गुरुवार, 9 दिसंबर 2021

सेना पर कुछ जरूरी किताबें

 भारतीय सेना पर लिखी किताबें कम नजर आती हैं। अभी हाल में जब शेखुलर भावनाएं “उरी” नाम की फिल्म के “हाइपर नेशनलिज्म” से आहत हो गयीं तो मुझे दो किताबों की याद आई। पहली किताब है “मिशन ओवरसीज” जिसे सुशांत सिंह ने लिखा है। सुशांत सेना में करीब दो दशक तक काम कर चुके हैं और उसके बाद वो इंडियन एक्सप्रेस में सैन्य मुद्दों पर लिखते रहे हैं। इस वजह से उनकी सेना और लिखने की शैली, दोनों के मिले जुले अनुभव से ये किताब निकलती है।


मिशन ओवरसीज सुनने पर ऐसा लगता है कि ये हाल के मयन्मार या कश्मीर के सर्जिकल स्ट्राइक की बात करती होगी, लेकिन ऐसा है नहीं। ये जिन तीन अभियानों की बात करती है वो जरा पुराने हैं। पहला तो श्रीलंका में सेना भेजने और भारी नुकसान उठाने वाला मिशन पवन है। राजनैतिक मूर्खताओं की वजह से इसमें कई सैनिकों की मृत्यु हुई थी। इसे पड़ोसी देश में दूसरों का हस्तक्षेप न होने देने और श्रीलंका के टुकड़े होने से बचाए जाने के नाम पर सही ठहराया जाता है।


ऑपरेशन कैक्टस और ऑपरेशन खुखरी में भारतीय सेना को बड़ी कामयाबियां मिली थी। भारतीय सेना की ऐसी जीतों के बारे में मुख्य धारा की मीडिया में चर्चा क्यों नहीं होती, या आम लोगों को इनका नाम क्यों याद नहीं, ये सोचने लायक बात है। करीब 200 पन्नों की इस किताब को छोटी सी किताब कहा जा सकता है।


दूसरी किताब “इंडियाज मोस्ट फियरलेस” शिव अरूर और राहुल सिंह ने लिखी है। शिव अरूर एक दशक से सैन्य मुद्दों पर काम करते रहे हैं और फ़िलहाल इंडिया टुडे टेलेविज़न में काम करते हैं। राहुल सिंह हिंदुस्तान टाइम्स के हैं और वो भी सेना से जुड़े मुद्दों पर लिखते हैं। इनकी किताब ऐसे सैनिकों की कहानियां हैं, जिन्होंने विकट परिस्थितियों में अदम्य साहस का परिचय दिया है। इस किताब के सभी पात्र जीवित नहीं हैं, कुछ वीरगति को प्राप्त हो गए।


इसकी चौदह कहानियों में से एक कश्मीर के सर्जिकल स्ट्राइक की कहानी भी है। हजारों लोगों को युद्ध क्षेत्र से सुरक्षित निकालने वाले नौसैनिक की एक कहानी है और एक कहानी ऐसे वायुसैनिक की है जिनके जहाज में आग लग गयी थी। इसलिए ये नहीं कहा जा सकता कि ये किताब सिर्फ थल-सेना के कारनामों पर है। सैनिक कौन से हथियार इस्तेमाल करते हैं, आपस में कैसे बर्ताव करते हैं, इनका भी थोड़ा बहुत जिक्र आ जाता है। इसलिए समझ में आता है कि ये सचमुच सैनिकों से बात करके लिखी गयी किताब है। 


सेना के हाल के कारनामे मेरे लिए कोई प्रिय विषय नहीं होता। जब ये किताबें आईं तो मेरा ख़याल था कि इन्हें पढ़ने के लिए हम समय निकालेंगे क्या? किताबें रोचक अंदाज में लिखी गयी हैं शायद इसलिए हम इन्हें पूरा पढ़ पाए। ऐसी किताबों के बारे में “बड़े लोग” बात भी नहीं करते इसलिय मेरे जैसे “अनाम रिव्युअर” की नैतिक जिम्मेदारी है कि इनके बारे में बताया जाए। युवाओं की सेना में काफी रूचि होती है, उन्हें ये किताबें जरूर पसंद आएँगी।

✍🏻आनन्द कुमार


कुछ समय पूर्व यशार्क पांडेय द्वारा लिखित लेखमाला


राष्ट्रीय सुरक्षा के अधिष्ठान और निदान: 


एक सज्जन ने पूछा, 'अच्छा तो आप लेखक हैं... किस विषय पर लिखते हैं?' मैंने कहा 'मैं तो रक्षा और विज्ञान पर लिखता हूँ.' साहब माथा खजुआने लगे. कहने लगे 'विज्ञान तो ठीक है लेकिन रक्षा (defence) तो बड़ा अजीब सा विषय हैं. आप इस पर कैसे लिख लेते हैं?' तो मैंने उन्हें स्पेशल फ़ोर्स पर लिखे अपने कुछ लेख पढ़ाये, कुछ फेसबुक पोस्ट और पुस्तक समीक्षाएं दिखायीं. उन्हें बड़ा मजा आया. फिर मैंने उनसे कहा कि 7 दिसम्बर को सशस्त्र सेना झंडा दिवस होता है. आप "Armed Forces Flag Day Fund" में कुछ दान कीजिये. साहब ने प्रसन्न होकर ऑनलाइन पेमेंट किया. मुझे प्रसन्नता है कि मेरे लिखने और कहने से भारत के एक नागरिक ने पूर्व सैनिकों और उनके परिवार के लिए दान किया.  


मैं कोई विशेषज्ञ नहीं. तीन वर्ष पहले तक सशस्त्र सेनाओं के बारे में बेसिक जानकारी ही रखता था. बचपन में यही समझ आया था कि एक सैनिक की नौकरी मेरे लिए सर्वोत्तम है. कारगिल युद्ध के समय फंड में अपने जेब खर्च से शायद 10 रूपये दिए थे. माता-पिता ने अधिक दिए थे. तब हम मैगज़ीन से टाइगर हिल विजय और अनेक फोटो काट कर कोलाज पोस्टर बनाया करते थे. फिर चौदह साल बाद जब कन्हैया कुमार ने आर्मी को गाली दी तब मुझे यही समझ में आया कि इस देश में सामरिक संस्कृति का विकास नहीं हुआ. यहाँ जागरूकता की भारी कमी है. तब मैंने राष्ट्रीय सुरक्षा और रक्षा सम्बन्धी विषयों का स्वतः अध्ययन प्रारंभ किया. मेरे पास कोई डिग्री नहीं, कोई शिक्षक नहीं. मेरा रोल मॉडल बीएसफ का वह जवान है जो 50 डिग्री सेल्सिअस पर भी तैनात रहता है. मेरा आदर्श वह ऑफिसर है जो -55 डिग्री पर भी सियाचिन पर भारत के सामरिक हितों की रक्षा करता है. 


यह कहना बहुत आसान है कि अमेरिका अपने सैनिकों को बहुत सम्मान देता है और उनके लिए हवाई यात्रा में भी घोषणा की जाती है कि फलाने वॉर वेटेरेन आज हमारे साथ उड़ान पर हैं. 


जय हिन्द. जय हिन्द की सेना. 


राष्ट्रीय सुरक्षा के अधिष्ठान और निदान...


UK Telegraph में एक आलेख पढ़ा। जाने माने रक्षा विशेषज्ञ कर्नल (रि०) अजय शुक्ला ने शेयर किया था। ब्रिटिश स्पेशल फ़ोर्स के अधिकारी ने लिखा है और उस लेख में कहा गया की फ्रांस की आतंकवाद निरोधक सुरक्षा एजेंसी (RAID) काफी उन्नत है, दक्ष है और इस बार दुर्भाग्य ही था की ऐसी घटना हो गई। आतंकवाद चूंकि छद्म युद्ध है इसलिए इससे लड़ने के लिए मजबूत खुफिया तंत्र सबसे कारगर हथियार है। गुप्त रूप से सूचनाएं 2 मोर्चों से जुटाई जाती हैं: Internal intelligence और external intelligence. Intelligence और investigation (अन्वेषण) में अंतर होता है। घटना के बाद की कवायद investigation कहलाती है जबकि घटना होनेे के पहले की सूचना एकत्र करना intelligence का काम होता है। हमारे देश में आतंकी हमले नाकाम करने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी IB की है। माना जाता है की भारत की Intelligence Bureau (IB) विश्व की सबसे पुरानी और 5 सबसे बेहतरीन clandestine agencies (गुप्तचर एजेंसी) में से एक है जिसका कार्यक्षेत्र internal (अंदरुनी) intelligence और प्रतिरोधक यानि counter intelligence है। External intelligence यानि दूसरे देशों में जाकर गुप्त रूप से जानकारी इकट्ठा करना RAW का काम है। 


अब सवाल ये उठता है कि हम फ्रांस में हुये आतंकी हमले से क्या सबक ले सकते हैं। इसके लिये कई पहलुओं पर विचार करना जरुरी है। कुछ ढांचागत खामियां भी हैं; कनिष्क विमान हादसा, 1993, करगिल, IC 814, संसद पर हमला, 26/11 सहित तमाम बम विस्फोट की घटनाएं भी इतिहास में दर्ज हैं; सामाजिक कारण भी फन उठाये पूर्ववत खड़े हैं; राजनीतिक इच्छाशक्ति भी हमेशा से कठघरे में रही है। इतिहास में बहुत कुछ हुआ और बहुत कुछ नहीं भी हुआ। आज के परिप्रेक्ष्य में गुप्तचर व्यवस्था की ढांचागत कमजोरी उसकी hierarchy (पदक्रम) पर भी सवाल उठाती हैं। प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली सुरक्षा मामलों की कैबिनेट समिति (CCS) कौन से कारगर और नीतिगत फैसले लेती है या Joint Intelligence Committee (JIC) का क्या उत्तरदायित्व है कुछ बताया नहीं जाता। ध्यान दीजियेगा जनता को नीतियां जानने का अधिकार है किसी ऑपरेशन के दौरान modus operandi भले न बताया जाये। अमरीका की CIA वहां की संसद में उत्तरदायी होती है जबकि हमारे यहाँ IB, RAW किसी भी एजेंसी का गठन वैधानिक रूप से नहीं हुआ सिर्फ शासनादेश से बना दी गयीं। इसका मतलब ये है की ये संविधान में कहीं नहीं हैं और लोकतंत्र के प्रतीक संसद के प्रति इनका कोई उत्तरदायित्व निर्धारित नहीं किया गया है। आ० अटल जी के समय राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (NSA) का पद सृजित किया गया था। ब्रजेश मिश्र से अब तक 3 विदेश सेवा के और डोभाल साहब को मिला कर 2 पुलिस सेवा के अधिकारी इस पद को सुशोभित कर चुके हैं। एक राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद (NSC) गठित की गई थी मई 1998 में जिसके मातहत National Security Advisory Board सलाहकार के रूप में काम करता है जिसमे कई विशेषज्ञ होते हैं। कहा जाता है की गुप्तचर एजेंसियां NSA को रिपोर्ट करती हैं और NSA प्रधानमंत्री को। दरअसल ये सब चीज़ें आपस में इतनी गड्डमड्ड हैं की ये समझ में नहीं आता की आखिर में उत्तरदायी कौन होगा। ये सारी जानकारी आपको किसी भी आधिकारिक सरकारी स्रोत से नहीं मिलेंगी। किसी भी किताब में प्रामाणिक तौर पर लिखा हुआ नहीं मिलेगा। UPA सरकार में राज्यों से इनपुट लेने और एजेंसीयों में सामंजस्य बनाने के लिए आनन फानन में MAC (Multi Agency Center) बनाने की बात चली थी। बाद में साइबर इंटेलिजेंस के लिए जानकारी जुटाने के लिए National Intelligence Grid (NatGrid) को गृह मंत्रालय के एक दफ्तर के तौर पर बना दिया गया जैसे इंदिरा गांधी ने कैबिनेट सचिवालय से जोड़ कर RAW को बनाया था। अमरीका की NSA/CSS की तर्ज पर NTRO का गठन किया गया जो साइबर इंटेलिजेंस का काम कर सके। यही नहीं आतंकी घटनाओं की जांच के लिए अलग से एजेंसी बनाई गयी जिसको आप NIA के रूप में जानते हैं। ये तो उस व्यवस्था है अंग मात्र हैं जो पान की दूकानों की भांति खोल दिये गए हैं। अब इसे चलाएगा कौन इनकी विश्वसनीयता इस पर निर्भर करती है। गौरतलब है की गुप्तचर एजेंसियां आपसी भरोसे और सहयोग के उपक्रम पर काम करती हैं। इनका आपस में कोई वैधानिक या संरचनात्मक सामंजस्य (structural coordination) नहीं है। कई बार तो ये भी कहा गया की एक एजेंसी के पास स्वतंत्र रूप से सूचना थी जिसने दूसरे को नहीं बताया। 


इन चीज़ों के अलावा आपको ये भी सोचना पड़ेगा की 'जनता' जिसके उपर आतंक की सबसे ज्यादा मार पड़ती है वो कितनी जागरूक है। किसी परिस्थिति में क्या करना बेहतर है ये हमारे लोग बिल्कुल नहीं जानते। पहले दुश्मन सुदूर कश्मीर और असम में था फिर महानगर बम्बई आया और अब तो बनारस भी दहल चुका है। विज्ञान के शहर बेंगलुरु से युवा ISIS की तरफ उन्मुख हैं। पहले दुश्मन छुप कर बम फोड़ता था अब घर में घुस कर आपके चेहरे पर चिल्लाता है और गोली मार देता है। कर्नल (रि०) पी.के. गौतम ने 2004 में अपनी किताब (National Security A Primer) में स्कूल कॉलेज की शिक्षा में राष्ट्रीय सुरक्षा को शामिल करने की महत्ता को रेखांकित किया है। पाकिस्तान और सऊदी अरब में बच्चों की पढ़ाई में चरमपंथ का ज़हर कैसे घोला जाता है ये सर्वविदित है। हम अपने बच्चों को और युवाओं को आने वाले खतरे का ज्ञान क्यों न कराएं? बेहद सड़ चुकी शिक्षा प्रणाली को इसका इंजेक्शन भी दिया जाना जरूरी है। राष्ट्रवाद की अवधारणा को हम भारतवासी 1857 के बाद से अभी तक पचा नहीं पाये हैं। जब विकास को जनांदोलन बनाने की कवायद की जा सकती है तो राष्ट्रीय सुरक्षा को क्यों नहीं? यदि शिक्षा प्राप्त करने से व्यक्ति विसंगतियों से मुक्त हो सकता है तो आत्मरक्षण क्यों नहीं कर सकता? इन बातों पर विचार इसलिए जरुरी है साहब क्योंकि counter intelligence एक मनोवैज्ञानिक खेल है और कहा गया है की human intelligence is the best form of intelligence. फ्रांस में वहां के नागरिकों में ही सांप छिपे थे जिनके सहयोग से ISIS ने कारस्तानी को अंजाम दिया। यदि आपके बच्चे और देश के नागरिक अपनी शिक्षा में राष्ट्रीय सुरक्षा भी पढ़ेंगे तो किसी बहकावे में कभी नहीं आयेंगे और शासन तन्त्र के साथ कंधे से कंधा मिला कर लड़ेंगे। आपको पता है फ्रांस में आपातकाल क्यों लगाया गया? इसलिये ताकि शासन तन्त्र बिना किसी रोक टोक के साँपों को खोज निकाले और कुचल दे। फ्रांस को पता है की उसके नागरिक इसमें उसका साथ देंगे भले ही वो मीडिया का अंग हों या पुलिस का।

.....शेष अगले पोस्ट में

✍🏻यशार्क पाण्डेय

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