गुरुवार, 20 अक्तूबर 2022

मांतंगनी हाजरा मुजाहिदे-आजादी शहीदे वतन

 

19 अक्टूबर जन्मदिवश पर विशेष।


प्रस्तुति - शैलेन्द्र किशोर जारूहर 


भारत देश की स्वतंत्रता के संघर्ष मे पुरुष और महिला,धनवान और निर्धन, छोटे और बडे का कोई अन्तर नही रहा है। प्रत्येक वर्ग ने आजादी की लड़ाई में भाग लिया। मांतंगनी हाजरा भी ऐसी ही एक मुसलमान महिला स्वतंत्रता सेनानी थी,जिन्होने निर्धनता के बावजूद देश की आजादी मे खुलकर हिस्सा लिया। यहां तक कि उस संघर्ष में उन्होंने अपनी जान को निछावर कर दिया।


मांतंगनी हाजरा 19 अक्तूबर सन् 1869 ई० मे बंगाल के तामलुक जिला के ग्राम होगला के गरीब परिवार में पैदा हुई। भारत के बहुत से पुरुष एवं महिलाएं तो जन्म से ही अपने मन में आजादी के संघर्ष का जज्बा लेकर पैदा हुई। कुछ आस पास के माहौल से प्रभावित होकर आजादी की जंग में कूद पड़े। मांतंगनी हाजरा एक मजदूर घराने की देश प्रेमी स्वतंत्रता सेनानी थी । उनके मां बाप ने अपनी बेटी के खानपान का खर्चा सहन न कर पाने के करण ,12 वर्ष की छोटी उम्र में ही बडी आयु के एक धनवान व्यक्ति से उनकी शादी कर दी, ताकि वे अपना जीवन सुख चैन से गुजार सकें। किंतु उसका परिणाम उल्टा ही हुआ। 18 वर्ष की आयु में ही मांतंगनी हाजरा के सुहाग का सफर पूरा हो गया और वह विधवा हो गई। उनके हालात फिर बिगड गए। उन्होंने अपने विधवापन और गरीबी की परेशानियों को बर्दाश्त करते हुए आजादी की लड़ाई में जमकर हिस्सा लिया। उस समय देश में चारों ओर आजादी की चर्चाएं थी और आजादी के लिए संघर्ष करने का माहौल बना हुआ था। जुलूसो और जलसों में इंकलाब जिंदाबाद के नारों की गूंज थी। देशवासियों में अंग्रेजो के खिलाफ नफरत फैली हुई थी। मां हाजरा के दिल व दिमाग में भी यही सब बातें घर कर गई । उन्होंने आजादी की लड़ाई लड़ने की अपने मन में ठान ली।मांतंगनी हाजरा ने गांधी जी को अपना नेता मानकर चरखा कातना और खादी पहनना आरंभ कर दिया। चाहे जो भी आंदोलन हो, यह आजादी से संबंधित कोई भी गतिविधि हो, सभी में उन्होंने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया । वह उन महिलाओं में से थी जिन्होंने अंग्रेजों के जुल्म और सजाओ की परवाह किए बगैर नमक सत्याग्रह में भाग लिया मां हाजरा ने नमक बनाकर अंग्रेजी कानून की खिलाफ़वर्जी की। उस पर फिरंगियो ने सजा देने के लिए भारतीय महिलाओ को भी नही छोडा। मातागनी हाजरा को भी सजा के तौर पर इतना ज्यादा पैदल चलवाया गया कि वह थकान के कारण चलते-चलते  गिर पडती थी। परंतु वह किसी भी सजा के कारण आजादी के संघर्ष से पीछे नहीं हटी। उनके दिल में देश प्रेमी इतनी गहराई तक बैठ गया था कि वह देश की खातिर फिरंगीयो की कोई भी सजा सहने के लिए तैयार रहती थी। वह अधिकांश आंदोलनों में हिस्सा लेकर अंग्रेज सरकार के खिलाफ चुनौती खड़ी कर देती थी । चाहे चौकीदारी के विरोध में निकाला गया जुलूस हो, या 1933 ई० मे सीरमपुर में कांग्रेस सम्मेलन,अथवा 1942 ई० मे भारत छोड़ो आंदोलन , सभी मे उन्होंने खुलकर हिस्सा लिया। उन्होंने देश की आजादी के संघर्ष में जेल की सजा काटी। जलसो, जुलूसों में फिरंगी लाठियो से जख्मी हुई। एक महिला होते हुए आजादी की लड़ाई में उनके कारनामे किसी बहादुर पुरुष से कम नहीं रहे। वह इतनी बड़ी और अनुभवी नेता बन चुकी थी की 29 सितंबर 1942 ईस्वी के तामलुक में आंदोलन के समय लगभग छः हजार महिलाओं के जुलूस का उन्होने नेतृत्व किया। उस समय इतनी ज्यादा टकराव की स्थिति बन गई थी कि अंग्रेज बल ने महिला जुलूस को आगे बढ़ने से रोकने का प्रयास किया। लेकिन वह महिला क्रांतिकारीयो को काबू में नहीं कर सकी। यहां तक कि महिला जुलूस को सरजेंट द्वारा चेतावनी दी गई कि यदि जुलूस ने आगे बढ़ने की कोशिश की तो उन्हें गोली मार दी जायेगी।


आजादी  की मतवाली मांतंगनी हाजरा को सरजेन्ट की धमकी बर्दाश्त नहीं हुई। उनके मन में तो अंग्रेज शासन से नफरत और आजादी की मोहब्बत का खून दौड़ रहा था। उन्होंने सरजेन्ट को ललकारते हुए कहा कि निहत्थी माहिलओ पर गोली चलाने की हिम्मत मत करना । वह आजादी के किसी भी आन्दोलन, जलसो,जुलूस धरने आदि को अंग्रेजों की धमकियों के डर से रोकने के खिलाफ थी। उन्होंने हमेशा देश की आबरू और आजादी की आन को अपनी जान पर प्राथमिकता दी। अतंत: हुआ भी यही कि देश की वीर महिला स्वतंत्रता सेनानी मां हाजरा अंग्रेज पुलिस के सामने आकर महिला जुलूस का नेतृत्व कर रही थी। पुलिस के रोकने के बावजूद आंदोलनकारी महिलाओं का जुलूस आगे बढ़ता जा रहा था। इसी बीच सरजेन्ट ने महिला जुलूस पर गोली चला दी। गोली मां हाजरा के बाजू को चीर गई। वह उस हाथ में देश का झंडा थामे हुए थी। उनके जख्मी हाथ से खून का फव्वारा उबल पड़ा, मगर उस बहादुर महिला ने देश का झंडा गिरने नहीं दिया। उसे दूसरे हाथ में ले लिया। और नारे लगाती हुई आगे बढ़ती गई। सरजेन्ट ने उनके दूसरे हाथ पर भी गोली दाग दी। उनका दूसरा हाथ जख्मी हो गया। दूसरे हाथ के पवित्र खून की धार से देश की धरती लाल होने लगी। उस बहादुर महिला ने दो गोलियां खाकर भी हिम्मत नहीं हारी और दूसरे लहूलुहान हाथ से ही देश का झंडा थामे रही। वह इतनी तकलीफ की हालत में भी अपनी लड़खड़ाती आवाज में देशभक्ति के नारे लगाती हुईं और भी आगे बढ़ने का प्रयास कर रही थी। इतने में करूर सरजेन्ट ने भारत की उस वीर महिला के माथे को अपनी गोली का निशाना बना दिया। उनके माथे को फिरंगी गोली पार कर गई। ऐसी हालत मे देश का परजम हाजरा बी के हाथ से दूसरी क्रांतिकारी महिला ने अपने हाथ में ले लिया। खून से भरी हुई मांतंगनी हाजरा अपने देश की धरती पर गिर पडी। फिर क्या था भीड़ ने गम और गुस्से से बेकाबू होकर अदालत पर क़ब्जा कर लिया। तामलुक मे एक समानातंर सरकार कायम कर ली गई । जो कि बाद में गांधी के निर्देश पर खत्म कर दी गई।


मांतंगनी हाजरा की शहादत इसका खुला सबूत है कि भारत देश को आजाद कराने के लिए इस देश की मुसलमान महिलाओं ने भी अपनी जानो को कुर्बान किया। स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के खून से खींचा गया यह आजादी का पौधा आज भी आपसी एकता और भाईचारे का हमें संदेश दे रहा है। स्वतंत्रता सेनानी मांतंगनी हाजरा का देश की आजादी के लिए बलिदान इतिहास के पन्नो मे अमर रहेगा।


संदर्भ 1-हिन्दुस्तान की जंगे-आजादी मे ख्वातीन 

लेखक-डा.बानो सरताज पृष्ठ संख्या 45,47

2- जंगे आजादी और मुसलमान

लेखक-खालिद मोहम्मद खान 

संकलन हसरत अली 

शेरपुर जिला मुजफ्फरनगर (उत्तर प्रदेश)

फ़ोन नंबर 8580533689

स्वतंत्रता सेनानी कुलसुम सयानी

                 

🕔 21 अक्टुबर 1900, जन्मदिन पर विशेष।



कुलसुम सयानी, जिन्होंने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लेते हुए सामाजिक बुराइयों के खिलाफ लड़ाई लड़ी, उनका जन्म 21 अक्टूबर 1900 को गुजरात में हुआ था।  वह 1917 में अपने पिता के साथ महात्मा गांधी से मिलीं।  तब से उन्होंने गांधी के दिखाए रास्ते पर चलना शुरू किया।  उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान सामाजिक सुधारों के लिए अपने प्रयासों को लड़ा और केंद्रित किया।  उन्होंने एक अन्य प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी डॉ. जान मोहम्मद सयानी से शादी की।  जैसा कि उन्हें अपने पति से समर्थन मिला, उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की विभिन्न गतिविधियों में बहुत सक्रिय भाग लिया।  उन्होंने निरक्षरों को पढ़ाना शुरू किया और चरखा वर्ग की सदस्यता ली।  उन्होंने सामाजिक बुराइयों पर लोगों में जागरूकता पैदा करने के लिए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 'जन जागरण' कार्यक्रमों में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।  सयानी की गतिविधियों में मुंबई शहर और उसके उपनगर शामिल थे।  मुस्लिम लीग के नेता उसकी गतिविधियों को पचा नहीं सके।  उन्होंने सोचा कि वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की ओर गरीबों को आकर्षित कर रही है और अपने प्रयासों का मुकाबला करने के लिए समानांतर कार्यक्रम आयोजित करने का फैसला किया।  इस तरह के शत्रुतापूर्ण माहौल में होते हुए भी वह पीछे नहीं हटीं, बल्कि उन्होंने अपनी गतिविधियों को और तेज कर दिया।  उन्होंने वयस्क शिक्षा पाठकों के उपयोग के लिए 'रहबर' (हेल्पर) नाम से एक उर्दू पाक्षिक शुरू किया।  उन्होंने बड़े पैमाने पर विभिन्न देशों की यात्रा की और भारत के प्रतिनिधि के रूप में कई अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में भाग लिया।  

उन्होंने वयस्क शिक्षा कार्यक्रम, भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में महिलाओं की भूमिका, समाज सेवा, भारत-पाक मित्रता आदि विषयों पर कई किताबें लिखीं। उन्होंने हिंदी भाषा में 'प्रौधा शिक्षा में मेरे अनुभव', 'भारत' जैसी किताबें लिखीं।  -पाक मैत्री - मेरे प्रयास', 'भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महिलाओ की भूमिका', 'भारत में प्रौध शिक्षा' आदि।  भारत के राष्ट्रपति द्वारा नेहरू साक्षरता पुरस्कार।  महिलाओं और समाज के सर्वांगीण विकास के लिए काम करने वाली कुलसुम सयानी का 27 मई 1987 को निधन हो गया।

 

Reference-The Immortals

Book by Syed Naseer Ahamed 

Page number 272,273

Compalition Hasrat Ali

भारत पर मंगोलों का हमला नाकाम करने वाला सुल्तान

 भारत पर मंगोलों का हमला नाकाम करने वाला सुल्तान


भारतीय इतिहास का सबसे ताक़तवर शासक अलाउद्दीन खिलजी:

 कुछ दिलचस्प दास्तान


प्रस्तुति - शैलेन्द्र किशोर जारुहार 


अलाउद्दीन खिलजी का इतिहास बड़ा ही दिलचस्प रहा है अलाउद्दीन खिलजी दिल्ली के सुल्तान थे और वह खिलजी वंश के संस्थापक जलालुद्दीन खिलजी के भतीजे और दामाद थे इतिहासकारों के अनुसार यह माना जाता है अलाउद्दीन खिलजी खिलजी साम्राज्य का सबसे अधिक शक्तिशाली शासक रहा थे और उसने सुल्तान बनने के पहले इलाहाबाद के पास कड़ा नाम की जागीर दी गई थी जिसे उन्होंने संभाला था ।


अलाउद्दीन खिलजी के बचपन का नाम गुरु शासक था अलाउद्दीन खिलजी के तख्त पर बैठने के बाद अमीरे उन्हें अमीर ए तुजुक से भी नवाजा गया.दुनियाँ की बड़ी बड़ी सल्तनत जब मंगोलो के ख़ौफ़ से थर थर कांप रही थी, तब उस वक़्त हिन्दुस्तान में एक ऐसा बहादुर और दिलेर शहंशाह हुकुमत कर रहा था जिनसे मंगोलो को एक बार नही बल्कि पांच बार युद्ध में शिकस्त दिया बुरी तरह हार का सामना कर रहे मंगोलो मे अलाउद्दीन ख़िलजी के नाम का ख़ौफ़ तारी हो गया था. अलाउद्दीन ख़िलजी दुनिया के ऐसे चंद शासकों में भी शामिल थे जिन्होंने मंगोल आक्रमणों को नाकाम किया और अपने राज्य की रक्षा की.


उन्होंने न सिर्फ़ बड़ी मंगोल सेनाओं को हराया बल्कि मध्य एशिया में मंगोलों के ख़िलाफ़ अभियान भी चलाया।एक बार तो उन्हे अफ़्गानिस्तान में घुस कर भगाया; उनके ख़ौफ़ का ये आलम था के हिन्दुस्तान पर हमला करने वाले मंगोल फ़ौज के राजा ने अपने चार हज़ार सिपाहीयों के साथ इस्लाम क़बुल कर लिया, जिन्हे आज के निज़ामुद्दीन में मुग़लपुरा बना कर बसाया गया था.


इस अज़ीम फ़ातेह ने 1301 मे रंणथम्बोर फ़तह किया, 1303 में चित्तौड़, 1304 में गुजरात, 1305 में मालवा, 1308 में सवाना को फ़तह किया ,विंध्याचल कोहिसार पार करके 1308 में देवगिरी,, तो 1310 में वारंगल, 1311 में द्वार समंदर फ़तह किया,, 

1311 में ही जालोर और परमार ख़ानदान की ताक़त को तोड़ा और पांडिया ख़ानदान को बाजगुज़र बनाया और एक मज़बुत हिन्दुस्तान की बुनियाद डाली जिसकी दारुलहुकुमत दिल्ली के ज़ेर ए निगरानी दकन का इलाक़ा भी था.


अलाउद्दीन खिलजी के शासन काल में शराब और भांग जैसे मादक पदार्थों का सेवन तथा जुआ खेलना बंद करा दिया गया था. 


अलाउद्दीन दिल्ली सल्तनत का पहला सुल्तान था, जिसने भूमि की पैमाइश कराकर राजस्व वसूल करना आरंभ किया. उसने केंद्र के अधीन एक बड़ी और स्थायी सेना रखी तथा उसे नकद वेतन दिया. ऐसा करने वाला वह दिल्ली का प्रथम सुल्तान था. 

उसने धर्म को राजनीति से पृथक किया खलीफा की सत्ता को अपने राजकाज में क़तई हस्तक्षेप नहीं करने दिया


अलाउद्दीन ख़िलजी ने जीवन की अत्यावश्यक वस्तुओं से लेकर विलास-वस्तुओं-जैसे दासों, अश्वों, हथियारों, सिल्क और सामग्री तक सभी चीजों के मूल्य निश्चित कर दिये थे. राजधानी के चतुर्दिक खालसा गाँवों में भूमिकर नकद के बदले अन्न के रूप में लिया जाने लगा. अन्न दिल्ली नगर की राजकीय अन्न-शालाओं में संचित किया जाता था ताकि दुर्मिक्ष के समय सुल्तान इसे बाजारों में भेज सके. अन्न का कोई भी व्यक्तिगत रूप में संचय नहीं कर सकता था. बाजारों पर दीवाने-रियासत एवं शहना-ए-मंडी (बाजार का दारोगा) नामक दो अधिकारियों का नियंत्रण रहता था.

सुल्तान को बाजारों की दशा की सूचना देने के लिए गुप्तचरों का एक दल नियुक्त था. व्यापारियों को अपना नाम एक सरकारी दफ्तार में रजिस्ट्री कराना पड़ता था. उन्हें अपनी सामग्री को बेचने के लिए बदायूं द्वार के अन्दर सराय-अदल नामक एक खुले स्थान पर ले जाने की प्रतिज्ञा करनी पड़ती थी. उन्हें अपने आचरण के लिए पर्याप्त जामिन देना पड़ता था. सुल्तान के नियमों का उल्लंघन करने पर कठोर दण्ड की व्यवस्था थी. दुकानदारों द्वारा हल्के बटखरों का व्यवहार रोकने के लिए यह आज्ञा थी कि वजन जितना कम हो उतना ही मांस उनके शरीर से काट लिया जाए. बाजारों में अनाज का अपरिवर्तनशील मूल्य उस समय का एक आश्चर्य ही समझा जाता था.

अलाउद्दीन ख़िलजी ने ही भारत में लोगों को व्यापार करना सिखाया और अपने साम्राज्य को दक्षिण की दिशा में बढ़ाया। उनका साम्राज्य कावेरी नदी के दक्षिण तक फैल गया था।


शनिवार, 8 अक्तूबर 2022

तन्त्रों की कूट-भाषा उसका कवच है।



 तन्त्रों की कूट-भाषा उसका कवच है। 


भारत में शास्त्र के संरक्षण का पहला सिद्धान्त रहा है कि वह केवल अधिकारी व्यक्ति को ही दिया जाये। वैदिक काल में ही यह अवधारणा रही कि अनधिकारी व्यक्ति विद्या का दुरुपयोग करेंगे अथवा आधे-अधूरे ज्ञान के कारण उसे हानि पहुँचायेंगे। अतः स्पष्ट शब्दों में कहा गया-


विद्या ह वै ब्राह्मणमाजगाम - गोपाय मा शेवधिष्ठेऽ हमस्सि ।

असूयकायानृजवे शठाय मा मा ब्रूया वीर्यवती तथा स्याम् ॥ 


वर्तमान में भारतीय विद्याओं पर गोपनीयता का आरोप लगाकर उसे नष्ट करने और अन्य लोगों को वंचित करने का आरोप लगाया जाता रहा है। यह गोपनीयता भारत के सभी शास्त्रों में है। यहाँ तक कि निरुक्त, जो कि शब्द निर्वचन विज्ञान है, उसके लिए भी यास्क ने कहा है –


नावैयाकरणाय नानुपसन्नाय अनिदंविदे वा । 

नित्यं ह्यविज्ञातुर्विज्ञानेऽसूया । 

उपसन्नाय तु निर्ब्रूयाद्यो वा अलं विज्ञातुं स्यान्मेधाविने तपस्विने वा ॥ २.३ ॥


अर्थात जिसने व्याकरण शास्त्र का अध्ययन न किया हो, जो सीखने के लिए नहीं आया हो, अथवा जो इसे न जानता हो, उसे निरुक्त का उपदेश न करें। 


वस्तुतः गोपनीयता शास्त्र की रक्षा के लिए एक कवच के समान है। जो जिस शास्त्र के लिए अधिकारी हैं वे ही उस शास्त्र का अध्ययन करें, अन्यथा वह शास्त्र नष्ट हो जायेगा। वे सर्वांगीण ज्ञान के अभाव में मनमाने ढंग से  व्याख्या करेंगे, जिससे दुष्प्रचार होगा। इसलिए तन्त्र की भाषा कूटात्मक है। यदि हम कहीं से एक-आध पंक्ति सुन लेते है, तो उस पंक्ति की पृष्ठभूमि के अभाव में हम गलत व्याख्या कर लेते हैं। इसलिए अधिकारी को ही उपदेश करना चाहिए, यह भारत का सार्वजनीन सिद्धान्त है। आज भी हम विशिष्ट परीक्षा के द्वारा ही चिकित्सा-विज्ञान, अभियंत्रण आदि के क्षेत्र में उचित व्यक्ति को शिक्षा दे रहे हैं।


अनधिकारी व्यक्ति ने किस प्रकार तन्त्र के सिद्धान्त को भ्रष्ट किया है इसका एक रोचक उदाहरण यहाँ अप्रासंगिक नहीं होगा। तन्त्र में एक श्लोक बहुधा प्रचलित है-


पीत्वा पीत्वा पुनः पीत्वा पतितत्वा च महीतले।

उत्थाय च पुनः पीत्वा वचनं सत्य-सम्मतम्।।


इसका सामान्य अर्थ है- बार बार पीकर, फिर पीकर, गिरकर भी फिर से उठकर पीना चाहिए। सामान्य जन इसका अर्थ मदिरा-पान के सन्दर्भ में लेते हैं। यहाँ तक कि एक यूरोपियन अधिकारी ने नेपाल के क्षेत्र में अफीम और गाँजा के व्यापार को बढावा देने के लिए इस पंक्ति का उपयोग कर इसे वहाँ की संस्कृति बताने का भी काम किया है।


लेकिन, कालीविलासतन्त्र के षष्ठ पटल के अंतिम की इस पंक्ति की पृष्ठभूमि देखने से स्पष्ट हो जाता है कि इस पंक्ति के ठीक ऊपर कहा गया है कि मद्यं न रचयेद् भद्रे कलिकाले वरानने। जब इसके ठीक ऊपर मद्यपान का निषेध है तो फिर कैसे इस पंक्ति को नशा का प्रतिपादक माना जायेगा। वस्तुतः वहाँ खेचरी मुद्रा का वर्णन है और कहा गया है कि जिह्वा के अग्रभाग को कण्ठविवर में डाल देने पर ब्रह्मरन्ध्र से एक रस टपकता हुआ प्रतीत होता है। वह रस अमृत है, उसे बार बार पीना चाहिए। गिरने के बाद भी पीना चाहिए। स्पष्ट है कि यहाँ मदिरा नहीं, ब्रह्मरन्ध्र से निःसृत अमृत को पीने की बात कही गयी है और यहाँ खेचरी मुद्रा का विधान किया गया है।


कौलोपनिषद् भी सिद्धान्तों की गोपनीयता पर बल देती है। इसका स्पष्ट आदेश है कि अपने मत की स्थापना भी न करें। यदि कोई कौल मत का विरोध करता है तो वहाँ से उठ जायें किन्तु उनकी बातों का प्रतिवाद कदापि न करें। इससे सिद्धान्तों की गोपनीयता समाप्त हो जायेगी।


शास्त्र की गोपनीयता के लिए तन्त्र में दो प्रकार की कूट भाषा का प्रयोग हुआ है। एक तो बीज-मन्त्रों की गोपनीयता के लिए प्रत्येक वर्ष को प्रकट करनेवाले सार्थक शब्दों की सूची दी गयी है। इसके आधार पर एकाक्षरी कोष, मातृका-कोष, तन्त्र-कोष आदि का निर्माण किया गया है जिसमें अ से क्ष तक प्रत्येक अक्षर के द्योतन के लिए अनेक शब्द रखे गये हैं। इस कोष का ज्ञान होने पर ही कोई व्यक्ति बीज-मन्त्रोद्धार कर सकेगें। इससे मन्त्रों की रक्षा होगी। इसका एक उदाहरण देना यहाँ पर्याप्त होगा। प्रसिद्ध तन्त्राचार्य अभिनवगुप्त के गुरु आचार्य पृथ्वीधर कृत चण्डीस्तोत्र में कहा गया है-


यद् वारुणात्परमिदं जगदम्ब यत्ते बीजं स्मरेदनुदिनं दहनाधिरूढम्।

मायाङ्कितं तिलकितं तरुणेन्दुबिन्दुनादैरमन्दमिह राज्यमसौ भुनक्ति।।


यहाँ शक्ति बीज ह्रीँ का प्रतिपादन किया गया है। अरुण अर्थात् ह वर्ण के बाद दहन अर्थात् र, इसके बाद माया अर्थात् ई, और उसके बाद तिलक एवं अर्द्धचन्द्र इनसे युक्त जो बीज है उसके स्मरण करने से विशिष्ट साम्राज्य को पाने की बाद कही गयी है।


दूसरे प्रकार से गोपन के लिए, सिद्धान्तों को सुरक्षित रखने के लिए हास्यास्पद कथनों के द्वारा, सामाजिक शिष्टाचार के विपरीत कथनों के द्वारा भी सिद्धान्तों का गोपन किया गया है। यह भी तन्त्रों की एक कूट भाषा है। लोग तान्त्रिकों को भ्रष्ट समझें, उनकी हँसी उडावें लेकिन उनकी वास्तविकता को अनधिकारी व्यक्ति न जान सकें इसके लिए ये सारे प्रयास किये गये हैं। यही कारण है कि तन्त्र के विरुद्ध लोगों के मन में अवधारणा फैली।


आज बस इतना ही......

शनिवार, 1 अक्तूबर 2022

पश्चिमीकरण ओर भारतीयकरण AQ

 पश्चिमीकरण ओर भारतीयकरण की प्रतिस्पर्धा जिसमे दोनों स्वेच्छिक है मगर एक भौतिकवाद से प्रेरित है एक आध्यात्मिकवाद से प्रेरित है एक दिशाहीन अंधानुकरण है दूसरा  अंतरात्मा की आवाज और अभिष्टमय है.

 एक का नेतृत्व बॉलीवुड हॉलीवुड व नारीवादी करते है दूसरा नेतृत्वहीन है  पश्चिमीकरण गरीबी से अमीरी की और बढ़ती युवापीढ़ी में ज्यादा पाई जाता है भारतीयकरण अमीरी से सादगी की ओर बढ़ते लोगो में ज्यादा दिख रहा है पश्चिमीकरण का सम्बंध जीवन के सभी पक्षों से मगर भारत में इसका प्रभाव भौतिक ज्यादा वैचारिक कम है जबकि भारतीयकरण वैचारिक ज्यादा भौतिकवादी कम है दोनों प्रकिया  पुरुषों से ज्यादा महिलाओं में ज्यादा नजर आ रही है.

 भारतीय नारी पूर्णपरिधान से अर्द्धनग्नता की बढ़ रही है पश्चिम की नारी नग्नता से पूर्णतया की ओर बढ़ रही है आज से 20 साले पहले भारत आने वाले विदेशी अर्द्ध नग्न घूमते थे मगर आज अधिकतर भारतीय परिधानों में ही नजर आते है विशेषकर विदेशी महिलाओं को सूट में देखा जा सकता है वही भारतीय पर्यटक भारत या विदेशों में अर्द्ध नग्न होकर भृमण करते देख सकते है 

ऋषिकेश जैसी तपोभूमि पर हमारी लड़कियों बेशर्मीता के साथ अर्द्ध नग्न परिधानों में घूमती दिखती है उनके परिजन बड़े गौरवान्वित होकर उनके साथ चलते है और विदेशी महिलाओं को उनको देखकर कुटिल हंसी करते जब हम देखते है तो वो  बहुत कुछ बयान कर जाती है वो सब सूट व सौम्य परिधानों में होने के साथ उस तीर्थ की पावनता का सम्मान करती है मगर हमारे बच्चे तीर्थ की पावनता को तिलांजलि देते देखा जा सकता पर्यटक स्थलों पर पश्चिमीकरण ओर भारतीयता की प्रतिस्पर्धा स्पष्ट नजर  आती है भारतीय भारतीयता के विध्वंसक के रूप में ओर विदेशी भारतीयता के रक्षक के रूप में देखा जा सकता है  पश्चिमी लोग यह देखकर खुश है कि उनकी झूठन भारत में पल्लवित है और हम यह देखकर खुश है कि चलो हमारे देश में ना सही विदेशों में तो हमारी संस्कृति पल्लवित हो रही है ।


डॉ राजेन्द्र जोशी