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Monday, February 7, 2011
पत्रकारिता पर मंडरा रही है काली छायाः श्याम खोसला
भोपाल, 7 फरवरी। ‘पत्रकारिता मिशन से प्रोफेशन बनीं, इसमें कोई हर्ज़ नहीं था लेकिन हमने अब इसको व्यापार बना दिया है। ऐसे में लग रहा है जैसे हमने अपनी आत्मा ही बेच दी है। राष्ट्रीय सुरक्षा और सरोकारों से जुड़े मामलों में कुछ पत्रकारों के नाम सामने आए हैं, लेकिन इस पर भारतीय प्रेस परिषद और एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया की चुप्पी चिंताजनक है। कहीं ऐसा न हो कि यह शांति हमें बहरा बना दे।‘
ये विचार वरिष्ठ पत्रकार और इंडियन मीडिया सेंटर के निदेशक श्याम खोसला ने माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में ‘सम्पादक की सत्ता एवं महत्ता’ विषय पर केंद्रित व्याख्यान में व्यक्त किये। उन्होंने ‘सम्पादक’ संस्था के दिनोंदिन हो रहे अवमूल्यन पर गहरी चिंता जताते हुए कहा कि आज के हालात को देखते हुए तो ऐसा लग रहा है जैसे बाड़ ही खेत को खा रही है। उन्होंने कहा कि मीडिया का कार्य स्वस्थ आलोचना करना और निर्भीक होकर गलत कार्यों को सामने लाना है। ऐसे समाचार पत्र और चैनल उंगलियों पर गिने जा सकते हैं जो सही कार्य कर रहे हैं।
श्री खोसला ने इस बात पर चिंता जताई कि पत्रकार की छवि आज एक ‘पॉवर ब्रोकर’ और ‘मिडलमैन’ की बन गई है। नीरा राडिया टेप प्रकरण का संदर्भ देते हुए उन्होंने कहा कि हमारे देश में प्रत्येक नागरिक को यूं तो निजता (प्रायवेसी) का अधिकार है, लेकिन सामाजिक सरोकार और राष्ट्रहित सर्वोपरि हैं। ऐसे में गलती करने वालों के खिलाफ सबको आवाज उठानी चाहिए। हमें पहले अपने प्रोफेशन में सकारात्मक बदलाव लाना होगा, पत्रकारिता में भी इससे निश्चित रूप से बदलाव आएगा। आज हमारे बीच ऐसे बहुत से पत्रकार हैं जिनमें हम अपना रोल मॉडल ढूंढते हैं। इस पर भी हमें सोचना होगा कि हमारे रोल मॉडल कैसे हों।
विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला ने इस अवसर पर कहा कि पिछले 10 वर्षों में सम्पादक संस्था में जितना परिवर्तन हुआ है, इतना पहले कभी नहीं हुआ। सम्पादक को पहले योग्य, ईमानदार, ओजस्वी व सम्माननीय व्यक्ति के रूप में देखा जाता था, लेकिन अब इसकी छवि धूमिल हो रही है। इस अवसर पर विश्वविद्यालय के शिक्षकों के अलावा काफी संख्या में विद्यार्थी भी उपस्थित थे।
सुरेन्द्र पॉल
सह प्राध्यापक
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल
ये विचार वरिष्ठ पत्रकार और इंडियन मीडिया सेंटर के निदेशक श्याम खोसला ने माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में ‘सम्पादक की सत्ता एवं महत्ता’ विषय पर केंद्रित व्याख्यान में व्यक्त किये। उन्होंने ‘सम्पादक’ संस्था के दिनोंदिन हो रहे अवमूल्यन पर गहरी चिंता जताते हुए कहा कि आज के हालात को देखते हुए तो ऐसा लग रहा है जैसे बाड़ ही खेत को खा रही है। उन्होंने कहा कि मीडिया का कार्य स्वस्थ आलोचना करना और निर्भीक होकर गलत कार्यों को सामने लाना है। ऐसे समाचार पत्र और चैनल उंगलियों पर गिने जा सकते हैं जो सही कार्य कर रहे हैं।
श्री खोसला ने इस बात पर चिंता जताई कि पत्रकार की छवि आज एक ‘पॉवर ब्रोकर’ और ‘मिडलमैन’ की बन गई है। नीरा राडिया टेप प्रकरण का संदर्भ देते हुए उन्होंने कहा कि हमारे देश में प्रत्येक नागरिक को यूं तो निजता (प्रायवेसी) का अधिकार है, लेकिन सामाजिक सरोकार और राष्ट्रहित सर्वोपरि हैं। ऐसे में गलती करने वालों के खिलाफ सबको आवाज उठानी चाहिए। हमें पहले अपने प्रोफेशन में सकारात्मक बदलाव लाना होगा, पत्रकारिता में भी इससे निश्चित रूप से बदलाव आएगा। आज हमारे बीच ऐसे बहुत से पत्रकार हैं जिनमें हम अपना रोल मॉडल ढूंढते हैं। इस पर भी हमें सोचना होगा कि हमारे रोल मॉडल कैसे हों।
विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला ने इस अवसर पर कहा कि पिछले 10 वर्षों में सम्पादक संस्था में जितना परिवर्तन हुआ है, इतना पहले कभी नहीं हुआ। सम्पादक को पहले योग्य, ईमानदार, ओजस्वी व सम्माननीय व्यक्ति के रूप में देखा जाता था, लेकिन अब इसकी छवि धूमिल हो रही है। इस अवसर पर विश्वविद्यालय के शिक्षकों के अलावा काफी संख्या में विद्यार्थी भी उपस्थित थे।
सुरेन्द्र पॉल
सह प्राध्यापक
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल
Tuesday, May 19, 2009
खबरदार ! तस्वीरें विचलित कर सकती हैं...
मेरा यह लेख माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय की त्रैमासिक पत्रिका मीडिया मीमांसा के ताजा अंक में प्रकाशित हुआ है। - सुरेन्द्र पॉल
लगातार बढ़ रही आतंकी गतिविधियों ने पूरे विश्व का ध्यान इस ज्वलंत मुद्दे की ओर आकर्षित किया है। नई सहस्राब्दि में विश्व का लगभग हर राष्ट्र किसी ना किसी प्रकार के आतंकवाद का शिकार हो गया है। भारतीय उपमहाद्वीप तो जैसे आतंकवाद का गढ़ ही बन गया है। भारत और इसके पड़ोसी देशों में पिछले तीन-चार वर्षों के दौरान जिस तरह से आतंकी गतिविधियां बढ़ी हैं, उससे विश्व शांति औऱ सौहार्द के पैरोकार सकते में है। ऐसे में ‘आतंकवाद’ का मीडिया की सुर्खियां बनना स्वाभाविक ही है। पूरी दुनिया में बढ़ते आतंकी हमलों ने न केवल मीडिया का ध्यान खींचा, बल्कि ‘आतंकवाद’ एक शोध का विषय भी बन गया है। अतंरराष्ट्रीय मंचों पर आतंकवाद के कारण और निवारण को लेकर बहस छिड़ी है। इस सब के बावजूद भारतीय मीडिया अभी आतंकवाद को लेकर असमंजस में ही नजर आ रहा है। खासकर इलैक्ट्रॉनिक मीडिया तो आज कटघरे में है... और उस पर उंगली उठाने वालों में पत्रकारिता से जुड़े लोगों की संख्या भी कम नहीं है।
पिछले तीन वर्षों के दौरान हुए आतंकी हमलों का यदि आंकलन करें तो स्पष्ट होता है कि भारत आतंकवाद का सबसे बड़ा शिकार बना है। आतंकी वारदातों में जान-माल की सबसे ज्यादा क्षति भारत में हुई है। ऐसे में भारतीय मीडिया से अपनी जागरूक, निर्भीक, जिम्मेदार और निर्णायक भूमिका निभाए जाने की अपेक्षा रखना स्वाभाविक ही है, लेकिन आतंकवाद को लेकर भारतीय मीडिया अभी तक अपनी कोई सार्थक दिशा तय नहीं कर पाया है। आतंकवाद को महिमामंडित करने में जुटे और दहशत व सनसनी फैलाने वाले खबरिया चैनलों को देखकर तो ऐसा ही लगता है। आतंकवाद को लेकर दो-चार समाचार चैनलों को छोड़ सारे चैनलों की स्थिति कमोबेश एक सी है।
एक दौर था जब पत्रकारिता को मिशन माना जाता था, लेकिन आज यह सब बातें पुरानी हो गईं लगती हैं। ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने और टीआरपी के जबर्दस्त दबाव के चलते खबरिया चैनलों में अपराध, सेक्स भूत-प्रेत, नाग-नागिन, ओझा-औघड़ और स्टिंग ऑपरेशन जैसी विधाएं तो पहले ही पल्लवित हो चुकी थीं, अब उसमें ‘आतंक’ भी एक विधा के रूप में जुड़ गया सा लगता है। इसने पत्रकारिता के सारे मानदंड बदलकर रख दिए हैं। इस अंधी दौड़ में खबरिया चैनलों ने भारतीय पत्रकारिता के वास्तविक स्वऱूप को धूमिल कर दिया है। टेलीविजन चैनलों की पिछले साल-भर की कवरेज पर अगर गौर करें तो लगता है जैसे उन्होंने जेहादी संगठनों की तरह ही आतंक फैलाने का बीड़ा उठा रखा है। ...और वह भी सबसे पहले, सबसे तेज, नई तस्वीरों और ब्रेकिंग न्यूज़ के दावों के साथ। हां ! ऐसा दिखाने से पूर्व टीवी चैनल “खबरदार ! तस्वीरें विचलित कर सकती हैं...” की चेतावनी के साथ कमज़ोर दिल वालों को चैनल बदलने या टीवी से दूर भागने का अवसर कभी-कभार ज़रूर दे देते हैं।
दिल्ली में कनॉट प्लेस और कुछ अन्य स्थानों पर बम रखकर दो दर्जन से अधिक मासूमों की जान लेने वाले आतंकियों ने भी पकड़े जाने पर इस बात का खुलासा किया था कि मीडिया की कवरेज से उन्हें कितना प्रोत्साहन मिलता था। उनका कहना था कि टीवी पर आतंक की खबरें देखकर और अखबारों की कवरेज पढ़कर उन्हें सुकून मिलता था और जब काफी दिनों तक टीवी औऱ अखबार उन्हें ‘सूने’ दिखाई देते तो कुछ ऐसा करने को प्रेरित करते कि उनकी करतूतें फिर सुर्खियां बन जाएं। आतंकियों की इस सोच के उजागर होने के बाद भी भारतीय मीडिया ने कोई सबक नहीं लिया और प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से आतंकियों की दुर्भावनाओं को ही प्रसारित और पोषित करने का काम चलता रहा। प्रख्यात पत्रकार प्रभाष जोशी ने हाल ही में प्रकाशित अपने एक लेख में लिखा है - “आने वाले समय में अगर नीर क्षीर विवेक से हम पत्रकारिता नहीं करेंगे तो अपनी पत्रकारिता की परंपरा पर गर्व नहीं कर सकेंगे।... “आतंकवादी का मुख्य हथियार डर होता है। हिंसा के माध्यम से वह केवल उन लोगों में ही डर पैदा नहीं करता जिनके मित्र या संबंधी मारे जाते हैं। बल्कि आतंक की लहरें काफी दूर-दूर तक जाती हैं”।
मुंबई में 26 नवम्बर 2008 के आतंकी हमले ने तो भारतीय इलैक्ट्रॉनिक मीडिया का एक ऐसा चेहरा उजागर कर दिया जिसे कुछ भी कहें, कम से कम जिम्मेदार तो नहीं कहा जा सकता। खबरिया चैनलों ने इसे ‘देश पर सबसे बड़ा आतंकी हमला’ घोषित करते हुए किसी क्रिकेट मैच की तरह ही इसकी कवरेज लगातार घण्टों दी और इस बीच देश की जनता की नींद हराम किए रखी। अपनी टीआरपी बढ़ाने के चक्कर में इस हमले को टीवी चैनलों ने कुछ इस तरह पेश किया कि आज भी टीवी पर दिखाए गए उस समय के कई दृश्य देखकर लोगों की रूह कांप उठती है। यानी मुंबई के ताज और ओबरॉय होटल व नरीमन हाउस में घुसे 10 आतंकियों ने जो कुछ किया, उसे लगातार लाइव दिखाकर टीवी चैनलों ने देश भर में आतंक फैला दिया। यहां तक कि इस होड़ में एक टीवी चैनल ने तो नरीमन हाउस और ओबेराय होटल में छिपे दो आतंकियों का ‘फोनो’ भी लाइव दिखा दिया। वैसे इस कृत्य को गलत मानते हुए केंद्र सरकार ने उक्त चैनल को नोटिस भी थमाया। नोटिस में कहा गया कि बातचीत का प्रसारण कर चैनल ने आतंकवादियों को अपना मकसद प्रचारित करने के लिए मंच प्रदान किया और देश की सुरक्षा को खतरे में डाला। साथ ही, आतंकवाद का महिमामंडन कर इसे बढ़ावा देने का काम किया। इस घटना के बाद वायुसेना प्रमुख एडमिरल सुरेश मेहता ने भी अपने बयान में नाराजगी जताते हुए कहा कि मीडिया ने सशक्त करने वाले उपकरण की भूमिका निभाने के बजाय निशक्त करने का काम किया। इस सब का असर यह हुआ कि 29 नवंबर 2008 को आई टीआरपी की रिपोर्ट में खबरिया चैनलों की दर्शक संख्या 180 प्रतिशत तक पहुंच गई। यह सब बीत गया तो खबरिया चैनलों में एक नई होड़ मच गई- पाकिस्तान के साथ युद्ध का हौव्वा खड़ा करने की। इतना ही नहीं इस घटना के कुछ माह बीत जाने के बाद आज भी टीवी चैनल इस घटना की खबरें खोद-खोद कर तलाश कर रहे हैं। ऐसे में क्या टीवी चैनल दहशत फैलाने में मुट्ठी भर आतंकियों से कहीं ज्यादा विध्वंसक नहीं दिखाई दिए? यह सवाल आज भारतीय मीडिया के समक्ष यक्षप्रश्न की तरह खड़ा है, जिसका उत्तर उसे स्वयं ढूंढना होगा।
अधिकतर टीवी चैनल आतंकवादी घटनाओं को लगभग उसी तरह प्रस्तुत करते हैं जिस तरह वे किसी आम घटना की रिपोर्टिंग करते हैं। इस बात का कतई ध्यान नहीं रखा जाता कि खुद आतंकवादी मीडिया की कवरेज से लगातार अपडेट हो सकते हैं, और मुंबई हमले के दौरान तो ऐसा हुआ भी। सबसे खतरनाक बात तो यह है कि सबसे पहले दिखाने की होड़ में टीवी चैनल शायद इस बात से भी अनभिज्ञ रहते हैं कि वे जाने-अनजाने आतंकवादियों के उपकरण और हथियार बन रहे हैं। इतना ही नहीं मीडिया की गैर-जिम्मेदाराना कवरेज से कई बार धार्मिक भावनाएं भी भड़क सकती हैं। कुल मिलाकर इन आतंक की लहरों को सुनामी बनाने का काम मीडिया ही करता है।
टीवी के इस रूप पर मीडिया विशेषज्ञ डॉ. सुधीश पचौरी अपने एक लेख में लिखते हैं- “…ऐसा करते वक्त ऐसी घटनाओं की इस तरह की बड़ी प्रस्तुतियां जिस तरह से धार्मिक किस्म का अस्मितामूलक विभाजन करती हैं उसकी जटिलताएं और बारीकियां नहीं समझी जातीं। टीवी का यह ‘अस्मिताजनक’ स्वभाव मीडिया कर्मियों के द्वारा नहीं सोचा-समझा गया कि टीवी मूलतः और अंततः अस्मिताओं के उपभोग का माध्यम है। टीवी में आकर हर तस्वीर, हर साउंड-बाइट अस्मितामूलक हो उठती है और अस्मिता-चेतना की जनक होने लगती है। इसलिए अपनी ही तस्वीरों-बाइटों को गहराई से समझना मीडिया का अपना कार्य है”।
टीवी चैनलों की दलील है कि है कि हम वह सब दिखाते हैं जिसे दर्शक देखना चाहते हैं। अगर हम 11 सितंबर 2001 को अमरीका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर (ट्विन टॉवर) पर हुए हमले की कवरेज पर गौर करें तो हमें फर्क साफ नजर आ जाएगा। इस हमले में आधिकारिक तौर पर लगभग तीन हजार लोगों की जानें गईं। पश्चिमी मीडिया ने ये दृष्य टीवी पर बहुत संजीदगी के साथ दिखाए थे और खून का एक कतरा तक उस समय की फुटेज में नहीं था। इसके विपरीत भारत में आतंकी घटनाओं के दौरान ज़्यादातर खबरिया चैनल “तस्वीरें विचलित कर सकती हैं...” की चेतावनी के साथ अधिक से अधिक आतंक फैलाने का प्रयास करते ही नज़र आए।
एक अनुमान के मुताबिक देश में लगभग 10 करोड़ टेलीविजन सेट हैं और लगभग 7 करोड़ केबल कनेक्शन धारक हैं। टेलीविजन की दर्शक संख्या 42 से 45 करोड़ है। इस स्थिति में टीवी चैनलों की सीमा तय करने और आतंकी घटनाओं की लाइव कवरेज पर अंकुश लगाने के सवाल उठना स्वाभाविक भी था। हालांकि भारतीय मीडिया की स्वतंत्रता के लिए इसे सकारात्मक तो बिल्कुल नहीं कहा जा सकता, लेकिन मीडिया की आजादी के कई पैरोकार भी इस मामले में सत्ता में बैठे लोगों के साथ सुर में सुर मिलाते दिखाई दिए।
कुछ घट जाने के बाद सबसे पहले, सबसे तेज दिखाने की चूहा-दौड़ में शामिल होने वाले टीवी चैनलों को इस बात पर चिंतन करना चाहिए कि क्यों वे हमले से पहले देश की सुरक्षात्मक खामियों की खोज-खबर लेने में नाकाम रहे। मुबंई हमले के सीधे प्रसारण ने आम दर्शकों को आतंक की दुनिया से परिचित करा दिया। ऐसे में समाज और सरकार की चिंता बिल्कुल जायज है। अब तो चैनलों की इस होड़ के खिलाफ हर तरफ से आवाजें भी खुलकर उठ रही हैं, लेकिन सुधरने के लिए अभी भी कोई दिल से तैयार नजर नहीं आता। इतना जरूर हुआ कि पत्रकारिता से जुड़े लोग भी अब मानने लगे हैं कि मीडिया को अपनी सीमा-रेखा तय करनी चाहिए। खबरिया चैनलों पर नकेल कसने के लिए प्रसारण विधेयक का मसौदा तीन वर्षों से तैयार पड़ा है, लेकिन वह भी सवालिया निशानों से घिरा है। जाहिर था कि टीवी चैनल औऱ मीडिया से जुड़े लोग इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला करार देकर इसका विरोध शुरू करते। मीडिया पर इस प्रकार की इमरजैंसी लोकतांत्रिक मूल्यों के भी बिल्कुल खिलाफ है, लेकिन समय आ गया है कि मीडिया को अब अपनी लक्ष्मण रेखा खुद खींचनी होगी।
इस बीच समाचार चैनलों की संस्था न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन (एनबीए) ने ऐसी घटनाओं की लाइव कवरेज को लेकर एक आचार संहिता बनाई है. जो इसे दिशा में एक सार्थक पहल है। अब जरूरत है कि खबरिया चैनल इसका उल्लंघन न करें और सूचना देने के अपने कर्तव्य को संजीदगी के साथ निभाएं।
सुरेन्द्र पॉल
व्याख्याता (पत्रकारिता) एवं प्रभारी
कर्मवीर विद्यापीठ, खण्डवा
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय
दूरभाषः कार्यालय 0733 2248895
मोबाइल 99931 09267
ई-मेल surendersml@gmail.com
लगातार बढ़ रही आतंकी गतिविधियों ने पूरे विश्व का ध्यान इस ज्वलंत मुद्दे की ओर आकर्षित किया है। नई सहस्राब्दि में विश्व का लगभग हर राष्ट्र किसी ना किसी प्रकार के आतंकवाद का शिकार हो गया है। भारतीय उपमहाद्वीप तो जैसे आतंकवाद का गढ़ ही बन गया है। भारत और इसके पड़ोसी देशों में पिछले तीन-चार वर्षों के दौरान जिस तरह से आतंकी गतिविधियां बढ़ी हैं, उससे विश्व शांति औऱ सौहार्द के पैरोकार सकते में है। ऐसे में ‘आतंकवाद’ का मीडिया की सुर्खियां बनना स्वाभाविक ही है। पूरी दुनिया में बढ़ते आतंकी हमलों ने न केवल मीडिया का ध्यान खींचा, बल्कि ‘आतंकवाद’ एक शोध का विषय भी बन गया है। अतंरराष्ट्रीय मंचों पर आतंकवाद के कारण और निवारण को लेकर बहस छिड़ी है। इस सब के बावजूद भारतीय मीडिया अभी आतंकवाद को लेकर असमंजस में ही नजर आ रहा है। खासकर इलैक्ट्रॉनिक मीडिया तो आज कटघरे में है... और उस पर उंगली उठाने वालों में पत्रकारिता से जुड़े लोगों की संख्या भी कम नहीं है।
पिछले तीन वर्षों के दौरान हुए आतंकी हमलों का यदि आंकलन करें तो स्पष्ट होता है कि भारत आतंकवाद का सबसे बड़ा शिकार बना है। आतंकी वारदातों में जान-माल की सबसे ज्यादा क्षति भारत में हुई है। ऐसे में भारतीय मीडिया से अपनी जागरूक, निर्भीक, जिम्मेदार और निर्णायक भूमिका निभाए जाने की अपेक्षा रखना स्वाभाविक ही है, लेकिन आतंकवाद को लेकर भारतीय मीडिया अभी तक अपनी कोई सार्थक दिशा तय नहीं कर पाया है। आतंकवाद को महिमामंडित करने में जुटे और दहशत व सनसनी फैलाने वाले खबरिया चैनलों को देखकर तो ऐसा ही लगता है। आतंकवाद को लेकर दो-चार समाचार चैनलों को छोड़ सारे चैनलों की स्थिति कमोबेश एक सी है।
एक दौर था जब पत्रकारिता को मिशन माना जाता था, लेकिन आज यह सब बातें पुरानी हो गईं लगती हैं। ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने और टीआरपी के जबर्दस्त दबाव के चलते खबरिया चैनलों में अपराध, सेक्स भूत-प्रेत, नाग-नागिन, ओझा-औघड़ और स्टिंग ऑपरेशन जैसी विधाएं तो पहले ही पल्लवित हो चुकी थीं, अब उसमें ‘आतंक’ भी एक विधा के रूप में जुड़ गया सा लगता है। इसने पत्रकारिता के सारे मानदंड बदलकर रख दिए हैं। इस अंधी दौड़ में खबरिया चैनलों ने भारतीय पत्रकारिता के वास्तविक स्वऱूप को धूमिल कर दिया है। टेलीविजन चैनलों की पिछले साल-भर की कवरेज पर अगर गौर करें तो लगता है जैसे उन्होंने जेहादी संगठनों की तरह ही आतंक फैलाने का बीड़ा उठा रखा है। ...और वह भी सबसे पहले, सबसे तेज, नई तस्वीरों और ब्रेकिंग न्यूज़ के दावों के साथ। हां ! ऐसा दिखाने से पूर्व टीवी चैनल “खबरदार ! तस्वीरें विचलित कर सकती हैं...” की चेतावनी के साथ कमज़ोर दिल वालों को चैनल बदलने या टीवी से दूर भागने का अवसर कभी-कभार ज़रूर दे देते हैं।
दिल्ली में कनॉट प्लेस और कुछ अन्य स्थानों पर बम रखकर दो दर्जन से अधिक मासूमों की जान लेने वाले आतंकियों ने भी पकड़े जाने पर इस बात का खुलासा किया था कि मीडिया की कवरेज से उन्हें कितना प्रोत्साहन मिलता था। उनका कहना था कि टीवी पर आतंक की खबरें देखकर और अखबारों की कवरेज पढ़कर उन्हें सुकून मिलता था और जब काफी दिनों तक टीवी औऱ अखबार उन्हें ‘सूने’ दिखाई देते तो कुछ ऐसा करने को प्रेरित करते कि उनकी करतूतें फिर सुर्खियां बन जाएं। आतंकियों की इस सोच के उजागर होने के बाद भी भारतीय मीडिया ने कोई सबक नहीं लिया और प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से आतंकियों की दुर्भावनाओं को ही प्रसारित और पोषित करने का काम चलता रहा। प्रख्यात पत्रकार प्रभाष जोशी ने हाल ही में प्रकाशित अपने एक लेख में लिखा है - “आने वाले समय में अगर नीर क्षीर विवेक से हम पत्रकारिता नहीं करेंगे तो अपनी पत्रकारिता की परंपरा पर गर्व नहीं कर सकेंगे।... “आतंकवादी का मुख्य हथियार डर होता है। हिंसा के माध्यम से वह केवल उन लोगों में ही डर पैदा नहीं करता जिनके मित्र या संबंधी मारे जाते हैं। बल्कि आतंक की लहरें काफी दूर-दूर तक जाती हैं”।
मुंबई में 26 नवम्बर 2008 के आतंकी हमले ने तो भारतीय इलैक्ट्रॉनिक मीडिया का एक ऐसा चेहरा उजागर कर दिया जिसे कुछ भी कहें, कम से कम जिम्मेदार तो नहीं कहा जा सकता। खबरिया चैनलों ने इसे ‘देश पर सबसे बड़ा आतंकी हमला’ घोषित करते हुए किसी क्रिकेट मैच की तरह ही इसकी कवरेज लगातार घण्टों दी और इस बीच देश की जनता की नींद हराम किए रखी। अपनी टीआरपी बढ़ाने के चक्कर में इस हमले को टीवी चैनलों ने कुछ इस तरह पेश किया कि आज भी टीवी पर दिखाए गए उस समय के कई दृश्य देखकर लोगों की रूह कांप उठती है। यानी मुंबई के ताज और ओबरॉय होटल व नरीमन हाउस में घुसे 10 आतंकियों ने जो कुछ किया, उसे लगातार लाइव दिखाकर टीवी चैनलों ने देश भर में आतंक फैला दिया। यहां तक कि इस होड़ में एक टीवी चैनल ने तो नरीमन हाउस और ओबेराय होटल में छिपे दो आतंकियों का ‘फोनो’ भी लाइव दिखा दिया। वैसे इस कृत्य को गलत मानते हुए केंद्र सरकार ने उक्त चैनल को नोटिस भी थमाया। नोटिस में कहा गया कि बातचीत का प्रसारण कर चैनल ने आतंकवादियों को अपना मकसद प्रचारित करने के लिए मंच प्रदान किया और देश की सुरक्षा को खतरे में डाला। साथ ही, आतंकवाद का महिमामंडन कर इसे बढ़ावा देने का काम किया। इस घटना के बाद वायुसेना प्रमुख एडमिरल सुरेश मेहता ने भी अपने बयान में नाराजगी जताते हुए कहा कि मीडिया ने सशक्त करने वाले उपकरण की भूमिका निभाने के बजाय निशक्त करने का काम किया। इस सब का असर यह हुआ कि 29 नवंबर 2008 को आई टीआरपी की रिपोर्ट में खबरिया चैनलों की दर्शक संख्या 180 प्रतिशत तक पहुंच गई। यह सब बीत गया तो खबरिया चैनलों में एक नई होड़ मच गई- पाकिस्तान के साथ युद्ध का हौव्वा खड़ा करने की। इतना ही नहीं इस घटना के कुछ माह बीत जाने के बाद आज भी टीवी चैनल इस घटना की खबरें खोद-खोद कर तलाश कर रहे हैं। ऐसे में क्या टीवी चैनल दहशत फैलाने में मुट्ठी भर आतंकियों से कहीं ज्यादा विध्वंसक नहीं दिखाई दिए? यह सवाल आज भारतीय मीडिया के समक्ष यक्षप्रश्न की तरह खड़ा है, जिसका उत्तर उसे स्वयं ढूंढना होगा।
अधिकतर टीवी चैनल आतंकवादी घटनाओं को लगभग उसी तरह प्रस्तुत करते हैं जिस तरह वे किसी आम घटना की रिपोर्टिंग करते हैं। इस बात का कतई ध्यान नहीं रखा जाता कि खुद आतंकवादी मीडिया की कवरेज से लगातार अपडेट हो सकते हैं, और मुंबई हमले के दौरान तो ऐसा हुआ भी। सबसे खतरनाक बात तो यह है कि सबसे पहले दिखाने की होड़ में टीवी चैनल शायद इस बात से भी अनभिज्ञ रहते हैं कि वे जाने-अनजाने आतंकवादियों के उपकरण और हथियार बन रहे हैं। इतना ही नहीं मीडिया की गैर-जिम्मेदाराना कवरेज से कई बार धार्मिक भावनाएं भी भड़क सकती हैं। कुल मिलाकर इन आतंक की लहरों को सुनामी बनाने का काम मीडिया ही करता है।
टीवी के इस रूप पर मीडिया विशेषज्ञ डॉ. सुधीश पचौरी अपने एक लेख में लिखते हैं- “…ऐसा करते वक्त ऐसी घटनाओं की इस तरह की बड़ी प्रस्तुतियां जिस तरह से धार्मिक किस्म का अस्मितामूलक विभाजन करती हैं उसकी जटिलताएं और बारीकियां नहीं समझी जातीं। टीवी का यह ‘अस्मिताजनक’ स्वभाव मीडिया कर्मियों के द्वारा नहीं सोचा-समझा गया कि टीवी मूलतः और अंततः अस्मिताओं के उपभोग का माध्यम है। टीवी में आकर हर तस्वीर, हर साउंड-बाइट अस्मितामूलक हो उठती है और अस्मिता-चेतना की जनक होने लगती है। इसलिए अपनी ही तस्वीरों-बाइटों को गहराई से समझना मीडिया का अपना कार्य है”।
टीवी चैनलों की दलील है कि है कि हम वह सब दिखाते हैं जिसे दर्शक देखना चाहते हैं। अगर हम 11 सितंबर 2001 को अमरीका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर (ट्विन टॉवर) पर हुए हमले की कवरेज पर गौर करें तो हमें फर्क साफ नजर आ जाएगा। इस हमले में आधिकारिक तौर पर लगभग तीन हजार लोगों की जानें गईं। पश्चिमी मीडिया ने ये दृष्य टीवी पर बहुत संजीदगी के साथ दिखाए थे और खून का एक कतरा तक उस समय की फुटेज में नहीं था। इसके विपरीत भारत में आतंकी घटनाओं के दौरान ज़्यादातर खबरिया चैनल “तस्वीरें विचलित कर सकती हैं...” की चेतावनी के साथ अधिक से अधिक आतंक फैलाने का प्रयास करते ही नज़र आए।
एक अनुमान के मुताबिक देश में लगभग 10 करोड़ टेलीविजन सेट हैं और लगभग 7 करोड़ केबल कनेक्शन धारक हैं। टेलीविजन की दर्शक संख्या 42 से 45 करोड़ है। इस स्थिति में टीवी चैनलों की सीमा तय करने और आतंकी घटनाओं की लाइव कवरेज पर अंकुश लगाने के सवाल उठना स्वाभाविक भी था। हालांकि भारतीय मीडिया की स्वतंत्रता के लिए इसे सकारात्मक तो बिल्कुल नहीं कहा जा सकता, लेकिन मीडिया की आजादी के कई पैरोकार भी इस मामले में सत्ता में बैठे लोगों के साथ सुर में सुर मिलाते दिखाई दिए।
कुछ घट जाने के बाद सबसे पहले, सबसे तेज दिखाने की चूहा-दौड़ में शामिल होने वाले टीवी चैनलों को इस बात पर चिंतन करना चाहिए कि क्यों वे हमले से पहले देश की सुरक्षात्मक खामियों की खोज-खबर लेने में नाकाम रहे। मुबंई हमले के सीधे प्रसारण ने आम दर्शकों को आतंक की दुनिया से परिचित करा दिया। ऐसे में समाज और सरकार की चिंता बिल्कुल जायज है। अब तो चैनलों की इस होड़ के खिलाफ हर तरफ से आवाजें भी खुलकर उठ रही हैं, लेकिन सुधरने के लिए अभी भी कोई दिल से तैयार नजर नहीं आता। इतना जरूर हुआ कि पत्रकारिता से जुड़े लोग भी अब मानने लगे हैं कि मीडिया को अपनी सीमा-रेखा तय करनी चाहिए। खबरिया चैनलों पर नकेल कसने के लिए प्रसारण विधेयक का मसौदा तीन वर्षों से तैयार पड़ा है, लेकिन वह भी सवालिया निशानों से घिरा है। जाहिर था कि टीवी चैनल औऱ मीडिया से जुड़े लोग इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला करार देकर इसका विरोध शुरू करते। मीडिया पर इस प्रकार की इमरजैंसी लोकतांत्रिक मूल्यों के भी बिल्कुल खिलाफ है, लेकिन समय आ गया है कि मीडिया को अब अपनी लक्ष्मण रेखा खुद खींचनी होगी।
इस बीच समाचार चैनलों की संस्था न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन (एनबीए) ने ऐसी घटनाओं की लाइव कवरेज को लेकर एक आचार संहिता बनाई है. जो इसे दिशा में एक सार्थक पहल है। अब जरूरत है कि खबरिया चैनल इसका उल्लंघन न करें और सूचना देने के अपने कर्तव्य को संजीदगी के साथ निभाएं।
सुरेन्द्र पॉल
व्याख्याता (पत्रकारिता) एवं प्रभारी
कर्मवीर विद्यापीठ, खण्डवा
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय
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Sunday, April 26, 2009
अखबारों के खिलाफ आंदोलन की जरूरत : अच्युतानंद
हमारे कुलपति महोदय का साक्षात्कार भडास4मीडिया से साभार
वरिष्ठ पत्रकार और माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति अच्युतानंद मिश्र इन दिनों हृदय की शल्य चिकित्सा के बाद अस्पताल से मुक्त होकर अब गाजियाबाद स्थित अपने आवास पर डाक्टरों की सलाह के अनुसार पूर्ण विश्राम कर स्वास्थ्य लाभ ले रहे हैं। अच्युता जी हिंदी पत्रकारिता के जाने-माने नाम हैं और बेहद सम्मानीय शख्सियत भी। वे ऐसे पत्रकार-संपादक रहे हैं जिनके ज्ञान-समझ के आगे बड़े से बड़े नेता और नौकरशाह भी श्रद्धा से झुक जाते हैं। यूपी के गाजीपुर जिले के रहने वाले अच्युताजी ने भारतीय पत्रकारिता के कई मोड़, उतार-चढ़ाव और बदलाव देखे हैं। भड़ास4मीडिया के रिपोर्टर अशोक कुमार ने हिंदी पत्रकारिता के इस हीरो से उनके आवास पर जाकर बातचीत की। पेश है इंटरव्यू के अंश-
-सबसे पहले अपने बारे में बताएं। कहां के रहने वाले हैं, जन्म कब हुआ, शुरुआती शिक्षा-दीक्षा किस तरह हुई?
--पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले में एक गांव हैं, वीरभानपुर, मैं वही का रहने वाला हूं। स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में इस गांव का प्रमुख स्थान रहा है। यहीं 6 मार्च 1937 को मेरा जन्म हुआ। शुरुआती पढ़ाई गांव में ही हुई। हाई स्कूल और इंटर गाजीपुर शहर के डीएवी कालेज से किया। हमारे जिले से बनारस और इलाहाबाद पास पड़ता है, सो ग्रेजुएशन के लिए बीएचयू आ गया। यहीं राजनीति शास्त्र में एमए किया। पढ़ाई के दौरान ही सामाजिक क्षेत्र के विषयों पर लेख लिखने लगा था। ये लेख तब ‘आज’ और ‘गांडीव’ अखबार में छपा करता था।
-पत्रकारिता में कैसे आ गए?
--बनारस में एक छोटा सा पत्र निकलता था। ‘समाचार’ नाम से। वहां श्री यादवराव देशमुख थे। उन्होंने मुझे काफी प्रोत्साहित किया। उन्हीं के चलते पत्रकारिता में आ गया। वह आरएसएस से जुड़े थे। 1962 में इसी पत्र से कैरियर शुरू किया। यहां कुछ ही महीने रहा। देशमुख जब आरएसएस के पत्र ‘पांचजन्य’ में लखनऊ के संपादक बने तो मुझे भी साथ ले गए। यहां सन 62 से लेकर 64 तक काम किया। सन् 1964 में ही लखनऊ से निकलने वाले सांध्य पत्र ‘तरुण विजय’ में आया। यहां 1966 तक रहा। असली ट्रेनिंग यहीं हुई।
-उसके बाद किन-किन संस्थानों से जुड़े?
--सन 1967 में अमर-उजाला, लखनऊ में आ गया था। तब उसका कोई आफिस भी नहीं था। यहां मैने एक रिपोर्टर के तौर पर ज्वाइन किया। फिर सीनियर रिपोर्टर और बाद में सन 1975 में ब्यूरो प्रमुख बना। इस संस्थान से लंबा साथ रहा। यहां रहते हुए अन्य पत्र-पत्रिकाओं में भी लिखने की छूट थी, सो समाजिक, राजनीतिक, साहित्यिक विषयों पर देश भर के प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में लिखता रहा। एक बात का उल्लेख करना चाहूंगा। अमर उजाला के मालिक डोरीलाल अग्रवाल जी बहुत अच्छे पत्रकार भी थे। वह केवल संपादकीय ही नहीं लिखते थे बल्कि कभी-कभी रिपोर्टिंग और प्रेस कांफ्रेस भी अटेंड करते थे। पहले जब टेलीप्रिंटर नहीं था तब हम फोन पर लखनऊ से आगरा खबर देते थे। तीन या छह मिनट की कॉल बुक कराई जाती थी। हम खबर लिख कर रख लेते थे। छह मिनट में हम छह खबरें देते थे। दूसरी ओर आगरा में डोरीलाल जी खुद फोन सुनते और हमारी खबर नोट करते थे। दूसरे दिन सभी खबरें पूरे विस्तार से प्रकाशित भी होती थी। यहां मैं 1985 तक रहा।
-अमर उजाला और जनसत्ता में दूसरी बार किस तरह पहुंचे? कोई खास वजह?
सन् 86 में प्रभाष जोशी ने मुझे समाचार संपादक बना कर जनसत्ता, दिल्ली बुला लिया। 88 में एक वर्ष के लिए मुंबई भेजा गया। वहां मैने जनसत्ता शुरू किया। सन 92 में एक साल के लिए अमर-उजाला, कानपुर में चला गया। मैं वहां का संस्थापक संपादक था। 93 में विद्यानिवास मिश्र ने नवभारत टाइम्स में बुला लिया। सन् 95 तक यहीं रहा। 96 में दुबारा जनसत्ता में लौट आया। जनसत्ता में आने की वजह अखबार में हो रहा नया प्रयोग था। हिंदी पत्रकारिता में अब तक तीन प्रयोग ही याद किए जाते हैं। पहला प्रयोग अज्ञेय जी ने ‘दिनमान’ में किया। उन्होंने अखबार में पहली बार ठेठ खबरों के साथ कला और साहित्य को जोड़ा। दूसरा प्रयोग सुरेंद्र प्रताप सिंह ने ‘रविवार’ को एक नए तेवर के साथ निकाल कर किया। उसी तरह प्रभाष जोशी ने ‘जनसत्ता’ में नई शुरुआत की। तब तक के सारे अखबार रिपोर्टर बेस्ड होते थे। उन्होंने डेस्क पर सभी खबरों को री-राइट कराना शुरू किया। इससे भाषा और वर्तनी में एकरूपता रहती थी। इसका श्रेय प्रभाष जी को जाता है। तब तक खेल तथा आर्थिक समाचार पहले पन्ने पर नहीं छपते थे, प्रभाष जी इनको प्रमुखता से पहले पन्ने पर लेकर आए।
बीच में एक वर्ष के लिए ‘अमर उजाला’ आने की दूसरी कहानी है। जब मैं अमर उजाला से जनसत्ता आ रहा था, तो डोरीलाल अग्रवाल जी ने कहा था कि जब कानपुर में एडिशन लांच होगा तो आप संपादक रहेंगे। हालांकि एडिशन के लांच होने से पहले ही उनका निधन हो गया। एडिशन लांच हुआ तो अशोक अग्रवाल ने मुझे बुलाया। मुझे अपना वादा याद था, मैंने उसे निभाया।
-जनसत्ता में दूसरी पारी कैसी रही?
-96 में मैं वरिष्ठ संपादक होकर जनसत्ता आ गया। तब राहुल देव कार्यकारी संपादक थे। बाद में मैं कार्यकारी संपादक रहा। यहां दो वर्ष यानि 98 तक रहा। सन् 1999-2000 में ‘एडिटर्स च्वाइस’ नाम से एक फीचर एजेंसी चलाया। 2001 में ‘लोकमत’ का ग्रुप एडिटर होकर नागपुर चला गया। यहां 2004 तक रहा। यहां रहते हुए मैंने इसका तीसरा एडिशन भी लांच कराया। जनवरी 2005 में माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय से जुड़ गया। तब से यहीं हूं।
-पत्रकारिता की मुख्यधारा को छोड़कर अचानक शिक्षण की तरफ कैसे मुड़ गए?
-जब मैने माखनलाल से जुड़ने का फैसला किया तो विजय दर्डा मुझे आने नहीं देना चाहते थे। लेकिन जिस तरह से अखबारों में नए प्रयोग हो रहे थे, मुझे लगा कि हम लोग उस प्रयोग के लिए ठीक नहीं हैं। तब मैं मीडिया शिक्षण की तरफ आना भी चाहता था। मुझे बुला लिया गया।
-बताया जाता है कि आपसे मिलने आपके आफिस में मुख्यमंत्री लोग आते रहे हैं? कितनी सच्चाई है इसमें?
-सन 1974 में जब मुलायम सिंह सिर्फ एमएलए थे, तभी से उनसे दोस्ती थी। यह उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद भी कायम रही। एक दिन वो कार्यालय की ओर से गुजर रहे थे और अचानक बिना बताए आफिस चले आए। एक मुख्यमंत्री इस तरह से अपने लाव-लश्कर के साथ अखबार के दफ्तर आ जाए तो चर्चा स्वभाविक थी। एनडी तिवारी, बहुगुणा, कल्याण सिंह, मुलायम सिंह इन सबसे मेरी दोस्ती थी। कोई यह भी नहीं कह सकता कि मैंने कभी इनकी प्रशंसा में कुछ लिखा हो। मेरा मानना है कि अगर आप संपादक हैं तो आपमें सच कहने का साहस होना चाहिए। मेरा यह भी अनुभव है कि सच कहने पर रिश्ते खराब नहीं होते। एक संपादक अपना सम्मान खुद ही खोता है या प्राप्त करता है। मुलायम सिंह को हमने भोपाल में बुलाया तो वो आए, लखनऊ में बुलाया तो भी वो आए। मेरे सभी तात्कालिक मुख्यमंत्रियों से अच्छे संबंध थे, एक दोस्त के तौर पर, एक सलाहकार के तौर पर।
-इतने लंबे पत्रकारिता जीवन में क्या कभी किसी परेशानी का सामना करना पड़ा?
-जब मुंबई में जनसत्ता शुरू किया था, उस दौरान हमने जो प्रयोग किया, उससे सत्ता में बैठे बड़े-बड़े लोग परेशान हो गए। तब हमने बाला साहब ठाकरे के बेटे (अब दिवंगत) के खिलाफ एक स्टोरी छाप दी थी। तब ठाकरे ने मुझे एक चिठ्ठी भेजी। उसमें लिखा था कि आप मुंबई में नए हैं। शायद आपको पता नहीं है कि यहां हमारे खिलाफ खबरें नहीं छपा करती। पत्र में जहां समझाने का भाव था तो धमकी भी थी। लेकिन यह सब पत्रकारिता जीवन का हिस्सा होता है।
-अपने समकालीन पत्रकारों और सहयोगियों को कैसे याद करते हैं?
-नवभारत टाइम्स में काम का माहौल काफी अच्छा था। उस समय के सहयोगी-साथी आलोक मेहता, राजकिशोर जी, मधूसूदन आनंद, रामकृपाल सिंह, हेमंत अग्रवाल, सूर्यकांत बाली सबका सहयोग और साथ काफी बढ़िया रहा था।
-आपके आदर्श कौन रहे हैं?
-पत्रकारिता और साहित्य के क्षेत्र में अज्ञेय जी, प्रभाष जोशी जी, निर्मल वर्मा जी, विद्यानिवास मिश्र जी से प्रभावित रहा। अंग्रेजी में नेशनल हेराल्ड के संपादक एम. चलपति राव ने मुझे प्रभावित किया। नेशनल हेराल्ड को कांग्रेस का मुख पत्र माना जाता था, मगर इमरजेंसी के दौरान उन्होंने घोषणा कर दी थी कि वो संजय गांधी की फोटो नहीं छापेंगे तो उन्होंने नहीं ही छापा। वो अज्ञात मौत मर गए लेकिन समझौता नहीं किया।
-टीवी और प्रिंट पत्रकारिता में किसे पसंद करते हैं? आपकी नजर में कौन बढ़िया काम कर रहा है?
--प्रिंट में अब भी टीवी के मुकाबले ज्यादा स्थायित्व है। यह संतोष देता है। मेरा मानना है कि हर पत्रकार के साथ उसका अपना कमिटमेंट होना चाहिए। यह पेशे के प्रति हो सकता है, अपने जमीन के प्रति हो सकता है। बिना कमिटमेंट के पत्रकारिता में संतोष नहीं है। व्यक्तिगत तौर पर मुझे कालमिस्ट ज्यादा पसंद हैं। जैसे राजकिशोर जी, सुधीर पचौरी। टीवी पत्रकारिता मुझे संतोष नहीं देती।
-आज मीडिया में मंदी का शोर मचा है। सैकड़ों पत्रकारों की नौकरी चली गई। क्या वाकई में इतनी मंदी है?
--मंदी तो थोड़ी-बहुत है। लेकिन मीडिया का इस कदर व्यावसायिक हो जाना न मीडिया के हित में है और न पाठकों के हित में। यह प्रवृत्ति बदलनी चाहिए। इसकी तुलना अन्य व्यवसाय से नहीं हो सकती। जरूरी है कि इसे अति व्यावसायिक होने से बचाया जाए। इसकी राजनीतिक उपयोगिता भले ही कम हो पर सामाजिक उपयोगिता बढ़नी चाहिए। लोगों का बहुत भरोसा है हम पर। उस पर खरा उतरना होगा। अखबार को कामर्शियल बनाकर आम आदमी की कसौटी पर खड़ा नहीं रखा जा सकता। अब जैसी स्थिति है, उसमें पाठकों द्वारा एक आंदोलन की जरूरत है। पाठकों और दर्शकों के एनजीओ बनने चाहिए, जो अपनी पसंद की मांग करे। मीडिया मालिकों पर दबाव बनाएं। फिलहाल इसमें ब्लॉग और आप जैसे न्यूज पोर्टल वालों की भूमिका अच्छी है। यह शक्तिशाली विधा है। इससे लोगों को काफी उम्मीदे हैं।
-माखनलाल पत्रकारिता विश्वविद्यालय में आपने पत्रकारिता पर कोई शोध शुरू कराया है, क्या है यह योजना?
--पत्रकारिता के इतिहास के दो हिस्से हैं। एक स्वतंत्रता के पहले और दूसरा उसके बाद। स्वतंत्रता के दौरान की पत्रकारिता आजादी के मिशन के लिए थी। उसके बाद की पत्रकारिता विकास की पत्रकारिता है। उसका अभी तक डाक्यूमेंटेशन नहीं हुआ था। शोध में इसे कई हिस्सों में डाक्यूमेंट किया गया है। इसमें हिंदी के साथ ही अन्य भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता के बारे में लिखा गया है। शोध के जरिये भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता के बीच एक समन्वय बनाने का काम शुरू हुआ है। यह बहुत महत्वाकांक्षी परियोजना है। हमने इसे मई 05 में शुरू किया था। अब अंतिम चरण में है। मेरी भूमिका इसमें परिकल्पना तक सीमित है। इसे विजय दत्त श्रीधर पूरा कर रहे हैं।
-विश्वविद्यालय को लेकर भावी योजनाएं क्या हैं?
-जनवरी 2010 में मेरा कार्यकाल समाप्त हो जाएगा। वहां पिछले 4-5 साल में जो प्रयोग हुए हैं, उससे बड़ा बदलाव आया है। यहां से निकले लड़के भी अच्छा कर रहे हैं। पत्रकारिता शिक्षण की दृष्टि से माखनलाल का प्रयोग बड़ा है। आर्थिक और प्रतिष्ठा की दृष्टि से भी सुधार हुआ है। विश्वविद्यालय प्रगति की ओर है।
-आपकी कौन सी किताबें प्रकाशित हुई है?
--लोकमत में हर रविवार को ‘जान-पहचान’ नाम से मैं एक कॉलम लिखता था। उसका एक कलेक्शन प्रभात प्रकाशन ने ‘सरोकारों के दायरे’ के नाम से छापा है। दो-तीन अन्य किताबें भी पाइप लाइन में हैं। स्वतंत्रता के बाद के पत्रकारों के ऊपर एक किताब लिखना चाहता हूं। इसमें अज्ञेय जी, डा. धर्मवीर भारती और रघुवीर सहाय को चुना है। ये तीनों ऐसे हैं जो साहित्य से पत्रकारिता में आएं। इन तीनों के साहित्यिक योगदान पर तो किताबें हैं, पर पत्रकारीय योगदान पर अब तक बहुत नहीं लिखा गया है। कोशिश है कि साल के अंत तक इसे पूरा कर दूं।
-पत्रकारिता से इतर अपने व्यक्तित्व के बारे में बताइए। फिल्में देखते थे आप?
--हां, खूब देखता था। रंगमंच मेरी पसंदीदा जगह होती थी। फिल्म पर एक विशेषांक भी निकाला था 'लोकमत' में। सिनेमा से मेरी एक शिकायत भी है। यह बहुत बड़ा उद्योग है। इसमें देश का बेहतरीन टैलेंट और पैसा लगा है, मगर इसे केवल मनोरंजन की भूमिका में डाल दिया गया है। यह उद्योग देश के नव-निर्माण में अपनी भूमिका निभा सकता है। नई पीढ़ी को अपनी सभ्यता-संस्कृति से जोड़ने का काम कर सकता है, मगर नहीं कर रहा। किसी का इस पर ध्यान नहीं है।
-खाने-पीने का शौक?
--खाने का शौक तो है मगर पीने-पिलाने से दूर ही रहता हूं।
-कभी प्रेम किया है?
--(हंसते हुए) प्रेम से ज्यादा मेरा आपसी रिश्तों पर विश्वास है। हर मनुष्य के अपने गुण-दोष होते हैं। अगर आप किसी मनुष्य को स्वीकार करते हैं तो उसे उसके गुण-दोष के साथ स्वीकार करना चाहिए।
--मतलब आपने प्रेम नहीं किया?
--भई, आप तो बिल्कुल ठेठ पत्रकारों वाले सवाल करने लगे। कौन व्यक्ति होगा, जिसने प्रेम नहीं किया होगा। हम हर स्टेज पर लोगों से जुड़ते हैं। वैसे मैं ग्रामीण परिवेश से जुड़ा और संस्कारों से बंधा व्यक्ति हूं, जिसकी एक सीमा होती है। इसे आप मेरा पिछड़ापन भी कह सकते हैं।
-आपके लिए सुख का क्षण?
-युवाओं के साथ बैठना मुझे अच्छा लगता है। उनके विचार सुनना, उनको समझना, बातचीत करना, ये सब मुझे सुख देता है। यह अपने अंदर भी परिवर्तन लाने की शुरुआत होती है, उन्हें भी फायदा मिलता है।
-किस बात से चिढ़ होती है?
--राजनीति से। राजनीतिक दलों में जो गिरावट है, देश के प्रति उत्तरदायित्व में जो कमी है, उनकी सत्ता के लिए हर समझौता करने की जो प्रवृति है, वह तकलीफदेह है।
-परिवार में कौन-कौन है?
--एक बेटा है राघवेंद्र कुमार मिश्र। उत्तर प्रदेश में यूपी पावर कारपोरेशन में अधिकारी है। वैसे मेरी ज्वाइंट फेमिली है। सभी लखनऊ में रहते हैं।
-बचपन में क्या कुछ और बनना चाहते थे?
--पत्रकार नहीं बनना चाहता था। बीएचयू में पढ़ने-पढ़ाने का काम था। वहीं शिक्षक बनना चाहता था मगर पत्रकारिता में आ गया। हालांकि यहां अच्छा है, मैं संतुष्ट हूं। माखनलाल से जुड़ कर वह इच्छा भी पूरी हो गई है।
-भविष्य की क्या योजना है?
--कुछ लेखन का काम करने का मन है। युवाओं के साथ जुड़कर भी कुछ सार्थक करना चाहता हूं।
-आप अपनी तरफ से अपने चाहने वालें से कुछ कहना चाहेंगे?
-मैं अपने सभी दोस्तों, शुभचिंतकों को शुक्रिया अदा करना चाहता हूं। मेरे अस्वस्थ होने के दौरान लोगों के बड़े फोन आए। कई लोग खुद भी मिलने आए। उन्हीं के स्नेह से इतनी जल्दी स्वस्थ हो पा रहा हूं। आपके माध्यम से उन सबको धन्यवाद कहना चाहता हूं।
वरिष्ठ पत्रकार और माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति अच्युतानंद मिश्र इन दिनों हृदय की शल्य चिकित्सा के बाद अस्पताल से मुक्त होकर अब गाजियाबाद स्थित अपने आवास पर डाक्टरों की सलाह के अनुसार पूर्ण विश्राम कर स्वास्थ्य लाभ ले रहे हैं। अच्युता जी हिंदी पत्रकारिता के जाने-माने नाम हैं और बेहद सम्मानीय शख्सियत भी। वे ऐसे पत्रकार-संपादक रहे हैं जिनके ज्ञान-समझ के आगे बड़े से बड़े नेता और नौकरशाह भी श्रद्धा से झुक जाते हैं। यूपी के गाजीपुर जिले के रहने वाले अच्युताजी ने भारतीय पत्रकारिता के कई मोड़, उतार-चढ़ाव और बदलाव देखे हैं। भड़ास4मीडिया के रिपोर्टर अशोक कुमार ने हिंदी पत्रकारिता के इस हीरो से उनके आवास पर जाकर बातचीत की। पेश है इंटरव्यू के अंश-
-सबसे पहले अपने बारे में बताएं। कहां के रहने वाले हैं, जन्म कब हुआ, शुरुआती शिक्षा-दीक्षा किस तरह हुई?
--पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले में एक गांव हैं, वीरभानपुर, मैं वही का रहने वाला हूं। स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में इस गांव का प्रमुख स्थान रहा है। यहीं 6 मार्च 1937 को मेरा जन्म हुआ। शुरुआती पढ़ाई गांव में ही हुई। हाई स्कूल और इंटर गाजीपुर शहर के डीएवी कालेज से किया। हमारे जिले से बनारस और इलाहाबाद पास पड़ता है, सो ग्रेजुएशन के लिए बीएचयू आ गया। यहीं राजनीति शास्त्र में एमए किया। पढ़ाई के दौरान ही सामाजिक क्षेत्र के विषयों पर लेख लिखने लगा था। ये लेख तब ‘आज’ और ‘गांडीव’ अखबार में छपा करता था।
-पत्रकारिता में कैसे आ गए?
--बनारस में एक छोटा सा पत्र निकलता था। ‘समाचार’ नाम से। वहां श्री यादवराव देशमुख थे। उन्होंने मुझे काफी प्रोत्साहित किया। उन्हीं के चलते पत्रकारिता में आ गया। वह आरएसएस से जुड़े थे। 1962 में इसी पत्र से कैरियर शुरू किया। यहां कुछ ही महीने रहा। देशमुख जब आरएसएस के पत्र ‘पांचजन्य’ में लखनऊ के संपादक बने तो मुझे भी साथ ले गए। यहां सन 62 से लेकर 64 तक काम किया। सन् 1964 में ही लखनऊ से निकलने वाले सांध्य पत्र ‘तरुण विजय’ में आया। यहां 1966 तक रहा। असली ट्रेनिंग यहीं हुई।
-उसके बाद किन-किन संस्थानों से जुड़े?
--सन 1967 में अमर-उजाला, लखनऊ में आ गया था। तब उसका कोई आफिस भी नहीं था। यहां मैने एक रिपोर्टर के तौर पर ज्वाइन किया। फिर सीनियर रिपोर्टर और बाद में सन 1975 में ब्यूरो प्रमुख बना। इस संस्थान से लंबा साथ रहा। यहां रहते हुए अन्य पत्र-पत्रिकाओं में भी लिखने की छूट थी, सो समाजिक, राजनीतिक, साहित्यिक विषयों पर देश भर के प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में लिखता रहा। एक बात का उल्लेख करना चाहूंगा। अमर उजाला के मालिक डोरीलाल अग्रवाल जी बहुत अच्छे पत्रकार भी थे। वह केवल संपादकीय ही नहीं लिखते थे बल्कि कभी-कभी रिपोर्टिंग और प्रेस कांफ्रेस भी अटेंड करते थे। पहले जब टेलीप्रिंटर नहीं था तब हम फोन पर लखनऊ से आगरा खबर देते थे। तीन या छह मिनट की कॉल बुक कराई जाती थी। हम खबर लिख कर रख लेते थे। छह मिनट में हम छह खबरें देते थे। दूसरी ओर आगरा में डोरीलाल जी खुद फोन सुनते और हमारी खबर नोट करते थे। दूसरे दिन सभी खबरें पूरे विस्तार से प्रकाशित भी होती थी। यहां मैं 1985 तक रहा।
-अमर उजाला और जनसत्ता में दूसरी बार किस तरह पहुंचे? कोई खास वजह?
सन् 86 में प्रभाष जोशी ने मुझे समाचार संपादक बना कर जनसत्ता, दिल्ली बुला लिया। 88 में एक वर्ष के लिए मुंबई भेजा गया। वहां मैने जनसत्ता शुरू किया। सन 92 में एक साल के लिए अमर-उजाला, कानपुर में चला गया। मैं वहां का संस्थापक संपादक था। 93 में विद्यानिवास मिश्र ने नवभारत टाइम्स में बुला लिया। सन् 95 तक यहीं रहा। 96 में दुबारा जनसत्ता में लौट आया। जनसत्ता में आने की वजह अखबार में हो रहा नया प्रयोग था। हिंदी पत्रकारिता में अब तक तीन प्रयोग ही याद किए जाते हैं। पहला प्रयोग अज्ञेय जी ने ‘दिनमान’ में किया। उन्होंने अखबार में पहली बार ठेठ खबरों के साथ कला और साहित्य को जोड़ा। दूसरा प्रयोग सुरेंद्र प्रताप सिंह ने ‘रविवार’ को एक नए तेवर के साथ निकाल कर किया। उसी तरह प्रभाष जोशी ने ‘जनसत्ता’ में नई शुरुआत की। तब तक के सारे अखबार रिपोर्टर बेस्ड होते थे। उन्होंने डेस्क पर सभी खबरों को री-राइट कराना शुरू किया। इससे भाषा और वर्तनी में एकरूपता रहती थी। इसका श्रेय प्रभाष जी को जाता है। तब तक खेल तथा आर्थिक समाचार पहले पन्ने पर नहीं छपते थे, प्रभाष जी इनको प्रमुखता से पहले पन्ने पर लेकर आए।
बीच में एक वर्ष के लिए ‘अमर उजाला’ आने की दूसरी कहानी है। जब मैं अमर उजाला से जनसत्ता आ रहा था, तो डोरीलाल अग्रवाल जी ने कहा था कि जब कानपुर में एडिशन लांच होगा तो आप संपादक रहेंगे। हालांकि एडिशन के लांच होने से पहले ही उनका निधन हो गया। एडिशन लांच हुआ तो अशोक अग्रवाल ने मुझे बुलाया। मुझे अपना वादा याद था, मैंने उसे निभाया।
-जनसत्ता में दूसरी पारी कैसी रही?
-96 में मैं वरिष्ठ संपादक होकर जनसत्ता आ गया। तब राहुल देव कार्यकारी संपादक थे। बाद में मैं कार्यकारी संपादक रहा। यहां दो वर्ष यानि 98 तक रहा। सन् 1999-2000 में ‘एडिटर्स च्वाइस’ नाम से एक फीचर एजेंसी चलाया। 2001 में ‘लोकमत’ का ग्रुप एडिटर होकर नागपुर चला गया। यहां 2004 तक रहा। यहां रहते हुए मैंने इसका तीसरा एडिशन भी लांच कराया। जनवरी 2005 में माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय से जुड़ गया। तब से यहीं हूं।
-पत्रकारिता की मुख्यधारा को छोड़कर अचानक शिक्षण की तरफ कैसे मुड़ गए?
-जब मैने माखनलाल से जुड़ने का फैसला किया तो विजय दर्डा मुझे आने नहीं देना चाहते थे। लेकिन जिस तरह से अखबारों में नए प्रयोग हो रहे थे, मुझे लगा कि हम लोग उस प्रयोग के लिए ठीक नहीं हैं। तब मैं मीडिया शिक्षण की तरफ आना भी चाहता था। मुझे बुला लिया गया।
-बताया जाता है कि आपसे मिलने आपके आफिस में मुख्यमंत्री लोग आते रहे हैं? कितनी सच्चाई है इसमें?
-सन 1974 में जब मुलायम सिंह सिर्फ एमएलए थे, तभी से उनसे दोस्ती थी। यह उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद भी कायम रही। एक दिन वो कार्यालय की ओर से गुजर रहे थे और अचानक बिना बताए आफिस चले आए। एक मुख्यमंत्री इस तरह से अपने लाव-लश्कर के साथ अखबार के दफ्तर आ जाए तो चर्चा स्वभाविक थी। एनडी तिवारी, बहुगुणा, कल्याण सिंह, मुलायम सिंह इन सबसे मेरी दोस्ती थी। कोई यह भी नहीं कह सकता कि मैंने कभी इनकी प्रशंसा में कुछ लिखा हो। मेरा मानना है कि अगर आप संपादक हैं तो आपमें सच कहने का साहस होना चाहिए। मेरा यह भी अनुभव है कि सच कहने पर रिश्ते खराब नहीं होते। एक संपादक अपना सम्मान खुद ही खोता है या प्राप्त करता है। मुलायम सिंह को हमने भोपाल में बुलाया तो वो आए, लखनऊ में बुलाया तो भी वो आए। मेरे सभी तात्कालिक मुख्यमंत्रियों से अच्छे संबंध थे, एक दोस्त के तौर पर, एक सलाहकार के तौर पर।
-इतने लंबे पत्रकारिता जीवन में क्या कभी किसी परेशानी का सामना करना पड़ा?
-जब मुंबई में जनसत्ता शुरू किया था, उस दौरान हमने जो प्रयोग किया, उससे सत्ता में बैठे बड़े-बड़े लोग परेशान हो गए। तब हमने बाला साहब ठाकरे के बेटे (अब दिवंगत) के खिलाफ एक स्टोरी छाप दी थी। तब ठाकरे ने मुझे एक चिठ्ठी भेजी। उसमें लिखा था कि आप मुंबई में नए हैं। शायद आपको पता नहीं है कि यहां हमारे खिलाफ खबरें नहीं छपा करती। पत्र में जहां समझाने का भाव था तो धमकी भी थी। लेकिन यह सब पत्रकारिता जीवन का हिस्सा होता है।
-अपने समकालीन पत्रकारों और सहयोगियों को कैसे याद करते हैं?
-नवभारत टाइम्स में काम का माहौल काफी अच्छा था। उस समय के सहयोगी-साथी आलोक मेहता, राजकिशोर जी, मधूसूदन आनंद, रामकृपाल सिंह, हेमंत अग्रवाल, सूर्यकांत बाली सबका सहयोग और साथ काफी बढ़िया रहा था।
-आपके आदर्श कौन रहे हैं?
-पत्रकारिता और साहित्य के क्षेत्र में अज्ञेय जी, प्रभाष जोशी जी, निर्मल वर्मा जी, विद्यानिवास मिश्र जी से प्रभावित रहा। अंग्रेजी में नेशनल हेराल्ड के संपादक एम. चलपति राव ने मुझे प्रभावित किया। नेशनल हेराल्ड को कांग्रेस का मुख पत्र माना जाता था, मगर इमरजेंसी के दौरान उन्होंने घोषणा कर दी थी कि वो संजय गांधी की फोटो नहीं छापेंगे तो उन्होंने नहीं ही छापा। वो अज्ञात मौत मर गए लेकिन समझौता नहीं किया।
-टीवी और प्रिंट पत्रकारिता में किसे पसंद करते हैं? आपकी नजर में कौन बढ़िया काम कर रहा है?
--प्रिंट में अब भी टीवी के मुकाबले ज्यादा स्थायित्व है। यह संतोष देता है। मेरा मानना है कि हर पत्रकार के साथ उसका अपना कमिटमेंट होना चाहिए। यह पेशे के प्रति हो सकता है, अपने जमीन के प्रति हो सकता है। बिना कमिटमेंट के पत्रकारिता में संतोष नहीं है। व्यक्तिगत तौर पर मुझे कालमिस्ट ज्यादा पसंद हैं। जैसे राजकिशोर जी, सुधीर पचौरी। टीवी पत्रकारिता मुझे संतोष नहीं देती।
-आज मीडिया में मंदी का शोर मचा है। सैकड़ों पत्रकारों की नौकरी चली गई। क्या वाकई में इतनी मंदी है?
--मंदी तो थोड़ी-बहुत है। लेकिन मीडिया का इस कदर व्यावसायिक हो जाना न मीडिया के हित में है और न पाठकों के हित में। यह प्रवृत्ति बदलनी चाहिए। इसकी तुलना अन्य व्यवसाय से नहीं हो सकती। जरूरी है कि इसे अति व्यावसायिक होने से बचाया जाए। इसकी राजनीतिक उपयोगिता भले ही कम हो पर सामाजिक उपयोगिता बढ़नी चाहिए। लोगों का बहुत भरोसा है हम पर। उस पर खरा उतरना होगा। अखबार को कामर्शियल बनाकर आम आदमी की कसौटी पर खड़ा नहीं रखा जा सकता। अब जैसी स्थिति है, उसमें पाठकों द्वारा एक आंदोलन की जरूरत है। पाठकों और दर्शकों के एनजीओ बनने चाहिए, जो अपनी पसंद की मांग करे। मीडिया मालिकों पर दबाव बनाएं। फिलहाल इसमें ब्लॉग और आप जैसे न्यूज पोर्टल वालों की भूमिका अच्छी है। यह शक्तिशाली विधा है। इससे लोगों को काफी उम्मीदे हैं।
-माखनलाल पत्रकारिता विश्वविद्यालय में आपने पत्रकारिता पर कोई शोध शुरू कराया है, क्या है यह योजना?
--पत्रकारिता के इतिहास के दो हिस्से हैं। एक स्वतंत्रता के पहले और दूसरा उसके बाद। स्वतंत्रता के दौरान की पत्रकारिता आजादी के मिशन के लिए थी। उसके बाद की पत्रकारिता विकास की पत्रकारिता है। उसका अभी तक डाक्यूमेंटेशन नहीं हुआ था। शोध में इसे कई हिस्सों में डाक्यूमेंट किया गया है। इसमें हिंदी के साथ ही अन्य भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता के बारे में लिखा गया है। शोध के जरिये भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता के बीच एक समन्वय बनाने का काम शुरू हुआ है। यह बहुत महत्वाकांक्षी परियोजना है। हमने इसे मई 05 में शुरू किया था। अब अंतिम चरण में है। मेरी भूमिका इसमें परिकल्पना तक सीमित है। इसे विजय दत्त श्रीधर पूरा कर रहे हैं।
-विश्वविद्यालय को लेकर भावी योजनाएं क्या हैं?
-जनवरी 2010 में मेरा कार्यकाल समाप्त हो जाएगा। वहां पिछले 4-5 साल में जो प्रयोग हुए हैं, उससे बड़ा बदलाव आया है। यहां से निकले लड़के भी अच्छा कर रहे हैं। पत्रकारिता शिक्षण की दृष्टि से माखनलाल का प्रयोग बड़ा है। आर्थिक और प्रतिष्ठा की दृष्टि से भी सुधार हुआ है। विश्वविद्यालय प्रगति की ओर है।
-आपकी कौन सी किताबें प्रकाशित हुई है?
--लोकमत में हर रविवार को ‘जान-पहचान’ नाम से मैं एक कॉलम लिखता था। उसका एक कलेक्शन प्रभात प्रकाशन ने ‘सरोकारों के दायरे’ के नाम से छापा है। दो-तीन अन्य किताबें भी पाइप लाइन में हैं। स्वतंत्रता के बाद के पत्रकारों के ऊपर एक किताब लिखना चाहता हूं। इसमें अज्ञेय जी, डा. धर्मवीर भारती और रघुवीर सहाय को चुना है। ये तीनों ऐसे हैं जो साहित्य से पत्रकारिता में आएं। इन तीनों के साहित्यिक योगदान पर तो किताबें हैं, पर पत्रकारीय योगदान पर अब तक बहुत नहीं लिखा गया है। कोशिश है कि साल के अंत तक इसे पूरा कर दूं।
-पत्रकारिता से इतर अपने व्यक्तित्व के बारे में बताइए। फिल्में देखते थे आप?
--हां, खूब देखता था। रंगमंच मेरी पसंदीदा जगह होती थी। फिल्म पर एक विशेषांक भी निकाला था 'लोकमत' में। सिनेमा से मेरी एक शिकायत भी है। यह बहुत बड़ा उद्योग है। इसमें देश का बेहतरीन टैलेंट और पैसा लगा है, मगर इसे केवल मनोरंजन की भूमिका में डाल दिया गया है। यह उद्योग देश के नव-निर्माण में अपनी भूमिका निभा सकता है। नई पीढ़ी को अपनी सभ्यता-संस्कृति से जोड़ने का काम कर सकता है, मगर नहीं कर रहा। किसी का इस पर ध्यान नहीं है।
-खाने-पीने का शौक?
--खाने का शौक तो है मगर पीने-पिलाने से दूर ही रहता हूं।
-कभी प्रेम किया है?
--(हंसते हुए) प्रेम से ज्यादा मेरा आपसी रिश्तों पर विश्वास है। हर मनुष्य के अपने गुण-दोष होते हैं। अगर आप किसी मनुष्य को स्वीकार करते हैं तो उसे उसके गुण-दोष के साथ स्वीकार करना चाहिए।
--मतलब आपने प्रेम नहीं किया?
--भई, आप तो बिल्कुल ठेठ पत्रकारों वाले सवाल करने लगे। कौन व्यक्ति होगा, जिसने प्रेम नहीं किया होगा। हम हर स्टेज पर लोगों से जुड़ते हैं। वैसे मैं ग्रामीण परिवेश से जुड़ा और संस्कारों से बंधा व्यक्ति हूं, जिसकी एक सीमा होती है। इसे आप मेरा पिछड़ापन भी कह सकते हैं।
-आपके लिए सुख का क्षण?
-युवाओं के साथ बैठना मुझे अच्छा लगता है। उनके विचार सुनना, उनको समझना, बातचीत करना, ये सब मुझे सुख देता है। यह अपने अंदर भी परिवर्तन लाने की शुरुआत होती है, उन्हें भी फायदा मिलता है।
-किस बात से चिढ़ होती है?
--राजनीति से। राजनीतिक दलों में जो गिरावट है, देश के प्रति उत्तरदायित्व में जो कमी है, उनकी सत्ता के लिए हर समझौता करने की जो प्रवृति है, वह तकलीफदेह है।
-परिवार में कौन-कौन है?
--एक बेटा है राघवेंद्र कुमार मिश्र। उत्तर प्रदेश में यूपी पावर कारपोरेशन में अधिकारी है। वैसे मेरी ज्वाइंट फेमिली है। सभी लखनऊ में रहते हैं।
-बचपन में क्या कुछ और बनना चाहते थे?
--पत्रकार नहीं बनना चाहता था। बीएचयू में पढ़ने-पढ़ाने का काम था। वहीं शिक्षक बनना चाहता था मगर पत्रकारिता में आ गया। हालांकि यहां अच्छा है, मैं संतुष्ट हूं। माखनलाल से जुड़ कर वह इच्छा भी पूरी हो गई है।
-भविष्य की क्या योजना है?
--कुछ लेखन का काम करने का मन है। युवाओं के साथ जुड़कर भी कुछ सार्थक करना चाहता हूं।
-आप अपनी तरफ से अपने चाहने वालें से कुछ कहना चाहेंगे?
-मैं अपने सभी दोस्तों, शुभचिंतकों को शुक्रिया अदा करना चाहता हूं। मेरे अस्वस्थ होने के दौरान लोगों के बड़े फोन आए। कई लोग खुद भी मिलने आए। उन्हीं के स्नेह से इतनी जल्दी स्वस्थ हो पा रहा हूं। आपके माध्यम से उन सबको धन्यवाद कहना चाहता हूं।
भडास4मीडिया से साभार
प्रस्तुति
सुरेन्द्र पॉल
व्याख्याता (पत्रकारिता)
कर्मवीर विद्यापीठ, खण्डवा
(माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल)
दूरभाष 0733 2248895
मोबाइल 99931 09267
वरिष्ठ पत्रकार और माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति अच्युतानंद मिश्र इन दिनों हृदय की शल्य चिकित्सा के बाद अस्पताल से मुक्त होकर अब गाजियाबाद स्थित अपने आवास पर डाक्टरों की सलाह के अनुसार पूर्ण विश्राम कर स्वास्थ्य लाभ ले रहे हैं। अच्युता जी हिंदी पत्रकारिता के जाने-माने नाम हैं और बेहद सम्मानीय शख्सियत भी। वे ऐसे पत्रकार-संपादक रहे हैं जिनके ज्ञान-समझ के आगे बड़े से बड़े नेता और नौकरशाह भी श्रद्धा से झुक जाते हैं। यूपी के गाजीपुर जिले के रहने वाले अच्युताजी ने भारतीय पत्रकारिता के कई मोड़, उतार-चढ़ाव और बदलाव देखे हैं। भड़ास4मीडिया के रिपोर्टर अशोक कुमार ने हिंदी पत्रकारिता के इस हीरो से उनके आवास पर जाकर बातचीत की। पेश है इंटरव्यू के अंश-
-सबसे पहले अपने बारे में बताएं। कहां के रहने वाले हैं, जन्म कब हुआ, शुरुआती शिक्षा-दीक्षा किस तरह हुई?
--पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले में एक गांव हैं, वीरभानपुर, मैं वही का रहने वाला हूं। स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में इस गांव का प्रमुख स्थान रहा है। यहीं 6 मार्च 1937 को मेरा जन्म हुआ। शुरुआती पढ़ाई गांव में ही हुई। हाई स्कूल और इंटर गाजीपुर शहर के डीएवी कालेज से किया। हमारे जिले से बनारस और इलाहाबाद पास पड़ता है, सो ग्रेजुएशन के लिए बीएचयू आ गया। यहीं राजनीति शास्त्र में एमए किया। पढ़ाई के दौरान ही सामाजिक क्षेत्र के विषयों पर लेख लिखने लगा था। ये लेख तब ‘आज’ और ‘गांडीव’ अखबार में छपा करता था।
-पत्रकारिता में कैसे आ गए?
--बनारस में एक छोटा सा पत्र निकलता था। ‘समाचार’ नाम से। वहां श्री यादवराव देशमुख थे। उन्होंने मुझे काफी प्रोत्साहित किया। उन्हीं के चलते पत्रकारिता में आ गया। वह आरएसएस से जुड़े थे। 1962 में इसी पत्र से कैरियर शुरू किया। यहां कुछ ही महीने रहा। देशमुख जब आरएसएस के पत्र ‘पांचजन्य’ में लखनऊ के संपादक बने तो मुझे भी साथ ले गए। यहां सन 62 से लेकर 64 तक काम किया। सन् 1964 में ही लखनऊ से निकलने वाले सांध्य पत्र ‘तरुण विजय’ में आया। यहां 1966 तक रहा। असली ट्रेनिंग यहीं हुई।
-उसके बाद किन-किन संस्थानों से जुड़े?
--सन 1967 में अमर-उजाला, लखनऊ में आ गया था। तब उसका कोई आफिस भी नहीं था। यहां मैने एक रिपोर्टर के तौर पर ज्वाइन किया। फिर सीनियर रिपोर्टर और बाद में सन 1975 में ब्यूरो प्रमुख बना। इस संस्थान से लंबा साथ रहा। यहां रहते हुए अन्य पत्र-पत्रिकाओं में भी लिखने की छूट थी, सो समाजिक, राजनीतिक, साहित्यिक विषयों पर देश भर के प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में लिखता रहा। एक बात का उल्लेख करना चाहूंगा। अमर उजाला के मालिक डोरीलाल अग्रवाल जी बहुत अच्छे पत्रकार भी थे। वह केवल संपादकीय ही नहीं लिखते थे बल्कि कभी-कभी रिपोर्टिंग और प्रेस कांफ्रेस भी अटेंड करते थे। पहले जब टेलीप्रिंटर नहीं था तब हम फोन पर लखनऊ से आगरा खबर देते थे। तीन या छह मिनट की कॉल बुक कराई जाती थी। हम खबर लिख कर रख लेते थे। छह मिनट में हम छह खबरें देते थे। दूसरी ओर आगरा में डोरीलाल जी खुद फोन सुनते और हमारी खबर नोट करते थे। दूसरे दिन सभी खबरें पूरे विस्तार से प्रकाशित भी होती थी। यहां मैं 1985 तक रहा।
-अमर उजाला और जनसत्ता में दूसरी बार किस तरह पहुंचे? कोई खास वजह?
सन् 86 में प्रभाष जोशी ने मुझे समाचार संपादक बना कर जनसत्ता, दिल्ली बुला लिया। 88 में एक वर्ष के लिए मुंबई भेजा गया। वहां मैने जनसत्ता शुरू किया। सन 92 में एक साल के लिए अमर-उजाला, कानपुर में चला गया। मैं वहां का संस्थापक संपादक था। 93 में विद्यानिवास मिश्र ने नवभारत टाइम्स में बुला लिया। सन् 95 तक यहीं रहा। 96 में दुबारा जनसत्ता में लौट आया। जनसत्ता में आने की वजह अखबार में हो रहा नया प्रयोग था। हिंदी पत्रकारिता में अब तक तीन प्रयोग ही याद किए जाते हैं। पहला प्रयोग अज्ञेय जी ने ‘दिनमान’ में किया। उन्होंने अखबार में पहली बार ठेठ खबरों के साथ कला और साहित्य को जोड़ा। दूसरा प्रयोग सुरेंद्र प्रताप सिंह ने ‘रविवार’ को एक नए तेवर के साथ निकाल कर किया। उसी तरह प्रभाष जोशी ने ‘जनसत्ता’ में नई शुरुआत की। तब तक के सारे अखबार रिपोर्टर बेस्ड होते थे। उन्होंने डेस्क पर सभी खबरों को री-राइट कराना शुरू किया। इससे भाषा और वर्तनी में एकरूपता रहती थी। इसका श्रेय प्रभाष जी को जाता है। तब तक खेल तथा आर्थिक समाचार पहले पन्ने पर नहीं छपते थे, प्रभाष जी इनको प्रमुखता से पहले पन्ने पर लेकर आए।
बीच में एक वर्ष के लिए ‘अमर उजाला’ आने की दूसरी कहानी है। जब मैं अमर उजाला से जनसत्ता आ रहा था, तो डोरीलाल अग्रवाल जी ने कहा था कि जब कानपुर में एडिशन लांच होगा तो आप संपादक रहेंगे। हालांकि एडिशन के लांच होने से पहले ही उनका निधन हो गया। एडिशन लांच हुआ तो अशोक अग्रवाल ने मुझे बुलाया। मुझे अपना वादा याद था, मैंने उसे निभाया।
-जनसत्ता में दूसरी पारी कैसी रही?
-96 में मैं वरिष्ठ संपादक होकर जनसत्ता आ गया। तब राहुल देव कार्यकारी संपादक थे। बाद में मैं कार्यकारी संपादक रहा। यहां दो वर्ष यानि 98 तक रहा। सन् 1999-2000 में ‘एडिटर्स च्वाइस’ नाम से एक फीचर एजेंसी चलाया। 2001 में ‘लोकमत’ का ग्रुप एडिटर होकर नागपुर चला गया। यहां 2004 तक रहा। यहां रहते हुए मैंने इसका तीसरा एडिशन भी लांच कराया। जनवरी 2005 में माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय से जुड़ गया। तब से यहीं हूं।
-पत्रकारिता की मुख्यधारा को छोड़कर अचानक शिक्षण की तरफ कैसे मुड़ गए?
-जब मैने माखनलाल से जुड़ने का फैसला किया तो विजय दर्डा मुझे आने नहीं देना चाहते थे। लेकिन जिस तरह से अखबारों में नए प्रयोग हो रहे थे, मुझे लगा कि हम लोग उस प्रयोग के लिए ठीक नहीं हैं। तब मैं मीडिया शिक्षण की तरफ आना भी चाहता था। मुझे बुला लिया गया।
-बताया जाता है कि आपसे मिलने आपके आफिस में मुख्यमंत्री लोग आते रहे हैं? कितनी सच्चाई है इसमें?
-सन 1974 में जब मुलायम सिंह सिर्फ एमएलए थे, तभी से उनसे दोस्ती थी। यह उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद भी कायम रही। एक दिन वो कार्यालय की ओर से गुजर रहे थे और अचानक बिना बताए आफिस चले आए। एक मुख्यमंत्री इस तरह से अपने लाव-लश्कर के साथ अखबार के दफ्तर आ जाए तो चर्चा स्वभाविक थी। एनडी तिवारी, बहुगुणा, कल्याण सिंह, मुलायम सिंह इन सबसे मेरी दोस्ती थी। कोई यह भी नहीं कह सकता कि मैंने कभी इनकी प्रशंसा में कुछ लिखा हो। मेरा मानना है कि अगर आप संपादक हैं तो आपमें सच कहने का साहस होना चाहिए। मेरा यह भी अनुभव है कि सच कहने पर रिश्ते खराब नहीं होते। एक संपादक अपना सम्मान खुद ही खोता है या प्राप्त करता है। मुलायम सिंह को हमने भोपाल में बुलाया तो वो आए, लखनऊ में बुलाया तो भी वो आए। मेरे सभी तात्कालिक मुख्यमंत्रियों से अच्छे संबंध थे, एक दोस्त के तौर पर, एक सलाहकार के तौर पर।
-इतने लंबे पत्रकारिता जीवन में क्या कभी किसी परेशानी का सामना करना पड़ा?
-जब मुंबई में जनसत्ता शुरू किया था, उस दौरान हमने जो प्रयोग किया, उससे सत्ता में बैठे बड़े-बड़े लोग परेशान हो गए। तब हमने बाला साहब ठाकरे के बेटे (अब दिवंगत) के खिलाफ एक स्टोरी छाप दी थी। तब ठाकरे ने मुझे एक चिठ्ठी भेजी। उसमें लिखा था कि आप मुंबई में नए हैं। शायद आपको पता नहीं है कि यहां हमारे खिलाफ खबरें नहीं छपा करती। पत्र में जहां समझाने का भाव था तो धमकी भी थी। लेकिन यह सब पत्रकारिता जीवन का हिस्सा होता है।
-अपने समकालीन पत्रकारों और सहयोगियों को कैसे याद करते हैं?
-नवभारत टाइम्स में काम का माहौल काफी अच्छा था। उस समय के सहयोगी-साथी आलोक मेहता, राजकिशोर जी, मधूसूदन आनंद, रामकृपाल सिंह, हेमंत अग्रवाल, सूर्यकांत बाली सबका सहयोग और साथ काफी बढ़िया रहा था।
-आपके आदर्श कौन रहे हैं?
-पत्रकारिता और साहित्य के क्षेत्र में अज्ञेय जी, प्रभाष जोशी जी, निर्मल वर्मा जी, विद्यानिवास मिश्र जी से प्रभावित रहा। अंग्रेजी में नेशनल हेराल्ड के संपादक एम. चलपति राव ने मुझे प्रभावित किया। नेशनल हेराल्ड को कांग्रेस का मुख पत्र माना जाता था, मगर इमरजेंसी के दौरान उन्होंने घोषणा कर दी थी कि वो संजय गांधी की फोटो नहीं छापेंगे तो उन्होंने नहीं ही छापा। वो अज्ञात मौत मर गए लेकिन समझौता नहीं किया।
-टीवी और प्रिंट पत्रकारिता में किसे पसंद करते हैं? आपकी नजर में कौन बढ़िया काम कर रहा है?
--प्रिंट में अब भी टीवी के मुकाबले ज्यादा स्थायित्व है। यह संतोष देता है। मेरा मानना है कि हर पत्रकार के साथ उसका अपना कमिटमेंट होना चाहिए। यह पेशे के प्रति हो सकता है, अपने जमीन के प्रति हो सकता है। बिना कमिटमेंट के पत्रकारिता में संतोष नहीं है। व्यक्तिगत तौर पर मुझे कालमिस्ट ज्यादा पसंद हैं। जैसे राजकिशोर जी, सुधीर पचौरी। टीवी पत्रकारिता मुझे संतोष नहीं देती।
-आज मीडिया में मंदी का शोर मचा है। सैकड़ों पत्रकारों की नौकरी चली गई। क्या वाकई में इतनी मंदी है?
--मंदी तो थोड़ी-बहुत है। लेकिन मीडिया का इस कदर व्यावसायिक हो जाना न मीडिया के हित में है और न पाठकों के हित में। यह प्रवृत्ति बदलनी चाहिए। इसकी तुलना अन्य व्यवसाय से नहीं हो सकती। जरूरी है कि इसे अति व्यावसायिक होने से बचाया जाए। इसकी राजनीतिक उपयोगिता भले ही कम हो पर सामाजिक उपयोगिता बढ़नी चाहिए। लोगों का बहुत भरोसा है हम पर। उस पर खरा उतरना होगा। अखबार को कामर्शियल बनाकर आम आदमी की कसौटी पर खड़ा नहीं रखा जा सकता। अब जैसी स्थिति है, उसमें पाठकों द्वारा एक आंदोलन की जरूरत है। पाठकों और दर्शकों के एनजीओ बनने चाहिए, जो अपनी पसंद की मांग करे। मीडिया मालिकों पर दबाव बनाएं। फिलहाल इसमें ब्लॉग और आप जैसे न्यूज पोर्टल वालों की भूमिका अच्छी है। यह शक्तिशाली विधा है। इससे लोगों को काफी उम्मीदे हैं।
-माखनलाल पत्रकारिता विश्वविद्यालय में आपने पत्रकारिता पर कोई शोध शुरू कराया है, क्या है यह योजना?
--पत्रकारिता के इतिहास के दो हिस्से हैं। एक स्वतंत्रता के पहले और दूसरा उसके बाद। स्वतंत्रता के दौरान की पत्रकारिता आजादी के मिशन के लिए थी। उसके बाद की पत्रकारिता विकास की पत्रकारिता है। उसका अभी तक डाक्यूमेंटेशन नहीं हुआ था। शोध में इसे कई हिस्सों में डाक्यूमेंट किया गया है। इसमें हिंदी के साथ ही अन्य भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता के बारे में लिखा गया है। शोध के जरिये भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता के बीच एक समन्वय बनाने का काम शुरू हुआ है। यह बहुत महत्वाकांक्षी परियोजना है। हमने इसे मई 05 में शुरू किया था। अब अंतिम चरण में है। मेरी भूमिका इसमें परिकल्पना तक सीमित है। इसे विजय दत्त श्रीधर पूरा कर रहे हैं।
-विश्वविद्यालय को लेकर भावी योजनाएं क्या हैं?
-जनवरी 2010 में मेरा कार्यकाल समाप्त हो जाएगा। वहां पिछले 4-5 साल में जो प्रयोग हुए हैं, उससे बड़ा बदलाव आया है। यहां से निकले लड़के भी अच्छा कर रहे हैं। पत्रकारिता शिक्षण की दृष्टि से माखनलाल का प्रयोग बड़ा है। आर्थिक और प्रतिष्ठा की दृष्टि से भी सुधार हुआ है। विश्वविद्यालय प्रगति की ओर है।
-आपकी कौन सी किताबें प्रकाशित हुई है?
--लोकमत में हर रविवार को ‘जान-पहचान’ नाम से मैं एक कॉलम लिखता था। उसका एक कलेक्शन प्रभात प्रकाशन ने ‘सरोकारों के दायरे’ के नाम से छापा है। दो-तीन अन्य किताबें भी पाइप लाइन में हैं। स्वतंत्रता के बाद के पत्रकारों के ऊपर एक किताब लिखना चाहता हूं। इसमें अज्ञेय जी, डा. धर्मवीर भारती और रघुवीर सहाय को चुना है। ये तीनों ऐसे हैं जो साहित्य से पत्रकारिता में आएं। इन तीनों के साहित्यिक योगदान पर तो किताबें हैं, पर पत्रकारीय योगदान पर अब तक बहुत नहीं लिखा गया है। कोशिश है कि साल के अंत तक इसे पूरा कर दूं।
-पत्रकारिता से इतर अपने व्यक्तित्व के बारे में बताइए। फिल्में देखते थे आप?
--हां, खूब देखता था। रंगमंच मेरी पसंदीदा जगह होती थी। फिल्म पर एक विशेषांक भी निकाला था 'लोकमत' में। सिनेमा से मेरी एक शिकायत भी है। यह बहुत बड़ा उद्योग है। इसमें देश का बेहतरीन टैलेंट और पैसा लगा है, मगर इसे केवल मनोरंजन की भूमिका में डाल दिया गया है। यह उद्योग देश के नव-निर्माण में अपनी भूमिका निभा सकता है। नई पीढ़ी को अपनी सभ्यता-संस्कृति से जोड़ने का काम कर सकता है, मगर नहीं कर रहा। किसी का इस पर ध्यान नहीं है।
-खाने-पीने का शौक?
--खाने का शौक तो है मगर पीने-पिलाने से दूर ही रहता हूं।
-कभी प्रेम किया है?
--(हंसते हुए) प्रेम से ज्यादा मेरा आपसी रिश्तों पर विश्वास है। हर मनुष्य के अपने गुण-दोष होते हैं। अगर आप किसी मनुष्य को स्वीकार करते हैं तो उसे उसके गुण-दोष के साथ स्वीकार करना चाहिए।
--मतलब आपने प्रेम नहीं किया?
--भई, आप तो बिल्कुल ठेठ पत्रकारों वाले सवाल करने लगे। कौन व्यक्ति होगा, जिसने प्रेम नहीं किया होगा। हम हर स्टेज पर लोगों से जुड़ते हैं। वैसे मैं ग्रामीण परिवेश से जुड़ा और संस्कारों से बंधा व्यक्ति हूं, जिसकी एक सीमा होती है। इसे आप मेरा पिछड़ापन भी कह सकते हैं।
-आपके लिए सुख का क्षण?
-युवाओं के साथ बैठना मुझे अच्छा लगता है। उनके विचार सुनना, उनको समझना, बातचीत करना, ये सब मुझे सुख देता है। यह अपने अंदर भी परिवर्तन लाने की शुरुआत होती है, उन्हें भी फायदा मिलता है।
-किस बात से चिढ़ होती है?
--राजनीति से। राजनीतिक दलों में जो गिरावट है, देश के प्रति उत्तरदायित्व में जो कमी है, उनकी सत्ता के लिए हर समझौता करने की जो प्रवृति है, वह तकलीफदेह है।
-परिवार में कौन-कौन है?
--एक बेटा है राघवेंद्र कुमार मिश्र। उत्तर प्रदेश में यूपी पावर कारपोरेशन में अधिकारी है। वैसे मेरी ज्वाइंट फेमिली है। सभी लखनऊ में रहते हैं।
-बचपन में क्या कुछ और बनना चाहते थे?
--पत्रकार नहीं बनना चाहता था। बीएचयू में पढ़ने-पढ़ाने का काम था। वहीं शिक्षक बनना चाहता था मगर पत्रकारिता में आ गया। हालांकि यहां अच्छा है, मैं संतुष्ट हूं। माखनलाल से जुड़ कर वह इच्छा भी पूरी हो गई है।
-भविष्य की क्या योजना है?
--कुछ लेखन का काम करने का मन है। युवाओं के साथ जुड़कर भी कुछ सार्थक करना चाहता हूं।
-आप अपनी तरफ से अपने चाहने वालें से कुछ कहना चाहेंगे?
-मैं अपने सभी दोस्तों, शुभचिंतकों को शुक्रिया अदा करना चाहता हूं। मेरे अस्वस्थ होने के दौरान लोगों के बड़े फोन आए। कई लोग खुद भी मिलने आए। उन्हीं के स्नेह से इतनी जल्दी स्वस्थ हो पा रहा हूं। आपके माध्यम से उन सबको धन्यवाद कहना चाहता हूं।
वरिष्ठ पत्रकार और माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति अच्युतानंद मिश्र इन दिनों हृदय की शल्य चिकित्सा के बाद अस्पताल से मुक्त होकर अब गाजियाबाद स्थित अपने आवास पर डाक्टरों की सलाह के अनुसार पूर्ण विश्राम कर स्वास्थ्य लाभ ले रहे हैं। अच्युता जी हिंदी पत्रकारिता के जाने-माने नाम हैं और बेहद सम्मानीय शख्सियत भी। वे ऐसे पत्रकार-संपादक रहे हैं जिनके ज्ञान-समझ के आगे बड़े से बड़े नेता और नौकरशाह भी श्रद्धा से झुक जाते हैं। यूपी के गाजीपुर जिले के रहने वाले अच्युताजी ने भारतीय पत्रकारिता के कई मोड़, उतार-चढ़ाव और बदलाव देखे हैं। भड़ास4मीडिया के रिपोर्टर अशोक कुमार ने हिंदी पत्रकारिता के इस हीरो से उनके आवास पर जाकर बातचीत की। पेश है इंटरव्यू के अंश-
-सबसे पहले अपने बारे में बताएं। कहां के रहने वाले हैं, जन्म कब हुआ, शुरुआती शिक्षा-दीक्षा किस तरह हुई?
--पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले में एक गांव हैं, वीरभानपुर, मैं वही का रहने वाला हूं। स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में इस गांव का प्रमुख स्थान रहा है। यहीं 6 मार्च 1937 को मेरा जन्म हुआ। शुरुआती पढ़ाई गांव में ही हुई। हाई स्कूल और इंटर गाजीपुर शहर के डीएवी कालेज से किया। हमारे जिले से बनारस और इलाहाबाद पास पड़ता है, सो ग्रेजुएशन के लिए बीएचयू आ गया। यहीं राजनीति शास्त्र में एमए किया। पढ़ाई के दौरान ही सामाजिक क्षेत्र के विषयों पर लेख लिखने लगा था। ये लेख तब ‘आज’ और ‘गांडीव’ अखबार में छपा करता था।
-पत्रकारिता में कैसे आ गए?
--बनारस में एक छोटा सा पत्र निकलता था। ‘समाचार’ नाम से। वहां श्री यादवराव देशमुख थे। उन्होंने मुझे काफी प्रोत्साहित किया। उन्हीं के चलते पत्रकारिता में आ गया। वह आरएसएस से जुड़े थे। 1962 में इसी पत्र से कैरियर शुरू किया। यहां कुछ ही महीने रहा। देशमुख जब आरएसएस के पत्र ‘पांचजन्य’ में लखनऊ के संपादक बने तो मुझे भी साथ ले गए। यहां सन 62 से लेकर 64 तक काम किया। सन् 1964 में ही लखनऊ से निकलने वाले सांध्य पत्र ‘तरुण विजय’ में आया। यहां 1966 तक रहा। असली ट्रेनिंग यहीं हुई।
-उसके बाद किन-किन संस्थानों से जुड़े?
--सन 1967 में अमर-उजाला, लखनऊ में आ गया था। तब उसका कोई आफिस भी नहीं था। यहां मैने एक रिपोर्टर के तौर पर ज्वाइन किया। फिर सीनियर रिपोर्टर और बाद में सन 1975 में ब्यूरो प्रमुख बना। इस संस्थान से लंबा साथ रहा। यहां रहते हुए अन्य पत्र-पत्रिकाओं में भी लिखने की छूट थी, सो समाजिक, राजनीतिक, साहित्यिक विषयों पर देश भर के प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में लिखता रहा। एक बात का उल्लेख करना चाहूंगा। अमर उजाला के मालिक डोरीलाल अग्रवाल जी बहुत अच्छे पत्रकार भी थे। वह केवल संपादकीय ही नहीं लिखते थे बल्कि कभी-कभी रिपोर्टिंग और प्रेस कांफ्रेस भी अटेंड करते थे। पहले जब टेलीप्रिंटर नहीं था तब हम फोन पर लखनऊ से आगरा खबर देते थे। तीन या छह मिनट की कॉल बुक कराई जाती थी। हम खबर लिख कर रख लेते थे। छह मिनट में हम छह खबरें देते थे। दूसरी ओर आगरा में डोरीलाल जी खुद फोन सुनते और हमारी खबर नोट करते थे। दूसरे दिन सभी खबरें पूरे विस्तार से प्रकाशित भी होती थी। यहां मैं 1985 तक रहा।
-अमर उजाला और जनसत्ता में दूसरी बार किस तरह पहुंचे? कोई खास वजह?
सन् 86 में प्रभाष जोशी ने मुझे समाचार संपादक बना कर जनसत्ता, दिल्ली बुला लिया। 88 में एक वर्ष के लिए मुंबई भेजा गया। वहां मैने जनसत्ता शुरू किया। सन 92 में एक साल के लिए अमर-उजाला, कानपुर में चला गया। मैं वहां का संस्थापक संपादक था। 93 में विद्यानिवास मिश्र ने नवभारत टाइम्स में बुला लिया। सन् 95 तक यहीं रहा। 96 में दुबारा जनसत्ता में लौट आया। जनसत्ता में आने की वजह अखबार में हो रहा नया प्रयोग था। हिंदी पत्रकारिता में अब तक तीन प्रयोग ही याद किए जाते हैं। पहला प्रयोग अज्ञेय जी ने ‘दिनमान’ में किया। उन्होंने अखबार में पहली बार ठेठ खबरों के साथ कला और साहित्य को जोड़ा। दूसरा प्रयोग सुरेंद्र प्रताप सिंह ने ‘रविवार’ को एक नए तेवर के साथ निकाल कर किया। उसी तरह प्रभाष जोशी ने ‘जनसत्ता’ में नई शुरुआत की। तब तक के सारे अखबार रिपोर्टर बेस्ड होते थे। उन्होंने डेस्क पर सभी खबरों को री-राइट कराना शुरू किया। इससे भाषा और वर्तनी में एकरूपता रहती थी। इसका श्रेय प्रभाष जी को जाता है। तब तक खेल तथा आर्थिक समाचार पहले पन्ने पर नहीं छपते थे, प्रभाष जी इनको प्रमुखता से पहले पन्ने पर लेकर आए।
बीच में एक वर्ष के लिए ‘अमर उजाला’ आने की दूसरी कहानी है। जब मैं अमर उजाला से जनसत्ता आ रहा था, तो डोरीलाल अग्रवाल जी ने कहा था कि जब कानपुर में एडिशन लांच होगा तो आप संपादक रहेंगे। हालांकि एडिशन के लांच होने से पहले ही उनका निधन हो गया। एडिशन लांच हुआ तो अशोक अग्रवाल ने मुझे बुलाया। मुझे अपना वादा याद था, मैंने उसे निभाया।
-जनसत्ता में दूसरी पारी कैसी रही?
-96 में मैं वरिष्ठ संपादक होकर जनसत्ता आ गया। तब राहुल देव कार्यकारी संपादक थे। बाद में मैं कार्यकारी संपादक रहा। यहां दो वर्ष यानि 98 तक रहा। सन् 1999-2000 में ‘एडिटर्स च्वाइस’ नाम से एक फीचर एजेंसी चलाया। 2001 में ‘लोकमत’ का ग्रुप एडिटर होकर नागपुर चला गया। यहां 2004 तक रहा। यहां रहते हुए मैंने इसका तीसरा एडिशन भी लांच कराया। जनवरी 2005 में माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय से जुड़ गया। तब से यहीं हूं।
-पत्रकारिता की मुख्यधारा को छोड़कर अचानक शिक्षण की तरफ कैसे मुड़ गए?
-जब मैने माखनलाल से जुड़ने का फैसला किया तो विजय दर्डा मुझे आने नहीं देना चाहते थे। लेकिन जिस तरह से अखबारों में नए प्रयोग हो रहे थे, मुझे लगा कि हम लोग उस प्रयोग के लिए ठीक नहीं हैं। तब मैं मीडिया शिक्षण की तरफ आना भी चाहता था। मुझे बुला लिया गया।
-बताया जाता है कि आपसे मिलने आपके आफिस में मुख्यमंत्री लोग आते रहे हैं? कितनी सच्चाई है इसमें?
-सन 1974 में जब मुलायम सिंह सिर्फ एमएलए थे, तभी से उनसे दोस्ती थी। यह उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद भी कायम रही। एक दिन वो कार्यालय की ओर से गुजर रहे थे और अचानक बिना बताए आफिस चले आए। एक मुख्यमंत्री इस तरह से अपने लाव-लश्कर के साथ अखबार के दफ्तर आ जाए तो चर्चा स्वभाविक थी। एनडी तिवारी, बहुगुणा, कल्याण सिंह, मुलायम सिंह इन सबसे मेरी दोस्ती थी। कोई यह भी नहीं कह सकता कि मैंने कभी इनकी प्रशंसा में कुछ लिखा हो। मेरा मानना है कि अगर आप संपादक हैं तो आपमें सच कहने का साहस होना चाहिए। मेरा यह भी अनुभव है कि सच कहने पर रिश्ते खराब नहीं होते। एक संपादक अपना सम्मान खुद ही खोता है या प्राप्त करता है। मुलायम सिंह को हमने भोपाल में बुलाया तो वो आए, लखनऊ में बुलाया तो भी वो आए। मेरे सभी तात्कालिक मुख्यमंत्रियों से अच्छे संबंध थे, एक दोस्त के तौर पर, एक सलाहकार के तौर पर।
-इतने लंबे पत्रकारिता जीवन में क्या कभी किसी परेशानी का सामना करना पड़ा?
-जब मुंबई में जनसत्ता शुरू किया था, उस दौरान हमने जो प्रयोग किया, उससे सत्ता में बैठे बड़े-बड़े लोग परेशान हो गए। तब हमने बाला साहब ठाकरे के बेटे (अब दिवंगत) के खिलाफ एक स्टोरी छाप दी थी। तब ठाकरे ने मुझे एक चिठ्ठी भेजी। उसमें लिखा था कि आप मुंबई में नए हैं। शायद आपको पता नहीं है कि यहां हमारे खिलाफ खबरें नहीं छपा करती। पत्र में जहां समझाने का भाव था तो धमकी भी थी। लेकिन यह सब पत्रकारिता जीवन का हिस्सा होता है।
-अपने समकालीन पत्रकारों और सहयोगियों को कैसे याद करते हैं?
-नवभारत टाइम्स में काम का माहौल काफी अच्छा था। उस समय के सहयोगी-साथी आलोक मेहता, राजकिशोर जी, मधूसूदन आनंद, रामकृपाल सिंह, हेमंत अग्रवाल, सूर्यकांत बाली सबका सहयोग और साथ काफी बढ़िया रहा था।
-आपके आदर्श कौन रहे हैं?
-पत्रकारिता और साहित्य के क्षेत्र में अज्ञेय जी, प्रभाष जोशी जी, निर्मल वर्मा जी, विद्यानिवास मिश्र जी से प्रभावित रहा। अंग्रेजी में नेशनल हेराल्ड के संपादक एम. चलपति राव ने मुझे प्रभावित किया। नेशनल हेराल्ड को कांग्रेस का मुख पत्र माना जाता था, मगर इमरजेंसी के दौरान उन्होंने घोषणा कर दी थी कि वो संजय गांधी की फोटो नहीं छापेंगे तो उन्होंने नहीं ही छापा। वो अज्ञात मौत मर गए लेकिन समझौता नहीं किया।
-टीवी और प्रिंट पत्रकारिता में किसे पसंद करते हैं? आपकी नजर में कौन बढ़िया काम कर रहा है?
--प्रिंट में अब भी टीवी के मुकाबले ज्यादा स्थायित्व है। यह संतोष देता है। मेरा मानना है कि हर पत्रकार के साथ उसका अपना कमिटमेंट होना चाहिए। यह पेशे के प्रति हो सकता है, अपने जमीन के प्रति हो सकता है। बिना कमिटमेंट के पत्रकारिता में संतोष नहीं है। व्यक्तिगत तौर पर मुझे कालमिस्ट ज्यादा पसंद हैं। जैसे राजकिशोर जी, सुधीर पचौरी। टीवी पत्रकारिता मुझे संतोष नहीं देती।
-आज मीडिया में मंदी का शोर मचा है। सैकड़ों पत्रकारों की नौकरी चली गई। क्या वाकई में इतनी मंदी है?
--मंदी तो थोड़ी-बहुत है। लेकिन मीडिया का इस कदर व्यावसायिक हो जाना न मीडिया के हित में है और न पाठकों के हित में। यह प्रवृत्ति बदलनी चाहिए। इसकी तुलना अन्य व्यवसाय से नहीं हो सकती। जरूरी है कि इसे अति व्यावसायिक होने से बचाया जाए। इसकी राजनीतिक उपयोगिता भले ही कम हो पर सामाजिक उपयोगिता बढ़नी चाहिए। लोगों का बहुत भरोसा है हम पर। उस पर खरा उतरना होगा। अखबार को कामर्शियल बनाकर आम आदमी की कसौटी पर खड़ा नहीं रखा जा सकता। अब जैसी स्थिति है, उसमें पाठकों द्वारा एक आंदोलन की जरूरत है। पाठकों और दर्शकों के एनजीओ बनने चाहिए, जो अपनी पसंद की मांग करे। मीडिया मालिकों पर दबाव बनाएं। फिलहाल इसमें ब्लॉग और आप जैसे न्यूज पोर्टल वालों की भूमिका अच्छी है। यह शक्तिशाली विधा है। इससे लोगों को काफी उम्मीदे हैं।
-माखनलाल पत्रकारिता विश्वविद्यालय में आपने पत्रकारिता पर कोई शोध शुरू कराया है, क्या है यह योजना?
--पत्रकारिता के इतिहास के दो हिस्से हैं। एक स्वतंत्रता के पहले और दूसरा उसके बाद। स्वतंत्रता के दौरान की पत्रकारिता आजादी के मिशन के लिए थी। उसके बाद की पत्रकारिता विकास की पत्रकारिता है। उसका अभी तक डाक्यूमेंटेशन नहीं हुआ था। शोध में इसे कई हिस्सों में डाक्यूमेंट किया गया है। इसमें हिंदी के साथ ही अन्य भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता के बारे में लिखा गया है। शोध के जरिये भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता के बीच एक समन्वय बनाने का काम शुरू हुआ है। यह बहुत महत्वाकांक्षी परियोजना है। हमने इसे मई 05 में शुरू किया था। अब अंतिम चरण में है। मेरी भूमिका इसमें परिकल्पना तक सीमित है। इसे विजय दत्त श्रीधर पूरा कर रहे हैं।
-विश्वविद्यालय को लेकर भावी योजनाएं क्या हैं?
-जनवरी 2010 में मेरा कार्यकाल समाप्त हो जाएगा। वहां पिछले 4-5 साल में जो प्रयोग हुए हैं, उससे बड़ा बदलाव आया है। यहां से निकले लड़के भी अच्छा कर रहे हैं। पत्रकारिता शिक्षण की दृष्टि से माखनलाल का प्रयोग बड़ा है। आर्थिक और प्रतिष्ठा की दृष्टि से भी सुधार हुआ है। विश्वविद्यालय प्रगति की ओर है।
-आपकी कौन सी किताबें प्रकाशित हुई है?
--लोकमत में हर रविवार को ‘जान-पहचान’ नाम से मैं एक कॉलम लिखता था। उसका एक कलेक्शन प्रभात प्रकाशन ने ‘सरोकारों के दायरे’ के नाम से छापा है। दो-तीन अन्य किताबें भी पाइप लाइन में हैं। स्वतंत्रता के बाद के पत्रकारों के ऊपर एक किताब लिखना चाहता हूं। इसमें अज्ञेय जी, डा. धर्मवीर भारती और रघुवीर सहाय को चुना है। ये तीनों ऐसे हैं जो साहित्य से पत्रकारिता में आएं। इन तीनों के साहित्यिक योगदान पर तो किताबें हैं, पर पत्रकारीय योगदान पर अब तक बहुत नहीं लिखा गया है। कोशिश है कि साल के अंत तक इसे पूरा कर दूं।
-पत्रकारिता से इतर अपने व्यक्तित्व के बारे में बताइए। फिल्में देखते थे आप?
--हां, खूब देखता था। रंगमंच मेरी पसंदीदा जगह होती थी। फिल्म पर एक विशेषांक भी निकाला था 'लोकमत' में। सिनेमा से मेरी एक शिकायत भी है। यह बहुत बड़ा उद्योग है। इसमें देश का बेहतरीन टैलेंट और पैसा लगा है, मगर इसे केवल मनोरंजन की भूमिका में डाल दिया गया है। यह उद्योग देश के नव-निर्माण में अपनी भूमिका निभा सकता है। नई पीढ़ी को अपनी सभ्यता-संस्कृति से जोड़ने का काम कर सकता है, मगर नहीं कर रहा। किसी का इस पर ध्यान नहीं है।
-खाने-पीने का शौक?
--खाने का शौक तो है मगर पीने-पिलाने से दूर ही रहता हूं।
-कभी प्रेम किया है?
--(हंसते हुए) प्रेम से ज्यादा मेरा आपसी रिश्तों पर विश्वास है। हर मनुष्य के अपने गुण-दोष होते हैं। अगर आप किसी मनुष्य को स्वीकार करते हैं तो उसे उसके गुण-दोष के साथ स्वीकार करना चाहिए।
--मतलब आपने प्रेम नहीं किया?
--भई, आप तो बिल्कुल ठेठ पत्रकारों वाले सवाल करने लगे। कौन व्यक्ति होगा, जिसने प्रेम नहीं किया होगा। हम हर स्टेज पर लोगों से जुड़ते हैं। वैसे मैं ग्रामीण परिवेश से जुड़ा और संस्कारों से बंधा व्यक्ति हूं, जिसकी एक सीमा होती है। इसे आप मेरा पिछड़ापन भी कह सकते हैं।
-आपके लिए सुख का क्षण?
-युवाओं के साथ बैठना मुझे अच्छा लगता है। उनके विचार सुनना, उनको समझना, बातचीत करना, ये सब मुझे सुख देता है। यह अपने अंदर भी परिवर्तन लाने की शुरुआत होती है, उन्हें भी फायदा मिलता है।
-किस बात से चिढ़ होती है?
--राजनीति से। राजनीतिक दलों में जो गिरावट है, देश के प्रति उत्तरदायित्व में जो कमी है, उनकी सत्ता के लिए हर समझौता करने की जो प्रवृति है, वह तकलीफदेह है।
-परिवार में कौन-कौन है?
--एक बेटा है राघवेंद्र कुमार मिश्र। उत्तर प्रदेश में यूपी पावर कारपोरेशन में अधिकारी है। वैसे मेरी ज्वाइंट फेमिली है। सभी लखनऊ में रहते हैं।
-बचपन में क्या कुछ और बनना चाहते थे?
--पत्रकार नहीं बनना चाहता था। बीएचयू में पढ़ने-पढ़ाने का काम था। वहीं शिक्षक बनना चाहता था मगर पत्रकारिता में आ गया। हालांकि यहां अच्छा है, मैं संतुष्ट हूं। माखनलाल से जुड़ कर वह इच्छा भी पूरी हो गई है।
-भविष्य की क्या योजना है?
--कुछ लेखन का काम करने का मन है। युवाओं के साथ जुड़कर भी कुछ सार्थक करना चाहता हूं।
-आप अपनी तरफ से अपने चाहने वालें से कुछ कहना चाहेंगे?
-मैं अपने सभी दोस्तों, शुभचिंतकों को शुक्रिया अदा करना चाहता हूं। मेरे अस्वस्थ होने के दौरान लोगों के बड़े फोन आए। कई लोग खुद भी मिलने आए। उन्हीं के स्नेह से इतनी जल्दी स्वस्थ हो पा रहा हूं। आपके माध्यम से उन सबको धन्यवाद कहना चाहता हूं।
भडास4मीडिया से साभार
प्रस्तुति
सुरेन्द्र पॉल
व्याख्याता (पत्रकारिता)
कर्मवीर विद्यापीठ, खण्डवा
(माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल)
दूरभाष 0733 2248895
मोबाइल 99931 09267
Tuesday, March 17, 2009
ब्लॉगः बॉलीवुड का उभरता संचार माध्यम
(मेरा यह लेख “मीडिया विमर्श” के जनवरी-मार्च 2009 अंक में प्रकाशित हुआ है।)
अभिव्यक्ति के सभी माध्यमों में ब्लॉग ही एकमात्र ऐसा माध्यम है जहां पर किसी को अपने विचार व्यक्त करने के साथ-साथ शब्दों का प्रयोग करने की भी पूरी स्वतंत्रता है। इसके साथ ही जहां लेखक को अपनी बात कहने की पूरी आज़ादी है, वहीं पाठक भी खुलकर अपनी प्रतिक्रियाएं दे सकते हैं। हालांकि प्रचार प्रसार के मामले में भारतीय ब्लॉगजगत अभी पश्चिमी राष्ट्रों के मुकाबले काफी पीछे है लेकिन कम्प्यूटर साक्षर व्यक्तियों में ब्लॉग काफी प्रसिद्ध हो रहे हैं। आज हमारे देश में भी किसी व्यक्ति का अपना ब्लॉग होना प्रतिष्ठा की बात समझी जाने लगी है।
हॉलीवुड और पश्चिमी फिल्म जगत में ब्लॉगिंग का चलन आम है और वहां के कई फिल्म कलाकार अपने ब्लॉग के जरिये अपने प्रशंसकों से हमेशा संपर्क में रहते हैं। समयाभाव के कारण हालांकि ह़ॉलीवुड के अभिनेता अपने ब्लॉग को अधिक समय नहीं दे पाते लेकिन फिर भी वे इसके लिए यथासंभव समय निकालने का प्रयास करते हैं। चीन की अभिनेत्री जू जिंगले का ब्लॉग विश्व में सर्वाधिक लोकप्रिय ब्लॉग है जिस पर अब तक पांच करोड़ से भी अधिक पाठक विजिट कर चुके हैं। ब्लॉगिंग करने वाली विख्यात हस्तियों में टेनिस खिलाड़ी एवं मॉडल अन्ना कुर्निकोवा, हॉलीवुड अभिनेत्री पामेला एंडरसन और रोज़ी ओ’डोनेल, गायिका ब्रिटनी स्पीयर्स, सुपरमॉडल कर्टनी लव और फिल्म अभिनेता केविन स्मिथ और डेव बैरी भी शामिल हैं।
बॉलीवुड में ब्लॉगिंग अभी अपने आरंभिक दौर में ही है। अभी तक फिल्मी हस्तियों की आधिकारिक वेबसाइट्स और उनके प्रशंसकों द्वारा बनाई गई वेबसाइट्स पर ही उनके बारे में जानकारी मिल पाती थी। अब तक बॉलीवुड की कुछेक हस्तियों ने ही अपने ब्लॉग बनाएं हैं। वे अपने ब्लॉग द्वारा अपने चाहने वालों को संदेश देते रहते हैं और कई ज्वलंत मुद्दों पर टीका-टिप्पणी भी करते हैं। बॉलीवुड के सितारों के ब्लॉग पर उनके अनुभवों, चुनौतियों और सुख-दुःख के प्रतिबिंब भी झलकते हैं। ब्लॉग का सबसे बड़ा फायदा तो यह है कि यहां फिल्मी दुनिया के लोग मीडिया को माध्यम बनाए बगैर अपने विचार स्पष्ट रूप से कह सकते हैं जिसमें तोड़-मरोड़ करने की कोई गुंजाइश ही नहीं रहती। इसके साथ ही प्रशंसक अपने मनपसंद फिल्म अभिनेताओं से सीधा संवाद भी कर सकते हैं।
इतना ही नहीं फिल्मी दुनिया से जुड़ी बहुत सी हस्तियां अपनी अति-व्यस्त दिनचर्या और व्यावसायिक प्रतिबद्धताओं के बीच सामाजिक सरोकारों से भी जुड़ी हैं। कला हो या राजनीति, या फिर धर्म-कर्म हो या आतंकवाद, फिल्मी दुनिया के लोग किसी भी विषय पर अपनी बेबाक टिप्पणियां देने से गुरेज नहीं करते। शायद यही वजह है कि फिल्मी हस्तियों के ब्लॉग पर विज़िट करके अपनी टिप्पणी करने वाले उनके प्रशंसकों और आलोचकों की संख्या भी हज़ारों में है। पहले अभिनेताओं को अपनी बात कहने के लिए मीडिया पर निर्भर रहना पड़ता था लेकिन ब्लॉग पर उन्हें अपनी बात कहने की पूरी आजादी है। इतना ही नहीं फिल्मी सितारे एक-दूसरे के खिलाफ अपनी भड़ास निकालने के लिए भी अपने ब्लॉग का बखूबी इस्तेमाल करते हैं।
ब्लॉग लिखने वाले भारतीय फिल्म कलाकारों में सबसे पहले शम्मी कपूर का नाम आता है, जिन्होंने अपने ब्लॉग की शुरुआत 28 फरवरी 2003 को की। इंटरनेट पर शम्मी कपूर का ब्लॉग खुलते ही उनकी फिल्म जंगली का गीत “याहू... चाहे कोई मुझे जंगली कहे…” बजने लगता है। शम्मी कपूर फिल्म जगत के सबसे पुराने ब्लॉगर तो हैं ही, वे अपने ब्लॉग को काफी समय भी देते हैं। उन्होंने अपने ब्लॉग पर पूरे कपूर खानदान का लेखाजोखा बहुत मनभावन ढंग से फोटो सहित प्रस्तुत किया है। कपूर खानदान के शिखर पुरुष श्री पृथ्वीराज कपूर के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर उन्होंने अपने ब्लॉग पर विस्तार से लिखा है, साथ ही अपने गुरु श्री श्री हैदाखानवाले बाबा जी के लिए भी ब्लॉग पर विशेष रूप से स्थान दिया है। शम्मी कपूर ने अपनी माता श्रीमती रमा कपूर के अलावा अपने भाइयों राजकपूर, शशिकपूर और बहन उर्मिला सयाल के बारे में भी लिखा है। इस ब्लॉग पर विजिट करने पर पाठकों को शम्मी कपूर का असली नाम भी पता चल जाएगा- शमशेरराज कपूर।
नर्मदा बचाओ आंदोलन में अपनी भागीदारी और टिप्पणियों के कारण विवादों में घिरे अभिनेता, फिल्म निर्माता एवं निर्देशक आमिर खान के ब्लॉग पर विजिट करने पर उनका हरफनमौला व्यक्तित्व साफ झलक जाता है। उन्होंने अपने ब्लॉग पर न केवल अपनी फिल्मों के बारे में लिखा है बल्कि देश और दुनिया से जुड़े कई मुद्दों पर अपनी बेबाक टिप्पणियां भी की हैं। मुंबई में हुए अब तक के सबसे बड़े आतंकी हमले के दौरान ही उन्होंने अपने ब्लॉग पर इस हमले की कड़े शब्दों में निंदा की थी। इस हमले में शहीद हुए सैनिकों और अपनी जान गंवा चुके लोगों के प्रति गहरी श्रद्धांजलि देते हुए आमिर खान ने लिखा कि आतंकवादियों का कोई धर्म हो ही नहीं सकता और वे मानसिक रूप से बीमार लोग हैं। उन्होंने अपने ब्लॉग पर देश के नेताओं की भी खूब खिंचाई की है। आमिर खान त्योहारों पर भी अपने प्रशंसकों के लिए अपने ब्लॉग पर बधाई संदेश लिखते हैं। आमिर का ब्लॉग उस समय काफी विवादों में आ गया था जब उन्होंने यह खुलासा किया कि उनके पालतू कुत्ते का नाम शाहरुख है। इस पर बहुत तीखी प्रतिक्रिया होने के बाद उन्हें इस कृत्य के लिए अभिनेता शाहरुख खान से माफी भी मांगनी पड़ी।
बीते दिनों राज ठाकरे पर की गई टिप्पणी के कारण बॉलीवुड के शहंशाह अमिताभ बच्चन का ब्लॉग भी काफी चर्चा में आया था। इसी ब्लॉग पर उन्होंने शाहरुख खान के एक क्विज शो को फ्लॉप कह दिया तो उन्हें शाहरुख के प्रशंसकों की भी कड़ी आलोचना झेलनी पड़ी। बाद में उन्हें सफाई देनी पड़ी कि मीडिया ने उनके विचारों को ठीक से नहीं समझा। अमिताभ बच्चन ने अपना ब्लॉग अनिल धीरुभाई अंबानी ग्रुप (रिलायंस कॉम्यूनिकेशन्स) के स्वामित्व वाली सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट बिगअड्डा.कॉम पर 17 अप्रैल 2008 को शुरू किया। इस ब्लॉग का शुभारंभ करते हुए उन्होंने लिखा है कि मेरा ब्लॉग अपनी भावनाएं व विचार व्यक्त करने और सबके साथ साझा करने के लिए है। अमिताभ बच्चन ने भी मुंबई में आतंकवादी हमले सहित कई मामलों में अपनी टिप्पणियां अपने ब्लॉग पर दी हैं। हालांकि बॉलीवुड के अधिकांश अभिनेता अंग्रेजी में लिखते हैं लेकिन अमिताभ बच्चन के ब्लॉग पर कभी-कभार हिन्दी भी पढ़ने को मिल जाती है। बिग-बी के ब्लॉग पर उनके पिता श्री हरिवंश राय बच्चन की कविताओं के अंश भी पढ़ने को मिल जाएंगे। मीडिया से बातचीत में बिग-बी कहते हैं- “मैंने ब्लॉगिंग के लिए कोई अलग से समय निर्धारित नहीं कर रखा है। इसे मैं अपनी प्रतिबद्धता के तौर पर लेता हूं।” हालांकि बिग-बी इस बात का खंडन करते हैं कि उन्हें ब्लॉगिंग के लिए मोटी धनराशि मिली है।
रंगमंच और फिल्म जगत के अभिनेता मनोज वाजपेयी ही संभवतः एकमात्र ऐसे ब्लॉगर हैं जिनके अंग्रेजी और हिन्दी में अलग-अलग ब्लॉग हैं। मनोज वाजपेयी अपने ब्लॉग पर भारतीय प्रजातंत्र से लेकर हर मुद्दे पर अपनी भड़ास भी दिल खोलकर निकालते हैं। मुबंई पर आतंकवादी हमलों पर की कई टिप्पणी उन्हीं के शब्दों में “...वो सारे दृश्य देखकर कितनी ही बार मन विचलित हुआ। और अब मैं सुन्न-सा बैठा हूँ। क्या मैं गर्व के साथ कह सकता हूँ कि मैं इस देश का नागरिक हूँ। जिस देश में किसी भी नागरिक की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी लेने को कोई तैयार नहीं। लोग ऐसे मरे और मारे गए जैसे रोज़ बकरे हलाल होते हैं। लानत है, लानत है, लानत है। सिर्फ़ ग़ुस्सा है मेरे मन में। कोई शब्द नहीं सूझ रहे हैं। शायद ढंग की बात अगली पोस्ट में ही कर पाऊंगा।”
विश्व स्तर पर अपनी अलग पहचान बना चुके फिल्म निर्देशक शेखर कपूर भी अपने ब्लॉग पर प्रशंसकों से जुड़े रहते हैं। अपनी व्यस्त दिनचर्या के कारण हालांकि वे अपने ब्लॉग को अधिक समय नहीं दे पाते लेकिन काफी दिनों तक अपने प्रशंसकों से दूर रहने के माफीनामे के साथ अगली पोस्ट भी लिख डालते हैं।
फिल्म निर्देशन में अपना जौहर दिखाने वाले कऱण जौहर अपने ब्लॉग पर भी खूब जौहर दिखाते हैं। वे अपने रोजमर्रा के कार्यक्रमों के अलावा फिल्म निर्देशन से लेकर सामाजिक मामलों पर भी खुलकर लिखते हैं। मशहूर अभिनेता नाना पाटेकर अपने ब्लॉग में लिखते हैं कि वे कोई फिल्म पूरी करने के बाद अपने गांव चले जाते हैं और अपने परिजनों के साथ रहते हैं। इसलिए फिल्म इंडस्ट्री में उनके बहुत कम दोस्त हैं, और जो हैं भी, उनसे भी वे कम ही संपर्क कर पाते हैं। नाना का कहना है कि फिल्म का समाज पर प्रभाव जरूर पड़ता है लेकिन इतना ज्यादा भी नहीं कि फिल्मों में धूम्रपान के दृश्यों पर प्रतिबंध लगाया जाए। यदि ऐसा है तो फिर तो हत्या के दृश्य भी बंद करने होंगे। सलमान खान भी अपने ब्लॉग में अपनी फिल्मों के बारे में विस्तार से लिखते हैं।
बॉलीवुड के सितारे जॉन अब्राहम, राहुल बोस, राहुल खन्ना, अनुपम खेर, नाना पाटेकर, मोहन अगाशे, बिपाशा बसु, गुल पनाग, पायल रोहतगी और सुचित्रा कृष्ममूर्ति ने भी अपने ब्लॉग बनाए हैं। फिल्म निर्देशक अनुराग कश्यप, प्रकाश झा और निर्माता-निर्देशक रामगोपाल वर्मा के ब्लॉग भी इंटरनेट पर उपलब्ध है। उम्मीद है कि आने वाले दिनों में बॉलीवुड के कुछ और चेहरे भी इस सूची में जुड़ जाएंगे। फिल्मी हस्तियों के ब्लॉग पर उनके फोटो और फिल्मों के वीडियो भी मिल जाएंगे जिन्हें उनके प्रशंसक डाउनलोड कर सकते हैं। बॉलीवुड के सितारों के ब्लॉग पर विजिट करके टिप्पणी करने वाले उनके प्रशंसकों की संख्या हजारों में है और इसमें निरंतर वृद्धि हो रही है। इतना निश्चित है कि आने वाले समय में ब्लॉगिंग फिल्मी सितारों, निर्माता-निर्देशकों, गायकों और संगीतकारों का अपने प्रशंसकों से संवाद का एक सशक्त माध्यम बन जाएगा।
कुछ फिल्मी हस्तियों के आधिकारिक ब्लॉग
शम्मी कपूर http://www.junglee.org.in/
अमिताभ बच्चन http://bigb.bigadda.com/
आमिर खान http://aamirkhan.com/blog/
शेखर कपूर http://www.shekharkapur.com/blog/
करण जौहर http://www.mynameiskaran.com/
मनोज वाजपेयी http://manojbajpayee.itzmyblog.com/
रामगोपाल वर्मा http://rgvblogs.blogspot.com/
बिपाशा बसु http://bipashabasu.rediffblogs.com/
नाना पाटेकर http://nanapatekar.rediffblogs.com/
सलमान खान http://duskadum.blogspot.com/
पायल रोहतगी http://payalrohatgi.blogspot.com/
गुल पनाग http://www.gulpanag.net/gulspace/
राहुल बोस http://www.intentblog.com/author.php?author=Rahul%20Bose
राहुल खन्ना http://www.intentblog.com/author.php?author=Rahul%20Khanna
जॉन अब्राहम http://johnabraham.rediffblogs.com/
सुरेन्द्र पॉल
व्याख्याता (पत्रकारिता)
कर्मवीर विद्यापीठ, खण्डवा
(माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल)
दूरभाष 0733 2248895
मोबाइल 99931 09267
Thursday, September 18, 2008
समाचारः परिभाषा
सामाजिक प्राणी होने के कारण मनुष्य समाज के परिवेश के संदर्भ में, निरंतर कुछ जानते रहने की भावना रखता है। इसी भावना ने ही मनुष्य की ज्ञान प्राप्ति के प्रति भूख को जागृत किया है। जानने की यह भूख ही मनुष्य के भीतर इसीलिए पैदा हुई है कि वह एक सामाजिक प्राणी है। जानकारी प्राप्त करने से ही मनुष्य अपने अहम से मुक्त होकर अपने को समाज से जोड़ पाता है। दूसरे अर्थों में जानकारी का नाम ही समाचार है।
समाचार को अंग्रेजी में 'न्यूज' कहते हैं। कभी सोचा आपने कि 'न्यूज' को न्यूज कयों कहा जाता है- शायद इसलिए कि समाचार को हमेशा 'न्यू' यानि नया होना चाहिए। यूं भी हो सकता है कि नार्थ, ईस्ट, वैस्ट और साउथ (उत्तर, पूर्व, पश्चिम और दक्षिण) चारों दिशाओं से समाचार आते हैं, इसलिए इनके आद्याक्षरों को लेकर 'न्यूज' शब्द की रचना हुई हो।
'न्यूज' या 'समाचार' की क्या परिभाषा है? इसका उत्तर अपने-अपने ढंग से कई विद्वानों ने दिया है।
विभिन्न विद्वानों द्वारा समाचार को परिभाषित करने के प्रयास के बावजूद अभी तक किसी एक परिभाषा को ही समाचार की सम्पूर्ण और सटीक परिभाषा नहीं माना जा सकता।
समाचार की कुछ प्रचलित परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं.....
- कोई भी ऐसी घटना जिसमें मनुष्य की दिलचस्पी है, समाचार है।
- पाठक जिसे जानना चाहता है वह समाचार है, शर्त यह है कि वह सुरुचि तथा प्रतिष्ठा के नियमों का उल्लंघन न करे। ........ जे। जे। सिंडलर
- अनेक व्यक्तियों की अभिरुचि जिस सामयिक बात में हो वह समाचार है। सर्वश्रेष्ठ समाचार वह है जिसमें बहुसंख्यकों की अधिकतम रुचि हो। ........ प्रो. विलियम जी. ब्लेयर
शिकागो के दो पत्रकार हार्पर और जॉन सी कैरोल ने अपनी पुस्तक का आरंभ इस वाक्य से किया था....
समाचार अति गतिशील साहित्य है। समाचार-पत्र समय के करघे पर बेलबूटेदार कपड़े को बुनने वाले तकुए हैं।
कुछ अन्य परिभाषाएं....
- समाचार किसी अनोखी या असाधारण घटना की अविलंब सूचना को कहते हैं, जिसके बारे में लोग प्रायः पहले कुछ न जानते हो, लेकिन जिसे तुरंत ही जानने की अधिक से अधिक लोगों में रुचि हो।
- पाठक जिसे जानना चाहे, वह समाचार है।
- जिसे अच्छा सम्पादक प्रकाशित करना चाहे वही समाचार है।
- समाचार घटना का विवरण है। घटना स्वयं में समाचार नहीं।
इसी तरह 'समाचार' शब्द की कई अर्थों में व्याख्या की जा सकती है लेकिन सच्चाई यह है कि साहित्य, दर्शन, भक्ति, राजनीति, युद्ध, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, खेलकूद, व्यापार, खेतीबाड़ी, विज्ञान, कानून, प्रशासन अपराध आदि जितने भी विषय हैं, इन सभी विषयों से ही समाचार की सृष्टि होती है और तभी समाचार ज्ञान के आधार-स्तंभ बनते हैं। समाचारों के कारण पत्रकारित का शक्ति का निरंतर विकास होता गया है।
पत्रकारिता समाचारों के कारण ही जनमानस की सही अभिव्यिक्ति का आधार-स्तंभ बनी है। इसी अनुभव को स्वर देते हुए रुडयार्ड किपंलिंग ने कहा था: "बड़े-बड़े राजसिंहासन और शक्तिशाली वर्ग यह जानते हैं और अनुभव करते हैं कि दंभ और अभिमान के और दर्प के जितने बच्चे हैं, उन सबका शासक और प्रभु एकमात्र प्रेस है। आज उसे दंभियों की बुद्धि ठिकाने लगाने को और प्रमादियों को होश प्रदान करने के लिए जीवित रहना है। निर्बलों की रक्षा करने के लिए और अंधविश्वासियों की आंखें खोलने के लिए और निर्भय होकर सत्य का समर्थन व अन्याय का प्रतिरोध करने के लिए, कायरों को बल और अज्ञानियों को जीवन के हर पहलू में नवज्योति प्रदान करने के लिए समाचार-पत्रों को जीवित रहना है।"
समाचार को अंग्रेजी में 'न्यूज' कहते हैं। कभी सोचा आपने कि 'न्यूज' को न्यूज कयों कहा जाता है- शायद इसलिए कि समाचार को हमेशा 'न्यू' यानि नया होना चाहिए। यूं भी हो सकता है कि नार्थ, ईस्ट, वैस्ट और साउथ (उत्तर, पूर्व, पश्चिम और दक्षिण) चारों दिशाओं से समाचार आते हैं, इसलिए इनके आद्याक्षरों को लेकर 'न्यूज' शब्द की रचना हुई हो।
'न्यूज' या 'समाचार' की क्या परिभाषा है? इसका उत्तर अपने-अपने ढंग से कई विद्वानों ने दिया है।
विभिन्न विद्वानों द्वारा समाचार को परिभाषित करने के प्रयास के बावजूद अभी तक किसी एक परिभाषा को ही समाचार की सम्पूर्ण और सटीक परिभाषा नहीं माना जा सकता।
समाचार की कुछ प्रचलित परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं.....
- कोई भी ऐसी घटना जिसमें मनुष्य की दिलचस्पी है, समाचार है।
- पाठक जिसे जानना चाहता है वह समाचार है, शर्त यह है कि वह सुरुचि तथा प्रतिष्ठा के नियमों का उल्लंघन न करे। ........ जे। जे। सिंडलर
- अनेक व्यक्तियों की अभिरुचि जिस सामयिक बात में हो वह समाचार है। सर्वश्रेष्ठ समाचार वह है जिसमें बहुसंख्यकों की अधिकतम रुचि हो। ........ प्रो. विलियम जी. ब्लेयर
शिकागो के दो पत्रकार हार्पर और जॉन सी कैरोल ने अपनी पुस्तक का आरंभ इस वाक्य से किया था....
समाचार अति गतिशील साहित्य है। समाचार-पत्र समय के करघे पर बेलबूटेदार कपड़े को बुनने वाले तकुए हैं।
कुछ अन्य परिभाषाएं....
- समाचार किसी अनोखी या असाधारण घटना की अविलंब सूचना को कहते हैं, जिसके बारे में लोग प्रायः पहले कुछ न जानते हो, लेकिन जिसे तुरंत ही जानने की अधिक से अधिक लोगों में रुचि हो।
- पाठक जिसे जानना चाहे, वह समाचार है।
- जिसे अच्छा सम्पादक प्रकाशित करना चाहे वही समाचार है।
- समाचार घटना का विवरण है। घटना स्वयं में समाचार नहीं।
इसी तरह 'समाचार' शब्द की कई अर्थों में व्याख्या की जा सकती है लेकिन सच्चाई यह है कि साहित्य, दर्शन, भक्ति, राजनीति, युद्ध, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, खेलकूद, व्यापार, खेतीबाड़ी, विज्ञान, कानून, प्रशासन अपराध आदि जितने भी विषय हैं, इन सभी विषयों से ही समाचार की सृष्टि होती है और तभी समाचार ज्ञान के आधार-स्तंभ बनते हैं। समाचारों के कारण पत्रकारित का शक्ति का निरंतर विकास होता गया है।
पत्रकारिता समाचारों के कारण ही जनमानस की सही अभिव्यिक्ति का आधार-स्तंभ बनी है। इसी अनुभव को स्वर देते हुए रुडयार्ड किपंलिंग ने कहा था: "बड़े-बड़े राजसिंहासन और शक्तिशाली वर्ग यह जानते हैं और अनुभव करते हैं कि दंभ और अभिमान के और दर्प के जितने बच्चे हैं, उन सबका शासक और प्रभु एकमात्र प्रेस है। आज उसे दंभियों की बुद्धि ठिकाने लगाने को और प्रमादियों को होश प्रदान करने के लिए जीवित रहना है। निर्बलों की रक्षा करने के लिए और अंधविश्वासियों की आंखें खोलने के लिए और निर्भय होकर सत्य का समर्थन व अन्याय का प्रतिरोध करने के लिए, कायरों को बल और अज्ञानियों को जीवन के हर पहलू में नवज्योति प्रदान करने के लिए समाचार-पत्रों को जीवित रहना है।"
यह ब्लॉग क्यों?
पत्रकारिता के क्षेत्र में दिन दूनी और रात चौगुनी तरक्की हो रही है। कभीपत्रकारिता को एक मिशन मानकर केवल क्रांतिकारी सोच वाले लोग ही पत्रकारिता को अपना ध्येय बनाते थे और फ़ाकामस्ती में अपनी पूरी उम्र गुज़ार देते थे। अभिभावक अपने बच्चों को पत्रकारिता जैसे अधिक जोखिम और कम पैसे वाले पेशे को अपनाने से रोकते थे। लेकिन सूचना क्रांति के इस दौर में पत्रकारिता एक बहुत प्रतिष्ठित व्यवसाय बन गया है। कभी 'झोलाछाप' जैसे शब्दों से नवाज़े जाने वाले पत्रकारों का आज पूरा हुलिया (बोले तो 'ले-आउट') ही बदल गया है।प्रसार संख्या में करोड़ों का आँकड़ा पार करते अखबारों के साथ-साथ खबरिया चैनलों की भी बीते कुछ वर्षों में भरमार हो गई है। ऐसे में मीडिया के क्षेत्र में रोजगार के अवसर भी कई गुणा बढ़ गए हैं। विद्यार्थियों में भी पत्रकारिता क्षेत्र में कूदने की होड़ सी मची है। ऐसे में न केवल देश के लगभग सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों व अन्य शैक्षणिक संस्थानों ने अपने यहां पत्रकारिता के पाठ्यक्रम शुरू किए हैं, वहीं कुछ मीडिया हाउस भी अपने यहां प्रशिक्षण पाठ्यक्रम चलाकर भावी पत्रकारों की नर्सरी तैयार करने में जुटे हैं।अभी तक पत्रकारिता से जुड़े विभिन्न विषयों की सामग्री का खासकर हिन्दी में सर्वथा अभाव है। ऐसे में इसी कमी को कुछ हद तक पूरा करने के लिए मैंने यह ब्लॉग बनाया है। इस ब्लॉग के पाठक इसमें बेहिचक अपना योगदान दे सकते हैं। आपसे आग्रह है कि रिपोर्टिंग, सम्पादन, सृजनात्मक लेखन, रेडियो और टीवी के लिए लेखन, फीचर लेखन, पत्रकारिता के विविध रूप (राजनीतिक, विधि, संसदीय, खेल, विज्ञान, साहित्यिक एवं साँस्कृतिक ) आदि पत्रकारिता से जुड़े विभिन्न विषय पर यदि आपके पास हिन्दी में कोई जानकारी या सामग्री उपलब्ध है तो कृपया उसे इस ब्लॉग पर पोस्ट करे दें, ताकि यह ब्लॉग पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए उपयोगी साबित हो सके।
हिन्दी पत्रकारिता का बढ़ता दायरा और चुनौतियाँ
सरमन नगेले
हिन्दी पत्रकार की छवि अब झोला छाप निरीह कवि की नहीं है बल्कि अब वह ज्यादा स्मार्ट है और उसमें किसी भी हाल में स्टोरी ''जुगाड़''' लेने की हिम्मत है। हिन्दी समाचार पत्रों, न्यूज चैनलों और न्यूज पोर्टलों की ही पहुँच देश में ही नहीं विदेशों में भी सबसे ज्यादा है वे ही सबसे अधिक पढ़े और देखे जाते हैं और इनकी ही प्रचार व दर्शक संख्या सबसे अधिक है। इस तरह हिन्दी पत्रकारिता का पूरा चेहरा ही अब चमकने लगा है।
बतौर बानगी कुछेक हिन्दी भाषी समाचार पत्र दैनिक भास्कर, न्यूज चैनल एनडीटीवी, आजतक, नेट संस्करण बेव दुनिया और एमपीपोस्ट सरीखे हिन्दी के प्रखर समाचार पत्रों ने अपनी आवाज बुलन्द करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। लगभग आधी सदी पहले भारतीय संविधान सभा ने मूलभूत अधिकारों पर बहस की। इनमें से एक धारा 19 जो अभिव्यक्ति और बोलने की आजादी से संबंधित है। पत्रकारिता का पवित्र पेशा इसी धारा की परिधि के अन्तर्गत आता है।
आज जिस प्रकार से व्यवसा-यिकता पत्रकारिता को अपने आगोश में ले रही है उससे जनसंचार माध्यमों का वास्तविक स्वरूप प्रभावित हो रहा है। किसी दौर में सिर्फ और सिर्फ मिशन थी पत्रकारिता। इसी रूप में उनका जन्म भी हुआ। कालान्तर में इसने वक्त की जरूरतों को अंगीकार करते हुए व्यवसायिक स्वरूप का वरण किया जबकि जरूरत थी मिशन और स्वरूप में जनहितकारी संतुलन की। आज पत्रकारिता के सामने उसी साख, पेशे की पवित्रता तथा समाज के प्रति उसके दायित्व की सबसे बड़ी चुनौती है।
पत्रकारों के सामने खासकर प्रादेशिक और जिला स्तर के अखबारों और उनसे जुड़े पत्रकारों के सामने यह भी खतरा हमेशा बना रहता है कि जब भी उनकी लेखनी से जो भी वर्ग प्रभावित होता है उस वर्ग की नाराजगी के गंभीर नतीजे पत्रकारों को भुगतने होते हैं। पत्रकारों की लेखनी से तिलमिलाने वाले अफसर, अपराधी और राजनीतिज्ञ अवसर मिलते ही अखबार और उससे जुड़े पत्रकार का दिमाग ठिकाने लगाने का भरपूर प्रयास करते हैं। इन तमाम खतरों के बावजूद ईमानदारी से सच लिखने वाले समाचार पत्र और पत्रकारों की कमी नहीं है। गोपनीयता का कानून भी पत्रकारिता की राह का सबसे बड़ा अवरोध बनता है। पत्रकारिता का संकट केवल यही नहीं है कि मीडिया में राजनीति पर सबसे ज्यादा ध्यान और स्थान दिया जाता है। बल्कि बड़ा खतरा यह है कि समाचार माध्यम कहीं राजनीति की सीढ़ी, कहीं राजनैतिक दलों और नेताओं के पैरोकार, कहीं उनके औजार और हथियार भी बन रहे हैं।
पत्रकारिता और साहित्य के बीच घनिष्ठ एवं अंतरंग संबंध है। ये एक ही सिक्के के दो पहलू माने जाते हैं तथा एक-दूसरे के प्रेरक और पूरक बनकर देश और समाजहित के विविध कार्यों में अपना महत्वपूर्ण योग देते रहे हैं।
पत्रकार और साहित्यकार दोनों ही शब्द ब्रह्म के आराधक होते हैं तथा अपनी लेखनी का सही सार्थक प्रयोग करते हुए समाज के हित संपादन का गुरूतर दायित्व सम्हालते हैं।
हिन्दी पत्रकारिता के जन्म ही नहीं, बल्कि उसकी नींच निर्माण का ऐतिहासिक कार्य भी कलकत्ता से ही आरंभ हुआ। स्मरणीय है कि यह कार्य उस युग में हुआ था, जब कदम-कदम पर अनेक विष-बाधाएं उपस्थित थीं। पत्रकारों को एक ओर सरकारी दमन-नीति से लड़ना पड़ता था, दूसरी ओर हिन्दी-भाषी समाज की कूप-मण्डूकता से उन्हें जूझना पड़ता था। लड़ाई बड़ी कठोर थी। बंग भूमि को जहाँ हिन्दीका प्रथम समाचार पत्र प्रकाशित करने का गौरव प्राप्त हुआ, वहीं हिन्दी का सर्वप्रथम दैनिक समाचार पत्र समाचार सुध वर्षण भी सन् 1854 में कलकत्ता में ही प्रकाशित हुआ था। पत्रकारिता तो वैसे भी स्वयं करने, सीखने और कौशल अर्जित करने की कला है। पत्रकार तभी तक पत्रकार है जब तक वह जन सामान्य से जुड़ाव बरकरार रखता है। पत्रकार द्वारा लिखे गए और अखबार के जरिये पाठक के समक्ष परोसे गए शब्दों के बारे मैं सिर्फ इतना कहना चाहूंगा कि किसी भी स्तरीय दैनिक समाचार पत्र के प्रत्येक अंक में औसतन 40-50 हजार शब्द होते हैं।
पाठक को यह विश्वास होना चाहिए कि छपा हुआ हर शब्द ईमानदारी से लिखा गया है और उसके पीछे कोई दुराग्रह नहीं है।
''यह हिन्दी पत्रकारिता है जो चाहती है अन्तर्मन से खुद का और सबका भी सुधार, यह हिन्दी पत्रका-रिता है हिन्दी पत्रकारिता''।
साभार सृजनगाथा
सरमन नगेले
संपादक
एमपीपोस्ट, भोपाल
हिन्दी पत्रकार की छवि अब झोला छाप निरीह कवि की नहीं है बल्कि अब वह ज्यादा स्मार्ट है और उसमें किसी भी हाल में स्टोरी ''जुगाड़''' लेने की हिम्मत है। हिन्दी समाचार पत्रों, न्यूज चैनलों और न्यूज पोर्टलों की ही पहुँच देश में ही नहीं विदेशों में भी सबसे ज्यादा है वे ही सबसे अधिक पढ़े और देखे जाते हैं और इनकी ही प्रचार व दर्शक संख्या सबसे अधिक है। इस तरह हिन्दी पत्रकारिता का पूरा चेहरा ही अब चमकने लगा है।
बतौर बानगी कुछेक हिन्दी भाषी समाचार पत्र दैनिक भास्कर, न्यूज चैनल एनडीटीवी, आजतक, नेट संस्करण बेव दुनिया और एमपीपोस्ट सरीखे हिन्दी के प्रखर समाचार पत्रों ने अपनी आवाज बुलन्द करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। लगभग आधी सदी पहले भारतीय संविधान सभा ने मूलभूत अधिकारों पर बहस की। इनमें से एक धारा 19 जो अभिव्यक्ति और बोलने की आजादी से संबंधित है। पत्रकारिता का पवित्र पेशा इसी धारा की परिधि के अन्तर्गत आता है।
आज जिस प्रकार से व्यवसा-यिकता पत्रकारिता को अपने आगोश में ले रही है उससे जनसंचार माध्यमों का वास्तविक स्वरूप प्रभावित हो रहा है। किसी दौर में सिर्फ और सिर्फ मिशन थी पत्रकारिता। इसी रूप में उनका जन्म भी हुआ। कालान्तर में इसने वक्त की जरूरतों को अंगीकार करते हुए व्यवसायिक स्वरूप का वरण किया जबकि जरूरत थी मिशन और स्वरूप में जनहितकारी संतुलन की। आज पत्रकारिता के सामने उसी साख, पेशे की पवित्रता तथा समाज के प्रति उसके दायित्व की सबसे बड़ी चुनौती है।
पत्रकारों के सामने खासकर प्रादेशिक और जिला स्तर के अखबारों और उनसे जुड़े पत्रकारों के सामने यह भी खतरा हमेशा बना रहता है कि जब भी उनकी लेखनी से जो भी वर्ग प्रभावित होता है उस वर्ग की नाराजगी के गंभीर नतीजे पत्रकारों को भुगतने होते हैं। पत्रकारों की लेखनी से तिलमिलाने वाले अफसर, अपराधी और राजनीतिज्ञ अवसर मिलते ही अखबार और उससे जुड़े पत्रकार का दिमाग ठिकाने लगाने का भरपूर प्रयास करते हैं। इन तमाम खतरों के बावजूद ईमानदारी से सच लिखने वाले समाचार पत्र और पत्रकारों की कमी नहीं है। गोपनीयता का कानून भी पत्रकारिता की राह का सबसे बड़ा अवरोध बनता है। पत्रकारिता का संकट केवल यही नहीं है कि मीडिया में राजनीति पर सबसे ज्यादा ध्यान और स्थान दिया जाता है। बल्कि बड़ा खतरा यह है कि समाचार माध्यम कहीं राजनीति की सीढ़ी, कहीं राजनैतिक दलों और नेताओं के पैरोकार, कहीं उनके औजार और हथियार भी बन रहे हैं।
पत्रकारिता और साहित्य के बीच घनिष्ठ एवं अंतरंग संबंध है। ये एक ही सिक्के के दो पहलू माने जाते हैं तथा एक-दूसरे के प्रेरक और पूरक बनकर देश और समाजहित के विविध कार्यों में अपना महत्वपूर्ण योग देते रहे हैं।
पत्रकार और साहित्यकार दोनों ही शब्द ब्रह्म के आराधक होते हैं तथा अपनी लेखनी का सही सार्थक प्रयोग करते हुए समाज के हित संपादन का गुरूतर दायित्व सम्हालते हैं।
हिन्दी पत्रकारिता के जन्म ही नहीं, बल्कि उसकी नींच निर्माण का ऐतिहासिक कार्य भी कलकत्ता से ही आरंभ हुआ। स्मरणीय है कि यह कार्य उस युग में हुआ था, जब कदम-कदम पर अनेक विष-बाधाएं उपस्थित थीं। पत्रकारों को एक ओर सरकारी दमन-नीति से लड़ना पड़ता था, दूसरी ओर हिन्दी-भाषी समाज की कूप-मण्डूकता से उन्हें जूझना पड़ता था। लड़ाई बड़ी कठोर थी। बंग भूमि को जहाँ हिन्दीका प्रथम समाचार पत्र प्रकाशित करने का गौरव प्राप्त हुआ, वहीं हिन्दी का सर्वप्रथम दैनिक समाचार पत्र समाचार सुध वर्षण भी सन् 1854 में कलकत्ता में ही प्रकाशित हुआ था। पत्रकारिता तो वैसे भी स्वयं करने, सीखने और कौशल अर्जित करने की कला है। पत्रकार तभी तक पत्रकार है जब तक वह जन सामान्य से जुड़ाव बरकरार रखता है। पत्रकार द्वारा लिखे गए और अखबार के जरिये पाठक के समक्ष परोसे गए शब्दों के बारे मैं सिर्फ इतना कहना चाहूंगा कि किसी भी स्तरीय दैनिक समाचार पत्र के प्रत्येक अंक में औसतन 40-50 हजार शब्द होते हैं।
पाठक को यह विश्वास होना चाहिए कि छपा हुआ हर शब्द ईमानदारी से लिखा गया है और उसके पीछे कोई दुराग्रह नहीं है।
''यह हिन्दी पत्रकारिता है जो चाहती है अन्तर्मन से खुद का और सबका भी सुधार, यह हिन्दी पत्रका-रिता है हिन्दी पत्रकारिता''।
साभार सृजनगाथा
सरमन नगेले
संपादक
एमपीपोस्ट, भोपाल
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समाचार पत्र का एक उद्देश्य जनता की इच्छाओं-विचारों को समझना और उन्हें व्यक्त करना है,
दूसरा उद्देश्य जनता में वांछनीय भावनाओं को जागृत करना है और
तीसरा उद्देश्य सार्वजनिक दोषों को निर्भयतापूर्वक प्रकट करना है। - महात्मा गांधी
दूसरा उद्देश्य जनता में वांछनीय भावनाओं को जागृत करना है और
तीसरा उद्देश्य सार्वजनिक दोषों को निर्भयतापूर्वक प्रकट करना है। - महात्मा गांधी
मैं लाखों संगीनों की अपेक्षा तीन विरोधी समाचार-पत्रों से अधिक डरता हूँ।
- नेपोलियन
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खींचो न कमानों को
न तलवार निकालो
जब तोप मुकाबिल हो
तो अखबार निकालो
- अकबर इलाहबादी
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- अकबर इलाहबादी
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- Surender Paul
- I am a Media Teacher and Freelance Journalist.... I have been working as a Press Correspondent for two national Hindi dailies at state level in Himachal Pradesh & Punjab and worked in a national news channel also. I am associated with All India Radio, Doordarshan & some NGO's. Presently I am working as lecturer (Journalism) in Makhanlal Chaturvedi National university of Journalism and Communication, Bhopal. Presently I am posted in the extension centre of the University Karmveer Vidyapeeth, Khandwa as Incharge. I am a person of jolly nature. I love to sing and playing flute. I am fond of good food and cooking. I have lots of hobbies and interests.....
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