बुधवार, 18 जनवरी 2012

इतिहास के इतिहास की भारतीय दृष्टि







muglargeभारत में ‘इतिहास के इतिहास’ पर बहसें चलती हैं। यूरोपीय विद्वान भारत पर इतिहास की उपेक्षा का आरोप लगाते हैं। एलफिन्सटन को सिकंदर के हमले के पूर्व किसी भी घटना का निश्चित समय नहीं दिखाई पड़ता। विटरनिट्ज यहां काव्य, नायकत्व और इतिहास का घालमेल देखते हैं। अलबेरूनी के आरोप ज्यादा सख्त है कि हिन्दू चीजों (घटनाओं) के ऐतिहासिक क्रम पर अधिक ध्यान नहीं देते। वे अपने सम्राटों के काल क्रमानुसार उत्तराधिकार के वर्णन में लापरवाह हैं। इतिहास के इतिहास की इस बहस में गांधी जी भी शामिल थे। गांधी जी राजाओं के विवरण को सच्चा इतिहास नहीं मानते थे। उन्होंने हिन्द स्वराज (पृष्ठ 78) में लिखा इतिहास जिस अंग्रेजी शब्द का तरजुमा है और जिस शब्द का अर्थ बादशाहों या राजाओं की तवारीख होता है। हिस्ट्री में दुनिया के कोलाहल की ही कहानी मिलेगी। राजा लोग कैसे खेलते थे? कैसे खून करते थे? कैसे बैर करते थे, यह सब हिस्ट्री में मिलता है। भारतीय इतिहास संकलन की शैली यूरोपीय शैली से भिन्न है। प्राचीन भारतीय इतिहास में भारत का उल्लास है, तत्कालीन समाज के सामूहिक स्वप्न हैं, ज्ञान के विविध क्षेत्र हैं, विज्ञान, दर्शन, अर्थशास्त्र और समाज जीवन की मर्यादा है, यही नहीं मर्यादापालन में जुटे नायक भी हैं। बेशक इस इतिहास में भी युद्ध हैं, लेकिन प्राचीन भारतीय इतिहास टुच्ची लड़ाईयों को कालक्रमानुसार संकलन ही नहीं है। वर्तमान अतीत का विस्तार है। जो हो गया वह इतिहास है, जो हो रहा है, सतत् प्रवाही वर्तमान है, प्रजेन्ट कान्टीनुअस है, वह सब इतिहास ही बन रहा है। हमारे होने का कारण माता-पिता और पूर्वज हैं। वे न होते तो हम न होते। दर्शन और ज्ञान विज्ञान मानवीय उपलब्धियां हैं। सभी उपलब्धियां अग्रजों पूर्वजों का श्रमफल हैं।
भारतीय इतिहास भारतीय संस्कृति की सामूहिक स्मृति है। लंदन विश्वविद्यालय के रीडर इतिहासविद् ए.एल. बाशम ने लिखा है हमारा विचार है कि पुरातन संसार के किसी भी भाग में मनुष्य के मनुष्य से तथा मनुष्य के राज्य से ऐसे सुन्दर एवं मानवीय सम्बन्ध नहीं रहे हैं। किसी भी अन्य प्राचीन सभ्यता में गुलामों की संख्या इतनी कम नहीं रही जितनी भारत में रही, न ही ‘अर्थशास्त्र’ के समान किसी प्राचीन न्याय ग्रन्थ ने मानवीय अधिकारों की इतनी सुरक्षा की। मनु के समान किसी अन्य प्राचीन स्मृतिकार ने युद्ध में न्याय के ऐसे उच्चादर्शो की घोषणा भी नहीं की। हिन्दूकालीन भारत के युध्दों के इतिहास में कोई भी ऐसी कहानी नहीं है जिसमें नगर के नगर तलवार के घाट उतारे गए हों अथवा शान्तिप्रिय नागरिकों का सामूहिक वध किया गया हो। (दि वांडर दैट वाज इण्डिया, हिन्दी अनुवाद, पृष्ठ 6-7) बाशम ने भारत में एक सुसंगत इतिहास देखा है। भारतीय इतिहास को यूरोपीय दृष्टिकोण से नहीं देखा जा सकता। भारत की संस्कृति प्राचीन है। इस संस्कृति का विकास वैज्ञानिक दृष्टिकोण से हुआ है, तर्क और दर्शन के मानकों से कूड़ा-करकट को अलग करने व सत्य शिव को अपनाने की कार्यवाही चली है। यूरोपीय इतिहास में सत्य, शिव और सुंदर की उपेक्षा हुई है। गांधी जी ने हिन्द स्वराज (पृष्ठ 78-79) में लिखा, दुनिया में इतने लोग आज भी जिन्दा हैं, यह बताता है कि दुनिया का आधार हथियार बल पर नहीं है, परन्तु सत्य, दया या आत्मबल पर है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण तो यही है कि दुनिया लड़ाई के हंगामों के बावजूद टिकी हुई है। इसलिए लड़ाई के बल के बजाय दूसरा ही बल उसका आधार है। हजारों बल्कि लाखों लोग प्रेम के बस रहकर अपना जीवन बसर करते हैं। करोड़ों कुटुम्बों का क्लेश प्रेम की भावना में समा जाता है, डूब जाता है। सैकड़ों राष्ट्र मेल-जोल से रहे हैं, इसको ‘हिस्टरी’ नोट नहीं करती, ‘हिस्टरी’ कर भी नहीं सकती।
भारतीय इतिहास बोध के प्रमाण विश्व के प्राचीनतम ज्ञान अभिलेख ऋग्वेद में हैं। ऋग्वेद का नासदीय सूक्त सुदूर अतीत (इतिहास) जानने की गहनतम जिज्ञासा है। वैदिक साहित्य में गाथा, नाराशंसी, आख्यान, आख्यिका आदि के उल्लेख हैं। अथर्ववेद (12.6.11) में सीधे इतिहास शब्द का ही प्रयोग हुआ है, तमितिहासश्च पुराणं च गाथाश्च, नाराशंसीश्चानुव्य चलन्। छान्दोग्य उपनिषद् में नारद ने सनत ्कुमार को स्वयं द्वारा पढ़े गए विषयों में इतिहास को भी शामिल किया है। यास्क ने नाराशंसी को व्यक्ति की प्रशंसा वाले मन्त्र बताया है। मोनियर विलयम ने आख्यान को प्राचीन काल में घटित घटना से जुड़ा सम्वाद बताया है। ऐतरेय ब्राह्मण (3.25.1) में ‘आख्यानविद्’ का उल्लेख है। उत्तरवैदिक काल में रचे गए बा्रह्मण ग्रन्थों-शतपथ, जैमिनीय और गोपथ में ‘इतिहास’ शब्द का प्रयोग हुआ है। पुराणों में वर्णन विश्लेषण का विस्तार है, पार्जीटर ने इन्हें इतिहास की सामग्री से भरापूरा बताया है। कौटिल्य ने विश्वविख्यात ग्रन्थ ‘अर्थशास्त्र’ में पुराण, इतिवृत्त, आख्यिका, उदाहरण, धर्मशास्त्र और अर्थशास्त्र को इतिहास बताया है- पुराणमितिवृतमारिव्यको दाहरणं धर्मशास्त्रमर्थशास्त्रं चेतिहासः। ऋग्वेद से लेकर समूचे वैदिक साहित्य, पुराण, रामायण व महाभारत तक प्राचीन भारतीय इतिहास का विस्तार है।
ऋग्वेद के ऋषि किसी नूतन पथ की स्थापना नहीं करते। ऋषि प्राचीन परम्परा को ही आगे बढ़ाते हैं। इस परम्परा का मूल तत्व है ऋग्वेद में आया शब्द ‘ऋत’। ऋत जैसा अर्थ देने वाला शब्द दुनिया की किसी भाषा में नहीं है। पश्चिमी दर्शन और विचार सारिणी में आए ‘लेक्स नेचुरलीज’ और ‘आर्चीटाइप’ शब्द ऋत के करीबी हैंं लेकिन ऋत नहीं है। ऋत ब्रह्माण्डीय संविधान है। यही दैव है, दैवीय है, अणिमा (माईक्रो), महिमा (माईक्रो) और दिव्यता भी है। ऋग्वेद (10.190) में प्राचीन इतिहास का आदि बिन्दु है। ऋषि सृष्टि सर्जन के क्षण से पृथ्वी की निर्मिति तक का इतिहास बताते हैं ऊष्मा से ऋत सत्य की उत्पत्ति हुई। घोर अंधकार, फिर समुद्र फिर संवत्सर और दिन रात सूर्य चन्द्र और पृथ्वी अंतरिक्ष बने। ऋत सत्य एक ही है। मुण्डकोपनिषद् में सत्यमेव जयते नानृतम् मन्त्र है। ‘नानृतम्’ वस्तुतः न अन् ऋतम् है। जो ऋत नहीं है, वही ‘अनृत’ है, झूठ है। ऋत, सत्य और धर्म भी एक ही है।
भारतीय इतिहास बोध में राष्ट्र का गौरवबोध है, ऋत सत्य का आत्मबोध भी है। गांधी जी के चित्त में इतिहास की ऐसी ही निष्ठा थी। लेकिन यूरोपीय तर्ज के इतिहास में ऋत सत्य के विपरीत कलह और कोलाहल को ही प्रमुख महत्व मिलता है। उन्होंने लिखा जब इस दया की, प्रेम की और सत्य की धारा रुकती है, टूटती है, तभी इतिहास में वह लिखा जाता है। एक कुटुम्ब के दो भाई लड़े। इसमें एक ने दूसरे के खिलाफ सत्याग्रह का बल काम में लिया। दोनों फिर से मिल-जुलकर रहने लगे। इसका नोट कौन लेता है? (हिन्द स्वराज, पृष्ठ 79) यूरोपीय तर्ज का इतिहास सत्य-आग्रही को महत्व नहीं देता। झगड़ा लड़ाई ही महत्वपूर्ण है। गांधी जी ने लिखा, अगर वकीलों की मदद से या दूसरे कारणों से वैरभाव बढ़ता और वे हथियारों या अदालतों (अदालत एक तरह का हथियार-बल, शरीर बल ही है) के जरिये लड़ते, तो उनके नाम अखबारों में छपते, अड़ोस-पड़ोस के लोग जानते और शायद इतिहास में भी लिखे जाते। (वही, पृष्ठ 79) गांधी जी की बात 21वीं सदी में भी जारी है। अम्बानी बंधु लड़ते हैं, मुकदमेंबाजी करते हैं। प्रिन्ट और इलेक्ट्रानिक मीडिया के हीरो बन जाते हैं। यूरोपीय तर्ज की इतिहास शैली राजाओं की वंशावली बनाती है। युध्दों को विशेष महत्व देती है। सिंकदर कोई बड़ा राजा नहीं था, न वीर था, न पराक्रमी था लेकिन इतिहासकारों ने उसे महानायक और ‘दि ग्रेट’ बनाया। ब्रिटेन का इतिहास राजाओं का इतिहास है। इस इतिहास को विशेषज्ञ ही जान पाते हैं। भारत का इतिहास लोकस्मृति में है। राजा हरिश्चन्द्र भारत के गांव गली तक अपनी सत्यनिष्ठा के लिए चर्चित हैं। राम भी राजा थे। भारत के अशिक्षित भी ‘रामराज्य’ के प्रशंसक है। गांधी जी रामराज्य का स्वप्न देखते थे। यूरोपीय इतिहास में राजा राम, राजा हरिश्चन्द्र, धु्रव, प्रहलाद या लोकमन में घट घट व्याप्त श्रीकृष्ण जैसे इतिहास नायक नहीं है। बेशक ख्यातिनामा लोग यूरोप में भी हैं पर लोकमन और लोकस्मृति में इतिहास संजोने का भारतीय इतिहास का अंदाज निराला है। यूरोपीय इतिहासकार और उनके पिछलग्गू कतिपय भारतीय विद्वान आर्यों को विदेशी बताते है। विश्वविद्यालय यही कचरा इतिहास पढ़ा रहे हैं लेकिन भारत की श्रुति, स्मृति, गीत, गाथा, आख्यिका और लोककथाओं में आर्य विदेशी नहीं है। सो कोई भी भारतीय आर्यो को विदेशी नहीं मानता, नहीं जानता। यूरोपीय इतिहास शैली अस्वाभाविक है। गांधी जी ने ‘हिन्द स्वराज’ में ठीक लिखा हिस्ट्री अस्वाभाविक बातों को दर्ज करती है।
- हृदयनारायण दीक्षित
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