रविवार, 30 दिसंबर, 2012 को 15:16 IST तक के समाचार
साल 2012 में एक लाइन जो बार बार सुनने को मिली वो ये कि सिनेमा बदल रहा है.
जहां एक तरफ सितारों से लैस मसाला फिल्मों ने
बॉक्स-ऑफिस पर 100 करोड़ के झंडे गाड़े तो सिनेमा में नई लहर लाने वाली
फिल्में जैसे पान सिंह तोमर को भी दर्शकों ने सराहा.'इंडिपेंडेंट' फिल्मों के नाम से पहचान बना रही ये फिल्में सीमित थिएटरों में ही रिलीज हुईं. कुछ तो केवल फेस्टीवल में ही दिखाई गईं, लेकिन जिसने एक बार देखी उसने इस फिल्म का ज़िक्र ज़रूर किया.
शिप ऑफ थिसियस
"शिप ऑफ थिसियस में ऑर्गन ट्रांसप्लांट के मुद्दे को उठाया गया है. बहुत ही फिलोसोफिकल फिल्म है पर फिर भी कहीं पर भी उबाऊ नहीं लगती"
नम्रता जोशी,फिल्म समीक्षक
ये बात अलग है कि फिल्म में आपको इस सीरियल की छाप दूर-दूर तक नहीं मिलेगी.
फिल्म समीक्षक नम्रता जोशी के मुताबिक ये फिल्म 2012 की ही नहीं, पिछले 5-6 सालों की बेहतरीन फिल्म में से एक है.
नम्रता कहती हैं, "ये फिल्म एक पौराणिक सवाल को लेकर चल रही है कि अगर शिप के अलग अलग हिस्सों को बदल दिया जाए फिर भी क्या वो वही शिप रहेगी.''
वे कहती हैं, ''फिल्म में ऑर्गन ट्रांसप्लांट के मुद्दे को उठाया गया है. बहुत ही फिलोसोफिकल फिल्म है पर फिर भी कहीं पर भी उबाऊ नहीं लगती."
नम्रता के मुताबिक, फिल्म को बहुत ही अच्छे से शूट किया गया है और फिल्म के निर्माता सोहम शाह भी एक बहुत अच्छी भूमिका में नज़र आएंगे.
क्षय
"क्षय एक बहुत ही रोचक एक्सपेरिमेंट है.फिल्म में रसिका दुग्गल ने मुख्य भूमिका निभाई है और मेरे हिसाब से उन्होंने इस साल का सबसे बढ़िया अभिनय किया है.""
नम्रता जोशी,फिल्म समीक्षक
एक लड़की की मनोवैज्ञानिक दशा को दिखाती ये फिल्म कहीं पर भी बोझिल नहीं लगती और आगे क्या होगा, जैसे सवाल के साथ आपको लेकर चलती है.
नम्रता के अनुसार, "क्षय एक बहुत ही रोचक प्रयोग है. फिल्म में रसिका दुग्गल ने मुख्य भूमिका निभाई है और मेरे हिसाब से उन्होंने इस साल का सबसे बढ़िया अभिनय किया है."
ये फिल्म 'ब्लैक एंड व्हाईट' है और इसे किसी बड़े स्टूडियो का सहारा नहीं मिला है.
अन्हे घोड़े दा दान
अगर आप बॉलीवुड में दिखाए जाने वाले पंजाब से अलग हटकर कुछ देखना चाहते हैं तो 'अन्हे घोड़े दा दान' देख सकते हैं. ग्रामीण पंजाब में दलितों के शोषण पर आधारित इस फिल्म का निर्देशन गुरविंदर सिंह ने किया है.नम्रता के मुताबिक, "ये कोई लंबी-चौड़ी कहानी नहीं है, लेकिन ध्वनि और दृश्यों के माध्यम से दलितों की पीड़ा को जिस तरह दिखाया गया है वो वाकई दिल में एक दर्द पैदा करता है."
59वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार में इस फिल्म ने सर्वश्रेष्ठ निर्देशक, छायांकन और सर्वश्रेष्ठ पंजाबी फिल्म का पुरस्कार हासिल किया.
सुपरमैन ऑफ मालेगांव
"मालेगांव के सुपरमेन एक बहुत ही मज़ेदार फिल्म है,बांध के रखने वाली फिल्म है पर साथ ही एक मानवीय पहलू भी दिखाती है कि किस तरह जब कोई बंदा फिल्म बनाने पर आए तो कुछ भी करके सिनेमा बना सकता है"
नम्रता जोशी,फिल्म समीक्षक
मालेगांव की 'स्पूफ सिनेमा इंडस्ट्री' पर आधारित एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म है 'मालेगांव के सुपरमैन'.
दरअसल मालेगांव जैसी छोटी सी जगह अपनी स्पूफ फिल्में जैसे 'मालेगांव के शोले', 'मालेगांव की शान' के लिए काफी प्रसिद्ध है.
नम्रता की माने तो "ये एक बहुत ही मज़ेदार फिल्म है, बांधकर रखने वाली फिल्म है पर साथ ही एक मानवीय पहलू भी दिखाती है कि किस तरह जब कोई बंदा फिल्म बनाने पर आए तो कुछ भी करके सिनेमा बना सकता है."
नम्रता के अनुसार, "ये फिल्म देखने पर पता चलता है कि किस तरह से कम साधन और बिना किसी तकनीकी मदद के भी मालेगांव अपने ही तरीके का एक सिनेमा रचता है."
ये फिल्म मालेगांव के सुपरमैन के जज़्बे को दिखाती है जिन्हें सिनेमा देखने का ही नहीं बनाने का भी जुनून है.
फिल्म को फायज़ा अहमद खान ने बनाया है.
शाहिद
अनुराग कश्यप, गुनीत मोंगा और सुनील बोहरा द्वारा निर्मित फिल्म 'शाहिद' मानवाधिकार वकील शाहिद आज़मी की सच्ची कहानी पर आधारित है जिनकी मुंबई में हत्या कर दी गई थी.हंसल मेहता द्वारा निर्देशित इस फिल्म में मुख्य भूमिका राजकुमार यादव ने निभाई है जो इस साल गैंग्स ऑफ वासेपुर और तलाश में भी नज़र आए हैं.
नम्रता बताती हैं, "इस फिल्म में एक मुस्लिम मिडिल क्लास माहौल को बहुत ही अच्छे से रचाया गया है और राजकुमार का अभिनय कमाल का है."
ये फिल्म पूरी तरह इंडिपेंडेंट नहीं है और 2013 में रिलीज की जाएगी.
हंसा
निर्देशक मानव कौल की फिल्म हंसा 2012 की आखिरी रिलीज है. इस फिल्म को फेस्टीवल में दिखाया गया है और इसने काफी पुरस्कार भी बटोरे हैं.मानव कौल मुंबई थिएटर में काफी सक्रिय हैं और हंसा उनकी पहली फिल्म है.
ये पहाड़ पर रहने वाली एक छोटी बच्ची की कहानी है जो अपने पिता को ढूंढ रही है.
फिल्म समीक्षक नम्रता जोशी का कहना है, "हंसा एक सीधी, अच्छी और सहज कहानी है जो बच्चों के इर्द-गिर्द घूमती है. मुझे लगता है कि साल को विदा कहने का इसे अच्छा तरीका नहीं है."
भारत में जहां हर साल कई फिल्में बनती हैं और उतनी ही तेज़ी से देखी भी जाती हैं, वहां इन इंडिपेंडेंट फिल्मों को दर्शक मिलना क्या वाकई मुश्किल है?
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