Dr.Mamta Sharan / kriti sharan

बुधवार, 26 अप्रैल 2017

भारत का संविधान











प्रस्तुति-  डा. ममता शरण 

निम्न विषय पर आधारित एक श्रृंखला का हिस्सा
भारत का संविधान
Emblem of India.svg
उद्देशिका
भाग[दिखाएँ]
अनुसूचियाँ[दिखाएँ]
परिशिष्ट[दिखाएँ]
संशोधन[दिखाएँ]
सम्बन्धित विषय[दिखाएँ]
  • दे
  • वा
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डॉ॰ बाबासाहेब आंबेडकर भारतीय संविधान के निर्माता
भारतीय संविधान के पिता डॉ॰ बी आर आंबेडकर संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद को भारतीय संविधान सुपूर्द करते हुए, 26 नवंबर 1949
भारत, संसदीय प्रणाली की सरकार वाला एक प्रभुसत्तासम्पन्न, समाजवादी धर्मनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य है। यह गणराज्य भारत के संविधान के अनुसार शासित है। भारत का संविधान संविधान सभा द्वारा 26 नवम्बर 1949 को पारित हुआ तथा 26 जनवरी 1950 से प्रभावी हुआ।
भारतीय संविधान की निर्मात्री समिति के अध्यक्ष डॉ॰ बाबासाहेब आंबेडकर ने 26 नवबंर 1949 को भारतीय संविधान ‘संविधान सभा के अध्यक्ष’ एवं राष्ट्रपति डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद को सौंपा। अतः यह दिन (26 नवंबर) भारत के संविधान दिवस के रूप में घोषित किया गया है जबकि 26 जनवरी का दिन भारत में गणतन्त्र दिवस के रूप में मनाया जाता है।[1][2] [3]
जवाहरलाल नेहरू संविधान पर हस्ताक्षर करते हुए

अनुक्रम

  • 1 संक्षिप्त परिचय
  • 2 इतिहास
  • 3 भारतीय संविधान की संरचना
    • 3.1 अनुसूचियाँ
  • 4 आधारभूत विशेषताएँ
    • 4.1 सम्प्रुभता
    • 4.2 समाजवादी
    • 4.3 धर्मनिरपेक्ष
    • 4.4 लोकतांत्रिक
    • 4.5 गणराज्य
    • 4.6 शक्ति विभाजन
    • 4.7 संविधान की सर्वोचता
    • 4.8 भारतीय संविधान मे कुछ विभेदकारी विशेषताएँ भी है
  • 5 संविधान की प्रस्तावना
  • 6 संविधान भाग 3 व 4 : नीति निर्देशक तत्व
  • 7 भाग 4 क : मूल कर्तव्य
  • 8 संशोधन
  • 9 इन्हें भी देखें
  • 10 सन्दर्भ

संक्षिप्त परिचय

42वे संशोधन से पूर्व भारत के संविधान की प्रस्तावना
भारत का संविधान विश्व के किसी भी गणतांत्रिक देश का सबसे लंबा लिखित संविधान है।[4] इसमें अब 465 अनुच्छेद, तथा 12 अनुसूचियां हैं और ये 22 भागों में विभाजित है। परन्तु इसके निर्माण के समय मूल संविधान में 395 अनुच्छेद, जो 22 भागों में विभाजित थे इसमें केवल 8 अनुसूचियां थीं। संविधान में सरकार के संसदीय स्‍वरूप की व्‍यवस्‍था की गई है जिसकी संरचना कुछ अपवादों के अतिरिक्त संघीय है। केन्‍द्रीय कार्यपालिका का सांविधानिक प्रमुख राष्‍ट्रपति है। भारत के संविधान की धारा 79 के अनुसार, केन्‍द्रीय संसद की परिषद् में राष्‍ट्रपति तथा दो सदन है जिन्‍हें राज्‍यों की परिषद राज्‍यसभा तथा लोगों का सदन लोकसभा के नाम से जाना जाता है। संविधान की धारा 74 (1) में यह व्‍यवस्‍था की गई है कि राष्‍ट्रपति की सहायता करने तथा उसे सलाह देने के लिए एक मंत्रिपरिषद होगा जिसका प्रमुख प्रधानमंत्री होगा, राष्‍ट्रपति इस मंत्रिपरिषद की सलाह के अनुसार अपने कार्यों का निष्‍पादन करेगा। इस प्रकार वास्‍तविक कार्यकारी शक्ति मंत्रिपरिषद् में निहित है जिसका प्रमुख प्रधानमंत्री है जो वर्तमान में नरेन्द्र मोदी हैं।[5]
मंत्रिपरिषद सामूहिक रूप से लोगों के सदन (लोक सभा) के प्रति उत्तरदायी है। प्रत्‍येक राज्‍य में एक विधानसभा है। जम्मू कश्मीर, उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, कर्नाटक,आंध्रप्रदेश और तेलांगना में एक ऊपरी सदन है जिसे विधानपरिषद कहा जाता है। राज्‍यपाल राज्‍य का प्रमुख है। प्रत्‍येक राज्‍य का एक राज्‍यपाल होगा तथा राज्‍य की कार्यकारी शक्ति उसमें विहित होगी। मंत्रिपरिषद, जिसका प्रमुख मुख्‍यमंत्री है, राज्‍यपाल को उसके कार्यकारी कार्यों के निष्‍पादन में सलाह देती है। राज्‍य की मंत्रिपरिषद् सामूहिक रूप से राज्‍य की विधान सभा के प्रति उत्तरदायी है।
संविधान की सातवीं अनुसूची में संसद तथा राज्‍य विधायिकाओं के बीच विधायी शक्तियों का वितरण किया गया है। अवशिष्‍ट शक्तियाँ संसद में विहित हैं। केन्‍द्रीय प्रशासित भू-भागों को संघराज्‍य क्षेत्र कहा जाता है।

इतिहास

मुख्य लेख : भारतीय संविधान का इतिहास
द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद जुलाई 1945 में ब्रिटेन ने भारत संबन्धी अपनी नई नीति की घोषणा की तथा भारत की संविधान सभा के निर्माण के लिए एक कैबिनेट मिशन भारत भेजा जिसमें ३ मंत्री थे। 15 अगस्त 1947 को भारत के आज़ाद हो जाने के बाद संविधान सभा की घोषणा हुई और इसने अपना कार्य 9 दिसम्बर 1947 से आरम्भ कर दिया। संविधान सभा के सदस्य भारत के राज्यों की सभाओं के निर्वाचित सदस्यों के द्वारा चुने गए थे। जवाहरलाल नेहरू, डॉ भीमराव अम्बेडकर, डॉ राजेन्द्र प्रसाद, सरदार वल्लभ भाई पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद आदि इस सभा के प्रमुख सदस्य थे। इस संविधान सभा ने 2 वर्ष, 11 माह, 18 दिन मे कुल 114 दिन बैठक की। इसकी बैठकों में प्रेस और जनता को भाग लेने की स्वतन्त्रता थी। भारत के संविधान के निर्माण में डॉ भीमराव अम्बेडकर ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, इसलिए उन्हें 'संविधान का निर्माता' कहा जाता है।

भारतीय संविधान की संरचना

वर्तमान समय में (सितम्बर 2012) भारतीय संविधान के निम्नलिखित भाग हैं-[6]
  • एक उद्देशिका,
  • 448 धाराओं से युक्त 25 भाग,
  • 12 अनुसूचियाँ,
  • 5 अनुलग्नक (appendices), तथा
  • 100 संशोधन।

अनुसूचियाँ

पहली अनुसूची - (अनुच्छेद 1 तथा 4) - राज्य तथा संघ राज्य क्षेत्र का वर्णन।
दूसरी अनुसूची - [अनुच्छेद 59(3), 65(3), 75(6),97, 125,148(3), 158(3),164(5),186 तथा 221] - मुख्य पदाधिकारियों के वेतन-भत्ते [7]
  • भाग-क : राष्ट्रपति और राज्यपाल के वेतन-भत्ते,
  • भाग-ख : लोकसभा तथा विधानसभा के अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष, राज्यसभा तथा विधान परिषद् के सभापति तथा उपसभापति के वेतन-भत्ते,
  • भाग-ग : उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों के वेतन-भत्ते,
  • भाग-घ : भारत के नियंत्रक-महालेखा परीक्षकके वेतन-भत्ते।
तीसरी अनुसूची - [अनुच्छेद 75(4),99, 124(6),148(2), 164(3),188 और 219] - व्यवस्थापिका के सदस्य, मंत्री, राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, न्यायाधीशों आदि के लिए शपथ लिए जानेवाले प्रतिज्ञान के प्रारूप दिए हैं।
चौथी अनुसूची - [अनुच्छेद 4(1),80(2)] - राज्यसभा में स्थानों का आबंटन राज्यों तथा संघ राज्य क्षेत्रों से।
पाँचवी अनुसूची - [अनुच्छेद 244(1)] - अनुसूचित क्षेत्रों और अनुसूचित जन-जातियों के प्रशासन और नियंत्रण से संबंधित उपबंध।
छठी अनुसूची - [अनुच्छेद 244(2), 275(1)] - असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम राज्यों के जनजाति क्षेत्रों के प्रशासन के विषय मे उपबंध।
सातवीं अनुसूची - [अनुच्छेद 246] - विषयों के वितरण से संबंधित सूची-1 संघ सूची, सूची-2 राज्य सूची, सूची-3 समवर्ती सूची।
आठवीं अनुसूची - [अनुच्छेद 344(1), 351] - भाषाएँ - 22 भाषाओं का उल्लेख।
नवीं अनुसूची - [अनुच्छेद 31 ख ] - कुछ भुमि सुधार संबंधी अधिनियमों का विधिमान्य करण।
दसवीं अनुसूची - [अनुच्छेद 102(2), 191(2)] - दल परिवर्तन संबंधी उपबंध तथा परिवर्तन के आधार पर अ
ग्यारवीं अनुसूची - पन्चायती राज/ जिला पंचायत से सम्बन्धित यह अनुसूची संविधान मे 73वे संवेधानिक संशोधन (1993) द्वारा जोड़ी गई।
बारहवीं अनुसूची - यह अनुसूची संविधान मे 74 वे संवेधानिक संशोधन द्वारा जोड़ी गई।

आधारभूत विशेषताएँ

संविधान प्रारूप समिति तथा सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय संविधान को संघात्मक संविधान माना है, परन्तु विद्वानों में मतभेद है। अमेरीकी विद्वान इस को 'छद्म-संघात्मक-संविधान' कहते हैं, हालांकि पूर्वी संविधानवेत्ता कहते हैं कि अमेरिकी संविधान ही एकमात्र संघात्मक संविधान नहीं हो सकता। संविधान का संघात्मक होना उसमें निहित संघात्मक लक्षणों पर निर्भर करता है, किन्तु माननीय सर्वोच्च न्यायालय (पी कन्नादासन वाद) ने इसे पूर्ण संघात्मक माना है।
भारतीय संविधान के प्रस्तावना के अनुसार भारत एक सम्प्रुभतासम्पन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक, गणराज्य है।

सम्प्रुभता

सम्प्रुभता शब्द का अर्थ है सर्वोच्च या स्वतंत्र. भारत किसी भी विदेशी और आंतरिक शक्ति के नियंत्रण से पूर्णतः मुक्त सम्प्रुभतासम्पन्न राष्ट्र है। यह सीधे लोगों द्वारा चुने गए एक मुक्त सरकार द्वारा शासित है तथा यही सरकार कानून बनाकर लोगों पर शासन करती है।

समाजवादी

मुख्य लेख : समाजवाद
समाजवादी शब्द संविधान के १९७६ में हुए ४२वें संशोधन अधिनियम द्वारा प्रस्तावना में जोड़ा गया। यह अपने सभी नागरिकों के लिए सामाजिक और आर्थिक समानता सुनिश्चित करता है। जाति, रंग, नस्ल, लिंग, धर्म या भाषा के आधार पर कोई भेदभाव किए बिना सभी को बराबर का दर्जा और अवसर देता है। सरकार केवल कुछ लोगों के हाथों में धन जमा होने से रोकेगी तथा सभी नागरिकों को एक अच्छा जीवन स्तर प्रदान करने की कोशिश करेगी।
भारत ने एक मिश्रित आर्थिक मॉडल को अपनाया है। सरकार ने समाजवाद के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कई कानूनों जैसे अस्पृश्यता उन्मूलन, जमींदारी अधिनियम, समान वेतन अधिनियम और बाल श्रम निषेध अधिनियम आदि बनाया है।

धर्मनिरपेक्ष

मुख्य लेख : धर्मनिरपेक्षता
धर्मनिरपेक्ष शब्द संविधान के १९७६ में हुए ४२वें संशोधन अधिनियम द्वारा प्रस्तावना में जोड़ा गया। यह सभी धर्मों की समानता और धार्मिक सहिष्णुता सुनिश्चीत करता है। भारत का कोई आधिकारिक धर्म नहीं है। यह ना तो किसी धर्म को बढावा देता है, ना ही किसी से भेदभाव करता है। यह सभी धर्मों का सम्मान करता है व एक समान व्यवहार करता है। हर व्यक्ति को अपने पसन्द के किसी भी धर्म का उपासना, पालन और प्रचार का अधिकार है। सभी नागरिकों, चाहे उनकी धार्मिक मान्यता कुछ भी हो कानून की नजर में बराबर होते हैं। सरकारी या सरकारी अनुदान प्राप्त स्कूलों में कोई धार्मिक अनुदेश लागू नहीं होता।

लोकतांत्रिक

मुख्य लेख : लोकतंत्र
भारत एक स्वतंत्र देश है, किसी भी जगह से वोट देने की आजादी, संसद में अनुसूचित सामाजिक समूहों और अनुसूचित जनजातियों को विशिष्ट सीटें आरक्षित की गई है। स्थानीय निकाय चुनाव में महिला उम्मीदवारों के लिए एक निश्चित अनुपात में सीटें आरक्षित की जाती है। सभी चुनावों में महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित करने का एक विधेयक लम्बित है। हालांकि इसकी क्रियांनवयन कैसे होगा, यह निश्चित नहीं हैं। भारत का चुनाव आयोग स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों के लिए जिम्मेदार है।

गणराज्य

मुख्य लेख : गणराज्य
राजशाही, जिसमें राज्य के प्रमुख वंशानुगत आधार पर एक जीवन भर या पदत्याग करने तक के लिए नियुक्त किया जाता है, के विपरीत एक गणतांत्रिक राष्ट्र के प्रमुख एक निश्चित अवधि के लिए प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जनता द्वारा निर्वाचित होते है। भारत के राष्ट्रपति पांच वर्ष की अवधि के लिए एक चुनावी कॉलेज द्वारा चुने जाते हैं।

शक्ति विभाजन

यह भारतीय संविधान का सर्वाधिक महत्वपूर्ण लक्षण है, राज्य की शक्तियां केंद्रीय तथा राज्य सरकारों मे विभाजित होती हैं। दोनों सत्ताएँ एक-दूसरे के अधीन नही होती है, वे संविधान से उत्पन्न तथा नियंत्रित होती हैं।

संविधान की सर्वोचता

संविधान के उपबंध संघ तथा राज्य सरकारों पर समान रूप से बाध्यकारी होते हैं। केन्द्र तथा राज्य शक्ति विभाजित करने वाले अनुच्छेद निम्न दिए गए हैं:
  1. अनुच्छेद 54,55,73,162,241।
  2. भाग -5 सर्वोच्च न्यायालय उच्च न्यायालय राज्य तथा केन्द्र के मध्य वैधानिक संबंध।
  3. अनुच्छेद 7 के अंतर्गत कोई भी सूची।
  4. राज्यो का संसद मे प्रतिनिधित्व।
  5. संविधान मे संशोधन की शक्ति अनु 368इन सभी अनुच्छेदो में संसद अकेले संशोधन नही ला सकती है उसे राज्यों की सहमति भी चाहिए।
अन्य अनुच्छेद शक्ति विभाजन से सम्बन्धित नहीं हैं:
  1. लिखित संविधान अनिवार्य रूप से लिखित रूप में होगा क्योंकि उसमें शक्ति विभाजन का स्पष्ट वर्णन आवश्यक है। अतः संघ मे लिखित संविधान अवश्य होगा।
  2. संविधान की कठोरता इसका अर्थ है संविधान संशोधन में राज्य केन्द्र दोनो भाग लेंगे।
  3. न्यायालयो की अधिकारिता- इसका अर्थ है कि केन्द्र-राज्य कानून की व्याख्या हेतु एक निष्पक्ष तथा स्वतंत्र सत्ता पर निर्भर करेंगे।
विधि द्वारा स्थापित:
  1. न्यायालय ही संघ-राज्य शक्तियो के विभाजन का पर्यवेक्षण करेंगे।
  2. न्यायालय संविधान के अंतिम व्याख्याकर्ता होंगे भारत में यह सत्ता सर्वोच्च न्यायालय के पास है।
ये पांच शर्ते किसी संविधान को संघात्मक बनाने हेतु अनिवार्य है। भारत में ये पांचों लक्षण संविधान में मौजूद है अतः यह संघात्मक हैं। परंतु भारतीय संविधान मे कुछ विभेदकारी विशेषताएँ भी है:

भारतीय संविधान मे कुछ विभेदकारी विशेषताएँ भी है

  • 1 यह संघ राज्यों के परस्पर समझौते से नहीं बना है
  • 2 राज्य अपना पृथक संविधान नही रख सकते है, केवल एक ही संविधान केन्द्र तथा राज्य दोनो पर लागू होता है
  • 3 भारत मे द्वैध नागरिकता नहीं है। केवल भारतीय नागरिकता है
  • 4 भारतीय संविधान मे आपातकाल लागू करने के उपबन्ध है [352 अनुच्छेद] के लागू होने पर राज्य-केन्द्र शक्ति पृथक्करण समाप्त हो जायेगा तथा वह एकात्मक संविधान बन जायेगा। इस स्थिति मे केन्द्र-राज्यों पर पूर्ण सम्प्रभु हो जाता है
  • 5 राज्यों का नाम, क्षेत्र तथा सीमा केन्द्र कभी भी परिवर्तित कर सकता है [बिना राज्यों की सहमति से] [अनुच्छेद 3] अत: राज्य भारतीय संघ के अनिवार्य घटक नही हैं। केन्द्र संघ को पुर्ननिर्मित कर सकती है
  • 6 संविधान की 7वीं अनुसूची मे तीन सूचियाँ हैं संघीय, राज्य, तथा समवर्ती। इनके विषयों का वितरण केन्द्र के पक्ष में है।
  • 6.1 संघीय सूची मे सर्वाधिक महत्वपूर्ण विषय हैं
  • 6.2 इस सूची पर केवल संसद का अधिकार है
  • 6.3 राज्य सूची के विषय कम महत्वपूर्ण हैं, 5 विशेष परिस्थितियों मे राज्य सूची पर संसद विधि निर्माण कर सकती है किंतु किसी एक भी परिस्थिति मे राज्य, केन्द्र हेतु विधि निर्माण नहीं कर सकते-
  • क1 अनु 249—राज्य सभा यह प्रस्ताव पारित कर दे कि राष्ट्र हित हेतु यह आवश्यक है [2/3 बहुमत से] किंतु यह बन्धन मात्र 1 वर्ष हेतु लागू होता है
  • क2 अनु 250— राष्ट्र आपातकाल लागू होने पर संसद को राज्य सूची के विषयों पर विधि निर्माण का अधिकार स्वत: मिल जाता है
  • क3 अनु 252—दो या अधिक राज्यों की विधायिका प्रस्ताव पास कर राज्य सभा को यह अधिकार दे सकती है [केवल संबंधित राज्यों पर]
  • क4 अनु 253--- अंतराष्ट्रीय समझौते के अनुपालन के लिए संसद राज्य सूची विषय पर विधि निर्माण कर सकती है
  • क5 अनु 356—जब किसी राज्य मे राष्ट्रपति शासन लागू होता है, उस स्थिति में संसद उस राज्य हेतु विधि निर्माण कर सकती है
  • 7 अनुच्छेद 155 – राज्यपालों की नियुक्ति पूर्णत: केन्द्र की इच्छा से होती है इस प्रकार केन्द्र राज्यों पर नियंत्रण रख सकता है
  • 8 अनु 360 – वित्तीय आपातकाल की दशा में राज्यों के वित्त पर भी केन्द्र का नियंत्रण हो जाता है। इस दशा में केन्द्र राज्यों को धन व्यय करने हेतु निर्देश दे सकता है
  • 9 प्रशासनिक निर्देश [अनु 256-257] -केन्द्र राज्यों को राज्यों की संचार व्यवस्था किस प्रकार लागू की जाये, के बारे में निर्देश दे सकता है, ये निर्देश किसी भी समय दिये जा सकते है, राज्य इनका पालन करने हेतु बाध्य है। यदि राज्य इन निर्देशों का पालन न करे तो राज्य में संवैधानिक तंत्र असफल होने का अनुमान लगाया जा सकता है
  • 10 अनु 312 में अखिल भारतीय सेवाओं का प्रावधान है ये सेवक नियुक्ति, प्रशिक्षण, अनुशासनात्मक क्षेत्रों में पूर्णतः: केन्द्र के अधीन है जबकि ये सेवा राज्यों में देते है राज्य सरकारों का इन पर कोई नियंत्रण नहीं है
  • 11 एकीकृत न्यायपालिका
  • 12 राज्यों की कार्यपालिक शक्तियाँ संघीय कार्यपालिक शक्तियों पर प्रभावी नही हो सकती है।

संविधान की प्रस्तावना

मुख्य लेख : भारतीय संविधान की उद्देशिका
संविधान के उद्देश्यों को प्रकट करने हेतु प्राय: उनसे पहले एक प्रस्तावना प्रस्तुत की जाती है। भारतीय संविधान की प्रस्तावना अमेरिकी संविधान से प्रभावित तथा विश्व मे सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। प्रस्तावना के माध्यम से भारतीय संविधान का सार, अपेक्षाएँ, उद्देश्य उसका लक्ष्य तथा दर्शन प्रकट होता है। प्रस्तावना यह घोषणा करती है कि संविधान अपनी शक्ति सीधे जनता से प्राप्त करता है इसी कारण यह 'हम भारत के लोग' - इस वाक्य से प्रारम्भ होती है। केहर सिंह बनाम भारत संघ के वाद में कहा गया था कि संविधान सभा भारतीय जनता का सीधा प्रतिनिधित्व नही करती अत: संविधान विधि की विशेष अनुकृपा प्राप्त नही कर सकता, परंतु न्यायालय ने इसे खारिज करते हुए संविधान को सर्वोपरि माना है जिस पर कोई प्रश्न नही उठाया जा सकता है।
संविधान की प्रस्तावना:
हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को :
सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा
उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करनेवाली बंधुता बढ़ाने के लिए
दृढ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर 1949 ई0 (मिति मार्ग शीर्ष शुक्ल सप्तमी, सम्वत् दो हजार छह विक्रमी) को एतदद्वारा
इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।
संविधान की प्रस्तावन 13 दिसम्बर 1946 को जवाहर लाल नेहरू द्वारा पास की गयी प्रस्तावना को आमुख भी कहते हैं।

संविधान भाग 3 व 4 : नीति निर्देशक तत्व

मुख्य लेख : नीति निर्देशक तत्व
भाग 3 तथा 4 मिलकर 'संविधान की आत्मा तथा चेतना' कहलाते है क्योंकि किसी भी स्वतंत्र राष्ट्र के लिए मौलिक अधिकार तथा नीति-निर्देश देश के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। नीति निर्देशक तत्व जनतांत्रिक संवैधानिक विकास के नवीनतम तत्व हैं। सर्वप्रथम ये आयरलैंड के संविधान में लागू किये गये थे। ये वे तत्व है जो संविधान के विकास के साथ ही विकसित हुए हैं। इन तत्वों का कार्य एक जनकल्याणकारी राज्य की स्थापना करना है। भारतीय संविधान के इस भाग में नीति निर्देशक तत्वों का रूपाकार निश्चित किया गया है, मौलिक अधिकार तथा नीति निर्देशक तत्व में भेद बताया गया है और नीति निदेशक तत्वों के महत्व को समझाया गया है।

भाग 4 क : मूल कर्तव्य

मूल कर्तव्य, मूल सविधान में नहीं थे, इन्हे 42 वें संविधान संशोधन द्ववारा जोड़ा गया है। ये रूस से प्रेरित होकर जोड़े गये तथा संविधान के भाग 4(क) के अनुच्छेद 51 - अ में रखे गये हैं। ये कुल 11 हैं।
51 क. मूल कर्तव्य- भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह-
  • (क) संविधान का पालन करे और उस के आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्र ध्वज और राष्ट्रगान का आदर करे ;
  • (ख) स्वतंत्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को हृदय में संजोए रखे और उन का पालन करे;
  • (ग) भारत की प्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा करे और उसे अक्षुण्ण रखे;
  • (घ) देश की रक्षा करे और आह्वान किए जाने पर राष्ट्र की सेवा करे;
  • (ङ) भारत के सभी लोगों में समरसता और समान भ्रातृत्व की भावना का निर्माण करे जो धर्म, भाषा और प्रदेश या वर्ग पर आधारित सभी भेदभाव से परे हो, ऐसी प्रथाओं का त्याग करे जो स्त्रियों के सम्मान के विरुद्ध है;
  • (च) हमारी सामासिक संस्कृति की गौरवशाली परंपरा का महत्व समझे और उस का परिरक्षण करे;
  • (छ) प्राकृतिक पर्यावरण की, जिस के अंतर्गत वन, झील नदी और वन्य जीव हैं, रक्षा करे और उस का संवर्धन करे तथा प्राणि मात्र के प्रति दयाभाव रखे;
  • (ज) वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करे;
  • (झ) सार्वजनिक संपत्ति को सुरक्षित रखे और हिंसा से दूर रहे;
  • (ञ) व्यक्तिगत और सामूहिक गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में उत्कर्ष की ओर बढ़ने का सतत प्रयास करे जिस से राष्ट्र निरंतर बढ़ते हुए प्रयत्न और उपलब्धि की नई ऊंचाइयों को छू ले;
  • (ट) यदि माता-पिता या संरक्षक है, छह वर्ष से चौदह वर्ष तक की आयु वाले अपने, यथास्थिति, बालक या प्रतिपाल्य के लिए शिक्षा का अवसर प्रदान करे।

संशोधन

मुख्य लेख : भारतीय संविधान के संशोधन
भारतीय संविधान का संशोधन भारत के संविधान में परिवर्तन करने की प्रक्रिया है। एक संशोधन के प्रस्ताव की शुरुआत संसद में होती है जहाँ इसे एक बिल के रूप में पेश किया जाता है।

इन्हें भी देखें

  • संविधान दिवस (भारत)
  • भारतीय संविधान का इतिहास
  • भारतीय संविधान सभा
  • संघवाद (फेड्रलिज़्म)
  • संविधान
  • संविधानवाद
  • भारतीय दण्ड संहिता

सन्दर्भ




  • "Preface, The constitution of India". Government of India. अभिगमन तिथि: 5 February 2015.

  • "Introduction to Constitution of India". Ministry of Law and Justice of India. 29 July 2008. अभिगमन तिथि: 2008-10-14.

  • Das, Hari (2002). Political System of India. Anmol Publications. प॰ 120. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 81-7488-690-7.

  • Pylee, M.V. (1997). India's Constitution. S. Chand & Co.. प॰ 3. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 81-219-0403-X.

  • http://parliamentofindia.nic.in/ls/debates/facts.htm

  • भारत का संविधान (पूर्ण पाठ)


    1. "दूसरी अनुसूची". अभिगमन तिथि: 10 फरवरी 2016.
    [दिखाएँ]
    • दे
    • वा
    • सं
    भारत भारत सरकार
    [दिखाएँ]
    • दे
    • वा
    • सं
    भारतीय विधि
    श्रेणियाँ:
    • विधि
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    • भारत
    • भारत के ऐतिहासिक दस्तावेज़
    • भारत का विधिक इतिहास
    • भारतीय संविधान
    प्रस्तुतकर्ता ASBAbalnews.blogsport.com पर 9:22 am कोई टिप्पणी नहीं:
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    गुरुवार, 23 मार्च 2017

    बटुकेश्वर दत्त



    प्रस्तुति-  मनीषा यादव 
     
    महान क्रान्तिकारी बटुकेश्वर दत्त
    बटुकेश्वर दत्त (नवंबर १९०८ - १९ जुलाई १९६५) भारत के स्वतंत्रता संग्राम के महान क्रान्तिकारी थे। बटुकेश्वर दत्त को देश ने सबसे पहले 8 अप्रैल 1929 को जाना, जब वे भगत सिंह के साथ केंद्रीय विधान सभा में बम विस्फोट के बाद गिरफ्तार किए गए। उन्होनें आगरा में स्वतंत्रता आंदोलन को संगठित करने में उल्लेखनीय कार्य किया था।

    जीवनी

    बटुकेश्वर दत्त का जन्म 18 नवम्बर 1910 को बंगाली कायस्थ परिवार में ग्राम-औरी, जिला - नानी बेदवान (बंगाल) में हुआ था। इनका बचपन अपने जन्म स्थान के अतिरिक्त बंगाल प्रांत के वर्धमान जिला अंतर्गत खण्डा और मौसु में बीता। इनकी स्नातक स्तरीय शिक्षा पी.पी.एन. कॉलेज कानपुर में सम्पन्न हुई। 1924 में कानपुर में इनकी भगत सिंह से भेंट हुई। इसके बाद इन्होंने हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के लिए कानपुर में कार्य करना प्रारंभ किया। इसी क्रम में बम बनाना भी सीखा।
    8 अप्रैल 1929 को दिल्ली स्थित केंद्रीय विधानसभा (वर्तमान में संसद भवन) में भगत सिंह के साथ बम विस्फोट कर ब्रिटिश राज्य की तानाशाही का विरोध किया। बम विस्फोट बिना किसी को नुकसान पहुंचाए सिर्फ पर्चों के माध्यम से अपनी बात को प्रचारित करने के लिए किया गया था। उस दिन भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों को दबाने के लिए ब्रिटिश सरकार की ओर से पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्रेड डिस्प्यूट बिल लाया गया था, जो इन लोगों के विरोध के कारण एक वोट से पारित नहीं हो पाया।
    इस घटना के बाद बटुकेश्वर दत्त और भगत सिंह को गिरफ्तार कर लिया गया। 12 जून 1929 को इन दोनों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। सजा सुनाने के बाद इन लोगों को लाहौर फोर्ट जेल में डाल दिया गया। यहां पर भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त पर लाहौर षड़यंत्र केस चलाया गया। उल्लेखनीय है कि साइमन कमीशन के विरोध-प्रदर्शन करते हुए लाहौर में लाला लाजपत राय को अंग्रेजों के इशारे पर अंग्रेजी राज के सिपाहियों द्वारा इतना पीटा गया कि उनकी मृत्यु हो गई। इस मृत्यु का बदला अंग्रेजी राज के जिम्मेदार पुलिस अधिकारी को मारकर चुकाने का निर्णय क्रांतिकारियों द्वारा लिया गया था। इस कार्रवाई के परिणामस्वरूप लाहौर षड़यंत्र केस चला, जिसमें भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी की सजा दी गई थी। बटुकेश्वर दत्त को आजीवन कारावास काटने के लिए काला पानी जेल भेज दिया गया। जेल में ही उन्होंने 1933 और 1937 में ऐतिहासिक भूख हड़ताल की। सेल्यूलर जेल से 1937 में बांकीपुर केन्द्रीय कारागार, पटना में लाए गए और 1938 में रिहा कर दिए गए। काला पानी से गंभीर बीमारी लेकर लौटे दत्त फिर गिरफ्तार कर लिए गए और चार वर्षों के बाद 1945 में रिहा किए गए।
    आजादी के बाद नवम्बर, 1947 में अंजली दत्त से शादी करने के बाद वे पटना में रहने लगे। बटुकेश्वर दत्त को अपना सदस्य बनाने का गौरव बिहार विधान परिषद ने 1963 में प्राप्त किया। श्री दत्त की मृत्यु 20 जुलाई 1965 को नई दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में हुई। मृत्यु के बाद इनका दाह संस्कार इनके अन्य क्रांतिकारी साथियों- भगत सिंह, राजगुरु एवं सुखदेव की समाधि स्थल पंजाब के हुसैनी वाला में किया गया। इनकी एक पुत्री भारती बागची पटना में रहती हैं। बटुकेश्वर दत्त के विधान परिषद में सहयोगी रहे इन्द्र कुमार कहते हैं कि 'स्व. दत्त राजनैतिक महत्वाकांक्षा से दूर शांतचित एवं देश की खुशहाली के लिए हमेशा चिन्तित रहने वाले क्रांतिकारी थे।' मातृभूमि के लिए इस तरह का जज्बा रखने वाले नौजवानों का इतिहास भारतवर्ष के अलावा किसी अन्य देश के इतिहास में उपलब्ध नहीं है।

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    • देशभक्त बटुकेश्वर दत्त : जिन्हें आजादी के बाद मिली गुमनाम जिंदगी
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    रविवार, 23 अक्टूबर 2016

    समाजवादी मुलायम का (असामाजिक) परिवार






     अनामी शरण बबल 

    नेताजी के नाम से विख्यात मुलायम सिंह यादव उर्फ नेताजी के घर परिवार और पार्टी में कुछ भी सही नहीं हो रहा है। राजनीति के सबसे बड़े परिवार के लिए विख्यात नेताजी के लिए यही बड़ा परिवार सिरदर्द बन गया है। इनके खानदान और आस पास के 43 संबंधियों को कहीं न कहीं राजनीतिक रसूख हासिल है। सामने यूपी विधानसभा चुनाव की रणवेरी अभी बजी नहीं कि अपनी हैसियत के हिसाब से टिकट पाने के लिए सारे रिश्तेदार ही नेताजी के गले के फांस बन गए है। ज्यादातर लोग तो टिकट पाकर दारूलशफा लखनऊ के सपने देखने लगे हैं। यहां तक तो घर परिवार की बात संभल जाती, मगर इस बार सांसत में यूपी के सीएम अखिलेश यादव है। दोनों सगे भाई इस बार सीएम बनने के लिए बेताब है और वे किसी भी कीमत पर अपने भतीजे के अंदर रहने को राजी नहीं । अपनी गद्दा पर आए संकट को देखते हुए सीएम साहब भड़क गए और पर्दे के पीछे अपने पिताश्री के ही खिलाफ हो उठे है। इस मौके का लाभ और संवेदना बटोरने के लिए सीएम साहब पहली बार अपनी सौतेली मां और सौतेले भाई को लपेट कर अपने परिवार को ही निशाने पर ले डाला।  पिछले तीन माह से जारी इस परिवार युद्ध से साफ हो गया है कि अब सपा यानी नेताजी विधानसभा चुनाव से अपनी पार्टी समेत खुद को लगभग बाहर सा मान लिया है। लगता है कि पारिवारिक प्रेम और सौहार्द् को देखते हुए नेताजी ने जानबूझ कर खामोशी ओढ ली है, ताकि पारिवारिक कलह से सपा को हासिल नाकामी पर संतोष कर ले।
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    कहीं यह बीजेपी के संग कोई डील तो नहीं


    नोएडा और ग्रेटर नोएडा प्राधिकरण का विवादास्पद अधिकारी यादव सिंह फिलहाल सीबीआईके पंजे में है। खरबों रूपए की हेराफेरी और धांधली में नेताजी और बहिन जी पूरी तरहदलदल में है। यादव सिंह का इतना आतंक है कि भय दिखाते ही बिहार चुनाव में गठित गठबंधन के मुखिया नेताजी एकाएक गठबंधन से बाहर हो गए। लगता है कि एक तरफ ब्लैकमेल झेल रहे नेताजी के सामने ही परिवार में महाभारत आरंभ हो गया है । जिसको थामने की बजाय नेताजी लंबा लटका रहे है,. और नेताजी की लंबी खामोशी से तो यही लग रहा है कि चुनाव शुरू होने से पहले ही परिवार की लाज रखने के लिए कही यह पूर्व निर्धारित ड्रामा तो नहीं है ?


    कहीं महाभारत का यह फेमिली ड्रामा तो नहीं ?


    समाजवादी पार्टी में मचे तूफान से सपा समर्थकों का हाल हलकान है । चुनावी सर्वेक्षणों में नेताजी पिछड़ रहे हैं इसके बावजूद जिस अंदाज में यह नाटक हो रहा है, उससे तो यही संदेश जाता दिख रहा है कि चुनाव से पहले सपा का यह महाभारत एक फेमिली ड्रामा भर है बस। जिसके अंत में सपा को उन सीटो पर कमल छाप अपने कमजोर उम्मीदवारों को मैदान में खड़ा करके जीतने का मौका देगी, मगर बहुमत तो कमल को ही पाना तय लग रहा है। बहिनजी भी खूब फड़फड़ा रही मगर कई मामलो से मुक्ति की डीलिंग ही ओम शांति ओम के लए ही हुआ है. हो सकता है कि बहिनजी का कमल से कोई तालमेल भी हो जे मगर इधर आप के केजरीवाल साहब भी बहिनजी से मिलकर यूपी में इंट्री खाता के लिए बेहाल है। फेमिली ड्रामा के बहाने सीएम साहब अपने पुराने ना पसंदो क भी बाहर का रास्ता दिखाने का नाटक कर रहे है ताकि लोगों को यह असली नाटक लगे।


    और अमर प्रेम का क्या होगा

    सचमुच इसे ही कहते हैं समय की मार । समय जब हलवान था तो समाजवादी पार्टी में हवा भी अमर सिंह के कहने पर चलती और थमती थी. इनकी तूती की अमर वाणी से सपा मुखिया को राजनीति में मुख्यधारा मिली और बॉलीवुड़ की रंगीनियों का दर्शन भी। अमरबेल की घनी होती छाया के खिलाफ जिसने आवाज बुलंद की उसको खामियाजा भुगतना पड़ा। मगर मुलायम राज में निस्तेज हो गए अमर बाबू एकाएक फिर सपाई होकर राज्यसभा में दाखिल हो गए। इस बार फिर लोग उनके खिलाफ प्रकट हो गए तो अब न अमर में पहले वाली तेजी है न मुलायम में लिहाजा परिवार विघटन के सारे आरोप इस बार अमर बाबू के खाते में है । सीएम अखिलेश तो सिरे से उनसे उखड़े है, अब देखना यही है कि अमर के बहाने यादव परिवार और पार्टी की यह महाभारत कब किस और किधर करवट लेता है। जिस पर दिल्ली की भी नजरें लगी है।



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    गुरुवार, 1 सितंबर 2016

    गांधी टोपी वाला स्कूल / संदीप पौराणिक






    जहां बच्चों की गणवेश का हिस्सा है गांधी टोपी

     


    संदीप पौराणिक


    महात्मा गांधी को अपने राजनीतिक लाभ का हथियार बनाने वाले नेताओं के सिर पर से भले ही गांधी टोपी धीरे-धीरे नदारद होती जा रही हो, मगर मध्यप्रदेश के नरसिंहपुर जिले के एक सरकारी स्कूल की गणवेश का हिस्सा आज भी गांधी टोपी है।

    नरसिंहपुर जिले के सिंहपुर बड़ा गांव का सरकारी उच्चतर बुनियादी शाला कई मायनों में अन्य विद्यालयों से अलग है। इस बात का अहसास आपको इस विद्यालय में पहुंचते ही होने लगेगा।

    यह स्कूल ऐसा है, जहां कक्षाओं के बाहर आजादी के सेनानियों की तस्वीरें बनी हुई हैं। यहां विद्यार्थी बागवानी का काम करते हुए नजर आ जाएंगे। इतना ही नहीं, इस विद्यालय में सूत कातने वाले चरखे भी मौजूद हैं, यह बात अलग है कि अब चरखे चलते नहीं।

    विद्यालय की प्रधानाचार्य पुष्पलता शर्मा ने आईएएनएस को बताया कि इस संस्था की स्थापना 1844 को हुई थी। उसके बाद एक बार महात्मा गांधी का यहां आना हुआ और उन्होंने गांव के लोगों से बच्चों को बुनियादी शिक्षा देने पर जोर दिया। महात्मा गांधी की बात को यहां के लोगों ने माना और उसके बाद से बागवानी, चरखा चलाने से लेकर गणवेश में गांधी टोपी को अनिवार्य कर दिया गया।

    शर्मा के अनुसार, विद्यालय में वर्तमान में कक्षा पहली से आठवीं तक की कक्षा में 116 विद्यार्थी अध्ययनरत हैं। उनकी गणवेश सफेद शर्ट और नीला पेंट और गांधी टोपी है। यहां आने वाले हर विद्यार्थी को अपने सिर पर गांधी टोपी लगाने में गर्व महसूस होता है। वे अनुशासित रहकर अध्ययन करते हैं।

    उन्हें सेनानियों की कहानियां सुनाई जाती हैं। ये नियमित रूप से बागवानी भी करते हैं। यहां पहले हर शनिवार को नियमित रूप से चरखा चलाने का एक चक्र (पीरियड) होता था, मगर अब ऐसा नहीं है।

    प्रधानाध्यापक शर्मा मानती हैं कि इस विद्यालय में ज्यादातर बच्चे उन परिवारों के हैं, जिनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है, क्योंकि ज्यादातर बच्चे निजी अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में पढ़ने जाने लगे हैं। मगर यहां के विद्यार्थियों में अनुशासन व अपने काम के प्रति समर्पण का भाव गजब का है। वे अपने को किसी से कम नहीं मानते। ऐसा इसलिए, क्योंकि उनके आदर्श सेनानियों के साथ महात्मा गांधी जो हैं।

    विद्यालय के शिक्षक संदीप कुमार शर्मा बताते हैं कि इस विद्यालय के चार शिक्षकों नरेंद्र शर्मा, महेश शर्मा, शेख नियाज और देव लाल बुनकर को राष्ट्रपति पुरस्कार मिल चुका है। संभवत: यह प्रदेश का इकलौता विद्यालय होगा, जहां के चार शिक्षकों को राष्ट्रपति पुरस्कार मिला हो।

    विद्यालय के ठीक सामने व्यापारिक प्रतिष्ठान के संचालक मनीष महाजन कहते हैं कि इस विद्यालय के विद्यार्थियों के सिर पर गांधी टोपी देखकर हर कोई रोमांचित हो जाता है और बच्चों को गांधी टोपी लगाए देखना सुखद भी लगता है।

    गांधी की विरासत को सहेजने वाले इस विद्यालय की क्षेत्र में अलग ही पहचान है, क्योंकि इस विद्यालय ने कई होनहार विद्यार्थी भी दिए हैं, जो प्रदेश की सरकारी नौकरी में अहम पदों पर हैं।
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    गांधी टोपी एक मगर रंग रूप और फैशन अनेक



    सोई हिंदू सो मुसलमान, जिनका रहे इमान। सो ब्राह्मण जो ब्राह्म गियाला, काजी जो जाने रहमान।।

    **********मिलिंद बायवार*********
    भ्रष्टाचार पर अंकुश के लिए जन लोकपाल बिल लाने की मांग को लेकर अन्ना हजारे के आंदोल ने गांधी टोपी को फिर एक नई पहचान दी है। वास्तव में गांधी टोपी देश की स्वाधीनता की प्रतीक है। इस टोपी को पहनने से मन में देश के प्रति नई ऊर्जा का संचार होता है। अन्ना हजारे ने लोगों में देशभक्ति का जो जज्बा जगाया है वह गांधी टोपी पहनने से और बढ़ता है। देश के गौरव की प्रतीक गांधी टोपी पर ही आधारित है आज की आवरण कथा।
    एक छोटी सी वस्तु कैसे किसी बड़े आंदोलन का प्रतीक बन जाती है, इसी का उदाहरण है गांधी टोपी। यह टोपी गांधीजी के अनुयायियों के लिए ही नहीं, बल्कि अपने अधिकारों की मांग को लेकर शांतिपूर्ण अनशन और आंदोलन करने वाले हर व्यक्ति लिए संघर्ष की पहचान बन गई है। गांधी टोपी पहनने के बाद व्यक्ति की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है,क्योंकि यह केवल टोपी नहीं बल्कि एक विचार का प्रतिनिधित्व है।
    गांधी टोपी अधिकतर खादी से बनाई जाती है और आगे और पीछे से जुड़ी हुई होती है। इसका मध्य भाग फुला हुआ होता है। इस टोपी के साथ महात्मा गांधी का नाम जोड़कर इसे गांधी टोपी कहा जाने लगा, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि गांधीजी ने  इस टोपी का अविष्कार नहीं किया था और न ही उन्होंने यह टोपी हमेशा पहनी। हालांकि  गांधीजी ने इस टोपी की लोकप्रियता को बढ़ाने मे उल्लेखनीय योगदान जरूर दिया ।

    गांधी से पहले भी थी गांधी टोपी
    भारत के बारे में सदियों पहले से जानें तो पता चलता है कि इस देश में महात्मा गांधी के जन्म से पहले भी गांधी टोपी का अस्तित्व था। यह टोपी वास्तव में भारत के संस्कारों और संस्कृति की प्रतीक है। प्राचीन भारत में मर्द के सिर पर टोपी और औरत के सिर पर पल्लू अ'छे संस्करों की निशानी मानी जाती थी। इस प्रकार की टोपी देश के कई प्रांतों जैसे उत्तरप्रदेश, गुजरात, बंगाल, बिहार, महाराष्ट्र, कर्नाटक और तमिलनाडू में सदियों से पहनी जाती रही है। आज भी देश के कई प्रांतों में ऐसे अनेक गांव हैं,जहां बिना इस टोपी के शायद ही कोई सिर दिखाई देता हो। मध्यमवर्ग से लेकर उच्च वर्ग के लोग बिना किसी राजनीतिक हस्तक्षेप के इसे पहनते आए हैं। इस टोपी के साथ गांधीजी का नाम जुडऩे का मुख्य कारण यह रहा है कि उन्होंने इस टोपी की लोकप्रियता को बढ़ाने मे अपना खास योगदान दिया था।

    गांधी टोपी और गांधीजी
    बात उस समय की है जब मोहनदास करमचंद गांधी दक्षिण अफ्रीका में वकालत करते थे। वहां अंग्रेजों के अत्याचारों से दु:खी होकर गांधीजी ने सत्याग्रह का रास्ता अपनाया। उस समय अंग्रेजों ने एक नियम बना रखा था कि हर भारतीय को अपने फिंगरप्रिंट्स यानि हाथों की निशानी देनी होगी। गांधीजी इस नियम का विरोध करने लगे और इसके विरोध में उन्होंने गिरफ्तारी दी। जेल में भी गांधीजी को भेदभाव का सामना करना पड़ा क्योंकि अंग्रेजों ने भारतीय कैदियों के लिए एक खास टोपी पहनना जरूरी कर दिया था। आगे चलकर गांधीजी ने इस टोपी को हमेशा के लिए प्रसारित और प्रचारित करना शुरू कर दिया। इसके पीछे उनका विचार यह था कि लोगों को अपने साथ हो रहे भेदभाव की याद हमेशा रहे। यही टोपी आगे चलकर गांधी टोपी के रूप में जानी गई। हालांकि गांधीजी जब भारत आए तो वे यह टोपी नहीं बल्कि पगड़ी पहने हुए थे और उसके बाद उन्होंने कभी पगड़ी या गांधी टोपी नहीं पहनी, लेकिन भारतीय नेताओं और सत्याग्रहियों ने इस टोपी को आसानी से अपना लिया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने इस टोपी को गांधीजी के नाम के साथ जोड़ा और अपने प्रचारकों और सत्याग्रहियों को इसे पहनने के लिए प्रोत्साहित किया। इस प्रकार राजनीतिक कारणों से ही सही, लेकिन इस टोपी की पहुंच ऐसे लाखों लोगों तक हो गई जो किसी भी प्रकार की टोपी नहीं पहनते थे।

    रंग बदले लेकिन टोपी वही
    भारतीय नेता और राजनीतिक दल इस प्रकार की टोपी के अलग अलग प्रारूप इस्तेमाल करते थे। सुभाष चन्द्र बोस खाकी रंग की तो हिन्दू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक काले रंग की टोपी पहनते थे। आज भी कांग्रेस के कुछ पुराने नेता गांधी टोपी को अपनाए हुए हैैं। वहीं समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ता लाल रंग की टोपी और बहुजन समाज पार्टी के कार्यकर्ता नीली टोपी पहनते हैं। आज अन्ना हजारे के आंदोलन ने सफेद गांधी टोपी को फिर नई पहचान दी है। लाखों आंदलनकारी लोगों ने इस टोपी को अपनाया है। फर्क सिर्फ इतना है कि इस टोपी पर लिखा हुआ है मैैं अन्ना हजारे हूं। हालांकि स्वयं अन्ना हजारे परंपरागत गांधी टोपी ही पहनते हैैं। वास्तव में यह टोपी सत्य व अहिंसा के मार्ग पर चलने वाले तमाम लोगों और ठेठ भारत की छवि की नुमाइंदगी करती है।

    टोपी का आध्यात्मिक महत्व
    आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखें तो उर्जा का विकिरण सबसे अधिक सिर के बालों से होता है। इसलिए सिर पर कपड़ा रखने, टोपी पहनने, पगड़ी बांधने का क्या तात्पर्य यही है  कि उर्जा विकीर्ण न होकर वह सारे शरीर में अपना वर्तुल बना ले।

    गांधीजी का बदलता पहनावा
     गांधीजी की हर बात में कुछ मर्म होता था। उनके कपड़ों का फर्क देखने से ही उनकेजीवन की क्रांति को समझा जा सकता है। जब वे बैरिस्टर थे, तब एकदम यूरोपियन पोशाक पहनते थे। बाद में उन्होंने वह पोशाक त्याग दी । अफ्रीका में उन्होंने सत्याग्रही पोशाक को अपनाया । जब वे भारत लौटे तब काठियावाड़ी पगडी़, धोती पहने हुए थे, लेकिन जब उन्होंने देखा कि एक पगड़ी में कई टोपियां बन सकती है, तब टोपी पहनने लगे। इसी टोपी को हम गांधी टोपी कहते हैं । फिर उन्होंने कुर्ता और टोपी का भी त्याग कर दिया और सिर्फ एक पंछिया पहनकर ही रहने लगे। यह पंछिया पहनकर ही वे लन्दन में सम्राट पंचम जार्ज से मिलने राजमहल गए।  वास्तव में महात्मा गांधी की आत्मा गरीब से गरीब लोगों से एकरूप होने के लिए छटपटाती रहती थी ।

    एक मार्मिक संस्मरण
    एक बार गांधीजी एक स्कूल देखने गए । हंसी-मजाक चल रहा था । एक छात्र कुछ बोला । शिक्षक ने उसकी तरफ गुस्से से देखा । गांधीजी उस छात्र के पास गए और बोले: ''तुमने मुझे बुलाया ? क्या कहना है ? बोलो, डरो मत ।
    छात्र बोला-''आपने कुर्ता क्यों नहीं पहना ? मैं अपनी मां से कहूं क्या ? वह कुर्ता सी देगी ।  मेरी मां के हाथ का कुर्ता आप पहनेंगे न?
    गांधीजी बोले- ''जरूर पहनूंगा, लेकिन एक शर्त है बेटा ! मैं अकेला नहीं हूं।
    छात्र बोला- ''तब और कितने कुर्ते चाहिए ? मां दो सौ सिल देगी ।
    गांधीजी बोले- ''बेटा, मेरे 40 करोड़ भाई-बहन हैं । 40 करोड़ लोगों के बदन पर कपड़ा आएगा, तब मेरे लिए भी कुर्ता चलेगा । तुम्हारी मां 40 करोड़ कुर्ते सी देगी ?
    गांधीजी ने छात्र की पीठ थपथपाई और चले गए । वास्तव में महात्माजी का पहनावा यह बताता था कि वे राष्ट्र के साथ एकरूप हो गए थे ।

    चरणों पर रख दिया साफा
    एक बार एक सेठ महात्मा गांधी से मिलने गए। उन्होंने गांधीजी से कहा- आज पूरा देश आपके नाम की टोपी पहनता है, लेकिनआप टोपी क्यों नहीं पहनते ? गांधीजी गंभीर होकर बोले-आप ठीक कहते हैं, लेकिन जरा अपने सिर पर पहना साफा देखिए। इसकी कम से कम बीस टोपियां अवश्य बन जाएंगी। जरा सोचिए, बीस टोपियों का साफा आप अपने अकेले सिर पर पहनकर क्या बीस नंगे सिरों को टोपी पहनने से वंचित नहीं कर रहे ? मैं भी उन्हीं बीस लोगों में से एक हूं। गांधीजी की बात सुन सेठजी बगले झांकने लगे। तब गांधीजी ने उन्हें फिर समझाया- अपव्यय और संचय वृत्ति दूसरों को उनकेन्यूनतम अधिकारों से भी वंचित कर देती है। इसलिए आपको कोशिश करनी चाहिए कि आप अपव्यय और संचय से जितना हो सके दूर रहें। सेठ ने गांधीजी की बात सुनकर अपना साफा उतार उनके चरणों पर रख दिया।
    गांधी टोपी से दूर होते सत्ताधारी
    आज बाजार में कई तरह की टोपियां दिखाई देती है। ये हमारे सिर और चेहरे को धूप से बचाती हैं। सिर पर टोपी लगाने को अनुशासन और विशेष समूह की पहचान से भी जोड़कर देखा जाता है। क्रिकेट टीम केहर देश की ड्रेस की तरह उनकी कैप भी अलग रंग और स्टाइल की होती है। पुलिस और सेना की कैप भी किसी विशेष रंग की होती है, जिससे दूर से ही उनकी पहचान की जा सकती है।
    इतिहास के जानकारों के मुताबिक भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौर में गांधी टोपी एक तरह से कांग्रेस की ठेठ पहचान से जुड़ गयी थी। लेकिन आजादी मिलने के बाद देश के नेताओं में इसका चलन लगातार कम होता चला गया।
    वास्तव में टोपी बुद्धि -विवेक को संयमित करने के लिए छत्र का काम करती है, शरीर के लिए जैसे वस्त्र है ,वैसे ही शिरस्त्राण या टोपी है।  गांधी टोपी उत्तरप्रदेश के रामपुर जनपद में तैयार की जाती थी और गांधीजी इसे अपनाने को कहते थे ,रामपुर जनपद का पुराना नाम मुस्तफाबाद था। धार्मिक आस्था में टोपी धारण करना पुरानी रीति रही है, लेकिन राजनीति में टोपी का आना बड़ी बात थी। इतिहास गवाह है कि गांधी टोपी कांग्रेस विचारधारा से जुड़े लोगों के पहनावे का हिस्सा रही है। गांधी टोपी अस्सी के दशक  के आरंभ तक नेताओं के सिर की शान हुआ करती थी। पूर्व प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू हों या मोरारजी देसाई, किसी ने शायद ही उनकी कोई तस्वीर बिना गांधी टोपी के देखी हो।
    वक्त बदलने के साथ-साथ सत्ताधारियों के पहनावे में भी अंतर आने लगा। अस्सी के दशक के बाद गांधी टोपी धारण किए गए नेताओं के चित्र दुर्लभ ही देखने को मिलते हैं। आज करीने से संवारे गए बालों में पोज देते नेता, मंत्री अवश्य ही दिख जाया करते हैं। 15 अगस्त और 26 जनवरी को भी सलामी लेते समय नेताओं या अधिकारियों को गांधी टोपी की जगह फर वाली टोपी का इस्तेमाल करना अधिक मुनासिब लगता है।
      गांधी टोपी कांग्रेस सेवादल के ड्रेस कोड में भी शामिल है । जब भी किसी बड़े नेता या मंत्री को कांग्रेस सेवादल की सलामी लेनी होती है तो उनके लिए चंद लम्हों के लिए ही सही गांधी टोपी की व्यवस्था की जाती है। सलामी लेने के तुरंत बाद नेता टोपी उतारकर अपने अंगरक्षक की ओर बढ़ा देते हैं, और अपने बाल काढ़ते नजर आते हैं। यह हकीकत है कि आधुनिक ता के इस युग में महात्मा गांधी के नाम से पहचानी जाने वाली गांधी टोपी अब नेताओं के सिर का ताज नहीं बन पा रही है।
    अस्सी के दशक के आरंभ तक अनेक प्रदेशों में चतुर्थ श्रेणी सरकारी नुमाईंदों के ड्रेस कोड में भी गांधी टोपी शामिल थी, जिसे पहनकर सरकारी कर्मचारी अपने आप को गोरवांन्वित महसूस किया करते थे। कालांतर में गांधी टोपी ''आउट ऑफ फैशन'' हो गई। यहां तक कि जिस शख्सियत को पूरा देश राष्ट्रपिता के नाम से बुलाता है, उसी के नाम की टोपी को कम से कम सरकारी कर्मचारियों के सिर की शान बनाने में भी देश और प्रदेशों की सरकरों को जिल्लत महसूस होती है। यही कारण है कि इस टोपी को पहनने के लिए सरकारें अपने मातहतों को पाबंद भी नहीं कर पाईं हैं।
    यह सच है कि नेताओं की भाव भंगिमओं, उनके आचार विचार, पहनावे को उनके कार्यकर्ता अपनाते हैं। जब नेताओं के सर का ताज ही यह टोपी नहीं बन पाई हो तो औरों की कौन कहे। आज अन्ना हजारे के जनआंदोलन से गांधी टोपी को जो पहचान मिली है वह आश्चर्यजनक और गोरवान्वित करने वाली है। इससे साबित होता है कि सत्ताधारी भले ही गांधी टोपी से दूर हो रहे हैैं, लेकिन आम जन में इस टोपी का जज्बा आज भी बरकरार है। सार्वजनिक तौर पर हमेशा गांधी टोपी पहने दिखने वाले अन्ना ने इस टोपी को नए सिरे से परिभाषित करते हुए राजनीतिक सीमाओं के पार पहुंचा दिया है।

    फिर जागी राष्ट्रीय भावना
    भ्रष्टाचार के मुद्दे को लेकर अनशन पर बैठे 72 साल के गांधीवादी अन्ना हजारे ने देश की आजादी के 64 साल बाद गांधी टोपी को फिर राष्ट्रीय भावना का प्रतीक बना दिया है और इसे उनके जादू के अलावा क्या कहा जा सकता है। एक लोकपाल हजारों, लाखों करोड़ों अन्ना। जहां देखो वहां अन्ना। गांधी टोपी लगाए सादगी की प्रतिमूर्ति नजर आने वाले अन्ना से प्रभावित होने वालों में युवाओं की खासी तादाद नजर आ रही है। अन्ना की सादगी पर मर मिटने वाले युवाओं ने गांधी टोपी की मांग को अचानक ही बढ़ा दिया है। अब तो सफेद गांधी टोपी जिस पर मैं अन्ना हूं लिखा है हर किसी के सिर का ताज बनी हुई है। कल तक मारी मारी फिरने वाली यह टोपी आज सवा सौ रूपए में भी नसीब नहीं हो पा रही है। सिर पर गांधी टोपी लगाए भारतवासियों का जुनून देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है कि इनकी पुरानी पीढ़ी ने जब गोरे ब्रितानियों से संघर्ष किया होगा तब उनके अंदर क्या जज्बा रहा होगा। देश में अन्ना की आंधी से गांधी टोपी एक बार फिर प्रासंगिक हो चुकी है, किन्तु यह जनता जनार्दन की नजरों में ही प्रासंगिक है। देश के नेताओं की आंखों का पानी मर चुका है। वे गांधी के नाम पर सत्ता की मलाई तो चखना चाहते हैं पर आदर्शों और सिद्धांतों के बिना।
    अगर देश के नेता गांधी टोपी को ही एक औपचारिकता समझकर इसे धारण करेंगे तो फिर उनसे गांधी के सिद्धांतों पर चलने की आशा करना बेमानी ही होगा।
    हालांकि देश में गांधीत्व का आचरण करने वाले नेताओं की भी कोई कमी नहीं है, लेकिन ऐसे लोग संगठन और सरकार में हाशिए पर रखे जाने के कारण दिखाई कम पड़ते हैं। ऐसे नेताओं की भी कमी नहीं जो गांधी टोपी धारण नहीं करते, लेकिन गांधी के भक्त हैं। ऐसे लोगों के लिए गांधी टोपी पहनने या न पहनने से कुछ फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि ऐसे लोगों का जीवन ही गांधीत्व का अनुपम उदाहरण है। ऐसे ही लोग गांधीत्व की रीढ़ हैं।
    जरा सोचिए, जो व्यक्ति या संगठन गांधी को पूर्ण रूपेण आत्मसात कर लेगा, उसको भ्रष्टाचार से कुछ भी लेना-देना रह जाएगा क्या ? वह भ्रष्टाचार पर मौन कैसे रह सकेगा ? यदि देश के नेताओं ने गांधी को अपना लिया होता तो 'भ्रष्टाचार की गंगा क्यों बहती ? इसके पीछे मुख्य कारण गांधीत्व को अंगीकार न करना ही है। यदि आप गांधी के विचारों की बार-बार दुहाई देते हैं और गांधी टोपी भी पहनते हैं; फिर भी आप भ्रष्टाचार करने से बाज नहीं आते तो भलाई इसी में है कि गांधी को बदनाम मत कीजिए, उनको चैन की सांस लेने दीजिए। कुछ समय पहले संसद में कांग्रेस के शांताराम लक्ष्मण नाइक ने सवाल पूछा था कि क्या महात्मा गांधी को उनके गुणों, ईमानदारी, प्रतिबद्धता, विचारों और सादगी के साथ दोबारा पैदा किया जा सकता है। इस समय उनकी बहुत जरूरत है। हम सब अपने उद्देश्य से भटक गए हैं और हमें महात्मा गांधी के मार्गदर्शन की जरूरत है। भले ही यह महात्मा गांधी के क्लोन से ही मिले।

    गांधी टोपी वाला स्कूल
    मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर जिले से महज 8 किलोमीटर की दूरी पर स्थित अंग्रजों केसमय से चला आ रहा प्रदेश का एकमात्र अनोखा विद्यालय सिंहपुर में स्थित है। इस विद्यालय की स्थापना काल 1868 से ही छात्र स्कूल में गांधी टोपी लगाकर जाते हैं। 143 साल से यह परंपरा चली आ रही है और आज भी कायम है। इस स्कूल का नाम शासकीय उत्तर बुनियादी शाला है, जो 'गांधी टोपी वाले स्कूल के नाम से प्रख्यात है। स्कूल की स्थापना के बाद से ही पढ़ाई करने वाले छात्रों को टोपी पहन कर आना अनिवार्य किया गया था। टोपी लगाना कभी इनकी मजबूरी नहीं रहीं। यहां सिंहपुर के अलावा आस-पास के दर्जनों गांव की तीन पीढिय़ों तक ने अध्ययन किया है। अब तो कई छात्र ऐसे हैं जो अपने पिता, दादा और परदादा के पढऩे वाले इस स्कूल में अध्यनरत है। प्राथमिक माध्यमिक स्तर तक की कक्षा वाले इस स्कूल में कुछ शिक्षक इसी विद्यालय में पढ़े और अब नई पीढ़ी को शिक्षित कर रहे हैं। इस स्कूल की खासियत यह है कि 21.7.1869 से लेकर आज तक के पूरे रिकार्ड को भी संजो कर रखा गया है।
    शैक्षणिक गुणवत्ता के मामले में भी इस विद्यालय पीछे नहीं रहा। यहां अध्ययन करने वालों छात्रों ने शिक्षा, चिकित्सा, प्रबंधन, कंप्यूटर इत्यादि के क्षेत्र में कीर्तिमान स्थापित किए हैं।
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