मुक्त ज्ञानकोष विकिपीडिया से
इब्न बत्तूता अरब यात्री, विद्धान् तथा लेखक। उत्तर अफ्रीका के मोरक्को प्रदेश के प्रसिद्ध नगर तांजियर में १४ रजब, ७०३ हि. (२४ फरवरी, १३०४ ई.) को इसका जन्म हुआ था। इसक पूरा नाम था मुहम्मद बिन अब्दुल्ला इब्न बत्तूता। इब्न बतूता मुसलमान यात्रियों में सबसे महान् था। अनुमानत: उसने लगभग ७५,००० मील की यात्रा की थी। इतना लंबा भ्रमण उस युग के शायद ही किसी अन्य यात्री ने किया हो। अपनी यात्रा के दौआन भारत भी आया था।
इब्न बत्तूता ने इन संस्थाओं की बार-बार प्रशंसा की है। वह उनके प्रति अत्यंत कृतज्ञ है। इनमें सर्वोतम वह संगठन था जिसके द्वारा बड़े से बड़े यात्री दलों की हर प्रकार की सुविधा के लिए हर स्थान पर आगे से ही पूरी-पूरी व्यवस्था कर दी जाती थी एवं मार्ग में उनकी सुरक्षा का भी प्रबंध किया जाता था। प्रत्येक गाँव तथा नगर में ख़ानकाहें (मठ) तथा सराएँ उनके ठहरने, खाने पीने आदि के लिए होती थीं। धार्मिक नेताओं की तो विशेष आवभगत होती थी। हर जगह शेख, काजी आदि उनका विशेष सत्कार करते थे। इस्लाम के भ्रातृत्व से सिद्धांत का यह संस्था एक ज्वलंत उदाहरण थी। इसी के कारण देशदेशांतरों के मुसलमान बेखटके तथा बड़े आराम से लंबी लंबी यात्राएँ कर सकते थे। दूसरी सुविधा मध्यकाल के मुसलमानों का यह प्राप्त थीं कि अफ्रीका और भारतीय समुद्रमार्गो का समूचा व्यापार अरब सौदागरों के हाथों में था। ये सौदागर भी मुसलमान यात्रियों का उतना ही आदर करते थे।
भारत प्रवेश - भारत के उत्तर पश्चिम द्वार से प्रवेश करके वह सीधा दिल्ली पहुँचा, जहाँ तुगलक सुल्तान मुहम्मद ने उसका बड़ा आदर सत्कार किया और उसे राजधानी का काजी नियुक्त किया। इस पद पर पूरे सात बरस रहकर, जिसमें उसे सुल्तान को अत्यंत निकट से देखने का अवसर मिला, इब्न बत्तूता ने हर घटना को बड़े ध्यान से देखा सुना। १३४२ में मुहम्मद तुगलक ने उसे चीन के बादशाह के पास अपना राजदूत बनाकर भेजा, परंतु दिल्ली से प्रस्थान करने के थोड़े दिन बाद ही वह बड़ी विपत्ति में पड़ गया और बड़ी कठिनाई से अपनी जान बचाकर अनेक आपत्तियाँ सहता वह कालीकट पहुँचा। ऐसी परिस्थिति में सागर की राह चीन जाना व्यर्थ समझकर वह भूभार्ग से यात्रा करने निकल पड़ा और लंका, बंगाल आदि प्रदेशों में घूमता चीन जा पहुँचा। किंतु शायद वह मंगोल खान के दरबार तक नहीं गया। इसके बाद उसने पश्चिम एशिया, उत्तर अफ्रीका तथा स्पेन के मुस्लिम स्थानों क भ्रमण किया और अंत में टिंबकट् आदि होता वह १३५४ के आरंभ में मोरक्को की राजधानी "फेज" लौट गया।
वापस मोरक्को में - इब्न बतूता मुसलमान यात्रियों में सबसे महान् था। अनुमानत: उसने लगभग ७५,००० मील की यात्रा की थी। इतना लंबा भ्रमण उस युग के शायद ही किसी अन्य यात्री ने किया हो। "फेज" लौटकर उसने अपना भ्रमणवृत्तांत सुल्तान को सुनाया। सुल्तान के आदेशानुसार उसके सचिव मुहम्मद इब्न जुज़ैय ने उसे लेखबद्ध किया। इब्न बतूता का बाकी जीवन अपने देश में हो बीता। १३७७ (७७९ हि.) में उसकी मृत्यु हुई। इब्न बत्तूता के भ्रमणवृत्तांत को "तुहफ़तअल नज्ज़ार फ़ी गरायब अल अमसार व अजायब अल अफ़सार" का नाम दिया गया। इसकी एक प्रति पेरिस के राष्ट्रीय पुस्तकालय में सुरक्षित हैं। उसके यात्रावृत्तांत में तत्कालीन भारतीय इतिहास की अत्यंत उपयोगी सामग्री मिलती है।
[संपादित करें] जीवनी
इसके पूर्वजों का व्यवसाय काजियों का था। इब्न बत्तूता आरंभ से ही बड़ा धर्मानुरागी था। उसे मक्के की यात्रा (हज) तथा प्रसिद्ध मुसलमानों का दर्शन करने की बड़ी अभिलाषा थी। इस आकांक्षा को पूरा करने के उद्देश्य से वह केवल 21 बरस की आयु में यात्रा करने निकल पड़ा। चलते समय उसने यह कभी न सोचा था कि उसे इतनी लंबी देश देशांतरों की यात्रा करने का अवसर मिलेगा। मक्के आदि तीर्थस्थानों की यात्रा करना प्रत्येक मुसलमान का एक आवश्यक कत्र्तव्य है। इसी से सैकड़ों मुसलमान विभिन्न देशों से मक्का आते रहते थे। इन यात्रियों की लंबी यात्राओं को सुलभ बनाने में कई संस्थाएँ उस समय मुस्लिम जगत् में उत्पन्न हो गई थीं जिनके द्वारा इन सबको हर प्रकार की सुविधाएँ प्राप्त होती थीं और उनका पर्यटन बड़ा रोचक तथा आनंददायक बन जाता था। इन्हों संस्थाओं के कारण दरिद्र से दरिद्र "हाजी" भी दूर-दूर देशों से आकर हज करने में समर्थ होते थे।इब्न बत्तूता ने इन संस्थाओं की बार-बार प्रशंसा की है। वह उनके प्रति अत्यंत कृतज्ञ है। इनमें सर्वोतम वह संगठन था जिसके द्वारा बड़े से बड़े यात्री दलों की हर प्रकार की सुविधा के लिए हर स्थान पर आगे से ही पूरी-पूरी व्यवस्था कर दी जाती थी एवं मार्ग में उनकी सुरक्षा का भी प्रबंध किया जाता था। प्रत्येक गाँव तथा नगर में ख़ानकाहें (मठ) तथा सराएँ उनके ठहरने, खाने पीने आदि के लिए होती थीं। धार्मिक नेताओं की तो विशेष आवभगत होती थी। हर जगह शेख, काजी आदि उनका विशेष सत्कार करते थे। इस्लाम के भ्रातृत्व से सिद्धांत का यह संस्था एक ज्वलंत उदाहरण थी। इसी के कारण देशदेशांतरों के मुसलमान बेखटके तथा बड़े आराम से लंबी लंबी यात्राएँ कर सकते थे। दूसरी सुविधा मध्यकाल के मुसलमानों का यह प्राप्त थीं कि अफ्रीका और भारतीय समुद्रमार्गो का समूचा व्यापार अरब सौदागरों के हाथों में था। ये सौदागर भी मुसलमान यात्रियों का उतना ही आदर करते थे।
[संपादित करें] भ्रमणवृत्तांत
इब्न बत्तूता दमिश्क और फिलिस्तीन होता एक कारवाँ के साथ मक्का पहुँचा। यात्रा के दिनों में दो साधुओं से उसकी भेंट हुई थी जिन्होंने उससे पूर्वी देशों की यात्रा के सुख सौंदर्य का वर्णन किया था। इसी समय उसने उन देशों की यात्रा का संकल्प कर लिया। मक्के से इब्न बत्तूता इराक, ईरान, मोसुल आदि स्थानों में घूमकर १३२९ (७२९ हि.) में दुबारा मक्का लौटा और वहाँ तीन बरस ठहरकर अध्ययन तथा भगवनदभक्ति में लगा रहा। बाद में उसने फिर यात्रा आरंभ की और दक्षिण अरब, पूर्वी अफ्रीका तथा फारस के बंदरगाह हुर्मुज से तीसरी बार फिर मक्का गया। वहाँ से वह क्रीमिया, खीवा, बुखारा होता हुआ अफगानिस्तान के मार्ग से भारत आया। भारत पहुँचने पर इब्न बत्तूता बड़ा वैभवशाली एवं संपन्न हो गया था।भारत प्रवेश - भारत के उत्तर पश्चिम द्वार से प्रवेश करके वह सीधा दिल्ली पहुँचा, जहाँ तुगलक सुल्तान मुहम्मद ने उसका बड़ा आदर सत्कार किया और उसे राजधानी का काजी नियुक्त किया। इस पद पर पूरे सात बरस रहकर, जिसमें उसे सुल्तान को अत्यंत निकट से देखने का अवसर मिला, इब्न बत्तूता ने हर घटना को बड़े ध्यान से देखा सुना। १३४२ में मुहम्मद तुगलक ने उसे चीन के बादशाह के पास अपना राजदूत बनाकर भेजा, परंतु दिल्ली से प्रस्थान करने के थोड़े दिन बाद ही वह बड़ी विपत्ति में पड़ गया और बड़ी कठिनाई से अपनी जान बचाकर अनेक आपत्तियाँ सहता वह कालीकट पहुँचा। ऐसी परिस्थिति में सागर की राह चीन जाना व्यर्थ समझकर वह भूभार्ग से यात्रा करने निकल पड़ा और लंका, बंगाल आदि प्रदेशों में घूमता चीन जा पहुँचा। किंतु शायद वह मंगोल खान के दरबार तक नहीं गया। इसके बाद उसने पश्चिम एशिया, उत्तर अफ्रीका तथा स्पेन के मुस्लिम स्थानों क भ्रमण किया और अंत में टिंबकट् आदि होता वह १३५४ के आरंभ में मोरक्को की राजधानी "फेज" लौट गया।
वापस मोरक्को में - इब्न बतूता मुसलमान यात्रियों में सबसे महान् था। अनुमानत: उसने लगभग ७५,००० मील की यात्रा की थी। इतना लंबा भ्रमण उस युग के शायद ही किसी अन्य यात्री ने किया हो। "फेज" लौटकर उसने अपना भ्रमणवृत्तांत सुल्तान को सुनाया। सुल्तान के आदेशानुसार उसके सचिव मुहम्मद इब्न जुज़ैय ने उसे लेखबद्ध किया। इब्न बतूता का बाकी जीवन अपने देश में हो बीता। १३७७ (७७९ हि.) में उसकी मृत्यु हुई। इब्न बत्तूता के भ्रमणवृत्तांत को "तुहफ़तअल नज्ज़ार फ़ी गरायब अल अमसार व अजायब अल अफ़सार" का नाम दिया गया। इसकी एक प्रति पेरिस के राष्ट्रीय पुस्तकालय में सुरक्षित हैं। उसके यात्रावृत्तांत में तत्कालीन भारतीय इतिहास की अत्यंत उपयोगी सामग्री मिलती है।
[संपादित करें] यात्राएं
|
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें