रविवार, 20 मार्च 2022

माने दीवाली, नाग दीवाली और होली एक ही वार में पड़ती हैं।

 पञ्चाङ्ग गणित का एक सूत्र है कि नाग फाग दिवाली होती एक ही वारी । 

माने दीवाली, नाग दीवाली और होली  एक ही वार  में पड़ती हैं।


फाल्गुने पूर्णिमायां तु होलिकापूजनं मतम् ।। -७६ ।।


संचयं सर्वकाष्ठानामुपलानां च कारयेत् ।।

तत्राग्निं विधिवद्ध्रुत्वा रक्षोघ्नैर्मंत्रविस्तरैः ।। -७७ ।।


"असृक्पाभयसंत्रस्तैः कृता त्वं होलि बालिशैः ।।

अतस्त्वां पूजयिष्यामि भूते भूतिप्रदा भव"।। -७८ ।।


इति मंत्रेण सन्दीप्य काष्ठादिक्षेपणैस्ततः ।।

परिक्रम्योत्सवः कार्य्यो गीतवादित्रनिःस्वनैः ।। -७९ ।।


संवत्सरस्य दाहोऽयं कामदाहो मतांतरे ।।

इति जानीहि विप्रेंद्र लोके स्थितिरनेकधा ।। -८१ ।

(श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पूर्वभागे बृहदुपाख्याने चतुर्थपादे द्वादशमासस्थितपौर्णमास्य मावास्याव्रतकथनं नाम चतुर्विंशत्यधिकशतमोऽध्यायः ।)


हुलि  है। 

हुलि होमेऽदने ।


रूप कितने ही हो जायें 

हुलि होली होरी ...


    होलाका प्राच्याभिमानिभिरनुष्ठीयते होलाका च वसन्तोत्सवविशेषः हुलीतिप्रसिद्धः ।


बर्मा/म्याँमार में Tagu माह में Thingyang उत्सव मनाया जाता है, नववर्षागमन जलक्रीड़ा के साथ।

✍🏻अत्रि विक्रमार्क अन्तर्वेदी 


होली-(क) शब्द का अर्थ- इसका मूल रूप हुलहुली (शुभ अवसर की ध्वनि) है जो ऋ-ऋ-लृ का लगातार उच्चारण है। आकाश के ५ मण्डल हैं, जिनमें पूर्ण विश्व तथा ब्रह्माण्ड हमारे अनुभव से परे है। इन मण्डलों के देवता हैं-स्वयम्भू -ब्रह्मा, परमेष्ठी या ब्रह्माण्ड-विष्णु, सौर मण्डल-इन्द्र, चान्द्र मण्डल (चन्द्र कक्षा का गोल)-सोम, पृथ्वी-अग्नि।

स ऐक्षत प्रजापतिः (स्वयम्भूः) इमं वा आत्मनः प्रतिमामसृक्षि। आत्मनो ह्येतं प्रतिमामसृजत। ता वा एताः प्रजापतेरधि देवता असृज्यन्त-(१) अग्निः (तद् गर्भितो भूपिण्डश्च), (२) इन्द्रः (तद् गर्भितः सूर्यश्च), सोमः (तद् गर्भितः चन्द्रश्च), (४) परमेष्ठी प्राजापत्यः (स्वायम्भुवः)-शतपथ ब्राह्मण (११/६/१/१२-१३)

स्वयम्भू -शतपथ बाह्मण (६/१/१/८), परमेष्ठी-वारि वा अप् रूप-शतपथ बाह्मण (६/१/१/९-१०), सूर्य त्रयी विद्या (श्रुतेः त्रीणि पदाः)-शतपथ बाह्मण (११/६/१/१), भूमण्डल भूपिण्डः-शतपथ बाह्मण (६/१/२/१), भूक्षेत्र-शतपथ बाह्मण (६/१/२/३), चन्द्र मण्डल-शतपथ बाह्मण (६/१/२/४)

 सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी का अनुभव होता है, जो शिव के ३ नेत्र हैं। इनके चिह्न ५ मूल स्वर हैं-अ, इ, उ, ऋ, लृ। शिव के ३ नेत्रों का स्मरण ही होली है। 

अग्निर्मूर्धा चक्षुषी चन्द्र सूर्यौ दिशः श्रोत्रे वाग्विवृताश्च वेदाः। (मुण्डक उपनिषद्, २/१/४)   

चन्द्रार्क वैश्वानर लोचनाय, तस्मै वकाराय नमः शिवाय (शिव पञ्चाक्षर स्तोत्र)

विजय के लिये उलुलय (होली) का उच्चारण होता है-

उद्धर्षतां मघवन् वाजिनान्युद वीराणां जयतामेतु घोषः। 

पृथग् घोषा उलुलयः एतुमन्त उदीरताम्। (अथर्व, ३/१९/६)

(ख) अग्नि का पुनः ज्वलन-सम्वत्सर रूपी अग्नि वर्ष के अन्त में खर्च हो जाती है, अतः उसे पुनः जलाते हैं, जो सम्वत्-दहन है-

अग्निर्जागार तमृचः कामयन्ते, अग्निर्जागार तमु सामानि यन्ति।

अग्निर्जागार तमयं सोम आह-तवाहमस्मि सख्ये न्योकाः। (ऋक्, ५/४४/१५)

यह फाल्गुन मास में फाल्गुन नक्षत्र (पूर्णिमा को) होता है, इस नक्षत्र का देवता इन्द्र है-

फाल्गुनीष्वग्नीऽआदधीत। एता वा इन्द्रनक्षत्रं यत् फाल्गुन्यः। अप्यस्य प्रतिनाम्न्यः। (शतपथ ब्राह्मण, २/१/२/१२)

मुखं वा एतत् सम्वत्सररूपयत् फाल्गुनी पौर्णमासी। (शतपथ ब्राह्मण, ६/२/२/१८)

सम्वत्सर ही अग्नि है जो ऋतुओं को धारण करता है-

सम्वत्सरः-एषोऽग्निः। स ऋतव्याभिः संहितः। सम्वत्सरमेवैतत्-ऋतुभिः-सन्तनोति, सन्दधाति। ता वै नाना समानोदर्काः। ऋतवो वाऽअसृज्यन्त। ते सृष्टा नानैवासन्। तेऽब्रुवन्-न वाऽइत्थं सन्तः शक्ष्यामः प्रजनयितुम्। रूपैः समायामेति। ते एकैकमृतुं रूपैः समायन्। तस्मादेकैकस्मिन्-ऋतौ सर्वेषां ऋतूनां रूपम्। (शतपथ ब्राह्मण ८/७/१/३,४)

जिस ऋतु में अग्नि फिर से बसती है वह वसन्त है-

यस्मिन् काले अग्निकणाः पार्थिवपदार्थेषु निवसन्तो भवन्ति, स कालः वसन्तः।

फल्गु = खाली, फांका। वर्ष अग्नि से खाली हो जाता है, अतः यह फाल्गुन मास है। अंग्रेजी में भी होली (Holy = शिव = शुभ) या हौलो (hollow = खाली) होता है। वर्ष इस समय पूर्ण होता है अतः इसका अर्थ पूर्ण भी है। अग्नि जलने पर पुनः विविध (विचित्र) सृष्टि होती है, अतः प्रथम मास चैत्र है। आत्मा शरीर से गमन करती है उसे गय-प्राण कहते हैं। उसके बाद शरीर खाली (फल्गु) हो जाता है, अतः गया श्राद्ध फल्गु तट पर होता है।

(ग) कामना-काम (कामना) से ही सृष्टि होती है, अतः इससे वर्ष का आरम्भ करते हैं-

कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत्। 

सतो बन्धुमसति निरविन्दन् हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषा॥ (ऋक् १०/१२९/४)

इस ऋतु में सौर किरण रूपी मधु से फल-फूल उत्पन्न होते हैं, अतः वसन्त को मधुमास भी कहते हैं-

(यजु ३७/१३) प्राणो वै मधु। (शतपथ ब्राह्मण १४/१/३/३०) = प्राण ही मधु है।

(यजु ११/३८) रसो वै मधु। (शतपथ ब्राह्मण ६/४/३/२, ७/५/१/४) = रस ही मधु है।

अपो देवा मधुमतीरगृम्भणन्नित्यपो देवा रसवतीरगृह्णन्नित्येवैतदाह। (शतपथ ब्राह्मण ५/३/४/३) 

= अप् (ब्रह्माण्ड) के देव सूर्य से मधु पाते हैं।

ओषधि (जो प्रति वर्ष फलने के बाद नष्ट होते हैं) का रस मधु है-ओषधीनां वाऽएष परमो रसो यन्मधु। (शतपथ ब्राह्मण २/५/४/१८) परमं वा एतदन्नाद्यं यन्मधु। (ताण्ड्य महाब्राह्मण १३/११/१७)

सर्वं वाऽइदं मधु यदिदं किं च। (शतपथ ब्राह्मण ३/७/१/११, १४/१/३/१३)

हम हर रूप में मधु की कामना करते हैं-

मधु वाता ऋतायते, मधु क्षरन्ति सिन्धवः। माध्वीर्नः सन्त्वोषधीः॥६॥

मधुनक्तमुतोषसो, मधुमत् पार्थिवं रजः। मधु द्यौरस्तु नः पिता॥७॥

मधुमान्नो वनस्पति- र्मधुमाँ अस्तु सूर्यः। माध्वीर्गावो भवन्तु नः॥८॥ (ऋक् १/९०)  

= मौसमी हवा (वाता ऋता) मधु दे, नदियां मधु बहायें, हमारी ओषधि मधु भरी हों। रात्रि तथा उषा मधु दें, पृथ्वी, आकाश मधु से भरे हों। वनस्पति, सूर्य, गायें मधु दें।

मधुमतीरोषधीर्द्याव आपो मधुमन्नो अन्तरिक्षम्। 

क्षेत्रस्य पतिर्मधुमन्नो अस्त्वरिष्यन्तो अन्वेनं चरेम॥ (ऋक् ४/५७/३)

= ओषधि, आकाश, जल, अन्तरिक्ष, किसान-सभी मधु युक्त हों।

(घ) दोल-पूर्णिमा-वर्ष का चक्र दोलन (झूला) है जिसमें सूर्य-चन्द्र रूपी २ बच्चे खेल रहे हैं, जिस दिन यह दोल पूर्ण होता है वह दोल-पूर्णिमा है-

यास्ते पूषन् नावो अन्तः समुद्रे हिरण्मयीरन्तरिक्षे चरन्ति।

ताभिर्यासि दूत्यां सूर्य्यस्य कामेन कृतश्रव इच्छमानः॥ (ऋक्, ६/५८/३)

पूर्वापरं चरतो माययैतै शिशू क्रीडन्तौ परि यन्तो अध्वरम् (सम्वत्सरम्) ।

विश्वान्यन्यो भुवनाभिचष्ट ऋतूरन्यो विदधज्जायते पुनः॥ (ऋक् १०/८५/१८)

कृष्ण (Blackhole) से आकर्षित हो लोक (galaxy) वर्तमान है, उस अमृत लोक से सूर्य उत्पन्न होता है जिसका तेज पृथ्वी के मर्त्य जीवों का पालन करता है। वह रथ पर घूम कर लोकों का निरीक्षण करता है-

आकृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यं च।

हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन्। (ऋक्, १/३५/२, यजु, ३३/४३)

(ङ) विषुव संक्रान्ति-होली के समय सूर्य उत्तरायण गति में विषुव को पार करता है। इस दिन सभी स्थानों पर दिन-रात बराबर होते हैं। दिन रात्रि का अन्तर, या इस रेखा का अक्षांश शून्य (विषुव) है, अतः इसे विषुव रेखा कहते हैं। इसको पार करना संक्रान्ति है जिससे नया वर्ष होली के बाद शुरु होगा।

✍🏻अरुण उपाध्याय


"होली / होला " का प्राचीन इतिहास - पुरातात्विक, ऐतिहासिक, साहित्यिक और ज्योतिष पक्ष


Forgotten Ancient History of Holi/Hola - Archaeological, Literary, Historical & Astronomical Aspects


होली भारत के मस्ती भरे त्यौहारों मे प्रथम स्थान पर आता है, जितनी रंगमस्ती इस त्योहार से जुडी है, उतना ही महान इस त्योहार का इतिहास भी है, बसंत ऋतु के फ़ाल्गुन महीने मे जब अर्जुन और पलाश वृक्ष फ़ूलों से लद जाते है, और कृषि पारायण भारत मे जब किसान की फसलें पक कर तैयार हो जाती है, किसान को खुश होने का अवकाश देने हेतु, तब ही फ़ाल्गुन की पूर्णिमा को होली मनाई जाती रही है, वसंत ऋतु मे पडने के कारण होली को वसंत उत्सव, मदन उत्सव आदि साहित्यिक नामों से भी जाना जाता है


होली वैदिक युग का दुर्लभ त्योहार है, सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि होली मनाने का सिलसिला जो वैदिक काल से शुरू हुआ, आज तक लगातार चलता ही जा रहा है, कभी रुका नही, हम सभी होलिका की पौराणिक कहानी जानते है, किन्तु उपलब्ध वैदिक साहित्य हमे इस मनोरंजक त्योहार के इतिहासिक संदर्भ की पर्याप्त जानकारी प्रदान करते है, और इन ऐतिहासिक तथ्यो के आधार पर कम से होली मनाने की परंपरा कम से कम ३५०० वर्ष पुरानी साबित होती है. होली के ऐतिहसिक पक्ष के स्त्रोत हमे - काठक गृह सुत्र, लौगाक्षी गृह सूत्र ( सभी ह्मारे पास उपलब्ध है) में होली के उद्धरणों से प्राप्त होते है, गृह सुत्रो का समय भी १००० से १२०० वर्ष ईषा पूर्व का है, हालांकि लोकमान्य तिलक एवं एक जर्मन विद्वान जकोबी ने नव विवाहित युगल द्वारा संध्या समय वशिष्ठ एवं अरुन्धति नक्षत्र दर्शन की गृह सूत्र प्रथा के आधार पर ज्य़ोतिषीय गणना कर के गृह सूत्रों का समय २३०० से २५०० वर्ष ईषा पूर्व निर्धारित किया है


अन्य मह्त्वपूर्ण स्त्रोतो मे गरूण पुराण, भविष्य पुराण तथा जैमिनी के पूर्व मीमांसा में भी होली के संदर्भ मिल जाते हैं



प्राचीनतम पुरातात्विक साक्ष्य


सौभाग्य से होलीकोत्सव का प्राचीनतम मौर्यकालीन (२५० - ३०० वर्ष ईसा पूर्व ) पुरातात्विक अभिलेख, विन्ध्य पर्वत माला के अन्तर्गत कैमूर की छोटी - छोटी पहाडियों के मध्य बसे हुये रामगढ जो कि छ्त्तीसगढ के अम्बिकापुर जिलॆ मे आता है, से प्राप्त हो गया है, कहने का अर्थ यह कि होली त्योहार मनाने का सिल्सिला अनवरत चालू है


ऐतिहासिक साक्ष्यों मे राजा हर्ष की रत्नावली (लगभग ६०० ईसवी) मे एवं दन्डिन की दश कुमार चरित (लगभग ८०० ईसवी) मे भी होलीकोत्सव का उल्लेख है.


होली नव वर्ष का त्य़ोहार है


भाषाविज्ञान के अनुसार "होली" शब्द "होला" शब्द से व्युत्पन्न है, जो कि पूर्णिमा के पश्चात भोर के ४ बजे की प्रथम होरा का समय है, स्प्ष्ट है कि "होला" से भी आशय पूर्णता के बाद प्रगति की ओर बढते हुए प्रथम उल्लास  होता है, ऋग्वेद से संबंधित ऐतरेय ब्राह्मण मे उदीच्य लोगो का उल्लेख है, ये उदीच्य लोग अपने स्थान को "होला" कहते रहे है, वर्तमान के गुजरात प्रदेश के पाटन क्षेत्र मे उदीच्य लोग बहुतायत से प्राप्त होते है, शब्दिक साम्य के आधार पर यदि कहे तो हो सकता है कि पाटन क्षेत्र मे होली की शुरुआत होई रही होगी, किन्तु अलग से कोई साक्ष्य प्राप्त नही होता है.


शतपथ ब्राह्मण ( ६.२.२.१८ ) मे कहा गया है कि, संवत्सर की प्रथम रात्रि फ़ाल्गुन मास की पूर्णिमा होती है, तात्पर्य यह कि, वैदिक संवत्सर होली से शुरु होता रहा है और होली नये वर्ष को मनाने का त्योहार हौ, इतना विशाल और रंगीन नया वर्ष शायद ही कही और, किसी और सभ्यता मे मनाया जाता रहा हो 


!! एषा ह संवत्सरस्य प्रथमरात्रिर्फ़ाल्गुनपूर्णमासी !! 

शतपथ ब्राह्मण ( ६.२.२.१८ )


ऐसे ही कथन हमे तांड्य महाब्राह्मण, गोपथ ब्राह्मण एवं तैत्तिरीय ब्राह्मण मे प्राप्त होते है, 


ज्योतिषीय गणना के आधार पर तो होली कम से कम २७,००० वर्ष पुराना त्योहार प्रतीत होता है, ज्योतिषीय गणना का आधार पुरा प्राचीन काल मे होली के समय होने वाला वसन्त संपात (Spring Equinox) है, जो कि पूर्व भाद्रपद नक्षत्र मे पडता था, जबकि आजकल वसन्त संपात उत्तर भाद्रपद नक्षत्र पर पडता है, तो प्रति वर्ष २० मिनट के हिसब से पिछ्ड्ते हुये अयनांश की गडना करने पर प्राचीन पूर्व भाद्रपद से आज के पूर्व भाद्रपद तक तक २६००० वर्ष हो जाते है, तथा इसके बाद ९७० वर्ष  उत्तर भाद्रपद के लिये और जोडने पर, लगभ्ग २७००० वर्षो की ऐतिहासिकता ज्ञात होती है.


यहा एक प्रश्न उठता है कि जब होली से चैत्र का नया महीना एवं साथ ही नया वर्ष भी शुरु हो जाता है, तब पंचागों मे १५ दिनो के बाद, चैत्र महीने के शुक्ल पक्ष से ही नया वर्ष क्य़ो मान्य किया गया है, बहुत अनुसंधान करने के पश्चात ज्ञात हुआ कि १५ दिनो का यह अंतर दो तरह की भारतीय महीनों की प्रथा के मध्य सामंजस्य स्थापित करने के लिये ऋषियो द्वारा किया गया है, भारत मे पूर्णमान्त अर्थात पूर्णिमा से पूर्णिमा पर समाप्त होने वाली एक पद्दधति एवं अमान्त अर्थात अमावस्या से अमावस्या पर समाप्त होने वाली दूसरी पद्दधति वैदिक काल से ही चलती रही है एवं दोनो ही पद्दधतियों के मध्या विवाद भी शुरू से ही रहा है, समस्या देखते हुये, संभवतः ऋषियों ने १५ दिनो के बाद शुरु होने वाले अमान्त चैत्र आधारित नव वर्ष एवं पूर्णिमान्त महीने के रूप में नवीन महीने के द्वारा विवाद का सर्वमान्य हल निकाल दिया होगा।

✍🏻ललित मिश्रा

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें