गुरुवार, 16 फ़रवरी 2012

बीते वर्ष2011 के परिवर्तनों पर एक नज़र


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वर्ष २०११ अपने समस्त उतार-चढ़ाव के साथ समाप्त हो गया। पिछले वर्ष विश्व के पूर्वी देश उत्तरी कोरिया से लेकर सबसे पश्चिमी देश अमेरिका में बहुत गहरे परिवर्तन हुए और इसी कारण पिछले वर्ष को एक अलग वर्ष के रूप में याद किया जा रहा है। इस बीच मध्यपूर्व का स्ट्रैटेजिक क्षेत्र विस्तृत पैमाने पर होने वाले परिवर्तनों का केन्द्र रहा। टयूनीशिया, मिस्र और लीबिया के तानाशाहों का पतन और कई अरब देशों में जनता का सड़कों पर आ जाना अप्रत्याशित घटनाएं थीं जिनकी वर्ष २०१० के अंतिम सप्ताहों में अंतर्राष्ट्रीय स्तर का कोई विश्लेषक भी भविष्यवाणी नहीं कर सकता था और किसी को भी इन बातों व घटनाओं की अपेक्षा नहीं थी। पिछले वर्ष की सबसे प्रभावी एवं महत्वपूर्ण घटना यह थी कि मध्यपूर्व के अरब देशों की जनता पश्चिम का समर्थन प्राप्त अपने-२ देशों के तानाशाहों के विरुद्ध उठ खड़ी हुई जिनमें से कुछ प्रदर्शन अब भी जारी हैं। इन जनप्रदर्शनों का दायेरा उत्तरी अफ्रीका के देश टयूनीशिया, मिस्र ,मोरक्को, अलजीरिया और लीबिया से लेकर भूमध्य सागर तथा फार्स की खाड़ी और ओमान सागर तक फैला हुआ था। सऊदी अरब, जार्डन, कुवैत, बहरैन, यमन और दूसरे अरब देशों को जनप्रदर्शनों का सामना करना पड़ा है। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि इन परिवर्तनों की गति के संबंध में पूरे विश्व में किसी को अपेक्षा नहीं थी। अमेरिका की विदेशमंत्री हिलेरी क्लिंटन ने पिछले वर्ष ११ फरवरी को अर्थात जिस दिन मिस्र के पूर्व तानाशाह हुस्नी मुबारक सत्ता से अलग हुए थे, मिस्र में होने वाले परिवर्तनों के संबंध में एक सप्ताह के भीतर तीन बार अपने देश का कूटनैतिक दृष्टिकोण बदला। मिस्र के हज़ारों लोग जब क़ाहेरा के अत्तहरीर स्कावर पर एकत्रित हो गये थे तो अमेरिका ने हुस्नी मुबारक से सुधार की मांग की और जब उसने यह देखा कि मिस्री जनता अत्तहरीर स्क्वायर से हटने का नाम नहीं ले रही है तो उसने हुस्नी मुबारक से सत्ता से अलग हो जाने मांग की। यह ऐसी स्थिति में था जब अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा परिवर्तन के नारे के साथ मध्यपूर्व की यात्रा पर आये थे परंतु अमेरिकी राष्ट्रपति के परिवर्तन की मांग वर्ष २०११ में होने वाले परिवर्तनों से बहुत कम थी। अमेरिका, अरब देशों की तानाशाही व्यवस्थाओं में अधिक से अधिक राजनीतिक सुधार की मांग कर रहा था। उसका मानना था कि मिस्र में सत्ता हुस्नी मुबारक के स्थान पर उसके बेटे जमाल मुबारक और लीबिया में क़ज़्ज़ाफी के स्थान पर उसके बेटे सैफुल इस्लाम के हवाले करने का बेहतरीन समय है। इसी तरह अमेरिका अरब देशों और अवैध ज़ायोनी शासन के मध्य जारी विवाद के समाधान के लिए दो सरकारों के गठन को इस विवाद का समाधान समझता था। इसी प्रकार अमेरिका बहरैन में जारी जनांदोलनों के समाधान के लिए वहां की तानाशाही सरकार की निगरानी में चुनाव आयोजित किये जाने को पर्याप्त समझता था। सऊदी अरब के तानाशाह मलिक अब्दुल्लाह ने एक ऐसे विश्व विद्यालय की स्थापना कर दी थी जिसमें सरकार विरोधी एवं सरकार समर्थक छात्र प्रवेश ले सकें और इसी प्रकार मलिक अब्दुल्लाह ने राष्ट्रीय स्तर की वार्ता भी आरंभ कर दी थी जिसे अमेरिका का प्रोत्साहन प्राप्त था और वाशिंग्टन मलिक अब्दुल्लाह को सुधारक व्यक्ति कहता था और इराक़ को वह अरब जगत में डेमोक्रेसी का आरंभिक बिन्दु मानता था परंतु वर्ष २०११ में होने वाले परिवर्तनों के बाद जमाल मुबारक और सैफुल इस्लाम को सत्ता सौंपने की आशा पर पानी फिर गया। सऊदी अरब के तानाशाह मलिक अब्दुल्लाह, जिन्हें अमेरिका सुधारक कहता था, अरब देशों में जारी जनांदोलनों को दमन करने वाली सेना के कमांडर बन गये। बहरैन की तानाशाही सरकार के स्थान पर लोकतांत्रिक सरकार का गठन इस देश की जनता की मांग में परिवर्तित हो गया। ये सब घटनायें एसी वास्तविकता पर बल देती हैं जिसका इंकार नहीं किया जा सकता है और वह वास्तविकता यह है कि किसी को भी तानाशाही सरकारों के विरुद्ध होने वाले प्रदर्शनों एवं उसके परिणामों की अपेक्षा नहीं थी।
अपदस्थ ट्यूनीशियाई तानाशाहपश्चिम का समर्थन व आशीर्वाद प्राप्त सरकारों के पतन का शुभारंभ टयूनीशिया से हो गया। टयूनीशिया वह देश है जिसके बारे में कहा जाता था कि दूसरे अरब देशों की अपेक्षा वहां सबसे अधिक सुधार कार्य हुए हैं और वहां शिक्षा एवं विकास का स्तर अधिक है किन्तु टयूनीशिया की यही विशेषता पचास वर्षों से दो तानाशाहों हबीब बू रक़ीबाह और ज़ैनुल आबेदीन बिन अली की सरकारों से लोगों के अधिक अवगत होने के कारण में परिवर्तित हो गयी। ज़ैनुल आबेदीन बिन अली की तानाशाही एवं भ्रष्ठ सरकार की समाप्ति के लिए टयूनीशियाई जनता के दबे क्रोध को एक चिनगारी की आवश्यकता थी। यह चिनगारी वर्ष २०११ से कई दिन पहले अर्थात १७ दिसंबर वर्ष २०१० को उस समय फूट निकली जब टयूनीशिया के मोहम्मद बू अज़ीज़ी नाम के युवा ने स्वयं को आग लगा ली। अधिक व बुरी तरह जल जाने के कारण इस युवा की चार जनवरी २०११ को मृत्यु हो गयी। मोहम्मद बू अज़ीज़ी विश्व विद्यालय से शिक्षा प्राप्त एक छात्र था जो कोई रोज़गार न होने के कारण सब्ज़ी बेचता था। उसने जब यह देखा कि पुलिस वाले अपने अपमान जनक व्यवहार से उसे सब्ज़ी बेचने की भी अनुमति नहीं दे रहे हैं तो उसने अपने जीवन के अंतिम समाधान स्वयं को आग लगा लेना ही समझा। उस जवान के शरीर से आग की निकली लपटों ने पूरे टयूनीशिया के लोगों को अपनी लपेट में ले लिया। टयूनीशिया के क्रोधित लोग सड़कों पर आ गये यहां तक कि उनका आपत्तिजनक प्रदर्शन राष्ट्रपति भवन के आस- पास पहुंच गया। ज़ैनुल आबेदीन बिन अली ने लोगों के क्रोध की ज्वाला से स्वयं को सुरक्षित रखने के लिए १४ जनवरी वर्ष २०११ को टयूनीशिया से भाग कर सऊद परिवार की शरण में आ गया। इस प्रकार टयूनीशिया से महाजनांदोलन का आरंभ हुआ जो बाद में इस्लामी जागरुकता के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
टयूनीशिया से ज़ैनुल आबेदीन बिन अली की तानाशाही सरकार के गिरने के प्रभाव बड़ी तेज़ी से मिस्र पहुंच गये। मिस्र के लोगों ने इंटरनेट आदि के माध्यम से टयूनीशिया की जनक्रांति से लाभ उठाया और वहां उन्होंने हुस्नी मुबारक की तानाशाही सरकार के विरुद्ध क्रांति आरंभ कर दी जो बाद में फरवरी क्रांति के नाम से प्रसिद्ध हुई। मिस्र में हुस्नी मुबारक ने अपनी तानाशाही सरकार को बचाने के लिए हर संभव प्रयास किया परंतु वह इसमें सफल न हो सका। हुस्नी मुबारक सोचता था कि अपने बेटे जमाल के नेतृत्व में कुछ गुंडों को भेजकर भय व आतंक का वातावरण उत्पन्न करके अपनी सत्ता को बचा लेगा। हुस्नी मुबारक की तानाशाही सरकार से थक चुके लोगों व प्रदर्शन कारियों ने क़ाहेरा के अत्तहरीर स्क्वायर को अपनी मांग स्थल में परिवर्तित कर दिया और मिस्री सुरक्षा बलों के आक्रमण तथा दसियों लोगों के मारे जाने के बाद अंततः ३३ वर्षों से सत्तासुख भोग रहे हुस्नी मुबारक को सत्ता से हटने पर बाध्य कर दिया। हुस्नी मुबारक दूसरा तानाशाह था जिसकी तानाशाही सरकार का अंत हो गया जबकि उसे डेमोक्रेसी एवं आज़ादी का दम भरने वाली पश्चिमी सरकारों का पूर्ण समर्थन व आशीर्वाद प्राप्त था।
लीबिया उत्तरी अफ्रीका का तीसरा देश था जहां इस्लामी जागरुकता की लहर ने क़ज़्ज़ाफ़ी की तानाशाही सरकार का अंत कर दिया। कर्नल कज़्ज़ाफी स्वयं को अफ्रीकी राजाओं का राजा और लीबिया को इस्लामी जागरुकता से प्रभावित मध्यपूर्व के देशों से अलग समझता था। कर्नल क़ज़्ज़ाफ़ी यह सोचता था कि तेल के डालरों और भयावह सुरक्षा तंत्र के माध्यम से वह लोगों की आपत्ति की आवाज़ की अनदेखी करके चार दशक पुरानी अपनी तानाशाही सरकार को बाक़ी रख सकता है परंतु क़ज़्ज़ाफ़ी की अपेक्षा के विपरीत उसकी तानाशाही सरकार के विरुद्ध आपत्ति व प्रदर्शन का दायरा दिन प्रतिदिन विस्तृत होता गया और हज़ारों लोगों की हत्या से यह प्रदर्शन न केवल रुका नहीं बल्कि लीबिया में अमेरिका की अगुवाई में ब्रिटेन और फ्रांस के हस्तक्षेप का मार्ग प्रशस्त हो गया। इन तीनों देशों ने लीबिया के जनांदोलन को अपने हितों के अनुसार दिशा निर्देशित किया और क़ज़्ज़ाफ़ी के अंत के बाद इसे देश के तेल स्रोतों पर वर्चस्व जमाने का बेहतरीन अवसर समझा। इसी दिशा में अमेरिका और उसके युरोपीय घटकों ने सुरक्षा परिषद में एक प्रस्ताव पारित करवाया जिससे क़ज़्ज़ाफी की तानाशाही सरकार के विरुद्ध सैनिक कार्यवाही का मार्ग प्रशस्त हो गया। इस आधार पर अमेरिका और नैटो में उसके घटकों ने सात महीनों तक लीबिया पर आक्रमण करके और क़ज़्ज़ाफ़ी विरोधियों को लैस करके त्रिपोली में सत्ता के गिरने की भूमि समतल कर दी। लीबिया पर नैटो के हवाई आक्रमणों से इस देश की बहुत सी आधारभूत संरचनाएं नष्ट हो गयीं। लोगों के घर और लीबिया की आधारभूत संरचनाएं इस प्रकार तबाह हुईं कि लीबिया की अंतरिम परिषद के कमांडर जनरल अब्दुल फत्ताह युनुस ने कहा कि हम नहीं चाहते कि नैटो आक्रमण करे, उसने क्यों आवासीय घरों और आधार भूत संरचनाओं को लक्ष्य बनाया है? त्रिपोली पर नियंत्रण हो जाने के एक महीने पश्चात क़ज़्ज़ाफ़ी का अंतिम ठिकाना सेर्त नगर भी उसके हाथ से निकल गया और उसका अंत मिस्र और टयूनीशिया के अपदस्त तानाशाहों से भी बुरा हुआ। क़ज़्ज़ाफी का अंत बहुत ही कटु रहा। उसके अंत से विश्ववासी यह जान लें कि संसार लोभी व्यक्ति का अंत कैसा होता है।
चौथा देश जिसके तानाशाह की शक्ति का महत्वपूर्ण भाग लोगों के दबाव के कारण क्षीण हो चुका है, तानाशाही अंत के कगार पर है और यह देश उत्तरी अफ्रीक़ा में नहीं बल्कि ओमान सागर के किनारे स्थित है। अली अब्दुल्लाह सालेह ने वर्ष १९७८ से सत्ता की बाग़डोर अपने हाथ में ले रखी है उसने लोगों की हत्या और प्रदर्शनकारियों को धमकी देने के पश्चात सत्ता से अलग होने का वादा किया और अंततः सत्ता को चरणबद्ध ढंग से हस्तांतरित करने को स्वीकार कर लिया। अली अब्दुल्लाह सालेह विदित में अब तक सत्ता में बना हुआ है परंतु वास्तविकता यह है कि वह मध्यपूर्व का चौथा तानाशाह है जिसकी तानाशाही का इस्लामी जागरुकता के कारण अंत होने वाला है। वर्ष २०११ यह वर्ष पश्चिम का समर्थन प्राप्त तानाशाही सरकारों के पतन के आरंभ का वर्ष है और यह प्रक्रिया वर्ष २०१२ में भी जारी है। मध्यपूर्व में इस्लामी आंदोलन सत्ता में पहुंचे और पहुंच रहे हैं ताकि वे सरकार के नये स्वरुप को पेश कर सकें। सरकार के इस प्रारुप में इस्लामी शिक्षाओं के परिप्रेक्ष्य में डेमोक्रेसी और आज़ादी उनका मूल लक्ष्य है। इस परिवर्तन की ज्वाला अभी शांत नहीं हुई है और वह अभी जारी है यहां तक कि क्षेत्र के दूसरे तानाशाहों को भी अपनी लपटों से जला देगी। मध्यपूर्व के वर्तमान वातावरण में बहरैन, सऊदी अरब, क़तर, कुवैत, जार्डन और मोरक्को वे देश हैं जिन्हें टयूनीशिया और मिस्र से उठने वाली जनचेतना का गम्भीर रूप से सामना है। ख़लीफ़ा और सऊद परिवार अब लोगों की हत्या और दमन को जारी नहीं रख सकते। मध्यपूर्व की पिछले एक वर्ष की घटनाओं ने सिद्ध कर दिया है कि शक्ति के आधार पर लोगों पर शासन नहीं किया जा सकता।

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