गुरुवार, 26 अगस्त 2021

भारत का राजनीतिक एकीकरण

रत को दो क्षेत्रों में विभाजित किया गया था, एक सीधे ब्रिटिश शासन के तहत

स्वतंत्रता के समय 'भारत' के अन्तर्गत तीन तरह के क्षेत्र थे-

१९४७ में स्वतन्त्रता के तुरन्त बाद भारत की राजनीतिक स्थिति
१९०९ में 'ब्रितानी भारत' तथा देसी रियासतें

इन सभी क्षेत्रों को एक राजनैतिक इकाई के रूप में एकीकृत करना भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का घोषित लक्ष्य था। भारत सरकार ने समय के साथ इन लक्ष्यों को कमोबेश हासिल किया।

बुधवार, 18 अगस्त 2021

भारतीय ज्ञान का खजाना / २१

 भारतीय स्थापत्य शास्त्र - २ / :- प्रशांत पोळ


किसी भी वस्तु की वारंटी अथवा गारंटी का अनुमान, हम सामान्य लोग कितना लगा सकते हैं? एक वर्ष... दो वर्ष... पांच वर्ष या दस वर्ष..? आजकल ‘लाइफ टाइम वारंटी’ बीस वर्ष की आती हैं. हमारी सोच इससे अधिक नहीं जाती. है ना? परन्तु निर्माण अथवा स्थापत्य क्षेत्र के प्राचीन भारतीय इंजीनियरों द्वारा तैयार की गई ईंटों की गारंटी है – ५००० वर्ष..! जी हां... पांच हजार वर्ष. और यह ईंटें हैं मोहन जो-दारो और हडप्पा की खुदाई में मिली हुई प्राचीन भारतीय संस्कृति के अवशेषों में.


जिस समय भारत में १८५७ के, पहले स्वतंत्रता संग्राम की तैयारियां चल रही थीं, उस कालखंड में भारत के उत्तर-पश्चिम दिशा में (अर्थात वर्तमान पाकिस्तान में) अंग्रेज अपनी रेलवे लाईन बिछाने की दिशा में कार्यरत थे. लाहौर से मुल्तान तक की रेलवे लाईन बिछाने का काम ईस्ट इण्डिया कम्पनी की ओर से जारी था. इस काम के प्रमुख इंजीनियर थे ब्रुंटन बंधु. जॉन एवं विलियम ब्रुन्टन. इनके समक्ष एक बड़ी चुनौती यह थी कि रेलवे लाईन के नीचे बिछाने वाली गिट्टी कहां से लाएँ?


कुछ गांव वालों ने उन्हें बताया कि, ब्राम्हनाबाद के पास एक पुरातन शहर है, जो अब खंडहर अवस्था में है. वहां से कई मजबूत ईंटे आपको मिल सकती हैं.


दोनों अंग्रेज भाई रेलवे इंजीनियर थे. उन्होंने उन अवशेषों से ईंटें खोज निकालीं. उन्हें बड़ी संख्या में ईंटें मिलीं. लाहौर से कराची के बीच में बिछाई गई लगभग ९३ किलोमीटर की रेलवे लाईन इन्हीं ईंटों से बनाई गई है. इन दोनों अंग्रेज इंजीनियरों को पता ही नहीं चला कि वे अनायास ही एक प्राचीन एवं समृद्ध हडप्पा के अवशेषों को नष्ट करते जा रहे हैं.


आगे कई वर्षों तक इन ऐतिहासिक ईंटों ने लाहौर-मुल्तान रेलवे लाईन को सहारा दिया.


आधुनिक पद्धति की कार्बन डेटिंग से यह वैज्ञानिक रूप से सिद्ध हो चुका है कि मोहन जो-दारो, हडप्पा, लोथल इत्यादि स्थानों पर खुदाई में मिली प्राचीन संस्कृति लगभग साढ़े सात हजार वर्ष पुरानी होनी चाहिए. यदि इन ईंटों को थोड़ा नया भी माना जाए, तब भी ये कम से कम पांच हजार वर्ष पुरानी हैं. अर्थात लगभग ५००० वर्ष पुरानी ईंटें १८५७ में प्राप्त होती हैं, तब भी वे मजबूत होती हैं तथा अगले ८०-९० वर्षों तक रेलवे की पटरियों को संभालती भी हैं...!!


क्या ऐसी ईंटें आज बनाई जा सकती हैं?


हडप्पा से प्राप्त उपरोक्त ईंटें विशिष्टतापूर्ण हैं. इन्हें भट्टियों में तपाया गया है. साधारणतः १५ विभिन्न आकारों में यह ईंटें देखी जा सकती हैं. परन्तु इन सभी आकारों में एक समानता है – इन सभी ईंटों का अनुपात ४:२:१ ऐसा है. अर्थात चार भाग लम्बाई, २ भाग चौड़ाई तथा १ भाग ऊँचाई (मोटाई). इसी का अर्थ यह है कि इन ईंटों का निर्माण अत्यंत वैज्ञानिक पद्धति से किया गया होगा. फिर ऐसे में प्रश्न निर्माण होता है कि लगभग पांच हजार वर्ष पहले निर्माण कार्य से सम्बन्धित यह उन्नत ज्ञान भारतीयों के पास कहां से आया? या भारतीयों ने ही इसकी खोज की थी?


इसका उत्तर हमें अपने प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में मिलता है. तंत्र शास्त्र के कुछ ग्रन्थ आज भी वाचिक परंपरा के कारण उपलब्ध है. इन्हीं में से कपिल वात्स्यायन का एक ग्रन्थ है “मयमतम कला-मुला शास्त्रं” नाम का. इस ग्रन्थ में निर्माण कार्यों के बारे में अनेक बातें स्पष्ट की गई हैं. इसमें एक श्लोक है –


‘चतुष्पश्चषडष्टाभिमत्रिस्तध्दिव्दिगुणायतः II

व्यासार्धार्धत्रिभागैकतीव्रा मध्ये परेsपरे I

इष्टका बहुशः शोष्याः समदग्धाः पुनश्च ताः II’


इसका अर्थ है – ‘इन ईटों की चौड़ाई चार, पांच, छः और आठ इन घटकों में रहेंगी, जबकि इनकी लम्बाई इसकी दोगुनी है. इनकी ऊंचाई (मोटाई) यह चौड़ाई से आधी अथवा एक तिहाई होनी चाहिए. इन ईंटों को पहले अच्छे से सुखाकर भट्टी में भून लेना चाहिए.’


यह श्लोक जिस ग्रन्थ में है, वह ग्रन्थ संभवतः सोलहवीं शताब्दी में लिखा गया है. अर्थात आज से लगभग डेढ़ हजार वर्ष पहले. जबकि हडप्पा की खुदाई में मिली ईंटें हैं पांच से सात हजार वर्ष पुरानी.


इसका अर्थ स्पष्ट है. निर्माणकला का अत्यंत उन्नत एवं प्रगत ज्ञान, ज्ञात इतिहास के समय से ही भारत में मौजूद था और इसका बड़े ही शास्त्रीय और वैज्ञानिक पद्धति से उपयोग भी किया जाता था.


चलिए, अब हम एक थोड़ा नवीन उदाहरण देखें. विजयनगरम साम्राज्य के उत्तर कालखंड में अर्थात सन १५८३ में निर्माण किया गया ‘लेपाक्षी मंदिर’. ऐसा कहा जाता है कि जब रावण सीता का हरण करके ले जा रहा था, तब उसके साथ जटायु का संघर्ष हुआ. तब जटायु ने यहीं पर अपने प्राण त्यागे. बंगलौर से लगभग डेढ़ सौ किमी दूरी पर स्थित, परन्तु आंध्रप्रदेश के अनंतपुर जिले में स्थापित यह लेपाक्षी मंदिर अनेक अर्थों में विशिष्टताओं से भरा हुआ है. विजयनगर साम्राज्य के वीरन्ना और विरुपन्ना नाम के दो भाईयों ने इस मंदिर का निर्माण किया है. ये दोनों विजयनगर साम्राज्य के वीर सरदार थे. कूर्मशैल पठार अर्थात कछुए की पीठ जैसी पहाड़ी पर बनाया गया यह मंदिर, श्री वीरभद्र का है. लगभग सवा पांच सौ वर्ष पुराना यह मंदिर एक अनोखे कारण के लिए प्रसिद्ध है. सत्तर स्तंभों पर आधारित इस मंदिर में एक स्तंभ है, जो हवा में झूल रहा है...!


ज़ाहिर है कि वह प्रकट रूप में ऐसा दिखाई नहीं देता. दूर से देखने पर वह जमीन से टिका हुआ ही प्रतीत होता है. परन्तु उस पत्थर के खम्भे के नीचे से एक पतला कपड़ा आर-पार निकल जाता है. जब इस खम्भे को ऊपर से देखा, तो उसे पकड़कर रखने वाली कोई भी रचना वहां दिखाई नहीं देती है.


स्थापत्य शास्त्र के दिग्गजों एवं वैज्ञानिकों के लिए यह एक गूढ़ रहस्य ही है. यह स्तंभ बिना किसी आधार के झूलता हुआ कैसे टिका है, यह कोई भी नहीं बता पा रहा. जब अंग्रेजों का शासन था, तब एक अंग्रेज इंजीनियर ने इस खम्भे के साथ कई हरकतें करके देखीं, परन्तु वह भी इस अदभुत रचना का रहस्य खोज नही पाया.


अर्थात आज से लगभग सवा पांच सौ वर्ष पहले भी भारत का स्थापत्य शास्त्र अत्यंत उन्नत स्वरूप में उपलब्ध था. ऐसे ही कई निर्माण हमें भारत में अनेक स्थानों पर दिखाई देते हैं. प्रतापगढ़ और रायगढ़ किलों का निर्माण कार्य तो शिवाजी के कालखंड में हुआ था. अंग्रेजों द्वारा जानबूझकर इन किलों की दुर्गति करने के बावजूद, आज भी ये किले बुलंद स्वरूप में खड़े हैं.


आगे चलकर अंग्रेज अपनी सिविल इंजीनियरिंग लेकर भारत आए और स्थापत्य एवं निर्माण शास्त्र से सम्बन्धित जो भी बचे-खुचे थोड़े भारतीय ग्रन्थ थे वे उपेक्षित हो कर रद्दी में चलते बने.


भारतीय शिल्पशास्त्र (अथवा स्थापत्य शास्त्र) के मुख्य रूप से अठारह संहिताकार माने जाते हैं. वे हैं - भृगु, अत्री, वसिष्ठ, विश्वकर्मा, मय, नारद, नग्नजीत, विशालाक्ष, पुरंदर, ब्रह्मा, कुमार, नंदिश, शौनक, गर्ग, वासुदेव, अनिरुद्ध, शुक्र एवं बृहस्पति. इन सभी के द्वारा शिल्पशास्त्र पर स्वतन्त्र संहिता लिखी गई. इनमें से आज की तारीख में मय, विश्वकर्मा, भृगु, नारद एवं कुमार, यह केवल पांच ही संहिताएं उपलब्ध हैं. यदि अन्य सभी प्रकार की संहिताएं मिल जाएँ, तो संभवतः लेपाक्षी मंदिर के झूलने वाले स्तंभ जैसे अनेक रहस्यों का खुलासा हो सकता है.


भारत में जिस समय उत्तर दिशा से मुसलमानों के आक्रमणों की तीव्रता बढ़ रही थी, उसी कालखंड में, अर्थात ग्यारहवीं शताब्दी में, मालवा के राजा भोज ने ‘समरांगण सूत्रधार’ नामक ग्रन्थ संकलित किया था. इस ग्रन्थ में ८३ अध्याय हैं. इसमें स्थापत्य कला एवं निर्माण शास्त्र से लेकर यंत्रों के विज्ञान तक, अनेक बातों का विस्तृत विवरण दिया गया है. यहां तक कि हाइड्रोलिक टर्बाइन चलाने की विधि का भी इसमें उल्लेख किया गया है –


‘धारा च जलभारश्च पायसो भ्रमणम तथा I

यथोच्छ्रायो यथाधिक्यम यथा निरन्ध्रतापिच I

एवमादिनी भूजस्य जलजानी प्रचक्षते II’

- अध्याय ३१


अर्थात ‘जलधारा किसी भी वस्तु को घुमा सकती है. यदि जलधारा को ऊँचाई से गिराया जाए, तो उसका प्रभाव अधिक तीव्र होता है, तथा इसकी गति एवं वस्तु के भार के अनुपात में वह वस्तु घूमती है.’


‘समरांगण सूत्रधार’ ग्रन्थ पर यूरोप में काफी काम किया गया है. परन्तु हमारे देश में इस बारे में उदासीनता ही दिखाई देती है. लगभग अस्सी वर्ष आयु के डॉक्टर प्रभाकर पांडुरंग आपटे ने इस ग्रन्थ का अंग्रेजी अनुवाद किया, तब कहीं जाकर पश्चिमी देशों की नजरे इस ग्रन्थ की पर पड़ी.


कहने का तात्पर्य यह है कि स्थापत्य शास्त्र का यह प्रचंड ज्ञान आज रद्दी में पड़ा है. उसे बाहर लाना आवश्यक है. मंदिरों के स्थापत्य शास्त्र एवं मूर्तिकला जैसे विषयों पर हमारे पास रिस-रिसकर आने वाला साहित्य बड़े पैमाने पर उपलब्ध है. शिवशाहीर बाबासाहेब पुरंदरे के गुरु, प्रख्यात इतिहासविद ग. ह. खरे द्वारा लिखित ‘भारतीय मूर्तिविज्ञान’ नामक एक अदभुत पुस्तक है. परन्तु वर्तमान में इन विषयों पर बहुत सा काम किया जाना आवश्यक है.


संक्षेप में बात यह है कि हजारों वर्ष पहले हमारे पूर्वजों द्वारा ग्रंथों में लिखे गए ज्ञान के द्वार खोजना एवं उन्हें सर्व साधारण के लिए खोलना, यही हमारा प्रयास होना चाहिए.

-✍🏻 प्रशांत पोळ


मूषाओं के मकान - आश्‍चर्य का हेतु

श्री कृष्ण जुगनू

दस साल पहले जब मैं 'समरांगण सूत्रधार' ग्रंथ पर काम कर रहा था तो उसमें भवन में मूषाओं के प्रयोग के संबंध में कई निर्देश थे और मैं 'मक्षिका स्‍थाने मक्षिकाम्' की तरह की मूल शब्‍द का ही प्रयोग करके एक बार तो आगे से आगे अर्थ करता चला गया। बाद में जो अर्थ होना चाहिए था, वह पुनर्स्‍थापित किया किंतु उदयपुर जिले के जावर में तो मूषाअों [Retorts] के प्रयोग को देखकर फिर कोई नया अर्थ सामने आ गया। जरूर भोजराज के समय, 10वीं सदी तक जावर जैसा प्रयोग लुप्‍त हो गया होगा।  

जावर दुनिया में सबसे पहले यशद देने वाली खदान के लिए ख्‍यात रहा है। यशद या जिंक का प्रयोग होने से पहले इस धातु को जिन लोगों ने खोजा और वाष्‍पीकृत हाेने से पहले ही धातुरूप में प्राप्‍त करने की विधि को खोजा- वे भारतीय थे और मेवाड़ के जाये जन्‍मे थे। सामान्‍य घरों में रहने वाले और जिस किसी तरह गुजारा करने वाले। जावर की खदान सबसे पहले चांदी के लिए जानी गई और ये पहाड़ाें में होने से इनको 'गिरिकूप' के रूप में शास्‍त्र में जाना गया। पर्वतीय खानों में उत्‍खनन के लिए पहले ऊपर से ही खोदते-खोदते ही भीतर उतरा जाता था। शायद इसी कारण यह नाम हुआ हो। यहां 'मंगरियो कूड़ो' या डूंगरियो खाड़ कहा भी जाता है।

तो, करीब ढाई हजार साल पहले यहां धातुओं के लिए खुदाई ही नहीं शुरू हुई बल्कि अयस्‍कों को निकालकर वहीं पर प्रदावण का कार्य भी आरंभ हुआ। जरूर यह समय मौर्यपूर्व रहा होगा तभी तो चाणक्‍य ने पर्वतीय खदानों की पहचान करने की विधि लिखी है और आबू देखने पहुंचे मेगास्‍थनीज ने भी ऐसी जगहों को पहचान कर लिखा था।

यहां प्रदावण का कार्य इतने विशाल स्‍तर पर हुआ कि यदि कोई जावर देख ले तो अांखें पलक झपकना भूल जाए। हर कदम पर रोमांच लगता है। कदम-दर-कदम मूषाओं का भंडार और उनमें भरा हुआ अयस्‍क चूर्ण जो जब पिघला होगा तो धातु की बूंद बनकर टपका होगा। धातु तत्‍काल हथिया लिया गया मगर मूषाओं का क्‍या करते ? एक मूषा एक ही बार काम में आती है। इसी कारण बड़े पैमाने पर यहां मूषाओं का निर्माण भी हुआ और उनका प्रदावण कार्य में उपयोग भी। प्राचीन भारतीय प्रौद्योगिकी का जीवंत साक्ष्‍य है जावर, जहां कितनी तरह की  मूषाएं बनीं, यह तो उनका स्‍वरूप देखकर ही बताया जा सकता है मगर 'रस रत्‍न समुच्‍चय' आदि ग्रंथों में एक दर्जन प्रकार की मूषाएं बनाने और औषधि तैयार करने के जिक्र मिलते हैं। इनके लिए मिट्टी, धातु, पशुरोम आ‍दि जमा करने की अपनी न्‍यारी और निराली विधियां हैं मगर, रोचक बात ये कि अयस्‍क का चूर्ण भरकर उनका मुख कुछ इस तरह के छिद्रित ढक्‍कन से बंद किया जाता था कि तपकर द्रव सीधे आग में न गिरे अपितु संग्रहपात्र में जमा होता जाए।

प्रदावण के बाद बची, अनुपयोगी मूषाओं का क्‍या उपयोग होता ? तब यूज़ एंड थ्रो की बजाय, यूज़ आफ्टर यूज़ का मन बना और मूषाओं का उपयोग कामगारों ने अपने लिए आवास तैयार करने में किया। कार्यस्‍थल पर ही आवास बनाने के लिए मूषाओं से बेहतर कोई वस्‍तु नहीं हो सकती थी। जिस मिट्टी से मूषाओं को बनाया जा रहा था, उसी मिट्टी के लौंदों से मूषाओं की दीवारें खड़ीकर चौकोर और वर्गाकार घर बना दिए गए। ये घर भी कोई एक मंजिल वाले नहीं बल्कि दो-तीन मंजिल वाले रहे होंगे। है न रोचक भवन विधान। 

ये बात भी रोचक है कि हवा के भर जाने के कारण वे समताप वाले भवन रहे होंगे। अंधड़ के चलने पर और बारिश के होने पर उन घरों की सुरक्षा का क्‍या होता होगा, मालूम नहीं। उनमे रहने का अनुभव कैसा रहा होगा, हममें से शायद ही किसी को ऐसे हवादार घर में रहने का अनुभव हो।

मगर, जावर की पहाडि़यां ऐसे मूषामय घरों की धनी रही हैं। आज केवल उनके अवशेष नजर आते हैं। कोई देखना चाहे तो जावर उनको बुला रहा है। 

अनुज श्रीनटवर चौहान को धन्यवाद कि वह इस नवरा‍त्र में मुझे जावर ले गया और मैं पूरे दिन इन मूषाओं के स्‍वरूप और मूषाओं के मकानों को देख देखकर हक्‍का-बक्‍का रहा। हम सबके लिए अनेक आश्‍चर्य हो सकते हैं, मगर मेरे लिए जावर भी एक बड़ा आश्‍चर्य है जहां आंखें जो देखती है, जबान उसका जवाब नही दे सकती। हां, कुछ वर्णन जरूर मैंने अपनी 'मेवाड़ का प्रारंभिक इतिहास' में किया है।

-✍🏻 डॉ. श्रीकृष्‍ण 'जुगनू'

मंगलवार, 17 अगस्त 2021

कायस्थ जाति पर माननीय न्यायालयों के निर्णय

 बनारस के राजा के आग्रह पर पूना, बंगाल, काशी, अवध, मथुरा, जम्मू-कश्मीर एवं बम्बई के विद्वान पंडितों ने यह व्यवस्था दी थी कि कायस्थ जाति क्षत्रिय वर्ण के अन्तर्गत आती है। उसी प्रकार विभिन्न न्यायलयों के निर्णयों में भी कायस्थों को क्षत्रिय माना गया है।


यद्यपि कलकत्ता उच्च न्यायालय ने 1884 ई0 के राजकुमार लाल बनाम विश्वेश्वर दयाल के वाद के न्याय निर्णय में कायस्थों को शूद्र मान लिया था। कलकत्ता उच्च न्यायालय ने श्यामा चरण सरकार की लिखी पुस्तक ‘व्यवस्था दर्पण’ के आधार पर कायस्थों को शूद्र माना था। किन्तु श्यामाचरण सरकार की पुस्तक ‘व्यवस्था दर्पण’ में यह भी लिखा हुआ है कि कायस्थ क्षत्रिय थे किन्तु, बंगाल में बसने से वे शूद्र हो गये। क्योंकि वे अपने नाम के बाद ‘दास’ उपनाम जोड़ने लगे और उन्होने उपनयन संस्कारादि छोड़ दिया। किन्तु धर्मशास्त्र के प्रायश्चित खण्ड में यह भी स्पष्ट लिखा हुआ है कि आचार-व्यवहार छोड़ देने पर ‘द्विज’ नीच हो सकते हैं किन्तु किसी भी हालत में शूद्र नहीं हो जाते। प्रायश्चित करके वे पुनः पवित्र हो सकते हैं।

उल्लेखनीय है कि, कलकत्ता उच्च न्यायालय के उपरोक्क्त निर्णय को ‘प्रिवी कौंसिल’ ने नही माना और कायस्थो को क्षत्रिय घोषित किया। विश्व विद्वान रोमां रोलां ने भी अपनी रचना ‘द लाइफ ऑफ विवेकानंद एंड द यूनिवर्सल गोस्पेल’ में स्वामी विवेकानंद के संबंध में लिखा है जो पूर्व में नरेन्द्रनाथ दत्त कहलाते थे और जाति से कायस्थ थे। उन्होने पुस्तक के फुटनोट में विवेकानंद को क्षत्रिय मानते हुए लिखा है, “He belonged to the Kayastha Class, a sub caste of warriors.”-Page-6, The Life of Vivekanand and the Universal Gospel, 1947 edition. “


Notwithstanding the ruling of a Division Vench of Calcutta High Court, I entertain Considerable doubts as to the soundness of the view which seems adopted by the courts that the literary Caste of Kayasthas in the parts of the Country to which the parties belong falls under the Category of “Sudras”.


(I.L.R. – Page 324-328)


इतना ही नहीं पटना उच्च न्यायालय ने भी कायस्थों को क्षत्रिय वर्ण माना है। माननीय न्यायाधीश सर ज्वाला प्रसाद ने १९२७ ई0 के ईश्वरी प्रसाद बनाम राय हरि प्रसाद के वाद में ८४ पृष्ठो का अपना निर्णय देते हुए कायस्थों को क्षत्रिय वर्ण का घोषित किया है। उन्होने अपने निर्णय में लिखा है कि:-

“The reason given by Shyama Charan Sarkar in this “Vayavastha Darpan” can not cause degradation of the Kayasthas to Sudradom and in any case the Behari Kayasthas are not Sudras and I respectfully differ from the view given in the cause of Raj Kumar Lal Vrs. Bisheshwar.


(I.L.R. VI, Patna No. 145)


भले ही कायस्थों को पुराणों के आधार पर पंडितों द्वारा या न्यायालय के निर्णयों के आधार पर क्षत्रिय अथवा शूद्र कहा जाए लेकिन पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर वे वास्तव में ब्राह्मण वर्ण के अन्तर्गत ही है, जैसा कि इस पुस्तक के एक अध्याय में एतद्सम्बंधी विवेचना की गई है।


कायस्थों की उत्पतित और हिन्दू समाज में उनके स्थान के विषय में 1884 र्इ0 में अपना निर्णय देते हुए कलकत्ता के उच्च न्यायालय ने उन्हें शूद्र वर्ग में देखा। इससे क्षुब्द होकर उत्तर प्रदेश के कायस्थों ने इलाहाबाद हार्इ कोर्ट में यह तर्क दिया कि उत्तर प्रदेश और बिहार के कायस्थों की उत्पतित भिन्न है। सन 1889 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उत्तर प्रदेश के कायस्थों को क्षत्रिय मानते हुए अपना फैसला सुनाया। 23 फरवरी 1926 को पटना  ने उस समय तक के निर्णयों की समीक्षा करते हुए और हिन्दू ग्रन्थों के आधार पर उन्हें क्षत्रिय घोषित किया।


1975 में इलाहाबाद से प्रकाशित एक पुसितका में उन्हें ब्राह्राण वर्ण का सिद्व किया गया। किन्तु ब्राह्राण उन्हें पाचवें वर्ण का मानते हैं और उनकी उत्पतित प्रतिलोम विवाह से उत्पन्न बताते हैं। इसका खण्डन करते हुए पटना हार्इ कोर्ट ने कहा कि मनुस्मृति ने अध्याय 10 श्लोक 4 में मानव जाति को मात्र चार वर्णों में बांटा है। अत: कायस्थों का स्थान उन्हीं चार वर्णों में निशिचत करना पड़ेगा।

उस निर्णय में ‘यम संहिता’ के उल्लेख से यह कहा गया कि धर्मराज द्वारा अपने कठिनाइयों की शिकायत करने पर ब्रह्रा ने अपनी काया से चित्रगुप्त को उपन्न किया और उन्हें ‘कायस्थ कहा और उनसे बारह सन्तानें हुई जिनसे बारह उप जातियों के कायस्थ हुये। ‘पद्म पुराण’ उत्तर खण्ड में उन बारह पुत्रों का विवाह नाग कन्याओं से होना बताया गया है। विभिन्न स्मृतियों के आधार पर यह भी कहा गया कि कायस्थ का काम लेखक और गणक का था और उसकी अपनी लिपि थी, जिसे कैथी कहते हैं।


पटना हाईकोर्ट ने निर्णय दिया कि कायस्थ क्षत्रिय हैं


 ‘वृहदारण्यक उपनिषद’ में जो स्मृतियों और पुराणों से पुराना है, याज्ञवल्क्य ने प्रथम अध्याय के 11 वें मंत्र में कहा है कि सृषिट के आरम्भ में ब्रह्रा अकेला था। उसने पहिले ‘क्षत्र’ उत्पन्न किया। जब उससे काम न चला तो वैश्य उत्पन्न किया और जब उन दोनों से काम न चला तो शूद्र उत्पन्न किया। इस मंत्र में ब्रह्रा अलग अलग अंगों से अलग-अलग वर्णों के उत्पन्न होने की बात नहीं दुहराई गई है और न ‘काया’ से कायस्थ के चित्रगुप्त के उत्पन्न होने की बात कही गयी है।


धर्म ग्रन्थों की यह अलग-अलग व्याख्यायें मात्र चिन्तन का परिणाम है, किसी इतिहास या प्रमाण पर आधारित नहीं हैं। स्मृतियों और पुराणों की रचना पांचवीं से आठवीं शताब्दी ईसवी में हुई। वे ब्रह्रा द्वारा वर्णों की उत्पतित के बारे में कैसे कुछ कह सकती हैं?


अत: आज के वैज्ञानिक युग में हमें उन ग्रंथों की कल्पना की मूल व्याख्या से अलग हट कर विचार करना होगा। यदि कायस्थ पटना हाईकोर्ट के निर्णय के अनुसार अपने को क्षत्रिय मानते रहे तो उसका तार्किक परिणाम यह होगा कि वे ब्राह्राण से नीचे हैं जिन्हें क्षत्रिय भी क्षत्रिय नहीं मानते। अत: वे दूसरे दर्जे के क्षत्रिय हुये। आज हम यह मानते हैं कि सभी मनुष्य बराबर हैं। वैदिक युग में ब्राह्राण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि वर्ण नहीं थे। सभी व्यकित अपने को आर्य कहते थे। उपनिषदों में यह कहा गया है कि सभी जड़ व चेतन वस्तुओं में ईश्वर का निवास है। अत: सब को अपना-सा ही समझो। फिर ब्राह्राण, क्षत्रिय और कायस्थ में भेद कैसा ?


कायस्थों की उत्पतित के बारे में स्मृतियों और पुराणों की यह बात सही है कि वे प्रथम लेखक और गणक रहे हैं उन्हें धर्मशास्त्रों का ज्ञान था। इस व्याख्या के अनुसार वे ब्राह्राण थे, क्योंकि क्षत्रियों को भी लिखने और गणना करने के कार्य से कुछ लेना देना नहीं था और वैश्यों तथा शूद्रों को धर्मशास्त्रों से दूर रखा गया था। इतिहास तथा स्मृतियों और पुराणों की विषय वस्तु के अनुसार उनकी रचना ईसा की पाचवीं से आठवीं शताब्दी के बीच हुई। इससे भी कायस्थों की उत्पतित ईसा की पाचवीं से आठवीं शताब्दी के बीच होना ही प्रमाणित होता है न कि ब्रह्रा से। पर यह सम्भव है कि प्रथम कायस्थ का नाम चित्रगुप्त रहा हो। सम्भवत: वे गुप्त राजाओं से सम्बनिधत और उनके विश्वस्त मंत्री या प्रधान लेखाकार या न्यायकर्ता रहे। इस बात को आज का इतिहास स्वीकार करता है।

इस सम्बन्ध में दिल्ली विश्वविधालय के प्रोफेसर डी0 एन0 झा और कृष्ण मोहन श्रीमाली ने अपनी पुस्तक प्राचीन भारत का इतिहास में लिखा है :-


‘एक जाति के रुप में कायस्थों का आविर्भाव एक महत्वपूर्ण सामाजिक घटना है। कायस्थों का सर्वप्रथम उल्लेख याज्ञवल्क्य स्मृति में है। इसमें कहा गया है कि राजा को चाहिए कि शोषित प्रजा की विशेषकर कायस्थों से रक्षा करें। अधिक संभावना यही है कि गणक और लेखक के रुप में कायस्थ भूमि और राजस्व सम्बन्धी अभिलेख रखते थे और पद का अनुचित लाभ ठाकुर प्रजा पर अत्याचार करते थे। कालांतर में भूमि तथा राजस्व सम्बन्धी कार्यों में वृद्वि हुर्इ। मंदिरों और ब्राह्राणों को भूमि दान में दी जाती थी। भूमि के क्रय विक्रय के भी उल्लेख मिलते हैं। भूमि सीमा निर्धारण सम्बन्धी दस्तावेज रखने पड़ते थे। कौन सी भूमि कर मुक्त है, किससे कौन से कर लिये जाने हैं, किस वर्ग से विषिट लेनी है, इन सभी कार्यों का हिसाब किताब व दस्तावेज कायस्थों को ही रखना पड़ता था। फलत: कायस्थों की संख्या में वृद्वि हुर्इ। न्यायाधिकरण में न्याय-निर्णय लिखने का कार्य ‘करणिक’ करते थे। वे लेखक, गणक या दस्तावेज रखने वाले अनेक नामों से पुकारे जाते थे। जैसे कायस्थ, कारणिक, पुस्तपाल, अलक्ष, पाटलिक, दीविर, लेखक आदि। कालांतर में वे सभी कायस्थ वर्ग मे समाविष्ट हो गये।’


आगे  कहा गया है कि कायस्थों में विभिन्न वर्णों के लोग थे। वे राजा को विभिन्न कर लगाने की सलाह देते थे। धर्मशास्त्रों ने इस पर आक्षेप किया और ब्राह्राण वर्ग कायस्थों का विरोधी हो गया। कुछ ने उनको शूद्र कहा। किन्तु उनके सत्ता में रहने के कारण अनेक धर्मशास्त्रों को यह व्यवस्था देनी पड़ी कि वे क्षत्रिय हैं।


आज का कायस्थ अपने को क्षत्रिय कहलाने के लोभ में उन्हीं ब्राह्राणों को अपने से श्रेष्ठ मानने लगा है, वर्ण व्यवस्था में अपना स्थान ढूढने लगा है और स्मृतियों तथा पुराणों को मान्यता देने लगा है। वह ब्रात्य क्षत्रिय माने जाने से भी संतुष्ट हैं जैसा पटना हाईकोर्ट  के उपरोक्त निर्णय में कहा गया है।


एक बात और श्री चित्रगुप्त भगवान का विवाह एक ब्राह्मण कन्या और एक क्षत्रिय कन्या के साथ हुआ था यदि वे इन दोनों से नीचे थे तो उनकी संताने विलोमज कहलाती परंतु कहीं भी किसी ग्रंथ में इस प्रकार का उल्लेख नहीं आया है

केवल क्षणिक और राजनीतिक लाभ लेने के लिए हमारे पूर्वजों ने जो इतनी तपस्या की उन सब को मिटा कर आरक्षण नामक भिक्षा का कटोरा अपने हाथ में ले लेना कहां की बुद्धिमता है भगवान श्री कृष्ण किस वंश के थे उस यदुवंश का एक समय पूरे आर्यावर्त पर शासन होता था परंतु वह गौरव में ही समाज आज आरक्षण नामक दीमक के चलते ही गर्त में जा रहा है और यदि कायस्थ समय रहते चेते नहीं तो उनकी भी यही दशा होगी जिस भारतवर्ष में कायस्थों का इतना स्वर्णिम इतिहास रहा है पुरातन काल से ही सदैव उच्च पदों पर रहने वाले पूरे भारतवर्ष पर एक समय में एक छत्र राज्य करने वाले और भारतवर्ष के आजादी की लड़ाई में सबसे ज्यादा सिर कटाने वाले चाहे साहित्य हो या फिर कला अथवा विज्ञान या फिर अध्यात्म वर्ग जितने भी उपलब्धियां हैं उनमें यदि सर्वश्रेष्ठ का नाम आएगा तो उस सूची में कायस्थों का नाम सबसे ऊपर होगा सूचना आप सभी को है अपने गौरवमयी इतिहास व अपनी विलक्षण क्षमता को दबाते हुए आरक्षण की धारा में बहना है अथवा उसके विपरीत क्योंकि हमारे पूर्वजों को अपनी वंशावली का भान था अतः उन्होंने संघर्ष किया और हमें हमारा सम्मान दिलाया नहीं तो समाज के ठेकेदार और राजनीतिक व्यवसाई हमको कब का शूद्र अथवा ओबीसी बना चुके होते मेरा हमारे प्रबुद्ध समाज से निवेदन है कृपया इस फैसले के विरुद्ध आवाज उठाएं जय चित्रांश जय श्री चित्रगुप्त भगवान

सोमवार, 16 अगस्त 2021

चमत्कार

 *ऐसा चमत्कार हिंदी में ही हो सकता है …*


चार मिले चौंसठ खिले, 

बीस रहे कर जोड़!

प्रेमी सज्जन दो मिले, 

खिल गए सात करोड़!!


मुझसे एक बुजुर्गवार ने इस कहावत का अर्थ पूछा.... 

काफी सोच-विचार के बाद भी जब मैं बता नहीं पाया, 

तो मैंने कहा – 

"बाबा आप ही बताइए, 

मेरी समझ में तो कुछ नहीं आ रहा !"


तब एक रहस्यमयी मुस्कान के साथ बाबा समझाने लगे – 

"देखो बेटे, यह बड़े रहस्य की बात है... 

चार मिले – मतलब जब भी कोई मिलता है, 

तो सबसे पहले आपस में दोनों की आंखें मिलती हैं, 

इसलिए कहा, चार मिले.. 

फिर कहा, चौसठ खिले – यानि दोनों के बत्तीस-बत्तीस दांत – कुल मिलाकर चौंसठ हो गए, 

इस तरह “चार मिले, चौंसठ खिले” 

हुआ!"


“बीस रहे कर जोड़” – दोनों हाथों की दस उंगलियां – दोनों व्यक्तियों की 20 हुईं – बीसों मिलकर ही एक-दूसरे को प्रणाम की मुद्रा में हाथ बरबस उठ ही जाते हैं!"


“प्रेमी सज्जन दो मिले” – जब दो आत्मीय जन मिलें – यह बड़े रहस्य की बात है – क्योंकि मिलने वालों में आत्मीयता नहीं हुई तो 

“न बीस रहे कर जोड़” होगा और न "चौंसठ खिलेंगे”


उन्होंने आगे कहा, 

"वैसे तो शरीर में रोम की गिनती करना असम्भव है, 

लेकिन मोटा-मोटा साढ़े तीन करोड़ बताते हैं, बताने वाले ! 

तो कवि के अंतिम रहस्य – “प्रेमी सज्जन दो मिले – खिल गए सात करोड़!” 

का अर्थ हुआ कि जब कोई आत्मीय हमसे मिलता है, 

तो रोम-रोम खिलना स्वाभाविक ही है भाई – जैसे ही कोई ऐसा मिलता है, 

तो कवि ने अंतिम पंक्ति में पूरा रस निचोड़ दिया – “खिल गए सात करोड़” यानि हमारा रोम-रोम खिल जाता है!"


भई वाह, आनंद आ गया। 

हमारी कहावतों में कितना सार छुपा है। 

एक-एक शब्द चासनी में डूबा हुआ, 

हृदय को भावविभोर करता हुआ! 

*इन्हीं कहावतों के जरिए हमारे बुजुर्ग, जिनको हम कम पढ़ा-लिखा समझते थे, हमारे अंदर गाहे-बगाहे संस्कार का बीज बोते रहते थे।*


🙏🌹🙏🌹🙏

सोमवार, 9 अगस्त 2021

लोहस्तंभ’ क़ुतुब मीनार लेखक:- प्रशांत पोळ

 भारतीय ज्ञान का खजाना / १६  

       


दक्षिण दिल्ली से मेहरोली की दिशा में जाते समय दूर से ही हमें ‘क़ुतुब मीनार’ दिखने लगती हैं. २३८ फीट ऊँची यह मीनार लगभग २३ मंजिल की इमारत के बराबर हैं. पूरी दुनिया में ईटों से बनी हुई यह सबसे ऊँची वास्तु हैं. दुनियाभर के पर्यटक यह मीनार देखने के लिए भारत में आते हैं.


साधारणतः ९०० वर्ष पुरानी इस मीनार को यूनेस्को ने ‘विश्व धरोहर’ घोषित किया हैं. आज जहां यह मीनार खड़ी हैं, उसी स्थान पर दिल्ली के हिन्दू शासक पृथ्वीराज चौहान की राजधानी ‘ढिल्लिका’ थी. इस ढिल्लिका के ‘लालकोट’ इस किले नुमा गढ़ी को ध्वस्त कर, मोहम्मद घोरी के सेनापति ‘कुतुबुद्दीन ऐबक’ ने यह मीनार बनाना शुरू किया था. बाद में आगे चलकर इल्तुतमिश और मोहम्मद तुघलक ने यह काम पूरा किया. मीनार बनाते समय लालकोट में बने मंदिरों के अवशेषों का भी उपयोग किया गया हैं, यह साफ़ दिखता हैं.


किन्तु इस ‘ढिल्लिका’ के परिसर में इस क़ुतुब मीनार से भी बढकर एक विस्मयकारी स्तंभ अनेक शतकों से खड़ा हैं. क़ुतुब मीनार से कही ज्यादा इसका महत्व हैं. क़ुतुब मीनार से लगभग सौ – डेढ़ सौ फीट दूरी पर एक ‘लोहस्तंभ’ हैं. क़ुतुब मीनार से बहुत छोटा... केवल ७.३५ मीटर या २४.११ फीट ऊँचा. क़ुतुब मीनार के एक दहाई भर की ऊँचाई वाला..! लेकिन यह स्तंभ क़ुतुब मीनार से बहुत पुराना हैं. सन ४०० के आसपास बना हुआ. यह स्तंभ भारतीय ज्ञान का रहस्य हैं. इस लोहस्तंभ में ९८% लोहा हैं. इतना लोहा होने का अर्थ हैं, जंग लगने की शत प्रतिशत गारंटी..! लेकिन पिछले सोलह सौ - सत्रह सौ वर्ष निरंतर धूप और पानी में रहकर भी इसमें जंग नहीं लगा हैं. विज्ञान की दृष्टि से यह एक बड़ा आश्चर्य हैं. आज इक्कीसवी सदी में, अत्याधुनिक तकनिकी होने के बाद भी ९८% लोहा जिसमे हैं, ऐसे स्तंभ को बिना कोटिंग के जंग से बचाना संभव ही नहीं हैं. 


फिर इस लोहस्तंभ में क्या ऐसी विशेषता हैं की यह स्तंभ आज भी जैसे था, वैसे ही खड़ा हैं..?


आई आई टी कानपुर के ‘मटेरियल्स एंड मेटलर्जिकल इंजीनियरिंग’ विभाग के प्रमुख रह चुके प्रोफेसर आर. सुब्रमणियम ने इस पर बहुत अध्ययन किया हैं. इन्टरनेट पर भी उनके इस विषय से संबंधित अनेक पेपर्स पढने के लिए उपलब्ध हैं.


प्रोफेसर सुब्रमणियम के अनुसार लोह-फॉस्फोरस संयुग्म का उपयोग इसा पूर्व ४०० वर्ष, अर्थात सम्राट अशोक के कालखंड में बहुत होता था. और उसी पध्दति से इस लोहस्तंभ का निर्माण हुआ हैं. प्रोफ़ेसर सुब्रमणियम और उनके विद्यार्थियों ने अलग अलग प्रयोग कर के यह बात साबित कर के दिखाई हैं. उनके अनुसार लोहे को जंग निरोधी बनाना, आज की तकनिकी के सामने एक बड़ी चुनौती हैं. भवन निर्माण व्यवसाय, मशीनी उद्योग, ऑटोमोबाइल उद्योग आदि में ऐसे जंग रोधक लोहे की आवश्यकता हैं. उसके लिए इपोक्सी कोटिंग, केडोडिक प्रोटेक्शन पध्दति आदि का प्रयोग किया जाता हैं. लेकिन इस प्रकार की पध्दति लोहे को पूर्णतः जंग से मुक्त नहीं कर सकती. वह तो उसे कुछ समय के लिए जंग लगने से बचा सकती हैं. अगर लोहा पूर्णतः जंग निरोधक चाहिए हो तो उस लोहे में ही ऐसी क्षमता होनी चाहिए. 


आज इक्कीसवी सदी में भी इस प्रकार का जंग निरोधी लोहा निर्मित नहीं हो पाया हैं. लेकिन भारत में इसा पूर्व से इस प्रकार का लोहा निर्माण होता था, जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण यह दिल्ली का लोहस्तंभ हैं. वास्तव में यह स्तंभ दिल्ली के लिए बना ही नहीं था. चन्द्रगुप्त मौर्य ने यह स्तंभ सन ४०० के आसपास मथुरा के विष्णु मन्दिर के बाहर लगाने के लिए बनवाया था. इस स्तंभ पर पहले गरुड़ की प्रतिमा अंकित थी, इसलिए इसे ‘गरुड़ स्तंभ’ नाम से भी जाना जाता हैं. यह स्तंभ विष्णु मंदिर के लिए बनाया गया था, इसका प्रमाण हैं, इस स्तंभ पर ब्राम्ही लिपि में कुरेदा गया एक संस्कृत श्लोक..! ‘चन्द्र’ नाम के राजा की स्तुति करता हुआ यह श्लोक विष्णु मन्दिर के सामने के लोह स्तंभ का महत्व बताता हैं. चूँकि इस श्लोक में ‘चन्द्र’ नाम के राजा का उल्लेख हैं तथा चौथे शताब्दी में इसका निर्माण हुआ था, इसलिए यह माना गया की इसका निर्माण चन्द्रगुप्त मौर्य ने किया होगा. इस श्लोक की लेखन शैली गुप्त कालीन हैं. इस कारण से भी इस स्तंभ का निर्माण चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा ही हुआ होगा, इस मान्यता को बल मिलता हैं. मथुरा के निकट स्थित ‘विष्णुपद’ पहाड़ी पर बसे हुए विष्णु मंदिर के सामने रखने के लिए इस स्तंभ का निर्माण किया हैं इसकी पुष्टि उस संस्कृत श्लोक से भी होती हैं. (किन्तु अनेक इतिहासकार इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं हैं. उनके अनुसार इस स्तंभ का निर्माण इसा के पूर्व सन ९१२ में किया गया था.)


७ मीटर ऊँचाई वाला यह स्तंभ, ५० सेंटिमीटर (अर्थात लगभग पौने दो फीट) जमीन के नीचे हैं. नीचे ४१ सेंटीमीटर का व्यास हैं, जो बिलकुल ऊपर जाकर ३० सेंटीमीटर का रह जाता हैं. सन १९९७ तक इस को देखने के लिए आने वाले पर्यटक इसको पीछे से दोनो हाथ लगाकर पकड़ने का प्रयास करते थे. दोनों हाथों से अगर इसे पकड़ने में सफल हुए तो वांछित मनोकामना पूरी होती हैं, ऐसी मान्यता थी. लेकिन स्तंभ को पकड़ने के चक्कर में उसपर कुछ कुरेदना, ठोकना, नाम लिखना आदि बाते होने लगी, जो इस वैश्विक धरोहर को क्षति पहुचाने लगी. इसलिए इसकी सुरक्षा के लिए आर्चिओलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया ने इसके चारों और संरक्षक फेंसिंग लगा दिया. अब कोई भी इस स्तंभ को छू नहीं सकता. 


यह एक मात्र लोहस्तंभ अब शेष हैं, ऐसा नहीं हैं. भारत में यह कला इसा के पूर्व ६०० – ७०० वर्ष से विकसित थी, इसके अनेक प्रमाण मिले हैं. सोनभद्र जिले का ‘राजा-नाल-का-टीला, मिर्जापुर जिले में मल्हार और पश्चिम बंगाल के पांडुराजार, धिबी, मंगलकोट आदि जिलों में सर्वोत्तम गुणवत्ता के लोहे के अवशेष प्राप्त हुए हैं. इससे यह साबित होता हैं की लोहे का, ऊँची गुणवत्ता का धातुकर्म भारत में ढाई-तीन हजार वर्ष पहले से मौजूद था. अत्यंत ऊँचे दर्जे का लोहा भारत में होता था, यह अनेक प्राचीन विदेशी प्रवासियों ने भी लिख रखा हैं. 


अत्यंत प्राचीन काल से भारत में लोहा बनाने वाले विशिष्ट समूह / समाज हैं. उनमे से ‘आगरिया लुहार समाज’ आज भी आधुनिक यंत्र सामग्री को नकारते हुए जमीन के नीचे की खदानों से लोहे की मिट्टी निकालता हैं. इस मिट्टी से लोहे के पत्थर बीन कर उन पत्थरों पर प्रक्रिया करता हैं, और शुध्द लोहा तैयार करता हैं. लोहा बनाने की, आगरिया समाज की यह पारंपरिक पध्दति हैं.


‘आगरिया’ यह शब्द ‘आग’ इस शब्द से तैयार हुआ हैं. लोहे की भट्टी का काम याने आग का काम होता हैं. ‘आग’ में काम करने वाले इसलिए ‘आगरिया’. मध्यप्रदेश के मंडला, शहडोल, अनुपपुर और छत्तीसगढ़ के बिलासपुर और सरगुजा जिलों में यह समाज पाया जाता हैं, जो गोंड समाज का ही एक हिस्सा हैं. इस समाज की दो उपजातियां हैं - पथरिया और खुंटिया. लोहे की भट्टी तैयार करते समय ‘पत्थर’ का जो उपयोग करते हैं, उन्हें पथरियां कहा जाता हैं. और भट्टी तैयार करते समय ‘खूंटी’ का उपयोग करने वाले ‘खुंटिया’ कहलाते हैं. आज भी यह समाज लोहा तैयार करके उसके औजार और हथियार बनाने का व्यवसाय करता हैं. 


भोपाल के एक दिग्दर्शक संगीत वर्मा ने आगरिया समाज पर एक वृत्तचित्र बनाया हैं. इसमें जंगल की मिट्टी से लोहे के पत्थर बीनने से लेकर लोहे के औजार बनाने तक का पूरा चित्रण किया गया हैं. 


ढाई – तीन हजार वर्ष पूर्व की यह धातुशास्त्र की परंपरा इस आगरिया समाज ने संवाहक के रूप में जीवित रखी हैं. प्राचीन काल में जब इस परंपरा को राजाश्रय और लोकाश्रय था, तब धातुशास्त्र की इस कला का स्वरुप क्या रहा होगा, इस कल्पना मात्र से ही मन विस्मयचकित होता हैं..!

        

‘अदृश्य स्याही का रहस्य’      

 

आमगांव यह महाराष्ट्र के गोंदिया जिले की एक छोटी सी तहसील, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश की सीमा से जुडी हुई. इस गांव के ‘रामगोपाल अग्रवाल’, सराफा व्यापारी हैं. घर से ही सोना, चाँदी का व्यापार करते हैं. रामगोपाल जी, ‘बेदिल’ नाम से जाने जाते हैं. एक दिन अचानक उनके मन में आया, ‘आसाम के दक्षिण में स्थित ‘ब्रम्हकुंड’ में स्नान करने जाना हैं’. अब उनके मन में ‘ब्रम्हकुंड’ ही क्यूँ आया, इसका कोई कारण उनके पास नहीं था. यह ब्रम्हकुंड (ब्रह्मा सरोवर), ‘परशुराम कुंड’ के नाम से भी जाना जाता हैं. आसाम सीमा पर स्थित यह कुंड, प्रशासनिक दृष्टि से अरुणाचल प्रदेश के लोहित जिले में आता हैं. मकर संक्रांति के दिन यहाँ भव्य मेला लगता हैं. 


‘ब्रम्ह्कुंड’ यह स्थान अग्रवाल समाज के आदि पुरुष / प्रथम पुरुष भगवान अग्रसेन महाराज का ससुराल माना जाता हैं. भगवान अग्रसेन महाराज की पत्नी, माधवी देवी इस नागलोक की राजकन्या थी. उनका विवाह अग्रसेन महाराज जी के साथ इसी ब्रम्ह्कुंड के तट पर हुआ था, ऐसा बताया जाता हैं.


हो सकता हैं, इसी कारण से रामगोपाल जी अग्रवाल ‘बेदिल’ को इच्छा हुई होगी ब्रम्ह्कुंड दर्शन की..! वे अपने ४ – ५ मित्र – सहयोगियों के साथ ब्रम्ह्कुंड पहुंच गए. दुसरे दिन कुंड पर स्नान करने जाना निश्चित हुआ. रात को अग्रवाल जी को सपने में दिखा कि, ‘ब्रम्ह्सरोवर के तट पर एक वटवृक्ष हैं, उसकी छाया में एक साधू बैठे हैं. इन्ही साधू के पास, अग्रवाल जी को जो चाहिये वह मिल जायेगा..!’


दुसरे दिन सुबह राम गोपाल जी ब्रम्ह्सरोवर के तट पर गये तो उनको एक बड़ा सा वटवृक्ष दिखाई दिया और साथ ही दिखाई दिए, लंबी दाढ़ी और जटाओं वाले वो साधू महाराज भी. रामगोपाल जी ने उन्हें प्रणाम किया तो साधू महाराज जी ने अच्छे से कपडे में लिपटी हुई एक चीज उन्हें दी और कहा, “जाओं, इसे ले जाओं, कल्याण होगा तुम्हारा.”


वह दिन था, ९ अगस्त, १९९१. 


दिखने में बहुत बड़ी, पर वजन में हलकी वह पोटली जैसी वस्तु लेकर रामगोपाल जी अपने स्थान पर आएं, जहां वे रुके थे. उन्होंने वो पोटली खोलकर देखी, तो अंदर साफ़ – सुथरे ‘भूर्जपत्र’ अच्छे सलीके से बांधकर रखे थे. इन पर कुछ भी नहीं लिखा था. एकदम कोरे..! इन को भूर्जपत्र कहते हैं, इसकी रामगोपाल जी को जानकारी भी नहीं थी. अब इसका क्या करे..? उनको कुछ समझ नहीं आ रहा था. लेकिन साधू महाराज का प्रसाद मानकर वह उसे अपने गांव, आमगांव, लेकर आये. लगभग ३० ग्राम वजन की उस पोटली में ४३१ खाली (कोरे) भूर्जपत्र थे. 


बालाघाट के पास ‘गुलालपुरा’ गांव में रामगोपाल जी के गुरु रहते थे. रामगोपाल जी ने अपने गुरु को वह पोटली दिखायी और पूछा, “अब मैं इसका क्या करू..?” गुरु ने जवाब दिया, “तुम्हे ये पोटली और उसके अंदर के ये भूर्जपत्र काम के नहीं लगते हों, तो उन्हें पानी में विसर्जित कर दो.” अब रामगोपाल जी पेशोपेश में पड गए. रख भी नहीं सकते और फेंक भी नहीं सकते..! उन्होंने उन भुर्जपत्रों को अपने पूजाघर में रख दिया. 


कुछ दिन बीत गए. एक दिन पूजा करते समय सबसे ऊपर रखे भूर्जपत्र पर पानी के कुछ छींटे गिरे, और क्या आश्चर्य..! जहां पर पानी गिरा था, वहां पर कुछ अक्षर उभरकर आये. रामगोपाल जी ने उत्सुकतावश एक पूरा भूर्जपत्र पानी में डुबोकर कुछ देर तक रखा और वह आश्चर्य से देखते ही रह गये..! उस भूर्जपत्र पर लिखा हुआ साफ़ दिखने लगा. अष्टगंध जैसे केसरिया रंग में, स्वच्छ अक्षरों से कुछ लिखा था. कुछ समय बाद जैसे ही पानी सूख गया, अक्षर भी गायब हो गए. 


अब रामगोपाल जी ने सभी ४३१ भुर्जपत्रों को पानी में भिगोकर, सुखने से पहले उन पर दिख रहे अक्षरों को लिखने का प्रयास किया. यह लेखन देवनागरी लिपि में और संस्कृत भाषा में लिखा था. यह काम कुछ वर्षों तक चला. जब इस साहित्य को संस्कृत के विशेषज्ञों को दिखाया गया, तब समझ में आया, की भूर्जपत्र पर अदृश्य स्याही से लिखा हुआ यह ग्रंथ, अग्रसेन महाराज जी का ‘अग्र भागवत’ नाम का चरित्र हैं. 


लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व जैमिनी ऋषि ने ‘जयभारत’ नाम का एक बड़ा ग्रंथ लिखा था. उसका एक हिस्सा था, यह ‘अग्र भागवत’ ग्रंथ. पांडव वंश में परीक्षित राजा का बेटा था, जनमेजय. इस जनमेजय को लोक साधना, धर्म आदि विषयों में जानकारी देने हेतू जैमिनी ऋषि ने इस ग्रंथ का लेखन किया था, ऐसा माना जाता हैं.


रामगोपाल जी को मिले हुए इस ‘अग्र भागवत’ ग्रंथ की अग्रवाल समाज में बहुत चर्चा हुई. इस ग्रंथ का अच्छा स्वागत हुआ. ग्रंथ के भूर्जपत्र अनेकों बार पानी में डुबोकर उस पर लिखे गए श्लोक, लोगों को दिखाए गए. इस ग्रंथ की जानकारी इतनी फैली की इंग्लैंड के प्रख्यात उद्योगपति लक्ष्मी मित्तल जी ने कुछ करोड़ रुपयों में यह ग्रंथ खरीदने की बात की. यह सुनकर / देखकर अग्रवाल समाज के कुछ लोग साथ आये और उन्होंने नागपुर के जाने माने संस्कृत पंडित रामभाऊ पुजारी जी के सहयोग से एक ट्रस्ट स्थापित किया. इससे ग्रंथ की सुरक्षा तो हो गयी. आज यह ग्रंथ, नागपुर में ‘अग्रविश्व ट्रस्ट’ में सुरक्षित रखा गया हैं. लगभग १८ भारतीय भाषाओं में इसका अनुवाद भी प्रकाशित हुआ हैं.  


रामभाऊ पुजारी जी की सलाह से जब उन भुर्जपत्रों की ‘कार्बन डेटिंग’ की गयी, तो वह भूर्जपत्र लगभग दो हजार वर्ष पुराने निकले. 


इस कहानी में, बेदिल जी को आया स्वप्न, वो साधू महाराज, यह सब ‘श्रध्दा’ के विषय बाजू में रखे जाय तो भी कुछ प्रश्न तो मन को कुरेदते हैं ही. जैसे, हजारों वर्ष पूर्व भुर्जपत्रों पर अदृश्य स्याही से लिखने की तकनीक किसकी थी..? इसका उपयोग कैसे किया जाता था..? कहां उपयोग होता था, इस तकनीक का..? 


भारत में लिखित साहित्य की परंपरा अति प्राचीन हैं. ताम्रपत्र, चर्मपत्र, ताडपत्र, भूर्जपत्र... आदि लेखन में उपयोगी साधन थे. 


मराठी विश्वकोष में भूर्जपत्र की जानकारी दी गयी हैं, जो इस प्रकार हैं –

“भूर्जपत्र यह ‘भूर्ज’ नाम के पेड़ की छाल से बनाया जाता था. यह वुक्ष, ‘बेट्युला’ प्रजाति के हैं और हिमालय में, विशेषतः काश्मीर के हिमालय में, पाए जाते हैं. इस वृक्ष के छाल का गुदा निकालकर, उसे सुखाकर, फिर उसे तेल लगा कर उसे चिकना बनाया जाता था. उसके लंबे रोल बनाकर, उनको समान आकार का बनाया जाता था. उस पर विशेष स्याही से लिखा जाता था. फिर उसको छेद कर के, एक मजबूत धागे से बांधकर, उसकी पुस्तक / ग्रंथ बनाया जाता था. यह भूर्जपत्र, उनकी गुणवत्ता के आधार पर दो – ढाई हजार वर्षों तक अच्छे रहते थे.”


भूर्जपत्र पर लिखने के लिये प्राचीन काल से स्याही का उपयोग किया जाता था. भारत में, ईसा के पूर्व, लगभग ढाई हजार वर्षों से स्याही का प्रयोग किया जाता था, इसके अनेक प्रमाण मिले हैं. लेकिन यह कब से प्रयोग में आयी, यह अज्ञात ही हैं. भारत पर हुए अनेक आक्रमणों के चलते यहाँ का ज्ञान बड़े पैमाने पर नष्ट हुआ हैं. 


परन्तु स्याही तैयार करने के प्राचीन तरीके थे, कुछ पध्दतियां थी, जिनकी जानकारी मिली हैं. आम तौर पर ‘काली स्याही’ का ही प्रयोग सब दूर होता था. चीन में मिले प्रमाण भी ‘काली स्याही’ की ओर ही इंगित करते हैं. केवल कुछ ग्रंथों में गेरू से बनायी गयी केसरियां रंग की स्याही का उल्लेख आता हैं.


मराठी विश्वकोष में स्याही की जानकारी देते हुए लिखा हैं – ‘भारत में दो प्रकार के स्याही का उपयोग किया जाता था. कच्चे स्याही से व्यापार का आय-व्यय, हिसाब लिखा जाता था तो पक्की स्याही से ग्रंथ लिखे जाते थे. पीपल के पेड़ से निकाले हुए गोंद को पीसकर, उबालकर रखा जाता था. फिर तिल के तेल का काजल तैयार कर उस काजल को कपडे में लपेटकर, इस गोंद के पानी में उस कपडे को बहुत देर तक घुमाते थे. और वह गोंद, स्याही बन जाता था, काले रंग की..!’


भूर्जपत्र पर लिखने वाली स्याही अलग प्रकार की रहती थी. बादाम के छिलके और जलाये हुए चावल को इकठ्ठा कर के गोमूत्र में उबालते थे. काले स्याही से लिखा हुआ, सबसे पुराना उपलब्ध साहित्य तीसरे शताब्दी का हैं. 


आश्चर्य इस बात का हैं, की जो भी स्याही बनाने की विधि उपलब्ध हैं, उन सब से पानी में घुलने वाली स्याही बनती हैं. जब की इस ‘अग्र भागवत’ की स्याही, भूर्जपत्र पर पानी डालने से दिखती हैं. पानी से मिटती नहीं. उलटें, पानी सूखने पर स्याही भी अदृश्य हो जाती हैं. इस का अर्थ यह हुआ, की कम से कम दो – ढाई हजार वर्ष पूर्व हमारे देश में अदृश्य स्याही से लिखने का तंत्र विकसित था. यह तंत्र विकसित करते समय अनेक अनुसंधान हुए होंगे. अनेक प्रकार के रसायनों का इसमें उपयोग किया गया होगा. इसके लिए अनेक प्रकार के परीक्षण करने पड़े होंगे. लेकिन दुर्भाग्य से इसकी कोई भी जानकारी आज उपलब्ध नहीं हैं. उपलब्ध हैं, तो अदृश्य स्याही से लिखा हुआ ‘अग्र भागवत’ यह ग्रंथ. लिखावट के उन्नत आविष्कार का जीता जागता प्रमाण..!


कुल मिलाकर, ‘विज्ञान, या यूं कहे, शास्त्रशुध्द विज्ञान, पाश्चिमात्य देशों में ही निर्माण हुआ’ इस मिथक को मानने वालों के लिए ‘अग्र भागवत’ यह अत्यंत आश्चर्य का विषय हैं. किसी समय इस देश में अत्यधिक प्रगत लेखन शास्त्र विकसित था और अपने पास के विशाल ज्ञान भंडार को, पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित करने की क्षमता इस लेखन शास्त्र में थी, यह अब सिध्द हो चुका हैं..!

- ✍🏻प्रशांत पोळ