प्रस्तुति-- स्वामी शरण
किसी एक भौगोलिक क्षेत्र के लोगों द्वारा किसी दूसरे भौगोलिक क्षेत्र में उपनिवेश (कॉलोनी) स्थापित करना और यह मान्यता रखना कि यह एक अच्छा काम है, उपनिवेशवाद (Colonialism) कहलाता है।
इतिहास में प्राय: पन्द्रहवीँ शताब्दी से लेकर बीसवीं शताब्दी तक उपनिवेशवाद का काल रहा। इस काल में युरोप के लोगों ने विश्व के विभिन्न भागों में उपनिवेश बनाये। इस काल में उपनिवेशवाद में विश्वास के मुख्य कारण थे -
उपनिवेश, मातृदेश के साम्राज्य का भाग होता था; अत: उपनिवेशवाद का साम्राज्यवाद से घनिष्ट सम्बन्ध है।
उपनिवेशवाद साम्राज्यवाद होते हुए भी काफ़ी-कुछ परस्परव्यापी और परस्पर-निर्भर पद हैं। साम्राज्यवाद के लिए ज़रूरी नहीं है कि किसी देश पर कब्ज़ा किया जाए और वहाँ कब्ज़ा करने वाले अपने लोगों को भेज कर अपना प्रशासन कायम करें। इसके बिना भी साम्राज्यवादी केंद्र के प्रति अधीनस्थता के संबंध कायम किये जा सकते हैं। पर, उपनिवेशवाद के लिए ज़रूरी है कि विजित देश में अपनी कॉलोनी बसायी जाए, आक्रामक की विजितों बहुसंख्या प्रत्यक्ष के ज़रिये ख़ुद को श्रेष्ठ मानते हुए अपने कानून और फ़ैसले आरोपित करें। ऐसा करने के लिए साम्राज्यवादी विस्तार को एक ख़ास विचारधारा का तर्क हासिल करना आवश्यक था। यह भूमिका सत्रहवीं सदी में प्रतिपादित जॉन लॉक के दर्शन ने निभायी। लॉक की स्थापनाओं में ब्रिटेन द्वारा भेजे गये अधिवासियों द्वारा अमेरिका की धरती पर कब्ज़ा कर लेने की कार्रवाई को न्यायसंगत ठहराने की दलीलें मौजूद थीं। उनकी रचना 'टू ट्रीटाइज़ ऑन सिविल गवर्नमेंट' (1690) की दूसरी थीसिस ‘प्रकृत अवस्था’ में व्यक्ति द्वारा अपने अधिकारों की दावेदारी के बारे में है। वे ऐसी जगहों पर नागरिक शासन स्थापित करने और व्यक्तिगत प्रयास द्वारा हथियायी गयी सम्पदा को अपने लाभ के लिए विकसित करने को जायज़ करार देते हैं। यही थीसिस आगे चल कर धरती के असमान स्वामित्व को उचित मानने का आधार बनी। लॉक की मान्यता थी कि अमेरिका में अनाप-शनाप ज़मीन बेकार पड़ी हुई है और वहाँ के मूलवासी यानी इण्डियन इस धरती का सदुपयोग करने की योग्यता से वंचित हैं। लॉक ने हिसाब लगाया कि युरोप की एक एकड़ ज़मीन अगर अपने स्वामी को पाँच शिलिंग प्रति वर्ष का मुनाफ़ा देती है, तो उसके मुकाबले अमेरिकी की ज़मीन से उस पर बसे इण्डियन को होने वाला कुल मुनाफ़ा एक पेनी से भी बहुत कम है। चूँकि अमेरिकी इण्डियन बाकी मानवता में प्रचलित धन-आधारित विनिमय-प्रणाली अपनाने में नाकाम रहे हैं, इसलिए ‘सम्पत्ति के अधिकार’ के मुताबिक उनकी धरती को अधिग्रहीत करके उस पर मानवीय श्रम का निवेश किया जाना चाहिए। लॉक की इसी थीसिस में एशियाई और अमेरिकी महाद्वीप की सभ्यता और संस्कृति पर युरोपीय श्रेष्ठता की ग्रंथि के बीज थे जिसके आधार पर आगे चल कर उपनिवेशवादी संरचनाओं का शीराज़ा खड़ा किया गया।
उपनिवेशों मुख्यतः दो किस्में थीं। एक तरफ अमेरिका, आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैण्ड जैसे थे जिनकी जलवायु युरोपियनों के लिए सुविधाजनक थी। इन इलाकों में सफ़ेद चमड़ी के लोग बहुत बड़े पैमाने पर बसाये गये। उन्होंने वहाँ की स्थानीय आबादी के संहार और दमन की भीषण परियोजनाएँ चला कर वहाँ न केवल पूरी तरह अपना कब्ज़ा जमा लिया, बल्कि वे देश उनके अपने ‘स्वदेश’ में बदल गये। जन-संहार से बच गयी देशज जनता को उन्होंने अलग-थलग पड़े इलाकों में धकेल दिया। दूसरी तरफ़ वे उपनिवेश थे जिनका हवा-पानी युरोपीयनों के लिए प्रतिकूल था (जैसे भारत और नाइजीरिया)। इन देशों पर कब्ज़ा करने के बाद युरोपियन थोड़ी संख्या में ही वहाँ बसे और मुख्यतः आर्थिक शोषण और दोहन के लिए उन धरतियों का इस्तेमाल किया। न्यू इंग्लैण्ड सरीखे थोड़े-बहुत ऐसे उपनिवेश भी थे जिनकी स्थापना युरोपीय इसाइयों ने धार्मिक आज़ादी की खोज में की।
जिन देशों ने उपनिवेश बनाए उनमें से प्रमुख ये हैं-
साम्राज्यवाद की दूसरी लहर ने सबसे पहले अफ़्रीका को अपना शिकार बनाया। इस महाद्वीप की हुकूमतें युरोपियन फ़ौजों के सामने आसानी से परास्त हो गयीं। बेल्जियम के लिए हेनरी स्टेनली ने कोंगो नदी घाटी पर कब्ज़ा कर लिया; फ़्रांस ने अल्जीरिया को हस्तगत करके स्वेज नहर का निर्माण किया और उसके जवाब में ब्रिटेन ने मिस्र पर कब्ज़ा करके इस नहर पर नियंत्रण कर लिया ताकि एशिया की तरफ़ जाने वाले समुद्री रास्तों पर उसका प्रभुत्व स्थापित हो सके। इसी के बाद फ़्रांस ने ट्यूनीशिया और मोरक्को को अपना उपनिवेश बनाया। इटली ने लीबिया को हड़प लिया। लातिनी और दक्षिणी अमेरिका में मुख्य तौर पर स्पेन के उपनिवेश रहे। इन क्षेत्रों की कई अर्थव्यवस्थाओं की लगाम अमेरिका और युरोपीय ताकतों के हाथों में रही।
एक तरफ उन्नीसवीं में अफ्रीका के लिए साम्राज्यवादी होड़ चल रही थी, तो दूसरी ओर दक्षिण एशिया पर प्रभुत्व ज़माने की प्रतियोगिता भी जारी थी। उन्नीसवीं सदी के मध्य तक ब्रिटेन ईस्ट इण्डिया कम्पनी के ज़रिये भारत के बड़े हिस्से का उपनिवेशीकरण करके बेशकीमती मसालों और कच्चे माल की प्राप्ति शुरू कर चुका था। फ़्रांसीसी और डच भी उपनिवेशवादी प्रतियोगिता में जम कर हिस्सा ले रहे थे। उपनिवेशवाद के विकास में औद्योगिक क्रांति की भी अहम रही। अट्ठारहवीं शताब्दी के अन्तिम अवधि में हुई इस क्रांति ने उपनिवेशवाद के केंद्र यानी ब्रिटेन और उसकी परिधि यानी उपनिवेशित क्षेत्रों के बीच के रिश्तों को आमूलचूल बदल दिया। उपनिवेशित समाजों में और गहरी पैठ के अवसरों का लाभ उठा कर उद्योगपतियों और उनके व्यापारिक सहयोगियों ने गुलाम जनता श्रम का भीषण दोहन शुरू किया। अटलांटिक के आर-पार होने वाला ग़ुलामों का व्यापार भी उनके काम आया। उपनिवेशों के प्राकृतिक और मानवीय संसाधनों के शोषण से औद्योगिक क्रांति को छलांग लगा कर आगे बढ़ने की सुविधा मिली। उपनिवेश इस क्रांति के लिए कच्चे माल के सस्ते स्रोत बन गये।
मार्क्सवादी परिप्रेक्ष्य को आलोचना का भी सामना करना पड़ा है। आलोचकों का कहना है कि मार्क्स, रोज़ा और लेनिन ने अपनी थीसिस के पक्ष में जो प्रमाण पेश किये हैं वे पर्याप्त नहीं हैं, क्योंकि उनसे औद्योगिक क्रांति व पूँजीवाद के विकास के लिए उपनिवेशवाद की अनिवार्यता साबित नहीं होती। दूसरे, मार्क्सवादी विश्लेषण के पास उपनिवेशित समाजों का पर्याप्त अध्ययन और समझ मौजूद नहीं है। मार्क्स जिस एशियाई उत्पादन प्रणाली की चर्चा करते हैं और रोज़ा जिस की श्रेणियों को एशियाई समाजों पर आरोपित करती हैं, उन्हें इन समाजों के इतिहास के गहन अध्ययन के आधार पर बहुत दूर तक नहीं खींचा जा सकता।
2. विलियम पॉमरॉय अमेरिकन इंटरनैशनल पब्लिशर्स, न्यूयॉर्क.
3. जॉन जी. टेलर (2000), ‘कोलोनियलिज़म’, संकलित : टॉम बॉटमोर वग़ैरह (सम्पा.), अ डिक्शनरी ऑफ़ मार्क्सिस्ट थॉट, माया ब्लैकवेल, नयी दिल्ली.
4. मार्क फ़ेरो (1997), कोलोनाइज़ेशन : अ ग्लोबल हिस्ट्री, रॉटलेज, लंदन.
5. युरगन (1997), कोलोनियलिज़म, वाइनर, प्रिंसटन, एनजे.
इतिहास में प्राय: पन्द्रहवीँ शताब्दी से लेकर बीसवीं शताब्दी तक उपनिवेशवाद का काल रहा। इस काल में युरोप के लोगों ने विश्व के विभिन्न भागों में उपनिवेश बनाये। इस काल में उपनिवेशवाद में विश्वास के मुख्य कारण थे -
- लाभ कमाने की लालसा
- मातृदेश की शक्ति बढ़ाना
- मातृदेश में सजा से बचना
- स्थानीय लोगों का धर्म बदलवाकर उन्हें उपनिवेशी के धर्म में शामिल करना
उपनिवेश, मातृदेश के साम्राज्य का भाग होता था; अत: उपनिवेशवाद का साम्राज्यवाद से घनिष्ट सम्बन्ध है।
अनुक्रम
परिचय
लैटिन भाषा के शब्द 'कोलोनिया' का मतलब है एक ऐसी जायदाद जिसे योजनाबद्ध ढंग से विदेशियों के बीच कायम किया गया हो। भूमध्यसागरीय क्षेत्र और मध्ययुगीन युरोप में इस तरह का उपनिवेशीकरण एक आम परिघटना थी। इसका उदाहरण मध्ययुग और आधुनिक युग की शुरुआती अवधि में इंग्लैण्ड की हुकूमत द्वारा वेल्स और आयरलैण्ड को उपनिवेश बनाने के रूप में दिया जाता है। लेकिन, जिस आधुनिक उपनिवेशवाद की यहाँ चर्चा की जा रही है उसका मतलब है युरोपीय और अमेरिकी ताकतों द्वारा ग़ैर-पश्चिमी संस्कृतियों और राष्ट्रों पर ज़बरन कब्ज़ा करके वहाँ के राज-काज, प्रशासन, पर्यावरण, पारिस्थितिकी, भाषा, धर्म, व्यवस्था और जीवन-शैली पर अपने विजातीय मूल्यों और संरचनाओं को थोपने की दीर्घकालीन प्रक्रिया। इस तरह के उपनिवेशवाद का एक स्रोत कोलम्बस और वास्कोडिगामा की यात्राओं को भी माना जाता है। उपनिवेशवाद के इतिहासकारों ने पन्द्रहवीं सदी युरोपीय शक्तियों द्वारा किये साम्राज्यवादी विस्तार की परिघटना के विकास की शिनाख्त अट्ठारहवीं और उन्नीसवीं सदी में उपनिवेशवाद के रूप में की है। औद्योगिक क्रांति से पैदा हुए हालात ने उपनिवेशवादी दोहन को अपने चरम पर पहुँचाया। यह सिलसिला बीसवीं सदी के मध्य तक चला जब वि-उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया के तहत राष्ट्रीय मुक्ति संग्रामों और क्रांतियों की लहर ने इसका अंत कर दिया। इस परिघटना की वैचारिक जड़ें वणिकवादी पूँजीवाद के विस्तार और उसके साथ-साथ विकसित हुई उदारतावादी व्यक्तिवाद की विचारधारा में देखी जा सकती हैं। किसी दूसरी धरती को अपना उपनिवेश बना लेने और स्वामित्व के भूखे व्यक्तिवाद में एक ही तरह की मूल प्रवृत्तियाँ निहित होती हैं। नस्लवाद, युरोकेंद्रीयता और विदेशी-द्वेष जैसी विकृतियाँ उपनिवेशवाद की ही देन हैं।उपनिवेशवाद साम्राज्यवाद होते हुए भी काफ़ी-कुछ परस्परव्यापी और परस्पर-निर्भर पद हैं। साम्राज्यवाद के लिए ज़रूरी नहीं है कि किसी देश पर कब्ज़ा किया जाए और वहाँ कब्ज़ा करने वाले अपने लोगों को भेज कर अपना प्रशासन कायम करें। इसके बिना भी साम्राज्यवादी केंद्र के प्रति अधीनस्थता के संबंध कायम किये जा सकते हैं। पर, उपनिवेशवाद के लिए ज़रूरी है कि विजित देश में अपनी कॉलोनी बसायी जाए, आक्रामक की विजितों बहुसंख्या प्रत्यक्ष के ज़रिये ख़ुद को श्रेष्ठ मानते हुए अपने कानून और फ़ैसले आरोपित करें। ऐसा करने के लिए साम्राज्यवादी विस्तार को एक ख़ास विचारधारा का तर्क हासिल करना आवश्यक था। यह भूमिका सत्रहवीं सदी में प्रतिपादित जॉन लॉक के दर्शन ने निभायी। लॉक की स्थापनाओं में ब्रिटेन द्वारा भेजे गये अधिवासियों द्वारा अमेरिका की धरती पर कब्ज़ा कर लेने की कार्रवाई को न्यायसंगत ठहराने की दलीलें मौजूद थीं। उनकी रचना 'टू ट्रीटाइज़ ऑन सिविल गवर्नमेंट' (1690) की दूसरी थीसिस ‘प्रकृत अवस्था’ में व्यक्ति द्वारा अपने अधिकारों की दावेदारी के बारे में है। वे ऐसी जगहों पर नागरिक शासन स्थापित करने और व्यक्तिगत प्रयास द्वारा हथियायी गयी सम्पदा को अपने लाभ के लिए विकसित करने को जायज़ करार देते हैं। यही थीसिस आगे चल कर धरती के असमान स्वामित्व को उचित मानने का आधार बनी। लॉक की मान्यता थी कि अमेरिका में अनाप-शनाप ज़मीन बेकार पड़ी हुई है और वहाँ के मूलवासी यानी इण्डियन इस धरती का सदुपयोग करने की योग्यता से वंचित हैं। लॉक ने हिसाब लगाया कि युरोप की एक एकड़ ज़मीन अगर अपने स्वामी को पाँच शिलिंग प्रति वर्ष का मुनाफ़ा देती है, तो उसके मुकाबले अमेरिकी की ज़मीन से उस पर बसे इण्डियन को होने वाला कुल मुनाफ़ा एक पेनी से भी बहुत कम है। चूँकि अमेरिकी इण्डियन बाकी मानवता में प्रचलित धन-आधारित विनिमय-प्रणाली अपनाने में नाकाम रहे हैं, इसलिए ‘सम्पत्ति के अधिकार’ के मुताबिक उनकी धरती को अधिग्रहीत करके उस पर मानवीय श्रम का निवेश किया जाना चाहिए। लॉक की इसी थीसिस में एशियाई और अमेरिकी महाद्वीप की सभ्यता और संस्कृति पर युरोपीय श्रेष्ठता की ग्रंथि के बीज थे जिसके आधार पर आगे चल कर उपनिवेशवादी संरचनाओं का शीराज़ा खड़ा किया गया।
उपनिवेशों मुख्यतः दो किस्में थीं। एक तरफ अमेरिका, आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैण्ड जैसे थे जिनकी जलवायु युरोपियनों के लिए सुविधाजनक थी। इन इलाकों में सफ़ेद चमड़ी के लोग बहुत बड़े पैमाने पर बसाये गये। उन्होंने वहाँ की स्थानीय आबादी के संहार और दमन की भीषण परियोजनाएँ चला कर वहाँ न केवल पूरी तरह अपना कब्ज़ा जमा लिया, बल्कि वे देश उनके अपने ‘स्वदेश’ में बदल गये। जन-संहार से बच गयी देशज जनता को उन्होंने अलग-थलग पड़े इलाकों में धकेल दिया। दूसरी तरफ़ वे उपनिवेश थे जिनका हवा-पानी युरोपीयनों के लिए प्रतिकूल था (जैसे भारत और नाइजीरिया)। इन देशों पर कब्ज़ा करने के बाद युरोपियन थोड़ी संख्या में ही वहाँ बसे और मुख्यतः आर्थिक शोषण और दोहन के लिए उन धरतियों का इस्तेमाल किया। न्यू इंग्लैण्ड सरीखे थोड़े-बहुत ऐसे उपनिवेश भी थे जिनकी स्थापना युरोपीय इसाइयों ने धार्मिक आज़ादी की खोज में की।
उपनिवेशीकरण का इतिहास
उपनिवेशवाद का इतिहास साम्राज्यवाद के इतिहास के साथ अनिवार्य रूप से जुड़ा हुआ है। सन् 1500 के आसपास स्पेन, पुर्तगाल, ब्रिटेन, फ़्रांस और हालैण्ड की विस्तारवादी कार्रवाइयों को युरोपीय साम्राज्यवाद का पहला दौर माना जाता है। इसका दूसरा दौर 1870 के आसपास शुरू हुआ जब मुख्य तौर पर ब्रिटेन साम्राज्यवादी विस्तार के शीर्ष पर था। अगली सदी में जर्मनी और संयुक्त राज्य अमेरिका उसके प्रतियोगी के तौर पर उभरे। इन ताकतों ने दुनिया के विभिन्न हिस्सों में जीत हासिल करके अपने उपनिवेश कायम करने के ज़रिये शक्ति, प्रतिष्ठा, सामरिक लाभ, सस्ता श्रम, प्राकृतिक संसाधन और नये बाज़ार हासिल किये। साम्राज्यवादी विजेताओं ने अपने अधिवासियों को एशिया और अफ़्रीका में फैले उपनिवेशों में बसाया और मिशनरियों को भेज कर ईसाइयत का प्रसार किया। ब्रिटेन के साथ फ़्रांस, जापान और अमेरिका की साम्राज्यवादी होड़ के तहत उपनिवेशों की स्थापना दुनिया के पैमाने पर प्रतिष्ठा और आर्थिक लाभ का स्रोत बन गया। यही वह दौर था जब युरोपियनों ने अपनी सांस्कृतिक श्रेष्ठता के दम्भ के तहत साम्राज्यवादी विस्तार को एक सभ्यता के वाहक के तौर पर देखना शुरू किया।जिन देशों ने उपनिवेश बनाए उनमें से प्रमुख ये हैं-
साम्राज्यवाद की दूसरी लहर ने सबसे पहले अफ़्रीका को अपना शिकार बनाया। इस महाद्वीप की हुकूमतें युरोपियन फ़ौजों के सामने आसानी से परास्त हो गयीं। बेल्जियम के लिए हेनरी स्टेनली ने कोंगो नदी घाटी पर कब्ज़ा कर लिया; फ़्रांस ने अल्जीरिया को हस्तगत करके स्वेज नहर का निर्माण किया और उसके जवाब में ब्रिटेन ने मिस्र पर कब्ज़ा करके इस नहर पर नियंत्रण कर लिया ताकि एशिया की तरफ़ जाने वाले समुद्री रास्तों पर उसका प्रभुत्व स्थापित हो सके। इसी के बाद फ़्रांस ने ट्यूनीशिया और मोरक्को को अपना उपनिवेश बनाया। इटली ने लीबिया को हड़प लिया। लातिनी और दक्षिणी अमेरिका में मुख्य तौर पर स्पेन के उपनिवेश रहे। इन क्षेत्रों की कई अर्थव्यवस्थाओं की लगाम अमेरिका और युरोपीय ताकतों के हाथों में रही।
एक तरफ उन्नीसवीं में अफ्रीका के लिए साम्राज्यवादी होड़ चल रही थी, तो दूसरी ओर दक्षिण एशिया पर प्रभुत्व ज़माने की प्रतियोगिता भी जारी थी। उन्नीसवीं सदी के मध्य तक ब्रिटेन ईस्ट इण्डिया कम्पनी के ज़रिये भारत के बड़े हिस्से का उपनिवेशीकरण करके बेशकीमती मसालों और कच्चे माल की प्राप्ति शुरू कर चुका था। फ़्रांसीसी और डच भी उपनिवेशवादी प्रतियोगिता में जम कर हिस्सा ले रहे थे। उपनिवेशवाद के विकास में औद्योगिक क्रांति की भी अहम रही। अट्ठारहवीं शताब्दी के अन्तिम अवधि में हुई इस क्रांति ने उपनिवेशवाद के केंद्र यानी ब्रिटेन और उसकी परिधि यानी उपनिवेशित क्षेत्रों के बीच के रिश्तों को आमूलचूल बदल दिया। उपनिवेशित समाजों में और गहरी पैठ के अवसरों का लाभ उठा कर उद्योगपतियों और उनके व्यापारिक सहयोगियों ने गुलाम जनता श्रम का भीषण दोहन शुरू किया। अटलांटिक के आर-पार होने वाला ग़ुलामों का व्यापार भी उनके काम आया। उपनिवेशों के प्राकृतिक और मानवीय संसाधनों के शोषण से औद्योगिक क्रांति को छलांग लगा कर आगे बढ़ने की सुविधा मिली। उपनिवेश इस क्रांति के लिए कच्चे माल के सस्ते स्रोत बन गये।
उपनिवेशवाद की व्याख्या
उपनिवेशवाद की मार्क्सवादी व्याख्याएँ भी यह दावा करती कि उन्नीसवीं सदी की अमेरिकी और युरोपियन औद्योगिक पूँजीवादी अर्थव्यवस्थाओं के विकास के लिए ग़ैर-पूँजीवादी समाजों का प्रत्यक्ष राजनीतिक नियंत्रण आवश्यक था। इस लिहाज़ से मार्क्सवादी विद्वान पूँजीवाद के उभार के पहले और बाद के उपनिवेशवाद के बीच फ़र्क करते हैं। मार्क्स ने अपनी भारत संबंधी रचनाओं में उपनिवेशवाद पर ख़ास तौर से विचार किया है। मार्क्स और एंगेल्स का विचार था कि उपनिवेशों पर नियंत्रण करना न केवल बाज़ारों और कच्चे माल के स्रोतों को हथियाने के लिए ज़रूरी था, बल्कि प्रतिद्वंद्वी औद्योगिक देशों से होड़ में आगे निकलने के लिए भी आवश्यक था। उपनिवेशवाद संबंधी मार्क्सवादी विचारों को आगे विकसित करने का श्रेय रोज़ा लक्ज़ेमबर्ग और लेनिन को जाता है।मार्क्सवादी परिप्रेक्ष्य को आलोचना का भी सामना करना पड़ा है। आलोचकों का कहना है कि मार्क्स, रोज़ा और लेनिन ने अपनी थीसिस के पक्ष में जो प्रमाण पेश किये हैं वे पर्याप्त नहीं हैं, क्योंकि उनसे औद्योगिक क्रांति व पूँजीवाद के विकास के लिए उपनिवेशवाद की अनिवार्यता साबित नहीं होती। दूसरे, मार्क्सवादी विश्लेषण के पास उपनिवेशित समाजों का पर्याप्त अध्ययन और समझ मौजूद नहीं है। मार्क्स जिस एशियाई उत्पादन प्रणाली की चर्चा करते हैं और रोज़ा जिस की श्रेणियों को एशियाई समाजों पर आरोपित करती हैं, उन्हें इन समाजों के इतिहास के गहन अध्ययन के आधार पर बहुत दूर तक नहीं खींचा जा सकता।
उपनिवेशों का अन्त
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद उपनिवेशवाद का प्रभाव तेज़ी से घटा। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि अक्टूबर क्रांति के पश्चात ही औपनिवेशिक प्रणाली दरकने की शुरुआत हो गयी थी। 1945 के बाद स्पष्ट हो गया कि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय पर उपनिवेशवाद विरोधी रुझान हावी हो चुके हैं। अमेरिका और सोवियत संघ ने इस दौर में पुराने किस्म के उपनिवेशवाद का जम कर विरोध किया और आत्म-निर्णय के सिद्धान्त का पक्ष लिया। युरोप की हालत इस समय तक बेहद कमजोर हो गयी थी। वह दूर-दराज़ में फैले हुए उपनिवेशों की आर्थिक लागत उठाने की हालत में नहीं था। नवगठित संयुक्त राष्ट्र संघ उपनिवेशों में चल रहे राष्ट्रवादी आंदोलनों के प्रभाव में वि-उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया को प्रोत्साहित कर रहा था। नतीजे के तौर पर 1947 से 1980 के बीच में ब्रिटेन को क्रमशः भारत, बर्मा, घाना, मलाया और ज़िम्बाब्वे का कब्ज़ा छोड़ना पड़ा। इसी सिलसिले में आगे डच साम्राज्यवादियों को 1949 में इण्डोनेशिया से जाना पड़ा और अफ़्रीका में आख़िरी औपनिवेशिक ताकत के रूप में पुर्तगाल ने अपने उपनिवेशों को 1974-75 में आज़ाद कर दिया। 1954 में इंडो-चीन क्षेत्र और 1962 में अल्जीरिया के रक्तरंजित संघर्ष के सामने फ़्रांस को घुटने टेकने पड़े। साठ के दशक में ही भारत के प्रांत गोवा से पुर्तगाल ने अपना बोरिया-बिस्तर समेट लिया।संदर्भ
1. एरिक (1987), द ऑफ़ 1875-1914, वीडनफ़ील्ड ऐंड निकल्सन, लंदन.2. विलियम पॉमरॉय अमेरिकन इंटरनैशनल पब्लिशर्स, न्यूयॉर्क.
3. जॉन जी. टेलर (2000), ‘कोलोनियलिज़म’, संकलित : टॉम बॉटमोर वग़ैरह (सम्पा.), अ डिक्शनरी ऑफ़ मार्क्सिस्ट थॉट, माया ब्लैकवेल, नयी दिल्ली.
4. मार्क फ़ेरो (1997), कोलोनाइज़ेशन : अ ग्लोबल हिस्ट्री, रॉटलेज, लंदन.
5. युरगन (1997), कोलोनियलिज़म, वाइनर, प्रिंसटन, एनजे.
इन्हें भी देखें
- गुलामी
- साम्राज्यवाद
- भाषाई साम्राज्यवाद
- सांस्कृतिक साम्राज्यवाद
- कुली * गिरमिटिया
- आत्म-निर्णय
- यूरोकेंद्रीयता
- वि-उपनिवेशवाद
बाहरी कड़ियाँ
- साहित्य पर औपनिवेशिक साया ! (ताप्तीलोक)
- Effects of Colonization on Indian Thought
- Liberal opposition to colonialism, imperialism and empire (pdf) - by professor Daniel Klein
- Globalization (and the metaphysics of control in a free market world) - an online video on globalization, colonialism, and control.
- आजाद तन गुलाम मन (भारतीय पक्ष)
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