बुधवार, 8 दिसंबर 2021

मुरुगन Vs अफ्रीकन मुरुंगु


पूर्वी अफ्रीका खास कर केन्या, तंजानिया, जिम्बाब्वे, सूडान, उगांडा, इथियोपिया आदि में एक बहुत ही     भगवान है मने उनके क्रियेटर, प्रोटेक्टर, पालनकर्ता आदि सब। और उनका नाम क्या है मालूम है? तो उनका नाम है ‘मुरुंगु (Murungu)’! इंटरेस्टिंग न ! इन्हें मुलुंगु (Mulungu) भी कहते।

. इससे पहले भी बता चुके कि ‘जहाँ कहीं भी पहाड़ी (Hillock) होगा, भगवान मुरुगन वहाँ जरूर मिलेंगे!’ और यहाँ भी भगवान मुरुंगु पहाड़ी में ही मिलते हैं। इन्हें पहाड़ का देवता बोलते हैं जो सबकी निगरानी करता है व रखवाली। है न इंटरेस्टिंग।


पूर्वी अफ्रीका के करीब 25 ऐसे एथनिक ग्रुप्स हैं जिनके भगवान मुरुंगु है जो पहाड़ पर विराजमान होते हैं। जिसमें से किकियू(Kikiyu) ट्राइब प्रमुख है। भगवान मुरुंगु के नाम से यहां के लोग अपना सरनेम मुरुंगु/मुरुकु लगाते हैं। लगभग पूरे पूर्वी अफ्रीका में मिलेंगे ये सरनेम।


एक मान्यता के अनुसार Gikiyu जो आदि पुरूष हैं यहाँ के वे भगवान मुरुंगु के साथ साक्षात थे। Gikuyu को भगवान मुरुंगु ‘माउंट केन्या’ ले के आये। यहीं वो एक स्त्री का भी निर्माण किये जिनका नाम था ‘मुम्बी(Mumbi)’ .. और मुम्बी के साथ इनका विवाह कराये।

अब मुम्बी बड़ा इंटरेस्टिंग नाम हो गया न?! (मुंबा देवी) .. तो Gikuyu और Mumbi अफ्रीका के लिए आदिपुरुष व आदिनारी हुए। इन्हीं से आगे वंश बढ़ा। भगवान मुरुंगु माउंट केन्या से दोनों को आशीर्वाद देते कि “हे पुत्र पुत्री! जाओ इस जमीन में राज करो और भावी पीढ़ी का निर्माण.. आज से ये तुम्हारा हुआ!”


तब से प्रत्येक वर्ष भगवान मुरुंगु को माउंट केन्या में जरूर पूजा जाता है व याद किया जाता है।


लेकिन जैसा कि मालूम है कि हलेलुइया कहाँ नहीं पहुँच गए हैं.. आज यहाँ की आबादी का 70% हिस्सा हलेलुइया बन चुका है। … अब बड़े इंटरेस्टिंग की बात है कि यहाँ भी जीसस को मुरुंगु के विभिन्न रूपों में दर्शाया जाता है और बोला जाता कि जीसस ही मुरुंगु है जैसा कि दक्षिण भारत में जीसस बाबा भगवान मुरुगन का भेष धर चुके हैं।


और एक इंटरेस्टिंग बात! जिस तरह से माउंट अरारात, माउंट फूजी, और श्रीलंका का एडम पीक एडम के नाम हो गया .. ‘रामसेतु’ एडम ब्रीज हो गया वैसे ही माउंट केन्या ‘ माउंट एडम’! हो गया.. च्या माइला रे!! .. बोला जाता कि आदम बाबा इसी पहाड़ी पे अपना कदम रखे थे और अफ्रीका में जीवन की शुरुआत किये थे। ताले झोपड़ी के।.. कनवर्टेड लोग तो मानने भी लगे।

लेकिन जो ओरिजनल लोग हैं वे अब भी भगवान मुरुंगु को ही पूजा करते हैं।

✍🏻गंगा महतो, खोपोली से


कार्त्तिकेय

१. सुब्रह्मण्य-

सम्पूर्ण विश्व ही ब्रह्म है। चेतन रूप में पुरुष है। अव्यक्त स्रोत के ४ भाग में १ ही भाग जगत् रूप में बना। १ भाग पुरुष है तथा ४ भाग का मूल स्रोत बड़ा होने के कारण पूरुष है। निर्मित विश्व के अलग अलग पिण्ड विराट् (प्रकाशित, दृश्य) विश्व हैं, उनका अधिष्ठान (स्रोत पदार्थ क्षेत्र, आकर्षण बलों द्वारा उसकी स्थिति) बडा होने से पूरुष है।

ए॒तावा॑नस्य महि॒मातो॒ ज्यायाँश्च॒ पूरु॑षः। 

पादो॑ऽस्य॒ विश्वा॑ भू॒तानि॑ त्रि॒पाद॑स्या॒मृत॑न्दि॒वि॥३॥

ततो॒ वि॒राड॑जायत वि॒राजो॒‍ऽअधि॒पूरु॑षः। 

स जा॒तो ऽअत्य॑रिच्यत प॒श्चाद् भूमि॒मथो॑ पु॒रः॥५॥

(पुरुष सूक्त, वाज.यजु, ३१/३,५)

इसमें अलग अलग रचनायें विभिन्न स्तरों पर कणों का समूह या गण है। अतः प्रत्यक्ष विश्व के हर रूप को गणपत्यथर्वशीर्ष में गणेश या गणपति कहा है। 

ॐ नमस्ते गणपतये। त्वमेव प्रत्यक्षं तत्त्वमसि। --- त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासि॥१॥ त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्मा असि॥४॥ (गणपत्यथर्वशीर्ष)

अलग अलग कण ब्रह्म रूप हैं। वे जब स्वेद से मिले हुए दीखते हैं, तो वे सुब्रह्म हो जाते हैं। स्वेद का अर्थ पिण्ड से निकलता जल विन्दु है, जैसे मनुष्य शरीर से पसीना निकलता है। कण बहुत निकट होने से उनके बीच का अन्तर नहीं दीखता है और वे मिले हुए लगते हैं। यह सुब्रह्म है। आकाश में एक दिशा में दीखते हुए तारा गणों को हम काल्पनिक रेखा से मिला कर देखते हैं तो वह नक्षत्र आकार रूप में दीखते हैं, जैसे-मेष (भेड़), वृष (बैल) आदि। सूक्ष्मदर्शी यन्त्र से देखने पर परमाणु भी खाली है, अणुओं के समूह के बीच भी जगह खाली है। पर उनके बीच का खाली स्थान बहुत छोटा होने के कारण मिला हुआ लगता है। कम्प्यूटर के प्रिण्टर से भी विन्दुओं का समूह प्रिण्ट होता है। वह रेखा सेबना अक्षर दीखता है। यह सुब्रह्म रूप विश्व या ब्रह्म ही सुब्रह्मण्य है। 

ॐ ब्रह्म ह वा इदमग्र आसीत् स्वयं त्वेकमेव तदैक्षत महद्वै यक्षं तदेकमेवास्मि हन्ताहं मदेव मन्मात्रं द्वितीयं देवं निर्मम इति। तदभ्यश्राम्यदभ्यतपत् समतपत् तस्य श्रान्तस्य तप्तस्य संतप्तस्य ललाटे स्नेहो यदार्द्र्यमाजायत तेनानन्दत्। तमब्रवीत् महद्वै यक्षं सुवेदमविदामह इति। तद्यदब्रवीत् महद्वै यक्षं सुवेदमविदामह इति तस्मात् सुवेदोऽभवत्तं वा एतं सुवेदं सन्तं स्वेद इत्याचक्षते । परोक्षेण परोक्षप्रिया इव हि देवा भवन्ति प्रत्यक्षद्विषः॥ (गोपथ ब्राह्मण, पूर्व, १/१)

२. स्कन्द रूप-

सृष्टि का मूल बहुत विरल शून्य-प्राय रस था। उसे परम व्योम भी कहा है, या सृष्टि का प्रथम रूप आकाश महाभूत था।

रसो वै सः (तैत्तिरीय उपनिषद्, २/७/२)

ब्रह्मायं वाचः परमं व्योम॥३४॥

ऋचो अक्षरे परमे व्योमन्॥३९॥

सहस्राक्षरा परमे व्योमन्॥४१॥ (अस्य वामीय सूक्त, ऋक्, १/१६४)

तस्माद् वा एतस्माद् आत्मन आकाशः सम्भूतः। आकाशाद् वायुः। वायोरग्निः। अग्नेरापः। अद्भ्यः पृथिवी। पृथिव्या ओषधयः। ओषधीभ्योऽ अन्नम्। अन्नात् पुरुषः। (तैत्तिरीय उपनिषद्, २/१/३)

व्योम से ५ स्तर की अग्नि हुई। अग्नि का सामान्य लौकिक अर्थ आग है, जो ताप का घना रूप है। पदार्थ कणों का भी घना रूप अग्नि है। गुरुत्व आकर्णण तथा अन्य बलों (सुपर्ण रूप में ऋषि अङ्ग) के कारण बहुत बड़े बादल जैसी रचनायें बनीं, जिनको द्रप्स (अंग्रेजी में drops) कहा गया। यह पिण्ड रूप में ब्रह्माण्ड (ब्रह्म का एक अण्डाकार कण, galaxy) बने। ब्रह्माण्डों का समूह प्रथम अग्नि हुआ। यह मूल रस रूप समुद्र से अलग (स्कन्न) हुआ, अतः इसे स्कन्द कहा गया। द्रप्स के कारण रस समुद्र तरंग जैसा (सलिल) हुआ, उसमें द्रप्स का आकार सरिर् (शरीर) हुआ। ब्रह्माण्ड के द्रप्स में कणों का विस्तार अप् (जल जैसा) समुद्र हुआ। उनमें द्वितीय स्तर की अग्नि होने से उनकी गति या कम्पन हुआ। कम्पन या शब्द सहित अप् को अम्भ कहते हैं। उसका ताराओं के बीच का शान्त क्षेत्र साम्भ (साम्ब) सदाशिव है (शिव = शान्त)। द्वितीय अग्नि रूप में तारा स्कन्न या अलग हुए। तारा के गुरुत्व क्षेत्र का घना पदार्थ केन्द्रीय तारा तृतीय स्कन्द या अग्नि है। तारा क्षेत्र में ग्रह पिण्डों का निर्माण चतुर्थ अग्नि और स्कन्न हुआ। उसके भीतर ठोस चट्टानी ग्रह जैसे पृथ्वी पञ्चम अग्नि अलग या स्कन्न हुआ। 

आपो ह वाऽइदमग्रे सलिलमेवास। (शतपथ ब्राह्मण, ११/१/६/१) 

विभ्राजमानः सरिरस्य मध्य उप प्र याहि दिव्यानि धाम ।(वा. यजु. १५/५२)

आपो वै सरिरम्। (शतपथ ब्राह्मण, ७/५/२/१८) 

इमे वै लोकाः सरिरम् । (शतपथ ब्राह्मण, ७/५/२/३४, ८/६/३/२१) 

आापो वा अम्बयः । (कौषीतकि ब्राह्मण उपनिषद्, १२/२)

अयं वै लोकोऽम्भांसि (तैत्तिरीय ब्राह्मण, ३/८/१८/१)

अम्भो मरीचीर्मरमापोऽदोऽम्भः परेण दिवं द्यौः प्रतिष्ठान्तरिक्षं मरीचयः पृथिवी मरो या अधस्तात्ता आपः । (ऐतरेय उपनिषद्, १/१/२)

इन्द्रः (शून्य में फैला तेज) पञ्च क्षितीनाम् (ऋक्, १/७/९)

अमी ये पञ्चोक्षणो मध्ये तस्थुर्महो दिवः (ऋक्, १/१०५/१)-कुछ लोग इसका अर्थ ५ तारा ग्रह करते हैं। यह ५ स्तर के दृश्य पिण्डों का केन्द्र या स्रोत कर्त्ता ब्रह्म का निर्देश करता है।

यस्य विश्वानि हस्तयोः पञ्च क्षितीनां वसु (ऋक्, १/१७६/३)

पञ्चाग्नयो ये च त्रिणाचिकेताः (कठोपनिषद्, १/३/१)

एष द्रप्सो वृषभो विश्वरूपो इन्द्राय विष्णे समकारि सोमः (ऋक्, ६/४१/३)

अव सिन्धुं वरुणो द्यौरिव स्थाद् द्रप्सो न श्वेतो मृगस्तु विष्मान् (ऋक्, ७/८७/६)

द्रप्सश्चस्कन्द प्रथमाँ अनु द्यूनिमं च योनिमनु यश्च पूर्वः॥ (ऋक्, १०/१७/११, वाज. यजु, १३/५)

यस्ते द्रप्सः स्कन्दति॥१२॥ (ऋक्, १०/१७/१२)

३. कुमार सर्ग-

वेद में मनुष्य के ७ पुरुष तक पिण्ड सम्बन्ध की तरह सृष्टि के ७ लोक और ७ सर्ग कहे गये हैं। इनको अग्नि की जिह्वा भी कहा है जिससे ७ प्राण, ७ लोक, ७ अर्चि, ७ समिधा, ७ होम, ७ गुहाशय आदि हैं। 

काली कराली च मनोजवा च सुलोहिता या च सुधूम्रवर्णा। 

स्फुलिङ्गिनी विश्वरुची च देवी लेलायमाना इति सप्तजिह्वाः॥(मुण्डक उपनिषद्, १/२/४)

सप्त प्राणाः प्रभवन्ति तस्मात्, सप्तार्चिषः समिधः सप्त होमाः।

सप्त इमे लोका येषु चरन्ति प्राणा गुहाशया निहिताः सप्त सप्त॥ (मुण्डक उपनिषद्, २/१/८)

आकाश में अव्यक्त विश्व से एक के बाद एक क्रमशः ७ लोक होते हैं। इनमें ५ मण्डल अर्थात् प्रायः गोल पिण्ड हैं-स्वयम्भू मण्डल (अनन्त आकाश), परमेष्ठी (सबसे बड़ी ईंट, आकाशगंगा), सौर मण्डल, चान्द्र मण्डल (चन्द्र कक्षा का गोल), भू मण्डल (पृथ्वी ग्रह), जिनको ५ अग्नि कहा गया है (५ बार घनीकरण)। इनमें सूर्य-चन्द्र-पृथ्वी का प्रत्यक्ष अनुभव होता है। यह प्रभाव मिला जुला है, अतः इसको ३ नाचिकेत (चिकेत = अलग अलग) या शिव के ३ नेत्र हैं-

ऋतं पिबन्तौ सुकृतस्य लोके, गुहां प्रविष्टौ परमे परार्धे।

छायातपौ ब्रह्मविदो वदन्ति, पञ्चाग्नयो ये च त्रिणाचिकेताः॥ (कठोपनिषद्, १/३/१)

इनमें ७ लोक हैं-सत्य, तपः (दृश्य जगत्), जनः (आकाशगंगा), महः (ब्रह्माण्ड की सर्पाकार भुजा में सूर्य केन्द्रित गोल, मोटाई बराबर व्यास), स्वः (सौर मण्डल), भुवः (ग्रह कक्षा), भू (पृथ्वी)। इनके तत्त्वों के अनुसार अग्नि के ७ रूप या विवर्त्त हैं-

१. ब्रह्माग्नि (स्वयम्भू-अग्निर्वै ब्रह्मा-शतपथ ब्राह्मण, ३/२/२/७, षड्विंश ब्राह्मण, १/१)

२. देवाग्नि (सौर)-तद् वा एनं एतद अग्रे देवानां अजनयत, तस्माद् अग्निः (शतपथ ब्राह्मण, २/२/४/२)

३. अन्नाद अग्नि-इयं (पृथिवी) वा अन्नादी (कौषीतकि ब्राह्मण, २७/५) 

४. सम्वत्सराग्नि-सम्वत्सरो वै यज्ञः प्रजापतिः (शतपथ ब्राह्मण, १/२/५/१२) सम्वत्सरः (सौर मण्डल के क्षेत्र) वै देवानां जन्म (शतपथ ब्राह्मण, ८/७/३/२)

५. कुमाराग्नि-तानि इमानि भूतानि च, भूतानां च पतिः, सम्वत्सरे उषसि रेतो असञ्चत्। सम्वत्सरे कुमारो अजायत। सो अरोदीत्, तस्मात् रुद्रः। (शतपथ ब्राह्मण, ६/१/३/८-१०)

६. चित्राग्निः (विविध रूप)-अग्निर्वै रुद्रः, आपो वै सर्वः, ओषधय वै पशुपतिः, वायुर्वा उग्रः, विद्युत् वा अशनिः, तानि एतानि अष्टौ अग्नि रूपाणि। कुमारो नवमः। --- सो अयं कुमारो रूपानि अनुप्राविशत्। तस्य चितस्य (चिति, रूप) नाम करोति। चित्र नामानं करोति...सर्वाणिहि चित्राणि अग्निः। (शतपथ ब्राह्मण, ६/१/३) चित्राणि साकं दिवि रोचनानि (अथर्व, १९/७/१) चित्रं देवानां उद् अगाद् अनीकं (ऋक्, १/११५/१, अथर्व, १३/२/३५, वाजसनेयि, ७/४२)

७. पाशुकाग्निः-जीव सृष्टि-स यो अयं कुमारो रूपाणि अनुप्रविष्ट आसीत्, तं अन्वैच्छत।... स एतान् पञ्च पशून् अपश्यत्-पुरुषं, अश्वं, गां, अविं अजम्। यद् अपश्यत्, तस्मात् एते पशवः। .. इमे वा अग्निः (शतपथ ब्राह्मण, ६/१/४/१-४)॥

पुराण में ९ सृष्टि चक्रों के अनुसार ९ सर्ग तथा उनके ९ कालमान हैं। इनमें अन्तिम को कुमार सर्ग कहा है (विष्णु पुराण, १/५/१९-२५)-

३ प्राकृत सर्ग-१. महत्, २. तन्मात्रा, ३. वैकारिक। 

५ वैकृत सर्ग-४. मुख्य, ५. तिर्यक्, ६. ऊर्ध्व (देव सर्ग), ७. अर्वाक् (मनुष्य), ८. अनुग्रह।

एक प्राकृत-वैकृत- ९-कुमार सर्ग।

यहां प्राकृत सर्ग को ३ भाग में विभक्त करने से ९ सर्ग हुए। भागवत पुराण (अध्याय ३/१०) में अव्यक्त को मिला कर १० सर्ग कहे हैं।  

९ प्रकार के कालमान हैं-

ब्राह्मं पित्र्यं तथा दिव्यं प्राजापत्यं च गौरवम्। 

सौरं सावनं चान्द्रमार्क्षं मानानि वै नव॥ (सूर्य सिद्धान्त, १४/१) 

बड़े मान से आरम्भ कर इनका क्रम है-ब्राह्म, प्राजापत्य, दिव्य, गुरु, चान्द्र, सौर, सावन, नाक्षत्र। 

ब्राह्म-दृश्य जगत् की सीमा। प्राजापत्य-ब्रह्माण्ड का अक्ष भ्रमण। दिव्य-सौर मण्डल की नक्षत्र कक्षा। गुरु-गुरु ग्रह की कक्षा। चान्द्र-चन्द्र परिक्रमा के बराबर दिन। सौर-सूर्य का प्रत्यक्ष भ्रमण, १० अंश काल १ दिन, आदि। सावन-पृथ्वी का अक्ष-भ्रमण तथा १ दिन की सौर गति का योग। नाक्षत्र-पृथ्वी का अक्ष-भ्रमण।

४. षण्मुख-

मुख के अर्थ हैं-स्रोत, दिशा, आयाम आदि।

ब्रह्मा के ४, शिव के ५ तथा कार्त्तिकेय के ६ मुख हैं। 

यह १० आयाम के विश्व के आयाम रूप हैं-०-विन्दु, १-रेखा, २-पृष्ठ या सतह, ३-आयतन, आयु। ४- पदार्थ (चतुर्मुख ब्रह्मा)-पदार्थ रूप विश्व का स्रष्टा। आइन्स्टाईन के सापेक्षवाद में इसे प्रथम ३ आयामों के विश्व की वक्रता माना गया है। ५-काल (पञ्चमुखी शिव)-वृद्धि, क्षय, संहार आदि। ६-पुरुष, इससे चयन या चिति। ७ ऋषि। ८-नाग या वृत्र। ९ -नन्द या रन्ध्र।१०-रस या आनन्द।

कालात् स्रवन्ति भूतानि कालाद् वृद्धिं प्रयान्ति च।

काले चास्तं नियच्छन्ति कालो मूर्त्तिरमूर्त्तिमान्॥

(मैत्रायणी आरण्यक, ६/१४)

पुरुष एव षष्टमहः (कौषीतकि ब्राह्मण, २३/४) तद्यत् पञ्च चितीश्चिनोत्येताभिरेवैनं तत्तनूभिश्चिनोति यच्चिनोति तस्माच्चितयः। (शतपथ ब्राह्मण, ६/१/२/१७), चित्वा चित्यं हन्वोः पूरुषस्य (अथर्व, १०/२/८)

सप्त इमे लोका येषु चरन्ति प्राणाः (मुण्डक उप, २/१/८)

सीमा में घेरने वाला वृत्र-वृत्रो ह वा इदं सर्वं वृत्वा शिष्ये---- तस्माद् वृत्रो नाम। (शतपथ ब्राह्मण, १/१/३/४)

नवम तत्त्व से नयी सृष्टि-नवो नवो भवति जायमानः अह्ना केतु रूपं मामेत्याम्। (ऋक्, १०/८५/१९)

रस या आनन्द से सृष्टि-यद्वै तत् सुकृतं रसो वै सः। रसं ह्येवाय लब्ध्वा आनन्दी भवति। (तैत्तिरीय उपनिषद्, २/७/२)

पुरुष विष्णु द्वारा चिति होने के क्रम में सभी पिण्ड मूल अप् से निकले जिनको स्कन्द कहा है। अतः विष्णु रूप या अवतार होने से उनके ६ मुख हैं।

५. देव सेनापति-

तारकामय संग्राम (Star wars) में देवों के सेनापति थे। आकाश में सूर्य केन्द्र से पञ्चम मंगल को कार्त्तिकेय रूप माना गया है। उसके बाद अवान्तर ग्रहों को देवसेना कहा गया है। मनुष्य रूप में पृथ्वी के देव भाग के ३ लोकों के अधिपति को इन्द्र कहते थे। १४ मुख्य इन्द्र थे, पुरुवंशी नहुष आदि भी इन्द्र पद पर कुछ दिन रहे थे। कार्त्तिकेय काल में पृथ्वी के उत्तर ध्रुव की दिशा अभिजित् नक्षत्र से दूर हट रही थी जिसे अभिजित् का पतन कहा गया है। तब इन्द्र ने कार्त्तिकेय से कहा कि वह ब्रह्मा से सलाह कर वर्ष आरम्भ का पुनः निर्धारण करें। यह महाभारत, शान्ति पर्व अध्याय ३४८-३४९ में वर्णित सप्तम ब्रह्मा अपान्तरतमा थे जो वाणी-हिरण्यगर्भ के पुत्र थे और गौतमी तट पर रहते थे। उसके बाद अभिजित् के बदले धनिष्ठा नक्षत्र से वर्ष आरम्भ हुआ। उस समय (प्रायः १५,८०० ईपू) धनिष्ठा से वर्षा आरम्भ होती थी। यह एक कारण हो सकता है कि संवत्सर को वर्ष भी कहा गया। यह वेदाङ्ग ज्योतिष की पद्धति है और उस समय माघ मास से वर्ष आरम्भ की पद्धति चल रही है। उसके पहले भी माघ मास से वर्ष आरम्भ होता था, किन्तु अभिजित् नक्षत्र से।

गर्ग संहिता (७/४०/३५) के अनुसार अपान्तरतमा ने हरिण द्वीप (मृगव्याध-मगाडास्कर) में तप किया था, अतः गरुड़ वहां गये तो उनके पंख गिर गये। ब्रह्मवैवर्त पुराण (१/२२/१८) के अनुसार भी समुद्र पार (अपान्तरतम देश) में तप करने से उनका नाम अपान्तरतमा हुआ। महाभारत शान्ति पर्व (३४९/३९-६६) में अपान्तरतमा को वाणी-हिरण्यगर्भ का पुत्र कहा है। इनके अवतार रूप में पराशर पुत्र व्यास हुए।

अभिजित् स्पर्धमाना तु रोहिण्या अनुजा स्वसा। 

इच्छन्ती ज्येष्ठतां देवी तपस्तप्तुं वनं गता॥८॥

तत्र मूढोऽस्मि भद्रं ते नक्षत्रं गगनाच्युतम्। 

कालं त्विमं परं स्कन्द ब्रह्मणा सह चिन्तय॥९॥

धनिष्ठादिस्तदा कालो ब्रह्मणा परिकल्पितः। 

रोहिणी ह्यभवत् पूर्वमेवं संख्या समाभवत्॥१०॥ 

(महाभारत, वन पर्व, २३०/८-१०)

माघशुक्ल प्रपन्नस्य पौषकृष्ण समापिनः। 

युगस्य पञ्चवर्षस्य कालज्ञानं प्रचक्षते॥५॥

स्वराक्रमेते सोमार्कौ यदा साकं सवासवौ। 

स्यात्तदादि युगं माघः तपः शुक्लोऽयनं ह्युदक्॥६॥

प्रपद्येते श्रविष्ठादौ सूर्याचन्द्रमसावुदक्। 

सार्पार्धे दक्षिणार्कस्तु माघश्रवणयोः सदा॥७॥

(ऋग् ज्योतिष, ३२, ५,६, याजुष ज्योतिष, ५-७)

कार्त्तिकेय ने ६ शक्ति-पीठ बनाये थे जिनको उनकी ६ माता कहते थे। इसी प्रकार बाद में शंकराचार्य तथा गोरखनाथ ने ४-४ पीठ बनाये। कार्त्तिकेय के पीठों के नाम और स्थान हैं-१. दुला-ओड़िशा तथा बंगाल, २. वर्षयन्ती-असम, ३. चुपुणीका-पंजाब, कश्मीर (चोपड़ा उपाधि), ४. मेघयन्ती-गुजरात राजस्थान-यहां मेघ कम हैं पर मेघानी, मेघवाल उपाधि बहुत हैं। ५. अभ्रयन्ती-महाराष्ट्र, आन्ध्र (अभ्यंकर), ६. नितत्नि-तमिलनाडु, कर्णाटक। अतः ओड़िशा में कोणार्क के निकट बहुत से दुला देवी के मन्दिर हैं। दुलाल = दुला का लाल कार्त्तिकेय। 

अत्र जुहोति अग्नये स्वाहा, कृत्तिकाभ्यः स्वाहा, अम्बायै स्वाहा, दुलायै स्वाहा, नितत्न्यै स्वाहा, अभ्रयन्त्यै स्वाहा, मेघयन्त्यै स्वाहा, चुपुणीकायै स्वाहेति। (तैत्तिरीय ब्राह्मण ३/१/४/१-९)

क्रौञ्च द्वीप (उत्तर अमेरिका) पर आक्रमण के लिए कार्त्तिकेय ने जल-स्थल सेना का गठन किया तथा पहले शक्ति (मिसाइल) से प्रहार कर क्रौञ्च पर्वत को विदीर्ण किया था। अतः उनको क्रौञ्च दारण कहते हैं। उनकी सेना जल-स्थल-वायु में चल सकती थी अतः उसे मयूर कहा गया। उसके संगठन के लिए संक्षिप्त लिपि (शॉर्ट हैण्ड) की आवश्यकता थी अतः कार्त्तिकेय ने ब्राह्मी लिपि के स्पर्श वर्गों के प्रथम ४ अक्षर समान कर तमिल लिपि बनायी। वैज्ञानिक लेखन के लिए पूर्ण गाथा लिपि चलती रही। इस क्रम में संस्कृत के २,००० धातुओं में ५० के अर्थ बदल गये। मयूर सेना के सैनिकों के वंशज आज भी प्रशान्त महासागर में माओरी नाम से फैले हुए हैं। भाषा विज्ञान का सबसे बड़ा आश्चर्य है कि हवाई द्वीप से न्यूजीलैण्ड तथा आस्ट्रेलिया तक माओरी लोगों की एक ही भाषा है, यद्यपि बीच में १५,००० किलोमीटर समुद्र है। यह कार्त्तिकेय के सैन्य संगठन का जीवित प्रमाण है।

✍🏻अरुण उपाध्याय

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