सोमवार, 6 अक्तूबर 2014

हाय हैदर न इधर के न उधर के






हैदर में कश्मीर से इस्लाम के नाम पर अपने दर से बेघर कर, दर-दर भटकने को मजबूर किए हिन्दू पंडितों का जिक्र भी न होना, कश्मीर के रक्तरंजित इतिहास का एकतरफा पहलू है. 

बुर्के से शरीर ढकने की बात तो पता थी पर सच को भी ढका जाता है, देख लिया.

कश्मीर मे मिले तन के घाव अब पंडितों के लिए मन के नासूर बन चुके हैं और अब जनसंचार में उन्हें लोकस्मृति से भी बिसराने का काम किया है इस फिल्म ने.

हॉलीवुड के नक़ल वाले और आयातित आचार-विचार-व्यवहार के मुरीद बॉलीवुड के नक्कालों से और क्या उम्मीद की जा सकती है ? 

आखिर विदेश जाने की इच्छा लिए अनंतमूर्ति तो अनंत की यात्रा पर निकल गये, विशाल भरद्वाज भी जोड़ो में अंगूठा लगवाने वाले सहमतनुमा कारगुजारी का एक पुर्जा है. 

बाकि चाणक्य का प्रसिद्ध सूत्र है ही यह साबित करने को काफी है, इस देश को दुर्जनों की दुष्टता से अधिक विद्वानों की कायरता से हानि हुई है. 

कभी दावूद इब्राहीम और शिवसेना के आतंक और भय से ग्रसित इस आत्ममोह से ग्रसित कालिदास के वंशजों से और उम्मीद भी क्या रखी जा सकती है.

काश शेक्सपियर के हैमलेट और मैकबेथ के नक्कालों ने कल्हण की राजतरंगिनी के पन्नों, सिकंदर बुतशिकन, सिख गुरु के अमर बलिदान  और आतिशे चिनार के कुछ पन्नों को भी पलटने की जहमत उठाई होती तो हैदर एक रंग के कहानी न होकर अनेक रंगों की दास्ताँ होती.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें