का स्वागत करती है। |
योग
मुक्त ज्ञानकोष विकिपीडिया से
इस अनुच्छेद को विकिपीडिया लेख Yoga के इस संस्करण से अनुवादित किया गया है.योग भारत में प्रारंभिक पारंपरिक शारीरिक और मानसिक शास्त्रों को सूचित करता है। यह शब्द बौद्ध धर्म और हिंदू धर्म में ध्यानाप्रक्रिया से सम्बंधित है।
अनुक्रम[छुपाएँ] |
[संपादित करें] परिचय
योग शब्द भारत में तो सर्वत्र प्रचलित है ही, बौद्ध धर्म के साथ चीन, जापान, तिब्बत, दक्षिण पूर्व एशिया और लंका में भी फैल गया है और इस समय तो सारे सभ्य जगत् में लोग इससे परिचित हैं। ऐसी अवस्था में ऐसा प्रतीत होता है कि इसका वाच्यार्थ स्पष्ट होगा और इसकी परिभाषा सुनिश्चित होगी। परंतु ऐसा नहीं है। भगवद्गीता प्रतिष्ठित ग्रंथ माना जाता है। उसमें योग शब्द का कई बार प्रयोग हुआ है, कभी अकेले और कभी सविशेषण, जैसे बुद्धियोग, संन्यासयोग, कर्मयोग। वेदोत्तर काल में भक्तियोग और हठयोग नाम भी प्रचलित हो गए हैं। महात्मा गांधी ने अनासक्ति योग का व्यवहार किया है। पातंजल योगदर्शन में क्रियायोग शब्द देखने में आता है। पाशुपत योग और माहेश्वर योग जैसे शब्दों का भी चर्चा मिलता है। इन सब स्थलों में योग शब्द के जो अर्थ हैं वह एक दूसरे के विरोधी हैं परंतु इतने विभिन्न प्रयोगों को देखने से यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि योग की परिभाशा करना कितना कठिन काम है। परिभाषा ऐसी होनी चाहिए जो अव्याप्ति और अतिव्याप्ति दोषों से मुक्त हो, योग शब्द के वाच्यार्थ का ऐसा लक्षण बतला सके जो प्रत्येक प्रसंग के लिये उपयुक्त हो और योग के सिवाय किसी अन्य वस्तु के लिये उपयुक्त न हो।गीता में श्रीकृष्ण ने एक स्थल पर कहा है 'योग: कर्मसु कौशलम्' कर्मो में कुशलता को योग कहते हैं। स्पष्ट है कि यह वाक्य योग की परिभाषा नहीं है। कुछ विद्वानों का यह मत है कि जीवात्मा और परमात्मा के मिल जाने को योग कहते हैं। इस बात को स्वीकार करने में यह बड़ी आपत्ति खड़ी होती है कि बौद्धमतावलंबी भी, जो परमात्मा की सत्ता को स्वीकार नहीं करते, योग शब्द का व्यवहार करते और योग का समर्थन करते हैं यही बात सांख्यवादियों के लिए भी कही जा सकती है जो ईश्वर की सत्ता को असिद्ध मानते हैं पंतजलि ने योगदर्शन में, जो परिभाषा दी है 'योगश्रिवत्तवृत्तिनिरोध, वित्त की वृत्तियों के निरोध = पूर्णतया रुक जाने का नाम योग है। इस वाक्य के दो अर्थ हो सकते हैं: चित्तवृत्तियों के निरोध की अवस्था का नाम योग है या इस अवस्था को लाने के उपाय को योग कहते हैं।
परंतु इस परिभाषा पर कई विद्वानों को आपत्ति है। उनका कहना है कि चित्तवृत्तियों के प्रवाह का ही नाम चित्त है। पूर्ण निरोध का अर्थ होगा चित्त के अस्त्त्वि का पूर्ण लोप, चित्ताश्रय समस्त स्मृतियों और संस्कारों का नि:शेष हो जाना। यदि ऐसा हो जाए तो फिर समाधि से उठना संभव नहीं होगा। क्योंकि उस अवस्था के सहारे के लिये कोई भी संस्कार बचा नहीं होगा, प्रारब्ध दग्ध हो गया होगा। निरोध यदि संभव हो तो श्रीकृष्ण के इस वाक्यों का क्या अर्थ होगा: योगस्थ: कुरु कर्माणि, योग में स्थित होकर कर्म करो । विरुद्धावस्था में कर्म हो नहीं सकता और उस अवस्था में कोई संस्कार नहीं पड़ सकते, स्मृतियाँ नहीं बन सकतीं, जो समाधि से उठने के बाद कर्म करने में सहायक हों।
संक्षेप में आशय यह है कि योग के शास्त्रीय स्वरूप, उसके दार्शनिक आधार, को सम्यक् रूप से समझना बहुत सरल नहीं है। संसार को मिथ्या माननेवाला अद्वैतवादी भी निदिध्याह्न के नाम से उसका समर्थन करता है। अनीश्वरवादी सांख्या विद्वान भी उसका अनुमोदन करता है। बौद्ध ही नहीं, मुस्लिम सूफी और ईसाई मिस्टिक भी किसी न किसी प्रकार अपने संप्रदाय की मान्यताओं और दार्शनिक सिद्धांतों के साथ उसका सामंजस्य स्थापित कर लेते हैं।
इन विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं में किस प्रकार ऐसा समन्वय हो सकता है कि ऐसा धरातल मिल सके जिसपर योग की भित्ति खड़ी की जा सके, यह बड़ा रोचक प्रश्न है परंतु इसके विवेचन के लिये बहुत समय चाहिए। यहाँ उस प्रक्रिया पर थोड़ा सा विचार कर लेना आवश्यक है जिसकी रूपरेखा हमको पतंजलि के सूत्रों में मिलती है। थोड़े बहुत शब्दभेद से यह प्रक्रिया उन सभी समुदायों को मान्य है जो योग के अभ्यास का समर्थन करते हैं।
पतंजलि को कपिलोक्त सांख्यदर्शन ही अभिमत है। थोड़े में, इस दर्शन के अनुसार इस जगत् में असंख्या पुरुष हैं और एक प्रधान या मूल प्रकृति। पुरुष चित् है, प्रधान अचित्। पुरुष नित्य है और अपरिवर्तनशील, प्रधान भी नित्य है परंतु परिवर्तनशील। दोनों एक दूसरे से सदा पृथक हैं, परंतु एक प्रकार से एक का दूसरे पर प्रभाव पड़ता है। पुरुष के सान्निध्य से प्रकृति में परिवर्तन होने लगते हैं। वह क्षुब्ध हो उठती है। पहले उसमें महत् या बुद्धि की उत्पत्ति होती है, फिर अहंकार की, फिर मन की। अहंकार से ज्ञानेंद्रियों और कर्मेद्रियों तथा पाँच तन्मात्राओं अर्थात् शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गंध की, अंत में इन पाँचों से आकाश, वायु, तेज, अप और क्षिति नाम के महाभूतों की। इन सबके संयोग वियोग से इस विश्व का खेल हो रहा है। संक्षेप में, यही सृष्टि का क्रम है। प्रकृति में परिवर्तन भले ही हो परंतु पुरुष ज्यों का त्यों रहता है। फिर भी एक बात होती है। जैसे श्वेत स्फटिक के सामने रंग बिरंगे फूलों को लाने से उसपर उनका रंगीन प्रतिबिंब पड़ता है, इसी प्रकार पुरुष पर प्राकृतिक विकृतियों के प्रतिबिंब पड़ते हैं। क्रमश: वह बुद्धि से लेकर क्षिति तक से रंजित प्रतीत होता है, अपने को प्रकृति के इन विकारों से संबद्ध मानने लगता है। आज अपने को धनी, निर्धन, बलवान् दुर्बल, कुटुंबी, सुखी, दु:खी, आदि मान रहा है। अपने शुद्ध रूप से दूर जा पड़ा है। यह उसका भ्रम, अविद्या है। प्रधान से बने हुए इन पदार्थो ने उसके रूप को ढँक रखा है, उसके ऊपर कई तह खोल पड़ गई है। यदि वह इन खोलों, इन आवरणों को दूर फेंक दे तो उसका छुटकारा हो जायगा। जिस क्रम से बँधा है, उसके उलटे क्रम से बंधन टूटेंगे। पहले महाभूतों से ऊपर उठना होगा। अंत में प्रधान की ओर से मुँह फेरना होगा। यह बंधन वास्तविक नहीं है, परंतु बहुत ही दृढ़ प्रतीत होते हैं। जिस उपयोग से बंधनों को तोड़कर पुरुष अपने शुद्ध स्वरूप में स्थित हो सके उस उपाय का नाम योग है। सांख्य के आचार्यो का कहना है: यद्वा तद्वा तदुच्छिति: परमपुरुषार्थ:-जैसे भी हो सके पुरुष और प्रधान के इस कृत्रिम संयोग का उच्छेद करना परम पुरुषार्थ हैं।
योग का यही दार्शनिक धरातल है: अविद्या के दूर होने पर जो अवस्था होती है उसका वर्णन विभिन्न आचार्यों और विचारकों के विभिन्न ढंग से किया है। अपने अपने विचार के अनुसार उन्होंने उसको पृथक नाम भी दिए हैं। कोई उसे केवल्य कहता है, कोई मोक्ष, कोई निर्वाण। ऊपर पहुँचकर जिसको जैसा अनुभव हो वह उसे उस प्रकार कहे। वस्तुत: वह अवस्था ऐसी हे यतो वाचो निवर्तते अप्राप्य मनसा सह-जहाँ मन ओर वाणी की पहुँच नहीं है। थोड़े से शब्दों में एक और बात का भी चर्चा कर देना आवश्यक है। असंख्य पुरुषों के साथ पतंजलि के पुरुष विशेष नाम से ईश्वर की सत्ता को भी माना है। सांख्या के आचार्य ऐसा नहीं मानते। वस्तुत: मानने की आवश्यकता भी नहीं है। यदि योगदर्शन में से वह थोड़े से सूत्र में कोई अंतर नहीं पड़ता। योग की साधना की दृष्टि से ईश्वर को मानने न मानने का विशेष महत्व नहीं है। ईश्वर की सत्ता को माननेवाले और न मानने वाले, दोनों योग में समान रूप से अधिकार रखते हैं।
विद्या और अविद्या, बंधन और उससे छुटकारा, सुख और दु:ख सब चित्त में हैं। अत: जो कोई अपने स्वरूप में स्थिति पाने का इच्छुक है उसको अपने चित्त को उन वस्तुओं से हटाने का प्रयत्न करना होगा, जो हठात् प्रधान और उसके विकारों की ओर खींचती हैं और सुख दु:ख की अनुभूति उत्पन्न करती हैं। इस तरह चित्त को हटाने तथा चित्त के ऐसी वस्तुओं से हट जाने का नाम वैराग्य है। यह योग की पहली सीढ़ी है। पूर्ण वैराग्य एकदम नहीं हुआ करता। ज्यों ज्यों व्यक्ति योग की साधना में प्रवृत्त होता है त्यों त्यों वैराग्य भी बढ़ता है और ज्यों ज्यों वेराग्य बढ़ता है त्यों त्यों साधना में प्रवृत्ति बढ़ती है। जेसा पतंजलि ने कहा है: दृष्ट और अनुश्रविक दोनों प्रकार के विषयों में विरक्ति, गांधी जी के शब्दों में अनासक्ति, होनी चाहिए। स्वर्ग आदि, जिनका ज्ञान हमको अनुश्रुति अर्थात् महात्माओं के वचनों और धर्मग्रंथों से होता है, अनुश्रविक कहलाते हें। योग की साधना को अभ्यास कहते हैं। इधर कई सौ वर्षो से साधुओं में इस आरम्भ में भजन शब्द भी चल पड़ा है।
चित्त जब तक इंद्रियों के विषयों की ओर बढ़ता रहेगा, चंचल रहेगा। इंद्रियाँ उसका एक के बाद दूसरी भोग्य वस्तु से संपर्क कराती रहेंगी। कितनों से वियोग भी कराती रहेंगी। काम, क्रोध, लोभ, आदि के उद्दीप्त होने के सैकड़ों अवसर आते रहेंगे। सुखश् दु:ख की निरंतर अनुभूति होती रहेगी। इस प्रकार प्रधान ओर उसके विकारों के साथ जो बंधन अनेक जन्मों से चले आ रहे हैं वे दृढ़ से दृढ़तर होते चले जाएँगे। अत: चित्त को इंद्रियों के विषयों से खींचकर अंतर्मुख करना होगा। इसके अनेक उपाय बताए गए हैं जिनके ब्योरे में जाने की आवश्यकता नहीं है। साधारण मनुष्य के चित्त की अवस्था क्षिप्त कहलाती है। वह एक विषय से दूसरे विषय की ओर फेंका फिरता है। जब उसको प्रयत्न करके किसी एक विषय पर लाया जाता है तब भी वह जल्दी से विषयंतर की ओर चला जाता है। इस अवस्था को विक्षिप्त कहते हैं। दीर्ध प्रयत्न के बाद साधक उसे किसी एक विषय पर देर तक रख सकता है। इस अवस्था का नाम एकाग्र है। चित्त को वशीभूत करना बहुत कठिन काम है। श्रीकृष्ण ने इसे प्रमाथि बलवत्-मस्त हाथी के समान बलवान्-बताया है।
चित्त को वश में करने में एक चीज से सहायता मिलती है। यह साधारण अनुभव की बात है कि जब तक शरीर चंचल रहता है, चित्त चंचल रहता है और चित्त की चंचलता शरीर को चंचल बनाए रहती है। शरीर की चंचलता नाड़ीसंस्थान की चंचलता पर निर्भर करती है। जब तक नाड़ीसंस्थान संक्षुब्ध रहेगा, शरीर पर इंद्रिय ग्राह्य विषयों के आधात होते रहेंगे। उन आधातों का प्रभाव मस्तिष्क पर पड़ेगा जिसके फलस्वरूप चित्त और शरीर दोनों में ही चंचलता बनी रहेगी। चित्त को निश्चल बनाने के लिये योगी वैसा ही उपाय करता है जैसा कभी कभी युद्ध में करना पड़ता है। किसी प्रबल शत्रु से लड़ने में यदि उसके मित्रों को परास्त किया जा सके तो सफलता की संभावना बढ़ जाती है। योगी चित्त पर अधिकार पाने के लिए शरीर और उसमें भी मुख्यत: नाड़ीसंस्थान, को वश में करने का प्रयत्न करता है। शरीर भौतिक है, नाड़ियाँ भी भौतिक हैं। इसलिये इनसे निपटना सहज है। जिस प्रक्रिया से यह बात सिद्ध होती है उसके दो अंग हैं: आसन और प्राणायाम। आसन से शरीर निश्चल बनता है। बहुत से आसनों का अभयास तो स्वास्थ्य की दृष्टि से किया जाता है। पतंजलि ने इतना ही कहा है: स्थिर सुखमासनम्: जिसपर देर तक बिना कष्ट के बैठा जा सके वही आसन श्रेष्ठ है। यही सही है कि आसनसिद्धि के लिये स्वास्थ्य संबंधी कुछ नियमों का पालन आवश्यक है। जैसा श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है-
युक्ताहार बिहारस्य, युक्त चेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य, योगो भवति दु:खहा।।
खाने, पीने, सोने, जागने सभी का नियंत्रण करना होता है। प्राणायाम शब्द के संबंध में बहुत भ्रम फैला हुआ है। इस भ्रम का कारण यह है कि आज लोग प्राण शब्द के अर्थ को प्राय: भूल गए हैं। बहुत से ऐसे लोग भी, जो अपने को योगी कहते हैं, इस शब्द के संबंध में भूल करते हैं। योगी को इस बात का प्रयत्न करना होता है कि वह अपने प्राण को सुषुम्ना में ले जाय। सुषुम्ना वह नाड़ी है जो मेरुदंड की नली में स्थित है और मस्त्तिष्क के नीचे तक पहुँचती है। यह कोई गुप्त चीज नहीं है। आखों से देखी जा सकती है। करीब करीब कनष्ठाि उँगली के बराबर मोटी होती है, ठोस है, इसमें कोई छेद नहीं है। प्राण का और साँस या हवा करनेवालों को इस बात का पता नहीं है कि इस नाड़ी में हवा के घुसने के लिये औरऊपर चढ़ने के लिये कोई मार्ग नहीं है। प्राण को हवा का समानार्थक मानकर ही ऐसी बातें कही जाती हैं कि अमुक महात्मा ने अपनी साँस को ब्रह्मांड में चढ़ा लिया। साँस पर नियंत्रण रखने से नाड़ीसंस्थान को स्थिर करने में निश्चय ही सहायता मिलती है, परंतु योगी का मुख्य उद्देश्य प्राण का नियंत्रण है, साँस का नहीं। प्राण वह शक्ति है जो नाड़ीसंस्थान में संचार करती है। शरीर के सभी अवयवों को और सभी धातुओं को प्राण से ही जीवन और सक्रियता मिलती है। जब शरीर के स्थिर होने से ओर प्रणयाम की क्रिया से, प्राण सुषुम्ना की ओर प्रवृत्त होता है तो उसका प्रवाह नीचे की नाड़ियों में से खिंच जाता है। अत: ये नाड़ियाँ बाहर के आधातों की ओर से एक प्रकार से शून्यवत् हो जाती हैं।
प्राणयाम का अभ्यास करना और प्राणायाम में सफलता पा जाना दो अलग अलग बातें हैं। परंतु वैराग्य और तीव्र संवेग के बल से सफलता का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। ज्यों ज्यों अभ्यास दृढ़ होता है, त्यों त्यों साधक के आत्मविश्वास में वृद्धि होती है। एक और बात होती है। वह जितना ही अपने चित्त को इंद्रियों और उनके विषयों से दूर खींचता है उतना ही उसकी ऐंद्रिय शक्ति भी बढ़ती है अर्थात् इंद्रियों की विषयों के भोग की शक्ति भी बढ़ती है। इसीलिये प्राणायाम के बाद प्रत्याहार का नाम लिया जाता है। प्रत्याहार का अर्थ है इंद्रियों को उनके विषयों से खींचना। वैराग्य के प्रसंग में यह उपदेश दिया जा चुका है परंतु प्राणायम तक पहँचकर इसकों विशेष रूप से दुहराने की आवश्यकता है। आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार के ही समुच्चय का नाम हठयोग है। खेद की बात है कि कुछ अभयासी यहीं रुक जाते हैं। जो लोग आगे बढ़ते हैं उनके मार्ग को तीन विभागों में बाँटा जाता है: धारणा, ध्यान और समाधि। इन तीनों को एक दूसरे से बिल्कुल पृथक करना असंभव है। धारण पुष्ट होकर ध्यान का रूप धारण करती है और उन्नत ध्यान ही समाधि कहलाता है। पतंजलि ने तीनों को सम्मिलित रूप से संयम कहा है। धारणा वह उपाय है जिससे चित्त को एकाग्र करने में सहायता मिलती है। यहाँ उपाय शब्द का एकवचन में प्रयोग हुआ है परंतु वस्तुत: इस काम के अनेक उपाय हैं। इनमें से कुछ का चर्चा उपनिषदों में आया है। वैदिक वाड्मय में विद्या शब्द का प्रयोग किया गया है। किसी मंत्र के जप, किसी देव, देवी या महात्मा के विग्रह या सूर्य, अग्नि, दीपशिखा आदि को शरीर के किसी स्थानविशेष जेसे ्ह्रदय, मूर्घा, तिल अर्थात दोनों आँखों के बीच के बिंदु, इनमें से किसी जगह कल्पना में स्थिर करना, इस प्रकार के जो भी उपाय किए जायँ वे सभी धारणा के अंतर्गत हैं। जेसा कि कुछ उपायों को बतलाने के बाद पतंजलि ने यह लिख दिया है यथाभिमत ध्यानाद्वा-जो वस्तु अपने को अच्छी लगे उसपर ही चित्त को एकाग्र करने से काम चल सकता है। किसी पुराण में ऐसी कथा आई है कि अपने गुरु की आज्ञा से किसी अशिक्षित व्यक्ति ने अपनी भैंस के माध्यम से चित्त को एकाग्र करके समाधि प्राप्त की थी।
धारणा की सबसे उत्तम पद्धति वह है जिसे पुराने शब्दों में नादानुसंधान कहते हैं। कबीर और उनके परवर्ती संतों ने इसे सुरत शब्द योग की संज्ञा दी है। जिस प्रकार चंचल मृग वीणा के स्वरों से मुग्ध होकर चौकड़ी भरना भूल जाता है, उसी प्रकार साधक का चित्त नाद के प्रभाव से चंचलता छोड़कर स्थिर हो जाता है। वह नाद कौन सा है जिसमें चित्त की वृत्तियों को लय करने का प्रयास किया जाता है और यह प्रयास कैसे किया जाता है, ये बातें तो गुरुमुख से ही जानी जाती हैं। अंतर्नाद के सूक्ष्मत्तम रूप को प्रवल, ओंकार, कहते हैं। प्रणव वस्तुत: अनुच्चार्य्य है। उसका अनुभव किया जा सकता है, वाणी में व्यंजना नहीं, नादविंदूपनिषद् के शब्दों में:
ब्रह्म प्रणव संयानं, नादों ज्योतिर्मय: शिव:।
स्वयमाविर्भवेदात्मा मेयापायेऽशुमानिव।।
प्रणव के अनुसंधान से, ज्योतिर्मय और कल्याणकारी नाद उदित होता है। फिर आत्मा स्वयं उसी प्रकार प्रकट होता है, जेसे कि बादल के हटने पर चंद्रमा प्रकट होता है। आदि शब्द आंकार को परमात्मा का प्रतीक कहा जाता है। योगियों में सर्वत्र ही इसकी महिमा गाई गई है। बाइबिल के उस खंड में, जिसे सेंट जान्स गास्पेल कहते हैं, पहला ही वाक्य इस प्रकार हैं, आरंभ में शब्द था। वह शब्द परमात्मा के साथ था। वह शब्द परमात्मा था। सूफी संत कहते हैं हैफ़ दर बंदे जिस्म दरमानी, न शुनवी सौते पाके रहमानी दु:ख की बात है कि तू शरीर के बंधन में पड़ा रहता है और पवित्र दिव्य नाद को नहीं सुनता।
चित्त की एकाग्रता ज्यों ज्यों बढ़ती है त्यों त्यों साधकर को अनेक प्रकार के अनुभव होते हैं। मनुष्य अपनी इंद्रियों की शक्ति से परिचित नहीं है। उनसे न तो काम लेता है और न लेना चाहता है। यह बात सुनने में आश्चर्य की प्रतीत होती है, पर सच है। मान लीजिए, हमारी चक्षु या श्रोत्र इंद्रिया की शक्ति कल आज से कई गुना बढ़ जाय। तब न जाने ऐसी कितनी वस्तुएँ दृष्टिगोचर होने लगेंगी जिनको देखकर हम काँप उठेंगे। एक दूसरे के भीतर की रासायनिक क्रिया यदि एक बार देख पड़ जाय तो अपने प्रिय से प्रिय व्यक्ति की ओर से घृणा हो जायगी। हमारे परम मित्र पास की कोठरी में बैठे हमारे संबंध में क्या कहते हैं, यदि यह बात सुनने में आ जाय तो जीना दूभर हो जाय। हम कुछ वासनाओं के पुतले हैं। अपनी इंद्रयों से वहीं तक काम लेते हैं जहाँ तक वासनाओं की तृप्ति हो। इसलिये इंद्रियों की शक्ति प्रसुप्त रहती है परंतु जब योगाभ्यास के द्वारा वासनाओं का न्यूनाधिक शमन होता है तब इंद्रियाँ निर्बाध रूप से काम कर सकती हैं और हमको जगत् के स्वरूप के वास्तविक रूप का कुछ परिचय दिलाती हैं। इस विश्व में स्पर्श, रूप, रस और गंध का अपार भंडार भरा पड़ा है जिसकी सत्ता का हमको अनुभव नहीं हैं। अंर्तर्मुख होने पर बिना हमारे प्रयास के ही इंद्रियाँ इस भंडार का द्वार हमारे सामने खोल देती हैं। सुषुम्ना में नाड़ियों की कई ग्रंथियाँ हैं, जिनमें कई जगहों से आई हुई नाड़ियाँ मिलती हैं। इन स्थानों को चक्र कहते हैं। इनमें से विशेष रूप से छह चक्रों का चर्चा योग के ग्रंथों में आता है। सबसे नीचे मुलाधार है जो प्राय: उस जगह पर है जहाँ सुषुम्ना का आरंभ होता है। और सबसे ऊपर आज्ञा चक्र है जो तिल के स्थान पर है। इसे तृतीय नेत्र भी कहते हैं। थोड़ा और ऊपर चलकर सुषुम्ना मस्तिष्क के नाड़िसंस्थान से मिल जाती है। मस्तिष्क के उस सबसे ऊपर के स्थान पर जिसे शरीर विज्ञान में सेरेब्रम कहते हैं, सहस्रारचक्र है। जैसा कि एक महात्मा ने कहा है:
मूलमंत्र करबंद विचारी सात चक्र नव शोधै नारी।।
योगी के प्रारंभिक अनुभवों में से कुछ की ओर ऊपर संकेत किया गया है। ऐसे कुछ अनुभवों का उल्लेख श्वेताश्वर उपनिषद् में भी किया गया है। वहाँ उन्होंने कहा है कि अनल, अनिल, सूर्य, चंद्र, खद्योत, धूम, स्फुलिंग, तारे अभिव्यक्तिकरानि योगे हैंश् यह सब योग में अभिव्यक्त करानेवाले चिह्न हैं अर्थात् इनके द्वारा योगी को यह विश्वास हो सकता है कि मैं ठीक मार्ग पर चल रहा हूँ। इसके ऊपर समाधि तक पहुँचते पहुँचते योगी को जो अनुभव होते हैं उनका वर्णन करना असंभव है। कारण यह है कि उनका वर्णन करने के लिये साधारण मनुष्य को साधारण भाषा में कोई प्रतीक या शब्द नहीं मिलता। अच्छे योगियों ने उनके वर्णन के संबंध में कहा है कि यह काम वैसा ही है जैसे गूँगा गुड़ खाय। पूर्णांग मनुष्य भी किसी वस्तु के स्वाद का शब्दों में वर्णन नहीं कर सकता, फिर गूँगा बेचारा तो असमर्थ है ही। गुड़ के स्वाद का कुछ परिचय फलों के स्वाद से या किसी अन्य मीठी चीज़ के सादृश्य के आधार पर दिया भी जा सकता है, पर जैसा अनुभव हमको साधारणत: होता ही नहीं, वह तो सचमुच वाणी के परे हैं।
समाधि की सर्वोच्च भूमिका के कुछ नीचे तक अस्मिता रह जाती है। अपनी पृथक सत्ता अहम् अस्मि = मैं हूँ = यह प्रतीति रहती है। अहम् अस्मि = मैं हूँ की संतान अर्थात निरंतर इस भावना के कारण वहाँ तक काल की सत्ता है। इसके बाद झीनी अविद्या मात्र रह जाती है। उसके शय होने की अवस्था का नाम असंप्रज्ञात समाधि है जिसमें अविद्या का भी क्षय हो जाता है और प्रधान से कल्पित संबंध का विच्छेद हो जाता है। यह योग की पराकाष्ठा है। इसके आगे फिर शास्त्रार्थ का द्वार खुल जाता है। सांख्य के आचार्य कहते हैं कि जो योगी पुरुष यहाँ तक पहुँचा, उसके लिये फिर तो प्रकृति का खेल बंद हो जाता है। दूसरे लोगों के लिये जारी रहता है। वह इस बात को यों समझाते हैं। किसी जगह नृत्य हो रहा है। कई व्यक्ति उसे देख रहे हैं। एक व्यक्ति उनमें ऐसा भी है जिसको उस नृत्य में कोई अभिरुचि नहीं है। वह नर्तकी की ओर से आँख फेर लेता है। उसके लिये नृत्य नहीं के बराबर है। दूसरे के लिये वह रोचक है। उन्होंने कहा है कि उस अजा के साथ अर्थात नित्या के साथ अज एकोऽनुशेते = एक अज शयन करता है और जहात्येनाम् भुक्तभोगाम् तथान्य:-उसके भोग से तृप्त होकर दूसरा त्याग देता है।
अद्वैत वेदांत के आचार्य सांख्यसंमत पुरुषों की अनेकता को स्वीकार नहीं करते। उनके अतिरिक्त और भी कई दार्श्निक संप्रदाय हैं जिनके अपने अलग अलग सिद्धांत हैं। पहले कहा जा चुका हैं कि इस शास्त्रार्थ में यहां पड़ने की आवश्यकता नहीं हैं। जहां तक योग के व्यवहारिक रूप की बात है उसमें किसी को विरोध नहीं है। वेदांत के आचार्य भी निर्दिध्यासन की उपयोगिता को स्वीकार करते हैं और वेदांत दर्शन में व्यास ने भी असकृदभ्यासात् ओर आसीन: संभवात् जैसे सूत्रों में इसका समर्थन किया है। इतना ही हमारे लिये पर्याप्त है।
साधारणत: योग को अष्टांग कहा जाता है परंतु यहाँ अब तक आसन से लेकर समाधि तक छह अंगों का ही उल्लेख किया गया है। शेष दो अंगों को इसलिये नहीं छोड़ा कि वे अनावश्यक हैं वरन् इसलिए कि वह योगी ही नहीं प्रत्युत मनुष्य मात्र के लिए परम उपयोगी हैं। उनमें प्रथम स्थान यम का है। इनके संबंध में कहा गया है कि यह देश काल, समय से अनवच्छिन्न ओर सार्वभौम महाब्रत हैं अर्थात् प्रत्येक मनुष्य को प्रत्येक स्थान पर प्रत्येक समय और प्रत्येक अवस्था में प्रत्येक व्यक्ति के साथ इनका पालन करना चाहिए। दूसरा अंग नियम कहलाता है। जो लोग ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करते उनके लिये ईश्वर पर निष्ठा रखने का कोई और नहीं है। परंतु वह लोग भी प्राय: किसी न किसी ऐसे व्यक्ति पर श्रद्धा रखते हैं जो उनके लिये ईश्वर तुल्य है। बौद्ध को बुद्धदेव के प्रति जो निष्ठा है वह उससे कम नहीं है जो किसी भी ईश्वरवादी को ईश्वर पर होती होगी। एक और बात है। किसी को ईश्वर पर श्रद्धा हो या न हो, योग मार्ग के उपदेष्टा गुरु पर तो अनन्य श्रद्धा होनी ही चाहिए। योगाभ्यासी के लिये गुरु का स्थान किसी भी दृष्टि से ईश्वर से कम नहीं। ईश्वर हो या न हो परंतु गुरु के होने पर तो कोई संदेह हो ही नहीं सकता। एक साधक चरणादास जी की शिष्या सहजोबाई ने कहा है:
गुरुचरनन पर तन-मन वारूँ, गुरु न तजूँ हरि को तज डारूँ।
आज कल यह बात सुनने में आती है कि परम पुरुषार्थ प्राप्त करने के लिये ज्ञान पर्याप्त है। योग की आवश्यकता नहीं है। जो लोग ऐसा कहते हैं, वह ज्ञान शब्द के अर्थ पर गंभीरता से विचार नहीं करते। ज्ञान दो प्रकार का होता है-तज्ज्ञान और तद्विषयक ज्ञान। दोनों में अंतर है। कोई व्यक्ति अपना सारा जीवन रसायन आदि शास्त्रों के अध्ययन में बिताकर शक्कर के संबंध में जानकारी प्राप्त कर सकता है। शक्कर के अणु में किन किन रासायनिक तत्वों के कितने कितने परमाणु होते हैं? शक्कर कैसे बनाई जाती है? उसपर कौन कौन सी रासानिक क्रिया और प्रतिक्रियाएँ होती हैं? इत्यादि। यह सब शक्कर विषयक ज्ञान है। यह भी उपयोगी हो सकता है परंतु शक्कर का वास्तविक ज्ञान तो उसी समय होता है जब एक चुटकी शक्कर मुँह में रखी जाती है। यह शक्कर का तत्वज्ञान है। शास्त्रों के अध्ययन से जो ज्ञान प्राप्त होता है वह सच्चा आध्यात्मिक ज्ञान है और उसके प्रकाश में तद्विषयक ज्ञान भी पूरी तरह समझ में आ सकता हैं। इसीलिये उपनिषद् के अनुसार जब यम ने नचिकेता को अध्यात्म ज्ञान का उपदेश दिया तो उसके साथ में योगविधि च कृत्स्नम् की भी दीक्षा दी, नहीं तो नचिकेता का बोध अधूरा ही रह जाता। जो लोग भक्ति आदि की साधना रूप से प्रशंसा करते हैं उनकोश् भी यह ध्यान में रखना चाहिए कि यदि उनके मार्ग में वित्त को एकाग्र करने का कोई उपाय है तो वह वस्तुत: योग की धारणा अंग के अंतर्गत है। यह उनकी मर्जी है कि सनातन योग शब्द को छोड़कर नये शब्दों का व्यवहार करते हैं।
योग के अभ्यास से उस प्रकार की शक्तियों का उदय होता है जिनको विभूति या सिद्धि कहते हैं। यदि पर्याप्त समय तक अभ्यास करने के बाद भी किसी मनुष्य में ऐसी असाधारण शक्तियों का आगम नहीं हुआ तो यह मानना चाहिए कि वह ठीक मार्ग पर नहीं चल रहा है। परंतु सिद्धियों में कोई जादू की बात नहीं है। इंद्रियों की शक्ति बहुत अधिक है परंतु साधारणत: हमको उसका ज्ञान नहीं होता और न हम उससे काम लेते हैं। अभयासी को उस शक्ति का परिचय मिलता है, उसको जगत् के स्वरूप के संबंध में ऐसे अनुभव होते हैं जो दूसरों को प्राप्त नहीं हैं। दूर की या छिपी हुई वस्तु को देख लेना, व्यवहृत बातों को सुन लेना इत्यादि इंद्रियों की सहज शक्ति की सीमा के भीतर की बाते हैं परंतु साधारण मनुष्य के लिये यह आश्चर्यश् का विषय हैं, इनकों सिद्धि कहा जायगा। इसी प्रकार मनुष्य में और भी बहुत सी शक्तियाँ हें जो साधरण अवस्था में प्रसुप्त रहती हैं। योग के अभयास से जाग उठती हैं। यदि हम किसी सड़क पर कहीं जा रहे हो तो अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते हुए भी अनायास ही दाहिने बाएँ उपस्थित विषयों को देख लेंगे। सच तो यह है कि जो कोई इन विषयों को देखने के लिये रुकेगा वह गन्तव्य स्थान तक पहुँचेगा ही नहीं ओर बीच में ही रह जायगा। इसीलिये कहा गया है कि जो कोई सिद्धियों के लिये प्रयत्न करता है वह अपने को समाधि से वंचित करता है। पतंजलि ने कहा है:
ते समाधावुपसर्गाव्युत्थाने सिद्धय:
अर्थात् ये विभूतियाँ समाधि में बाधक हैं परंतु समाधि से उठने की अवस्था में सिद्धि कहलाती हैं।
[संपादित करें] योग का इतिहास
मुख्य लेख : योग का इतिहास
वैदिक संहिताओं के अंतर्गत तपस्वियों (तपस) के बारे में ((कल | ब्राह्मण))प्राचीन काल से वेदों में (९०० से ५०० बी सी ई)उल्लेख मिलता है, जब कि तापसिक साधनाओं का समावेश प्राचीन वैदिक टिप्पणियों में प्राप्त है.[1]
कई मूर्तियाँ जो सामान्य योग या समाधि मुद्रा को प्रर्दशित करती है, सिंधु
घाटी सभ्यता (सी.3300-1700 बी.सी. इ.) के स्थान पर प्राप्त हुईं है.
पुरातत्त्वज्ञ ग्रेगरी पोस्सेह्ल के अनुसार," ये मूर्तियाँ योग के धार्मिक संस्कार" के योग से सम्बन्ध को संकेत करती है.[2] यद्यपि इस बात का निर्णयात्मक सबूत नहीं है फिर भी अनेक पंडितों की राय में सिंधु घाटी सभ्यता और योग-ध्यान में सम्बन्ध है.[3]ध्यान में उच्च चैतन्य को प्राप्त करने कि रीतियों का विकास श्र्मानिक परम्पराओं द्वारा एवं उपनिषद् की परंपरा द्वारा विकसित हुआ था.[4]
बुद्ध के पूर्व एवं प्राचीन ब्रह्मिनिक ग्रंथों मे ध्यान के बारे मे कोई ठोस सबूत नहीं मिलता है,बुद्ध के दो शिक्षकों के ध्यान के लक्ष्यों के प्रति कहे वाक्यों के आधार पर वय्न्न यह तर्क करते है की निर्गुण ध्यान की पद्धति ब्रह्मिन परंपरा से निकली इसलिए उपनिषद् की सृष्टि के प्रति कहे कथनॉ में एवं ध्यान के लक्ष्यों के लिए कहे कथनों में समानता है.[5] यह संभावित हो भी सकता है, नहीं भी.[6]
उपनिषदों में ब्रह्माण्ड संबंधी बयानॉ के वैश्विक कथनों में किसी ध्यान की रीति की सम्भावना के प्रति तर्क देते हुए कहते है की नासदीय सूक्त किसी ध्यान की पद्धति की ओर ऋग वेद से पूर्व भी इशारा करते है.[7]
यह बौद्ध ग्रंथ शायद सबसे प्राचीन ग्रंथ है जिन में ध्यान तकनीकों का वर्णन प्राप्त होता है.[8] वे ध्यान की प्रथाओं और अवस्थाओं का वर्णन करते है जो बुद्ध से पहले अस्तित्व में थीं और साथ ही उन प्रथाओं का वर्णन करते है जो पहले बौद्ध धर्म के भीतर विकसित हुईं.[9] हिंदु वांग्मय में,"योग" शब्द पहले कथा उपानिषद में प्रस्तुत हुआ जहाँ ज्ञानेन्द्रियों का नियंत्रण और मानसिक गतिविधि के निवारण के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है जो उच्चतम स्तिथि प्रदान करने वाला मन गया है.[10] महत्वपूर्ण ग्रन्थ जो योग की अवधारणा से सम्बंधित है वे मध्य कालीन उपनिषद्, महाभारत,भगवद गीता 200 BCE) एवं पथांजलि के योग सूत्र है.(ca. 400 BCE)
[संपादित करें] पतंजलि के योग सूत्र
मुख्य लेख : Raja Yoga और Yoga Sutras of Patanjali
भारतीय दर्शन में,षड् दर्शनों में से एक का नाम योग है.[11][12] योग दार्शनिक प्रणाली,सांख्य स्कूल के साथ निकटता से संबन्धित है.[13] ऋषि पतंजलि द्वारा व्याख्या किया गया योग संप्रदाय सांख्य[14][15] योग और सांख्य एक दुसरे से इतने मिल्झुलते है कि मेक्स म्युल्लर
कहते है,"यह दो दर्शन इतने प्रसिद्ध थे कि एक दुसरे का अंतर समझने के लिए
एक को प्रभु के साथ और दुसरे को प्रभु के बिना माना जाता है....."[16] सांख्य और योगा के बीच घनिष्ठ संबंध हेंरीच ज़िम्मेर
मनोविज्ञान और तत्वमीमांसा को स्वीकार करते है,लेकिन सांख्य स्कूल के
तुलना में अधिक आस्तिक है, यह प्रमाण है क्योंकि सांख्य के वास्तविकता के
पच्चीस तत्वों में ईश्वरीय सत्ताओं को जोड़ी गई है. समझाते है:इन दोनों को भारत में जुड़वा के रूप में माना जाता है,जो एक ही विषय के दो पहलू है.Sāṅkhya[41]यहाँ मानव प्रकृति की बुनियादी सैद्धांतिक का प्रदर्शन,विस्तृत विवरण और उसके तत्वों का परिभाषित,बंधन (बंधा) के स्थिति में उनके सहयोग करने के तरीके,सुलझावट के समय अपने स्थिति का विश्लेषण या मुक्ति मे वियोजन ({{2}{IAST|मोक्ष}})का व्याख्या किया गया है.योग विशेष रूप से प्रक्रिया की गतिशीलता के सुलझाव के लिए उपचार करता है और मुक्ति प्राप्त करने की व्यावहारिक तकनीकों को सिद्धांत करता है अथवा 'अलगाव-एकीकरण'(कैवल्य) का उपचार करता है.[17]पतांजलि, व्यापक रूप से औपचारिक योग दर्शन के संस्थापक मने जाते है.[18] पतांजलि के योग, बुद्धि का नियंत्रण के लिए एक प्रणाली है,राज योग के रूप में जाना जाता है.[19] पतांजलि उनके दूसरे सूत्र मे "योग" शब्द का परिभाषित करते है,[20] जो उनके पूरे काम के लिए व्याख्या सूत्र माना जाता है:
योग: चित्त-वृत्ति निरोध:तीन संस्कृत शब्दों के अर्थ पर यह संस्कृत परिभाषा टिका है. अई.के.तैम्नी इसकी अनुवाद करते है की,"योग बुद्धि के संशोधनों(vṛtti [49])का निषेध(nirodhaḥ [48])है" (citta [50]).[21] योग का प्रारंभिक परिभाषा मे इस शब्द nirodhaḥ [52] का उपयोग एक उदाहरण है कि बौधिक तकनीकी शब्दावली और अवधारणाओं,योग सूत्र मे एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है; इससे यह संकेत होता है कि बौद्ध विचारों के बारे में पतांजलि को जानकारी थी और अपने प्रणाली मे उन्हें बुनाई.[22]स्वामी[23] विवेकानंद इस सूत्र को अनुवाद करते हुए कहते है,"योग बुद्धि (चित्त) को विभिन्न रूपों (वृत्ति) लेने से अवरुद्ध करता है.
( yogaś citta-vṛtti-nirodhaḥ )
- योग सूत्र 1.2
पतांजलि का लेखन 'अष्टांग योग"("आठ-अंगित योग") एक प्रणाली के लिए आधार बन गया.
29th सूत्र के दूसरी किताब से यह आठ-अंगित अवधारण को प्राप्त किया गया था और व्यावहारिक रूप मे भिन्नरूप से सिखाये गए प्रत्येक राजा योग का एक मुख्य विशेषता है.
आठ अंग हैं:
- यम (पांच "परिहार"): अहिंसा, झूठ नहीं बोलना,गैर लोभ, गैर विषयासक्ति, और गैर स्वामिगत.
- नियम (पांच "धार्मिक क्रिया"): पवित्रता, संतुष्टि, तपस्या, अध्ययन, और भगवान को आत्मसमर्पण.
- आसन:मूलार्थक अर्थ "बैठने का आसन", और पतांजलि सूत्र में ध्यान
- प्राणायाम ("सांस को स्थगित रखना"): प्राणा ,सांस, "अयामा ", को नियंत्रित करना या बंद करना. साथ ही जीवन शक्ति को नियंत्रण करने की व्याख्या की गयी है.
- प्रत्यहार ("अमूर्त"):बाहरी वस्तुओं से भावना अंगों के प्रत्याहार.
- समाधि("विमुक्ति"):ध्यान के वस्तु को चैतन्य के साथ विलय करना.
[संपादित करें] भगवद गीता
मुख्य लेख : Bhagavad Gita
भगवद गीता (प्रभु के गीत),बड़े पैमाने पर विभिन्न तरीकों से योग शब्द का उपयोग करता है.
एक पूरा अध्याय (ch. 6) सहित पारंपरिक योग का अभ्यास को समर्पित,ध्यान के सहित, करने के अलावा [25] इस मे योग के तीन प्रमुख प्रकार का परिचय किया जाता है.[26]
- कर्म योग: कार्रवाई का योग,
- भक्ति योग: भक्ति का योग,
- ज्ञाना योग: ज्ञान का योग.
[संपादित करें] हठयोग
मुख्य लेख : Hatha yoga और Hatha Yoga Pradipika
हठयोग योग, योग की एक विशेष प्रणाली है जिसे 15वीं सदी के भारत में हठ योग प्रदीपिका के संकलक, योगी स्वत्मरमा द्वारा वर्णित किया गया था.हठयोग पतांजलि के राज योग से काफी अलग है जो सत्कर्म पर केन्द्रित है,भौतिक शरीर की शुद्धि ही मन की, प्राण की और विशिष्ट ऊर्जा की शुद्धि लती है.[62] [63] केवल पथांजलि राज योग के ध्यान आसन के बदले,,[64] यह पूरे शरीर के लोकप्रिय आसनों की चर्चा करता है.[29] हठयोग अपनी कई आधुनिक भिन्नरूपों में एक शैली है जिसे बहुत से लोग "योग" शब्द के साथ जोड़ते है.[30]
[संपादित करें] अन्य परंपराओं में योग प्रथाओं
[संपादित करें] बौद्ध-धर्म
मुख्य लेख : Buddhism and Hinduism#Meditation
प्राचीन बौद्धिक धर्म ने ध्यानापरणीय अवशोषण अवस्था को निगमित किया.[31] बुद्ध के प्रारंभिक उपदेशों में योग विचारों का सबसे प्राचीन निरंतर अभिव्यक्ति पाया जाता है.[32] बुद्ध के एक प्रमुख नवीन शिक्षण यह था की ध्यानापरणीय अवशोषण को परिपूर्ण अभ्यास से संयुक्त करे.[33] बुद्ध के उपदेश और प्राचीन ब्रह्मनिक ग्रंथों में प्रस्तुत अंतर विचित्र है.बुद्ध के अनुसार, ध्यानापरणीय अवस्था एकमात्र अंत नहीं है,उच्चतम ध्यानापरणीय स्थिती में भी मोक्ष प्राप्त नहीं होता.
अपने विचार के पूर्ण विराम प्राप्त करने के बजाय,किसी प्रकार का मानसिक सक्रियता होना चाहिए:एक मुक्ति अनुभूति, ध्यान जागरूकता के अभ्यास पर आधारित होना चाहिए.[34] बुद्ध ने मौत से मुक्ति पाने की प्राचीन ब्रह्मनिक अभिप्राय को ठुकराया.[35] ब्रह्मिनिक योगिन को एक गैरद्विसंक्य द्रष्टृगत स्थिति जहाँ मृत्यु मे अनुभूति प्राप्त होता है, उस स्थिति को वे मुक्ति मानते है.
बुद्ध ने योग के निपुण की मौत पर मुक्ति पाने की पुराने ब्रह्मिनिक अन्योक्त("उत्तेजनाहीन होना,क्षणस्थायी होना")को एक नया अर्थ दिया; उन्हें, ऋषि जो जीवन में मुक्त है के नाम से उल्लेख किया गया था.[36]
- इन्हें भी देखें: Pranayama#Buddhism
[संपादित करें] योगकारा बौद्धिक धर्म
योगकारा(संस्कृत:"योग का अभ्यास"[37],शब्द विन्यास योगाचारा,दर्शन और मनोविज्ञान का एक संप्रदाय है, जो भारत में 4 वीं से 5 वीं शताब्दी मे विकसित किया गया था.योगकारा को यह नाम प्राप्त हुआ क्योंकि उसने एक योग प्रदान किया,एक रूपरेखा जिससे बोधिसत्त्व[38] ज्ञान तक पहुँचने के लिए यह योगकारा संप्रदाय योग[39] तक पहुँचने का एक मार्ग दिखाया है. सिखाता है.
[संपादित करें] छ'अन (सिओन/ ज़ेन) बौद्ध धर्म
ज़ेन (जिसका नाम संस्कृत शब्द "ध्याना से" उत्पन्न किया गया चीनी "छ'अन"}के माध्यम से[40])महायान बौद्ध धर्म का एक रूप है. बौद्ध धर्म की महायान संप्रदाय योग के साथ अपनी निकटता के कारण विख्यात किया जाता है.[31] पश्चिम में,जेन को अक्सर योग के साथ व्यवस्थित किया जाता है;ध्यान प्रदर्शन के दो संप्रदायों स्पष्ट परिवारिक उपमान प्रदर्शन करते है.[41] यह घटना को विशेष ध्यान योग्य है क्योंकि कुछ योग प्रथाओं पर ध्यान की ज़ेन बौद्धिक स्कूल आधारित है.[81]योग की कुछ आवश्यक तत्वों सामान्य रूप से बौद्ध धर्म और विशेष रूप से ज़ेन धर्म को महत्वपूर्ण हैं.[42][संपादित करें] भारत और तिब्बती के बौद्धिक धर्म
योगा तिब्बती बौद्ध धर्म का केंद्र है. न्यिन्गमा परंपरा में,ध्यान का अभ्यास का रास्ता नौ यानाओं , या वाहन मे विभाजित है,कहा जाता है यह परम व्यूत्पन्न भी है.[43] अंतिम के छह को "योग यानास" के रूप मे वर्णित किया जाता है,यह है:क्रिया योग ,उप योग (चर्या ) ,योगा याना ,महा योगअनु योग और अंतिम अभ्यास अति योग. [44] सरमा परंपराओं नेमहायोग और अतियोग की अनुत्तारा वर्ग से स्थानापन्न करते हुए क्रिया योग,उपा(चर्या)और योग को शामिल किया हैं. अन्य तंत्र योग प्रथाओं में 108 शारीरिक मुद्राओं के साथ सांस और दिल ताल का अभ्यास शामिल हैं.[45] , अन्य तंत्र योग प्रथाओं 108 शारीरिक मुद्राओं के साथ सांस और दिल ताल का अभ्यास को शामिल हैं.यह न्यिन्गमा परंपरा यंत्र योग का अभ्यास भी करते है. (तिब. तरुल खोर ),यह एक अनुशासन है जिसमे सांस कार्य (या प्राणायाम),ध्यानापरणीय मनन और सटीक गतिशील चाल से अनुसरण करनेवाले का ध्यान को एकाग्रित करते है.[46]लुखंग मे दलाई लामा के सम्मर मंदिर के दीवारों पर तिब्बती प्राचीन योगियों के शरीर मुद्राओं चित्रित किया जाया है.
चांग (1993)द्वारा एक अर्द्ध तिब्बती योगा के लोकप्रिय खाते ने कन्दली (तिब.तुम्मो )अपने शरीर में गर्मी का उत्पादन का उल्लेख करते हुए कहते है की "यह संपूर्ण तिब्बती योगा का बुनियाद है".[47]प्राना और मन को सुलह करता है,और उसे तंत्रिस्म के सैद्धांतिक निहितार्थ से संबंधित करते है. चांग यह भी दावा करते है कि तिब्बती योगा
[संपादित करें] जैन धर्म
दूसरी शताब्दी के सी इ जैन पाठ तत्त्वार्थसूत्र , के अनुसार मन, वाणी और शरीर सभी गतिविधियों का कुल योग है. [48] उमास्वतीकहते है कि अस्रावा या कार्मिक प्रवाह का कारण योग है[49] साथ ही- सम्यक चरित्र - मुक्ति के मार्ग मे यह बेहद आवश्यक है.[50] अपनी नियामसरा में, आचार्य कुंडाकुण्डने योग भक्ति का वर्णन- भक्ति से मुक्ति का मार्ग - भक्ति के सर्वोच्च रूप के रूप मे किया है.[51] आचार्य हरिभद्र और आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार पाँच प्रमुख उल्लेख संन्यासियों और 12 समाजिक लघु प्रतिज्ञाओं योग के अंतर्गत शामिल है. इस विचार के वजह से कही इन्दोलोगिस्ट्स जैसे प्रो रॉबर्ट जे ज़्यीडेन्बोस ने जैन धर्म के बारे मे यह कहा कि यह अनिवार्य रूप से योग सोच का एक योजना है जो एक पूर्ण धर्म के रूप मे बढ़ी हो गयी.
[52] डॉ.हेंरीच ज़िम्मर
संतुष्ट किया कि योग प्रणाली को पूर्व आर्यन का मूल था,जिसने वेदों की
सत्ता को स्वीकार नहीं किया और इसलिए जैन धर्म के समान उसे एक विधर्मिक
सिद्धांतों के रूप में माना गया था[53] जैन शास्त्र, जैन तीर्थंकरों को ध्यान मे पद्मासना या कयोत्सर्गा योग मुद्रा में दर्शाया है. ऐसा कहा गया है कि महावीर को मुलाबंधासना स्थिति में बैठे केवला ज्ञान "आत्मज्ञान" प्राप्त हुआ जो अचरंगा सूत्र मे और बाद में कल्पसूत्र मे पहली साहित्यिक उल्लेख के रूप मे पाया गया है.[54]
पतांजलि योगसूत्र के पांच यामा या बाधाओं और जैन धर्म के पाँच प्रमुख प्रतिज्ञाओं में अलौकिक सादृश्य है,जिससे जैन धर्म का एक मजबूत प्रभाव का संकेत करता है.
[55][56] लेखक विवियन वोर्थिंगटन ने यह स्वीकार किया कि योग दर्शन और जैन धर्म के बीच पारस्परिक प्रभाव है और वे लिखते है:"योग पूरी तरह से जैन धर्म को अपना ऋण मानता है और विनिमय मे जैन धर्म ने योग के साधनाओं को अपने जीवन का एक हिस्सा बना लिया".
[57] सिंधु घाटी मुहरों और इकोनोग्रफी भी एक यथोचित साक्ष्य प्रदान करते है कि योग परंपरा और जैन धर्म के बीच संप्रदायिक सदृश अस्तित्व है.
[58] विशेष रूप से,विद्वानों और पुरातत्वविदों ने विभिन्न तिर्थन्करों की मुहरों में दर्शाई गई योग और ध्यान मुद्राओं के बीच समानताओं पर टिप्पणी की है: रुषभ की "कयोत्सर्गा"मुद्रा और महावीर के मुलबन्धासन मुहरों के साथ ध्यान मुद्रा में पक्षों में सर्पों की खुदाई पार्श्वनाथ की खुदाई से मिलती जुलती है.
यह सभी न केवल सिंधु घाटी सभ्यता और जैन धर्म के बीच कड़ियों का संकेत
कर रहे हैं, बल्कि विभिन्न योग प्रथाओं को जैन धर्म का योगदान प्रदर्शन
करते है.[59][संपादित करें] जैन सिद्धांत और साहित्य के संदर्भ
प्राचीनतम के जैन धर्मवैधानिक साहित्य जैसे अचरंगासुत्र और नियमासरा, तत्त्वार्थसूत्र आदि जैसे ग्रंथों ने साधारण व्यक्ति और तपस्वीयों के लिए जीवन का एक मार्ग के रूप में योग पर कई संदर्भ दिए है.बाद के ग्रंथों जिसमे योग के जैन अवधारणा सविस्तार है वह निम्नानुसार हैं:
- पुज्यपदा (5 वीं शताब्दी सी इ)
- इष्टोपदेश
- आचार्य हरिभद्र सूरी (8 वीं शताब्दी सी इ)
- योगबिंदु
- योगद्रिस्तिसमुच्काया
- योगसताका
- योगविमिसिका
- आचार्य जोंदु (8 वीं शताब्दी सी इ)
- योगसारा
- आचार्य हेमाकान्द्र (11 वीं सदी सी इ)
- योगसस्त्र
- आचार्य अमितागति (11 वीं सदी सी इ)
- योगसराप्रभ्र्ता
[संपादित करें] इस्लाम
सूफी संगीत के विकास में भारतीय योग अभ्यास का काफी प्रभाव है, जहाँ वे दोनों शारीरिक मुद्राओं(आसन)और श्वास नियंत्रण (प्राणायाम) को अनुकूलित किया है.[60] 11 वीं शताब्दी के प्राचीन समय में प्राचीन भारतीय योग पाठ,अमृतकुंड,("अमृत का कुंड")का अरबी और फारसी भाषाओं में अनुवाद किया गया था.[61]सन 2008 में मलेशिया के शीर्ष इस्लामिक समिति ने कहा जो मुस्लमान योग अभ्यास करते है उनके खिलाफ एक फतवा लगू किया,जो कानूनी तौर पर गैर बाध्यकारी है,कहते है कि योग में "हिंदू आध्यात्मिक उपदेशों" के तत्वों है और इस से ईश-निंदा हो सकती है और इसलिए यहहराम है.
मलेशिया में मुस्लिम योग शिक्षकों ने "अपमान" कहकर इस निर्णय की आलोचना कि.[62][62] समूह,ने भी अपना निराशा व्यक्त की और उन्होंने कहा कि वे अपनी योग कक्षाओं को जारी रखेंगे.[63] इस फतवा में कहा गया है कि शारीरिक व्यायाम के रूप में योग अभ्यास अनुमेय है,पर धार्मिक मंत्र का गाने पर प्रतिबंध लगा दिया है,[64] और यह भी कहते है कि भगवान के साथ मानव का मिलाप जैसे शिक्षण इस्लामी दर्शन के अनुरूप नहीं है.[65] मलेशिया में महिलाओं के
इसी तरह,उलेमस की परिषद,इंडोनेशिया में एक इस्लामी समिति ने योग पर प्रतिबंध,एक फतवे द्वारा लागू किया क्योंकि इसमें "हिंदू तत्व" शामिल थे.[66] किन्तु इन फतवों को दारुल उलूम देओबंद ने आलोचना की है,जो देओबंदी इस्लाम का भारत में शिक्षालय है.[67]
सन 2009 मई में,तुर्की के निदेशालय के धार्मिक मामलों के मंत्रालय के प्रधान शासक अली बर्दाकोग्लू ने योग को एक व्यावसायिक उद्यम के रूप में घोषित किया- योग के संबंध में कुछ आलोचनाये जो इसलाम के तत्वों से मेल नहीं खातीं.[68]
[संपादित करें] ईसाई धर्म
सन 1989 में, वैटिकन ने घोषित किया कि ज़ेन और योग जैसे पूर्वी ध्यान प्रथाओं "शरीर के एक गुट में बदज़ात" हो सकते है.वैटिकन के बयान के बावजूद, कई रोमन कैथोलिक उनके आध्यात्मिक प्रथाओं में योगा, बौद्ध धर्म और हिंदू धर्म के तत्वों का प्रयोग किया है.[69]
[संपादित करें] तंत्र
मुख्य लेख : Tantra
तंत्र एक प्रथा है जिसमें उनके अनुसरण करनेवालों का संबंध साधारण, धार्मिक, सामाजिक और तार्किक वास्तविकता में परिवर्तन ले आते है.तांत्रिक अभ्यास में एक व्यक्ति वास्तविकता को माया, भ्रम के रूप में अनुभव करता है और यह व्यक्ति को मुक्ति प्राप्त होता है.[70]हिन्दू धर्म द्वारा प्रस्तुत किया गया निर्वाण के कई मार्गों में से यह विशेष मार्ग तंत्र को भारतीय धर्मों के प्रथाओं जैसे योग,ध्यान,और सामाजिक संन्यास से जोड़ता है,जो सामाजिक संबंधों और विधियों से अस्थायी या स्थायी वापसी पर आधारित हैं.[70]
तांत्रिक प्रथाओं और अध्ययन के दौरान, छात्र को ध्यान तकनीक में, विशेष रूप से चक्र ध्यान,का निर्देश दिया जाता है. जिस तरह यह ध्यान जाना जाता है और तांत्रिक अनुयायियों एवं योगियों के तरीको के साथ तुलना में यह तांत्रिक प्रथाओं एक सीमित रूप में है, लेकिन सूत्रपात के पिछले ध्यान से ज्यादा विस्तृत है.
इसे एक प्रकार का कुंडलिनी योग माना जाता है जिसके माध्यम से ध्यान और पूजा के लिए "हृदय" में स्थित चक्र में देवी को स्थापित करते है.[71]
[संपादित करें] योग का लक्ष्य
योग का लक्ष्य स्वास्थ्य में सुधार से लेकर मोक्श प्राप्त करने तक है.[72] जैन धर्म,अद्वैत वेदांत के मोनिस्ट संप्रदाय और शैवत्व के अन्तर में योग का लक्ष्य मोक्श का रूप लेता है,जो सभी सांसारिक कष्ट एवं जन्म और मृत्यु के चक्र (संसार) से मुक्ति प्राप्त करना है,उस क्षण में परम ब्रह्मण के साथ समरूपता का एक एहसास है.महाभारत में,योग का लक्ष्य ब्रह्मा के दुनिया में प्रवेश के रूप में वर्णित किया गया है,ब्रह्मण के रूप में,अथवा ब्रह्मण या आत्मन को अनुभव करते हुए जो सभी वस्तुएँ मे व्याप्त है.[73]भक्ति संप्रदाय के वैष्णवत्व को योग का अंतिम लक्ष्य स्वयं भगवन का सेवा करना या उनके प्रति भक्ति होना है, जहां लक्ष्य यह है की विष्णु के साथ एक शाश्वत रिश्ते का आनंद लेना.[74]
[संपादित करें] योग गैलरी
मुख्य लेख|आसन-
Vajra Asana-Thunderbolt-Diamond Wiki.jpg
-
Vrischika asana-Scorpion pose Wiki.jpg
[संपादित करें] संदर्भ
- ↑ [21] ^फ्लड , पी. 94.
- ↑ [22] ^ पोस्सेह्ल (2003), पीपी. 144-145
- ↑ देखें:
- जोनाथन मार्क केनोयेरएक मूर्ती का "योग मुद्रा में बैटे हुए" ऐसा वर्णन करता है. जोनाथन मार्क केनोयेर द्वारा लिखे, "अरौंड द इंडस इन ९० स्लाइड्स".
- केरल वेर्नर लिखते है " पुरातात्विक खोज हमें अनुमान करने का समर्थन करता है की आर्य भारत के पूर्व के लोग योग शास्त्र की क्रियाओं से परिचित थे". Werner, Karel (1998). Yoga and Indian Philosophy. Motilal Banarsidass Publ.. प॰ 103. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788120816091. http://books.google.com/books?id=c6b3lH0-OekC&pg=PA103.[23]
- हैनरिच ज़िम्मेर एक मुद्रा में "योगमुद्रा" का वर्णन करते है. Zimmer, Heinrich (1972). Myths and Symbols in Indian Art and Civilization. Princeton University Press, New Ed edition. प॰ 168. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0691017785.
- थॉमस म्क्विल्ले लिखते है कि "यह छह रहस्यमय सिंधु घाटी मुद्रा की छवियों में जो उत्कीर्ण मूर्तियां है उन में हठ योग के मूलबन्धासनउत्कटासन या बद्धा कोनासना नाम के आसन, या उस से मिलता जुलता प्रर्दशित है.
- डा. फरजंद मसीह ,पंजाब विश्वविद्यालय के पुरातत्व विभाग के अध्यक्ष,हाल ही में प्राप्त एक मुद्रा का वर्णन एक योगी केरूप का कहते है. अपूर्व वस्तुओं की खोज खंडहर में निहित खजाने की ओर संकेत करता है.
- गेविन फ्लड, "पशुपति सील" जोकि अन्य सीलों मे से एक है, के बारे में विवाद करते हुए लिखते है कि यह रूप एक योग मुद्रा में बैठे व्यक्ति की स्पष्ट नहीं लगती या यह एक मानव आकृति का प्रतिनिधित्व करती लगती है. फ्लड, पीपी. 28-29 .
- पशुपति सील के बारे में जियोफ्रे सामुएल का मानना है कि,"वास्तव में हमें यह स्पष्ट नहीं है कि यह मूर्ती किसी नारी या पुरुष, किसकी व्याख्या करती है".Samuel, Geoffrey (2008). The Origins of Yoga and Tantra. Cambridge University Press. प॰ 4. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9780521695343. http://books.google.com/books?id=JAvrTGrbpf4C&pg=PA4.[26]
- ↑ [27] ^ फ्लड, पीपी. 94-95.
- ↑ [28] ^ अलेक्जेंडर व्य्न्न, दी ओरिजिन ऑफ़ बुद्धिस्ट मेडिटेशन. रौतलेड्ग 2007, पृष्ठ 51.
- ↑ [29] ^ अलेक्जेंडर व्य्न्न, दी ओरिजिन ऑफ़ बुद्धिस्ट मेडिटेशन. रौतलेड्ग 2007, पृष्ठ 56.
- ↑ [30] ^ अलेक्जेंडर व्य्न्न, दी ओरिजिन ऑफ़ बुद्धिस्ट मेडिटेशन. रौतलेड्ग 2007, पृष्ठ 51.
- ↑ [31] ^ रिचर्ड गोम्ब्रिच, थेरावदा बौद्ध धर्म: ए सोशल हिस्ट्री फ्रॉम इंसिएंत बनारस टू माडर्न कोलम्बो. रौतलेड्ग और केगन पॉल, 1988, पृष्ठ 44.
- ↑ [32] ^ अलेक्जेंडर व्य्न्न, दी ओरिजिन ऑफ़ बुद्धिस्ट मेडिटेशन. रौटलेड्ज 2007,पृष्ट 50
- ↑ [33] ^ फ्लड, पी. 95. विद्वानों कथा उपनिषद को पूर्व बौद्धत्व के साथ सूचीबद्ध नहीं करते,उदाहरण के लिए हेल्मथ वॉन ग्लासेनप्प देख सकते हैं,1950 कार्यवाही की "अकादेमी देर विस्सेंस्चाफ्तें," लितेरातुर अंड से http://www.accesstoinsight.org/ lib/authors/vonglasenapp/wheel002.html. कुछ लोग कहते हैं कि यह पद बौद्ध है,उदाहरण हाजिम नाकामुरा का ए हिस्ट्री ऑफ़ एअर्ली वेदान्त फिलोसोफी, फिलोसोफी ईस्ट अंड वेस्ट, वोल. 37, अंख. 3 (जुलाई., 1987)जिसे अरविंद शर्मा ने समीक्षा की है, पीपी. 325-331. पाली शब्द "योग" का उपयोग करने की एक व्यापक जांच के लिए पूर्व बौद्ध ग्रंथों में देखे, थॉमस विलियम र्ह्य्स डेविड, विलियम स्टेड, पाली-इंग्लिश शब्दकोष. मोतीलाल बनारसीदास पुब्ल द्वारा डालें., 1993, पृष्ठ 558: http://books.google.com/books?id=xBgIKfTjxNMC&pg=RA1-PA558&dq=yoga+pali+ term&ir = # PRA1 lr-PA558, M1. धम्मपदा में "आध्यात्मिक अभ्यास" के अर्थ में इस शब्द का प्रयोग के लिए देखे गिल फ्रोंस्दल,दी धम्मपदा, शम्भाला, 2005,पृष्ठ 56, 130 देखा.
- ↑ [35] ^ छह रूढ़िवादी स्कूलों के एक सिंहावलोकन के लिए, समूह पर विस्तार के साथ देखें : राधाकृष्णन अंड मूर, "सामग्री", और पीपी. स्कूलों [35] ^453-487.
- ↑ [36] ^ योगा स्कूल की एक संक्षिप्त सिंहावलोकन के लिए देखें: चाटेरजी अंड दत्ता, पी. 43.
- ↑ [37] ^ दर्शन और संख्या के बीच घनिष्ठ संबंध के लिए देखें:चाटेरजी अंड दत्ता, पी. 43.
- ↑ [38] ^ अवधारणाओं के योग स्वीकृति के लिए ,लेकिन भगवान के लिए एक वर्ग के जोड़ने की क्रिया के साथ देखें: राधाकृष्णन अंड मूर, पी. 453.
- ↑ [39]^ Samkhya के 25 सिद्धांतों को योगा ने स्वीकार करने के लिए देखें: चटर्जी अंड दत्ता, पी. 43.
- ↑ [40] ^ म्युलर (1899), अध्याय 7, "योग फिलोसोफी", पी. १०४.
- ↑ [42] ^ ज़िम्मेर (1951), पी. 280.
- ↑ [43] ^ दार्शनिक प्रणाली के संस्थापक पतांजलि योग को यह रूप दिया,देखें:चटर्जी अंड दत्ता, पी. 42
- ↑ [44] ^ मन के नियंत्रण के लिए एक तंत्र के रूप में "राजा योग" के लिए और एक महत्वपूर्ण कार्य के रूप में पतांजलि के योग सूत्र के साथ संबंध के लिए देखे: फ्लड (1996), पीपी. 96-98.
- ↑ Patañjali (2001-02-01). "Yoga Sutras of Patañjali" (etext). Studio 34 Yoga Healing Arts. http://www.studio34yoga.com/yoga.php#reading. अभिगमन तिथि: 2008-11-24.
- ↑ पाठ और शब्द मे से शब्द अनुवाद के लिए देखे:तैम्नी पी."योग इस दी इनहिबिशन ऑफ़ दी मोडीफिकेशंस ऑफ़ दी मैंड" 6.
- ↑ [53] ^ बारबरा स्टोलेर मिलर, योगा:डिसिप्लिन टू फ्रीडम योग सूत्र पतांजलि को आरोपित किया है,पाठ का अनुवाद, टीका, परिचय और शब्दावली खोजशब्द के साथ. कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रेस, 1996, पृष्ठ 9.
- ↑ [54] ^ विवेकानाडा, पी. 115
- ↑ [55] ^ स्टीफन एच. फिलिप्स, क्लास्सिकल इंडियन मेताफ्य्सिक्स: रेफुताशन्स ऑफ़ रेअलिस्म अंड दी एमेर्गेंस ऑफ़ "न्यू लॉजिक". ओपन कोर्ट प्रकाशन, 1995, पृष्ठ 12-13.
- ↑ [57] ^ जकोब्सन, पी. 10.
- ↑ [58] ^ भगवद गीता, एक पूरा अध्याय (ch. 6) पारंपरिक योग का अभ्यास करने के लिए समर्पित सहित. इस गीता मे योग के प्रसिद्ध तीन प्रकारों,जैसे 'ज्ञान' (ज्ञान), 'एक्शन'(कर्म), और 'प्यार' (भक्ति)का परिचय किया है." फ्लड, पी. 96
- ↑ [59] ^ गम्भिरानान्दा, पी. 16
- ↑ [60] ^ जकोब्सन , पी. 46.
- ↑ [65] ^ हठयोग: यह प्रसंग,थिओरी अंड प्रक्टिस मिकेल बर्ली (पृष्ठ 16) द्वारा लिखा गया है.
- ↑ [66] ^ फयूएर्स्तें, जोर्ग. 1996 ).दी शम्भाला गाइड टू योग बोस्टन और लंदन: शम्भाला प्रकाशन, इंक
- ↑ 31.0 31.1 [68] ^ ज़ेन बौद्ध धर्म: ए हिस्ट्री (भारत और चीन)हेंरीच डमौलिन, जेम्स डब्ल्यू हेइसिग, पॉल एफ निटटर (पृष्ठ 22) द्वारा लिखा गया है.
- ↑ [69] ^ बारबरा स्टोलेर मिलर, योगा:डिसिप्लिन टू फ्रीडम योग सूत्र पतांजलि को आरोपित किया है,पाठ का अनुवाद, टीका, परिचय और शब्दावली खोजशब्द के साथ. कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रेस, 1996, पृष्ठ 8.
- ↑ [70] ^ अलेक्जेंडर वैन, दी ओरिजिन ऑफ़ बुद्धिस्ट मेडिटेशन. रौटलेड्ज 2007, पृष्ठ 73.
- ↑ [71] ^ अलेक्जेंडर वैन, दी ओरिजिन ऑफ़ बुद्धिस्ट मेडिटेशन. रौटलेड्ज 2007, पृष्ठ 105.
- ↑ [72] ^ अलेक्जेंडर वैन, दी ओरिजिन ऑफ़ बुद्धिस्ट मेडिटेशन. रौटलेड्ज 2007, पृष्ठ 96.
- ↑ [73] ^ अलेक्जेंडर वैन, दी ओरिजिन ऑफ़ बुद्धिस्ट मेडिटेशन. रौटलेड्ज 2007, पृष्ठ 109.
- ↑ [75] ^ डान लास्थौस: "वोट इस अंड इसंट योगकारा"
- ↑ [76] ^ डान लास्थौस. बौद्ध फेनोमेनोलोगी: ए फिलोसोफिकल इन्वेस्टीगेशन ऑफ़ योगकारा बुद्धिस्म अंड दी चेंग वेई-शिह लुन. (रौटलेड्ज) 2002 प्रकाशित. ISBN 0-7007-1186-4.पग 533
- ↑ [77] ^ सरल तिब्बती बौद्ध धर्म: ए गाइड टू तांत्रिक लिविंग,सी अलेक्जेंडर सिम्प्किंस, अन्नेल्लें एम. सिम्प्किंस द्वारा लिखा गया है. 2001 प्रकाशित. टटल प्रकाशन. ISBN 0-8048-3199-8
- ↑ [78] ^ दी बुद्धिस्ट त्रडिशन इन इंडिया,भारत और जापान. विलियम थिओडोर डी बारी द्वारा संपादित किया गया है. पन्ने. 207-208. ISBN 0-394-71696-5 - "दी मेडिटेशन स्कूल ने, चीनी में "चान" नाम से कहते है जो संस्कृत शब्द ध्यान से लिया गया है, पश्चिम में जापानी उच्चारण ज़ेन " से जाना जाता है.
- ↑ [80] ^ ज़ेन बौद्ध धर्म: ए हिस्ट्री (भारत और चीन)हेंरीच डमौलिन, जेम्स डब्ल्यू हेइसिग, पॉल एफ निटटर (पृष्ठ 13) द्वारा लिखा गया है. (पेज xviii)
- ↑ [82] ^ ज़ेन बौद्ध धर्म: ए हिस्ट्री (भारत और चीन)हेंरीच डमौलिन, जेम्स डब्ल्यू हेइसिग, पॉल एफ निटटर (पृष्ठ 13) द्वारा लिखा गया है. (पृष्ठ 13)
- ↑ [83] ^ दी लैयेन्स रोर: अन इन्त्रोदुक्शन टू तंत्र चोग्यम त्रुन्ग्पा द्वारा. शम्भाला, 2001 ISBN 1-57062-895-5
- ↑ [84] ^सीक्रेट ऑफ़ दी वज्र वर्ल्ड: दी तांत्रिक बुद्धिस्म ऑफ़ तिबेट रेय रेगिनाल्ड ए शम्भाला द्वारा : 2002 मे लिखा गया. ISBN 1-57062-917-X पन्ना 37-38
- ↑ [85] ^ सीक्रेट ऑफ़ दी वज्र वर्ल्ड: दी तांत्रिक बुद्धिस्म ऑफ़ तिबेट रेय रेगिनाल्ड ए शम्भाला द्वारा : 2002 मे लिखा गया.ISBN 1-57062-917-X पन्ना 57
- ↑ [86] ^ योगा:दी तिबेतन योगा ऑफ़ मूवमेंट , चोग्याल नम्खई नोरबू द्वारा लिखा गया है. स्नो लायन, 2008. ISBN 1-55939-308-4
- ↑ [87] ^ चांग, जी. सी.सी (1993).तिबेतन योगा. न्यू जर्सी: कैरल प्रकाशन समूह. ISBN 0-8065-1453-1, पन्ना.7
- ↑ [88] ^ तत्त्वार्थसूत्र [6.1], मनु दोषी (2007) तत्त्वार्थसूत्र के अनुवाद, अहमदाबाद : श्रुत रत्नाकर पी. 102
- ↑ [89] ^ तत्त्वार्थसूत्र [6.2]
- ↑ [90] ^ तत्त्वार्थसूत्र [6.2]
- ↑ [91] ^ नियमासरा [134-40]
- ↑ [92] ^ ज्यडेन्बोस , रॉबर्ट. जैनिस्म टुडे अंड इट्स फ्यूचर. मूंछें: मन्या वेर्लग, 2006. पन्ना.66
- ↑ [93] ^ ज़िम्मर , हेंरीच (एड.) जोसेफ कैम्पबेल: फिलोसोफीस ऑफ़ इंडिया.न्यू यॉर्क: प्रिंसटन यूनिवर्सिटी प्रेस, 1969 पन्ना.60
- ↑ [94] ^ क्रिस्टोफर चप्पल. ( 1993) नॉनविलँस टू अनिमल्स,अर्थ,अंड सेल्फ इन एशियन त्रदिशन्स.न्यू यॉर्क: सनी प्रेस, 1993 पन्ना. 7
- ↑ [95] ^ ज्य्देंबोस (2006) पन्ना.66
- ↑ [96] ^ विवियन वोर्थिन्ग्तन द्वारा ए हिस्ट्री ऑफ़ योगा (1982)रौटलेड्ज ISBN 0-7100-9258-X पन्ना. 29.
- ↑ [97] ^ विवियन वोर्थिंगटन (1982) पन्ना. 35
- ↑ [98] ^ क्रिस्टोफर. (1993) चाप्पल, panna.6
- ↑ [99] ^ क्रिस्टोफर. (1993) चाप्पल, पप.6-9
- ↑ [100] ^ सीटूएटिंग सुफ्फिस्म अंड योगा
- ↑ [101] ^ केरोलिना संगोष्ठी तुलनात्मक इस्लामी अध्ययन पर
- ↑ 62.0 62.1 [102] ^ श्रेय इस्लामी समुदाय: योगा मुसलमानों के लिए नहीं है - सी एन एन
- ↑ [103] ^ http://thestar.com.my/news/story.asp?file=/2008/11/23/nation/2625368&sec=nation
- ↑ [104] ^ "मलेशिया के नेता: योगा मंत्र के बिना योग मुसलमानों के लिए ठीक है," एसोसिएटेड प्रेस
- ↑ [105] ^ http://www.islam.gov.my/portal/lihat.php?jakim=3600
- ↑ [106] ^ http://news.bbc.co.uk/2/hi/asia-pacific/7850079.stm
- ↑ http://specials.rediff.com/news/2009/jan/29video-islam-allows-yoga-deoband.htm
- ↑ [108] ^ http://www.hurriyet.com.tr/english/domestic/11692086.asp?gid=244
- ↑ Steinfels, Peter, “Trying to Reconcile the Ways of the Vatican and the East”, New York Times, 1990-01-07। अभिगमन तिथि: 2008-12-05।
- ↑ 70.0 70.1 [112] ^ शीर्षक: मेसोकोस्म: हिंदू धर्म और नेपाल में एक पारंपरिक नेवार सिटी मे संगठन. लेखक: रॉबर्ट अई लेवी. प्रकाशित: कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रेस, 1991. पीपी 313
- ↑ [114] ^ शीर्षक: मेसोकोस्म:हिंदू धर्म और नेपाल में एक पारंपरिक नेवार सिटी मे संगठन. लेखक: रॉबर्ट मैं लेवी. प्रकाशित: कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रेस, 1991. पीपी 317
- ↑ [115] ^ जकोब्सन , पी. 10.
- ↑ [116] ^ जकोब्सन, पी. 9
- ↑ [117] ^ ब्रिटटानिका संक्षिप्त "विशेष रूप से भक्ति को महत्त्व देना और लक्ष्य है जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त हो कर विष्णु की उपस्थिति का आनंद लेना."
[संपादित करें] आगे पढ़ना
- Apte, Vaman Shivram (1965). The Practical Sanskrit Dictionary. Delhi: Motilal Banarsidass Publishers. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 81-208-0567-4.(चौथा संशोधित और विस्तृत संस्करण).
- Patañjali (2001). Yoga Sutras of Patañjali. Studio 34 Yoga Healing Arts. http://www.studio34yoga.com/yoga.php#reading.
- चांग, जी सी सी (1993).तिब्बती योग. न्यू जर्सी: कैरल पब्लिशिंग ग्रुप . ISBN 0-8065-1453-1
- Chatterjee, Satischandra; Datta, Dhirendramohan (1984). An Introduction to Indian Philosophy (Eighth Reprint Edition ed.). Calcutta: University of Calcutta.
- Donatelle, रेबेका जे हैल्थ: दी बेसिक्स. 6. एड. सैन फ्रांसिस्को: पियर्सन एडूकेशन, इंक 2005.
- फयूएर्स्तें, जोर्ज . दी शम्भाला गाइड टु योग. 1. एड. बोस्टन एंड लन्डन: शम्भाला पुब्लिकेशन्स 1996.
- Flood, Gavin (1996). An Introduction to Hinduism. Cambridge: Cambridge University Press. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 0-521-43878-0.
- Gambhirananda, Swami (1998). Madhusudana Sarasvati Bhagavad_Gita: With the annotation Gūḍhārtha Dīpikā. Calcutta: Advaita Ashrama Publication Department. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 81-7505-194-9.
- Harinanda, Swami. Yoga and The Portal. Jai Dee Marketing. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 0978142950.
- Jacobsen, Knut A. (Editor); Larson, Gerald James (Editor) (2005). Theory And Practice of Yoga: Essays in Honour of Gerald James Larson. Brill Academic Publishers. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9004147578. (स्टडीज इन दी हिस्ट्री ऑफ़ रिलिजनस, 110)
- Keay, John (2000). India: A History. New York: Grove Press. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 0-8021-3797-0.
- मार्शल, जॉन (1931). मोहेंजोदारो एंड दी इन्दुस सिविलैज़ेशन:वर्ष 1922-27 के बीच मोहेंजोदारो में भारत सरकार द्वारा किए एक सरकारी खाता पुरातत्व खुदाई के होने के नाते. दिल्ली:इन्दोलोगिकल बुक हाउस.
- Michaels, Axel (2004). Hinduism: Past and Present. Princeton, New Jersey: Princeton University Press. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 0-691-08953-1.
- मित्रा, धर्म श्री. आसन: 608 योगा मुद्रा. 1. एड. कैलिफोर्निया: नई वर्ल्ड लाइब्रेरी 2003.
- Müller, Max (1899). Six Systems of Indian Philosophy; Samkhya and Yoga, Naya and Vaiseshika. Calcutta: Susil Gupta (India) Ltd.. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 0-7661-4296-5.[129] पुस्तक का नया संस्करण; मूलतः यह दी सिक्स सिस्टम्स ऑफ़ इंडियन फिलोसोफी के अंतर्गत प्रकाशित किया गया है.
- Possehl, Gregory (2003). The Indus Civilization: A Contemporary Perspective. AltaMira Press. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0759101722.
- Radhakrishnan, S.; Moore, CA (1967). A Sourcebook in Indian Philosophy. Princeton. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 0-691-01958-4.
- सरस्वती, स्वामी सत्यानन्दा. नवंबर 2002 (12 वें संस्करण). "आसन प्राणायाम मुद्रा बंधा" ISBN 81-86336-14-1
- Taimni, I. K. (1961). The Science of Yoga. Adyar, India: The Theosophical Publishing House. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 81-7059-212-7.
- उशाराबुध, आर्य पंडित. फिलोसोफी ऑफ़ हठ योगा. 2. एड. पेन्नीसिलवेनिया
- हिमालयन इंस्टीट्युत प्रेस 1977, 1985.
- Vivekananda, Swami (1994). Raja Yoga. Calcutta: Advaita Ashrama Publication Department. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 81-85301-16-6. 21 रिप्रिंट एडिशन
- Zimmer, Heinrich (1951). Philosophies of India. New York, New York: Princeton University Press. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 0-691-01758-1. बोल्लिंगें सीरीज XXVI; जोसेफ कैम्बेल द्वारा संपादित.
- Weber, Hans-Jörg L. (2007). Yogalehrende in Deutschland: eine humangeographische Studie unter besonderer Berücksichtigung von netzwerktheoretischen, bildungs- und religionsgeographischen Aspekten. Heidelberg: University of Heidelberg.http://archiv.ub.uni-heidelberg.de/savifadok/volltexte/2008/121/
[संपादित करें] बाहरी कड़ियाँ
- A Concise Encyclopedia of Yoga
- योगासन और शरीरविज्ञान (गूगल पुस्तक ; लेखक - स्वामी अक्षय आत्मानन्द)
- योग भगाये रोग (गूगल पुस्तक ; लेखक - स्वामी अक्षय आत्मानन्द)
- प्राणायाम, कुण्डलिनी और हठयोग (आचार्य भगवान देव)
- पातंजल योगदर्शन : व्यासभाष्य, उसका हिन्दी अनुवाद एवं सुविशद व्याख्या (गूगल पुस्तक ; व्याख्याकर - हरिहरानन्द आचार्य)
- योग का इतिहास (जेके हेल्थवर्ड]
- योग का इतिहास ( अनिरुद्ध जोशी 'शतायु' )
[छुपाएँ] भारतीय दर्शन | |
---|---|
ग्रंथ |
वेद (इसमें मुख्य उपनिषद सम्मिलित हैं) · उपनिषद · पुराण: विष्णु पुराण, भागवद पुराण · रामायण · महाभारत · भागवदगीता · बौद्ध ग्रंथ · जैन आगम
|
विषय/क्षेत्र | |
आस्तिक |
सांख्य · न्याय · वैशेषिक · योग · मीमांसा · वेदांत (अद्वैत · विशिष्टाद्वैत · द्वैत · अचिन्त्य भेद अभेद)
|
नास्तिक |
चार्वाक · आजीविक · जैन (अनेकान्तवाद · स्यादवाद) · बौद्ध (शून्यता · माध्यमक · योगाचार · सौत्रांतिक · स्वतांत्रिक)
|
दार्शनकिक ग्रंथ |
|
दार्शनिक |
अक्षपाद गौतम | पतंजलि | याज्ञवल्क्य | कणाद | कपिल | जैमिनी | वेदव्यास | नागार्जुन | माध्वाचार्य | कुमारजीव | पद्मसम्भव | वसुबन्धु | आदि शंकराचार्य | रामानुज |
|
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें