शनिवार, 18 जुलाई 2020

नंबर नहीं बनाते नंबर वन / चण्डीदत्त शुक्ला


आवरण कथा


दसवीं-बारहवीं की परीक्षाओं में ढेर सारे अंक हासिल करने वाले छात्रों को बधाई, साथ में उन्हें भी खूब मुबारक, जिन्होंने कम अंकों से परीक्षा उत्तीर्ण की। आखिरकार, सिर्फ अंकों से जीवन का परिणाम तय नहीं होता…

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नंबर नहीं बनाते नंबर वन

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● *चण्डीदत्त शुक्ल*


इन दिनों हर ओर हाईस्कूल व इंटरमीडियट की परीक्षाओं में 85-90 फीसदी अंक हासिल करने वाले सफल विद्यार्थियों को बधाई देने की होड़ लगी है। ये कोई नई बात नहीं, न ही अस्वाभाविक है। हर अभिभावक बच्चों की सफलता पर ख़ुश होता ही है, लेकिन क्या आपने कभी सोचा है, जिन सोशल कम्युनिटीज़ पर लोग अपने ‘अधिक सफल’ बच्चों की मार्कशीट की तसवीरें पोस्ट कर रहे हैं, वहीं कम अंक लाने के बाद अवसादग्रस्त बच्चों के गलत कदम उठा लेने की ख़बरें भी दिख रही हैं।

पिछले कुछ वक्त से एक संदेश काफी वायरल हो रहा है - 'मार्कशीट तो कागज का टुकड़ा है। कुछ वक्त बाद ये दराज में रखने और बर्थ सर्टिफिकेट की तरह इस्तेमाल करने के सिवा किस काम आएगा?' कागज के टुकड़े के लिए क्या किसी के जिगर के टुकड़े की भावनाओं से खिलवाड़ किया जा सकता है? यकीनन नहीं।


सफलता का हो सम्मान, लेकिन...

अकादमिक परीक्षा में उच्च अंकों से सफल रहे बच्चे अच्छे नंबर हासिल करने के लिए जी-जान लगा देते हैं। उनके श्रम और सफलता को दरकिनार करना न्यायोचित नहीं है, उसे कम महत्वपूर्ण नहीं माना जा सकता। एक स्तर तक औपचारिक शिक्षा पूर्ण होनी ही चाहिए, क्योंकि आज के प्रतिस्पर्धी समय में 'मसि कागद छुयो नहीं, कलम गह्यो नहीं हाथ' जैसी स्थिति होने पर (बगैर पढ़े, सिर्फ हुनर और ज्ञान की बदौलत) कामयाबी व सम्मान पाने की कल्पना नहीं की जा सकती, लेकिन ये भी सच है कि डिवीज़न का दबाव किसी छात्र की संभावनाओं को सीमित कर देना भर है। ऊंचे अंक किसी की संपूर्ण मेधा का पैमाना नहीं हैं।

कई बच्चे पूरी कोशिश के बावजूद वांछित सफलता हासिल नहीं कर पाते। वे दोषी नहीं हैं, बस अंकों की होड़-दौड़ में जरा पीछे रह गए। इसके बहुतेरे कारण हो सकते हैं। मुमकिन है कि ऐसे छात्र-छात्राओं को परीक्षा की व्यवस्था ही समझ में न आती हो। संभव है, उनकी रुचि पढ़ाई से अधिक अन्य विद्याओं-विधाओं में हो। बाज दफा ऐसा हुआ ही है कि परीक्षाओं में कम अंक लाने वाले बच्चे जीवन में सम्मानजनक ऊंचाई तक पहुंचे हैं।


अंक कम थे, क्षमता नहीं

उज्जैन के सर्जन डॉ. दिनेश यादव नवीं में थर्ड डिवीजन से किसी तरह उत्तीर्ण हुए थे। परिजनों ने उन्हें खेती के काम में लगा दिया था। दिनेश ने खराब परीक्षा परिणाम को ही अपने लिए चुनौती मान लिया और आज सफल सर्जन हैं। डॉ. यादव का मानना है कि कुछ असफलताओं से जीवन में प्रगति के रास्ते बंद नहीं हो जाते। असफलता आगे बढ़ने के रास्ते तैयार करती है।

हाल में ही गुजरात के आईएएस अधिकारी नितिन सांगवान ने बारहवीं की मार्कशीट ट्वीट कर जानकारी दी कि केमिस्ट्री में उन्हें 70 में से 24 अंक मिले थे, यानी उत्तीर्ण होने के लिए आवश्यक 23 अंक से सिर्फ एक नंबर ज्यादा। सांगवान ने बताया कि इन अंकों से मेरी ज़िंदगी की निर्णायक दिशा तय नहीं हो गई। मैंने कड़ी मेहनत जारी रखी।

छत्तीसगढ़ के आईएस अधिकारी (2009 बैच) अवनीश शरन के तो दसवीं में सिर्फ 44.5 फीसदी अंक आए थे। सोचिए, सांगवान और शरन अगर अंकों के फेर में उलझ जाते् तो उनका व्यक्तित्व कैसे रंग-रूप में ढल पाता? गूगल प्रमुख सुंदर पिचाई और बैंकिंग के क्षेत्र में उपलब्धियों के कीर्तिमान बनाने वाली इंदिरा नूई का आकलन भी यदि अंकों पर आधारित उपलब्धि के प्रमाण के रूप में होता तो उन्हें औसत से ‘जरा-सा ही बेहतर’ माना जाता।

शुरुआती अवरोधों के बाद सफल रही शख्सियतों के उदाहरण छोड़ दें तो भी कई लोग ऐसे हुए, जिन्होंने पूरे देश के विचारों की दिशा ही बदल दी। महात्मा गांधी इनमें अव्वल थे। राजकोट के शिक्षाविद् जेएम उपाध्याय ने अपनी पुस्तक में लिखा है, 'बापू तीसरी क्लास में 238 दिनों में सिर्फ 110 दिन स्कूल गए। एक बार अनुत्तीर्ण भी हुए थे।'

1886 में गांधी जी ने मैट्रिक पास की। आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ के ‘विलायत की तैयारी’ खंड में बापू खुद बयान करते हैं कि भावनगर के शामदास कॉलेज में वे असहज महसूस करते थे और जब

कुटुंब के पुराने मित्र और सलाहकार मावजी दवे ने उनसे पूछा- 'क्यों, तुझे विलायत जाना अच्छा लगेगा या यहीं पढ़ते रहना?' तब बापू के शब्दों में - ’मुझे जो भाता था, वही वैद्य ने बता दिया। मैं कॉलेज की कठिनाइयों से डर तो गया ही था। मैंने कहा, 'मुझे विलायत भेजें, तो बहुत ही अच्छा है। मुझे नहीं लगता कि मैं कॉलेज में जल्दी-जल्दी पास हो सकूंगा।’

इस वर्णन से साफ है कि पहले परदेस और फिर देश में संपूर्ण बदलाव की मशाल जलाने वाले गांधी जी के व्यक्तित्व की ऊर्जा किसी मार्कशीट पर दर्ज कुछ नम्बरों पर आश्रित नहीं थी।


अपमान व व्यंग्य से भटकाव

कम नंबर पाने वाले बच्चों को मां-पिता की फटकार का सामना क्यों करना पड़ता है, इसे समझना मुश्किल नहीं है। अक्सर अभिभावक अपनी अधूरी इच्छाओं और खंडित सपनों को बच्चों के कांधे पर रखकर पूरे करना चाहते हैं। वे नहीं चाहते कि उनकी संतान असफल हो। इस सिलसिले में वे भूल जाते हैं कि हार के लिए भी हरदम तैयार रहना चाहिए, क्योंकि जीवन फूलों की सेज नहीं है।

अभिभावकों की बात दीगर है, पड़ोसी और नाते-रिश्तेदार कम अंक पाने वाले बच्चे पर व्यंग्य क्यों कसने लगते हैं, ये समझना दुरूह है। उनका तर्क होता है कि हमें बच्चे के भविष्य की चिंता है, लेकिन दो प्रमुख बातें भूल जाते हैं। पहली ये कि अपमानजनक तरीके से व्यंग्य कर किसी को सही रास्ता नहीं दिखाया जा सकता और दूसरी बात - ऐसा करने वाले गंभीरता से विचार करें। कहीं तुलना कर वे अपने मन की कुंठा मासूम बचपन पर उड़ेल तो नहीं रहे। ऐसे लोग परिचितों के बच्चों की रचनात्मक उपलब्धियों का बखान नहीं करते, कविता-पेंटिंग-गायन जैसी विधाओं में उल्लेखनीय प्रदर्शन को उत्साहित नहीं करते, ऐसे में जीवन को झुलसा देने वाली कटु आलोचना का क्या मतलब है?


कुछ भी अंतिम सत्य नहीं...

किसी एक कालखंड में आए परिणामों के सहारे शेष जीवन की दिशा तय नहीं हो सकती, चाहे वे परिणाम किसी परीक्षा के ही क्यों ना हों। आज की असफलता कल की कामयाबी का प्रस्थान बिंदु हो सकती है। आवश्यक है कि नई पीढ़ी ज़िंदगी की जद्दोजहद से जूझने के लिए तैयार रहे। खुद को विवेकवान बनाए, हालात से जूझने की काबिलियत खुद में पैदा करे। नई चीजें जानने और अमल में लाने को उत्सुक रहे।

अच्छी बात है कि नौकरियों और पढ़ाई में चयन के उच्च प्राप्तांकों के पारंपरिक मानदंड धीरे-धीरे बदल रहे लगे हैं। ताज़ा खबर है कि आईआईटी में दाखिला लेने के लिए इस साल 12वीं में 75 फीसदी अंक हासिल करने की अनिवार्यता भी नहीं रहेगी। सबकी उपलब्धियों और मेहनत का सम्मान बना रहे - यही कामना!

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