#सूक्
अश्विन कुमार तिवारी
'सूक्त' शब्द 'सु' उपसर्गपूर्वक 'वच्' धातुसे 'क्त' प्रत्यय करनेपर व्याकृत होता है। 'सूक्त' शब्दका अर्थ हुआ--' अच्छी रीतिसे कहा हुआ'। वैदिक मन्त्रोंके पूर्व निश्चित विशिष्ट मन्त्रसमूह ही सूक्त कहे जाते हैं, जो वेदमन्त्रसमूह एकदैवत्य और एकार्थ- प्रतिपादक हो, उसे सूक्त कहा जाता है। “बृहद्देवता' ग्रन्थमें ' सूक्त' शब्दका निवर्चन इस प्रकार किया गया हे--' सम्पूर्ण ऋषिवाक्यं तु सूक्तमित्यभिधीयते' सम्पूर्ण ऋषिवचनोंको सूक्त कहते हैं।
“बृहद्देवता' ( १। १६ )-में चार प्रकारके सूक्तोंका वर्णन प्राप्त होता है। जैसे--( १ ) देवता-सूक्त, (२) ऋषि-सूक्त, ( ३ ) अर्थ- सूक्त और (४) छन्दः-सूक्त--
देवताषार्थछन्दस्तो वैविध्यं च प्रजायते। ऋषिसूक्त तु यावन्ति सूक्तान्येकस्य चै स्तुतिः ॥
श्रूयन्ते तानि सर्वाणि ऋषेः सूक्तं हि तस्य तत्। यावदर्थसमाप्तिः स्यादर्थसूक्तं वदन्ति तत्॥ समानछन्दसो याः स्युस्तच्छन्दः सूक्तमुच्यते। वैविध्यमेवं सूक्तानामिह विद्याद्यथायथम्॥ अभिप्राय यह कि किसी एक ही देवताको स्तुतिमें जितने सूक्त पर्यवसित हों, उन्हें 'देवता-सूक्त' तथा एक ही ऋषिकी स्तुतिमें जितने सूक्त प्रवृत्त हों, उन्हें “ऋषि-सूक्त' कहा जाता है। समस्त प्रयोजनोंकी पूर्ति जिस सूक्तसे होती हो, उसे ' अर्थ-सूक्त' कहते हैं और एक ही प्रकारके छन्द जिन सूक्तोंमें प्रयुक्त हों, उन्हें 'छन्दः- सूक्त' कहा जाता है। सामान्यतः सूक्त दो प्रकारके माने जाते हैं--( १ ) क्षुद्रसूक्त और (२) महासूक्त। जिन सूक्तोंमें कम-से-कम तीन ऋचाएँ हों, उनको ' क्षुद्रसूक्त' कहते हैं तथा जिन सूक्तोंमें तीनसे अधिक ऋचाएँ हों, उन्हें 'महासूक्त' कहते हैं। इन सूक्तोंके जप एवं पाठकी अत्यधिक महिमा बतायी गयी है। इनके जप-पाठसे सभी प्रकारके आध्यात्मिक, आधिदैविक एवं आधिभौतिक क्लेशोंसे मुक्ति मिलती है। व्यक्ति परम पवित्र हो जाता है और अन्तःकरणकी शुद्धि होकर पूर्वजन्मकी स्मृतिको प्राप्त करता हुआ वह जो भी चाहता है, उसे वह मनोऽभिलषित अनायास ही प्राप्त हो जाता है-एतानि जप्तानि पुनन्ति जन्तूञ्जातिस्मरत्वं लभते यदीच्छेत् ॥(अत्रि६।५)इन सूक्तोंका जप करनेपर ये प्राणियोंको पवित्र कर देते हैं !सूक्त चार भागो में विभाजित है
१ पंंचदेव सूक्त २ अन्य देव सूक्त
३ लोककल्याणकारीसूक्त ४आध्यात्मिक सूक्त
देवपरक वैदिक सूक्तोंमें इन्द्रादि भावाभिव्यंजक स्तुतियाँ है
✍🏻साभार
कई बार हम जटिल मशीन के कलपुर्जे देखते हैं, जब ये पुर्जे अलग अलग जगह बन रहे होते हैं तो अनावश्यक या महत्त्वहीन से दिखते हैं।
लेकिन बाद में इन्हें बारी बारी से जोड़कर मशीन बनती दिखती है तो बहुत जिज्ञासा होती है।
और जब मशीन का पूरा स्वरूप सामने आता है तो हमें आश्चर्य होता है।
और जब यह मशीन अपने परफेक्ट रूप में काम करती है तो हम चमत्कृत हो जाते हैं।
पाणिनि की अष्टाध्यायी पर विचार करते हैं।
इसे चार हजार सूत्रों में लिखा गया है।
इन चार हजार सूत्रों में लगभग 32000 अक्षरों और 10 हजार शब्दों का प्रयोग किया गया है।
पाणिनि अष्टाध्यायी 8 अध्याय और 32 चरणों(पाद) में विभक्त है।
पाणिनि ने इसे कम से कम अक्षरों में लिखना चाहा है जिससे कि उसे जल्दी से याद कर लिया जाए।
जब हमें सूत्र याद हो जाता है तो सिद्धांत भी याद हो जाता है।
संक्षिप्तिकरण के आग्रह ने इसे अत्यंत लघु ग्रंथ बना दिया। कहते हैं कि सूत्र रचना करते हुए यदि वैय्याकरण अर्ध मात्रा भी बचा लेता है तो इतना प्रसन्न होता है जैसे कि उसके घर पुत्रजन्म का उत्सव हो।
ये सभी सूत्र वास्तव में स्वयं में 4000 फॉर्मूले हैं जिनको उद्घाटित करने पर सम्पूर्ण वैदिक, लौकिक संस्कृत खुल जाती है।
सूत्र मतलब वही है जो गणित में होते हैं, असंदिग्ध रूप से स्वयं में पूर्ण और सम्पूर्ण प्रमेय का अल्पाक्षरो में प्रकटीकरण।
और अष्टाध्यायी असंदिग्ध रूप से स्वयं में परिपूर्ण है।
अर्थात इसमें एक भी अक्षर कम ज्यादा नहीं किया जा सकता।
एक भी अक्षर!!
इतना ही नहीं, इन अक्षरों, सूत्रों को स्थानांतरित भी नहीं किया जा सकता।
यानि, आप 426 वा सूत्र 427 की जगह नहीं रख सकते।
पाणिनि ने कोई बात कही पहले अध्याय में लेकिन वह खुलती है जाकर 7वे अध्याय में।
मुझे नहीं पता कि इसे कम्प्यूटर या गणितीय भाषा में क्या कहते हैं, जैसे किसी काम को करने की 100 विधियां हैं लेकिन एक विधि ऐसी होगी जो सबसे छोटी होगी, तो यहाँ भी वैसा ही है।
व्याकरण विधियों में यह ऐसा है कि जो पाणिनि ने किया उसका कोई विकल्प नहीं।
आधुनिक वैज्ञानिक मानते हैं कि इतनी एक्यूरेसी से ऐसी रचना बिना कम्प्यूटर के सम्भव नहीं।
मशीन में तो फिर भी संभावना रहती है कि कोई पुर्जा कम कर दो या बाहर थोड़ा बहुत परिवर्तन कर दो, और नहीं तो रंग रोगन, डेकोरेशन या मुहर छाप ही लगा दो लेकिन पाणिनि अष्टाध्यायी में इसकी कोई गुंजाइश नहीं।
वह परफेक्ट मशीन है। न रिपेयर चाहिए न सर्विसिंग।
आज से ढाई हजार वर्ष पहले, यह लिखा गया, जिसमें एक भी त्रुटि नहीं, एक भी विकल्प नहीं, एक भी अपवाद नहीं। यदि कोई अपवाद आ भी रहा था तो उसके लिए अलग से सूत्र बनाकर उसका निराकरण किया लेकिन अपूर्णता नहीं रहने दी। वास्तव में तो उनका व्याकरण 400 सूत्रों में ही 90% पूर्ण हो गया था, बाकी सब जो लिखा गया है वह उन्हीं अपवादों के नियमीकरण के लिए लिखा गया।
आज यदि कोई ऐसी रचना करना चाहे तो यह एक जीवन में पूर्ण हो जाये ऐसा सम्भव नहीं लगता।
और कुछ लोग मिलकर यह कार्य करें, यह भी सम्भव नहीं लगता क्योंकि प्रथम अध्याय में जो चल रहा है वह सातवें में जाकर क्या चमत्कार करने वाला है, यह तो रचनाकार ही बता सकता है, दूसरा तो भांप भी नहीं सकता।
सब कुछ इतना सही है, इतना व्यवस्थित है, इतना क्रमबद्ध है कि यह अलग अलग व्यक्तियों या विभिन्न चरणों में लिखी गई रचना हो ही नहीं सकती।
हमें यदि कोई फ़िल्म की कहानी भी समझनी है तो हमें समय चाहिए, घटनाओं का क्रम चाहिए, उनका तारतम्य चाहिए और बाद में उन सभी घटनाओं को एक साथ जोड़ने की प्रोसेसिंग भी आनी चाहिए।
लेकिन पाणिनि का दिमाग ऐसा है कि वे जैसे पहले से ही पूरी बात जानते हो।
यह वैसा ही है जैसे कोई तीन घण्टे की फ़िल्म एक ही समय में, एक ही बार में पूरी देख रहा हो।
संस्कृत व्याकरण पढ़ने वाले जानते हैं कि यह क्या है?
बिना सुपर पावर के, कम से कम मनुष्य के लिए तो यह असम्भव लगता है।
अष्टाध्यायी को आप चरणबद्ध नहीं समझ सकते। आपको इसे रटना होगा। याद करना होगा। जब यह सम्पूर्ण कंठस्थ हो जाये तो गुरु इसका रहस्य खोलेगा।
बिल्कुल वैसे, जैसे आपने पिन एंटर किया, लॉक खोला और सामने स्क्रीन पर विभिन्न app आपका इंतजार कर रही हैं।
कंठस्थ कर लो, फिर थोड़े से परिश्रम से ही सारी अष्टाध्यायी धड़ाधड़ करते हुए समझ में आ जायेगी।
कहते हैं "अष्टाध्यायी यदि कंठस्थ है तो भाष्य (व्याख्या) की जरूरत ही नहीं क्योंकि तब तत्क्षण ही समझ में आ जाएगी और अष्टाध्यायी कंठस्थ नहीं है तो भी भाष्य (में परिश्रम करना) व्यर्थ है, क्योंकि तब कुछ भी समझ नहीं आएगा।"
अष्टाध्यायी यदि कंठस्था,
वृथा भाष्ये परिश्रमम्।
अष्टाध्यायी यदि #अकण्ठस्था,
वृथा भाष्ये परिश्रमम्।।
यह वैसा ही है जैसे कि बांध का किवाड़ खोल दिया गया हो।
आप 3 वर्ष तक अष्टाध्यायी को कंठस्थ करने में लगाओ, बाद में तीन दिन में समझ जाओगे कि यह क्या कहना चाहती है।
लेकिन उससे पहले, अंतिम सूत्र के याद होने तक, आपको कुछ भी समझ में नहीं आएगा।
भारतीय विद्याओं को प्राप्त करने की प्रायः यही पद्धति रही है।
इसलिए इंग्लिश मीडियम से व्याकरण पढ़ने वाले, जिन्हें स,श,ष भी लिखना नहीं आता, जब व्याकरण पर बात करते हैं, थीसिस लिखते हैं और शोध का दावा करते हैं, सिवाय हँसी के और कुछ नहीं।
जब कोई कहता है "मैं कुछ संस्कृत व्याकरण जानता हूँ!" इसका मतलब है वह कुछ नहीं जानता।
संस्कृत व्याकरण में #कुछ_व्याकरण जैसा कुछ नहीं होता। या तो आप सारी व्याकरण जानते हैं या बिल्कुल नहीं जानते। इसके बीच की चीज यहाँ नहीं होती।
तो क्या पाणिनि के पास कोई कम्प्यूटर यंत्र था?
राजपोपट के षड्यंत्र के पीछे की मंशा क्या है?
इन प्रश्नों पर हम अगले लेख में (फिर कभी) विचार करेंगे।
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