल चौक पहुंची घोड़ा भड़क गया और उसने दूल्हे को उठाकर पटक दिया। मैं परंपरागत रूप से सुनता आया हूं कि ऊदल चौक पर कोई घोड़े पर बैठकर नहीं जा सकता और आज मैने उसे प्रत्यक्ष देख लिया।’
महोबा के स्मारक
महोबा के ढेर सारे स्मारक आज भी इन वीरों की याद दिलाते हैं। कुछ नवनिर्मित हैं और कुछ उस युग के ध्वंसावशेष। आल्हा-ऊदल के नाम पर महोबा शहर के ठीक बीचों-बीच दो चौक बनाए गए हैं। यहां आल्हा-ऊदल की दो विशालकाय प्रतिमाएं हैं। आल्हा अपने वाहन गज पशचावद पर सवार हैं। ऊदल अपने उड़न घोड़े बेदुला पर सवार हैं। ये दोनों प्रतिमाएं इतनी भीमकाय और जीवंत हैं कि इन्हें देखने लोग दूर-दूर से आते हैं। कीरत सागर के किनारे आल्हा की चौकी है जिसके बारे में कहा जाता है कि यहां आल्हा के गुल्म के सैनिक रहते थे। ऐसी ढेर सारी चौकियां महोबा में आबाद हैं जो सामंती परिवेश की याद दिलाती हैं। आल्हा के पुत्र इंदल की चौकी मदन सागर के बीचों-बीच हैं। इसका संपर्क अथाह जलराशि के नीचे सुरंग के माध्यम से किले से था।
प्रशासन ने अब इस सुरंग को बंद कर दिया है। आल्हखंड के अनुसार इंदल भी अपने पिता आल्हा की तरह अमर माने गए हैं। यह कहा जाता है कि गुरु गोरखनाथ ने जब यह देखा कि आल्हा अपने दिव्य अस्त्रों से पृथ्वीराज का बध कर देगा तो वे उसे और इंदल लेकर कदली वन चले आए। इस कदली वन की पहचान हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उत्तराखंड के तराई इलाकों से की है। आल्हा की उपास्य चंडिका और मनियां देव आज भी महोबा में उसी प्रकार समादृत हैं। चंडिका देवी की उपासना महोबा वासी ही नहीं अपितु संपूर्ण बुंदेलखंड करता है। नवरात्र के अवसर पर यहां सारा बुंदेलखंड उमड़ पड़ता है। आल्हा की सुमरनी इन्हीं चंडिका मां से प्रारंभ होती है।
कजली महोत्सव
बुंदेलखंड में विवाह अथवा अन्य मांगलिक कार्यो का प्रथम निमंत्रण मां चंडिका को ही दिया जाता है। चंदेल नरेशों ने महोबा में तीन देवी पीठ बनाए थे- बड़ी चंडिका, छोटी चंडिका और मनियां देव का मंदिर। ये तीनों आज भी उसी प्रकार उपास्य हैं। बड़ी चंडिका इसमें सर्वाधिक भव्य और आदरणीय हैं। इस मंदिर के प्रांगण में शिव कंठ, नृत्यरत गणेश, पंचदेव चौकी और पचास से अधिक सती चिन्ह अन्य आकर्षण हैं। आल्हा का महोबा बारिश में अत्यंत आकर्षक हो जाता है। सावन में गली-कूचे आल्हा की तान से गुंजायमान हो जाते हैं। लेकिन महोबा में सर्वाधिक भीड़ होती है रक्षाबंधन के पर्व पर। यह पर्व यहां कजली महोत्सव के रूप में मनाया जाता है।
यह उस क्षण की स्मृति है जब महोबा के रणबांकुरों ने पृथ्वीराज को हराकर भगाने पर मजबूर कर दिया था। इस विजय के बाद ही महोबा में बहनों ने भाइयों को राखी बांधी थी। उस घटना को 800 वर्ष बीत गए लेकिन आज भी महोबा में रक्षाबंधन श्रावणी पूर्णिमा के दिन न मनाकर एक दिन बाद परेवा को मनाया जाता है। इस दिन सारा बुंदेलखंड महोबा में एकत्र हो जाता है। होटलों और धर्मशालाओं की बात छोडि़ए, लोगों के घर भी हाउसफुल हो जाते हैं। यह बुंदेलखंड का सबसे बड़ा मेला माना जाता है। हवेली दरवाजा, जहां पर 1857 में बागियों को फांसी दी गई थी, वहां से एक जुलूस निकलकर कीरत सागर के तट पर समाप्त होता है, जहां विजय के उपरांत महोबा की बहनों ने आल्हा-ऊदल और अन्य योद्धाओं को राखी बांधी थी।
आल्हा की चौकी
कीरत सागर के किनारे आल्हा की चौकी जो इस समय एक मंच का रूप ले लेती है और सात दिन तक अहर्निश इस मंच पर बुंदेली नृत्य और गायन का प्रस्तुतीकरण होता रहता है। इस समय खजुराहो में जो विदेशी पर्यटक रहते हैं, वो भी महोबा आ जाते हैं। रहिलिया सागर का सूर्य मंदिर, शिव तांडव, महोबा का दुर्ग, पीर मुबारक भाह की मजार महोबा के अन्य आकर्षण हैं। पीर की मजार पर जियारत के करने के लिए हिंदुस्तान के कोने-कोने से जायरीन आते हैं। जैसे- महोबा का पुरातत्व निखर कर सामने आ रहा है, वैसे-वैसे आल्हा का महोबा खजुराहो और कालिंजर के साथ एक नए पर्यटन त्रिकोण के रूप में उभर रहा है।
कैसे पहुंचें
दिल्ली से वाराणसी जाने वाली रेल महोबा होकर जाती हैं। झांसी से रेल मार्ग द्वारा एक घंटे में और बस द्वारा 3 घंटे में पहुंचा जा सकता है। दिल्ली से भी बस सेवाएं उपलब्ध हैं। अब खजुराहो को दिल्ली से रेलवे लाइन द्वारा लिंक कर दिया गया है। यह सेवा महोबा होकर गुजरती है। महोबा में पर्यटन विभाग का रेस्ट हाउस है और पिछले कुछ वर्षो में आकर्षक होटल भी खुल गए हैं।


प्रस्तुति- रिद्धि सिन्हा नुपूर

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