शनिवार, 13 सितंबर 2014

वैश्वीकरण, उदारीकरण, निजीकरण और विकास का नाता





 

प्रस्तुति-- मनीषा यादव

वामपंथी दलों का दृषिटकोण
 
Printer-friendly version 24 जुलाई, 1991 के दिन को हमारे देश के इजारेदार पूंजीपति घरानों ने ऐतिहासिक दिन बताया। इस दिन मनमोहन सिंह, जो नरसिंह राव सरकार में वित्तमंत्री थे, उन्होंने अपने बजट भाषण में उदारीकरण और निजीकरण के जरिये हिन्दोस्तानी पूंजी के वैश्वीकरण के कार्यक्रम को पेश किया। इजारेदार पूंजीपति, मीडिया के जरिये प्रचार कर रहे हैं कि हिन्दोस्तान में स्वर्ण अवधि की शुरुआत करने के लिये मनमोहन सिंह की प्रशंसा की जानी चाहिये।
इस तथाकथित सुधार कार्यक्रम और पिछले 20 वर्षों के इसके नतीजों के बारे में मज़दूर वर्ग का बिल्कुल अलग ही दृष्टिकोण है। इसी तरह किसानों व मेहनतकश लोगों के दूसरे तबकों और अधिकांश लोगों के भी अलग दृष्टिकोण हैं। मेहनतकश लोगों के विचारों को पूंजीपति मीडिया नजरअंदाज करती है।
मज़दूर एकता लहर के इस अंक से हम मज़दूर वर्ग, किसानों तथा दूसरे दबे-कुचले तबकों के प्रतिनिधियों के साथ साक्षात्कार छापेंगे ताकि हिन्दोस्तानी पूंजी के वैश्वीकरण के पिछले दो दशकों के बारे में उनके ख्याल विस्तार तथा अगले दो दशकों के लिये उनका नज़रिया पता चले।
इस श्रृंखलाको हम हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी के महासचिव कॉमरेड लाल सिंह के साक्षात्कार से शुरू कर रहे हैं। अगले अंकों में हम मज़दूर वर्ग, किसानों और दूसरे छोटे उद्योगों के प्रतिनिधियों के साथ साक्षात्कार छापेंगे।
म.ए.ल.: 1991 से शुरू हुये, दो दशकों के तथाकथित आर्थिक सुधार कार्यक्रम के क्या नतीजे रहे हैं?
कॉ. लाल सिंह: “इस कार्यक्रम के लागू करने का नतीजा बहुत ही असंगत और एकतरफा आर्थिक विकास रहा है। इससे अपने समाज में वर्गों के बीच का अंतर्विरोध और तीव्र हुआ है।
”अगर हम देखें कि किसको सबसे ज्यादा फायदा हुआ है तो हमें दिखता है कि आबादी के एक बहुत ही छोटे हिस्से ने विशाल धन-दौलत जमा कर ली है। टाटा समूह का व्यापार पिछले 20 वर्षों में 14,000 करोड़ रु. से उछाल मारकर 3,50,000 करोड़ रु. हो गया है। के.एम. बिड़ला समूह का 3,100 करोड़ रु. से बढ़कर 1,35,000 करोड़ रु. हो गया है। रिलायंस समूह का व्यापार 20 वर्ष पहले 2,300 करोड़ रु. था; अब यह दो समूहों में बंट गया है और मुकेश अंबानी समूह अकेले का बढ़ कर 2,00,000 करोड़ रु. हो गया है।
”कई नये नाम इजारेदार पूंजीपतियों के शिखर स्तर पर पहुंच गये हैं, जैसे कि सुनील भारती मित्तल समूह और गौतम अदानी समूह। अपने देश के 10सबसे अमीर पूंजीपतियों की धन-दौलत 2008 में 8,40,000 करोड़ रु. के खगोलिय स्तर पर पहुंच गयी है, जो सकल घरेलू उत्पाद का एक पांचवां हिस्सा है। दूसरी तरफ एन.एस.एस. के 2006-07 के सर्वेक्षण के मुताबिक, 80 प्रतिशत से अधिक ग्रामीण आबादी 900 रु. प्रति, व्यक्ति प्रति माह पर गुजारा करती है। यानि कि 30 रु. प्रति दिन! 80 प्रतिशत से अधिक शहरी आबादी 1800 रु. प्रति व्यक्ति, प्रति माह पर गुजारा करती है; यानि कि 60 रु. प्रति दिन।
“स्वाभाविक है कि इजारेदार पूंजीपति उदारीकरण और निजीकरण के कार्यक्रम को अत्याधिक सफल मानते हैं क्योंकि इसके तहत उन्हें बहुत मुनाफा हुआ है। परन्तु हिन्दोस्तान अभी भी एक ऐसा देश है जहां गरीबों की संख्या सबसे ज्यादा है। अपने देश में विभिन्न बीमारियों के सबसे अधिक संख्या में लोग शिकार बनते हैं। देश के अधिकांश इलाकों में, बहुत ज्यादा संख्या में नवजात बच्चों और माताओं की मौत हो जाती है। करोड़ों लोगों को साफ पेयजल तक उपलब्ध नहीं है। एक बाल्टी पानी लाने के लिये लोगों को घंटों बिताना पड़ता है।
“योजना आयोग के उपाध्यक्ष ने एक बहुत ही बेतुका दावा किया है कि एक काम करने वाला व्यक्ति 30रु. प्रति दिन में गुजारा कर सकता है! यह दिखाता है कि इजारेदार पूंजीपति और उनके प्रवक्ताओं को मेहनतकश लोगों की असली परिस्थिति, उनकी जरूरतों और उनकी अभिलाषाओं का कोई अंदाजा नहीं है। वे गरीबी रेखा को बहुत ही नीचे करके दिखाना चाहते हैं कि अपने देश में गरीबी पर काबू पाया जा रहा है।
“आर्थिक विकास की दर अपेक्षाकृत ऊंची होने का अपने शासक गर्व से प्रशंसा करते हैं। परन्तु इसके लिये मज़दूरों का बेरहमी से शोषण किया जाता है और किसानों पर डाका डाला जाता है। मज़दूर और किसान इसका विरोध करने के लिये एकजुट होकर संघर्ष में नहीं उतर आयें, यह सुनिश्चित करने के लिये हर तरह के छल-कपट से उनको एक दूसरे के खिलाफ़ भड़काया जाता है, और उन्हें भटकाया जाता है।
“आर्थिक आक्रमण के साथ ही, राजकीय आतंकवाद, जातिवादी हिंसा और दूसरे राष्ट्रीय, वर्गीय और व्यक्तिगत अधिकारों के उल्लंघन के खुल्लम-खुल्ला फासीवादी राजनीतिक आक्रमण भी किये जा रहे हैं।
“हम नहीं भूल सकते कि मनमोहन सिंह के पहले बजट के बाद, 1992 में बाबरी मस्जिद को ढहाने का अपराधी काम किया गया था, जिसके बाद राज्य द्वारा साम्प्रदायिक हिंसा आयोजित की गयी थी। संसद की दोनों मुख्य पार्टियों ने सांठ-गांठ से, अपने लोगों पर और उनकी एकता पर इस घोर अपराध में हिस्सा लिया था। हमारी पार्टी ने इन घटनाओं का जवाब फरवरी 1993 में, अनेक दूसरे संगठनों के साथ मिलकर, एक जन अभियान बनाने की ऐतिहासिक पहलकदमी से दिया, जब हमने कमेटी फॉर पीपल्स एम्पावरमेंट को जन्म दिया।
“अगर हम संवर्धन की ऊंची दर के अंशों को देखें तो हम देखेंगे कि अर्थव्यवस्था में सबसे ज्यादा संवर्धन वाले क्षेत्र, निर्यातित सेवाओं, बैंकिंग व दूसरी वित्तीय एजेंसियों, भूमि के बाजार तथा शेयर, विक्रय वस्तुओं के वायदा व सट्टा बाजारों में रहे हैं। इनमें से एक भी ऐसा क्षेत्र नहीं है जो अपने देश की धन-दौलत में एक पैसा भी जोड़ता हो। इन क्षेत्रों की गतिविधियों से मज़दूरों व किसानों के जीवन में कोई सुधार नहीं होता है। शेयर बाजारों, और विक्रय वस्तुओं के वायदा व सट्टा बाजारों के विकास से, कुछ थोड़े से बड़े जुआरियों और मुनाफाखोरों के लिये, छोटे धंधे वालों के हाथों में जमा मूल्य और मेहनतकश लोगों की बचत पर डाका डालना अवश्य संभव होता है।
“अगर हम बैंकिंग, व्यापार, प्रशासन और रक्षा से जुड़ी इस तरह की कृत्रिम मूल्य वृद्धि को अलग कर दें, तो संवर्धन की दर इतनी नहीं होगी जितना हमारे शासक दावा करते हैं। उदाहरण के लिये, यह तो ज़ाहिर है कि जरूरी वस्तुओं का उत्पादन, लोगों की जरूरत से बहुत कम है, जिसकी वजह से मंहगाई की दर इतनी ज्यादा है। सट्टा बाजारी और जमाखोरी से भी मंहगाई की दर बढ़ी हुयी है।
मेहनतकश लोगों की खुशहाली के लिये यह जरूरी है कि जन उपभोग की वस्तुओं का उत्पादन पर्याप्त मात्रा में हो और वे उचित दामों पर उपलब्ध हों। परन्तु अर्थव्यवस्था और नीति की वर्तमान दिशा से ऐसा नहीं होता है। इसके विपरीत, आज बहुत ही एक-तरफे संवर्धन के ज़रिये सिर्फ इजारेदार पूंजीपतियों के लिये ही अत्याधिक मुनाफा सुनिश्चित होता है।
म.ए.ल.: नीतिगत सुधार किस संदर्भ में किये गये थे और उनका मुख्य निशाना क्या था?
कॉ. लाल सिंह: “अस्सी के दशक के अंत तक, हिन्दोस्तान के इजारेदार पूंजीपति इतने बड़े हो गये थे कि दुनियाभर के सबसे बड़े निगमों के साथ, अलग-अलग क्षेत्रों में होड़ करने के काबिल हो गये थे। अपने तकनीकी आधार को उन्नत करने के लिये और विदेशी बाजारों में अपने लिये दरवाजा खुलवाने के लिये, वे देश में विदेशी पूंजी के लिये दरवाजा खोलने को तैयार थे।
“पुराने तरीके के नेहरूवी पूंजीवादी विकास का तरीका एक अंधी गली में आ पहुंचा था। अब वह बड़े पूंजीपतियों के लिये उपयुक्त नहीं था। सोवियत संघ के पतन और दुनिया के दो धु्रवीय विभाजन के खत्म होने का मतलब था कि बदलती दुनिया की हालातों की नयी परिस्थिति में हिन्दोस्तान को अपनी स्थिति दुबारा परिभाषित करने की जरूरत थी। बड़े पूंजीपतियों ने इस मौके का फायदा उठाकर एक आक्रामक साम्राज्यवादी रास्ते पर चलना शुरू किया।
“उदारीकरण और निजीकरण के जरिये वैश्वीकरण के कार्यक्रम का मकसद हिन्दोस्तानी इजारेदार पूंजीपतियों को वैश्विक तौर पर एक बड़ी ताकत का दर्जा दिलाना है। यह श्रम के अत्यधिक शोषण और प्राकृतिक संसाधनों की लूट पर आधारित है। यह एक मज़दूर-विरोधी, किसान-विरोधी और समाज-विरोधी साम्राज्यवादी कार्यक्रम है।
“इस अवधि में रुपये का अवमूल्यन करके 18 रुपये प्रति अमरीकी डॉलर से गिरा कर 45रुपये प्रति अमरीकी डॉलर कर दिया गया है। इससे घरेलू बाजार के मुकाबले निर्यात बाजार की वस्तुओं में मुनाफा बढ़ गया है। इससे विदेशी कंपनियों और बैंकों के लिये हिन्दोस्तान में निवेश करना ज्यादा मुनाफेदार हुआ है। घरेलू पूंजीपति निगमों के लिये विदेशी वित्त पाने के रास्ते की पाबंदियों को क्रमशः हटा दिया गया है तथा उनके लिये विदेशी कंपनियां खरीदना अधिक आसान कर दिया गया है। अपने देश के अनेक क्षेत्रों के उद्योगों व सेवाओं में विदेशी पूंजी के आने का रास्ता भी सुगम कर दिया गया है। सट्टेबाजी तेज़ी से फैली है और उतनी ही तेज़ी से, जमीन के घोटाले और तरह-तरह के रूप में जनता के पैसों की लूट।
“पूंजीवादी प्रचार का दावा है कि राज्य के नियंत्रण की जगह पर मुक्त बाजार को लाया गया है। असलियत में, बाजार में स्पर्धा बहुत ही असमान और इजारेदार है, जिसमें कुछ बड़े खिलाड़ी छोटे खिलाडि़यों को चूस रहे हैं। पहले से भी ज्यादा ऊंचे स्तर की इजारेदारी और प्रभुत्व के साथ, उन्हीं हितों की सेवा में, एक रूप के नियंत्रण को बदल कर दूसरे रूप का नियंत्रण लाया गया है।
म.ए.ल.: मनमोहन सिंह की भूमिका और योगदान के बारे में आपकी क्या सोच है?
कॉ. लाल सिंह: “पिछले 20 वर्षों से चल रहे उदारीकरण के कार्यक्रम की संकल्पना मनमोहन सिंह ने नहीं की थी। इसकी संकल्पना अरबपति पूंजीपतियों ने की थी, जिन्होंने मनमोहन सिंह को लोगों के बीच इस कार्यक्रम की सफाई देने और उसे बेचने के लिये एक काबिल व्यक्ति समझा था।
“इजारेदार पूंजीपतियों के कार्यक्रम की सफाई देने और इसे बढ़ावा देने के लिये मनमोहन सिंह ने दावा किया कि एक बार अमीर अपनी दौलत बढ़ायेंगे, तो इसका रिसाव मेहनतकश लोगों तक पहुंचेगा। जब ऐसा नहीं हुआ, तब उसने कहा कि इसको ‘मानवीय चेहरा‘ देने के लिये कुछ और फेरबदल करने की जरूरत है। फिर उसने दावा किया कि उसकी पार्टी सुनिश्चित करेगी कि सकल घरेलू उत्पाद में तेजी से वृद्धि से सिर्फ मुट्ठिभर लोगों को फायदा न हो बल्कि यह ‘समावेशी‘ संवर्धन हो।
“असली नतीजा मनमोहन सिंह के तथा निजीकरण व उदारीकरण के समर्थकों के दावों से बिल्कुल उल्टा निकला। हर क्षेत्र में मज़दूर वर्ग पीडि़त है। वेतन खाद्य पदार्थों और दूसरी जरूरी वस्तुओं की बढ़ती कीमतों से बहुत पीछे रह गये हैं। मुद्रस्फीति की दर भी ब्याज की दर से बहुत ज्यादा है, अतः मासिक वेतन के साथ-साथ मेहनतकश लोगों के परिवारों की बचत भी कम होती जा रही है। किसान ऋण में डूबते जा रहे हैं क्योंकि उनकी आमदनी उनके ऋण चुकाने, परिवार के स्वास्थ्य की देखभाल करने, पौष्टिक आहार उपलब्ध कराने और दूसरी जरूरतों को पूरा करने के खर्च के लिये काफी नहीं होती है।
म.ए.ल.: अगले दो दशकों, यानि कि 2010 से 2030 तक के लिये हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी का क्या वैकल्पिक नज़रिया और दिशा है?
कॉ. लाल सिंह: “हमारा नज़रिया है कि धन-दौलत पैदा करने वालों को मालिक बनना चाहिये और धन दौलत का प्रमुख हिताधिकारी होना चाहिये। कौन धन-दौलत पैदा करता है? मनमोहन सिंह और दूसरे पूंजीवादी अर्थशास्त्री दावा करते हैं कि टाटा व अंबानी जैसे इजारेदार पूंजीपति घराने धन-दौलत पैदा करते हैं और उनके रास्ते की हर रुकावट को हटाना चाहिये। सच्चाई है, कि पहले के श्रम के उत्पादों और प्रकृति के साथ मिलकर, मानव श्रम से धन-दौलत पैदा होती है। अपनी मेहनत से मज़दूर और किसान धन-दौलत पैदा करते हैं। पूंजीपति दूसरों के द्वारा निर्मित धन-दौलत को हथिया लेते हैं। वे धन-दौलत हड़पते हैं न कि पैदा करते हैं।
“अपने देश की परिस्थिति, अर्थव्यवस्था को एक नयी दिशा देने, और राजनीतिक सत्ता के पुनः निर्माण के लिये चीख-चीख कर पुकार रही है। हमारी पार्टी हिन्दोस्तान के नवनिर्माण के कार्यक्रम की हिमायत करती है।
“जब मजदूरों और किसानों को फैसला लेने का अधिकार मिलेगा, तब ही वे यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि अर्थव्यवस्था उनके हित में काम करेगी, न कि उनके द्वारा निर्मित धन-दौलत को लूटने वालों के हित में। अपने हाथों में राजनीतिक सत्ता लेकर, मज़दूर, किसान और क्रांतिकारी बुद्धिजीवी, यह सुनिश्चित करेंगे कि अर्थव्यवस्था उनके लिये खुशहाली और स्थिरता प्रदान करेगी, यानि कि यह उनके जीवन स्तर को बिना किसी संकट या झटकों के साथ लगातार ऊंचा करेगी।
“सामाजिक उत्पादन का लक्ष्य आबादी की लगातार बढ़ती भौतिक और सांस्कृतिक जरूरतों को पूरा करना बन जाना चाहिये, न कि मुनाफा अधिकतम करना। एक महाद्वीप के जैसा विशाल अपना देश मुख्यतः आत्मनिर्भरता से विकसित हो सकता है। आयात और निर्यात की सिर्फ मामूली ही जरूरत होगी, कुछ विशेष वस्तुओं के लिये।
“हम मज़दूरों-किसानों की सरकार स्थापित करने के लिये आंदोलन करते हैं ताकि हम अर्थव्यवस्था को नयी दिशा देना शुरू कर सकें। हम वित्त, विदेशी व्यापार और घरेलू थोक व्यापार के तात्कालिक सामाजीकरण की मांग के लिये आंदोलन करते हैं ताकि इन क्षेत्रों में निजी मुनाफे की भूमिका को खत्म किया जा सके।
“अपने देश के अनसुलझे राष्ट्रीय प्रश्न का समाधान निकालने के लिये और कश्मीर, नगालैंड व मणिपुर में निर्दयी तौर पर अधिकारों के हनन को खत्म करने के लिये, हम हिन्दोस्तानी संघ के स्वेच्छा पर आधारित पुनर्गठन की मांग करते हैं, ताकि हर राष्ट्र को इसमें शामिल होने या न होने का अधिकार होगा।
“हम राजनीतिक प्रक्रिया में मूलभूत बदलाव की मांग करते हैं ताकि पार्टियों के राज की व्यवस्था खत्म करके, अपने-अपने क्षेत्रों में समितियों में संगठित लोग अपना राज स्थापित कर सकें। मत देने के अधिकार के साथ-साथ हम उम्मीदवारों के चयन की प्रक्रिया में शामिल होना चाहते हैं और निर्वाचित सदस्यों को किसी भी समय वापस बुलाने का अधिकार चाहते हैं।
“जो लोग यथास्थिति चाहते हैं और जो लोग इस व्यवस्था में मूलभूत बदलाव चाहते हैं, उनके बीच एक घमासान संघर्ष विकसित हो रहा है। इस महान संघर्ष में कौन विजयी होगा, वह निश्चित करेगा कि हिन्दोस्तानी संकट-ग्रस्त मौजूदा व्यवस्था कायम रहेगी या अपना देश संकट से निकल कर सभ्यता के महामार्ग पर अग्रसर होगा।
“हमारी पार्टी का दृष्टिकोण मज़दूर वर्ग का दृष्टिकोण है, जो मेहनतकश लोगों की बहुसंख्या को सत्ता में लाने की इच्छुक है, ताकि हिन्दोस्तानी समाज के लिये जरूरी उपनिवेशवाद-विरोधी, सामंतवाद-विरोधी, साम्राज्यवाद-विरोधी और पूंजीवाद-विरोधी क्रान्ति को पूरा किया जा सके। अतीत की विरासत को खत्म करने के लिये और एक उज्ज्वल भविष्य की नींव रखने के लिये, नवनिर्माण एक निर्णायक शर्त है।”

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