शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2021

शरीर पर ग्रहों का वास और प्रभाव

 *ग्रहों का शरीर में स्थान….*

सौर मंडल में जिस तरह नौ ग्रहों


का अस्तित्व है,ठीक उसी प्रकार


मानव शरीर में भी नौ ग्रह मौजूद हैं।

ये ग्रह शरीर के विभिन्न अंगों में


उपस्थित हैं।

ग्रहों का संबंध मानवीय चिंतन से है


और चिंतन का संबंध मस्तिष्क से है।

चिंतन का आधार सूर्य है।

इसीलिए हमारे आदि ऋषियों ने


सूरज का स्थान मानव शरीर में


माथे पर माना है।

ब्रह्मा रंध्र से एक अंगुली नीचे सूर्य


का स्थान है।

इससे एक अंगुली और नीचे की


ओर चंद्रमा है।

चंदमा इंसान को भावुकता और


चंचलता से जोड़ता है,साथ ही


कल्पना शक्ति से भी।

चूंकि चंदमा को सूर्य से रोशनी


लेनी पड़ती है,इसीलिए चंद्रमा


का सूर्य के साये में नीचे रहना


आवश्यक है।

सूर्य के तेज का उजाला जब


चंद्रमा पर पड़ता है,तब इंसान


की शक्ति,ओज,वीरता चमकती है।

ये गुण चिंतन की प्रखरता से ही


निखरते हैं।

गरुड़ पुराण के अनुसार मंगल


का स्थान मानव के नेत्रों में माना


जाता है।

मंगल शक्ति का प्रतीक है।


यह प्रतिभा और रक्त से संबंध


रखता है।

मानव की आंख मन का आईना


है,जैसे शिव का तीसरा नेत्र उनके


क्रोध का प्रतीक है।

इंसान के मन की अवस्था को भी


आंखों से पढ़ा और समझा जा


सकता है।

हमारे भीतर की मजबूती या


कमजोरी का पता आंखों से


चल जाता है।

इसलिए मंगल ग्रह का स्थान


नेत्रों को माना गया है।

बुद्ध का स्थान मानव के हृदय में है।


बुद्ध बौद्धिकता का प्रतीक है।


यह वाणी का कारण भी है।

हमें किसी आदमी का व्यवहार,


काव्य शक्ति अथवा प्रवचन शक्ति


जाननी हो,तो हम रमल ज्योतिष


शास्त्र के अनुसार बुद्ध ग्रह को


विशेष रूप से देखते हैं।

गुरु या बृहस्पति ग्रह का स्थान


नाभि होता है।


बृहस्पति वेद-पुराणों के ज्ञाता हैं।


ये समस्त शास्त्रों के ज्ञाता होने के


साथ ही अथाह ज्ञान के प्रतीक होते हैं।

आपने गौर से देखा होगा कि विष्णु की


नाभि से कमल का फूल खिला है।


उससे ब्रह्मा की उत्पत्ति मानी गई है


और इसलिए बृहस्पति का स्थान


नाभि में है।


बृहस्पति देवों के गुरु भी हैं।

शुक्र ग्रह का स्थान वीर्य में होता है।


शुक्र दैत्यों के गुरु हैं।


मानव की सृष्टि शुक्र की महिमा से


ही गतिमान है।


कामवासना,इच्छाशक्ति का प्रतीक


शुक्र है।

शनि का स्थान नाभि गोलक में है।


नाभि ज्ञान,चिंतन और खयालों की


गहराई की प्रतीक मानी जाती है।

ज्योतिष शास्त्र द्वारा हमें किसी


व्यक्ति के चिंतन की गहराई देखनी


हो तो हमें उसके शनि ग्रह की स्थिति


जाननी होती है।

चिंतन की चरम सीमा अथाह ज्ञान है।

ज्योतिष के अनुसार यदि किसी व्यक्ति


में एक ही स्थान पर शनि और गुरु एक


निश्चित अनुपात में हों तो व्यक्ति खोजी,


वेद-पुराणों का ज्ञाता,शोधकर्ता और

शास्त्रार्थ करने वाला होता है।

राहु ग्रह का स्थान इंसान के मुख में


होता है।


राहु जिस ग्रह के साथ बैठता है,वैसा


ही फल देता है।


यदि मंगल ग्रह की शक्ति इसके पीछे


हो तो जातक क्रोध और वीरतापूर्ण


वाणी बोलेगा।

यदि बुद्ध की शक्ति पीछे हो तो व्यक्ति


मधुर वाणी बोलेगा।


यदि गुरु की शक्ति पीछे हो तो ज्ञानवर्धक


और शास्त्रार्थ की भाषा बोलेगा।

यदि शुक्र ग्रह की शक्ति पीछे हो तो


जातक रोमांटिक बातें करेगा।

केतु ग्रह का स्थान हृदय से लेकर


कंठ तक होता है।


साथ ही केतु ग्रह का संबंध गुप्त


चीजों या किसी भी कार्य के रहस्यों


से भी होता है।

इंसान के शरीर में ये सभी नौ ग्रह


अपनी-अपनी जगह पर निवास


करते हैं और रक्त प्रवाह के जरिए


एक-दूसरे का प्रभाव ग्रहण करते हैं।

इसलिए यदि हम अपने शरीर को


स्वस्थ और नीरोग रखेंगे तो सभी


ग्रह शांत और मददगार होंगे।

जैसा कि सभी जानते हैं,स्वस्थ


शरीर हमें अध्यात्म की ओर बढ़ने


में मदद करता है।

शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2021

बीज अक्षर कोश

 

 प्रस्तुति *पं0 कृष्ण मेहता**

नवरात्रि के द्वितीय दिवस पर लिजिए आप के लिए प्रस्तुत है

*बीजाक्षरों का संक्षिप्त कोष*

आशा है यह आपके लिए संग्रहणीय होगा।


*ऊँ* —प्रणव, ध्रव, तैजस बीज है।

 *ऐं* —वाग् और तत्त्व बीज है। 

*क्लीं* —काम बीज है। 

*हो* —शासन बीज है। 

*क्षि* —पृथ्वी बीज है। 

*प* —अप् बीज है। 

*स्वा* —वायु बीज है । 

*हा:* —आकाश बीज है। 

*ह्रीं* —माया और त्रैलोक्य बीज है। 

*क्रों* —अंकुश और निरोध बीज है।

*आं* —फास बीज है। 

*फट्* —विसर्जन और चलन बीज है। 

*वषट्* —दहन बीज है। 

*वोषट्* —आकर्षण और पूजा ग्रहण बीज है। 

*संवौषट्* —आकर्षण बीज है। 

*ब्लूँ* —द्रावण बीज है। 

*ब्लैं* —आकर्षण बीज है। 

*ग्लौं* —स्तम्भन बीज है। 

*क्ष्वीं* —विषापहार बीज है। 

*द्रां, द्रीं, क्लीं* ब्लूँ, स:* —ये पांच बाण बीज हैं। 

*हूँ* —द्वेष और विद्वेषण बीज है। 

*स्वाहा* —हवन और शक्ति बीज है। 

*स्वधा* —पौष्टिक बीज है। 

*नम:* —शोधन बीज है। 

*श्रीं* —लक्ष्मी बीज है। 

*अर्हं* —ज्ञान बीज है। 

*क्ष: फट्* —शस्त्र बीज है। 

*य:*—उच्चाटन और विसर्जन बीज है। 

*जूँ* —विद्वेषण बीज है। 

*श्लीं* —अमृत बीज है। 

*क्षीं* —सोम बीज है। 

*ह्वं* —विष दूर करने वाला बीज है। 

*क्ष्म्ल* — पिंड बीज है। 

*क्ष* —कूटाक्षर बीज है। 

*क्षिं ऊँ स्वाहा* —शत्रु बीज है। 

*हा:*  —निरोध बीज है। 

*ठ:*  —स्तम्भन बीज है। 

*ब्लौं* —विमल पिंड बीज है। 

*ग्लैं*—स्तम्भन बीज है। 

*घे घे* —वद्य बीज है। 

*द्रां द्रीं* —द्रावण संज्ञक है। 

*ह्रीं ह्रूँ ह्रैं ह्रौ ह्र:* —शून्य रूप बीज हैं।

मंत्र की सफलता साधक और साध्य के ऊपर निर्भर करती है ध्यान के अस्थिर होने से भी मंत्र असफल हो जाता है। मन्त्र तभी सफल होता है, जब श्रद्धा भक्ति तथा संकल्प दृढ़ हो। मनोविज्ञान का सिद्धान्त है कि मनुष्य की अवचेतना में बहुत सी आध्यात्मिक शक्तियां भरी रहती हैं। इन्हीं शक्तियों को मंत्र द्वारा प्रयोग में लाया जाता है। मंत्र की ध्वनियों के संघर्ष द्वारा आध्यात्मिक शक्ति को उत्तेजित किया जाता है। इस कार्य में अकेली विचार शक्ति काम नहीं करती है। इसकी सहायता के लिये उत्कट इच्छा शक्ति के द्वारा ध्वनि संचालन की भी आवश्यकता है। मंत्र शक्ति के प्रयोग की सफलता के लिये नैष्ठिक आचार की आवश्यकता है। मंत्र निर्माण के लिए *ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूँ ह्रौं ह्र: ह्रा ह +स: क्लीं द्रां द्रीं द्रँ द्र: श्रीं क्षीं क्ष्वीं र्हं क्ष्वीं र्हं अं फट् वषट् संवौषट घे घै य: ख ह् पं वं यं झं तं थं दं* आदि बीजाक्षरों की शक्ति काम करती है।

प्राणायाम के फायदे*

 

प्राणायाम के फायदे*


योग के आठ अंगों में से चौथा अंग है प्राणायाम। प्राण+आयाम से प्राणायाम शब्द बनता है। प्राण का अर्थ जीवात्मा माना जाता है, लेकिन इसका संबंध शरीरांतर्गत वायु से है जिसका मुख्य स्थान हृदय में है। व्यक्ति जब जन्म लेता है तो गहरी श्वास लेता है और जब मरता है तो पूर्णत: श्वास छोड़ देता है। तब सिद्ध हुआ कि वायु ही प्राण है। आयाम के दो अर्थ है- प्रथम नियंत्रण या रोकना, द्वितीय विस्तार।


हम जब सांस लेते हैं तो भीतर जा रही हवा या वायु पांच भागों में विभक्त हो जाती है या कहें कि वह शरीर के भीतर पांच जगह स्थिर हो जाती है। पांच भागों में गई वायु पांच तरह से फायदा पहुंचाती है, लेकिन बहुत से लोग जो श्वास लेते हैं वह सभी अंगों को नहीं मिल पाने के कारण बीमार रहते हैं। प्राणायाम इसलिए किया जाता है ताकि सभी अंगों को भरपूर वायु मिल सके, जो कि बहुत जरूरी है।


*(1) व्यान :*


व्यान वह प्राणशक्ति है, जो समस्त शरीर में व्याप्त रहती है। इसे कदाचित् रक्त द्वारा शरीर के विभिन्न अंगों तक पहुंचने वाले पोषक तत्वों के प्रवाह से जोड़ा जा सकता है। यह वायु समस्‍त शरीर में घूमती रहती है। इसी वायु के प्रभाव से रस, रक्‍त तथा अन्‍य जीवनोपयोगी तत्‍व सारे शरीर में बहते रहते हैं। शरीर के समस्‍त कार्यकलाप और कार्य करने की चेष्‍टाएं बिना व्‍यान वायु के संपन्‍न नहीं हो सकती हैं। जब यह कुपित होती है तो समस्‍त शरीर के रोग पैदा करती है।


व्यान वायु चरबी तथा मांस का कार्य भी करती है। यह वायु हमारी चरबी और मांस में पहुंचकर उसे सेहतमंद बनाए रखती है। यह शरीर से अतिरिक्त चर्बी को घटाती और चमड़ी को पुन: जवान बनाती है।


इस वायु के सही संचालन से हमारे शरीर का क्षरण रुक जाता है।


*(2) समान :*


नाभिक्षेत्र में स्थित पाचन क्रिया में सम्मिलित प्राणशक्ति को समान कहा जाता है। समान नामक संतुलन बनाए रखने वाली वायु का कार्य हड्डी में होता है। हड्डियों से ही संतुलन बनता भी है।


यह वायु हड्डियों के लिए लाभदायक है। हड्डियों तक इस वायु को पहुंचने में काफी मेहनत करना पड़ती है। यदि नहीं पहुंच पाती है तो हड्डियां कमजोर रहने लगती हैं।


आप भरपूर शुद्ध वायु का सेवन करें ता‍कि हड्डी तक यह वायु समान बनकर पहुंच सके। इस वायु से हड्डी सदा मजबूत और लचीली बनी रहती है। जोड़ों का दर्द नहीं होता और जोड़ों में पाया जाने वाला पदार्थ बना रहता है।


*(3) अपान :*


अपान का अर्थ नीचे जाने वाली वायु। यह शरीर के रस में होती है। रस अर्थात जल और अन्य तरल पदार्थ। यह वायु हमारी पाचनक्रिया के लिए जरूरी है।


यह वायु पक्‍वाशय में रहती है तथा इसका कार्य मल, मूत्र, शुक्र, गर्भ और आर्तव को बाहर निकालना है। जब यह कुपित होती है तब मूत्राशय और गुर्दे से संबंधित रोग होते हैं। अपान मलद्वार से निष्कासित होने वाली वायु है।


*(4) उदान :*


उदान का अर्थ ऊपर ले जाने वाली वायु। यह हमारे स्नायु तंत्र में होती है। यह स्नायु तंत्र को संचालित करती है। इसके खराब होने से स्नायु तंत्र भी खराब हो जाते हैं। उदान को मस्तिष्क की क्रियाओं को संचालित करने वाली प्राणशक्ति भी माना गया है।


सरल भाषा में कहें तो उदान वायु गले में रहती है। इसी वायु की शक्ति से मनुष्‍य स्‍वर निकालता है, बोलता है, गीत गाता है और निम्‍न, मध्‍यम और उच्‍च स्‍वर में बात करता है। विशुद्धि चक्र को जगाती है यही इसके फायदे हैं।


*(5) प्राण :*


यह वायु निरंतर मुख में रहती है और इस प्रकार यह प्राणों को धारण करती है, जीवन प्रदान करती है और जीव को जीवित रखती है। इसी वायु की सहायता से खाया-पिया अंदर जाता है। जब यह वायु कुपित होती है तो हिचकी, श्वास और इन अंगों से संबंधित विकार होते हैं। प्राणवायु हमारे शरीर का हालचाल बताती है।


इस वायु का दूसरा स्थान खून में और तीसरा स्थान फेफड़ों में होता। यह खून और फेफड़े की क्रियाओं को संचालित करती है। शरीर में प्राणवायु जीवन का आधार है। खून को खराब या शुद्ध करने में इसका महत्वपूर्ण योगदान रहता है।

बुधवार, 10 फ़रवरी 2021

"त्वमेव माता च पिता त्वमेव, का शब्दार्थ

 "ये श्लोक तो सबको पता ही होगा, इसका अर्थ पढ़कर चौंक जाएंगे आप..!"


श्लोक 

"त्वमेव माता च पिता त्वमेव,

त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव !

त्वमेव विद्या, द्रविणं त्वमेव, 

त्वमेव सर्वम् मम देवदेव !!"


सरल-सा अर्थ है : 

'हे भगवान ! तुम्हीं माता हो, तुम्हीं पिता, तुम्हीं बंधु, तुम्हीं सखा हो। तुम्हीं विद्या हो, तुम्हीं द्रव्य, तुम्हीं सब कुछ हो, तुम ही मेरे देवता हो !'


बचपन से प्रायः यह प्रार्थना हम सबने पढ़ी है।


मैंने 'अपने रटे हुए' कम से कम 50 मित्रों/परिचितों  से पूछा होगा,


'द्रविणं' का क्या अर्थ है..?


संयोग देखिए  सभी असमंजस में पड़ गए, अच्छे खासे पढ़े-लिखे भी एक ही शब्द “द्रविणं” पर  सोच में पड़ गए।


द्रविणं जिसका अर्थ है द्रव्य, धन-संपत्ति..! द्रव्य जो तरल है, निरंतर प्रवाहमान। यानी वह जो कभी स्थिर नहीं रहता, आखिर 'लक्ष्मी' भी कहीं टिकती है क्या..?


कितनी सुंदर प्रार्थना है और उतना ही प्रेरक उसका 'वरीयता क्रम' भी..!

ज़रा देखिए और  समझिए भी..!


सबसे पहले माता, क्योंकि वह है तो फिर संसार में किसी की जरूरत ही नहीं। इसलिए हे प्रभु ! तुम माता हो..!


फिर पिता, अतः हे ईश्वर ! तुम पिता हो ! 


दोनों नहीं हैं तो फिर भाई ही काम आएंगे। इसलिए तीसरे क्रम पर भगवान से भाई का रिश्ता जोड़ा है।


जिसकी न माता रही, न पिता, न भाई तब सखा काम आ सकते हैं, अतः सखा त्वमेव !


वे भी नहीं, तो आपकी विद्या ही काम आती है। यदि जीवन के संघर्ष में नियति ने आपको निपट अकेला छोड़ दिया है, तब आपका ज्ञान ही आपका भगवान बन सकेगा। यही इसका संकेत है।


और सबसे अंत में 'द्रविणं' अर्थात धन। जब कोई पास न हो, तब हे देवता तुम्हीं धन हो।


रह-रहकर सोचता हूं कि प्रार्थनाकार ने वरीयता क्रम में जिस धन-द्रविणं को सबसे पीछे रखा है, वही धन आज-कल हमारे आचरण में सबसे ऊपर क्यों आ जाता है..? इतना कि उसे ऊपर लाने के लिए माता से पिता तक, बंधु से सखा तक सब नीचे चले जाते हैं, पीछे छूट जाते हैं।


वह कीमती ज़रूर है, पर उससे ज्यादा कीमती माता, पिता, भाई, मित्र, विद्या हैं। उससे बहुत ऊँचे आपके अपने हैं..!


बार-बार ख्याल आता है, कि 'द्रविणं' सबसे पीछे बाकी रिश्ते ऊपर। धन नीचे। 


याद रखिए,  दुनियां में झगड़ा रोटी का नहीं थाली का है ! वरना ऊपरवाला  रोटी तो सबको देता ही है..!


अतः चांदी की थाली यदि कभी हमारे वरीयता क्रम को पलटने लगे, तो हमें इस प्रार्थना को जरूर याद कर लेना चाहिए.।


मंगलवार, 9 फ़रवरी 2021

108 का रहस्य और महत्व-

 108 का रहस्य और महत्व-/ कृष्ण मेहता 


ॐ का जप करते समय 108 प्रकार की विशेष भेदक ध्वनी तरंगे उत्पन्न होती है जो किसी भी प्रकार के शारीरिक व मानसिक घातक रोगों के कारण का समूल विनाश व शारीरिक व मानसिक विकास का मूल कारण है। बौद्धिक विकास व स्मरण शक्ति के विकास में अत्यन्त प्रबल कारण है । 


॥ 108 ॥

यह अद्भुत व चमत्कारी अंक बहुत समय ( काल ) से हमारे ऋषि -मुनियों के नाम के साथ प्रयोग होता रहा है।  


★ आइये जाने संख्या 108 का रहस्य ★


स्वरमाला


अ→1 ... आ→2... इ→3 ... ई→4 ... उ→5... ऊ→6  ... ए→7 ... ऐ→8 ओ→9 ... औ→10 ... ऋ→11 ... लृ→12

अं→13 ... अ:→14.. 

ऋॄ →15.. लॄ →16


व्यंजनमाला


क→1 ... ख→2 ... ग→3 ... घ→4 ...

ङ→5 ... च→6... छ→7 ... ज→8 ...

झ→9... ञ→10 ... ट→11 ... ठ→12 ...

ड→13 ... ढ→14 ... ण→१15 ... त→16 ...

थ→17... द→18 ... ध→19 ... न→20 ...

प→21 ... फ→22 ... ब→23 ... भ→24 ...

म→25 ... य→26 ... र→27 ... ल→28 ...

व→29 ... श→30 ... ष→31 ... स→32 ...

ह→33 ... क्ष→34 ... त्र→35 ... ज्ञ→36 ...

ड़ 37   ... ढ़ ... 38

--~~~ओ अहं = ब्रह्म ~~~--

ब्रह्म = ब+र+ह+म =23+27+33+25=108


( 1 )


यह मात्रिकाएँ (16स्वर +38 व्यंजन=54 ) नाभि से आरम्भ होकर ओष्टों तक आती है, इनका एक बार चढ़ाव, दूसरी बार उतार होता है, दोनों बार में वे 108 की संख्या बन जाती हैं। इस प्रकार 108 मंत्र जप से नाभि चक्र से लेकर जिव्हाग्र तक की 108 सूक्ष्म तन्मात्राओं  का प्रस्फुरण हो जाता है। अधिक जितना हो सके उतना उत्तम है पर नित्य कम से कम 108 मंत्रों का जप तो करना ही चाहिए ।।


( 2 )


मनुष्य शरीर की ऊँचाई

= यज्ञोपवीत(जनेउ) की परिधि 

= ( 4 अँगुलियों) का 27 गुणा होती है। 

= 4 × 27 = 108


( 3 )


नक्षत्रों की कुल संख्या = 27

प्रत्येक नक्षत्र के चरण = 4

जप की विशिष्ट संख्या = 108

अर्थात् ॐ मंत्र जप कम से कम 108 बार करना चाहिये ।


( 4 )


एक अद्भुत अनुपातिक रहस्य


★ पृथ्वी से सूर्य की दूरी/ सूर्य का व्यास=108


★ पृथ्वी से चन्द्र की दूरी/ चन्द्र का व्यास=108

अर्थात् मन्त्र जप 108 से कम नहीं करना चाहिये।


( 5 )


हिंसात्मक पापों की संख्या 36 मानी गई है जो मन, वचन व कर्म 3 प्रकार से होते है। अर्थात् 36×3=108। अत: पाप कर्म संस्कार निवृत्ति हेतु किये गये मंत्र जप को कम से कम 108 अवश्य ही करना चाहिये।


( 6 )


सामान्यत: 24 घंटे में एक व्यक्ति 21600 बार सांस लेता है। दिन-रात के 24 घंटों में से 12 घंटे सोने व गृहस्थ कर्तव्य में व्यतीत हो जाते हैं और शेष 12 घंटों में व्यक्ति जो सांस लेता है वह है 10800 बार। इस समय में ईश्वर का ध्यान करना चाहिए । शास्त्रों के अनुसार व्यक्ति को हर सांस पर ईश्वर का ध्यान करना चाहिये । इसीलिए 10800 की इसी संख्या के आधार पर जप के लिये 108 की संख्या निर्धारित करते हैं।


( 7 )


एक वर्ष में सूर्य 216000 कलाएं बदलता है। सूर्य वर्ष में दो बार अपनी स्थिति भी बदलता है। छःमाह उत्तरायण में रहता है और छः माह

दक्षिणायन में। अत: सूर्य छः माह की एक स्थिति

में 108000 बार कलाएं बदलता है।


( 8 )


ब्रह्मांड को 12 भागों में विभाजित किया गया है। इन 12 भागों के नाम - मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुंभ और मीन हैं। इन 12 राशियों में नौ ग्रह सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु और केतु विचरण करते हैं। अत: ग्रहों की संख्या 9 में राशियों की संख्या  को 12 से गुणा करें तो संख्या 108 प्राप्त हो जाती है।


( 10 )


108 में तीन अंक हैं, 1, 0 , 8. इनमें एक “1" ईश्वर का प्रतीक है। ईश्वर का एक सत्ता है अर्थात ईश्वर १ है और मन भी एक है, शून्य “0" प्रकृति को दर्शाता है। आठ “8" जीवात्मा को दर्शाता है क्योंकि योग के अष्टांग नियमों से ही जीव प्रभु से मिल सकता है । जो व्यक्ति अष्टांग योग द्वारा प्रकृति के आठो मूल से  विरक्त हो कर ईश्वर का साक्षात्कार कर लेता है उसे सिद्ध पुरुष कहते हैं। जीव “8" को परमपिता परमात्मा से मिलने के लिए प्रकृति “0" का सहारा लेना पड़ता है। ईश्वर और जीव के बीच में प्रकृति है। आत्मा जब प्रकृति को शून्य समझता है तभी ईश्वर “1" का साक्षात्कार कर सकता है। प्रकृति “0" में क्षणिक सुख है और परमात्मा में अनंत और असीम। जब तक जीव प्रकृति “0" को जो कि जड़ है उसका त्याग नहीं करेगा , अर्थात शून्य नही करेगा, मोह माया को नहीं त्यागेगा तब तक जीव “8" ईश्वर “1" से नहीं मिल पायेगा, पूर्णता ( 1+8 =9 ) को नहीं प्राप्त कर पायेगा ।

9 पूर्णता (पूर्णांक )का सूचक है।


( 11 ) 


1- ईश्वर और मन

2- द्वैत, दुनिया, संसार

3- गुण प्रकृति (माया)

4- अवस्था भेद (वर्ण)

5- इन्द्रियाँ

6- विकार

7- सप्तऋषि, सप्तसोपान

8- आष्टांग योग

9- नवधा भक्ति (पूर्णता)


( 12 )


वैदिक विचार धारा में मनुस्मृति के अनुसार 


अहंकार के गुण = 2

बुद्धि के गुण = 3

मन के गुण = 4

आकाश के गुण = 5

वायु के गुण = 6

अग्नि के गुण = 7

जल के गुण = 8

पॄथ्वी के गुण = 9

2+3+4+5+6+7+8+9 =

अत: प्रकृति के कुल गुण = 44

जीव के गुण = 10

इस प्रकार संख्या का योग = 54 

अत: सृष्टि उत्पत्ति की संख्या = 54

एवं सृष्टि प्रलय की संख्या = 54

दोंनों संख्याओं का योग = 108


( 13 )


संख्या “1" एक ईश्वर का संकेत है।

संख्या “0" जड़ प्रकृति का संकेत है।

संख्या “8" बहुआयामी जीवात्मा का संकेत है।

[ यह तीन अनादि परम वैदिक सत्य हैं ]

[ यही पवित्र त्रेतवाद है ]


संख्या “2" से “9" तक एक बात सत्य है कि इन्हीं आठ अंकों में “0" रूपी स्थान पर जीवन है। इसलिये यदि “0" न हो तो कोई क्रम गणना आदि नहीं हो सकती। “1" की चेतना से “8" का खेल । “8" यानी “2" से “9" । 

यह “8" क्या है ? मन के “8" वर्ग या भाव । 


ये आठ भाव ये हैं 


1. काम ( विभिन्न इच्छायें / वासनायें ) । 

2. क्रोध । 

3. लोभ । 

4. मोह । 

5. मद ( घमण्ड ) । 

6. मत्सर ( जलन ) । 

7. ज्ञान । 

8. वैराग । 


एक सामान्य आत्मा से महानात्मा तक की यात्रा का प्रतीक है 

——★ ॥ 108 ॥ ★——

इन आठ भावों में जीवन का ये खेल चल रहा है ।


( 14 )


सौर परिवार के प्रमुख सूर्य के एक ओर से नौ रश्मियां निकलती हैं और ये चारो ओर से अलग-अलग निकलती है। इस तरह कुल 36 रश्मियां हो गई। इन 36 रश्मियों के ध्वनियों पर संस्कृत के 36 स्वर बनें ।


इस तरह सूर्य की जब नौ रश्मियां पृथ्वी पर आती हैं तो उनका पृथ्वी के आठ वसुओं से टक्कर होती हैं। सूर्य की नौ रश्मियां और पृथ्वी के आठ वसुओं के आपस में टकराने से जो 72 प्रकार की ध्वनियां उत्पन्न हुई वे संस्कृत के 72 व्यंजन बन गई। इस प्रकार ब्रह्मांड में निकलने वाली कुल 108 ध्वनियाँ पर संस्कृत की वर्ण माला आधारित है।


रहस्यमय संख्या 108 का हिन्दू-वैदिक संस्कृति के साथ हजारों सम्बन्ध हैं जिनमें से कुछ का संग्रह है।

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सोमवार, 1 फ़रवरी 2021

जगह- जातस साम्राज्य, मध्य भारतवर्ष)


#pratilipihindi #freeread #गुडरीड /:(तकरीबन १२०० साल पहले, जगह- जातस साम्राज्य, मध्य भारतवर्ष)



एक घुडसवार सैनिक तेजी से दौड़ते हुआ जा रहा है| वो अच्छी नस्ल का काले रंग का घोड़ा मानो एक नई  उमंग लेकर अपने मालिक सैनिक को अपने मुकाम पर जल्द से जल्द पहुँचाने के लिये पूरे दम खम से दौड़ रहा है| अपने पैरो के नीचे उड़ती  धूल को हवा मे उछालते हुए  जब वो घोड़ा अरण्य से होकर जातस के द्वार पर पहुंचा तो वहां  पहरा दे रहे सैनिकों ने उसे रोका| 


“मुझे अमात्य रंजन को एक बहुत जरुरी खबर देनी है|” घुडसवार सैनिक बोला|


पहरे वाले सैनिकों ने उसकी पहचान कर उसे  शहर के अंदर जाने दिया| जातस की भव्य नगरी के वो भव्य और मजबूत द्वार मे मौजूद एक छोटा दरवाज़ा कर्र... कर्र... आवाज़ करते हुए  खोला गया| उस समय भारतवर्ष मे जातस एक बहुत ही बडा साम्राज्य था| जातस भारतवर्ष के बिचोबीच अपने अस्तित्व की निशानी देता था| जिसकी दिवारे उसी की तरह बडी और मजबूत थी| एक मुख्य द्वार आगे की तरफ और दो खुफ़िया दरवाज़े पीछे की तरफ मौजूद थे| उस मुख्य दरवाज़े पर बहुत ही आकर्षक नकाशी की गयी थी| दरवाज़े दोनो बाज़ू मे द्वार को मज़बूती दिलाने और सैनिकों को निगरानी के हेतु  बुर्ज बनाये हुए  थे| वहां पर शेरों के मुँह जैसी रचना वाले पत्थर लगाए गए  थे, मानो जैसे वो अपनेशत्रुओं  को चेतावनी दे रहे हो| जातस नगरी की एक विशेषता थी की वो बहुत ही सुंदर और स्वच्छ थी| नगरी बडे बडे पहाड़ों के नीचे थी| शहर के अंदर जो मुख्य बाजार था वो शहर के समृद्धि की एक वजह था| अनेक राज्यों से व्यापारी वहां आकर अपनी दुकानों मे चीजें बेचते थे|


राज्य के द्वार को पीछे  छोड़ते हुए  वो सैनिक उस महल के पास पहुंचा जहाँ  पर आचार्य और अन्य अमात्य रहते थे|


जातस नगरी जितनी अंदर से मजबूत थी उतनी ही वो बाहर से अपने जमींदार और आसपास के गावों मे बसे सरदारों की वजह से मजबूत थी| वो महल जहाँ  अमात्य रंजन से मिलने वो घुडसवार सैनिक पहुँचा था, वो काफी सुंदर था| अतिथि महल के नाम से जाना जाने वाला वो महल काफी बडा था| काले पत्थरों मे बनाया गया वो महल काफी आकर्षक था| वो सैनिक अपने घोड़े को वहाँ  मौजूद रक्षकों के पास छोड़कर सीढ़ियों  से ऊपर चला गया| वहाँ  के सेवक ने जैसे ही अंदर उस सैनिक का संदेश भेजा, उसे तुरंत अंदर बुलाया गया| एक बडे से दफ्तर मे जहाँ मेज़ और उसके इर्दगिर्द कुर्सियां थी, आचार्य कपिलदत्त और मुख्य अमात्य रंजन आपस मे राज्य के व्यवहार के बारे मे चर्चा कर रहे थे|


“बोलो क्या बात है|” अमात्य रंजन अपनी कुर्सी को सैनिक की तरफ मोड़ते  हुए  बोले| “प्रणाम आचार्य जी, अमात्यजी| मैं अपनी नई  शुरू की गयी खदान पर मुख्य रक्षक हूँ | खबर ही गुप्त थी इसी लिए  खुद चला आया|” सैनिक झुक कर बोला.


कपिलदत्त और रंजन ने एक दूसरे की और हैरानी से देखते हुए  सैनिक की और देखा. “आप को तो पता ही होगा की पिछले कुछ दिनो से सांस लेने मे हो रही दिक्कत के कारण खुदाई करने वाले मज़दूर परेशान थे| उसी कारण कल से खुदाई रोकने के लिये आपने कहा था, लेकिन हमे वहाँ कुछ अजीब मिला है| बडा सा, कुछ धातू के बक्से जैसे बना हुआ| लेकिन जैसे ही हमे पता चला हमने काम रुकवा दिया|” सैनिक बोला| 


कपिलदत्त और रंजन काफी शांत और अच्छे स्वभाव के थे इसी लिए सैनिक या कोई भी खबरी अपनी बात पहले उनसे किया करते थे| कपिलदत्त औधे  मे सबसे बडे थे|  सर का मुंडन किया हुआ था, दाढ़ी और मूँछें अच्छे से साफ की हुई थी , रंग से गोरे, लंबा कद, पतला लेकिन मजबूत शरीर, ४०-४५ की उम्र मे भी जवान दिखते थे कपिलदत्त| उनका चेहरा उनकी प्रतिभा को उजागर करता था| उनकी थोड़ी नीली  सी दिखने वाली आंखे किसी को भी उनकी ओर आकर्षित करने पर मजबूर कर देती| उनके मुकाबले रंजन का कद छोटा था, बालों एवं दाढ़ी मूछों  का  मुंडन करके सर पर एक शिखा रखी हुई थी| रंग उनका गोरा ही था लेकिन चेहरा उतना आकर्षक नही था| लेकिन दोनो ही अच्छे दोस्त थे और राजा के प्रति  ईमानदार|


कपिलदत्त और रंजन के मानो रोंगटे खड़े हो गए हो| वे दोनो भी अपनी कुर्सियो से उठकर ख़ुशी से फूले नही समाए | “क्या तुमने देखा वो बक्सा?” रंजन ने अचरज से पूछा| “जी हां, अमात्यजी| काफी बडा लगता है| जहाँ पर भी उनके औजारों के घाव लगे वहां  से धातू से टकराने की ही आवाज़ आई|” सैनिक बेफिक्र होकर बताने लगा|


“ठीक है, ठीक है, अब मज़दूरों को बाहर भेजकर वहाँ  की सुरक्षा बढ़ाओ | हम राजा को ये समाचार सुनाते है तब तक तुम वहाँ की सुरक्षा को संभालो| हो सकता है की राजा ये खबर सुनकर वहां खुद चले ...

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