शनिवार, 26 अप्रैल 2014

इम्यून सिस्टम के राज खोलतीं आंद्रेया









प्रस्तुति - मालिनी रॉय

जर्मनी की युवा रिसर्चर आंद्रेया अबलासर शरीर की प्रतिरोधी क्षमता पर रिसर्च कर रही हैं. उनके रिसर्च के लिए उन्हें प्रतिष्ठित पॉल एरलिष पुरस्कार से सम्मानित किया गया है.
30 की उम्र में ही आंद्रेया ने वह हासिल कर लिया है, जिसके बारे में कई वैज्ञानिक सिर्फ सपने देख सकते हैं. उन्होंने पता लगाया है कि शरीर की प्रतिरोधी क्षमता बीमारी होने का पता कैसे करती है. मेडिकल साइंस में इस पर खासी चर्चा हो रही है. पॉल एरलिष पुरस्कार मिलने से खुश आंद्रेया कहती हैं, "आखिरकार आपको उस नतीजे पर भी खुशी होती है जो इस पुरस्कार के साथ जुड़ी है. मतलब उसके पीछे क्या है, आपकी उपलब्धि, जिसके कारण आपको पुरस्कार मिला है. और इस उपलब्धि की पुष्टि, यह बहुत ही अच्छी भावना है."
युवा मेडिकल रिसर्चर छह साल से बॉन यूनिवर्सिटी में काम कर रही हैं. मेडिकल रिसर्च में उनकी दिलचस्पी पढ़ाई के दौरान शुरू हुई. दरअसल वह कैंसर पर रिसर्च करना चाहती थीं लेकिन रिसर्च गाइड के कहने पर उन्होंने इम्यूनोलॉजी के क्षेत्र में काम करना शुरू किया.
बॉन के यूनिवर्सिटी अस्पताल में रिसर्च और मेडिकल प्रैक्टिस साथ साथ चलती है. इससे आंद्रेया को मरीजों के नमूनों पर काम करने और खास बीमारियों की तह तक जाने का मौका मिलता है. उन्होंने स्पेन, इंग्लैंड और अमेरिका में भी रिसर्च की है. हालांकि करियर के लिए उन्होंने अपना घर जर्मनी ही चुना. उनके पास इसकी वजह भी है, "मैं समझती हूं कि जहां तक युवा वैज्ञानिकों के प्रशिक्षण का सवाल है, जर्मनी बदलाव के दौर से गुजर रहा है. मैं समझती हूं कि जर्मन यूनिवर्सिटियों ने और आर्थिक संस्थानों ने समझ लिया है कि युवा रिसर्चरों को करियर की प्लानिंग में शुरू से ही मदद करनी होगी, और उन्हें करियर की संभावना देनी होगी."
शरीर की प्रतिरोधी क्षमता बीमारी के लक्षण को किस तरह पहचान सकती है और उससे कैसे लड़ सकती है? रिसर्च के दौरान आंद्रेया ने एक प्रतिरोधी क्षमता और सेंसर का पता लगाया, जो आस पास की कोशिकाओं को भी खतरे के बारे में आगाह कर देता है. और इसके साथ फौरन प्रतिरोधी कार्रवाई शुरू हो जाती है. आंद्रेया के मुताबिक, "हम जो करते हैं, उसे आप औद्योगिक जासूसी भी कह सकते हैं. हम जानना चाहते हैं कि प्रकृति कैसे काम करती है. और उसके बाद इस तरीके का इस्तेमाल इलाज के लिए करना चाहते है."
जल्द ही वह स्विट्जरलैंड की लूसान यूनिवर्सिटी में रिसर्च शुरू करेंगी. उनके पार्टनर भी वहीं काम करते हैं. आंद्रेया असिस्टेंट प्रोफेसर के तौर पर वहां अपना वर्किंग ग्रुप तैयार कर सकेंगी, "एक तरफ तो मैं इसे लेकर खुश हूं और दूसरी तरफ थोड़ा डर भी है. वहां नई जिम्मेदारी है. लेकिन मैं खुश हूं. यह एक मजेदार समय होगा. मजा आएगा."
भविष्य में भी वह कोशिकाओं में प्रतिरोधी क्षमता पर रिसर्च जारी रखेंगी. और पता करेंगी कि कोशिकाओं के भीतर क्या होता है. इस क्षेत्र में बहुत से सवाल अब भी रहस्य बने हुए हैं.
रिपोर्ट: कोर्नेलिया बोरमन/एजेए
संपादन: महेश झा

गुरुवार, 24 अप्रैल 2014

काशी कथा




वाराणसी का मूल नगर काशी था।
पौराणिक कथाओं के अनुसार, काशी नगर
की स्थापना हिन्दू भगवान शिव ने लगभग
५००० वर्ष पूर्व की थी, जिस कारण ये आज
एक महत्त्वपूर्ण तीर्थ स्थल है। ये हिन्दुओं
की पवित्र सप्तपुरियों में से एक है। स्कंद
पुराण, रामायण एवं महाभारत सहित
प्राचीनतम ऋग्वेद सहित कई हिन्दू
ग्रन्थों में नगर का उल्लेख आता है।
सामान्यतया वाराणसी शहर को कम से
कम ३००० वर्ष प्राचीन
तो माना ही जाता है। नगर मलमल और
रेशमी कपड़ों, इत्रों, हाथी दांत और
शिल्प कला के लिये व्यापारिक एवं
औद्योगिक केन्द्र रहा है। गौतम बुद्ध (जन्म
५६७ ई.पू.) के काल में,
वाराणसी काशी राज्य
की राजधानी हुआ करता था। प्रसिद्ध
चीनी यात्री ह्वेन त्सांग ने नगर
को धार्मिक, शैक्षणिक एवं कलात्मक
गतिविधियों का केन्द्र बताया है और
इसका विस्तार गंगा नदी के किनारे ५
कि.मी. तक लिखा है।
अनुक्रम
1 विभूतियाँ
2 प्राचीन काशी
2.1 अतिप्राचीन
2.2 महाभारत काल
2.3 उपनिषद काल
2.4 महाजनपद युग
3 काशी नरेश और रामनगर
विभूतियाँ
काशी में प्राचीन काल से समय समय पर
अनेक महान विभूतियों का प्रादुर्भाव
या वास होता रहा हैं। इनमें से कुछ इस
प्रकार हैं:
महर्षि अगस्त्य
धन्वंतरि
गौतम बुद्ध
संत कबीर
अघोराचार्य बाबा कानीराम
लक्ष्मीबाई
पाणिनी
पार्श्वनाथ
पतञ्जलि
संत रैदास
स्वामी रामानन्दाचार्य
शंकराचार्य
गोस्वामी तुलसीदास
महर्षि वेदव्यास
वल्लभाचार्य
प्राचीन काशी
मुख्य लेख : काशी का इतिहास
गंगा तट पर
बसी काशी बड़ी पुरानी नगरी है। इतने
प्राचीन नगर संसार में बहुत नहीं हैं।
हजारों वर्ष पूर्व कुछ नाटे कद के साँवले
लोगों ने इस नगर की नींव डाली थी।
तभी यहाँ कपड़े और चाँदी का व्यापार
शुरू हुआ। कुछ समय उपरांत पश्चिम से आये ऊँचे
कद के गोरे लोगों ने उनकी नगरी छीन
ली। ये बड़े लड़ाकू थे, उनके घर-द्वार न थे, न
ही अचल संपत्ति थी। वे अपने को आर्य
यानि श्रेष्ठ व महान कहते थे।
आर्यों की अपनी जातियाँ थीं, अपने कुल
घराने थे। उनका एक राजघराना तब
काशी में भी आ जमा। काशी के पास
ही अयोध्या में भी तभी उनका राजकुल
बसा। उसे राजा इक्ष्वाकु का कुल कहते थे,
यानि सूर्यवंश। काशी में चन्द्र वंश
की स्थापना हुई। सैकड़ों वर्ष काशी नगर
पर भरत राजकुल के चन्द्रवंशी राजा राज
करते रहे। काशी तब आर्यों के पूर्वी नगरों में
से थी, पूर्व में उनके राज की सीमा। उससे
परे पूर्व का देश अपवित्र
माना जाता था।
आर्य
महाभारत पूर्व मगध में राजा जरासन्ध ने
राज्य किया और
काशी भी उसी साम्राज्य में समा गई।
आर्यों के यहां कन्या के विवाह स्वयंवर के
द्वारा होते थे। एक स्वयंवर में पाण्डव और
कौरव के पितामह भीष्म ने काशी नरेश
की तीन पुत्रियों अंबा, अंबिका और
अंबालिका का अपहरण किया था। इस
अपहरण के परिणामस्वरूप काशी और
हस्तिनापुर की शत्रुता हो गई। महाभारत
युद्ध में जरासन्ध और उसका पुत्र सहदेव
दोनों काम आये। कालांतर में
गंगा की बाढ़ ने
पाण्डवों की राजधानी हस्तिनापुर
को डुबा दिया, तब पाण्डव वर्तमान
इलाहाबाद जिला में यमुना किनारे
कौशाम्बी में नई राजधानी बनाकर बस
गए। उनका राज्य वत्स कहलाया और
काशी पर मगध की जगह अब वत्स
का अधिकार हुआ।
उपनिषद काल
इसके बाद ब्रह्मदत्त नाम के राजकुल
का काशी पर अधिकार हुआ। उस कुल में बड़े
पंडित शासक हुए और में ज्ञान और पंडिताई
ब्राह्मणों से क्षत्रियों के पास पहुंच गई
थी। इनके समकालीन पंजाब में कैकेय
राजकुल में राजा अश्वपति था।
तभी गंगा-यमुना के दोआब में राज करने
वाले पांचाल में राजा प्रवहण जैबलि ने
भी अपने ज्ञान का डंका बजाया था।
इसी काल में जनकपुर, मिथिला में
विदेहों के शासक जनक हुए, जिनके दरबार में
याज्ञवल्क्य जैसे ज्ञानी महर्षि और
गार्गी जैसी पंडिता नारियां शास्त्रार्थ
करती थीं। इनके समकालीन काशी राज्य
का राजा अजातशत्रु हुआ। ये आत्मा और
परमात्मा के ज्ञान में अनुपम था। ब्रह्म और
जीवन के सम्बन्ध पर, जन्म और मृत्यु पर, लोक-
परलोक पर तब देश में विचार हो रहे थे। इन
विचारों को उपनिषद् कहते हैं। इसी से यह
काल भी उपनिषद-काल कहलाता है।
महाजनपद युग
भारत के महाजनपदों की स्थिति
युग बदलने के साथ ही वैशाली और
मिथिला के लिच्छवी में साधु वर्धमान
महावीर हुए, कपिलवस्तु के शाक्य में गौतम
बुद्ध हुए।
उन्हीं दिनों काशी का राजा अश्वसेन
हुआ। इनके यहां पार्श्वनाथ हुए जो जैन धर्म
के २३वें तीर्थंकर हुए। उन दिनों भारत में
चार राज्य प्रबल थे जो एक-दूसरे को जीतने
के लिए, आपस में बराबर लड़ते रहते थे। ये
राह्य थे मगध, कोसल, वत्स और उज्जयिनी।
कभी काशी वत्सों के हाथ में जाती,
कभी मगध के और कभी कोसल के।
पार्श्वनाथ के बाद और बुद्ध से कुछ पहले,
कोसल-श्रावस्ती के राजा कंस ने
काशी को जीतकर अपने राज में
मिला लिया। उसी कुल के
राजा महाकोशल ने तब अपनी बेटी कोसल
देवी का मगध के राजा बिम्बसार से
विवाह कर दहेज के रूप में
काशी की वार्षिक आमदनी एक लाख
मुद्रा प्रतिवर्ष देना आरंभ किया और इस
प्रकार काशी मगध के नियंत्रण में पहुंच गई।
राज के लोभ से मगध के राजा बिम्बसार के
बेटे अजातशत्रु ने पिता को मारकर
गद्दी छीन ली। तब विधवा बहन
कोसलदेवी के दुःख से दुःखी उसके भाई
कोसल के राजा प्रसेनजित ने
काशी की आमदनी अजातशत्रु
को देना बन्द कर
दिया जिसका परिणाम मगध और कोसल
समर हुई। इसमें कभी काशी कोसल के,
कभी मगध के हाथ लगी। अन्ततः अजातशत्रु
की जीत हुई और काशी उसके बढ़ते हुए
साम्राज्य में समा गई। बाद में मगध
की राजधानी राजगृह से पाटलिपुत्र
चली गई और फिर कभी काशी पर
उसका आक्रमण नहीं हो पाया।
आधुनिक काशी राज्य
आधुनिक काशी राज्य
वाराणसी का भूमिहर बह्मण राज्य
बना है। भारतीय स्वतंत्रता उपरांत अन्य
सभी रजवाड़ों के समान काशी नरेश ने
भी अपनी सभी प्रशासनिक
शक्तियां छोड़ कर मात्र एक प्रसिद्ध
हस्ती की भांति रहा आरंभ किया।
वर्तमान स्थिति में ये मात्र एक सम्मान
उपाधि रह गयी है। काशी नरेश
का रामनगर किला वाराणसी शहर के
पूर्व में गंगा नदी के तट पर बना है।
काशी नरेश का एक अन्य किला चेत सिंह
महल, शिवाला घाट, वाराणसी में स्थित
है। यहीं महाराज चेत सिंह
जिनकी मा राजपुत थी को ब्रिटिश
अधिकारी ने २०० से अधिक सैनिकों के संग
मार गिराया था। रामनगर किला और
इसका संग्रहालय अब बनारस के राजाओं
का एक स्मारक बना हुआ है। इसके
अलावा १८वीं शताब्दी से ये काशी नरेश
का आधिकारिक आवास बना हुआ है। आज
भी काशी नरेश को शहर में सम्मान
की दृष्टि से देखा जाता है। ये शहर के
धार्मिक अग्रणी रहे हैं और भगवाण शिव के
अवतार माने जाते हैं। ये शहर के धार्मिक
संरक्षक भी माने जाते हैं और सभी धामिक
कार्यकलापों में अभिन्न भाग होते हैं।


प्रस्तुति / अमित कुमार
वर्धा
— with श्री श्याम नगरी and 47 others.

शुक्रवार, 18 अप्रैल 2014

1857-1947 Forgotten Heroes & Martyrs of India's Freedom Movement -






 साहिल पर जितने आब गज़ीदा थे सब के सब
दरिया का रुख बदला तो तैराक बन गए
We have come a long way since India became independent on 15th August 1947. But it is ironical that the present generation of India does not even know how many young people and freedom fighters laid down their lives for the sake of the country. Even more ironical is the fact that not even five percent population of this huge nation actually remembers those who died during the freedom struggle.
How ironical it is that in every nook and corner of our cities, the statues and memorials of sundry politicians are erected, annual functions too are held with huge fanfare in their memory and remembrance but the people who made the supreme sacrifice for the nation have been confined to the memory of their equally neglected heir!
How ironical it is that even artists and film stars, who have enacted the roles of these real-life heroes on the silver screen, should find their way into parliament through nominated seats while the heroes have been wiped out from the nation’s memory!
But then India has always remained a country of peculiar paradoxes and catastrophic contradictions. I don’t wish to hurl or inflict a speech on those but then, it is important to bring forth a few points for your kind consideration and soul searching
India is being touted as the faster merging Superpower with the size of its economy touching over $3 trillion and yet it ranks 119 among 169 countries in human development index at per UN report of 2010 and is much lower to China which stands at 89th place.
The latest World Bank data indicates that every fourth person in India lives below poverty line and earns less than a Dollar a day. In other words, approximately 42 per cent population of rural India lives below poverty line. !
Three persons out of every hundred in India go hungry and India has the highest number of undernourished people in the whole world.
Our progress in higher education and science and technology has been stupendous and yet, half of the world’s illiterates live in India. In other worlds, we have 307 million illiterates.
India sends the largest number of students to USA, UK, Canada and even Australia for various kinds of specialized field and university education and yet more than 1.7 crore children in rural areas don’t have access to schools.
Worst still, 630 million people do not have access to acceptable sanitation facilities and children and women still defecate at public places.
It is nice to see world class super markets, food chains and malls where our urban youngsters gloat over the choice of toppings on their pizzas, ice cream and macaroni and spaghetti. Yet, 51 percent children in the age group of 5 to10 years remain undernourished.
When it comes to media, India has the distinction of having more than 66,875 publications in various languages, it has more than 76 24X7 new channels dishing out all kinds of news and information. India can boast of 598 Fm radio stations in 175 cities and it would reach 800 marks in another 2 years.
Yet journalism in India is being accused of fast becoming a joke and the media houses are being accused of behaving like a gang of mercenaries. The fact is that if Media is being accused of turning even a trivia into titanic every now and then the politicians should also take the blame for continuous biting and bullying though the camera...........contd (From Preface of the Book)
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