बुधवार, 24 फ़रवरी 2016

उत्तराखंड में होली की अनूठी परंपरा





होली
युवक, युवतियों और वृद्ध सभी को होली के गूंजते गानों में सराबोर देखा जा सकता है
उत्तराखंड के ग्रामीण अंचलों में तबले, मंजीरे और हारमोनियम के सुर में मनाया जाने वाला परंपरागत होलिकोत्सव हर किसी को बरबस अपनी ओर खींच ही लेता है.
सांस्कृतिक रूप से समृद्ध एवं सजग माने जाने वाले अल्मोड़ा में तो सांझ ढलते ही होल्यारों की महफिलें सज जाती हैं. इसमें हर उम्र के लोग शामिल होते हैं. युवक, युवतियों और वृद्ध सभी को होली के गूंजते गानों में सराबोर देखा जा सकता है.
लगभग यही दशा कुमाऊं मंडल के अधिकांश क्षेत्रों की होती है. नैनीताल और चंपावत में तबले की थाप, मंजीरे की खनखन और हारमोनियम के मधुर सुरों पर जब 'ऐसे चटक रंग डारो कन्हैया' गाते हैं, तो सभी झूम उठते हैं.
तिहाई पूरा होते ही लगता है कि राग-विहाग की ख़ूबसूरत बंदिश ख़त्म हो गई है. लेकिन तभी होली में भाग लगाने वाले होल्यारों के मुक्त कंठ से भाग लगाते ही तबले पर चांचर का ठेका अभी शुरू नहीं हुआ कि 'होरी' फिर से शबाब पर लौट आती है.
पूरी रात इस मस्ती में गुजर जाती है और इस बीच पता नहीं चलता कि भोर कब हुई.
बैठकी होली की उमंग
यह कद्रदान और कलाकार दोनों का मंच है. इस लोक विधा ने हिन्दुस्तानी संगीत को समृद्ध करने के साथ-साथ एक नई समझ भी दी है.
प्रेम मटियानी, पूर्व निदेशक, गीत एवं नाट्य प्रभाग, भारत सरकार
कुमाऊंनी होली के दो रूप प्रचलित हैं-बैठकी होली और खड़ी होली.
बैठकी होली यहाँ पौष माह से शुरू होकर फाल्गुन तक गाई जाती है. पौष से बसंत पंचमी तक अध्यात्मिक बसंत, पंचमी से शिवरात्रि तक अर्ध श्रृंगारिक और उसके बाद श्रृंगार रस में डूबी होलियाँ गाई जाती हैं. इनमें भक्ति, वैराग्य, विरह, कृष्ण-गोपियों की हंसी-ठिठोली, प्रेमी प्रेमिका की अनबन, देवर-भाभी की छेड़छाड़ सभी रस मिलते हैं.
इस होली में वात्सल्य, श्रृंगार, भक्ति रस एक साथ मौजूद हैं.
संस्कृति प्रेमी एवं युग मंच संस्था चलाने वाले जुहूर आलम कहते हैं कि बैठकी होली जैसे त्योहार को एक गरिमा देती है.
होली मर्मज्ञ एवं संस्कृतिकर्मी रहे गिरीश तिवारी 'गिर्दा' कहते हैं, ‘‘बैठकी होली अपने समृद्ध लोकसंगीत की वजह से यहाँ की संस्कृति में रच बस गई है. यह लोकगीत न्योली जैसे पारंपरिक लोकगीतों से भिन्न है. इसकी भाषा कुमाऊंनी न होकर ब्रज है. सभी बंदिशें राग रागनियों में गाई जाती है. यह खांटी का शास्त्रीय गायन है.’’
एकल और समूह गायन
इस गाने का ढब निराला ही है. इसे समूह में गाया जाता है. लेकिन यह न तो सामूहिक गायन है न ही शास्त्रीय होली की तरह एकल गायन. महफ़िल में मौजूद कोई भी व्यक्ति बंदिश का मुखड़ा गा सकता है जिसे स्थानीय भाषा में भाग लगाना कहते हैं .
गीत एवं नाट्य प्रभाग, भारत सरकार के पूर्व निदेशक प्रेम मटियानी के अनुसार, ‘‘यह कदरदान और कलाकार दोनों का मंच है. इस लोक विधा ने हिन्दुस्तानी संगीत को समृद्ध करने के साथ-साथ एक नई समझ भी दी है.’’
होली
होली के अवसर पर गीत-संगीत की सजती महफ़िल.
खड़ी होली दिन में ढोल-मंजीरों के साथ गोल घेरे में पग संचालन और भाव प्रदर्शन के साथ गाई जाती है. तो रात में यही होली बैठकर गाई जाती है.
शिवरात्रि से होलिकाअष्टमी तक बिना रंग के ही होली गाई जाती है.
होलिका अष्टमी को मंदिरों में आंवला एकादशी को गाँव मोहल्ले के निर्धारित स्थान पर चीर बंधन होता है और रंग डाला जाता है.
होली का उत्साह
बसंत पंचमी होली का नमूना देखें. बसंत पंचमी में "नवल बसंत सखी, ऋतुराज कहायो पुष्पकली सब फूलन लागी फूलहि फूल सुहायो" के साथ शिवरात्रि में "जय जय शिवशंकर योगी, नृत्य करत प्रभु डमरू बजावत बावन धूनी रमायो" गाकर यह होली मनाते हैं.
उत्तराखंड में गंगोलीहाट, लोहाघाट, चंपावत, पिथौरागढ़ एवं नैनीताल बैठकी होली के गढ़ माने जाते हैं. यहां के लोग मैदानी क्षेत्रों में जहाँ-जहाँ गए, इस परंपरा का प्रसार होता गया.
आधुनिक दौर में जब परंपरागत संस्कृति का क्षय हो रहा है तो वहीं कुमाऊं अंचल की होली में मौजूद परंपरा और शास्त्रीय राग-रागनियों में डूबी होली को आमजन की होली बनता देख सुकून दिलाता है.

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