गुरुवार, 31 दिसंबर 2020

रिश्ता दिसंबर और जनवरी

 Just months but recreated as two individuals, two entities, two different personalities  and yet complementing each other.


कितना अजीब है ना, 

*दिसंबर और जनवरी का रिश्ता?*

जैसे पुरानी यादों और नए वादों का किस्सा...


दोनों काफ़ी नाज़ुक है 

दोनो मे गहराई है,

दोनों वक़्त के राही है, 

दोनों ने ठोकर खायी है...


यूँ तो दोनों का है

वही चेहरा-वही रंग,

उतनी ही तारीखें और 

उतनी ही ठंड...

पर पहचान अलग है दोनों की

अलग है अंदाज़ और 

अलग हैं ढंग...

 

एक अन्त है, 

एक शुरुआत

जैसे रात से सुबह,

और सुबह से रात...


एक मे याद है

दूसरे मे आस,

एक को है तजुर्बा, 

दूसरे को विश्वास...


दोनों जुड़े हुए है ऐसे

धागे के दो छोर के जैसे,

पर देखो दूर रहकर भी 

साथ निभाते है कैसे...


जो दिसंबर छोड़ के जाता है

उसे जनवरी अपनाता है,

और जो जनवरी के वादे है

उन्हें दिसम्बर निभाता है...


कैसे जनवरी से 

दिसम्बर के सफर मे

११ महीने लग जाते है...

लेकिन दिसम्बर से जनवरी बस

१ पल मे पहुंच जाते है!!


जब ये दूर जाते है 

तो हाल बदल देते है,

और जब पास आते है 

तो साल बदल देते है...


देखने मे ये साल के महज़ 

दो महीने ही तो लगते है,

लेकिन... 

सब कुछ बिखेरने और समेटने

का वो कायदा भी रखते है...


दोनों ने मिलकर ही तो 

बाकी महीनों को बांध रखा है,

.

अपनी जुदाई को 

दुनिया के लिए 

एक त्यौहार बना रखा है..!

😊Happy year ending 😊

बुधवार, 19 अगस्त 2020

अम्बस्थ कायस्थ की कहानी

 अम्बस्थ कहां से मगध क्षेत्र में आये?

अम्बस्थ कहां से आकर मगध क्षेत्र में बस गये, इस पर मत-भिन्नता है। कुछ का मानना है कि अम्बस्थ अफगानिस्तान से आये तो कुछ का कहना है कि वे पंजाब से आये थे। परन्तु गूगल सर्च से पता चलता है कि वे तक्षशिला  या दक्षिण काश्मीर से आये थे। 


हिमवान का प्रारम्भिक मूल निवास, रावी (एरावती) नदी और चेनाब (चन्द्रभागा) नदी के उद्गम स्थलों के बीच लाहौल स्फीति क्षेत्र रहा था। संयोग तो यह भी है कि हिमवान की माताजी का नाम एरावती (इरावती) ही है।


चेनाब नदी, दो नदियों, चन्द्र और भागा के मिलन से बनी है,  यह मिलन, टंडी (Tandi) नामक स्थान पर है जो केयलोंग से पश्चिमोत्तर दिशा में 8(आठ) किलोमीटर की दूरी पर है। यह संगम और केयलोंग, हिमाचल प्रदेश के लाहौल-स्पीति जिला के अन्दर है। भागा नदी सूर्य ताल से निकला है जो हिमाचल प्रदेश के Bara-lacha la दर्रा (pass) और चन्द्र नदी से पश्चिम में कुछ ही दूरी पर स्थित है। चन्द्र नदी का उद्गम स्थल इसी  Bara-lacha la  दर्रा (pass) के पूर्वी छोर पर अवस्थित ग्लेशियरों से है जो भागा नदी से पूर्व दिशा में है। वस्तुतः चन्द्र और भागा नदियों को यह दर्रा बांटता है। चन्द्र नदी 115 किलोमीटर और भागा नदी 60 किलोमीटर बहने के बाद इन दोनों नदियों का संगम, टंडी (Tandi) नामक स्थान पर हुआ जैसा उपर बताया गया है। इन दोनों के मिलन के पश्चात जो नदी बहती है उसका नाम चन्द्रभागा पडा जिसे आज चेनाब नदी नाम से जाना जाता है।


रावी नदी का उद्गम स्थल हिमाचल प्रदेश के कांगरा जिला अन्तर्गत भंगल स्थान में है। रावी का पानी अन्ततः चेनाब नदी में गिरता है। इसी रावी नदी के पूर्वी तट पर पाकिस्तान का शहर लाहौर  बसा हुआ है। और यह रावी नदी, लाहौर शहर के बाद अहमदपुर के पास चेनाब नदी में मिल जाती है। इसी के पास शाहदरा में जहांगीर और नूरजहां का कब्रें हैं।

उपरोक्त सभी बातों को ध्यान में रखते हुए, यह निर्विवाद रुप से स्वीकारयोग्य तथ्य यह है कि  राज दक्षिण कश्मीर में चेनाब और रावी नदी के बीच था। प्रारम्भ में  इसी को अम्बस्थ मालव या अम्बराज कहा जाता था और यहीं से, मार्तण्ड अन्तनाग  होते हुए तक्षशिला तक पुराना रास्ता रहा था, सम्भवतः इसी रास्ते से वे तक्षशिला और गंधार (अफगानिस्तान) तक गये और वे अपने राज्य का विस्तार कर लिया था।


सिकन्दर का तक्षशिला पर आधिपत्य प्राप्त करने, पोरस की हार के पश्चात, अम्बस्थों को सिकन्दर की सेना तथा बाद में चन्द्रगुप्त मौर्य के हाथों हार स्वीकारना पडा था। अम्बस्थों की वीरता और युद्धकला में प्रवीणता से प्रभावित होकर आचार्य चाणक्य ने अम्बस्थों को मगध ले जाने का परामर्श दिया जिसे चन्द्रगुप्त स्वीकार करके, अम्बस्थ के 106 परिवारों को मगध ले आया गया था तथा उन्हें राजगीर को घेरे में लेते हुए मगध क्षेत्र के विभिन्न स्थानों पर बसा दिया गया था। 


वर्तमान समय में तक्षशिला, पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त के रावलपिण्डी जिले का एक तहसील तथा महत्वपूर्ण पुरातात्विक स्थल है जो इस्लामाबाद और रावलपिंडी से लगभग 32 किमी उत्तर-पूर्व में स्थित है। उत्तरापथ (ग्रैंड ट्रंक रोड) इसके बहुत पास से होकर गुजरता है। 


अब प्रश्न यह उठता है कि धनानन्द के प्रभावशाली गुप्तचरों की नजरों से बचाकर कैसे मगध क्षेत्र में लाया गया होगा? उस समय काबुल से बंगाल तक उत्तरापथ विद्यमान था, परन्तु चाणक्य की दूरदर्शिता ने गमन मार्ग को इस प्रकार से परिवर्तित कर दिया था  कि उनके गमन की भनक धनानन्द के गुप्तचरों को ना लग सके। जो आगमन का सुरक्षित मार्ग चाणक्य ने जो निर्धारित किया, वह इस प्रकार से होगा...

रावलपिंडी, लाहौर, अमृतसर, लुधियाना, अम्बाला, करनाल, पानीपत, सोनीपत, दिल्ली, फरीदाबाद, पलवल, मथुरा,आगरा, धौलपुर, ग्वालियर, झांसी, छतरपुर, सतना, गोविन्दपुर होते हुए मध्यप्रदेश के  सिधी तक,सोन नदी किनारे पह़ुंचना था।

इस मार्ग पर अनेक छोटे बडे राज्य थे जिनसे आचार्य चाणक्य को सहयोग की अपेक्षा थी। अम्बस्थ परिवार एक-एक कर सिधी पहुंचकर सोन नदी जलमार्ग से रोहतास पर्वत के सामने, सोन नदी के पूर्वी तट, नबीनगर के पास पहुंच गये और औरंगाबाद जिला अन्तर्गत अम्बा-कुटुम्बा (अम्ब-कुटुम्ब का अपभ्रंश) स्थान पर शिविर लगाकर रहने लगे थे। यह स्थान मगध क्षेत्र के दक्षिण-पश्चिम भूभाग म़े स्थित है, इसके निकट ही विन्ध्य पर्वत श्रृंखला का पूर्वी छोर पर अन्तिम पर्वत है, इसी क्षेत्र से पुनपुन (पुण्यपुण्य) नदी निकलकर पाटलिपुत्र तक जाती थी। चाणक्य ने नदीमार्ग और वनमार्म का भरपूर उपयोग किया था।


मगथ क्षेत्र में जिस स्थान पर उन्हें बसाया गया था वे स्थान कालान्तर में गांव बन गये जिसका नाम अम्बस्थों ने ही अपने विवेक रख दिया था। उस गांव के नाम, जिसे उन्होंने रखा, उसी के आधार पर उन्होंने अपने खासघर का नाम रखा। दूसरे शब्दों में, उनके खासघर नाम से इंगित होने वाला गांव ही, उनका मूलगांव है। अपनी विशिष्ट पहचान बनाये रखने और बहिर्विवाह प्रथा को बरकरार रखने और सभी सभी प्रकार की भ्रान्तियों से बचने के लिए उन्होंने खासघर नाम को ही अपना उपनाम  बना लिया था।


नोट-- 

1. उत्तरापथ एक अत्यन्त प्राचीन मार्ग था जो आज के दिन ग्रैंड ट्रंक रोड (Grand Trunk Road) के नाम से ज्ञात है। यह उत्तरापथ--काबुल,जलालाबाद, पेशावर (पुरुषपुर), रावलपिंडी,लाहौर, अमृतसर, लुधियाना, अम्बाला, कुरुक्षेत्र, करनाल, पानीपत, सोनीपत, दिल्ली, मथुरा, आगरा, प्रयाग, मिर्जापुर, सासाराम, औरंगाबाद, शेरघाटी, बरही, धनबाद होते हुए बंगाल के कॉक्स बाजार तक जाता था।


2. पेशावर पाकिस्तान का एक शहर है। यह ख़ैबर पख़्तूनख़्वा प्रान्त की राजधानी है। पेशावर उल्लेख पुराने पुस्तकों में "पुरुषपुर" के नाम से मिलता है। इस उपमहाद्वीप के प्राचीन शहरों में से एक है। पेशावर पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा प्रांत और कबायली इलाकों के वाणिज्यिक केंद्र है। पेशावर में पश्तो भाषा बोली जाती है।

मंगलवार, 11 अगस्त 2020

नालन्दा महाविहार

 प्राचीन महावीर बिहार पटना भारत

यह प्राचीन भारत में उच्च शिक्षा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और विख्यात केन्द्र था। महायान बौद्ध धर्म के इस शिक्षा-केन्द्र में हीनयान बौद्ध-धर्म के साथ ही अन्य धर्मों के तथा अनेक देशों के छात्र पढ़ते थे। वर्तमान बिहार राज्य में पटना से ८८.५ किलोमीटर दक्षिण-पूर्व और राजगीर से ११.५ किलोमीटर उत्तर में एक गाँव के पास अलेक्जेंडर कनिंघम द्वारा खोजे गए इस महान बौद्ध विश्वविद्यालय के भग्नावशेष इसके प्राचीन वैभव का बहुत कुछ अंदाज़ करा देते हैं। अनेक पुराभिलेखों और सातवीं शताब्दी में भारत के इतिहास को पढ़ने आया था के लिए आये चीनी यात्री ह्वेनसांग तथा इत्सिंग के यात्रा विवरणों से इस विश्वविद्यालय के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है। यहाँ १०,००० छात्रों को पढ़ाने के लिए २,००० शिक्षक थे। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग ने ७ वीं शताब्दी में यहाँ जीवन का महत्त्वपूर्ण एक वर्ष एक विद्यार्थी और एक शिक्षक के रूप में व्यतीत किया था। प्रसिद्ध 'बौद्ध सारिपुत्र' का जन्म यहीं पर हुआ था।

नालंदा विश्वविद्यालय
Nalanda University Logo.png
नवनिर्मित नालंदा विश्वविद्यालय का लोगो
स्थापित2010
कुलाधिपतिअमर्त्य सेन[1][2]
उपकुलपतिगोपा सभर्वाल[3]
स्थानराजगीरनालंदा के समीपबिहारFlag of India.svg भारत
जालस्थलनालंदा विश्वविद्यालय जालस्थल(आधिकारिक)
नालंदा के प्राचीन विश्वविद्यालय के अवशेष।

कुछ रोचक पहलू: 1. यहां की लाइब्रेरी में हजारों किताबों के साथ 90 लाख पांडुलिपियां रखी हुई है। यहां पर बख्तियार खिलजी ने आक्रमण कर आग लगा दी थी जिसे बुझाने में 6 महीने से ज्यादा का वक़्त लगा था।

2. तक्षशिला के बाद नालंदा को दुनिया की दूसरी सबसे प्राचीन यूनिवर्सिटी माना जाता है। ये 800 साल तक अस्तित्व में रही।

3. यहां पर विद्यार्थियों का चयन मेरिट के आधार पर होता था और निःशुल्क शिक्षा दी जाती थी। इसके साथ उनका रहना और खाना भी पूरी तरह निःशुल्क था।

4. इस यूनिवर्सिटी में 10 हजार से ज्यादा विद्यार्थी और 2700 से ज्यादा अध्यापक थे।

5. यूनिवर्सिटी में सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि कोरिया, जापान, चीन, तिब्बत, इंडोनेशिया, ईरान, ग्रीस, मंगोलिया समेत कई दूसरे देशो के स्टूडेंट्स भी पढ़ाई के लिए आते थे।

6. नालंदा यूनिवर्सिटी की स्थापना 5वीं शताब्दी में गुप्त वंश के शासक सम्राट कुमारगुप्त ने की थी। नालंदा में ऐसी कई मुद्राएं भी मिली है जिससे इस बात की पुष्टि भी होती है।

7. नालंदा की स्थापना का उद्देश्य ध्यान और आध्यात्म के लिए स्थान बनाने से था। ऐसा भी कहा जाता है कि गौतम बुद्ध ने कई बार यहां की यात्रा की और रुके भी।

8. यूनिवर्सिटी में ‘धर्म गूंज’ नाम की लाइब्रेरी थी। इसका मतलब ‘सत्य का पर्वत’ से था। लाइब्रेरी के 9 मंजिलों में तीन भाग थे जिनके नाम ‘रत्नरंजक’, ‘रत्नोदधि’, और ‘रत्नसागर’ थे।

9. उस दौर में यहां लिटरेचर, एस्ट्रोलॉजी, साइकोलॉजी, लॉ, एस्ट्रोनॉमी, साइंस, वारफेयर, इतिहास, मैथ्स, आर्किटेक्टर, भाषा विज्ञानं, इकोनॉमिक, मेडिसिन समेत कई विषय पढ़ाएं जाते थे।

10. नालंदा यूनिवर्सिटी में हषवर्धन, धर्मपाल, वसुबन्धु, धर्मकीर्ति, आर्यवेद, नागार्जुन के साथ कई अन्य विद्वानों ने पढ़ाई की थी।