मंगलवार, 30 नवंबर 2021

सोम राजा के सिंघासन का रहस्य

 सोम सम्राट का सिंहासन: ब्रह्माँड के रहस्य 

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सोम जब यजमान के दुर्य (घर) में पधारते हैं, तब उन सोम राजा को किस प्रकार से सिंहासन पर लाया जाता है, हम इस रोचक घटना पर विस्तृत चर्चा करेंगे। किंतु पहले इंद्र, अहल्या और गौतम ऋषि की बहुचर्चित कथा को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी देखलें। 

   बात यह है कि हम कई बार बता चुके हैं कि तीन संसार हैं...! पहला ब्रह्माँड, जिसको आधिदैविक कहते हैं। दूसरा पृथ्वी ,जो आधिभौतिक है। और तीसरा पिंड (मनुष्य) ।इन तीनों का आपस में सामन्जस्य है। आकाशीय पात्रों का पृथ्वीय रूपांतर है। और मनुष्य तो ब्रह्मांड की इकाई है ही। हू-ब-हू। तो इंद्र और अहल्या की जो कथा पुराणों में प्रचलित है। वह आकाशीय घटना की नकल मात्र है जिसका संदर्भ जार (व्यभिचार) से है। जबकि ब्रह्माँड की असली घटना मात्र वैज्ञानिक है। 

   तो ऋषि और वैज्ञानिक ब्राह्मणों की शोध को पहले देख लेते हैं। क्योंकि सोम प्रकरण में इन्द्र की अभ्यर्थना भी की जाना है। मंत्र में आव्हान किया जाता है -"इन्द्रागच्छ "।इन्द्र यज्ञ के देवता हैं। हरिव आगच्छ। मेघाततिर्थेर्मेष वृषणशस्य मेघे। हरिवाहन इन्द्र के अश्व हैं। कहते हैं हरिवाहन आइये। मेघ, इन्द्र के घोडे़ (गायत्री आदि सातों छंद, ) गौर पशु को मारने वाले तथा अहल्या के जार इंद्र आइये। 

        सोम घर में लाना है। चूंकि वह सम्राट है,अतःउसको लाने के लिए 4 लोग सिंहासन लेकर जाते हैं। राजा को तो दो ही लोग उठाते हैं किंतु यह तो सम्राट हैं न..! तो सर्व प्रथम तो इस ऋतसदनी (आसंदी) को मंत्र बोलकर स्पर्श किया जाता है। फिर उस पर भी मृग चर्म बिछाया जाता है। फिर मंत्रों सहित कहा जाता है -हे सोम तुम गयस्फान (गृह वर्धक हो। प्रत्तरण (आपत्ति निवारक) हो। सुवीर (अच्छी संतान देने वाले) अवीरहा (पुत्रादि के घातक) न बनकर यजमान की यज्ञशाला में पधारें। 'गुहा वै दुर्या 'घर में विराजें। 

    इन्द्र जार क्या है। यह वैज्ञानिक ब्रह्माँडीय घटना है, जो प्रतिदिन घटित होती है। अहल्या जार प्रतिदिन प्रातः सूर्योदय के पूर्व होता है...! कैसे -घटना मुग्धकारी है। वैसी नहीं है जो प्रचलित है। दिन का नियमन करने वाली रात्रि 'अहर्यमयति 'इस व्युत्पत्ति से 'अहर्या 'कहलाती है।और अहल्या ही परोछ रूप से अहल्या कहलाती है। 

   क्योकि देवता परोक्षप्रिय हैं। सूर्य के इन्द्रोधाता भगः पूषा :मित्रोऽथवरुणोऽर्यमा इत्यादि 12 प्राणों में इन्द्र भी अत्युत्तम प्राण है। इन्द्र (सूर्य )के निकलने के पूर्व) अहल्या जीर्ण शीर्ण हो जाती है रात, ही दिन की स्वतंत्रता छीनती है। प्रातः काल, में दो घड़ी रहते ही सूर्य अर्थात् इन्द्र की सत्ता स्थापित हो जाती है। तड़का उगे (पौ फटते) ही आसमान में सफेदी चमकने लगती है। उसी समय गोतम, अहल्या का पति भाग जाता है। 

   गो, पृथ्वी का नाम है। तम अंधकार का नाम है। जहां इन्द्र आया कि पृथ्वी का तम दूर हुआ। चूंकि इंद्र ही अहल्या को जीर्ण शीर्ण करता है, अतः "अहल्या जीरयति "--इस व्युत्पत्ति से उस सौर प्राण को, इन्द्र को अहल्या का जार कहा जाता है। अर्थात उदय होते ही सूर्य की सहस्त्र रश्मियां संसार में फैल जातीं हैं -ये ही इन्द्र के सहत्र भग हैं। 

मित्रो, हमारी कथा का उद्देश्य सनातन विज्ञान को समाज के सामने लाना है। वैदिक ज्ञान से विहीन उन भोले भाले मुंहजोरों को यह भी बताना है कि वे अपनी निम्नस्तरीय सोच और गतिविधियों से देश का अनिष्ट न करें। किंतु आप जो मित्र पढ़ रहे हैं, क्या आपकी तंई इतना ही पर्याप्त है। आगे हम और आप क्या कुछ कर सकते हैं यह सोचना भी आवश्यक है। 

जीव के अति सूक्ष्म विज्ञान का चित्रण भरा पडा़ है। मैं इतना भर तो कह ही सकता हूँ कि यज्ञ विज्ञान ज्ञान की पराकाष्ठा है। ऋषियों की खोज और ब्राह्मणों के प्रयोगों ने आत्मा और परमात्मा का जो संबंध जोडा़, है वह तो ज्ञान का शिखर है। बस इसको इस तरीके से इतना सा ही समझ लें कि आज के मिशन "यान"ऋषियों की हजारों वर्ष पहले की गई शोध की मामूली सी नकल भर है। यान को ग्रह पर भेजने की तुलना में मात्र अनुभूति (आत्मा) को शून्य में परमात्मा  (?) से मिलाने के विज्ञान की कल्पना ही कितनी सुखद है। 

✍🏻रमेश तिवारी


भगवान_विष्णु_और_वृन्दा 


पद्मपुराण (उत्तर खं. अ. २) वर्णित 'कार्तिक माहात्म्य' मे तथा देवी भागवत (९/१६वे अ. से ३५वे अ. तक) मे वृन्दा या तुलसी का भगवान विष्णु द्वारा पतिव्रत धर्म भंग किया जाना और उसके पति जलंधर या शंखचूड का मारा जाना लिखा है। कई महाशय उक्त कथा को भी आक्षेप रुप से पेश करते है, अत: विष्णु- चरित्र की विशुद्धता प्रकट करने के लिये इसी कथा पर विचार करना उचित समझते है।


 जो भगवान कृष्ण के अंश से उत्पन्न होनेवाला सुदामा नाम का गोप था, वही समयान्तर मे श्री राधाजी के शाप से दानव वंश मे जन्म धारण करके 'शंखचूड' नाम से विख्यात हुआ, वह अपने समय मे तीन लोक मे अद्वितीय वीर था।           

(देवीभागवत)


 एक बार वह जलन्धर कामान्ध होकर जहाँ श्री पार्वतीजी विराजमान थी वहाँ पहुँचा। इसने माया से दश भुजाएँ, पाँच मुख, तीन नेत्र, मस्तक पर जटाजूट आदि सब कुछ शंकर भगवान  के समान बनाए और बैल पर सवार होकर आसुरी माया से शिव महाराज के तुल्य बन गया। पार्वतीजी दूर से इसे शिव भगवान जानकर प्रत्युत्थान देने के लिये सखियों के बीच से उठ खडी हुई। जब इस दानवराज ने पार्वती के रुप लावण्य को देखा तो यह स्खलित एवं शिथिल अंग हो गया। [पार्वतीजी तत्काल अन्तर्ध्यान हो गई और विष्णु भगवानजी से मिलने पर परामर्श किया कि- ]  

(शिव पुुराण युद्ध खंड)


जब तक इस दुष्ट की धर्मपत्नी का सतीत्व नष्ट न होगा तब तक यह न मरेगा, इस दानव को यह वरदान मिला। (देवी भागवत)


[सो विष्णु भगवान संसार भर की स्त्रियों का सतीत्व बचाने के अभिप्राय से] शंखचूड का रुप बनाकर तुलसी के पास गये। 

(देवी भागवत) इत्यादि-


'पद्मपुराण' मे इस आख्यायिका का जो कथानक अंकित किया है, वह भौतिक-विज्ञान से सम्बन्ध रखता है। तुलसी नामक प्रसिद्ध औषधि त्रिदोषजन्य अनेक ज्वारो एवं मलेरिया के किटाणुओं को समूल नष्ट कर देती है। प्राचीन ऋषियों ने 'ऋतम्भरा' प्रज्ञा द्वारा इस रहस्य की संगोपांग गवेषणा की थी, इसलिये हमारी दैनन्दीनी दिनचर्या मे तुलसी के सेवन का पर्याप्त उपयोग पाया जाता है।


भगवान विष्णु और तुलसी की कथा का आधिभौतिक अर्थ यह है कि, जल को धारण करनेवाला बादल ही 'जलन्धर' है और उस बादल मे सर्वात्मभाव से रहनेवाली 'विद्युत-शक्ति ' ही वृन्दा है। साध्वी स्त्री का सर्वस्व जिस प्रकार उसका एकमात्र पति ही होता है, इसी प्रकार मेघान्तवर्ती विद्युत का भी अनन्य आश्रय बादल ही है। वह मेघ क्षण क्षण मे नये नये रुप बदलकर आकाश मे विचरता है। कई बार तो यह  'कुन्द-इन्दु-सम-धवल-देह-द्युति' बनकर एवं बीच बीच मे नीलकण्ठ सी छटा दिखाता हुआ-'भव भव विभव पराभव कारिणी! विश्वमोहिनी, स्ववशविहारिणी'- प्रकृतिरुप पार्वती देवी को भी विमुग्ध कर डालने को उद्यत होता है। सूर्य-चन्द्रादि, ग्रह, नक्षत्र, तारे, सितारे अपनी अपनी कान्ति रुप कान्ताओं को इस घनघमण्ड के प्रतिरोध मानों व्याकुलित सी देख पाते है। यह जलन्धर दैवी-सम्पदा रुप प्राणीमात्र के जीवन आधार जलो को आत्मसात कर के मानो सबके जीवन को मुठ्ठी मे ले लेता है।अतएव वे सब विचलित हो उठते है। परन्तु मेघवर्ती विद्युत की प्रवाह धारा जब तक अविछिन्न रुप प्रवाहित होती है, तब तक वाष्पभूत जलन्धर का एक कण भी पृथ्वी पर नही टपक सकता।अतएव पार्वती रुप प्रकृति के परामर्श से व्यापनशील वायुरुप विष्णु तरलता से प्रवाहित होता हुआ मेघान्तवर्ती विद्युतरुप वृन्दा का सर्वतोभावेन सस्पर्शन करता है, बस! इस वायु के संसर्ग से ज्योही मेघान्तवर्ती विद्युत मे स्पन्दन-क्रिया का संचार हुआ कि वाष्पभूत जलसंघ सिमट-सिमट कर कणश: पृथ्वी पर गिर जाता है।


वायु का प्रत्येक प्रवाह वर्षा का कारण होता हो सो बात नही है। एक खास प्रकार की मानसून नामक हवा वृष्टिकारक होती है। सो उक्त रुपक मे भी वायु रुप विष्णु जलन्धर का वेश बदलकर ही वृन्दा के निकट पहुँचता है, तभी वह विदीर्ण होकर पृथ्वी पर गिरता है। अर्थात, वायु का स्वाभाविक रुप बरसात का कारक नही, यह भाव उक्त रुपक मे बडी चातुरी से अभिव्यक्त किया है। अस्तु, वही मेघान्तवर्ती विद्युत शक्ति(जिसे न्यायशास्त्र मे- भौमादिव्यौदर्याकरजभेदात्।- के अनुसार 'दिव्य अग्नि' के नाम से स्मरण किया है।) जलकणो से संमिश्रित होकर 'अद्भ्य: पृथ्वी, पृथ्वीभ्य औषधय:' सिद्धांत के अनुसार तुलसी नामक पौधे के रुप मे उत्पन्न होती है अर्थात-तुलसी के अन्दर जो अालौकिक शक्ति विद्यमान है, वह परम्परा से मेघान्तवर्ती दिव्य अग्नि के प्रवाह से ही इसमे आई है। इस गूढ़ रहस्य को अभिव्यक्त करने के लिये श्री वेदव्यासजी ने वृन्दा का सती होकर जन्मान्तर मे तुलसी वृक्ष के रुप मे उत्पन्न होना दिखाया है। वृन्दा ने विष्णु भगवान को जडीभूत हो जाने का शाप दिया था, सो शालिग्राम शिला मानो व्यापक वायु का ही जडीभूत पिण्ड है।जैसे अग्नि के साथ वायु का स्वाभाविक सम्बन्ध है और वायु के झोंको से अग्नि की अगण्य सी चिन्गारी भी उत्तरोत्तर अभिवृद्ध हो जाती है, इसीप्रकार तुलसीदल मे जो परम्परागत दिव्य अग्नि है, वह वायुसंघातभूत शालिग्राम शिला के संसर्ग से और भी उन्नत गुण हो जाती है, यही इस कथा का आशय है।


तुलसीदल को दातों से कुचलना, दांतो को शीघ्र गिरा देता है और नेत्रज्योति को भी हानि पहुँचाता है, अतएव सुवर्णकणो से अभिव्याप्त गण्डकी नदी के पाषाण(शालिग्राम) के जल से इसे संमिश्रित किया जाता है और घिसे हुये चन्दन आदि विशुद्ध काष्ठिक द्रव्यों के मेल से इसे पान किया जाता है। इस तरह यह अछिन्न दल बिना किसी कष्ट के गले के नीचे उतर जाता है और अनुपान के संयोग से इसकी वैद्युती शक्ति सुरक्षित रहती है।धार्मिक परिभाषा मे इसे 'चरणामृत' कहते है और इसके पीने से-'अकालमृत्युहरणं सर्वव्याधिविनाशनम्'-के अनुसार अकालमृत्यु की निवृत्ति और समस्त व्याधियों का विनाश माना जाता है।

✍🏻तपसे शूद्रम


शास्त्रों के मिथ्या अनुवाद द्वारा दुष्प्रचार-

कई बार लोग किशोरी मोहन गांगुली के महाभारत अनुवाद को उद्धृत कर कुछ बातें कहते हैं-

१-युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में कर्ण को सूतपुत्र होने के कारण अपमानित किया गया था।

२-राजा रन्तिदेव के यहाँ यज्ञ के लिए प्रतिदिन २००० गायें मारी जाती थीं।

इसी प्रकार भगवान् राम के मांसाहार का वर्णन कई लोग करते हैं। अभी मुरारी बापू ने बलराम जी के दिन रात शराब पीने का निराधार वर्णन आरम्भ किया है। 

ये सभी भारतीय संस्कृति की यथासम्भव निन्दा के लिए झूठे प्रचार हैं।

१-युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में कर्ण को निमन्त्रण तथा आगमन का बहुत सम्मान सहित भीष्म पितामह के साथ वर्णन है-

धृतराष्ट्रश्च भीष्मश्च विदुरश्च महामतिः॥५॥

दुर्योधनपुरोगाश्च भ्रातरः सर्व एव ते।

गान्धारराजः सुबलः शकुनिश्च महाबलः॥६॥

अचलो वृषकश्चैव कर्णश्थ रथिनां वरः।

तथा शल्यश्च बलवान् वाह्लिकश्च महाबलः॥७॥

(महाभारत, सभा पर्व, अध्याय ३४)

क्या कर्ण को रथियों में सर्वश्रेष्ठ कहना उसका अपमान है? राजा के रूप में निमन्त्रण ही पूर्ण सम्मान है।

उसके बाद विस्तार से वर्णन है कि युधिष्ठिर ने सभी निमन्त्रित लोगों को नमस्कार किया तथा नकुल द्वारा उनको अच्छे भवनों में ठहराया।

२-रन्तिदेव पर दैनिक गोहत्या का आक्षेप-

महाभारत, द्रोण पर्व, अध्याय ६७-

सांकृते रन्तिदेवस्य यां रात्रिमतिथिर्वसेत्।

आलभ्यन्त तदा गावः सहस्राण्येकविंशतिः॥१४॥

= जो भी अतिथि संकृति पुत्र रन्तिदेव के यहाँ रात में आता था, उसे २१,००० गौ छू कर दान करते थे।

कोई भी २१,००० गौ एक बार क्या, जीवन भर में नहीं खा सकता है। यहां गो शब्द सम्पत्ति की माप भी है। मुद्राओं के नाम बदलते रहे हैं। उनका स्थायी नाम था-गो, धेनु। किसी को एक लाख गाय दी जायेगी तो वह उनको रख नहीं पायेगा, न देख भाल कर सकता है। यहाँ गो बड़ी मुद्रा (स्वर्ण), धेनु छोटी मुद्रा (रजत), निष्क सबसे छोटी मुद्रा है। निष्क से पंजाबी में निक्का, या धातु नाम निकेल हुआ है। निष्क मिलना अच्छा है, अतः नीक का अर्थ अच्छा है।

अन्नं वै गौः (तैत्तिरीय ब्राह्मण, ३/९/८/३ आदि)

इन्द्र मूर्ति १० धेनु में खरीदने का उल्लेख है-

क इमं दशभिर्ममेन्द्रं क्रीणाति धेनुभिः। (ऋक, ४/२४/१०)

२१००० गो या स्वर्ण मुद्रा देने के बाद उनको अच्छा भोजन कराते थे-

तत्र स्म सूदाः क्रोशन्ति सुमृष्ट मणिकुण्डलाः।

सूपं भूयिष्ठमश्नीध्वं नाद्य भोज्यं यथा पुरा॥

वहाँ कुण्डल, मणि पहने रसोइये पुकार पुकार कर कहते थे-आप लोग खूब दाल भात खाइये। आज का भोजन पहले जैसा नहीँ है, उससे अच्छा है।

यही वर्णन शान्ति पर्व (६७/१२७-१२८) में भी है।

अनुशासन पर्व (११५/६३-६७) में बहुत से राजाओं की सूची है जिन्होंने तथा कई अन्य महान् राजाओं ने कभी मांस नहीँ खाया था। इनमें रन्तिदेव का भी नाम है-

श्येनचित्रेण राजेन्द्र सोमकेन वृकेण च।

रैवते रन्तिदेवेन वसुना, सृञ्जयेन च॥६३॥

एतैश्चान्यैश्च राजेन्द्र कृपेण भरतेन च।

दुष्यन्तेन करूषेण रामालर्कनरैस्तथा॥६४॥

विरूपश्वेन निमिना जनकेन च धीमता।

ऐलेन पृथुना चैव वीरसेनेन चैव ह॥६५॥

इक्ष्वाकुणा शम्भुना च श्वेतेन सगरेण च।

अजेन धुन्धुना चैव तथैव च सुबाहुना॥६६॥

हर्यश्वेन च राजेन्द्र क्षुपेण भरतेन च।

एतैश्चान्यैश्च राजेन्द्र पुरा मांसं न भक्षितम॥६७॥

श्येनचित्र, सोमक, वृक, रैवत, रन्तिदेव , वसु, सृञ्जय, अन्यान्य नरेश, कृप, भरत, दुष्यन्त, करूष, राम, अलर्क, नर, विरूपाश्व, निमि, बुद्धिमान जनक, पुरूरवा, पृथु, वीरसेन, इक्ष्वाकु, शम्भु, श्वेतसागर, अज, धुन्धु, सुबाहु, हर्यश्व, क्षुप, भरत-इन सबने तथा अन्य राजाओं ने कभी मांस नहीँ खाया था।

३-भगवान् राम आदि कई राजाओं का ऊपर उल्लेख है कि उन लोगों ने जीवन में कभी मांस नहीं खाया।

४-यज्ञ में उपरिचर वसु ने पशु बलि का समर्थन किया था जिस पर ऋषियों ने उनको शाप दिया था।

महाभारत, शान्ति पर्व, अध्याय ३३७-

देवानां तु मतं ज्ञात्वा वसुना पक्षसंश्रयात्॥१३॥

छागेनाजेन यष्टव्यमेवमुक्तं वचस्तदा।

कुपितास्ते ततः सर्वे मुनयः सूर्यवर्चसः॥१४॥

ऊचुर्वसुं विमानस्थं देवपक्षार्थविदिनम्।

सुरपक्षो गृहीतस्ते यस्मात् तस्माद दिवः पत॥१५॥

अद्यप्रभृति ते याजन्नाकाशे विहता गतिः।

अस्मच्छापाभिघातेन महीं भित्वा प्रवेक्ष्यसि॥१६॥

यहां अज का अर्थ बीजी पुरुष कहा गया है, जिसकी यज्ञ द्वारा उपासना होती है।

यज्ञ में पशु का आलभन करते हैं-उसका पीठ, कन्धा आदि छूते है। इसे शमिता कहते हैं, अर्थात् शान्त करने वाला। शान्त करने के लिए हत्या नहीँ की जाती है। पर इसका अर्थ किया जाता है कि पशु का कन्धा आदि छू कर देखते हैं कि कहाँ से उसका मांस काटना अच्छा होगा। आजकल भी घुड़सवारी सिखाई जाती है कि घोड़े पर चढ़ने के पहले उसकी गर्दन तथा कन्धा थपथपाना चाहिए। इससे वह प्रसन्न हो कर अच्छी तरह दौड़ता है। बच्चों की भी प्रशंसा के लिए उनकी पीठ थपथपाते हैं, यद्यपि वे भाषा भी समझ सकते हैं। यही आलभन है। शिष्य भी पहले गुरु को जा कर नमस्कार करता है तो गुरु उसके कन्धे पर हाथ रख कर आलभन करते हैं। यदि आलभन द्वारा उसकी हत्या करेंगे तो शिक्षा कौन लेगा? गुरु को भी फांसी होगी। हर अवसर पर यदि कोई पैर छूकर नमस्कार करे तो उसकी पीठ पर ही हाथ रख कर ही आशीर्वाद दिया जाता है।

५-बलराम जी का मदिरा पान-ऐसा वर्णन करने वाले से अधिक मूर्ख मिलना सम्भव नहीं है। किसी भी विद्या या खेल में अच्छा होने के लिए पूरे जीवन साधना करनी पड़ती है। बलराम जी अपने समय के सर्वश्रेष्ठ पहलवान तथा गदा युद्ध के विशेषज्ञ थे। दुर्योधन उनके पास ही गदा युद्ध की विशेष शिक्षा लेने गया था। पहलवान होने के लिए दैनिक कम से कम ५ घण्टे व्यायाम तथा सादा पौष्टिक भोजन करना पड़ता है। यदि मद्य पान द्वारा ही मल्ल होने की बात सिखायेंगे तो भारत में कभी अच्छे खिलाड़ी नहीँ हो सकते जो ओलम्पिक में जीत सकें। बलराम जी वारुणी लेते थे जो कठोर व्यायाम के लिए आवश्यक है। अष्टाङ्ग हृदय सूत्र (७/४२)- श्वेतसुरा सा च श्वेत पुनर्नवादि मूलयुक्तेन शालिपिष्टेन क्रियते। गुणाः लघुस्तीक्ष्णा हृद्या शूल- कास-वमि -श्वास-विबन्ध- आध्मान- पीनसघ्नी। सुश्रुत संहिता, उत्तर (४२/१०२)-वात शूल शमनी।

शरीर की कोशिकाओं में टूट फूट होती है। उनके पुनर्निर्माण के लिए जो ओषधि है उसे पुनर्नवा कहते हैं। इसके अतिरिक्त शरीर गर्म होने के बाद अचानक जल या भोजन लेने पर कास या वात हो जाता है। ठीक आराम नहीँ होने पर शूल तथा वायु विकार होता है। इन कष्टों को दूर करने के लिए पुनर्नवा आदि मूलों को धान के चूर्ण के साथ मिलाकर जो ओषधि बनती है, उसे वारुणी कहा गया है।

✍🏻अरुण उपाध्याय

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