मुक्त ज्ञानकोष विकिपीडिया से
चार धाम यात्रा की उत्पत्ति के संबंध में कोई निश्चित मान्यता या साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। लेकिन चार धाम भारत के चार धार्मिक स्थलों का एक सर्किट है। इस पवित्र परिधि के अंतर्गत भारत के चार दिशाओं के महत्वपूर्ण मंदिर आते हैं। ये मंदिरें हैं- पुरी, रामेश्वरम, द्वारका और बद्रीनाथ इन मंदिरों को 8वीं शदी में आदि शंकराचार्य ने एक सूत्र में पिरोया था। इन चारों मंदिरों में से किसको परम स्थान दिया जाए इस बात का निर्णय करना नामुमकिन है। लेकिन इन सब में बद्रीनाथ सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण और अधिक तीर्थयात्रियों द्वारा दर्शन करने वाला मंदिर है।
इसके अलावा हिमालय पर स्थित छोटा चार धाम (जिसकी चर्चा चार धाम यात्रा में आगे की जाएगी) मंदिरों में भी बद्रीनाथ ज्यादा महत्व वाला और लोकप्रिय है। इस छोटे चार धाम में बद्रीनाथ के अलावा केदारनाथ (शिव मंदिर), यमुनोत्री एवं गंगोत्री (देवी मंदिर) शमिल हैं। यह चारों धाम हिंदू धर्म में अपना अलग और महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। बीसवीं शताब्दि के मध्य में हिमालय की गोद में बसे इन चारों तीर्थस्थलों को छोटा' विशेषण दिया गया जो आज भी यहां बसे इन देवस्थानों को परिभाषित करते हैं। छोटा चार धाम के दर्शन के लिए 4,000 मीटर से भी ज्यादा ऊंचाई तक की चढ़ाई करनी होती है। यह डगर कहीं आसान तो कहीं बहुत कठिन है।
हरिद्वार - ऋषिकेश - देव प्रयाग - टिहरी - धरासु - यमुनोत्री - उत्तरकाशी - गंगोत्री - त्रियुगनारायण - गौरिकुंड - केदारनाथ.
यह मार्ग परंपरागत हिंदू धर्म में होनेवाले पवित्र परिक्रमा के समान है। जबकि केदारनाथ जाने के लिए दूसरा मार्ग ऋषिकेश से होते हुए देवप्रयाग, श्रीनगर, रूद्रप्रयाग, अगस्तमुनी, गुप्तकाशी और गौरिकुंड से होकर जाता है। केदारनाथ के समीप ही मंदाकिनी का उद्गम स्थल है। मंदाकिनी नदी रूद्रप्रयाग में अलकनंदा नदी में जाकर मिलती है।
यमुनोत्री मंदिर के समीप कई गर्म पानी के सोते हैं जो विभिन्न पूलों से होकर गुजरती है। इनमें से सूर्य कुंड प्रसिद्ध है। कहा जाता है अपनी बेटी को आर्शीवाद देने के लिए भगवान सूर्य ने गर्म जलधारा का रूप धारण किया। श्रद्धालु इसी कुंड में चावल और आलू कपड़े में बांधकर कुछ मिनट तक छोड़ देते हैं, जिससे यह पक जाता है। तीर्थयात्री पके हुए इन पदार्थों को प्रसादस्वरूप घर ले जाते हैं। सूर्य कुंड के नजदीक ही एक शिला है जिसको 'दिव्य शिला'के नाम से जाना जाता है। तीर्थयात्री यमुना जी की पूजा करने से पहले इस दिव्य शिला का पूजन करते हैं।
इसके नजदीक ही 'जमुना बाई कुंड' है, जिसका निर्माण आज से कोई सौ साल पहले हुई थी। इस कुंड का पानी हल्का गर्म होता है जिसमें पूजा के पहले पवित्र स्नान किया जाता है। यमुनोत्री के पुजारी और पंडा पूजा करने के लिए गांव खरसाला से आते हैं जो जानकी बाई चट्टी के पास है। यमुनोत्री मंदिर नवंबर से मई तक खराब मौसम की वजह से बंद रहता है।
मंदिर के खुलने का समय: मंदिर अक्षय तृतीया (मई) को खुलता है और यामा द्वितीया या भाई दूज या दीवाली के दो दिन बाद (नवंबर) को बंद होता है। मंदिर सुबह 6 बजे से लेकर शाम 8 बजे तक खुला रहता है। आरती सुबह में 6:30 बजे और शाम में 7:30 बजे होती है। साथ ही जन्माष्टमि और दिवाली के अवसर पर विशेष पूजा का आयोजन किया जाता है।
पौराणिक कथाओं में कहा गया है कि सूर्यवंशी राजा सागर ने अश्वमेध यज्ञ कराने का फैसला किया। इसमें इनका घोड़ा जहां-जहां गया उनके 60,000 बेटों ने उन जगहों को अपने आधिपत्य में लेता गया। इससे देवताओं के राजा इंद्र चिंतित हो गए। ऐसे में उन्होंने इस घोड़े को पकड़कर कपिल मुनि के आश्रम में बांध दिया। राजा सागर के बेटों ने मुनिवर का अनादर करते हुए घोड़े को छुड़ा ले गए। इससे कपिल मुनि को काफी दुख पहुंचा। उन्होंने राजा सागर के सभी बेटों को शाप दे दिया जिससे वे राख में तब्दील हो गए। राजा सागर के क्षमा याचना करने पर कपिल मुनि द्रवित हो गए और उन्होंने राजा सागर को कहा कि अगर स्वर्ग में प्रवाहित होने वाली नदी पृथ्वी पर आ जाए और उसके पावन जल का स्पर्श इस राख से हो जाए तो उनका पुत्र जीवित हो जाएगा। लेकिन राजा सागर गंगा को जमीन पर लाने में असफल रहे। बाद में राजा सागर के पुत्र भागीरथ ने गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने में सफलता प्राप्त की। गंगा के तेज प्रवाह को नियंत्रित करने के लिए भागीरथ ने भगवान शिव से निवेदन किया। फलत: भगवान शिव ने गंगा को अपने जटा में लेकर उसके प्रवाह को नियंत्रित किया। इसके उपरांत गंगा जल के स्पर्श से राजा सागर के पुत्र जीवित हुए।
ऐसा माना जाता है कि 18वीं शदी में गोरखा कैप्टन अमर सिंह थापा ने आदि शंकराचार्य के सम्मान में गंगोत्री मंदिर का निर्माण किया था। यह मंदिर भागीरथी नदी के बाएं किनारे पर स्थित सफेद पत्थरों से निर्मित है। इसकी ऊंचाई लगभग 20 फीट है। मंदिर बनने के बाद राजा माधोसिंह ने 1935 में इस मंदिर का पुनरुद्धार किया। फलस्वरूप मंदिर की बनावट में राजस्थानी शैली की झलक मिल जाती है। मंदिर के समीप 'भागीरथ शिला' है जिसपर बैठकर उन्होंने गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिए कठोर तपस्या की थी। इस मंदिर में देवी गंगा के अलावा यमुना, भगवान शिव, देवी सरस्वती, अन्नपुर्णा और महादुर्गा की भी पूजा की जाती है।
हिंदू धर्म में गंगोत्री को मोक्षप्रदायनी माना गया है। यही वजह है कि हिंदू धर्म के लोग चंद्र पंचांग के अनुसार अपने पुर्वजों का श्राद्ध और पिण्ड दान करते हैं। मंदिर में प्रार्थना और पूजा आदि करने के बाद श्रद्धालु भगीरथी नदी के किनारे बने घाटों पर स्नान आदि के लिए जाते हैं। तीर्थयात्री भागीरथी नदी के पवित्र जल को अपने साथ घर ले जाते हैं। इस जल को पवित्र माना जाता है तथा शुभ कार्यों में इसका प्रयोग किया जाता है। गंगोत्री से लिया गया गंगा जल केदारनाथ और रामेश्वरम के मंदिरों में भी अर्पित की जाती है।
मंदिर का समय: सुबह 6.15 से 2 बजे दोपहर तक और अपराह्न 3 से 9.30 तक (गर्मियों में)। सुबह 6.45 से 2 बजे दोपहर तक और अपराह्न 3 से 7 बजे तक (सर्दियों में)।
मंदिर अक्षय तृतीया (मई) को खुलती है और यामा द्वितीया को बंद होती है। मंदिर की गतिविधि तड़के चार बजे से शुरू हो जाती है। सबसे पहले 'उठन' (जागना) और 'श्रृंगार' की विधि होती है जो आम लोगों के लिए खुला नहीं होता है। सुबह 6 बजे की मंगल आरती भी बंद दरवाजे में की जाती है। 9 बजे मंदिर के पट को 'राजभोग' के लिए 10 मिनट तक बंद रखा जाता है। सायं 6.30 बजे श्रृंगार हेतु पट को 10 मिनट के लिए एक बार फिर बंद कर दिया जाता है। इसके उपरांत शाम 8 बजे राजभोग के लिए मंदिर के द्वार को 5 मिनट तक बंद रखा जाता है। ऐसे तो संध्या आरती शाम को 7.45 बजे होती है लेकिन सर्दियों में 7 बजे ही आरती करा दी जाती है। तीर्थयात्रियों के लिए राजभोग, जो मीठे चावल से बना होता है, उपलब्ध रहता है (उपयुक्त शुल्क अदा करने के बाद)।
तीर्थयात्री प्राय: गनगनानी के रास्ते गंगोत्री जाते हैं। यह वही मार्ग है जिसपर पराशर मुनि का आश्रम था जहां वे गर्म पानी के सोते में स्नान करते थे। गंगा के पृथ्वी आगमन पर (गंगा सप्तमी) वैसाख(अप्रैल) में विशेष श्रृंगार का आयोजन किया जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार जिस दिन भगवान शिव ने भागिरथी नदी को भागीरथ को प्रस्तुत किया था उस दिन को (ज्येष्ठ, मई) गंगा दशहरा पर्व के रूप में मनाया जाता है। इसके अलावा जन्माष्टमि, विजयादशमी और दिपावली को भी गंगोत्री में विशेष रूप से मनाया जाता है।
केदारनाथ समुद्र तल से 11,746 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। यह मंदाकिनी नदी के उद्गगम स्थल के समीप है। यमुनोत्री से केदारनाथ के ज्योतिर्लिंग पर जलाभिषेक को हिंदू धर्म में पवित्र माना जाता है। वायुपुराण के अनुसार भगवान विष्णु मानव जाति की भलाई के लिए पृथ्वि पर निवास करने आए। उन्होंने बद्रीनाथ में अपना पहला कदम रखा। इस जगह पर पहले भगवान शिव का निवास था। लेकिन उन्होंने नारायण के लिए इस स्थान का त्याग कर दिया और केदारनाथ में निवास करने लगे। इसलिए पंच केदार यात्रा में केदारनाथ को अहम स्थान प्राप्त है। साथ ही केदारनाथ त्याग की भावना को भी दर्शाता है।
यह वही जगह है जहां आदि शंकराचार्य ने 32 वर्ष की आयु में समाधि में लीन हुए थे। इससे पहले उन्होंने वीर शैव को केदारनाथ का रावल(मुख्य पुरोहित) नियुक्त किया था। वर्तमान में केदारनाथ मंदिर 337वें नंबर के रावल द्वारा उखीमठ, जहां जाड़ों में भगवान शिव को ले जाया जाता है, से संचालित हो रहा है। इसके अलावा गुप्तकाशी के आसपास निवास करनेवाले पंडित भी इस मंदिर के काम-काज को देखते हैं। प्रशासन के दृष्टिकोण इस स्थान को इन पंडितों के मध्य विभिन्न भागों में बांट दिया गया है। ताकि किसी प्रकार की परेशानी पैदा न हो।
केदारनाथ मंदिर न केवल आध्यात्म के दृष्टिकोण से वरन स्थापत्य कला में भी अन्य मंदिरों से भिन्न है। यह मंदिर कात्युरी शैली में बना हुआ है। यह पहाड़ी के चोटि पर स्थित है। इसके निर्माण में भूरे रंग के बड़े पत्थरों का प्रयोग बहुतायत में किया गया है। इसका छत लकड़ी का बना हुआ है जिसके शिखर पर सोने का कलश रखा हुआ है। मंदिर के बाह्य द्वार पर पहरेदार के रूप में नंदी का विशालकाय मूर्ति बना हुआ है।
केदारनाथ मंदिर को तीन भागों में बांटा गया है - पहला, गर्भगृह। दूसरा, दर्शन मंडप, यह वह स्थान है जहां पर दर्शानार्थी एक बड़े से हॉल में खड़ा होकर पूजा करते हैं। तीसरा, सभा मण्डप, इस जगह पर सभी तीर्थयात्री जमा होते हैं। तीर्थयात्री यहां भगवान शिव के अलावा ऋद्धि सिद्धि के साथ भगवान गणेश, पार्वती, विष्णु और लक्ष्मी, कृष्ण, कुंति, द्रौपदि, युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव की पूजा अर्चना भी की जाती है।
केदारनाथ मंदिर के खुलने का समय निर्धारित नहीं रहता है। हर साल शिवरात्री की तिथि के अनुसार पंच पुरोहित के द्वारा उखीमठ में इस बात का फैसला किया जाता है कि मंदिर कब खुलेगी। मंदिर यामा द्वितीया या भाई दूज के दिन बंद हो जाता है। जाड़ों में मंदिर का द्वार बंद हो जाने के बाद वहां कोई नहीं रहता है। पंडा लोग गुप्तकाशी में और रावल उखीमठ में निवास करते हैं। मंदिर 6 बजे पुर्वाह्न से दो बजे अपराह्न तक खुला रहता है। पुन: पांच से लेकर आठ बजे सायं तक मंदिर खुला रहता है।
केदारनाथ में विशेष पूजा का भी आयोजन किया जाता है। यह अमूमन सुबह चार से छह बजे तक होती है। लेकिन ज्यादा भीड़ होने पर आधी रात के बाद भी विशेष पूजा का आयोजन किया जाता है। दर्शानार्थी 20 वर्षों में एक बार होनेवाले विशेष पूजा के लिए भी अपनी व्यवस्था करवा सकते हैं। इसके लिए उनको भारतीय स्टेट बैंक, उखीमठ के नाम से अपेक्षित ड्राफ्ट गौरि माई मंदिर, उखीमठ, जिला-रूद्रप्रयाग, उत्तरांचल के नाम पर पोस्ट करना होता है।
कालांतर में जो मंदिर बना हुआ है उसका निर्माण आज से ठीक दो शताब्दी पहले गढ़वाल राजा के द्वारा किया गया था। यह मंदिर शंकुधारी शैली में बना हुआ है। इसकी ऊंचाई लगभग 15 मीटर है। जिसके शिखर पर गुंबज है। इस मंदिर में 15 मूर्तियां हैं। मंदिर के गर्भगृह में विष्णु के साथ नर और नारायण ध्यान की स्थिति में विराजमान हैं। ऐसा माना जाता है कि इस मंदिर का निर्माण वैदिक काल में हुआ था जिसका पुनरूद्धार बाद में आदि शंकराचार्य ने 8वीं शदी में किया। इस मंदिर में नर और नारायण के अलावा लक्ष्मी, शिव-पार्वती, और गणेश की मूर्ति भी है।
भू-स्खलन के कारण यह मंदिर अक्सर क्षतिग्रस्त हो जाता है। इस वजह से इसका आधुनिकीकरण भी बार-बार किया गया है। लेकिन सिंह द्वार जो इस मंदिर का मुख्य द्वार भी है, इसके बन जाने के बाद इसकी खूबसूरती में चार चांद लग गया है। इस मंदिर के तीन भाग हैं- गर्भगृह, दर्शन मंडप (पूजा करने का स्थान) और सभा गृह (जहां श्रद्धालु एकत्रित होते हैं)। वेदों और ग्रंथों में वद्रीनाथ के संबंध में कहा गया है कि, 'स्वर्ग और पृथ्वी पर अनेक पवित्र स्थान हैं, लेकिन बद्रीनाथ इन सबों में सर्वोपरि है।'
मंदिर के खुलने का समय: मंदिर बसंत पंचमी (फरवरी) के दिन खुलता है। सुबह 4 से दोपहर तक और अपराह्न 3-9 बजे तक। यह मंदिर विजयादशमी (मध्य अक्टूबर) के दिन बंद होता है।
इसके अलावा हिमालय पर स्थित छोटा चार धाम (जिसकी चर्चा चार धाम यात्रा में आगे की जाएगी) मंदिरों में भी बद्रीनाथ ज्यादा महत्व वाला और लोकप्रिय है। इस छोटे चार धाम में बद्रीनाथ के अलावा केदारनाथ (शिव मंदिर), यमुनोत्री एवं गंगोत्री (देवी मंदिर) शमिल हैं। यह चारों धाम हिंदू धर्म में अपना अलग और महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। बीसवीं शताब्दि के मध्य में हिमालय की गोद में बसे इन चारों तीर्थस्थलों को छोटा' विशेषण दिया गया जो आज भी यहां बसे इन देवस्थानों को परिभाषित करते हैं। छोटा चार धाम के दर्शन के लिए 4,000 मीटर से भी ज्यादा ऊंचाई तक की चढ़ाई करनी होती है। यह डगर कहीं आसान तो कहीं बहुत कठिन है।
अनुक्रम[छुपाएँ] |
[संपादित करें] उत्तरांचल
1962 के पहले यहां की यात्रा करना काफी कठिन था। परंतु चीन के साथ हुए युद्ध के उपरांत ज्यों-ज्यों सैनिकों की आवाजाही बढ़ी वैसे ही तीर्थयात्रियों के लिए रास्ते भी आसान होते गए। बाद में किसी भी तरह के भ्रम को दूर करने के लिए 'छोटा' शब्द को हटा दिया गया और इस यात्रा को 'हिमालय की चार धाम' यात्रा के नाम से जाना जाने लगा है। आवागमन के साधन में सुधार होने के साथ ही भारत के हिंदू तीर्थयात्रियों के लिए यह एक प्रमुख तीर्थस्थल बन गया है। इसकी लोकप्रियता का अंदाजा पर्यटकों, तीर्थयात्रियों की सालाना तादाद से लगाया जा सकता है। उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार प्रत्येक यात्रा काल(15 अप्रैल से नवंबर के प्रारंभ तक) में 250,000 से ज्यादा तीर्थयात्री यहां दर्शन हेतु आते हैं। मानसून आने के दो महीने पहले तक पयर्टकों, तीर्थयात्रियों का जबर्दस्त प्रवाह रहता है। वर्षात के मौसम में यहां जाना खतरनाक माना जाता है, क्योंकि इस दौरान भूस्खलन की संभावना सामान्य से ज्यादा रहती है।[संपादित करें] धर्म ग्रंथों के अनुसार
भारतीय धर्मग्रंथों के अनुसार यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ हिंदुओं के सबसे पवित्र स्थान हैं। इनको चार धाम के नाम से भी जाना जाता हैं। धर्मग्रंथों में कहा गया है कि जो पुण्यात्मा यहां का दर्शन करने में सफल होते हैं उनका न केवल इस जनम का पाप धुल जाता है वरन वे जीवन-मरण के बंधन से भी मुक्त हो जाते हैं। इस स्थान के संबंध में यह भी कहा जाता है कि यह वही स्थल है जहां पृथ्वी और स्वर्ग एकाकार होते हैं। तीर्थयात्री इस यात्रा के दौरान सबसे पहले यमुनोत्री (यमुना) और गंगोत्री (गंगा) का दर्शन करते हैं। यहां से पवित्र जल लेकर श्रद्धालु केदारेश्वर पर जलाभिषेक करते हैं। इन तीर्थयात्रियों के लिए परंपरागत मार्ग इस प्रकार है -:हरिद्वार - ऋषिकेश - देव प्रयाग - टिहरी - धरासु - यमुनोत्री - उत्तरकाशी - गंगोत्री - त्रियुगनारायण - गौरिकुंड - केदारनाथ.
यह मार्ग परंपरागत हिंदू धर्म में होनेवाले पवित्र परिक्रमा के समान है। जबकि केदारनाथ जाने के लिए दूसरा मार्ग ऋषिकेश से होते हुए देवप्रयाग, श्रीनगर, रूद्रप्रयाग, अगस्तमुनी, गुप्तकाशी और गौरिकुंड से होकर जाता है। केदारनाथ के समीप ही मंदाकिनी का उद्गम स्थल है। मंदाकिनी नदी रूद्रप्रयाग में अलकनंदा नदी में जाकर मिलती है।
[संपादित करें] यमुनोत्री
मुख्य लेख : यमुनोत्री
बांदरपूंछ के पश्चिमी छोर पर पवित्र यमुनोत्री का मंदिर स्थित है। परंपरागत रूप से यमुनोत्री चार धाम यात्रा का पहला पड़ाव है। हनुमान चट्टी से 13 किलोमीटर की चढ़ाई चढ़ने के बाद यमुनोत्री पहुंचा जा सकता है। यहां पर स्थित यमुना मंदिर का निर्माण जयपुर की महारानी गुलेरिया ने 19वीं शताब्दि में करवाया था। यह मंदिर(3,291 मी.) बांदरपूंछ चोटि (6,315 मी.) के पश्चिमी किनारे पर स्थित है। पौराणिक कथाओं के अनुसार यमुना सूर्य की बेटी थी और यम उनका बेटा था। यही वजह है कि यम अपने बहन यमुना में श्रद्धापूर्वक स्नान किए हुए लोगों के साथ सख्ती नहीं बरतता है। यमुना का उदगम स्थल यमुनोत्री से लगभग एक किलोमीटर दूर 4,421 मीटर की ऊंचाई पर स्थित यमुनोत्री ग्लेशियर है।यमुनोत्री मंदिर के समीप कई गर्म पानी के सोते हैं जो विभिन्न पूलों से होकर गुजरती है। इनमें से सूर्य कुंड प्रसिद्ध है। कहा जाता है अपनी बेटी को आर्शीवाद देने के लिए भगवान सूर्य ने गर्म जलधारा का रूप धारण किया। श्रद्धालु इसी कुंड में चावल और आलू कपड़े में बांधकर कुछ मिनट तक छोड़ देते हैं, जिससे यह पक जाता है। तीर्थयात्री पके हुए इन पदार्थों को प्रसादस्वरूप घर ले जाते हैं। सूर्य कुंड के नजदीक ही एक शिला है जिसको 'दिव्य शिला'के नाम से जाना जाता है। तीर्थयात्री यमुना जी की पूजा करने से पहले इस दिव्य शिला का पूजन करते हैं।
इसके नजदीक ही 'जमुना बाई कुंड' है, जिसका निर्माण आज से कोई सौ साल पहले हुई थी। इस कुंड का पानी हल्का गर्म होता है जिसमें पूजा के पहले पवित्र स्नान किया जाता है। यमुनोत्री के पुजारी और पंडा पूजा करने के लिए गांव खरसाला से आते हैं जो जानकी बाई चट्टी के पास है। यमुनोत्री मंदिर नवंबर से मई तक खराब मौसम की वजह से बंद रहता है।
मंदिर के खुलने का समय: मंदिर अक्षय तृतीया (मई) को खुलता है और यामा द्वितीया या भाई दूज या दीवाली के दो दिन बाद (नवंबर) को बंद होता है। मंदिर सुबह 6 बजे से लेकर शाम 8 बजे तक खुला रहता है। आरती सुबह में 6:30 बजे और शाम में 7:30 बजे होती है। साथ ही जन्माष्टमि और दिवाली के अवसर पर विशेष पूजा का आयोजन किया जाता है।
[संपादित करें] गंगोत्री
मुख्य लेख : गंगोत्री
गंगोत्री समुद्र तल से 9,980 (3,140 मी.) फीट की ऊंचाई पर स्थित है। गंगोत्री से ही भागीरथी नदी निकलती है। गंगोत्री भारत के पवित्र और आध्यात्मिक रूप से महत्वपूर्ण नदी गंगा का उद्गगम स्थल भी है। गंगोत्री में गंगा को भागीरथी के नाम से जाना जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार राजा भागीरथ के नाम पर इस नदी का नाम भागीरथी रखा गया। कथाओं में यह भी कहा गया है कि राजा भागीरथ ने ही तपस्या करके गंगा को पृथ्वी पर लाए थे। गंगा नदी गोमुख से निकलती है।पौराणिक कथाओं में कहा गया है कि सूर्यवंशी राजा सागर ने अश्वमेध यज्ञ कराने का फैसला किया। इसमें इनका घोड़ा जहां-जहां गया उनके 60,000 बेटों ने उन जगहों को अपने आधिपत्य में लेता गया। इससे देवताओं के राजा इंद्र चिंतित हो गए। ऐसे में उन्होंने इस घोड़े को पकड़कर कपिल मुनि के आश्रम में बांध दिया। राजा सागर के बेटों ने मुनिवर का अनादर करते हुए घोड़े को छुड़ा ले गए। इससे कपिल मुनि को काफी दुख पहुंचा। उन्होंने राजा सागर के सभी बेटों को शाप दे दिया जिससे वे राख में तब्दील हो गए। राजा सागर के क्षमा याचना करने पर कपिल मुनि द्रवित हो गए और उन्होंने राजा सागर को कहा कि अगर स्वर्ग में प्रवाहित होने वाली नदी पृथ्वी पर आ जाए और उसके पावन जल का स्पर्श इस राख से हो जाए तो उनका पुत्र जीवित हो जाएगा। लेकिन राजा सागर गंगा को जमीन पर लाने में असफल रहे। बाद में राजा सागर के पुत्र भागीरथ ने गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने में सफलता प्राप्त की। गंगा के तेज प्रवाह को नियंत्रित करने के लिए भागीरथ ने भगवान शिव से निवेदन किया। फलत: भगवान शिव ने गंगा को अपने जटा में लेकर उसके प्रवाह को नियंत्रित किया। इसके उपरांत गंगा जल के स्पर्श से राजा सागर के पुत्र जीवित हुए।
ऐसा माना जाता है कि 18वीं शदी में गोरखा कैप्टन अमर सिंह थापा ने आदि शंकराचार्य के सम्मान में गंगोत्री मंदिर का निर्माण किया था। यह मंदिर भागीरथी नदी के बाएं किनारे पर स्थित सफेद पत्थरों से निर्मित है। इसकी ऊंचाई लगभग 20 फीट है। मंदिर बनने के बाद राजा माधोसिंह ने 1935 में इस मंदिर का पुनरुद्धार किया। फलस्वरूप मंदिर की बनावट में राजस्थानी शैली की झलक मिल जाती है। मंदिर के समीप 'भागीरथ शिला' है जिसपर बैठकर उन्होंने गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिए कठोर तपस्या की थी। इस मंदिर में देवी गंगा के अलावा यमुना, भगवान शिव, देवी सरस्वती, अन्नपुर्णा और महादुर्गा की भी पूजा की जाती है।
हिंदू धर्म में गंगोत्री को मोक्षप्रदायनी माना गया है। यही वजह है कि हिंदू धर्म के लोग चंद्र पंचांग के अनुसार अपने पुर्वजों का श्राद्ध और पिण्ड दान करते हैं। मंदिर में प्रार्थना और पूजा आदि करने के बाद श्रद्धालु भगीरथी नदी के किनारे बने घाटों पर स्नान आदि के लिए जाते हैं। तीर्थयात्री भागीरथी नदी के पवित्र जल को अपने साथ घर ले जाते हैं। इस जल को पवित्र माना जाता है तथा शुभ कार्यों में इसका प्रयोग किया जाता है। गंगोत्री से लिया गया गंगा जल केदारनाथ और रामेश्वरम के मंदिरों में भी अर्पित की जाती है।
मंदिर का समय: सुबह 6.15 से 2 बजे दोपहर तक और अपराह्न 3 से 9.30 तक (गर्मियों में)। सुबह 6.45 से 2 बजे दोपहर तक और अपराह्न 3 से 7 बजे तक (सर्दियों में)।
मंदिर अक्षय तृतीया (मई) को खुलती है और यामा द्वितीया को बंद होती है। मंदिर की गतिविधि तड़के चार बजे से शुरू हो जाती है। सबसे पहले 'उठन' (जागना) और 'श्रृंगार' की विधि होती है जो आम लोगों के लिए खुला नहीं होता है। सुबह 6 बजे की मंगल आरती भी बंद दरवाजे में की जाती है। 9 बजे मंदिर के पट को 'राजभोग' के लिए 10 मिनट तक बंद रखा जाता है। सायं 6.30 बजे श्रृंगार हेतु पट को 10 मिनट के लिए एक बार फिर बंद कर दिया जाता है। इसके उपरांत शाम 8 बजे राजभोग के लिए मंदिर के द्वार को 5 मिनट तक बंद रखा जाता है। ऐसे तो संध्या आरती शाम को 7.45 बजे होती है लेकिन सर्दियों में 7 बजे ही आरती करा दी जाती है। तीर्थयात्रियों के लिए राजभोग, जो मीठे चावल से बना होता है, उपलब्ध रहता है (उपयुक्त शुल्क अदा करने के बाद)।
तीर्थयात्री प्राय: गनगनानी के रास्ते गंगोत्री जाते हैं। यह वही मार्ग है जिसपर पराशर मुनि का आश्रम था जहां वे गर्म पानी के सोते में स्नान करते थे। गंगा के पृथ्वी आगमन पर (गंगा सप्तमी) वैसाख(अप्रैल) में विशेष श्रृंगार का आयोजन किया जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार जिस दिन भगवान शिव ने भागिरथी नदी को भागीरथ को प्रस्तुत किया था उस दिन को (ज्येष्ठ, मई) गंगा दशहरा पर्व के रूप में मनाया जाता है। इसके अलावा जन्माष्टमि, विजयादशमी और दिपावली को भी गंगोत्री में विशेष रूप से मनाया जाता है।
[संपादित करें] केदारनाथ
मुख्य लेख : केदारनाथ
(2001 की जनगणना के अनुसार केदारनाथ की कुल जनसंख्या 479 है।)केदारनाथ समुद्र तल से 11,746 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। यह मंदाकिनी नदी के उद्गगम स्थल के समीप है। यमुनोत्री से केदारनाथ के ज्योतिर्लिंग पर जलाभिषेक को हिंदू धर्म में पवित्र माना जाता है। वायुपुराण के अनुसार भगवान विष्णु मानव जाति की भलाई के लिए पृथ्वि पर निवास करने आए। उन्होंने बद्रीनाथ में अपना पहला कदम रखा। इस जगह पर पहले भगवान शिव का निवास था। लेकिन उन्होंने नारायण के लिए इस स्थान का त्याग कर दिया और केदारनाथ में निवास करने लगे। इसलिए पंच केदार यात्रा में केदारनाथ को अहम स्थान प्राप्त है। साथ ही केदारनाथ त्याग की भावना को भी दर्शाता है।
यह वही जगह है जहां आदि शंकराचार्य ने 32 वर्ष की आयु में समाधि में लीन हुए थे। इससे पहले उन्होंने वीर शैव को केदारनाथ का रावल(मुख्य पुरोहित) नियुक्त किया था। वर्तमान में केदारनाथ मंदिर 337वें नंबर के रावल द्वारा उखीमठ, जहां जाड़ों में भगवान शिव को ले जाया जाता है, से संचालित हो रहा है। इसके अलावा गुप्तकाशी के आसपास निवास करनेवाले पंडित भी इस मंदिर के काम-काज को देखते हैं। प्रशासन के दृष्टिकोण इस स्थान को इन पंडितों के मध्य विभिन्न भागों में बांट दिया गया है। ताकि किसी प्रकार की परेशानी पैदा न हो।
केदारनाथ मंदिर न केवल आध्यात्म के दृष्टिकोण से वरन स्थापत्य कला में भी अन्य मंदिरों से भिन्न है। यह मंदिर कात्युरी शैली में बना हुआ है। यह पहाड़ी के चोटि पर स्थित है। इसके निर्माण में भूरे रंग के बड़े पत्थरों का प्रयोग बहुतायत में किया गया है। इसका छत लकड़ी का बना हुआ है जिसके शिखर पर सोने का कलश रखा हुआ है। मंदिर के बाह्य द्वार पर पहरेदार के रूप में नंदी का विशालकाय मूर्ति बना हुआ है।
केदारनाथ मंदिर को तीन भागों में बांटा गया है - पहला, गर्भगृह। दूसरा, दर्शन मंडप, यह वह स्थान है जहां पर दर्शानार्थी एक बड़े से हॉल में खड़ा होकर पूजा करते हैं। तीसरा, सभा मण्डप, इस जगह पर सभी तीर्थयात्री जमा होते हैं। तीर्थयात्री यहां भगवान शिव के अलावा ऋद्धि सिद्धि के साथ भगवान गणेश, पार्वती, विष्णु और लक्ष्मी, कृष्ण, कुंति, द्रौपदि, युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव की पूजा अर्चना भी की जाती है।
केदारनाथ मंदिर के खुलने का समय निर्धारित नहीं रहता है। हर साल शिवरात्री की तिथि के अनुसार पंच पुरोहित के द्वारा उखीमठ में इस बात का फैसला किया जाता है कि मंदिर कब खुलेगी। मंदिर यामा द्वितीया या भाई दूज के दिन बंद हो जाता है। जाड़ों में मंदिर का द्वार बंद हो जाने के बाद वहां कोई नहीं रहता है। पंडा लोग गुप्तकाशी में और रावल उखीमठ में निवास करते हैं। मंदिर 6 बजे पुर्वाह्न से दो बजे अपराह्न तक खुला रहता है। पुन: पांच से लेकर आठ बजे सायं तक मंदिर खुला रहता है।
केदारनाथ में विशेष पूजा का भी आयोजन किया जाता है। यह अमूमन सुबह चार से छह बजे तक होती है। लेकिन ज्यादा भीड़ होने पर आधी रात के बाद भी विशेष पूजा का आयोजन किया जाता है। दर्शानार्थी 20 वर्षों में एक बार होनेवाले विशेष पूजा के लिए भी अपनी व्यवस्था करवा सकते हैं। इसके लिए उनको भारतीय स्टेट बैंक, उखीमठ के नाम से अपेक्षित ड्राफ्ट गौरि माई मंदिर, उखीमठ, जिला-रूद्रप्रयाग, उत्तरांचल के नाम पर पोस्ट करना होता है।
[संपादित करें] बद्रीनाथ
मुख्य लेख : बद्रीनाथ
बद्रीनाथ नर और नारायण पर्वतों के मध्य स्थित है, जो समुद्र तल से 10,276 फीट (3,133मी.) की ऊंचाई पर स्थित है। अलकनंदा नदी इस मंदिर की खूबसुरती में चार चांद लगाती है। ऐसी मान्यता है कि भगवान विष्णु इस स्थान ध्यनमग्न रहते हैं। लक्ष्मीनारायण को छाया प्रदान करने के लिए देवी लक्ष्मी ने बैर (बदरी) के पेड़ का रूप धारण किया। लेकिन वर्तमान में बैर का पेड़ तो बहुत कम मात्रा में देखने को मिलता है लेकिन वद्रीनारायण अभी भी ज्यों का त्यों बना हुआ है। नारद जो इन दोनों का अनन्य भक्त हैं उनकी आराधना भी यहां की जाती है।कालांतर में जो मंदिर बना हुआ है उसका निर्माण आज से ठीक दो शताब्दी पहले गढ़वाल राजा के द्वारा किया गया था। यह मंदिर शंकुधारी शैली में बना हुआ है। इसकी ऊंचाई लगभग 15 मीटर है। जिसके शिखर पर गुंबज है। इस मंदिर में 15 मूर्तियां हैं। मंदिर के गर्भगृह में विष्णु के साथ नर और नारायण ध्यान की स्थिति में विराजमान हैं। ऐसा माना जाता है कि इस मंदिर का निर्माण वैदिक काल में हुआ था जिसका पुनरूद्धार बाद में आदि शंकराचार्य ने 8वीं शदी में किया। इस मंदिर में नर और नारायण के अलावा लक्ष्मी, शिव-पार्वती, और गणेश की मूर्ति भी है।
भू-स्खलन के कारण यह मंदिर अक्सर क्षतिग्रस्त हो जाता है। इस वजह से इसका आधुनिकीकरण भी बार-बार किया गया है। लेकिन सिंह द्वार जो इस मंदिर का मुख्य द्वार भी है, इसके बन जाने के बाद इसकी खूबसूरती में चार चांद लग गया है। इस मंदिर के तीन भाग हैं- गर्भगृह, दर्शन मंडप (पूजा करने का स्थान) और सभा गृह (जहां श्रद्धालु एकत्रित होते हैं)। वेदों और ग्रंथों में वद्रीनाथ के संबंध में कहा गया है कि, 'स्वर्ग और पृथ्वी पर अनेक पवित्र स्थान हैं, लेकिन बद्रीनाथ इन सबों में सर्वोपरि है।'
[संपादित करें] पौराणिक धारणा
पौराणिक कथाओं में यह उल्लिखित है कि पीडि़त मानवता को बचाने के लिए जब देवी गंगा ने पृथ्वी पर आना स्वीकार किया तो हलचल मच गई, क्योंकि पृथ्वी गंगा के प्रवाह को सहन करने में असमर्थ थी। फलत: गंगा ने खुद को 12 भागों में विभक्त कर लिया। इन्हीं में से अलकनंदा भी एक है जो बाद में भगवान विष्णु का निवास स्थान बना जिसको बद्रीनाथ के नाम से जाना जाता है। बद्रीनाथ 'पंच बद्री' में एक है।[संपादित करें] पंच बद्री
योगध्यान बद्री (1920 मीटर की ऊंचाई पर स्थित): लगभग 1500 वर्ष पुराना।[संपादित करें] मुख्य आकर्षण
- तप्त कुंड
- हेमकुंड साहिब
- ब्रह्म कपाल
- नीलकंठ
- मना गांव
- माता मूर्ति
- अलका पुरी (15 किलोमीटर)
- सतोपंथ
- जोशीमठ
मुख्य लेख : जोशीमठ
(44 किलोमीटर): शरद ऋतु में श्री बद्रीनाथ जी इसी मठ में आकर विश्राम करते हैं। यह मठ अलकनंदा और धौलीगंगा के संगम स्थल से कुछ ऊंचाई पर स्थित है। यह उन चार मठों में से एक है जिसका निर्माण आदि शंकराचार्य ने किया था।- पंच प्रयाग
- श्रीनगर
मंदिर के खुलने का समय: मंदिर बसंत पंचमी (फरवरी) के दिन खुलता है। सुबह 4 से दोपहर तक और अपराह्न 3-9 बजे तक। यह मंदिर विजयादशमी (मध्य अक्टूबर) के दिन बंद होता है।
पृष्ठ मूल्यांकन देखें
इस पन्ने का मूल्यांकन करें।
सफलतापूर्वक सहेजा गया
आपके मूल्यांकन अभी तक जमा नहीं किये गये।
आपके मूल्यांकन की अवधि समाप्त हो गयी है।
धन्यवाद! आपका मूल्याँकन सहेजा गया।
धन्यवाद! आपका मूल्याँकन सहेजा गया।
एक खाता से आपको आपके संपादन के ट्रैक रखने, विचार विमर्श में शामिल होने और समुदाय का एक हिस्सा बनने में मदद मिलेगी।
या धन्यवाद! आपका मूल्याँकन सहेजा गया।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें