शुक्रवार, 5 सितंबर 2014

1857 की क्रांति को सलाम



समर्पित
यह वेबसाइट ( www.kranti1857.org )भारत के 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की 150वीं वर्षगाँठ पर महान शहीदों को सादर समर्पित है। राष्ट्र भाषा हिंदी में बनी इस वेबसाइट का उद्देश्य इस महान आंदोलन के बारे में देश व विदेशों में, अलग-अलग भाषाओ में बिखरी तथ्यपूर्ण जानकारी, चित्र, कविताएँ इत्यादि को आधुनिक तकनीकी के माध्यम से एक जगह पर एकत्रित करना है। इस वेबसाइट के माध्यम से 1857 की क्रांति के विषय पर एकत्रित यह जानकारी देश-विदेश में किसी भी स्थान पर उपलब्ध हो सकेगी तथा आने वाली पीढ़ियों को राष्ट्र भक्ति का यह संदेश दे सकेगी कि 1947 में वास्तविक स्वतंत्रता प्राप्त करने से पहले भी असंख्य देशभक्त्तों ने अपना बलिदान दिया था, तथा भारत के स्वतंत्रता के संघर्ष की नीव 1857 में ही पड़ गयी थी।
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झांसी की रानी के हुक्के पर लड़ाई

आगरा, जागरण संवाददाता। खूब लड़ी मर्दानी, वो तो झांसी वाली रानी थी..।' हर भारतवासी के मन-मस्तिष्क को कवियित्री सुभद्रा कुमारी चौहान की ये ऐतिहासिक पंक्तियां आज भी उद्वेलित कर देती हैं। लेकिन एक कलाकार की कल्पनाओं ने इतिहास से अलग नया विवाद खड़ा कर दिया है। विवाद का कारण एक स्केच है, जिसमें रानी लक्ष्मीबाई को हुक्का पीते हुए दर्शाया गया है।

पढ़ें: ब्रिटेन के दुश्मनों की सूची में टीपू-लक्ष्मीबाई

सन् 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम की नायिका झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की जयंती मंगलवार को है। पर, आगरा की भूमिका सिर्फ उनकी प्रतिमा और चित्रों पर माल्यार्पण करने तक सीमित नहीं है। रानी का पराक्रम और घटनाक्रम देखने वाली जुबां भले ही खामोश हो चुकी हैं, लेकिन इतिहास के पन्ने पलटते ही मुहब्बत की नगरी से वीरांगना के तार मजबूती से जुड़े दिखते हैं। ऐसे में एक ताजा घटनाक्रम ने आगरा के इतिहासविद् और प्रबुद्धजनों को थोड़ा बेचैन कर दिया है। मुंबई हाईकोर्ट में विवेक तांबे नाम के एक विधि छात्र ने कुछ माह पहले याचिका दायर की थी। खुद को झांसी की रानी के चचेरे भाई अनंत तांबे की पांचवीं पीढ़ी का बताने वाले विवेक ने याचिका में रानी लक्ष्मीबाई के कुलनाम सहित कई बिंदुओं को याचिका में शामिल किया है, लेकिन बखेड़ा मचा है एक तस्वीर पर।

विवेक ने एक किताब में छपे रानी लक्ष्मीबाई के स्केच पर आपत्ति जताई है। इसमें वीरांगना को हुक्का पीते हुए दिखाया गया है। याचिकाकर्ता का कहना है कि वह स्वतंत्रता संग्राम की तलवार उठाने वाली थीं, हुक्का-पान जैसे काल्पनिक चित्र रानी की छवि को खराब करने वाले हैं। यह उनके व्यक्तित्व से मेल नहीं खाते। हालांकि मुंबई हाईकोर्ट के जज वीएम कनाडे और जस्टिस केआर श्रीराम ने सुनवाई करते हुए कह दिया कि यह याचिका पीआइएल की तरह है और इसकी सुनवाई उपयुक्त बेंच में होनी चाहिए। इतिहासकारों के मुताबिक, पहले राजा-महाराजा अपने स्केच बनवाने के शौकीन हुआ करते थे। आगरा और मथुरा के कलाकार भी खास तौर पर उन्हीं के चित्र बनाते थे। लेकिन रानी झांसी के इस चित्र पर यहां के कलाकारों और लोगों को भी आपत्ति है।

१८५७ का १००० टन सोने का खजाना
दौंड़ियाखेड़ा।। किसी को सपने में कुछ चमत्कारिक या भविष्य दिखने या फिर देवी-देवताओं के प्रकट होकर कुछ कहने की कहानियां नई नहीं हैं। अब इन सपनों पर कितने लोग और कैसे भरोसा करते हैं, यह अलग बात है। लेकिन यूपी के उन्नाव जिले में एक साधु के सपने पर सरकार ने भरोसा कर लिया है। यह सपना है जमीन में दबे एक हजार टन से ज्यादा के सोने का। अब तो आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया को भी इस सपने में सचाई दिख रही है।

उन्नाव जिले के गौतम स्टेट के राजा रावराम बक्श सिंह के छिपे खजाने को निकालने के लिए अगले हफ्ते से खुदाई शुरू हो जाएगी। आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया ने दौंड़ियाखेड़ा गांव स्थिति टीले में दबे महल के खंडहरों में मार्किंग कर ली है। विशेषज्ञों को दस जगह सोने से भरा खजाना होने की जानकारी मिली है। आर्कियोलॉजी विभाग की कानपुर की टीम शनिवार को मौके पर पहुंच जाएगी।

सुनहरा सपना
शोभन सरकार नाम के इस साधु का कहना है कि उसके सपने में राजा रावराम बक्स सिंह आए थे। सपने में उन्होंने शोभन को बताया कि दौंडियाखेड़ा में उनके महल का जो अवशेष है, उसके नीचे एक हजार टन सोना दबा हुआ है। राजा ने सपने में शोभन से कहा कि वह खुदाई करके इस सोने को निकाल ले। गौरतलब है कि राजा रावराम बक्स सिंह ब्रिटिश शासन से लड़ते हुए 1857 में शहीद हो गए थे।

सरकार करेगी खुदाई
इस सपने के बाद शोभन ने स्थानीय प्रशासन, राज्य और केंद्र सरकार को इस बारे में जानकारी दी। शुरू में सभी ने इसे मजाक ही समझा, लेकिन बात किसी तरह केंद्रीय मंत्री चरण दास महंत तक पहुंची और उन्होंने इसे गंभीरता से लिया। इसके बाद उन्होंने महल वाली जगह का दौरा किया और इस बारे में प्रधानमंत्री, वित्त मंत्री, गृह मंत्री और अन्य संबंधित विभागों को लेटर लिखा।

अब आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया को भी इस सपने की सचाई के संकेत मिल रहे हैं। एएसआई के मनोज कुमार ने बताया कि उनकी टीम ने मौके पर जाकर सर्वे कर लिया है। शनिवार से उनकी टीम इलाके के प्रिजर्वेशन के लिए पहुंच रही है। इससे पहले टीम ने 3 अक्टूबर को महल के खंडहरों में जाकर दस जगहों पर मार्किंग की थी। विशेषज्ञों ने जांच में पाया कि जिन दस जगहों पर मार्किंग की गई है वहां पर दस से बीस मीटर खुदाई करने पर हाइली कंडक्टिव मैटेरियल (सोना या चांदी) मिलने की संभावना है। विशेषज्ञों के मुताबिक जो मैग्नेटिव फ्रीक्वेंसी उनको इस इलाके में मिली है वह एक हजार टन से भी ज्यादा के मैटेरियल के होने की है।

एएसआई ने खुदाई के लिए मांगी सुरक्षा
लखनऊ में शुक्रवार को इस दबे हुए खजाने को लेकर आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के अधिकारियों की बैठक हुई। बैठक में तय हुआ कि जहां पर खुदाई होनी हें वहां पर सुरक्षा के कड़े इंतजाम किए जाएं। सीसीटीवी कैमरे भी लगवाए जाएं। खुदाई के दौरान कुछ अवशेष भी मिल सकते हैं। एएसआई के अधिकारियों ने उन्नाव जिला सुरक्षा का बंदोबस्त करने को कह दिया है।

दिक्कतें भी हैं
जिस इलाके में खजाने की खुदाई होनी है वह गंगा का किनारा है। टीम का अनुमान है कि यहां पर भू जल स्तर 7-8 फुट पर होगा। ऐसे में खुदाई के दौरान दिक्कत हो सकती है। हालांकि मार्क की गई जगहों में कुछ नदी से दूर भी हैं। लेकिन ज्यादातर इलाके गंगा के किनारे से महज चंद मीटर की दूरी पर ही है।


'मारो फिरंगियों को' के नारे से गूंज उठा था ये शहर

धर्मेद्र चंदेल, ग्रेटर नोएडा। 1857 दिन रविवार। मेरठ में तैनात ईस्ट इंडिया कंपनी की थर्ड कैवेलरी, 11वीं और 12वीं इन्फेंट्री के ब्रिटिश जवान पारंपरिक चर्च परेड में हिस्सा लेने वाले थे। गर्मी का मौसम था इसीलिए परेड आधे घंटे की देरी से शुरू होनी थी। इस परेड में अंग्रेज सैनिक निहत्थे हुआ करते थे।

राइफल में इस्तेमाल के लिए गाय व सूअर की चर्बी से बने कारतूस दिए जाने को लेकर इस इन्फेंट्री में तैनात भारतीय जवानों में गुस्सा 6 मई से ही था। 90 भारतीय जवानों को ये कारतूसें दी गई थीं और इनमें से 85 में इनका इस्तेमाल करने से इन्कार कर दिया था। नतीजा यह हुआ कि इनका कोर्ट मार्शल किया गया और इन्हें आजीवन कारावास की सजा दी गई। उसी दिन भारतीय जवानों ने बगावत का मन बना लिया। इन जवानों ने सोच-समझ कर रविवार का दिन चुना क्योंकि इन्हें मालूम था कि अंग्रेज सैनिक निहत्थे चर्च परेड में जाएंगे। लेकिन आधे घंटे की देरी की जानकारी उन्हें नहीं थी। लिहाजा वे बैरक में रखे हथियार व कारतूसों पर तो कब्जा नहीं जमा पाए लेकिन कई अफसरों को मौत के घाट जरूर उतार दिया। अंग्रेज सैनिकों ने खुद की और हथियारों की रक्षा जरूर की लेकिन भारतीय जवानों का सामना नहीं कर पाए। इधर ये क्रांतिकारी हिंदुस्तानी सैनिक आजीवन कारावास में कैद अपने साथियों को छुड़ाकर 'मारो फिरंगियों को' के नारे बुलंद करने लगे। इससे पहले कि अंग्रेज बहादुर और उनके सैनिक कुछ समझ पाते इन सैनिकों का यह जत्था दिल्ली के लिए रवाना हो गया। महत्वपूर्ण यह है कि मेरठ में इतना बड़ा कांड हो चुका था लेकिन शहर में आमतौर पर शांति थी और किसी को इस पूरे वाकये का ठीक-ठीक पता भी नहीं

एक विभाजन रेखा थी यह क्रांति

1857 के स्वतंत्रता संग्राम पर काम करने वाले मेरठ निवासी ललित दूबे बताते हैं कि हिंदुस्तानी सैनिकों ने मई की रात विक्टोरिया जेल तोड़कर अपने 85 सैनिकों को रिहा कराकर कच्चे रास्ते से दिल्ली की ओर कूच किया। यह कच्चा रास्ता और बैरक आज भी बरकरार है। उन्होंने बताया कि तब मेरठ से दिल्ली के लिए सड़क नहीं बनी थी। सैनिकों ने छोटा रास्ता अपनाया। सैनिक कच्चे रास्ते से मोहिद्दीनपुर, मोदीनगर, गाजिउद्दीनपुर से बागपत में यमुना पुल पार करके दिल्ली पहुंच गए। दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास के प्राध्यापक डॉ. विजय काचरू का कहना है कि यह क्रांति इतिहास की एक विभाजन रेखा है। इसे केवल सैन्य विद्रोह नहीं कह सकते। क्योंकि जिन लोगों ने दिल्ली कूच किया वह समाज के हर वर्ग से आए थे। यह व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह था। इस विद्रोह के बाद भारतीय और अंग्रेज दोनों की विचारधारा में परिवर्तन आया। भारतीय और राष्ट्रवादी हुए और अंग्रेज और प्रतिरक्षात्मक। दादरी क्षेत्र के जिन क्रांतिकारियों को अंग्रेजों ने फांसी पर लटकाया था, उनके नाम का शिलालेख दादरी तहसील में लगा हुआ है। यहां एक छोटा स्मारक भी बना है। यहां राव उमराव सिंह की मूर्ति दादरी तिराहे पर लगी है। इसके अलावा, शहीदों का कोई चिन्ह जिले में शेष नहीं बचा है।

ऊंट पर लाकर नवाबों को शहर में किया कैद

जमीर सिद्दीकी, कानपुर। 1857 के गदर में 10 मई को मेरठ के ज्वाला की आग जब कानपुर पहुंची तो कई नवाब यहां से लखनऊ चले गए। जिन्हें बाद में अंग्रेज गिरफ्तार करके ऊंट पर बिठाकर कानपुर ले आए और मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया। सामान कुर्क कर उन्हें कैद कर लिया। 1अक्टूबर 1896 में सैयद कमालुद्दीन हैदर ने अपनी पुस्तक तारीख-ए-अवध में लिखा है कि नवाब दूल्हा हाता पटकापुर में एक मेम मारी गईं। इस जुर्म में अंग्रेजों ने नवाब दूल्हा और उनके भांजे नवाब मौतमुद्दौला को गिरफ्तार कर लिया। इसके बाद नवाब निजामुद्दौला, नवाब बाकर अली खां लखनऊ चले गए। अंग्रेजों ने नवाबों को लखनऊ में गिरफ्तार किया और उन्हें ऊंट से कानपुर लाकर अदालत के सामने पेश किया। नवाबों के घर का सारा सामान कुर्क कर उन्हें कैद कर लिया। इस सदमे में नवाब बाकर खां के बेटे की मौत हो गई।

हैवलाक ने 3000 लोगों को फांसी दी

वरिष्ठ उर्दू पत्रकार डॉ. इशरत अली सिद्दीकी ने बताया कि इलाहाबाद से कत्लेआम करते हुए जनरल हैवलाक की फौज बकरमंडी स्थित सूबेदार के तालाब पर पहुंची तो अहमद अली वकील और कुछ महाजनों ने जनरल का स्वागत किया। लेकिन अंदर ही अंदर वे अंग्रेजों के खिलाफ रणनीति तैयार करते रहे। उन्होंने बताया कि जनरल हैवलाक की फौज ने 3000 लोगों को फांसी दी। बड़ी करबला नवाबगंज में सबील के लिए लगाए गए अहमद अली वकील के कारखास राना को अंग्रेजों ने पकड़ लिया तो राना ने पूछा कि मेरा कसूर क्या है। जनरल हैवलाक ने कहा कि तुम्हें तीसरे दिन फांसी देंगे। तुम्हारी कौम हमारे बेगुनाह लोगों को मार रही है।

दरियागंज ने भी अंग्रेजों से लिया था लोहा

जागरण संवाददाता, नई दिल्ली। 1857 के मुगलिया सल्तनत दिल्ली में 10 मई के बाद हालत पूरी तरह से बेकाबू हो गए थे। बागी सैनिकों और आम जन का आक्रोश चरम पर था। यमुना पार करके दिल्ली पहुंचे विद्रोही सैनिकों की टुकड़ियों ने दरियागंज से शहर में प्रवेश करना शुरू कर दिया था।

यमुना नदी (दरिया) के करीब होने कारण इस जगह का नाम दरियागंज पड़ा। दरियागंज से हथियारों से लैस बागी सैनिक नारे लगाते जा रहे थे। फौजियों को आता देख पहले तो अंग्रेज छिप गए लेकिन कुछ ने मुकाबला किया। दरिया गंज की गलियों और भवनों में हुई मुठभेड़ में दोनों ओर से लोग घायल हुए और मारे गए। इस दौरान अंग्रेजों के घरों में आग लगा दी गई। कुछ अंग्रेज भागकर बादशाह के पास पहुंचे और पनाह कीे गुहार की। लेकिन दिल्ली के हालात बेकाबू थे।

बागी सैनिकों और आम जन का गुस्सा चरम पर था। ऐसे भी प्रमाण हैं कि अंग्रेजों के नौकर भी उन दिनों विद्रोह में शामिल हुए थे। लाल किले के दक्षिण में बसाई गई दरिया गंज पहली बस्ती थी। यहां पर आम लोग नहीं रहते थे। यह जगह धनी वर्ग के लिए थी यहां नवाब, सूबेदार और पैसे वाले रहा करते थे। किले के समीप इस बस्ती में शानदार कोठियां और बंगले बने थे। कुछ के अवशेष अब भी देखे जा सकते हैं।

1803 में जब अंग्रेज अपनी फौज के साथ दिल्ली पहुंचे तो किले के पास ही नदी के किनारे अपना डेरा जमाया और इसे छावनी का रूप दिया। इसलिए यह भी कहा जा सकता है कि दरियागंज दिल्ली में अंग्रेजों की सबसे पहली छावनी थी। और शायद इसीलिए बागियों ने इसके महत्व को समझ कर इसे निशाना भी बनाया। इस संबंध में प्रसिद्ध इतिहासकार इरफान हबीब का कहना है कि शाहजहांनाबाद की दीवार से दरियागंज लगा था।

इसका नाम दरियागंज कब पड़ा इसकी बारे में जानकारी नहीं है लेकिन यह जगह भी 1857 में प्रभावित थी। 1857 की क्रांति पर पुस्तकों का संपादन करने वाले मुरली मनोहर प्रसाद सिंह का कहना है कि उस दौर में दरियागंज में आतंक का माहौल था। अंग्रेजों द्वारा आसपास के इलाके से मुस्लिम आबादी हटा दी गई थी। अजमेरी गेट, कश्मीरी गेट,तुर्कमान गेट आदि जगहों से भी अंग्रेजों ने मुस्लिम बस्तियों को उजाड़ दिया था।

1857 के महान क्रांतिकारी

रानी लक्ष्मी बाई झांसी की रानी लक्ष्मी बाई का जन्म वाराणसी में 19 नवम्बर 1835 में हुआ था। बचपन में उनका नाम मणिकर्णिका था। सब उनको प्यार से मनु कह कर पुकारा करते थे। उनके पिता का नाम मोरपंत व माता का नाम भागीरथी बाई था जो धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थी। उनके पिता ब्राह्‌मण थे। सिर्फ़ 4 साल की उम्र में ही उनकी माता की मृत्यु हो गई थी इसलिये मनु के पालन पोषण की जिम्मेदारी उनके पिता पर आ गई थी।

नाना साहब नाना साहब का जन्म 1824 में महाराष्ट्र के वेणु गांव में हुआ था। बचपन में इनका नाम भोगोपंत था। इन्होंने 1857 की क्रांति का कुशलता पूर्वक नेतृत्व किया। नाना साहब सुसंस्कृत, सुन्दर व प्रभावशाली व्यक्तित्व के धनी थे। नाना साहब मराठों में अत्यंत लोकप्रिय थे। इनके पिता का नाम माधव राव व माता का नाम गंगाबाई था।

तात्या टोपे 1857 की क्रांति के इस महानायक का जन्म 1814 में हुआ था। बचपन से ही ये अत्यंत सुंदर थे। तांत्या टोपे ने देश की आजादी के लिये हंसते-हंसते प्राणो का त्याग कर दिया। इनका जन्म स्थल नासीक था। इनके बचपन का नाम रघुनाथ पंत था। ये जन्म से ही बुद्धिमान थे। इनके पिता का नाम पांडुरंग पंत था। जब रघुनाथ छोटे थे उस समय मराठों पर पेशवा बाजीराव द्वितीय का शासन था।

बाबु कुंवर सिंह : बाबू कुंवर सिंह का जन्म 1728 ई. में जगदीशपुर ( बिहार ) में हुआ था। ये अन्याय विरोधी व स्वतंत्रता प्रेमी थे। बाबू कुंवर सिंह कुशल सेना नायक, व महा मानव थे। इनके पिता का नाम साहबजादा सिंह था।

मंगल पाण्डे मंगल पांडे 1857 की क्रांति के महानायक थे। ये वीर पुरुष आज़्ाादी के लिये हंसते-हंसते फ़ंासी पर लटक गये। इनके जन्म स्थान को लेकर शुरू से ही वैचारिक मतभेद हैं। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि इनका जन्म जुलाई 1827 में उत्तर प्रदेश (बालिया) जिले के सरयूपारी (कान्यकुब्ज) ब्राह्मण परिवार में हुआ। कुछ इतिहासकार अकबरपुर को इनका जन्म स्थल मानते हैं।

बहादुर शाह जफ़र:बहादुर शाह जफ़र का जन्म 24 अक्टूबर, 1775 कोदिल्ली में हुआ था। इनकी माता का नाम लाल बाई व पिता का नाम अकबर शाह ( द्वितीय ) था। 1837 को ये सिंहासन पर बैठे। ये मुगलों के अंतिम सम्राट थे। जब ये गद्‌दी पर बैठे उस समय भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी का राज था। इनको शायरीबेहद पसंद थी। ये उर्दू के जाने माने शायर थे व इनके दरबार में भी कई बडे़ शायरों को आश्रय दिया जाता था।

बेगम हजरत महल : बेगम हजरत महल 1857 की क्रांति की एक महान क्रांतिकारी महिला थी। एक ब्रितानी इतिहासकार ने उन्हें नर्तकी बताया है। यह अवध के नवाब वाजिद अली शाह की बेगम बन गई। उनमें अनेक गुण विद्यमान थे। 1857 की क्रांति का व्यापक प्रभाव कानपुर, झांसी, अवध, लखनऊ, दिल्ली, बिहार आदि में था।

मौंलवी अहमद शाह : मौलवी अहमद शाह 1857 के एक प्रमुख नेता, कुशल योद्धा व देश भक्त थे। ये फ़ैजाबाद नगर के मौलवी थे। ये फ़ैजाबाद के साधारण तालुकेदार थे और आजादी के लिये सदा तड़पते रहे। 1847 में वाजिद अली शाह अवध के नवाब बने। उनकी राजधानी लखनऊ थी। उनके शासन में हिन्दू-मुसलमान बड़े प्रेम से रहते थे।

अजीमुल्ला खाँ:अजीमुल्ला खाँ 1857 की क्रांति के आधार स्तंभो में से थे। उन्होंने नाना साहब द्युद्यूपंत के साथ मिलकर क्रांति की योजना तैयार की थी नाना साहब ने इनके साथ भारत के कई तीर्थ स्थलों की यात्रा भी की व क्रांति का संदेश भी फै़ लाया।

अमरचंद बांठिया ग्वालियर राज्य के कोषाध्यक्ष अमर शहीद अमरचंद बांठिया ऐसे देशभक्त महापुरुषों में से थे, जिन्होंने 1857 के महासमर में जूझ कर क्रांतिवीरों को संकट के समय आर्थिक सहायता देकर मुक्ति-संघर्ष के इतिहास में अपना नाम अमर कर लिया।

एक क्रांति जिसे इतिहास ने गाया नहीं भारत का इतिहास बताता हैं की प्रथम संग्राम की ज्वाला मेरठ की छावनी में भड़की थी किन्तु इन ऐतिहासिक तथ्यों के पीछे एक सचाई गुम है, वह यह कि आजादी की लड़ाई शुरू करने वाले मेरठ के संग्राम से भी 15 साल पहले बुन्देलखंड की धर्मनगरी चित्रकूट में एक क्रांति का सूत्रपात हुआथा।
पवित्र मंदाकिनी के किनारे गोकशी के खिलाफ एकजुट हुई जनता ने मऊ तहसील में अदालत लगाकर पांच फिरंगी अफसरों को फांसी पर लटका दिया। इसके बाद जब-जब अंग्रेजों या फिर उनके किसी पिछलग्गू ने बुंदेलों की शान में गुस्ताखी का प्रयास किया तो उसका सिर कलम कर दिया गया। इस क्रांति के नायक थे आजादी के प्रथम संग्राम की ज्वाला के सीधे-साधे हरबोले। संघर्ष की दास्तां को आगे बढ़ाने में महिलाओं की ‘घाघरा पलटन’ की भी अहम हिस्सेदारी थी।आजादी के संघर्ष की पहली मशाल सुलगाने वाले बुन्देलखंड के रणबांकुरे इतिहास के पन्नों में जगह नहीं पा सके, लेकिन उनकी शूरवीरता की तस्दीक फिरंगी अफसर खुद कर गये हैं। अंग्रेज अधिकारियों द्वारा लिखे बांदा गजट में एक ऐसी कहानी दफन है, जिसे बहुत कम लोग जानते हैं।
गजेटियर के पन्ने पलटने पर मालूम हुआ कि वर्ष 1857 में मेरठ की छावनी में फिरंगियों की फौज के सिपाही मंगल पाण्डेय के विद्रोह से भी 15 साल पहले चित्रकूट में क्रांति की चिंगारी भड़क चुकी थी। दरअसल अतीत के उस दौर में धर्मनगरी की पवित्र मंदाकिनी नदी के किनारे अंग्रेज अफसर गायों का वध कराते थे। गौमांस को बिहार और बंगाल में भेजकर वहां से एवज में रसद और हथियार मंगाये जाते थे। आस्था की प्रतीक मंदाकिनी किनारे एक दूसरी आस्था यानी गोवंश की हत्या से स्थानीय जनता विचलित थी, लेकिन फिरंगियों के खौफ के कारण जुबान बंद थी।कुछ लोगों ने हिम्मत दिखाते हुए मराठा शासकों और मंदाकिनी पार के ‘नया गांव’ के चौबे राजाओं से फरियाद लगायी, लेकिन दोनों शासकों ने अंग्रेजों की मुखालफत करने से इंकार कर दिया। गुहार बेकार गयी, नतीजे में सीने के अंदर प्रतिशोध की ज्वाला धधकती रही। इसी दौरान गांव-गांव घूमने वाले हरबोलों ने गौकशी के खिलाफ लोगों को जागृत करते हुए एकजुट करना शुरू किया। फिर वर्ष 1842 के जून महीने की छठी तारीख को वह हुआ, जिसकी किसी को उम्मीद नहीं थी। हजारों की संख्या में निहत्थे मजदूरों, नौजवानों और महिलाओं ने मऊ तहसील को घेरकर फिरंगियों के सामने बगावत के नारे बुलंद किये। तहसील में गोरों के खिलाफ आवाज बुलंद हुई तो बुंदेलों की भुजाएं फड़कने लगीं।देखते-देखते अंग्रेज अफसर बंधक थे, इसके बाद पेड़ के नीचे ‘जनता की अदालत’ लगी और बाकायदा मुकदमा चलाकर पांच अंग्रेज अफसरों को फांसी पर लटका दिया गया। जनक्रांति की यह ज्वाला मऊ में दफन होने के बजाय राजापुर बाजार पहुंची और अंग्रेज अफसर खदेड़ दिये गये। वक्त की नजाकत देखते हुए मर्का और समगरा के जमींदार भी आंदोलन में कूद पड़े। दो दिन बाद 8 जून को बबेरू बाजार सुलगा तो वहां के थानेदार और तहसीलदार को जान बचाकर भागना पड़ा। जौहरपुर, पैलानी, बीसलपुर, सेमरी से अंग्रेजों को खदेड़ने के साथ ही तिंदवारी तहसील के दफ्तर में क्रांतिकारियों ने सरकारी रिकार्डो को जलाकर तीन हजार रुपये भी लूट लिये। आजादी की ज्वाला भड़कने पर गोरी हुकूमत ने अपने पिट्ठू शासकों को हुक्म जारी करते हुए क्रांतिकारियों को कुचलने के लिए कहा। इस फरमान पर पन्ना नरेश ने एक हजार सिपाही, एक तोप, चार हाथी और पचास बैल भेजे, छतरपुर की रानी व गौरिहार के राजा के साथ ही अजयगढ़ के राजा की फौज भी चित्रकूट के लिए कूच कर चुकी थी। दूसरी ओर बांदा छावनी में दुबके फिरंगी अफसरों ने बांदा नवाब से जान की गुहार लगाते हुए बीवी-बच्चों के साथ पहुंच गये। इधर विद्रोह को दबाने के लिए बांदा-चित्रकूट पहुंची भारतीय राजाओं की फौज के तमाम सिपाही भी आंदोलनकारियों के साथ कदमताल करने लगे। नतीजे में उत्साही क्रांतिकारियों ने 15 जून को बांदा छावनी के प्रभारी मि. काकरेल को पकड़ने के बाद गर्दन को धड़ से अलग कर दिया। इसके बाद आवाम के अंदर से अंग्रेजों का खौफ खत्म करने के लिए कटे सिर को लेकर बांदा की गलियों में घूमे।काकरेल की हत्या के दो दिन बाद राजापुर, मऊ, बांदा, दरसेंड़ा, तरौहां, बदौसा, बबेरू, पैलानी, सिमौनी, सिहुंडा के बुंदेलों ने युद्ध परिषद का गठन करते हुए बुंदेलखंड को आजाद घोषित कर दिया। जब इस क्रांति के बारे में स्वयं अंग्रेज अफसर लिख कर गए हैं तो भारतीय इतिहासकारों ने इन तथ्यों को इतिहास के पन्नों में स्थान क्यों नहीं दिया?सच पूछा जाये तो यह एक वास्तविक जनांदोलन था क्योकि इसमें कोई नेता नहीं था बल्कि आन्दोलनकारी आम जनता ही थी इसलिए इतिहास में स्थान न पाना बुंदेलों के संघर्ष को नजर अंदाज करने के बराबर है|

 
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(सन्दर्भ- राजस्थान पत्रिका, अहमदाबाद)
दिनांक: 29 नवम्बर 2009,
प्रस्तुति: श्री गुलाबचन्द जी कोठारी
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राष्ट्रमण्डल खेलों पर खर्च 'पाप'
संदर्भ - राजस्थान पत्रिका
10 अक्टुबर 2009, पेज- 1
नई दिल्ली 7 अक्टूबर ऐजेनसी - पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के निकट रहे वरिष्ठ कांग्रेसी नेता और पूर्व केन्द्रीय मंध्त्री मणीशंकर अययर ने कहा है कि राष्ट्रमण्डल खेलों पर सरकार का अरबों रूपए की धनराशि खर्च करना सिर्फ फिजूल खर्ची नहीं, बल्कि पाप है।
अययर ने मशहूर चित्रकार इलूश जज अहलुवालिया के बनाए चित्रों गार्डन सांग का उदघाटन करने के बाद एक समाचार एजेंसी से बातचीत में कहा कि भारत जैसे गरीब देश में जहां आधी आबादी के पास रोटी कपडा और मकान जैसी बुनियादी चीजें नहीं हैं सरकार सिर्फ 10-15 दिनों के खेलों को आयोजित कराने पर अरबों रूपए पानी की तरह बहा रही हैं अगर इस धनराशि का उपयोग जन कल्याण कार्यों के लिए किया जाए तो लाखों करोडों नागरिकों को फायदा होगा। यह सब दूसरे देशों को दिखाने के लिए किया जा रहा है।
उन्होंने कहा कि देश में भले ही कितना विकास हो जाए और आर्थिक वृद्धि दर कितनी बढ जाए लेकिन इस सबका फायदा सिर्फ मुठठी भर अमीर लोगों को ही हो रहा हैं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मानव विकास सूचकांक पैमाने पर भार का 1994 में 134वां स्थान था और आज भी भारत उसी स्थान पर हैं।
उन्होंने कहा कि अगले साल जिस समय राष्ट्रमण्डल खेल होंगे उस दौरान वह विरोध स्वरूप गांधीजी के आश्रम में बैठेंग

A letter published in DNA (Ahmedabad, Aug 13, 2010)
Is the Commonwealth relevant In 21st century?

Congratulations on publishing "Britain needs to show contrition about the Raj's depredations (DNA, August 10, by Rajeev Srinivasan). Actually when CWG is in such a mess, a question arises: if Commonwealth as relevant in the 21st century? As per Wikipedia, "The Commonwealth of Nations, usually known as the British Commonwealth, is an intergovernmental organisation of 53 independent member states. Most of them were formerly parts of the British Empire. They co-operate within a framework of common values and goals, as outlined in the Singapore Declaration. These include the promotion of democracy, human rights, good governance, the rule of law, individual liberty, egalitarian-ism, free trade, multilateralism, and world peace.

Actually looking at the history of Britishers, one feels that the Commonwealth seems to have been created by Britishers to maintain their influence on these countries even after their independence, in an intelligent and diplomatic way, through these high sounding words. So that everything looks normal and good. However, the concept itself means that wealth of all these countries is common. It would mean use of wealth of one country by other countries who were slaves of Britishers. Essentially, it would mean that Britishers can have a right on the wealth of these countries. And these countries need not be asked to return the money which they have looted. The estimate of $10 trillion is only the current value of items looted from India. If we combine the total from all 53 countries then this will be much higher.

A serious look into last couple of years will give one some interesting observations. The UK and their various organisations have carried out various "Goodwill developing" exercises in the past through various Indian organisations. Thus as soon as the budget for commonwealth games was increased, Britain made an announcement that it supports move for India to become a member of the UN Security Council. (The budget was presented on July 6, 2009 and Britain expressed support for India two-three days later). When Pak-trained terrorists attacked Taj Hotel, British prime minister visited India and Pakistan. What for? Just to make us realise that England is still acting as big brother! About 10 small countries or states viz. Pitcairn, Kaman island, Falkland, Tuckers and Kakos, Gibraltar, Manter-serat, Bermuda, Anguilla, British virgin Island, Cent Helena are still slaves of or are under their control. Why and what for? If they are serious about Commonwealth, then they should return all the things which they have looted in the past 300 years or so from these 53 countries and which are lying in their museums and secret warehouses, and also as personal collections. Recently, when Indians demanded Kohinoor, the British PM denied it. Why? Is it not against the spirit of COMMON + WEALTH?

However, in this era of 21st century, does it make a sense to carry over the past memory of slavery with us by associating with this organisation? Does it have any relevance except for serving the interest of Britain to continue to make these countries realise that they were its slaves in the past? Except for these games, what this organisation has done for our country, say at the time of war with China and Pakistan or at the time of flood or drought?

Actually, a book entitled "Freedom of India - A big Hoax" by Ram Narayanan in 1970, (enclosed herewith) shows the history of Commonwealth and the original ideas so much so that unfortunately even our great leaders gave tremendous importance to this organisation at the time of independence. It is interesting to note that if one searches for the phrase "Relevance of Commonwealth in today's world" in Google, then one finds several sites. There are many links which show that this agency is not relevant now and/or should be modified. In many cases, surveys have been conducted to know whether this agency is relevant now and people in some countries have openly come out against it Hence, there is a need to start a healthy academic debate and a survey to find out people's opinion in our country about the relevance of this agency in the modern era. Particularly, when India is moving towards becoming a superpower, it does not make much sense to continue with commonwealth any longer.

— Dr Surendra Singh Pokharna, Ahmedabad




British Queen and Indian Kings
Many Indian sports dignitaries are participating in the Queen’s Baton Relay, as a part of Commonwealth Games . One observes that when all Kings and Queens in our country have been reduced to ordinary citizens by taking away their privy purses and also by taking away their titles (the party which is governing the country has done it quite recently through a decision that all kings and ancient rulers will not be allowed to use their titles of past in the party). Why then, we should continue to sing songs of the British queen and her message given through this Baton. This is very unfortunate that our kings and queens have lost the respect but we are honouring a queen of the country, who had kept us slaves for around 250 years. Is it not a symbol of our mental slavery and colonialism? It is also important to note the effect loosing the privy purses of our kings and queens on our culture and society. As they have lost majority of their property and also their incomes were stopped, they were forced to sell their properties and belongings, most of which were converted into Hotels or/and items were sold out which were purchased by foreigners. So many valuable items of these kings and queens which reflect our culture and traditions have gone out.
But the mere fact that Britishers are maintaining the respect for their Queen along with Democracy should be viewed in a broader perspective, because their queen represents their history and culture. But we have never thought of this issue while taking away privy purses of our Kings and Queens. Can we learn something from this ?
Surendra Singh Pokharna
B-71, Pruthvi Towers,
Jodhpur Char Rasta,
Ahmadabad

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