रविवार, 4 जुलाई 2021

अपनी पहचानकी तलाश में आदिवासी समुदाय

 मन को मिलाते लोकपर्व  / डॉ. रामदीन त्यागी



मध्य प्रदेश की संस्कृति विविधवर्णीय है। यहां किसी एक भाषा—संस्कृति का परचम नहीं है अपितु मध्य प्रदेश विभिन्न लोक और जनजातीय संस्कृतियों का समागम है। यहां एक तरफ पांच लोक संस्कृतियों (निमाड़, मालवा, बुंदेलखंड़, बघेलखंड और ग्वालियर) का समावेशी संसार है तो दूसरी और अनेक जनजातियों की आदिम संस्कृतियों का फलक पसरा हुआ है। वर्ष भर लगने वाले ये पर्व दिलों को जोडऩे का काम कर रहे हैं, प्रस्तुत है प्रमुख जनजातीय उत्सवों की जानकारी।


भगोरिया

मालवा क्षेत्र के भीलों का प्रिय उत्सव भगोरिया है। इसकी विशेष बात यह है कि इस पर्व में युवक—युवतियों को अपने जीवन साथी का चुनाव करने का अवसर मिलता है। भगोरिया हाट के दिन क्षेत्र भर से किसान, भील आदि सजधज कर तीन तलवारों से लेस होकर हाट वाले गांव में पहुंचते हैं। वहां मैदान में ये लोग डेरे लगाते हैं। हाट के दिन परिवार के बुजुर्ग डेरी में रहते हैं पर अविवाहित युवक—युवतियां हाथ में गुलाल लेकर निकलते हैं। कोई युवक जब अपनी पसन्द की युवती के माथे पर लगा देता है तो और लड़की उत्तर में गुलाल लड़के के माथे पर लगा देती है तो यह समझा जाता है कि दोनों एक दूसरे को जीवन साथी बनाना चाहते हैं। इस पूर्व स्वीकृति पर पक्की मोहर तब लग जाती है जब लड़की लड़के के हाथ से माजून (गुड और भांग) खा लेती है। यदि लड़की को रिश्ता मंजूर नहीं होता तो वह लड़के के माथे पर गुलाल नहीं लगाती ।

भगोरिया को केवल मानव ही नहीं, प्रकृति भी अपने संकेतों के साथ मनाती है। यह त्योहार उन्हीं लोगों के लिए है जो हड्डियों की मजबूती की परीक्षा प्रत्येक दिन श्रम करके लेते हैं। जिनके हृदय में कोमलता की एक धारा तो बहती है, लेकिन उस पर कठोर जीवनशैली का कवच भी होता है। इसे नारियल को प्रतीक बनाकर नहीं समझा जाना चाहिए, क्योंकि नारियल की अंदरूनी धारा व ऊपर की कठोरता के बीच स्वाद की मोटी परत मौजूदगी रहती है। इसे भूमिगत जल की एक पतली धारा के माध्यम से समझा जाना चाहिए। इस पतली—सी गुमनाम अदृश्य धारा के ऊपर सैकड़ों फुट मोटी कोरी मिट्टी व ठोस चट्टानों का पहाड़ मौजूद रहता है। भगोरिया इस पतली—सी कोमल धारा को धरती फोड़कर छूता है।

इसमें पाने की जो खुशी होती है वह किसी मुराद, किसी दैविक प्रसाद से कम नहीं होती। भगोरिया में मिल प्रेम ठीक वैसा ही होता है जैसे भूमिगत जल को गंगा मैया का प्रसाद मानकर लोग घर—आंगन में विराजित कर लेते हैं। भगोरिया ढीठता का प्रतीक नहीं, बल्कि इसका प्रसाद या तो मन्नत करके पाया जाता है या पुरुषार्थ का परिचय देकर प्राप्त किया जाता है। हजारों लोगों की उन्माद जगाती भीड़ में अपनी चाहत पर हाथ रख देना स्वयं पर व अपनी चाहत के समर्पण पर, अपने पुरुषार्थ पर विश्वास की पराकाष्ठा के बिना संभव नहीं होता।

भगोरिया केवल एक अवसर भर नहीं होता है लूट—खसोट कर लेने का, बल्कि यह एक जीवन की शुरूआत होता है, जिसका आधार प्रेम की वह बूंद होती है जो सदियों से बहा करती है। सुविधाओं की चाहत के बिना पूरी जिंदगी अभावों के हाथों सहर्ष सौंप देना। उफ्—आह—त्रास को नकार कर उस आनंद के एक क्षण में पूरा जीवन समेट देना भगोरिया है। इतनी जीवंतता होती है भगोरिया में कि सूरज ने कब अपना सफर पूरा कर लिया, पता ही नहीं चलता। लोकगीत ऐसे कि शब्द रचना समझ में न आए, तब भी कान उनसे जुड़े रहें। चेहरों के भाव ऐसे कि कैमरे को राहत का अवसर ही न मिले। श्रृंगार ऐसा कि उसमें प्राकृतिक सौंदर्य की विशेषता खोजने के लिए कोई अतिरिक्त प्रयास नहीं करना पड़े।

एक सप्ताह के इस आयोजन में पूरी जिंदगी की शर्ते, रिश्ते समेट लिए जाते हैं। हर रोज होने वाले भगोरिए में पूरे सप्ताह फिर उसी का इंतजार किया जाता रहता है। दिन उसे देखने में तो रातें नाचने—गाने में गुजर जाती हैं। होली की मस्ती से ठीक एक सप्ताह पहले शुरू होने वाला, भील संस्कृति को एक पहचान देने वाला भगोरिया दो भागों में बंटा होता है। एक भगोरिया मेला तो दूसरा भगोरिया त्योहार। एक का मूल स्वर अगर प्रेम पाने का प्रयास है तो दूसरे का स्वर आध्यात्मिकता में रच-बस जाने का है। दोनों साथ—साथ शुरू होते हैं। त्योहार तो उसी माह समाप्त हो जाते हैं लेकिन इन मेलों को जिसने आत्मसात कर लिया, वह फिर जन्म—जन्म तक उनसे बंधा रह जाता है। भगोरिया त्योहार प्राय:प्रौढ़ पुरुषों के नायकत्व का हिस्सा है। इसमें स्त्री की प्रत्यक्ष भागीदारी नहीं होती। वहीं भगोरिया मेला बिना नायिका के पूरा नहीं होता। एक अगर वैराग्य का स्वांग है तो दूसरा प्यार की अधीरता को अर्पित है। भगोरिए को त्योहार के रूप में मनाने वाले इन दिनों में अपने बदन को हल्दी से लेप कर रखते हैं। बदन का ऊपरी हिस्सा खुला रहता है। सिर पर साफा बांधा जाता है। हाथ में नारियल व कांच रहता है। भोजन एक समय करते हैं, वह भी हाथ से बनाकर। जीवन संगिनी से दूर रहकर कुछ आवश्यक साधना पूरी करते हैं। होली के बाद ये लोग गल देवता की विधि—विधान से पूजा करते हैं, मन्नत उतारते हैं। इस समय गांव के विशिष्ट लोग उपस्थित रहते हैं। गल देवता के मेले जुटते हैं।

मन्नतधारी व्यक्ति को गल देवता के ऊपर चढ़ाकर उसे हवा में गोल—गोल घुमाया जाता है। मन्नतें भी केवल व्यक्तिगत ही नहीं होतीं, बल्कि सामाजिक भी होती हैं, जैसे पानी अच्छा गिरे, फसलें अच्छी हों, परिवार के बीमार लोग ठीक हो जाएं, कर्जा समाप्त हो जाए आदि। इसके दौरान शराब व मांस दोनों का सेवन वर्जित होता है। मन्नतधारी व्यक्ति जमीन पर सोता है। जबकि मेले में शामिल होते हैं हजारों लोग। एक सप्ताह पहले से खुशबूदार साबुन, पावडर, जैसी सौन्दर्य सामग्री खरीदने का क्रम शुरू हो जाता है। नए कपड़ों की खरीददारी की जाती है। फिर निगाहें खोजती हैं किसी अपने को। लोकगीतों की धुनों व पंरपरागत वाद्यों, खासकर बांसुरियों की धुन पर थिरकते लोगों की टोलियां जब पारम्परिक पोशाकों के साथ मेले में आती हैं तो मन होली की मस्ती से झूमने लगता है।


गंगा दशमी

सरगुजा जिले में आदिवासियों और गैर आदिवासियों द्वारा खाने, पीने और मौज करने के लिए मनाया जाने वाला यह उत्सव जेठ (मई—जून) माह की दसवीं तिथि को पड़ता है। इसका नाम गंगा दशमी होने का एक कारण है कि हिन्दुओं में यह विश्वास है कि उस दिन पृथ्वी पर गंगा का अवतरण हुआ था। यह पर्व कर्मकांड से सीधा संबंध नहीं रखता। लोग इस दिन अपनी अपनी पत्नी के साथ नदी किनारे खाते—पीते नाचत—गाते और तरह—तरह के खेल खेलते हैं। इस प्रकार यह त्योहार जनजातीय समाज के देश के सनातन परंपरा से जुड़ाव का भी प्रतीक है। आमतौर पर आदिवासियों को सनातन वैदिक परंपरा से कटा दिखाने की कोशिशें होती हैं, परंतु यह त्योहार स्थापित करता है कि आदिवासी वास्तव में सनातनी ही हैं।


हर्यागोधा

किसानों के लिए इस पर्व का विशेष महत्व है। वे इस दिन अपने कृषि उपयोग में आने वाले उपकरणों की पूजा करते हैं। श्रावण माह की अमावस्या को यह पर्व मनाया जाता है। मंडला जिले यह इसी माह की पूर्णिमा को तथा मालवा क्षेत्र में अषाढ़ के महीने में मनाया जाता है। मालवा में इसे हर्यागोधा कहते हैं। स्त्रियां इस दिन व्रत रखती हैं।


मेघनाद

फाल्गुन के पहले पक्ष में यह पर्व गोंड आदिवासी मनाते हैं। इसकी कोई निर्धारित तिथि नही है। मेघनाद गोंडों के सर्वोच्च देवता हैं चार खंबों पर एक तख्त रखा जाता है जिसमें एक छेद कर पुन:एक खंभा लगाया जाता है और इस खंबे पर एक बल्ली आड़ी लगाई जाती है। यह बल्ली गोलाई में घूमती है। इस घूमती बल्ली पर आदिवासी रोमांचक करतब दिखाते हैं। नीचे बैठे लोग मंत्रोच्चारण या अन्य विधि से पूजा कर वातावरण बनाकर अनुष्ठान करते हैं। कुछ जिलों में इसे खंडेरा या खट्टा नाम से भी पुकारते हैं।


सोहराय

संतालों का प्रमुख पर्व सोहराय धान फसल के तैयार होने पर मनाया जाता है। पांच दिनों तक चलने वाले इस पर्व में प्रथम दिन सभी लोग नायके गोइटाँडी (बथान) में एकत्रित होते हैं। जोहरा ऐरा की पूजा कर मुर्गे की बलि दी जाती है। चावल—महुआ निर्मित हडिय़ा (एक प्रकार की शराब) चढ़ाया जाता है एवं माँझी के आदेश से उपस्थित जन समुदाय नाच—गान करते हैं। दूसरे दिन गोहाल पूजा और तीसरे दिन सुटाउ होता है। इसमें बैलों को सजाकर मध्य में बाँधकर उसके इर्द—गिर्द नाच—गान करते हैं। इस प्रकार यह त्योहार भी आदिवासियों के सनातन परंपरा से जुड़े होने का एक प्रबल प्रमाण है।

चौथे दिन लोग जाले में अपने—अपने घरों से खाद्यान्न लाकर एकत्रित करते हैं। सामूहिक भोज की तैयारी होती है। यह सब मोद—मंगल, नाच—गान माँझी की देखरेख में होता है। सोहराय के बाद साकरात आता है जिसमें समूह में शिकार किया जाता है। शिकार किये गए पशु—पक्षियों के मांस को उनके देवता मरांग बुरू को समर्पित करके सहभोज होता है। वर्षाकाल में बीज बोने का पर्व एरोक, खेतों की हरियाली के लिए हरियाड़ और अच्छी फसल के लिए जापाड़ नामक त्योगार मनाए जाते हैं। सभी पर्वों में बलि प्रदान एवं हडिय़ा अर्पित कर समूह नृत्य का आयोजन होता है। हो जनजाति होली, दीवाली, दशहरा आदि त्योहार भी मनाते हैं। देवताओं के महादेव की पूजा करते हैं। कृषि की उन्नति एवं प्राकृतिक आपदाओं से बचने के लिए माघी, वाहा, होरो, कोलोम, बेतौली इत्यादि पर्व भी स्थान विशेष पर मनाए जाते हैं।


करमा

उराँव जनजातियों में फागू, सोहराय, माघे, करमा इत्यादि प्रसिद्ध पर्व हैं। खद्दी, चांडी, जतारा आदि पर्व भी उराँव लोग मनाते हैं। सभी पर्व सामूहिक रूप से सरना स्थलों पर मनाए जाते हैं। माघ पूर्णिमा के अवसर पर होने चांड़ी पूजा में स्त्रियाँ भाग नहीं लेती हैं। चांड़ीथान में बलि प्रदान किया जाता है। जतरा पर्व अगहन जतरा, देवथान, जतरा, जेठ जतरा के नाम से समय—समय पर मनाया जाता है। संताल परगना में रहने वाली पहाडिय़ा आदिम जनजाति गाँगी आडय़ा, पनु आइया, ओसरा आइया क्रमश:मकई, बाजरा एवं घघरा फसलों के होने पर मनाते हैं। इन पर्व के अतिरिक्त हिन्दू पर्व-त्योहारों को भी पहाडिय़ा मनाने लगे हैं। इनके पर्व-त्योहारों में भी नाच-गान के बाद बलि देने की प्रथा है। पहाडिय़ा जनजाति के अन्य भाग माल एवं कुमार भाग के लोग भी इन्हीं पर्वों को कुछ फेर-बदल के साथ मानते हैं। मुंडा जनजाति सरहूल, सोहराय, बुरू, माफे, करम, फागू इत्यादि पर्व मनाते हैं। सरहूल मुंडाओं को बंसतोत्सव है। सखुआ वृक्ष के निकट लुटकुम बुढी एवं आनंद के साथ इस पर्व को मनाते हैं।

करमा मुंडाओं का प्रसिद्ध पर्व है। भादों माह में मनाया जाने वाला यह पर्व राज करम और देश करम के नाम से प्रसिद्ध है। पाहन के द्वारा सरना स्थल अखाड़ा पर पूजा के बाद नाच—गाना एवं सामूहिक भोज का आयोजन होता है। बुरूपर्व पहाड़ के पूजने का पर्व है। शिक्षा के बढ़ते प्रभाव एवं आवागमन के साधनों के चलते झारखण्ड की जनजातियों सरहूल करमा, सोहराय टूसु इत्यादि पर्व एक साथ मनाने लगी हैं। पर्वों—त्यौहारों पर आधुनिक बाजार एवं शहरी प्रभाव होने के बाद में जनजातियों द्वारा पर्व के मूल भाव को बचाने को प्रयास भी  हो रहा है।

✍🏻साभार भारतीय धरोहर


आली - आई लिगांग


असम के मूल जनजातियों मे से एक जनजाति है मीरी.... इन्हें मिशिंग भी कहा जाता है.... धार्मिक रूप से मिशिंग समुदाय प्रकृतिपूजक है ...लेकिन खुद को हिंदू धर्मावलम्बी के रूप में अपना परिचय देते हुए  वैष्णव धर्म को मानते हैं..... 


ये लोग दिव्य शक्तियों और प्राकृतिक शक्तियों के प्रति  श्रद्धा रखते हैं और पूजा अर्चना करते हैं... पहाड़ों में रहने वाले ये लोग अनेक देव - देवी तथा भूत - प्रेतों के प्रति आस्था रखते हैं..... 


आली आई लिगांग इनका सबसे प्रमुख त्योहार है.... यह त्योहार फाल्गुन मास के प्रथम बुधवार को मनाया जाता है...... यह एक कृषि उत्सव है.... इस उत्सव में खाद्य सामग्री और चाइमद(मदिरा) तैयार किया जाता है ...... खान -पान व नृत्य - गीत के साथ पूरे उत्साह से मनाया जाता है....


 इस उत्सव में चेदी मेली और दोन्यी- पोलो( sun - moon)आदि देवताओं की पूजा की जाती है...... इनका विश्वास है कि दोन्यी- पोलो सभी गति विधियों पर नजर रखता है.... सभी अच्छे बुरे कर्मों का निरीक्षण करता है.. हमारे दिशा निर्देशन करता है और दुष्ट शक्तियों से रक्षा करता है..... 


ये लोग आबो तानी अथवा पिता तानी को अपना पूर्वज मानते हैं..... मान्यता है कि तानी अलौकिक शक्ति युक्त महापुरुष थे.... वे पथप्रदर्शक और तेजसम्पन्न गुरु थे...


असम का मुख्य पर्व बोहाग बिहू .बोहाग वैशाख महीने का असमिया शब्द है ..इस बिहू को रोंगाली बिहू भी कहते हैं.


परंपरा है कि हम पर्व की शुरुआत गौ पूजन से करते हैं.बिहू का पहला दिन "गोरु बिहू " के नाम से जाना जाता है.गाय को हम गोरु कहते हैं.


आज के दिन हम सुबह में हम गाय को नदी या पुखुरी (तालाब) पर ले जाकर नहलाते हैं.यहाँ पर पूरा गांव अपनी अपनी गायों के साथ इकट्ठा होता है. बच्चे बूढ़े मा हल्दी के लेप से नहाते हैं.साबुन का इस्तेमाल नही होता. एक दिन पहले ही पतली पतली लचकदार लकड़ियों में लौकी(लाऊ), बेजोना(बैगन) , खुकरी आदि के छोटे छोटे टुकड़े माला की तरह गूंथ लिए जाते हैं.और गाय को नहलाकर बच्चो के साथ क्रीड़ा करते हुए गाते हैं- 


"लाऊ खा बेजोना खा दिने दिने बारही जा.

मा रे होरु बापी रे होरु तोय होबी बोर गोरु"


मतलब , हमारे बच्चों ! लौकी खाके बैगन खाके दिन दिन बढ़ते रहो....मा छोटी है, पिता छोटा है लेकिन तुम बड़ी गाय के जैसा विशाल बनो.


फिर नदी से गाय को घर ले जाते हैं ..उसके लिए पीथा(एक प्रकार का पकवान) तैयार करते हैं .शाम में गाय को पीथा खिलाने के बाद एक नए बंधन से, जिसे हम 'पोघा' कहते हैं, से गुहाली में बांध देते  हैं.गुहाली मतलब गाय का घर.इसके बाद 'जाक' जलाते हैं.जिससे गाय के पास माखी( मख्खी) , मच्छर आदि न आ सकें.साथ में गाते हैं - 


"दिघोलोटी दिघोल पात 

माखी मारू जात जात !"


आज के दिन की एक खास बात और होती है. आज हम लोग जो सब्जी बनाते हैं वो 101 प्रकार की सब्जियों का मिक्स होती हैं.ऐसा माना जाता है कि ये स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभदायक है और हमे निरोग काया प्रदान करती है.


गाय पूजन के बाद घर मे जो सब्जी बनती है वो सौ सब्जियों का मिश्रण होती है. यही परम्परा है. लेकिन वो जमाना और था जब सौ सब्जियां पाना आसान था ..आप जंगल मे गए और तोड़ लाये सौ सब्जियां ..और पका लिया.


लेकिन अब ऐसा नही है....अब मुश्किल से तीस से चालीस सब्जियां मिल पाती हैं.आज मैंने करीब बड़ी मुश्किल से पैतीस चालीस प्रकार की सब्जियों की व्यवस्था की है


लेकिन परम्परा तो सौ प्रकार की सब्जियों को मिक्स करके पकाने की है..


ऐसे में क्या करें.तो हमारे यहां ( शायद पूरे भारत मे ) एक पीले रंग का चींटी (ant) होता है . इसे Aamloi Purua बोलते हैं .जो सामान्यतः पेड़ो पर पाया जाता है. ऐसा माना जाता है कि ये सब कुछ खाता है तो उसका इस्तेमाल करते हैं.


इसे सब्जी में नही डाला जाता बल्कि खाते वक्त हल्का सा परम्परा को निभाने के लिए इसे होठ से टच करके औपचारिकता पूरी की जाती है.हालांकि जिन्हें पसंद है वे खाते भी हैं.


नार्थईस्ट प्रेम को बहुत अच्छे से सेलिब्रेट करता है..वैसे भी यहाँ कोई प्रेम करने को लेकर कोई बहुत बड़ी बंदिशें नही हैं.दो लोग जब भी प्रेम करते है तो कुछ दिन बाद ही पूरे समाज और परिवार को पता चल जाता है...नही तो खुद ही बता देते हैं.इसके बाद लोग ये मान लेते हैं की इन दोनों की शादी फिक्स है.और वे जोड़े के रूप में देखे जाने लगते है.


रेयर केस में ऐसा भी होता है कि कई बार परिवार वाले अप्प्रुवल नही देते तो ऐसे में प्रेमी जोड़े चुपचाप  बिहू का इंतज़ार करते हैं.और बिहू आते ही भाग जाते हैं.


फिर परिवार द्वारा उन्हें बुलाया जाता है और लड़के की फॅमिली लड़की के घर तामुल पान का शगुन  लेकर जाती है...इस प्रकार शादी फिक्स हो ही जाती है.


बोहाग बिहू को इस वजह में मजाक में भाग बिहू भी कहते है.


बोहाग बिहू 14 अप्रैल से शुरू होता है.असल मे यही मुख्य बिहू है. ये एक महीने चलता है पूरा । हम लोगों की शादिया इसी दौरान होती है । जितने भी लोरा- सुवाली लव बर्ड्स होंगे.. सबके अपने अपने मामले पहले से सेट होंगे । बिहू शुरू होते ही जिनके माँ-देउता नहीं माने वे जोड़े मौका निकाल कर भाग जाते है। फिर दो तीन दिन बाद वापस आते है.. फिर उनके माँ देउता तामूल पान लेकर सुवाली के घर जाएंगे .. और फिर बिया दे देते है उन दोनों का.  


बिहू मे मिलने मिलाने के दौरान मेहमानों को गमोसा रुमाल आदि गिफ्ट किया जाता है । इस गमोंसे का सूत घर मे रेडी किया जाता है । घर मे हाल ( hand लूम ) पर इसे बनाया जाता है. 


पहले गमोंसे मे सिर्फ एक साइड मे ही फूल होता था .. नामघरों मे भगवान के लिए बनाए गए गमोंसे पर ही दो तरफ फूल होते थे. तो सुवालीजोनि अपने प्रेमी के लिए जो गमोसे बनाती थी उस पर दूसरे साइड मे कुछ स्पेशल डिजाइन क्रीऐट करके उसे थोड़ा स्पेशल बना देती है... ये प्रपोज़ल का भी तरीका है. 


अब आजकल दोनों साइड फूल के गमोसे कि मांग ज्यादा होती है. कहते है परंपरा भी मार्केट के हिसाब से up down होती है. और मार्केट चलता है demand - supply के नियम पर, तो आजकल दोनों साइड के फूल वाले गमोंसे चलन मे आ चुके है. 


इस बार हमारा स्टॉक भेजकर खाली हो गया है... बिहू आने वाला है और हमने घर मे कन्स्ट्रक्शन के कारण घर का हाल खोलकर रख दिया था। बिहू मे घर आए मेहमानों को गिफ्ट करने के लिए हमे और गमोसे कि दरकार होगी इसलिए अगले एक दो दिन मे ही शायद लगा देना पड़े. हम लोग एक बार मे हाल लगाने पर सौ डेढ़ सौ गमसे रेडी करने का सूत लगा लेते है। लेकिन इस बार उतना समय नहीं है क्योंकि एक दिन मे एक दो पीस ही बन पाता है. 


अच्छा एक और मजेदार बात ! नॉर्थ के एक मित्र ने कहा गमोसा कि लंबाई थोड़ी और होनी चाहिए.. गले मे मोड़कर पीछे नहीं ले पाते.. तो पहली बात ये कि पारंपरिक गमोसा तो इतना ही बड़ा  होता है. उसे गले मे दोनों तरफ से लटकाकर पहनते है. दूसरी बात गमोसा  बनाते समय हमारे दिमाग मे नॉर्थीस्ट के छोटे छोटे कम लंबाई के लोग होते है.. तो पहाड़ जैसे नॉर्थ के मित्रों को छोटा पड़ेगा ही । तुम लोग इतने लंबे चौड़े होते ही क्यों हो ..हमारी तरह छोटा छोटा आदमी होने मे क्या बुरा था  :-D . 


जिस तरह आप लोगों ने पसंद किया है.. उस हिसाब से कौन जानता है कि स्टंडर्ड आगे चलकर चेंज भी हो.... और भी बड़े बड़े बनने लगे. पर आप लोगों ने इस गमोंसे को खूबसूरत और अच्छा तो माना ही है. ये भी काफी है... बाकी नॉर्थ के मित्रों की हाईट से जलन है और रहेगी :-D


lets all be happy together ..सर्वे सन्तु निरामया.

✍🏻गिताली सैकिया

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें