रविवार, 23 अक्तूबर 2016

समाजवादी मुलायम का (असामाजिक) परिवार






 अनामी शरण बबल 

नेताजी के नाम से विख्यात मुलायम सिंह यादव उर्फ नेताजी के घर परिवार और पार्टी में कुछ भी सही नहीं हो रहा है। राजनीति के सबसे बड़े परिवार के लिए विख्यात नेताजी के लिए यही बड़ा परिवार सिरदर्द बन गया है। इनके खानदान और आस पास के 43 संबंधियों को कहीं न कहीं राजनीतिक रसूख हासिल है। सामने यूपी विधानसभा चुनाव की रणवेरी अभी बजी नहीं कि अपनी हैसियत के हिसाब से टिकट पाने के लिए सारे रिश्तेदार ही नेताजी के गले के फांस बन गए है। ज्यादातर लोग तो टिकट पाकर दारूलशफा लखनऊ के सपने देखने लगे हैं। यहां तक तो घर परिवार की बात संभल जाती, मगर इस बार सांसत में यूपी के सीएम अखिलेश यादव है। दोनों सगे भाई इस बार सीएम बनने के लिए बेताब है और वे किसी भी कीमत पर अपने भतीजे के अंदर रहने को राजी नहीं । अपनी गद्दा पर आए संकट को देखते हुए सीएम साहब भड़क गए और पर्दे के पीछे अपने पिताश्री के ही खिलाफ हो उठे है। इस मौके का लाभ और संवेदना बटोरने के लिए सीएम साहब पहली बार अपनी सौतेली मां और सौतेले भाई को लपेट कर अपने परिवार को ही निशाने पर ले डाला।  पिछले तीन माह से जारी इस परिवार युद्ध से साफ हो गया है कि अब सपा यानी नेताजी विधानसभा चुनाव से अपनी पार्टी समेत खुद को लगभग बाहर सा मान लिया है। लगता है कि पारिवारिक प्रेम और सौहार्द् को देखते हुए नेताजी ने जानबूझ कर खामोशी ओढ ली है, ताकि पारिवारिक कलह से सपा को हासिल नाकामी पर संतोष कर ले।
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कहीं यह बीजेपी के संग कोई डील तो नहीं


नोएडा और ग्रेटर नोएडा प्राधिकरण का विवादास्पद अधिकारी यादव सिंह फिलहाल सीबीआईके पंजे में है। खरबों रूपए की हेराफेरी और धांधली में नेताजी और बहिन जी पूरी तरहदलदल में है। यादव सिंह का इतना आतंक है कि भय दिखाते ही बिहार चुनाव में गठित गठबंधन के मुखिया नेताजी एकाएक गठबंधन से बाहर हो गए। लगता है कि एक तरफ ब्लैकमेल झेल रहे नेताजी के सामने ही परिवार में महाभारत आरंभ हो गया है । जिसको थामने की बजाय नेताजी लंबा लटका रहे है,. और नेताजी की लंबी खामोशी से तो यही लग रहा है कि चुनाव शुरू होने से पहले ही परिवार की लाज रखने के लिए कही यह पूर्व निर्धारित ड्रामा तो नहीं है ?


कहीं महाभारत का यह फेमिली ड्रामा तो नहीं ?


समाजवादी पार्टी में मचे तूफान से सपा समर्थकों का हाल हलकान है । चुनावी सर्वेक्षणों में नेताजी पिछड़ रहे हैं इसके बावजूद जिस अंदाज में यह नाटक हो रहा है, उससे तो यही संदेश जाता दिख रहा है कि चुनाव से पहले सपा का यह महाभारत एक फेमिली ड्रामा भर है बस। जिसके अंत में सपा को उन सीटो पर कमल छाप अपने कमजोर उम्मीदवारों को मैदान में खड़ा करके जीतने का मौका देगी, मगर बहुमत तो कमल को ही पाना तय लग रहा है। बहिनजी भी खूब फड़फड़ा रही मगर कई मामलो से मुक्ति की डीलिंग ही ओम शांति ओम के लए ही हुआ है. हो सकता है कि बहिनजी का कमल से कोई तालमेल भी हो जे मगर इधर आप के केजरीवाल साहब भी बहिनजी से मिलकर यूपी में इंट्री खाता के लिए बेहाल है। फेमिली ड्रामा के बहाने सीएम साहब अपने पुराने ना पसंदो क भी बाहर का रास्ता दिखाने का नाटक कर रहे है ताकि लोगों को यह असली नाटक लगे।


और अमर प्रेम का क्या होगा

सचमुच इसे ही कहते हैं समय की मार । समय जब हलवान था तो समाजवादी पार्टी में हवा भी अमर सिंह के कहने पर चलती और थमती थी. इनकी तूती की अमर वाणी से सपा मुखिया को राजनीति में मुख्यधारा मिली और बॉलीवुड़ की रंगीनियों का दर्शन भी। अमरबेल की घनी होती छाया के खिलाफ जिसने आवाज बुलंद की उसको खामियाजा भुगतना पड़ा। मगर मुलायम राज में निस्तेज हो गए अमर बाबू एकाएक फिर सपाई होकर राज्यसभा में दाखिल हो गए। इस बार फिर लोग उनके खिलाफ प्रकट हो गए तो अब न अमर में पहले वाली तेजी है न मुलायम में लिहाजा परिवार विघटन के सारे आरोप इस बार अमर बाबू के खाते में है । सीएम अखिलेश तो सिरे से उनसे उखड़े है, अब देखना यही है कि अमर के बहाने यादव परिवार और पार्टी की यह महाभारत कब किस और किधर करवट लेता है। जिस पर दिल्ली की भी नजरें लगी है।



गुरुवार, 1 सितंबर 2016

गांधी टोपी वाला स्कूल / संदीप पौराणिक






जहां बच्चों की गणवेश का हिस्सा है गांधी टोपी

 


संदीप पौराणिक


महात्मा गांधी को अपने राजनीतिक लाभ का हथियार बनाने वाले नेताओं के सिर पर से भले ही गांधी टोपी धीरे-धीरे नदारद होती जा रही हो, मगर मध्यप्रदेश के नरसिंहपुर जिले के एक सरकारी स्कूल की गणवेश का हिस्सा आज भी गांधी टोपी है।

नरसिंहपुर जिले के सिंहपुर बड़ा गांव का सरकारी उच्चतर बुनियादी शाला कई मायनों में अन्य विद्यालयों से अलग है। इस बात का अहसास आपको इस विद्यालय में पहुंचते ही होने लगेगा।

यह स्कूल ऐसा है, जहां कक्षाओं के बाहर आजादी के सेनानियों की तस्वीरें बनी हुई हैं। यहां विद्यार्थी बागवानी का काम करते हुए नजर आ जाएंगे। इतना ही नहीं, इस विद्यालय में सूत कातने वाले चरखे भी मौजूद हैं, यह बात अलग है कि अब चरखे चलते नहीं।

विद्यालय की प्रधानाचार्य पुष्पलता शर्मा ने आईएएनएस को बताया कि इस संस्था की स्थापना 1844 को हुई थी। उसके बाद एक बार महात्मा गांधी का यहां आना हुआ और उन्होंने गांव के लोगों से बच्चों को बुनियादी शिक्षा देने पर जोर दिया। महात्मा गांधी की बात को यहां के लोगों ने माना और उसके बाद से बागवानी, चरखा चलाने से लेकर गणवेश में गांधी टोपी को अनिवार्य कर दिया गया।

शर्मा के अनुसार, विद्यालय में वर्तमान में कक्षा पहली से आठवीं तक की कक्षा में 116 विद्यार्थी अध्ययनरत हैं। उनकी गणवेश सफेद शर्ट और नीला पेंट और गांधी टोपी है। यहां आने वाले हर विद्यार्थी को अपने सिर पर गांधी टोपी लगाने में गर्व महसूस होता है। वे अनुशासित रहकर अध्ययन करते हैं।

उन्हें सेनानियों की कहानियां सुनाई जाती हैं। ये नियमित रूप से बागवानी भी करते हैं। यहां पहले हर शनिवार को नियमित रूप से चरखा चलाने का एक चक्र (पीरियड) होता था, मगर अब ऐसा नहीं है।

प्रधानाध्यापक शर्मा मानती हैं कि इस विद्यालय में ज्यादातर बच्चे उन परिवारों के हैं, जिनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है, क्योंकि ज्यादातर बच्चे निजी अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में पढ़ने जाने लगे हैं। मगर यहां के विद्यार्थियों में अनुशासन व अपने काम के प्रति समर्पण का भाव गजब का है। वे अपने को किसी से कम नहीं मानते। ऐसा इसलिए, क्योंकि उनके आदर्श सेनानियों के साथ महात्मा गांधी जो हैं।

विद्यालय के शिक्षक संदीप कुमार शर्मा बताते हैं कि इस विद्यालय के चार शिक्षकों नरेंद्र शर्मा, महेश शर्मा, शेख नियाज और देव लाल बुनकर को राष्ट्रपति पुरस्कार मिल चुका है। संभवत: यह प्रदेश का इकलौता विद्यालय होगा, जहां के चार शिक्षकों को राष्ट्रपति पुरस्कार मिला हो।

विद्यालय के ठीक सामने व्यापारिक प्रतिष्ठान के संचालक मनीष महाजन कहते हैं कि इस विद्यालय के विद्यार्थियों के सिर पर गांधी टोपी देखकर हर कोई रोमांचित हो जाता है और बच्चों को गांधी टोपी लगाए देखना सुखद भी लगता है।

गांधी की विरासत को सहेजने वाले इस विद्यालय की क्षेत्र में अलग ही पहचान है, क्योंकि इस विद्यालय ने कई होनहार विद्यार्थी भी दिए हैं, जो प्रदेश की सरकारी नौकरी में अहम पदों पर हैं।

गांधी टोपी एक मगर रंग रूप और फैशन अनेक



सोई हिंदू सो मुसलमान, जिनका रहे इमान। सो ब्राह्मण जो ब्राह्म गियाला, काजी जो जाने रहमान।।

**********मिलिंद बायवार*********
भ्रष्टाचार पर अंकुश के लिए जन लोकपाल बिल लाने की मांग को लेकर अन्ना हजारे के आंदोल ने गांधी टोपी को फिर एक नई पहचान दी है। वास्तव में गांधी टोपी देश की स्वाधीनता की प्रतीक है। इस टोपी को पहनने से मन में देश के प्रति नई ऊर्जा का संचार होता है। अन्ना हजारे ने लोगों में देशभक्ति का जो जज्बा जगाया है वह गांधी टोपी पहनने से और बढ़ता है। देश के गौरव की प्रतीक गांधी टोपी पर ही आधारित है आज की आवरण कथा।
एक छोटी सी वस्तु कैसे किसी बड़े आंदोलन का प्रतीक बन जाती है, इसी का उदाहरण है गांधी टोपी। यह टोपी गांधीजी के अनुयायियों के लिए ही नहीं, बल्कि अपने अधिकारों की मांग को लेकर शांतिपूर्ण अनशन और आंदोलन करने वाले हर व्यक्ति लिए संघर्ष की पहचान बन गई है। गांधी टोपी पहनने के बाद व्यक्ति की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है,क्योंकि यह केवल टोपी नहीं बल्कि एक विचार का प्रतिनिधित्व है।
गांधी टोपी अधिकतर खादी से बनाई जाती है और आगे और पीछे से जुड़ी हुई होती है। इसका मध्य भाग फुला हुआ होता है। इस टोपी के साथ महात्मा गांधी का नाम जोड़कर इसे गांधी टोपी कहा जाने लगा, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि गांधीजी ने  इस टोपी का अविष्कार नहीं किया था और न ही उन्होंने यह टोपी हमेशा पहनी। हालांकि  गांधीजी ने इस टोपी की लोकप्रियता को बढ़ाने मे उल्लेखनीय योगदान जरूर दिया ।

गांधी से पहले भी थी गांधी टोपी
भारत के बारे में सदियों पहले से जानें तो पता चलता है कि इस देश में महात्मा गांधी के जन्म से पहले भी गांधी टोपी का अस्तित्व था। यह टोपी वास्तव में भारत के संस्कारों और संस्कृति की प्रतीक है। प्राचीन भारत में मर्द के सिर पर टोपी और औरत के सिर पर पल्लू अ'छे संस्करों की निशानी मानी जाती थी। इस प्रकार की टोपी देश के कई प्रांतों जैसे उत्तरप्रदेश, गुजरात, बंगाल, बिहार, महाराष्ट्र, कर्नाटक और तमिलनाडू में सदियों से पहनी जाती रही है। आज भी देश के कई प्रांतों में ऐसे अनेक गांव हैं,जहां बिना इस टोपी के शायद ही कोई सिर दिखाई देता हो। मध्यमवर्ग से लेकर उच्च वर्ग के लोग बिना किसी राजनीतिक हस्तक्षेप के इसे पहनते आए हैं। इस टोपी के साथ गांधीजी का नाम जुडऩे का मुख्य कारण यह रहा है कि उन्होंने इस टोपी की लोकप्रियता को बढ़ाने मे अपना खास योगदान दिया था।

गांधी टोपी और गांधीजी
बात उस समय की है जब मोहनदास करमचंद गांधी दक्षिण अफ्रीका में वकालत करते थे। वहां अंग्रेजों के अत्याचारों से दु:खी होकर गांधीजी ने सत्याग्रह का रास्ता अपनाया। उस समय अंग्रेजों ने एक नियम बना रखा था कि हर भारतीय को अपने फिंगरप्रिंट्स यानि हाथों की निशानी देनी होगी। गांधीजी इस नियम का विरोध करने लगे और इसके विरोध में उन्होंने गिरफ्तारी दी। जेल में भी गांधीजी को भेदभाव का सामना करना पड़ा क्योंकि अंग्रेजों ने भारतीय कैदियों के लिए एक खास टोपी पहनना जरूरी कर दिया था। आगे चलकर गांधीजी ने इस टोपी को हमेशा के लिए प्रसारित और प्रचारित करना शुरू कर दिया। इसके पीछे उनका विचार यह था कि लोगों को अपने साथ हो रहे भेदभाव की याद हमेशा रहे। यही टोपी आगे चलकर गांधी टोपी के रूप में जानी गई। हालांकि गांधीजी जब भारत आए तो वे यह टोपी नहीं बल्कि पगड़ी पहने हुए थे और उसके बाद उन्होंने कभी पगड़ी या गांधी टोपी नहीं पहनी, लेकिन भारतीय नेताओं और सत्याग्रहियों ने इस टोपी को आसानी से अपना लिया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने इस टोपी को गांधीजी के नाम के साथ जोड़ा और अपने प्रचारकों और सत्याग्रहियों को इसे पहनने के लिए प्रोत्साहित किया। इस प्रकार राजनीतिक कारणों से ही सही, लेकिन इस टोपी की पहुंच ऐसे लाखों लोगों तक हो गई जो किसी भी प्रकार की टोपी नहीं पहनते थे।

रंग बदले लेकिन टोपी वही
भारतीय नेता और राजनीतिक दल इस प्रकार की टोपी के अलग अलग प्रारूप इस्तेमाल करते थे। सुभाष चन्द्र बोस खाकी रंग की तो हिन्दू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक काले रंग की टोपी पहनते थे। आज भी कांग्रेस के कुछ पुराने नेता गांधी टोपी को अपनाए हुए हैैं। वहीं समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ता लाल रंग की टोपी और बहुजन समाज पार्टी के कार्यकर्ता नीली टोपी पहनते हैं। आज अन्ना हजारे के आंदोलन ने सफेद गांधी टोपी को फिर नई पहचान दी है। लाखों आंदलनकारी लोगों ने इस टोपी को अपनाया है। फर्क सिर्फ इतना है कि इस टोपी पर लिखा हुआ है मैैं अन्ना हजारे हूं। हालांकि स्वयं अन्ना हजारे परंपरागत गांधी टोपी ही पहनते हैैं। वास्तव में यह टोपी सत्य व अहिंसा के मार्ग पर चलने वाले तमाम लोगों और ठेठ भारत की छवि की नुमाइंदगी करती है।

टोपी का आध्यात्मिक महत्व
आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखें तो उर्जा का विकिरण सबसे अधिक सिर के बालों से होता है। इसलिए सिर पर कपड़ा रखने, टोपी पहनने, पगड़ी बांधने का क्या तात्पर्य यही है  कि उर्जा विकीर्ण न होकर वह सारे शरीर में अपना वर्तुल बना ले।

गांधीजी का बदलता पहनावा
 गांधीजी की हर बात में कुछ मर्म होता था। उनके कपड़ों का फर्क देखने से ही उनकेजीवन की क्रांति को समझा जा सकता है। जब वे बैरिस्टर थे, तब एकदम यूरोपियन पोशाक पहनते थे। बाद में उन्होंने वह पोशाक त्याग दी । अफ्रीका में उन्होंने सत्याग्रही पोशाक को अपनाया । जब वे भारत लौटे तब काठियावाड़ी पगडी़, धोती पहने हुए थे, लेकिन जब उन्होंने देखा कि एक पगड़ी में कई टोपियां बन सकती है, तब टोपी पहनने लगे। इसी टोपी को हम गांधी टोपी कहते हैं । फिर उन्होंने कुर्ता और टोपी का भी त्याग कर दिया और सिर्फ एक पंछिया पहनकर ही रहने लगे। यह पंछिया पहनकर ही वे लन्दन में सम्राट पंचम जार्ज से मिलने राजमहल गए।  वास्तव में महात्मा गांधी की आत्मा गरीब से गरीब लोगों से एकरूप होने के लिए छटपटाती रहती थी ।

एक मार्मिक संस्मरण
एक बार गांधीजी एक स्कूल देखने गए । हंसी-मजाक चल रहा था । एक छात्र कुछ बोला । शिक्षक ने उसकी तरफ गुस्से से देखा । गांधीजी उस छात्र के पास गए और बोले: ''तुमने मुझे बुलाया ? क्या कहना है ? बोलो, डरो मत ।
छात्र बोला-''आपने कुर्ता क्यों नहीं पहना ? मैं अपनी मां से कहूं क्या ? वह कुर्ता सी देगी ।  मेरी मां के हाथ का कुर्ता आप पहनेंगे न?
गांधीजी बोले- ''जरूर पहनूंगा, लेकिन एक शर्त है बेटा ! मैं अकेला नहीं हूं।
छात्र बोला- ''तब और कितने कुर्ते चाहिए ? मां दो सौ सिल देगी ।
गांधीजी बोले- ''बेटा, मेरे 40 करोड़ भाई-बहन हैं । 40 करोड़ लोगों के बदन पर कपड़ा आएगा, तब मेरे लिए भी कुर्ता चलेगा । तुम्हारी मां 40 करोड़ कुर्ते सी देगी ?
गांधीजी ने छात्र की पीठ थपथपाई और चले गए । वास्तव में महात्माजी का पहनावा यह बताता था कि वे राष्ट्र के साथ एकरूप हो गए थे ।

चरणों पर रख दिया साफा
एक बार एक सेठ महात्मा गांधी से मिलने गए। उन्होंने गांधीजी से कहा- आज पूरा देश आपके नाम की टोपी पहनता है, लेकिनआप टोपी क्यों नहीं पहनते ? गांधीजी गंभीर होकर बोले-आप ठीक कहते हैं, लेकिन जरा अपने सिर पर पहना साफा देखिए। इसकी कम से कम बीस टोपियां अवश्य बन जाएंगी। जरा सोचिए, बीस टोपियों का साफा आप अपने अकेले सिर पर पहनकर क्या बीस नंगे सिरों को टोपी पहनने से वंचित नहीं कर रहे ? मैं भी उन्हीं बीस लोगों में से एक हूं। गांधीजी की बात सुन सेठजी बगले झांकने लगे। तब गांधीजी ने उन्हें फिर समझाया- अपव्यय और संचय वृत्ति दूसरों को उनकेन्यूनतम अधिकारों से भी वंचित कर देती है। इसलिए आपको कोशिश करनी चाहिए कि आप अपव्यय और संचय से जितना हो सके दूर रहें। सेठ ने गांधीजी की बात सुनकर अपना साफा उतार उनके चरणों पर रख दिया।
गांधी टोपी से दूर होते सत्ताधारी
आज बाजार में कई तरह की टोपियां दिखाई देती है। ये हमारे सिर और चेहरे को धूप से बचाती हैं। सिर पर टोपी लगाने को अनुशासन और विशेष समूह की पहचान से भी जोड़कर देखा जाता है। क्रिकेट टीम केहर देश की ड्रेस की तरह उनकी कैप भी अलग रंग और स्टाइल की होती है। पुलिस और सेना की कैप भी किसी विशेष रंग की होती है, जिससे दूर से ही उनकी पहचान की जा सकती है।
इतिहास के जानकारों के मुताबिक भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौर में गांधी टोपी एक तरह से कांग्रेस की ठेठ पहचान से जुड़ गयी थी। लेकिन आजादी मिलने के बाद देश के नेताओं में इसका चलन लगातार कम होता चला गया।
वास्तव में टोपी बुद्धि -विवेक को संयमित करने के लिए छत्र का काम करती है, शरीर के लिए जैसे वस्त्र है ,वैसे ही शिरस्त्राण या टोपी है।  गांधी टोपी उत्तरप्रदेश के रामपुर जनपद में तैयार की जाती थी और गांधीजी इसे अपनाने को कहते थे ,रामपुर जनपद का पुराना नाम मुस्तफाबाद था। धार्मिक आस्था में टोपी धारण करना पुरानी रीति रही है, लेकिन राजनीति में टोपी का आना बड़ी बात थी। इतिहास गवाह है कि गांधी टोपी कांग्रेस विचारधारा से जुड़े लोगों के पहनावे का हिस्सा रही है। गांधी टोपी अस्सी के दशक  के आरंभ तक नेताओं के सिर की शान हुआ करती थी। पूर्व प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू हों या मोरारजी देसाई, किसी ने शायद ही उनकी कोई तस्वीर बिना गांधी टोपी के देखी हो।
वक्त बदलने के साथ-साथ सत्ताधारियों के पहनावे में भी अंतर आने लगा। अस्सी के दशक के बाद गांधी टोपी धारण किए गए नेताओं के चित्र दुर्लभ ही देखने को मिलते हैं। आज करीने से संवारे गए बालों में पोज देते नेता, मंत्री अवश्य ही दिख जाया करते हैं। 15 अगस्त और 26 जनवरी को भी सलामी लेते समय नेताओं या अधिकारियों को गांधी टोपी की जगह फर वाली टोपी का इस्तेमाल करना अधिक मुनासिब लगता है।
  गांधी टोपी कांग्रेस सेवादल के ड्रेस कोड में भी शामिल है । जब भी किसी बड़े नेता या मंत्री को कांग्रेस सेवादल की सलामी लेनी होती है तो उनके लिए चंद लम्हों के लिए ही सही गांधी टोपी की व्यवस्था की जाती है। सलामी लेने के तुरंत बाद नेता टोपी उतारकर अपने अंगरक्षक की ओर बढ़ा देते हैं, और अपने बाल काढ़ते नजर आते हैं। यह हकीकत है कि आधुनिक ता के इस युग में महात्मा गांधी के नाम से पहचानी जाने वाली गांधी टोपी अब नेताओं के सिर का ताज नहीं बन पा रही है।
अस्सी के दशक के आरंभ तक अनेक प्रदेशों में चतुर्थ श्रेणी सरकारी नुमाईंदों के ड्रेस कोड में भी गांधी टोपी शामिल थी, जिसे पहनकर सरकारी कर्मचारी अपने आप को गोरवांन्वित महसूस किया करते थे। कालांतर में गांधी टोपी ''आउट ऑफ फैशन'' हो गई। यहां तक कि जिस शख्सियत को पूरा देश राष्ट्रपिता के नाम से बुलाता है, उसी के नाम की टोपी को कम से कम सरकारी कर्मचारियों के सिर की शान बनाने में भी देश और प्रदेशों की सरकरों को जिल्लत महसूस होती है। यही कारण है कि इस टोपी को पहनने के लिए सरकारें अपने मातहतों को पाबंद भी नहीं कर पाईं हैं।
यह सच है कि नेताओं की भाव भंगिमओं, उनके आचार विचार, पहनावे को उनके कार्यकर्ता अपनाते हैं। जब नेताओं के सर का ताज ही यह टोपी नहीं बन पाई हो तो औरों की कौन कहे। आज अन्ना हजारे के जनआंदोलन से गांधी टोपी को जो पहचान मिली है वह आश्चर्यजनक और गोरवान्वित करने वाली है। इससे साबित होता है कि सत्ताधारी भले ही गांधी टोपी से दूर हो रहे हैैं, लेकिन आम जन में इस टोपी का जज्बा आज भी बरकरार है। सार्वजनिक तौर पर हमेशा गांधी टोपी पहने दिखने वाले अन्ना ने इस टोपी को नए सिरे से परिभाषित करते हुए राजनीतिक सीमाओं के पार पहुंचा दिया है।

फिर जागी राष्ट्रीय भावना
भ्रष्टाचार के मुद्दे को लेकर अनशन पर बैठे 72 साल के गांधीवादी अन्ना हजारे ने देश की आजादी के 64 साल बाद गांधी टोपी को फिर राष्ट्रीय भावना का प्रतीक बना दिया है और इसे उनके जादू के अलावा क्या कहा जा सकता है। एक लोकपाल हजारों, लाखों करोड़ों अन्ना। जहां देखो वहां अन्ना। गांधी टोपी लगाए सादगी की प्रतिमूर्ति नजर आने वाले अन्ना से प्रभावित होने वालों में युवाओं की खासी तादाद नजर आ रही है। अन्ना की सादगी पर मर मिटने वाले युवाओं ने गांधी टोपी की मांग को अचानक ही बढ़ा दिया है। अब तो सफेद गांधी टोपी जिस पर मैं अन्ना हूं लिखा है हर किसी के सिर का ताज बनी हुई है। कल तक मारी मारी फिरने वाली यह टोपी आज सवा सौ रूपए में भी नसीब नहीं हो पा रही है। सिर पर गांधी टोपी लगाए भारतवासियों का जुनून देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है कि इनकी पुरानी पीढ़ी ने जब गोरे ब्रितानियों से संघर्ष किया होगा तब उनके अंदर क्या जज्बा रहा होगा। देश में अन्ना की आंधी से गांधी टोपी एक बार फिर प्रासंगिक हो चुकी है, किन्तु यह जनता जनार्दन की नजरों में ही प्रासंगिक है। देश के नेताओं की आंखों का पानी मर चुका है। वे गांधी के नाम पर सत्ता की मलाई तो चखना चाहते हैं पर आदर्शों और सिद्धांतों के बिना।
अगर देश के नेता गांधी टोपी को ही एक औपचारिकता समझकर इसे धारण करेंगे तो फिर उनसे गांधी के सिद्धांतों पर चलने की आशा करना बेमानी ही होगा।
हालांकि देश में गांधीत्व का आचरण करने वाले नेताओं की भी कोई कमी नहीं है, लेकिन ऐसे लोग संगठन और सरकार में हाशिए पर रखे जाने के कारण दिखाई कम पड़ते हैं। ऐसे नेताओं की भी कमी नहीं जो गांधी टोपी धारण नहीं करते, लेकिन गांधी के भक्त हैं। ऐसे लोगों के लिए गांधी टोपी पहनने या न पहनने से कुछ फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि ऐसे लोगों का जीवन ही गांधीत्व का अनुपम उदाहरण है। ऐसे ही लोग गांधीत्व की रीढ़ हैं।
जरा सोचिए, जो व्यक्ति या संगठन गांधी को पूर्ण रूपेण आत्मसात कर लेगा, उसको भ्रष्टाचार से कुछ भी लेना-देना रह जाएगा क्या ? वह भ्रष्टाचार पर मौन कैसे रह सकेगा ? यदि देश के नेताओं ने गांधी को अपना लिया होता तो 'भ्रष्टाचार की गंगा क्यों बहती ? इसके पीछे मुख्य कारण गांधीत्व को अंगीकार न करना ही है। यदि आप गांधी के विचारों की बार-बार दुहाई देते हैं और गांधी टोपी भी पहनते हैं; फिर भी आप भ्रष्टाचार करने से बाज नहीं आते तो भलाई इसी में है कि गांधी को बदनाम मत कीजिए, उनको चैन की सांस लेने दीजिए। कुछ समय पहले संसद में कांग्रेस के शांताराम लक्ष्मण नाइक ने सवाल पूछा था कि क्या महात्मा गांधी को उनके गुणों, ईमानदारी, प्रतिबद्धता, विचारों और सादगी के साथ दोबारा पैदा किया जा सकता है। इस समय उनकी बहुत जरूरत है। हम सब अपने उद्देश्य से भटक गए हैं और हमें महात्मा गांधी के मार्गदर्शन की जरूरत है। भले ही यह महात्मा गांधी के क्लोन से ही मिले।

गांधी टोपी वाला स्कूल
मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर जिले से महज 8 किलोमीटर की दूरी पर स्थित अंग्रजों केसमय से चला आ रहा प्रदेश का एकमात्र अनोखा विद्यालय सिंहपुर में स्थित है। इस विद्यालय की स्थापना काल 1868 से ही छात्र स्कूल में गांधी टोपी लगाकर जाते हैं। 143 साल से यह परंपरा चली आ रही है और आज भी कायम है। इस स्कूल का नाम शासकीय उत्तर बुनियादी शाला है, जो 'गांधी टोपी वाले स्कूल के नाम से प्रख्यात है। स्कूल की स्थापना के बाद से ही पढ़ाई करने वाले छात्रों को टोपी पहन कर आना अनिवार्य किया गया था। टोपी लगाना कभी इनकी मजबूरी नहीं रहीं। यहां सिंहपुर के अलावा आस-पास के दर्जनों गांव की तीन पीढिय़ों तक ने अध्ययन किया है। अब तो कई छात्र ऐसे हैं जो अपने पिता, दादा और परदादा के पढऩे वाले इस स्कूल में अध्यनरत है। प्राथमिक माध्यमिक स्तर तक की कक्षा वाले इस स्कूल में कुछ शिक्षक इसी विद्यालय में पढ़े और अब नई पीढ़ी को शिक्षित कर रहे हैं। इस स्कूल की खासियत यह है कि 21.7.1869 से लेकर आज तक के पूरे रिकार्ड को भी संजो कर रखा गया है।
शैक्षणिक गुणवत्ता के मामले में भी इस विद्यालय पीछे नहीं रहा। यहां अध्ययन करने वालों छात्रों ने शिक्षा, चिकित्सा, प्रबंधन, कंप्यूटर इत्यादि के क्षेत्र में कीर्तिमान स्थापित किए हैं।

रविवार, 28 अगस्त 2016

झूलते पीलरो वाले मंकिर


By
Manish
भारत को अगर हम चमत्कारों वाला देश कहें तो कुछ गलत नहीं होगा. यहां आपको गांव-गांव में चमत्कार नज़र आ जायेंगे. यहां चमत्कारों का आधार होती है आस्था. वो आस्था जो हर अनजान को भी अपना बना देती है. वो आस्था जो कश्मीर से कन्याकुमारी तक पाई जाती है. वो आस्था जो अजमेर की दरगाह शरीफ़ से केदारनाथ के पहाड़ों तक फैली है.


Source: ajabgjab
इस आस्था में वो शक्ति है, जो असीम ताकत को जन्म देती है. वो ताकत जिससे चमत्कार होते हैं. ऐसा ही एक चमत्कार आपको देखने को मिलेगा आंध्रप्रदेश के लेपाक्षी मन्दिर में. लेपाक्षी मन्दिर को 'हैंगिंग टेम्पल' भी कहा जाता है. यह विशाल मन्दिर 70 खम्भों पर टिका हुआ है, जिसमें से एक खम्भा हवा में लटका हुआ है.

मन्दिर के नाम से जुड़ी है रोचक घटना



Source: akhandbharatnews
इस मन्दिर के लेपाक्षी नाम के पीछे एक रोचक कहानी है. भगवान श्री राम अपने वनवास के दौरान लक्ष्मण और माता सीता के साथ यहां आए थे. जब रावण मां सीता का अपहरण करके लंका ले जा रहा था, उसी समय जटायु ने रावण को रोककर उससे युद्ध किया था. जटायु युद्ध में घायल होकर इसी स्थान पर गिरा था. जब सीता की तलाश में राम यहां पहुंचे, तो उन्होंने 'ले पाक्षी' कहते हुए घायल जटायु को अपने गले लगा लिया था. ले पाक्षी एक तेलुगु शब्द है, जिसका मतलब होता है 'उठो पक्षी'. बाद में इस स्थान पर भगवान शिव, विष्णु और वीरभद्र के लिए मन्दिर बनाये गये.


Source: ajabgjab
इतिहासकारों के अनुसार, इस मन्दिर को 1583 में विजयनगर साम्राज्य के राजा की सेवा में काम करने वाले दो भाइयों विरुपन्ना और वीरन्नाने ने बनाया था. प्राचीन ग्रंथों के मुताबिक, इस चमत्कारिक मन्दिर को ऋषि अगस्तय ने बनवाया था.

रामपदम



Source: firkee
मन्दिर में रामपदम भी एक विशेष आकर्षण है. मान्यता के अनुसार, यह भगवान श्री राम के पांव के निशान हैं. कुछ लोग इन्हें माता सीता के पांव के निशान भी मानते हैं.

अंग्रेजों ने की थी इस मन्दिर का रहस्य जानने की कोशिश



Source: ajabgjab
एक अंग्रेज इंजीनियर ने इस मन्दिर का रहस्य जानने के लिए इसे तोड़ने का प्रयास भी किया था. उस समय इस मन्दिर के खंभों के हवा में झूलने की खूब चर्चा हुई थी. यहां आने वाले भक्तों का मानना है कि इन झूलते हुए खम्भों के नीचे से कपड़ा निकालने से जीवन में सुख-समृद्धि आती है.

कई अन्य आकर्षण भी है यहां



Source: ajabgjab
इस मन्दिर में एक ही पत्थर से बनी नंदी की विशाल प्रतिमा भी है.


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इसके अलावा यहां ग्रेनाइट से बनी विशाल नागलिंग प्रतिमा भी है. इस प्रतिमा में एक शिवलिंग के ऊपर सात फन वाला नाग अपना फन फैलाये बैठा है.


यहां शिवकाल में प्रयोग में लिए गये बर्तनों के निशान भी मौजूद है.
इस मन्दिर में और भी अनेक आकर्षण है, कला के कद्रदानों के लिए भी यह जगह विशेष महत्त्व रखती है. आस्था के साथ कला का संगम कम ही जगह देखने को मिलता है. मेरा तो मानना है, आप भी एक बार इस मन्दिर में हो ही आइये.


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शुक्रवार, 26 अगस्त 2016

और अब सांप और अजगर से मसाज




स्नेक मसाज पार्लर (Snake Massage Parlour) – यहां सांप और अजगर करते है मसाज

Snake Massage Parlour Story in Hindi : आज की इस भाग-दौड़ भरी ज़िन्दगी में तनाव और थकान दूर करने  का सबसे कारगर और आसान उपाय है मसाज। लगभग विशव के हर देश में मसाज पार्लर चलते है जहां कमसिन लड़कियां मसाज करती है। लेकिन पिछले 2-3  सालों में कुछ देशों खासकर इंडोनेशिया में ऐसे मसाज पार्लर खुले है जहां मसाज लड़कियां नहीं बल्कि सांप और अजगर करते है।
Snake Massage Parlour Story in Hindi
शायद आप एक बार इस पर विश्वास न करे लेकिन यह हकीकत है।  इन मसाज पार्लर में कस्टमर के शरीर पर कई अलग-अलग प्रजाति के सांप और अजगर छोड़ दिए जाते है हालांकि ये सारे सांप विष हीन होते है। इनमे छोटे से लेकर बड़े तक हर आकार के सांप होते है।  ये सांप कस्टमर के सारे शरीर पर इधर से उधर रेंगते रहते है जिससे की कस्टमर के पुरे शरीर की मसाज हो जाती है।
Snake Massage Parlour Jakarta Indonesia
इन मसाज पार्लर के संचालको और कस्टमरों का कहना है की यह तरीका लड़कियों से मसाज करवाने की तुलना में ज्यादा कारगार है।  इस तरह से मसाज करवाने से तनाव पल भर में दूर हो जाता है तथा शरीर को भी आराम मिलता है।
Snake Massage Parlour History
साँपों से मसाज करवाने का यह तरीका अब बहुत तेज़ी से लोकप्रिय हो रहा है और हो सकता है की निकट भविष्य में हमे अपने देश में भी इसी तरह का कोई पार्लर देखने को मिले।
Snake Massage Parlour Kahani in Hindi
तब तक आप चाहे तो आप इंडोनेशिया जाकर स्नेक मसाज करवा सकते है बशर्तें की आपको स्नेक फोबिया नहीं हो।
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गुरुवार, 25 अगस्त 2016

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