मंगलवार, 7 अगस्त 2012

सिर पर मैला




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वेब/संगठन: 
Author: 
राम पुनियानी
मानवीय गरिमा पर कलंकमानवीय गरिमा पर कलंकभारतीय समाज में अनेक कुप्रथाएं व्याप्त हैं. इनमें से कई ऐसी हैं, जो समाज के दलित-वंचित वर्गों पर अत्याचार का स्त्रोत व कारण हैं. इन्हीं में एक है सिर पर मैला ढ़ोने की कुप्रथा. मानव मल को मानवों द्वारा झाड़ू, रांपी जैसे खुरचने वाले औजारों और बाल्टी की सहायता से साफ किया जाता है.

आधिकारिक तौर पर भारत में सिर पर मैला ढ़ोने की प्रथा अस्तित्व में नहीं है. उसका तो भारत सरकार ने सन् 1993 में ही उन्मूलन कर दिया था. इसे सरकार की अक्षमता कहें या लापरवाही परंतु सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा किए गए सर्वेक्षणों से यह तथ्य सामने आया है कि आज भी देश में लगभग 14 लाख लोग इस काम में लगे हैं और इनमें से 95 प्रतिशत महिलाएं हैं.

सफाईकर्मी, दलितों के अछूत वर्ग से आते हैं. अपनी आजीविका के लिए यह अमानवीय कार्य करना उनकी मजबूरी है. उन्हें यह काम विरासत में मिलता है.

राज्यों ने इस कुप्रथा के उन्मूलन संबंधी केन्द्र सरकार के निर्णय को गंभीरता से नहीं लिया. कई राज्य सरकारों ने तो इस आशय की अधिसूचना तक जारी नहीं की है. इसी पृष्ठभूमि में, सामाजिक संगठन सफाई कर्मचारी आंदोलनने इस नृशंस प्रथा का 2010 के अंत तक पूर्ण उन्मूलन किए जाने का आव्हान किया है. सिर पर मैला ढ़ोने की प्रथा, हमारे देश में प्रचलित अछूत प्रथा से ही जन्मी है. कई सामंती समाजों में जन्म-आधारित जाति प्रथा अस्तित्व में थी परंतु एक मुख्य अंतर यह था कि भारत में जाति प्रथा को धार्मिक स्वीकृति प्राप्त थी. धर्मग्रंथों के आधार पर जातिप्रथा को दैवीय दर्जा दे दिया गया था. जाति व्यवस्था के उदय के पीछे कई कारक थे, जिनमें शामिल थे नस्ल, वर्ग और धर्म. धार्मिक और आर्थिक कारकों ने जाति के पिरामिड के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की. जैसा कि अंबेडकर ने कहा था, “जाति, श्रम विभाजन नहीं श्रमिकों का विभाजन है”. अंबेडकर ने इस संदर्भ में धार्मिक और वैचारिक कारकों को अधिक महत्व दिया. अंबेडकर के विश्लेषण के अनुसार, इन कारकों के आपस में गुंथ जाने से वे सामाजिक परिवर्तन आए जिनने अंततः जाति प्रथा को जन्म दिया.

जाति प्रथा का विकास एक धीमी प्रक्रिया थी. उसकी निरंतरता सुनिश्चित करने के लिए उसे वंशानुगत बना दिया गया. रोटी और बेटी के संबंधों पर रोक से सजातीय और बहिर्विवाह से संबंधित विस्तृत नियम जन्मे. जाति के वंशानुगत बन जाने और उपजातियों को जीविका से जोड़े जाने का नतीजा यह हुआ की किसी व्यक्ति के लिए जाति की सीमाओं को लांघना असंभव हो गया. जिस जाति में किसी व्यक्ति का जन्म हो, उसी जाति में आजीवन बना रहना उसकी नियति बन गई.

अछूत प्रथा भी जाति प्रथा से उपजी. अछूत प्रथा की अत्यंत क्रूर और अमानवीय अभिव्यक्ति है, सिर पर मैला ढ़ोने की प्रथा. ऊँची जातियां, नीची जातियों पर इससे अधिक क्रूर अत्याचार नहीं कर सकती थीं. शुद्धता-प्रदूषण की अवधारणाओं और पुनर्जन्म के सिद्धांत का इस्तेमाल इन वर्गों को यह अमानवीय कार्य करते रहने के लिए मजबूर करने के लिए किया गया. खालिद अख्तर, हार्डन्यूज मीडिया, मार्च 2008 में कहते हैं कि इस कुप्रथा का सबसे पहले जिक्र नारद संहिता और वजसनेयी संहिता में मिलता है. नारद संहिता में अछूतों के 15 कर्तव्यों की जो सूची दी गई है, उसमें मानव मल को साफ करना शामिल है. वजसनेयी संहिता में चांडालों को गुलाम बताया गया है, जो मानव मल को ठिकाने लगाते हैं. इस वर्ग के लोगों को अन्य दलित भी नीची नजरों से देखते हैं और कोई उनके साथ सामाजिक मेलजोल नहीं रखता.

गुजरात के लोथा में हुई पुरातत्वीय खुदाई से यह जाहिर हुआ है कि हड़प्पा सभ्यता में शुष्क शौचालय नहीं थे. वहां जल-आधारित सफाई व्यवस्था थी. शौचालय, नालियों से जुड़े हुए थे. वहां मेनहोल और चैम्बर भी थे. हड़प्पा सभ्यता के पतन के साथ ही यह तकनीक भी लुप्त हो गई. हाथ से मैले की सफाई की व्यवस्था मध्यकाल में भी प्रचलित थी. कुछ स्थानों पर मुस्लिम राजाओं ने दूसरी तकनीकें भी अपनाईं.

साम्प्रदायिक ताकतों ने इस मामले में भी अपनी शैतानी बुद्धि का इस्तेमाल करने में कसर नहीं छोड़ी. यह प्रचार किया गया कि चूंकि पर्दानशीन मुस्लिम महिलाएं शौच से निवृत्त होने के लिए जंगलों में जाने में असमर्थ थीं, इसलिए उनकी सुविधा के लिए सिर पर मैला ढ़ोने की व्यवस्था लागू की गई. यह अपनी हर आतंरिक समस्या का स्त्रोत बाहर ढूढ़ने की प्रवृत्ति का उदाहरण है. मुगल किलों की जल-मल निकासी व्यवस्था के अध्ययन से पता चलता है कि शौचालयों से गंदे पानी को बाहर निकलने का मार्ग हुआ करता था. पानी की सहायता से, अपशिष्ट पदार्थ, गुरूत्वाकर्षण बल के जरिए, किले की बाहरी दीवारों तक ले जाए जाते थे. यह व्यवस्था दिल्ली के लालकिले और राजस्थान, हम्पी व केरल के शाही महलों में थी.

जहां तक हाथ से मैला साफ करने का सवाल है, अंग्रेजों ने इस व्यवस्था को न केवल जारी रखा बल्कि उसे व्यवस्थित रूप दिया. सेना, रेलवे, नगरपालिकाओं और बड़े शहरों में जमादारों के पद सृजित किए गए. कुछ स्थानों को छोड़कर, अंग्रेजों ने कहीं आधुनिक सीवेज सिस्टम नहीं बनवाए क्योंकि उन्होंने पाया कि भारत में पहले से ही सफाई की व्यवस्था उपलब्ध थी. हस्तकौशल का समाज में महत्व कम होने और बढ़ते औद्योगिकरण से बेरोजगार हो गए समाज के एक हिस्से को मजबूरी में इस काम को अपना पेट पालने का साधन बनाना पड़ा.

महात्मा गांधी ने अछूत प्रथा निवारण के लिए अथक प्रयास किए और शौचालयों की कई नई डिजाइनों को आजमाया परंतु उनके प्रयासों का सामाजिक स्थिति पर अधिक प्रभाव नहीं पड़ा.

पिछले कुछ वर्षों में, सामाजिक आंदोलनों के दबाव के कारण सरकारें इस प्रथा का उन्मूलन करने और जमादारों का पुनर्वास करने पर मजबूर हो गई हैं. परंतु हर सरकारी योजना की तरह, यह प्रयास भी आधा-अधूरे मन से किया जा रहा है और पर्याप्त प्रभावकारी नहीं है. सामाजिक संगठनों का इस सिलसिले में अभियान चलाने और हर संभव तरीके से सरकार और समाज पर दबाव बनाने का प्रयास सराहनीय है. यह स्पष्ट है कि जनमत के दबाव और संवेदनशील लोगों के प्रयासों से ही अंततः भारतीय समाज पर लगा यह बदनुमा दाग मिट सकेगा. धर्मग्रंथ चाहे कुछ भी कहते हों और परंपरा चाहे कुछ भी हो. अब बहुत हो चुका है. हमारे समाज के ही एक हिस्से पर हो रहा यह अत्याचार तुरंत बंद होना चाहिए.


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इंसान के सिर पर मैला

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सिर पर मैला ढोने की कुप्रथा को लेकर जब भी हमारे देश में राज्य सरकारों से जबाव तलब किया जाता है तो उनका दावा होता है कि उनके यहां अब यह समस्या बिल्कुल नहीं। इस कुप्रथा का नामो निशान मिट गया है और इन सफाई कर्मियों का उन्होंने अपने यहां पूरी तरह पुनर्वास कर दिया है, लेकिन इन दावों में कितनी सच्चाई और कितना झूठ है, यह हाल ही में हमारे सामने निकलकर आया। साल 2011 की जनगणना के आंकड़े इन दावों की हवा निकाल रहे हैं। आंकड़ों के मुताबिक, 50 फीसद भारतीय खुले में शौच को जाते हैं और 13 लाख ऐसे अस्वच्छ शौचालयों का इस्तेमाल करते हैं, जिनकी साफ-सफाई का जिम्मा आज भी घोषित और अघोषित रूप से सफाईकर्मियों के पास है। महज अपनी जीविका की खातिर ये सफाईकर्मी न चाहते हुए भी इस अमानवीय और घृणित कार्य में लगे हुए हैं। यह हालत तब है, जब सरकार ने इस कुप्रथा पर पूरे देश में पाबंदी लगा रखी है। केंद्र सरकार साल 1993 में ही हाथ से सफाई और सूखा शौचालय निषेध कानून पारित कर चुकी है। यही नहीं, इस काम में लगे लोगों के पुनर्वास के लिए सरकार एक कानून भी लाई थी, लेकिन न तो इस कुप्रथा पर प्रतिबंध लग पाया और न ही कानून पूरी तरह से कारगर हो पाया। कानून मौजूद होने के बाद भी देश भर में पांच लाख से ज्यादा लोग सिर पर मैला ढोने के काम में लगे हुए हैं। ये सफाईकर्मी जिनमें महिलाएं एवं पुरुष दोनों शामिल हैं, सार्वजनिक एवं निजी शौचालयों में टीन प्लेटों और झाड़ूओं की सहायता से मैले को डिब्बे या टोकरियों में रखते हैं और फिर सिर पर उठाकर निर्धारित स्थान पर फेंकते हैं। सिर पर मैला ढोने का यह अमानवीय कार्य हमारे समाज में सालों से जारी है, लेकिन मजाल है कि कभी किसी के खिलाफ कोई कार्रवाई हुई हो। समूचा तंत्र इतना संवेदनहीन हो गया है कि उसकी आंखों के सामने यह काम चलता रहता है और वह सिर्फ तमाशा देखता रहता है। सिर पर मैला ढोने की कुप्रथा के मुक्ति अभियान में लगे गैरसरकारी संगठनों की पहली शिकायत है कि अनगिनत कोशिशों के बाद भी किसी सरकार ने इस समस्या को न तो गंभीरता से लिया और न इस सिलसिले में आज तक दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ कोई समयबद्ध योजना या अभियान चलाया। इस कुप्रथा के खिलाफ जब देश भर में आवाज उठी तो केंद्र सरकार ने जनवरी-2011 में अपनी ओर से ऐलान किया कि पूरे देश में सूखे शौचालयों और हाथ से काम करने वाले सफाईकर्मियों की सही-सही संख्या मालूम करने के लिए एक सर्वेक्षण किया जाएगा। अफसोस कि डेढ़ साल से ज्यादा समय गुजर गया, मगर यह प्रक्रिया अब भी शुरू नहीं हो पाई है। जनगणना के हालिया आंकड़ों के बाद एक बार फिर सरकार ने हामी भरी है कि वह जल्द ही इस काम में लगे लोगों की सही संख्या का पता लगाएगी और संसद के आगामी सत्र यानी मानसून सत्र में इस कुप्रथा को रोकने के लिए एक कारगर कानून लाएगी। मैला ढोने वालों के पुनर्वास के लिए कहने को सरकार ने पूरे देश में बड़े ही जोर-शोर से स्वरोजगार योजना यानी एसआरएमएस शुरू की। इसके तहत मैला ढोने वालों को स्वरोजगार के लिए ऋण देना था, लेकिन सफाई कामगारों के प्रति राज्य सरकारों की उदासीनता कहिए या लापरवाही, इस योजना के लिए आवंटित 735.60 करोड़ रुपये में से 500 करोड़ रुपये आज तक खर्च नहीं हुए हैं। जो पैसा खर्च हुआ, उसमें भी धांधली और भ्रष्टाचार की खबरें सामने आई। योजना के तहत सरकार ने तीन लाख 42 हजार 468 मैला ढोने वालों को ऋण दिए जाने का लक्ष्य रखा, लेकिन साल 2010 तक इस योजना में केवल एक लाख 18 हजार 474 लोगों ने ही आवेदन किए, जिसमें से 40 हजार लोगों ने आवेदन भरने के बाद भी ऋण नहीं लिया। वजह, योजना में व्याप्त बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी। योजना में भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी के चलते ज्यादातर लोग ऋण लेने से ही कतराते हैं। आलम यह है कि मैला ढोने के काम में लगे सफाइकर्मियों को अपने पैरों पर खड़ा करने वाली सरकार की इस महत्वाकांक्षी योजना पर बिल्कुल भी यकीन नहीं। योजना में गड़बड़ी और धांधली की तस्दीक एक रिपोर्ट भी करती है। इस रिपोर्ट में मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में योजना के असल क्रियान्वयन की पड़ताल की गई है। राष्ट्रीय गरिमा अभियान नाम से हुए इस अध्ययन में जब मध्य प्रदेश में योजना के क्रियान्वयन की जमीनी हकीकत जानी गई तो कई हैरतअंगेज तथ्य सामने निकलकर आए। मसलन, सूबे में जिन लोगों को इस योजना का लाभ दिया गया, उनमें से 79 फीसद ने कभी मैला ढोने का काम किया ही नहीं था। ऋण पाने वालों में से 48 फीसद पुरुष हैं, जबकि सच्चाई यह है कि सूबे में 98 फीसद मैला ढोने वाली औरतें हैं। यही नहीं, पूरे सूबे में तीन फीसदी ऋण ऐसे लोगों को बांट दिया गया, जिनकी उम्र 18 साल से कम है यानी कायदे से तो वे इस योजना के लाभार्थी हो ही नहीं सकते। कुल मिलाकर अध्ययन यह साबित करता है कि सूबे में बड़े पैमाने पर ऋण बांटने में घोटाला हुआ और 85 फीसद मैला ढोने वाली महिलाओं को इस योजना का कोई फायदा नहीं मिला। सिर पर मैला ढोने की कुप्रथा न सिर्फ मानवाधिकारों का उल्लंघन है, बल्कि समूची इंसानियत पर भी एक धब्बा है। यह बुराई जड़ से खत्म हो, इसके लिए सरकार और समाज दोनों को ही अपनी-अपनी ओर से ईमानदार प्रयास करने होंगे। तभी जाकर यह कलंक मिटेगा। देर से ही सही, अब सरकार इस कुप्रथा पर रोक लगाने के लिए संजीदा हुई है। सरकार की सबसे पहली चुनौती इस समस्या के शिकार लोगों-परिवारों और क्षेत्रों का ठीक से पता लगाना है, जिससे उनके पुनर्वास के लिए कोई बेहतर योजना बनाई जा सके। दूसरी चुनौती संसद में एक ऐसा प्रभावी कानून पारित करवाना है, जिससे इस कुप्रथा पर पूरी तरह से रोक लग सके। एक बात और, महज कानूनी पाबंदी लगाने से ही यह अमानवीय प्रथा खत्म नहीं होगी, बल्कि इसके लिए समाज में और भी बड़े पैमाने पर बदलाव करने होंगे। खासतौर पर चुनौती समाज की मानसिकता को बदलने की है। सफाईकर्मियों के साथ भेदभाव और छुआछूत, उन्हें इस घृणित काम में जबरन धकेले जाने जैसी अमानवीयता, रूढि़ या परंपरा के नाम पर हमारे समाज में अपनी जड़ें जमाए हुए है। जाहिर है, जब तक समाज की मानसिकता नहीं बदलेगी, लाख कोशिशें कर लें, इस कुप्रथा पर काबू नहीं पाया जा सकता।
- जाहिद खान (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
साभारः दैनिक जागरण
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सिर पर मैला ढोने को मजबूर मुडली की महिलाएं

सिर पर मैला ढोने को मजबूर मुडली की महिलाएं
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महात्मा गांधी के नाम पर राजनीति करने वाले इस मुद्दे पर आंख बंद करके बैठे हैं। दो दशक पहले भारत में मैला ढोने की प्रथा पर रोक लगा दी गई है, लेकिन अभी भी देश के कई हिस्सों में यह परंपरा जारी है। उत्तरी भारत के कई गांवों की तरह उत्तर भारत के गांव मुडली में भी सिवेज नहीं, यानी घर से गंदा पानी निकलने की कोई प्रणाली यहां नहीं है, तो ऐसे शौचालय भी नहीं, जहां मल निकास की व्यवस्था हो। जिस परिवार की महिलाएं इस काम में लगी हैं वह कहती हैं कि उनके पास इसके अलावा घर चलाने का कोई रास्ता नहीं है।

1993 में प्रतिबंधित यह काम आज भी पूरे देश में कई हजार महिलाएं करती हैं। वर्ण व्यवस्था के मारे देश में जो काम कोई नहीं करना चाहता वह काम करने वाले इन लोगों का आभार, धन्यवाद तो दूर उन्हें और उनके काम को नीची नजर से देखा जाता है। अभी भी वहीं शादी होने के बाद यानी करीब 20 साल से सुनीता मल साफ करने और ढोने का काम कर रही हैं। वह देख रही हैं कि आसपास की दुनिया बेहतर हो रही है, लेकिन उसकी दुनिया बीस साल से वहीं ठहरी हुई है।
 
एक अरब से ज्यादा की जनसंख्या वाले भारत में आधे लोगों के पास टॉयलेट की सुविधा नहीं है। हाल ही में रिपोर्ट भी आई कि भारत में टॉयलेट से ज्यादा मोबाइल हैं। देशभर में करीब सात लाख टॉयलेट्स ऐसे हैं, जहां मल निकास की व्यवस्था नहीं, इन्हें ड्राई लैट्रिन्स कहा जाता है और यहां से मल साफ करने के लिए लोगों की जरूरत है। अपने सिर पर मैला उठाए गुड्डी दूसरी ऐसी महिला है, जो अपना घर इस काम से चलाती है।

यह मैला उठाने पर हर छह महीने में 10 किलो गेहूं देते हैं या फिर पैसे देते हैं। सरकार मल ढोने की प्रथा रोकने के लिए पांच हजार रुपए का लोन देती है, ताकि वे कोई और काम कर सकें। बेजवैडे विल्सन एक एक्टिविस्ट हैं जो भारत भर में मल ढोने की परंपरा खत्म करने के लिए काम कर रहे हैं। वह इन महिलाओं को दूसरा काम ढूंढने में मदद करते हैं। यह महिलाओं की विफलता नहीं है, सरकार की है, आप किसी एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति का मल उठाने के लिए कैसे कह सकते हैं और हम उसे स्वीकार कैसे कर सकते हैं?

 
नया कानून: समाज कल्याण मंत्री मुकुल वासनिक ने पत्रकारों के सामने माना कि भले ही इस पर 1993 में रोक लगा दी गई, लेकिन यह प्रथा खत्म नहीं हुई है। ड्राई लैट्रिंस का बनाना भी रोका नहीं जा सका है। इसलिए कानून पूरी तरह लागू नहीं हो सका है। वासनिक ने वादा किया है कि पहली अगस्त से शुरू होने वाले नए संसद सत्र में नया कानून लाया जाएगा, जिसमें मल ढोने के अलावा चोक नालियां साफ करने जैसे कामों पर भी रोक लगाई जाएगी। एक पूरी पीढ़ी जो अच्छी शिक्षा, सामाजिक पहचान के लिए जूझ रही है उसे इस भयानक काम से मुक्ति मिलने का कागजी इंतजाम तो कम से कम हो ही जाएगा।
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मानवता की सबसे बड़ी त्रासदी

Jul 21, 12:55 pm
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भारत के अधिकाश घरों में बिना हल्दी के खाना नहीं पकता, लेकिन इस देश की कुछ औरतें ऐसी भी हैं जिन्हें हल्दी के रंग से ही नफरत है। बिना दाल के भोजन अधूरा है, लेकिन कुछ महिलाओं को पीले रंग की दाल देखते ही मितली आने लगती है। लंबे, घने केश औरतों के सौंदर्य के आभूषण माने जाते हैं, लेकिन कुछ औरतों को अपने लंबे, घने बालों से भी घिन आती है। इन विचित्र औरतों से हमारा परिचय हाल ही में आई एक पुस्तक अदृश्य भारत में होता है। ये महिलाएं हमारे मल के साथ ही हमारी इंसानियत को टोकरियों में भरकर अपने सिर के ऊपर रखती हैं। उन टोकरियों में भरा मैला उनके जेहन पर इस कदर तारी हो गया है कि खुद से और इंसानियत से घिन आने लगी है। इसीलिए हल्दी देखकर वे गश खा जाती हैं, पीली दाल देखकर उन्हें मितली आने लगती है और अपने घने, काले बालों से वे इसलिए घृणा करती हैं, क्योंकि उनमें समा गए हमारे मल की दुर्गध कभी कम होती ही नहीं। इन औरतों के लिए दुनिया की बहुत-सी खूबसूरत चीजें बदसूरत बन चुकी हैं जैसे बारिश। इन औरतों के लिए बरसात का मतलब है टपकती हुईं टोकरिया, जिनके बजबजाते मल से उनका शरीर, उनका मन और उनकी आत्मा सब भर जाते हैं। ये औरतें हर शहर, कस्बे और गाव में सिर पर मैला ढोने का तो काम करती ही हैं, साथ ही रेलगाड़ियों से गिरने वाले मल को रेलवे लाइन से उठाती भी हैं। और हम हैं कि उनकी ओर देखना भी नहीं चाहते। शायद इसलिए कि उन्हें देख लेंगे तो हमें इस बात का अहसास हो जाएगा कि उनकी टोकरी में हमारे मल के साथ-साथ हमारी इंसानियत भी लिपटी हुई है। अगर ऐसा न होता तो क्या मजाल है कि वह टोकरी 2012 में भी उनके सिर पर टिकी होती। पूरी दुनिया में पुराने जमाने के शुष्क शौचालय या तो खत्म कर दिए गए हैं या फिर खत्म किए जा रहे हैं। कहीं भी रेलवे लाइन के ऊपर रेलगाड़ियों से गिरता हुआ मैला अब नजर नहीं आता, लेकिन हमारे देश में शुष्क शौचालयों की भरमार है और हमारी रेलवे लाइन ही नहीं, बल्कि तमाम सड़कें, गलिया और नालिया खुला शौचालय बनी हुई हैं। संतोष की बात यह है कि इस पद्धति को समाप्त करने की आवाजें भी उठती रही हैं। सफाई कर्मचारियों के लिए राष्ट्रीय आयोग का गठन किया गया है। आयोग की सिफारिशें तो अलमारियों में दीमक के हवाले कर दी गईं, लेकिन आवाजें बंद नहीं हुईं। देश के कई भागों में सफाई कर्मचारियों ने आदोलन छेड़ दिए। इसका नतीजा हुआ कि 1993 में मैला ढोने वालों को काम पर रखने और शुष्क शौचालयों का निर्माण निषेध करने वाला अधिनियम पारित किया गया। इस कानून के तहत किसी भी व्यक्ति को मानव-मल ढोने के काम पर लगाया जाना गैर-कानूनी है। शुष्क शौचालयों के निर्माण व प्रबंध पर रोक लगा दी गई है। साथ ही मैला ढोने के काम में लगे लोगों के लिए वैकल्पिक रोजगार की व्यवस्था करने का प्रावधान है, लेकिन यह कानून फाइलों में कैद होकर रह गया। जमीनी हकीकत में कोई बदलाव नहीं आया। इस संबंध में अपील दायर करने पर जब सर्वोच्च न्यायालय ने राच्य सरकारों से जानकारी मागी कि कानून का क्रियान्यवन किस हद तक किया गया है तो सब राच्यों का जवाब था कि मल ढोने वाला कोई कर्मचारी नहीं है और तमाम शुष्क शौचालयों को जल-चालित बना दिया गया है। कोर्ट के सामने मल ढोने वाली महिलाओं को खड़ा करके इन झूठे बयानों का पर्दाफाश किया गया, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय भी असहाय नजर आया। किसी भी अधिकारी को इस बात के लिए दंडित नहीं किया गया कि उसने कानून का पालन नहीं किया है। कानून लागू करने में सरकार की ढिलाई ने सफाई कर्मियों के संगठनों को आक्रोशित कर दिया। मैला ढोने वालों ने विभिन्न शहरों में अपनी टोकरियों में आग लगा दी और बहुत से शुष्क शौचालयों को ध्वस्त कर दिया। सर्वोच्च न्यायालय के सामने दिए गए सरकारी हलफनामों की सच्चाई को परखने के लिए अदृश्य भारत की लेखिका भारत भ्रमण पर निकलीं। उन्होंने पाया कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक इस कानून की खुलेआम धच्जिया उड़ाई जा रही हैं। दिल्ली के नंदनगरी की मीना ने बताया कि मैला ढोने के कारण गर्भ में उनकी बेटी को संक्रमण हो गया। यह लड़की विकलाग पैदा हुई। इसके बाद से मीना ने मैला ढोने से तौबा कर ली और मैला ढोने के खिलाफ चलने वाले अभियान से जुड़ गईं। झूठ को सच मे तब्दील करने की कला का नमूना बिहार की राजधानी पटना की यात्रा के दौरान देखने को मिला। शहर की अनेक कॉलोनियों में टॉयलेट में फ्लश तो लगे हैं, किंतु मैला निकालने के लिए कोई सीवर लाइन नहीं है। जिस टैंक से पूरे इलाके के ये फ्लश टॉयलेट जुडे़ हुए हैं, उसकी सफाई दिन में नहीं, रात में होती है ताकि उस घिनौने दृश्य को देखने की तकलीफ वहा रहने वाले सभ्य लोगों को उठानी न पडे़। देश भर में सिर पर मैला ढोने वाले सबसे अधिक व्यक्ति उत्तर प्रदेश में हैं। एक लाख से अधिक ये लोग रोजाना नर्क भोगते हैं। उत्तर प्रदेश के सबसे बड़े शहर कानपुर के तमाम पुराने मोहल्लों में औरतें ही मल साफ करती हैं। यह तब है जब राष्ट्रीय सफाई आयोग के अध्यक्ष रहे पन्नालाल ताबे इसी शहर के रहने वाले हैं। पन्नालाल कहते हैं कि जब हम गंदगी को खत्म कर सकते हैं, शुष्क शौचालय खत्म कर सकते हैं तो सरकार क्यों नहीं कर सकती? लेखिका जब अपनी यात्रा के दौरान आध्र प्रदेश के अनंतपुर जिले की नारायण अम्मा से मिलीं तो उनके बालों में फूलों का गजरा सजा था। उन्होंने कहा कि मैला ढोने का काम छोड़ने के बाद ही मुझे खुद के इंसान होने पर विश्वास हुआ। मैंने इस खुशी के लिए लंबा संघर्ष चलाकर नर्क से मुक्ति हासिल की है। हम सबकी मुक्ति भी नारायण अम्मा जैसी औरतों की मुक्ति के साथ जुड़ी हुई है।
(सुभाषिनी अली सहगल: लेखिका लोकसभा की पूर्व सदस्य हैं)
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Author: 
जाहिद खान
Source: 
हम सम्वत, 05 सितम्बर 2011
सिर पर मैला ढोने की कुप्रथा रोकने के लिए बने कानून को आज भले ही 18 साल हो गए हों, लेकिन फिर भी समाज में इस कानून का कोई असर नहीं दिखलाई देता। जहां मानव समाज आधुनिकता की ओर बढ़ रहा है वहीं आज भी कुछ लोग मैला ढोने के लिए मजबूर हैं अगर वह इस मैला ढोने के काम को छोड़कर एक अच्छा जीवन जीना चाहे तो समाज उसे जीने नहीं देती है। इस कलंक के बारे में बताते जाहित खान।


जब तक समाज की मानसिकता नहीं बदलेगी, तब तक चाहे जितने कानून और योजनाएं आ जाएं, मगर इस पर काबू नहीं पाया जा सकता। हमारी तरह सफाई कामगार भी इंसान हैं और उन्हें भी संविधान ने वही अधिकार दिए हैं, जो हमें। सिर पर मैला ढोना न सिर्फ मानवाधिकारों का उल्लंघन है, बल्कि समूची इंसानियत पर भी एक धब्बा है। यह बुराई जड़ से खत्म हो, इसके लिए सरकार और समाज दोनों को ही अपनी-अपनी ओर से ईमानदारी भरे प्रयास करने होंगे।
हमारा मुल्क जब आजाद हुआ तो पूरे समाज में ऊंच-नीच पर आधारित जातिवादी व्यवस्था लागू थी। ऊंची-नीची जातियों के बीच आपस में घोर असमानता, भेद-भाव और छुआछूत मौजूद थी। जाहिर है, इस भेदभाव और छुआछूत को समाज में जड़ से मिटाना सरकार का पहला काम था। सरकार ने यह काम किया भी। दलितों के प्रति अस्पृश्यता और छुआछूत रोकने के लिए सरकार ने अपनी ओर से कई कानून बनाए। दलितों का जीवन स्तर सुधारे और वे मुख्यधारा में आएं, इसके लिए सरकारों ने उन्हें शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण के अलावा अनेकानेक योजनाएं बनाईं। लेकिन बावजूद इसके मुल्क के कई हिस्सों से आए-दिन यह खबरें आती रहती हैं कि सिर पर मैला ढोने की कुप्रथा आज भी जारी है। इस अमानवीय कुप्रथा को रोकने के लिए कहने को सरकार साल 1993 में ही कानून बना चुकी है। लेकिन फिर भी यह घृणित प्रथा पूरी तरह से बंद नहीं हुई है। सिर पर मैला ढोने की कुप्रथा को लेकर हाल ही में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने कर्नाटक के मुख्य सचिव से जबाव-तलब किया। आयोग ने उनसे चार हफ्ते के भीतर यह बतलाने को कहा है कि सूबे के कितने जिलों में अभी भी यह अमानवीय कुप्रथा मौजूद है और उसके खात्मे के लिए सूबाई सरकार ने क्या कदम उठाए?

गौरतलब है कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने यह कदम मीडिया में आई उस खबर का संज्ञान लेते हुए उठाया, जिसमें बताया गया था कि कर्नाटक के कुछ हिस्सों में आज भी सिर पर मैला ढोने की कुप्रथा जारी है। आयोग ने इस पूरे मामले को गंभीरता से लेते हुए कहा कि यदि यह खबर सही है तो यह मैला ढोने का काम कर रहे लोगों के मानवाधिकारों का गंभीर उल्लंघन है। यह बात सच भी है। एक तरफ हमारी सरकारें मानवाधिकारों के संरक्षण की बात करती हैं, तो दूजी तरफ हमारा तथाकथित सभ्य समाज हैं, जहां आज भी मैला ढोने जैसा अमानवीय काम हो रहा है। कर्नाटक की ही बात करें, तो सूबे में सरकार ने इस प्रथा पर साल 1970 में पाबंदी लगा दी थी। फिर भी यहां तकरीबन 8 हजार लोग सिर पर मैला ढोने का काम करते हैं। कर्नाटक की बीजेपी सरकार दावा करती है कि सूबे में साल 1997 से इस बुराई के खात्मे और मैला ढोने वालों को वैकल्पिक रोजगार देने के वास्ते कानून है।

लेकिन अब सवाल यह उठता है कि जब सूबे में सफाई कामगारों के लिए वैकल्पिक रोजगार के वास्ते अलग से कानून है, तो वे इस घृणित कार्य करने को क्यों मजबूर हैं? क्यों आज भी वे सिर पर मैला ढोने के काम से अपने और अपने परिवार का जीवन गुजर-बसर कर रहे हैं? बहरहाल, इस सवाल का जबाव ज्यादा मुश्किल नहीं है। पहली बात, तमाम आधुनिकताओं के बाद भी समाज की मानसिकता नहीं बदल पाई है। इस काम में जुड़े लोगों को आज भी अछूत माना जाता है। यहां तक कि कई गांवों में उन्हें समाज के बीच रहने का अधिकार भी नहीं है। यदि सफाई कामगार इस कुप्रथा को छोड़ना भी चाहें, तो उन्हें किसी दूसरे काम पर नहीं रखा जाता। दूसरी बात, सिर पर मैला ढोने की कुप्रथा को खत्म करने के लिए केन्द्र सरकार ने जिस योजना पर सबसे ज्यादा एतबार जताया, उसका पूरे मुल्क में सही तरह से अमल में न आ पाना। मैला ढोने वालों के पुनर्वास के लिए सरकार ने स्वरोजगार योजना यानी एसआरएमएस बड़े ही धूमधाम से शुरू की।

इस योजना के तहत मैला ढोने वालों को स्वरोजगार के लिए ऋण देना था। लेकिन सफाई कामगारों के प्रति सरकारों की उदासीनता कहिए या लापरवाही, इस योजना के लिए आवंटित 735.60 करोड़ रुपए में से 500 करोड़ रुपए आज तक खर्च नहीं हुए हैं और जो पैसा खर्च हुआ, उसमें भी धांधली और भ्रष्टाचार की खबरें सामने आई हैं। योजना के तहत सरकार ने 3 लाख 42 हजार 468 मैला ढोने वालों को ऋण दिए जाने का लक्ष्य रखा। लेकिन साल 2010 तक इस योजना में केवल 1 लाख 18 हजार 474 लोगों ने ही आवेदन किए। जिसमें से भी 40 हजार लोगों ने आवेदन भरने के बाद भी ऋण नहीं लिया। वजह! योजना में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार और रिश्वत। योजना में भ्रष्टाचार और रिश्वत के चलते ज्यादातर लोग ऋण लेने से कतराते हैं। अपने पैरों पर खड़ा करने वाली, सरकार की इस महत्वाकांक्षी योजना पर मैला ढोने वालों को बिल्कुल भी यकीन नहीं।

योजना में गड़बड़ी और धांधली की तस्दीक एक रिपोर्ट भी करती है, जिसमें मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में इस योजना के असल क्रियान्वयन की पड़ताल की गई। राष्ट्रीय गरिमा अभियान नाम से हुए इस अध्ययन में जब मध्य प्रदेश में योजना के क्रियान्वयन की जमीनी हकीकत जानी गई तो कई हैरतअंगेज तथ्य सामने निकलकर आए। मसलन-सूबे में जिन लोगों को इस योजना का लाभ दिया गया उनमें से 79 फीसदी ने कभी मैला ढोने का काम किया ही नहीं था। ऋण पाने वालों में से 48 फीसद मर्द हैं। जबकि सच्चाई यह है कि सूबे में 98 फीसद मैला ढोने वाली औरते हैं। यही नहीं, पूरे सूबे में 3 फीसदी ऋण ऐसे लोगों को बांट दिया गया, जिनकी उम्र 18 साल से कम है। यानी, कायदे से तो वे इस योजना के लाभार्थी हो ही नहीं सकते। इस संगठन का अध्ययन यह साबित करता है कि सूबे में बड़े पैमाने पर ऋण बांटने में घोटाला हुआ है और 85 फीसदी मैला ढौने वाली महिलाओं को योजना का कोई फायदा नहीं मिला।

कुल मिलाकर, सिर पर मैला ढोने की कुप्रथा रोकने के लिए बने कानून को आज भले ही 18 साल हो गए हों, लेकिन फिर भी समाज में इस कानून का कोई असर नहीं दिखलाई देता। मुल्क के कई हिस्सों में आज भी इस कुप्रथा का जारी रहना, यह बतलाता है कि महज कानूनी पाबंदी लगाने से ही यह अमानवीय प्रथा खत्म नहीं होगी, बल्कि इसके लिए समाज में और भी बड़े पैमाने पर बदलाव करने होंगे। खासतौर पर चुनौती समाज की मानसिकता को बदलने की है। क्योंकि, जब तक समाज की मानसिकता नहीं बदलेगी, तब तक चाहे जितने कानून और योजनाएं आ जाएं, मगर इस पर काबू नहीं पाया जा सकता। हमारी तरह सफाई कामगार भी इंसान हैं और उन्हें भी संविधान ने वही अधिकार दिए हैं, जो हमें। सिर पर मैला ढोना न सिर्फ मानवाधिकारों का उल्लंघन है, बल्कि समूची इंसानियत पर भी एक धब्बा है। यह बुराई जड़ से खत्म हो, इसके लिए सरकार और समाज दोनों को ही अपनी-अपनी ओर से ईमानदारी भरे प्रयास करने होंगे। तभी जाकर यह कलंक मिटेगा।
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Author: 
उमाशंकर मिश्र, अप्रैल 2009

मैला ढोने की कुप्रथामैला ढोने की कुप्रथासभ्यता के विकास में मल निस्तारण समस्या रही हो या न रही हो, लेकिन भारत में कुछ लोगों के सिर पर आज भी मैला सवार है. तमाम कोशिशों के बावजूद भारत सरकार उनके सिर से मैला नहीं उतार पायी है जो लंबे समय से इस काम से निजात पाना चाहते हैं. हालांकि सरकार द्वारा सिर से मैला हटा देने की तय आखिरी तारीख कल बीत गयी लेकिन कल ही 31 मार्च को दिल्ली में जो 200 लोग इकट्ठा हुए थे वे आज वापस अपने घरों को लौट गये हैं. तय है, आज से उन्हें फिर वही सब काम करना पड़ेगा जिसे हटाने की मंशा लिये वे दिल्ली आये थे. उमाशंकर मिश्र की रिपोर्ट-

भारत सरकार द्वारा 31 मार्च 2009 तक सिर पर मैला ढोने की प्रथा को समाप्त करने की घोषणा की वास्तविकता को उजागर करने के लिए आज छह राज्यों के 200 लोग नई दिल्ली में एकत्रित हुए। मध्यप्रदेश, गुजरात, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, तमिलनाडु एवं महाराष्ट्र से आए दलित समुदाय के लोगों ने बताया कि आज भी देश में लाखों शुष्क शोचालय मौजूद है, जिसके कारण लाखों लोग मैला ढोने को विवश हैं। यह काम करने से इंकार करने के बावजूद गांव के सामंती ढांचे मै मोजूद दबंग तबकों द्वारा उनसे जबरदस्ती करवाया जाता हैं। गरिमा अभियान मध्यप्रदेश, नवसृजन ट्रस्ट गुंजरात, टैम्स तमिलनाडू तथा मानुस्कि महाराष्ट्र द्वारा संयुक्त रूप से आयोजित इस राष्ट्रीय परामर्श में कई ऐसे लोगों ने भी शामिल हुए जिन्होंने अपने साहस और संघर्ष के जरिये इस प्रथा से मुक्त होने में सफलता हासिल की।

उल्लेखनीय है कि मैला ढोने का ज्यादातर महिलाओं को करना पड़ता है। राष्ट्रीय परामश में शामिल महिलाओं ने अपनी बात प्रस्तुत करते हुए कहा कि वे यह काम अपनी मर्जी से नहीं बल्कि सामाजिक दबाव के कारण करने को विवश है। इससे उनके जीवन जीने के अधिकार का हनन हो रहा है। उनके साथ छुआछूत की जाती है, स्कूल में उनके बच्चों के साथ भेदभाव किया जाता है और अत्यन्त कठिन व असम्मानजनक परिस्थितियों में जीना पड़ता है। मध्यप्रदेश के मन्दसौर जिले की लालीबाई ने कहा कि जब उन्होेने मैला ढोने इंकार कर दिया तो गांव के दंबग लोगों ने उनका घर जला दिया। गुजरात की शारदा बहन का कहना था कि ``बीस सालों तक मैने समाज के दबाव में यह काम किया, इससे मुझे कई तरह की बीमारियां हो जाती थी।´´ उत्तरप्रदेश से आई श्रीमती एकली का कहना था कि मैं गांव में मैला ढोने का काम करने को विवश हूं। यदि यह काम नहीं करें तो गांव के लोग दबाव डालते हैं। मैं यह काम छोड़ना चाहती हूं,´´

इस की प्रथा समाप्ति के लिए सन् 1993 में सफाई कर्मचारी नियोजन एवं शुष्क शौचालय सिन्नर्माण (प्रतिषेध) अधिनियम - 1993 लागू किया गया। जिसमें इस प्रथा की पूरी तरह समाप्ति की बात कही गई। भारत सरकार द्वारा इस प्रथा की समाप्ति के लिए कई समय सीमाएं निर्धारित की गई। पिछली समय सीमा 31 दिसंबर 2007 थी, जिसे बढाकर 31 मार्च 2009 कर दिया गया है. भारत सरकार द्वारा अप्रैल 2007 से लागू ``मैला ढोने वालों के पुर्नवास के लिए स्वरोजगार योजना (एस.आर.एम.एस.)´´ के अन्तर्गत 735.60 करोड़ का प्रावधान किया गया था और कहा गया था कि 31 मार्च 2009 तक इस प्रथा को समाप्त कर सभी का पुर्नवास कर दिया जावेगा। किन्तु जमीनी स्तर पर इस तरह को कोई सफल प्रयास देखने को नहीं मिला।

राष्ट्रीय परामर्श में विभिन्न प्रांतों की महिलाओं ने अपनी बात रखी। चर्चा की शुरूआति करते हुए गरिमा अभियान के संयोजन श्री आसिफ ने कहा कि ``यह कोई नया मुद्दा नहीं है। मैला ढोने की प्रथा आजादी के पहले से कायम है और सरकार द्वारा इसे समाप्त करने के लक्ष्य कई बार घोषित किए गए है। पहले सरकार ने कहा था कि सन् 2007 तक देश को मैला ढोने की प्रथा से मुक्त कर दिया जाएगा और उसके बाद 31 मार्च 2009 तक इस खत्म करने का लक्ष्य रखा गया। लेकिन आज ाी यह पूरे देश में कश्मीर से कन्याकुमारी तक कायम है। राष्ट्रीय परामर्श में शामिल छह राज्यों के लोेगों को संबोधित करते हुए योजना आयोग की सदस्य डॉ. सईदा हमीद ने कहा है कि सरकार ने इस प्रथा को खत्म करने के लिए कई योजनाए लागू कि लेकिन राज्यों में उस पर कोई सक्रियता नहीं दिखाई। अखिल भारतीय दलित महिला अधिकार मंच की राष्ट्रीय संयोजक प्रो. विमल थोराट ने कहा कि सरकारी योजना लागू भी हो जाए तब भी यह समस्या कायम रहेगी। जब तक दलित समुदाय के हाथों में ऐसा काम नहीं आएगा जिससे उनकी गरिमा बढ़े, तब तक इससे मुक्त होना मुश्किल है।

दक्षिण एशिया मानव अधिकार दस्तावेजीकरण केन्द्र के निदेशक श्री रवि नैयर ने कहा कि देश को मैला ढोने की प्रथा से मुक्त करने का काम जनआंदोलन के जरिये ही संभव है। इसी बात को आगे बढ़ाते हुए टाटा इंन्टीट्यूट ऑफ सोशल साईसेज के प्रो. शैलेष ने कहा कि सरकारी तंत्र में संवेदनशीलता का अभाव है तथा वे पारंपरिक मानसिकता से ग्रस्त है, जिसके चले यह काम देश में जारी है। उन्होने बताया कि महाराष्ट्र और गुजरात में तो सरकारी महकमों में भी यह काम जारी हैं। एनकॉस पूना के निदेशक श्री अमिताभ बेहार का कहना था कि इस मुद्दे पर व्यापक बहस की जरूरत कब समाप्त होगी मैला उठाने की परंपरा ?

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भारत गणराज्य को गोरे ब्रितानियों की गुलामी से आजाद हुए छः दशक बीत चुके हैं। इन छः दशकों में भारत गणराज्य ने उत्तरोत्तर प्रगति की है, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है। मामला है मनुष्य की ही विष्ठा को दूसरे मनुष्य द्वारा सर पर उठाकर ले जाने का मसला। यह मामला समझ से परे है कि मैला उठाने की परंपरा आखिर कब समाप्त होगी। मध्य प्रदेश में आज भी जारी है सामंती प्रथा। हालात देखकर यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि देश का हृदय प्रदेश आज भी दासता में ही सांसे ले रहा है।

भारत देश को आजाद हुए छः दशक से ज्यादा बीत चुके हैं, भारत में गणतंत्र की स्थापना भी साठ पूरे कर चुकी है, बावजूद इसके आज भी देश के हृदय प्रदेश में मध्ययुगीन सामंती प्रथा की जंजरों की खनक सुनाई पड रही है। कहने को केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा देश भर में सर पर मैला ढोने की प्रथा समाप्त करने के लिए ढेर सारे जतन किए हों, पर कागजी बातों और वास्तविकता में जमीन आसमान का अंतर दिखाई पड रहा है। पिछले साल मानवाधिकार आयोग के सर्वेक्षण में मध्य प्रदेश में सर पर मैला ढोने वाले लोगों की तादाद लगभग सात हजार दर्शाया जाना ही अपने आप में सबसे बडा प्रमाण माना जा सकता है।

मध्य प्रदेश के अलावा देश के और भी सूबे एसे होंगे जहां सर पर मानव मल ढोने वालों की खासी तादाद होगी। मध्य प्रदेश में ही होशंगाबाद, सीहोर, हरदा, शाजापुर, नीमच, मंदसौर, भिण्ड, टीकमगढ, राजगढ, उज्जैन, पन्ना, छतरपुर, नौगांव, निवाडी आदि शहरों और एक दर्जन से भी अधिक जिलों में इस तरह की अमानवीय प्रथा को प्रश्रय दिया जा रहा है। दलितों के उत्थान के लिए गगनभेदी नारे हो पर सच्चाई यह है कि आज भी नीतियों के चलते बडी संख्या में दलित समुदाय के लोग इस तरह की प्रथा के जरिए अपनी आजीविका कमाने पर मजबूर हैं। विडम्बना यह है कि आज भी हिन्दु धर्म में बाल्मिकी समाज तो मुस्लिमों में हैला समाज के लोग देश में सर पर मैला ढोने का काम कर रहे हैं।

हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि आज भी परंपरागत तरीके से सिर पर मैला ढोने का काम, शौचालयों की साफ सफाई, मरे पालतू या शहरों में पाए जाने वाले जानवरों को आबादी से दूर करने, नाले नालियों की सफाई, शुष्क शौचालयों के टेंक की सफाई, चिकित्सालय में साफ सफाई, मलमूत्र साफ करने के काम आदि को करने वाले दलित सुमदाय के लोगों का जीवन स्तर और सामाजिक स्थितियां अन्य लोगों की तुलना में बहुत ही दयनीय है। सरकारों द्वारा इन्हें वोट बैंक की तरह इस्तेमाल अवश्य ही किया जाता हो, पर इन्हें मुख्य धारा में शामिल होने नहीं दिया जाता है। सरकारों द्वारा दलित उत्थान के लिए बनाई गई योजनाओं का लाभ इस वर्ग के दलित लोगों को ही मिल पाता है, इस बात में कोई संदेह नहीं है।

गौरतलब है कि भारत सरकार ने अपनी दूसरी पंचवर्षीय योजना मेें सर पर मैला ढोने की अमानवीय प्रथा को समाप्त करने की गरज से राज्यों और नगरीय निकाय संस्थाओं को शुष्क शौचालय बनाने के लिए नागरिकों को प्रोत्साहन देने के लिए वित्तीय प्रावधान भी किए थे। आश्चर्य तो तब होता है जब इतिहास पर नजर डाली जाती है। १९७१ में भारत सरकार ने दस साल की आलोच्य अवधि में सर पर मैला ढोने की प्रथा को समाप्त करने हेतु चरणबद्ध तरीके से अभियान चलाया था। दस साल तो क्या आज चालीस साल बीतने को हैं, पर यह कुप्रथा बदस्तूर जारी है।

इसके बाद १९९३ में सरकार की तंद्रा टूटी थी, तब सफाई कर्मचारी नियोजन और शुष्क शौचालय संनिर्माण (प्रतिषेध) अधिनियम १९९३ लागू किया गया था, जिसके तहत प्रावधान किया गया था कि जो भी व्यक्ति यह काम करवाएगा उसे एक वर्ष के कारावास और दो हजार रूपए अर्थदण्ड की सजा का भोगमान भुगतना पड सकता है। कानून के जानकार बताते हैं कि देश में कुछ इस तरह के कानून और भी अस्तित्व में हैं, जो सर पर मैला ढोने की प्रथा पर पाबंदी लगाते हैं। रोना तो इसी बात का है कि सब कुछ करने के बाद भी चूंकि जनसेवकों की नीयत साफ नहीं थी इसलिए इसे रोका नहीं जा सका।

सरकार द्वारा इस काम में संलिप्त लोगों के बच्चों को अच्छा सामाजिक वातावरण देने, साक्षर और शिक्षित बनाने के प्रयास भी किए हैं। सरकार ने इसके लिए बच्चों को विशेष छात्रवृति तक देने की योजना चलाई है। इसके तहत बच्चों को छात्रवृत्ति भी दी गई। मजे की बात यह है कि जिन परिवारों ने इस काम को छोडा और कागजों पर जहां जहां सर पर मैला ढोने की प्रथा समाप्त होना दर्शा दी गई वहां इन बच्चों की छात्रवृत्ति भी बंद कर दी गई है।

देश के पिता की उपाधि से अंलकृत राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के नाम को भुनाने में कांग्रेस द्वारा अब तक कोई कोर कसर नही रख छोडी है। बापू इस अमानवीय प्रथा के घोर विरोधी थे। बापू द्वारा उस समय के अपने शौचालय को स्वयं ही साफ किया जाता था। सादगी की प्रतिमूर्ति महात्मा गांधी के नाम को तो खूब कैश कराया है कांग्रेस ने पर जब उनके आचार विचार को अंगीकार करने की बात आती है तब कांग्रेस की मोटी खाल वाले खद्दरधारी नेताओं द्वारा मौन साध लिया जाता है।

दलित परिवारों को प्रश्रय देने में उत्तर प्रदेश काफी हद तक पिछडा माना जा सकता है। उत्तर प्रदेश में २००६ में एससी एसटी के १७५९, २००७ में २४१०, तो २००८ में २३९० मामले दर्ज किए गए। आईपीसी के मामलों ने तो सारे रिकार्ड ही ध्वस्त कर दिए। २२०६ में २२३८, २००७ में ३०६४ तो २००८ में इनकी संख्या बढकर ३५४३ हो गई थी। दलित महिलाओं की आबरू बचाने के मामले में २००६ से २००८ तक २५५, ३३९ एवं ३३३ मामले प्रकाश में आए। ये तो वे आंकडे हैं जिनकी सूचना पुलिस में दर्ज है। गांव के बलशाली लोगों के सामने घुटने टेकने वाले वे मामले जो थाने की चारदीवारी तक पहुंच ही नहीं पाते हैं, उनकी संख्या अगर इससे कई गुना अधिक हो तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

खबरें तो यहां तक आ रहीं हैं कि दलित बच्चों के साथ शालाओं में भी भेदभाव किया जाता है। अनेक स्थानों पर संचालित शालाओं में दलित बच्चों को मध्यान भोजन के वक्त उनके घरों से लाए बर्तनों में ही खाना परोसा जाता है। इतना ही नहीं शिक्षकों द्वारा इन बच्चों को दूसरे बच्चों से अलग दूर बिठाया जाता है। देश के ग्रामीण अंचलों में आज भी दासता का सूरज डूबा नहीं है। आलम कुछ इस तरह का है कि दलित लोगों के साथ अन्याय जारी है। गांव के दबंग लोग इनसे बेगार करवाने में भी नहीं चूक रहे हैं। हालात देखकर यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि आजादी के बासठ सालों बाद भी गांवों में बसने वाला भारत स्वतंत्रता के बजाए मध्य युगीन दासता में ही उखडी उखडी सांसे लेने पर मजबूर है।

पिछले साल सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्री श्रीमती सुब्बूलक्ष्मी जगदीसन ने हाल ही में लोकसभा में एक प्रश्न के लिखित उŸार में बताया था कि मैला उठाने की परम्परा को जड़ मूल से समाप्त करने के लिए रणनीति बनाई गई है । उन्होंने बताया कि मैला उठाने वाले व्यक्तियों के पुनर्वास और स्वरोजगार की नई योजना को जनवरी, २००७ में शुरू किया गया था । उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार इस योजना के तहत उस वक्त देश के १ लाख २३ हजार मैला उठाने वालों और उनके आश्रितों का पुनर्वास किया जाना था। कितने आश्चर्य की बात है कि मनुष्य के मल को मनुष्य द्वारा ही उठाए जाने की परंपरा इक्कीसवीं सदी में भी बदस्तूर जारी है। देश प्रदेश की राजधानियों, महानगरों या बड़े शहरों में रहने वाले लोगों को भले ही इस समस्या से दो चार न होना पड़ता हो पर ग्रामीण अंचलों की हालत आज भी भयावह ही बनी हुई है।

कहने को तो केंद्र और प्रदेश सरकारों द्वारा शुष्क शौचालयों के निर्माण को प्रोत्साहन दिया जाता रहा है, वस्तुतः यह प्रोत्साहन किन अधिकारियों या गैर सरकारी संगठनों (एनजीओ) की जेब में जाता है, यह किसी से छुपा नहीं है। करोड़ों अरबों रूपए खर्च करके सरकारों द्वारा लोगों को शुष्क शौचालयो के प्रति जागरूक किया जाता रहा है, पर दशक दर दशक बीतने के बाद भी नतीजा वह नहीं आया जिसकी अपेक्षा थी। सरकारो को देश के युवाओं के पायोनियर रहे महात्मा गांधी से सबक लेना चाहिए। उस समय बापू द्वारा अपना शौचालय स्वयं ही साफ किया जाता था। आज केंद्रीय मंत्री जगदीसन की सदन में यह स्वीकारोक्ति कि देश के एक लाख २३ हजार मैला उठाने वालों का पुर्नवास किया जाना बाकी है, अपने आप में एक कड़वी हकीकत बयां करने को काफी है।

सरकार खुद मान रही है कि आज भी देश में मैला उठाने की प्रथा बदस्तूर जारी है। यह स्वीकारोक्ति निश्चित रूप से सरकार के लिए कलंक से कम नहीं है। यह कड़वी सच्चाई है कि कस्बों, मजरों टोलों में आज भी एक वर्ग विशेष द्वारा आजीविका चलाने के लिए इस कार्य को रोजगार के रूप में अपनाया जा रहा है। सरकारों द्वारा अब तक व्यय की गई धनराशि में तो समूचे देश में शुष्क शौचालय स्थापित हो चुकने थे। वस्तुतः एसा हुआ नहीं। यही कारण है कि देश प्रदेश के अनेक शहरों में खुले में शौच जाने से रोकने की प्रेरणा लिए होर्डिंग्स और विज्ञापनों की भरमार है। अगर देश में हर जगह शुष्क शौचालय मौजूद हैं तो फिर इन विज्ञापनों की प्रसंगिकता पर सवालिया निशान क्यों नहीं लगाए जा रहे हैं? क्यों सरकारी धन का अपव्यय इन विज्ञापनों के माध्यम से किया जा रहा है?

उत्तर बिल्कुल आईने के मानिंद साफ है, देश के अनेक स्थान आज भी शुष्क शौचालय विहीन चिन्हित हैं। क्या यह आदी सदी से अधिक तक देश प्रदेशों पर राज करने वाली कांग्रेस की सबसे बड़ी असफलता नहीं है? सत्ता के मद में चूर राजनेताओं ने कभी इस गंभीर समस्या की ओर नज़रें इनायत करना उचित नहीं समझा है। यही कारण है कि आज भी यह समस्या कमोबेश खड़ी ही है।श्विडम्बना ही कही जाएगी कि एक ओर हम आईटी के क्षेत्र में आत्मनिर्भर होने का दावा कर चंद्रयान का सफल प्रक्षेपण कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर शौच के मामले में आज भी बाबा आदम के जमाने की व्यवस्थाओं को ही अंगीगार किए हुए हैं। इक्कीसवीं सदी के इस युग में आज जरूरत है कि सरकार जागे और देश को इस गंभीर समस्या से निजात दिलाने की दिशा में प्रयास करे।

इस साल जनवरी में केंद्रीय समाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्री ने इस बारे में पहल की थी। उस वक्त मुकुल वासनिक का मानना था कि मैला ढोने की प्रथा से मुक्ति के लिए १९९३ में बने कानून का पालन ठीक ढंग से नहीं किया जा पा रहा है। जनवरी में ही वासनिक को एक संगठन द्वारा इसी पर आधारित एक प्रतिवेदन भी सौंपा था जिसमें १४ राज्यों में कहां कहां, किन किन मोहल्लों और जिलों में सफाई कर्मी इस अमानवीय काम को अंजाम दे रहे हैं। इसमें इन कर्मियों का ब्योरा सचित्र उपलब्ध करवाया गया था। कितने आश्चर्य की बात है कि देश के शासन का रिमोट अपने हाथों में रखने वाली कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी द्वारा पिछले साल दिसंबर में इस संबंध में प्रधानमंत्री को बाकायदा पत्र भी लिखा था। विडम्बना यह है कि वजीरे आजम ने सोनिया की इस गुहार पर कोई ध्यान देना भी मुनासिब नहीं समझा है।

सबसे अधिक दुख तो तब होता है जब पता चलता है कि राजस्थान के टोंक जिले में महज एक रोटी रोज और दस रूपए महीने के एवज में परिवार के सदस्य सर पर मैला ढोने का अमानवीय काम कर रहे हैं। पिछले दिनों टोंक के हीरा चौक से दिल्ली आई रामवती ने अपनी आपबीती कहते हुए कहा था कि वैकल्पिक रोजगार के अभाव में उसके साथ गांव के अनेक लोग आज भी सर पर मैला ढोने का अपना पारंपरिक काम करने पर मजबूर हैं। इस गांव में आज भी एक रोटी रोज और दस रूपए महीने की मजदूरी पर लोग सर पर मैला ढोने को मजबूर हैं।


साभार- मायन्यूज.इन
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