शुक्रवार, 9 अप्रैल 2021

राधास्वामी मत

संसारी बंधन तो बहुत हैं, पर मालिक की मौज भी है .....


हर जीवात्मा “सुरत” नहीं होती, पर जो शुभ में रत है, वह जगत में मालिक की अमानत है.

संसारी बंधन तो बहुत हैं, यदि म्रत्यु से पहले वे कट न पाए या ढीले न पड़े, तो वक़्त मौत के बहुत कष्ट उठाना पड़ता है. राधास्वामी दयाल ने, उन जीवों के लिए, जो दयाल की सरन में आये हैं, उनके संसारी बंध काटने में बड़ी सहूलियत कर रक्खी है. सुरत, जीवों के पास मालिक की अमानत है. अतः जीव को उचित है की मालिक की अपार दया और महिमा को याद कर के पूरी प्रीत और लगन के साथ मालिक के चरणों में लग जाए. जब तक जीव स्वयं ही, मोह के बन्धनों से मुक्ति की इच्छा द्रढ़ न रक्खेगा और प्रयत्नशील न होगा, मालिक भी बंध छुड़ाने में जीव की कोई मदद नहीं कर सकता. जीव को अवश्य है की सच्चाई के साथ, मालिक से इन बन्धनों और कर्मों से छूटने के पक्के इरादे के साथ प्रार्थना करता रहे – प्रति दिन. यदि सिर्फ दो मिनट भी जीव, दीन चित हो कर मालिक से दुआ मांगे, तो मदद तो अवश्य ही मिलेगी. 

....“चरण कँवल रज धरहूँ सिर-माथे, सतगुरु रहें सदा संग-साथे.”

हमारे अंतःकरण पर, हमारी वासनाओं और कर्मों का अस्क छाया रहता है, जो वक़्त मौत के यही यमदूतों के रूप में हमारे सामने आते हैं. जिन्हें सामने देख कर जीव दीवाना हो जाता है, घबरा जाता है और नवों द्वार बहने लगते हैं. पर किसी से कुछ कह नहीं पता. जगत के बंधन जितने द्रढ़ होंगे, वक़्त मौत के कष्ट भी उतना ही अधिक होगा, क्यूंकि सब कुछ यहीं छूट रहा होता है. 

कुछ लोगों का अकाल म्रत्यु के विषय में कहना की इसमें कोई कष्ट नहीं होता और कुछ पता नहीं चलता, बिलकुल गलत है. ऐसी अवस्था में जब स्थूल छूट जाता है तब भी सूक्ष्म और कारण देहें, आयु भोगने के लिए कायम रहती है. अकाल म्रत्यु होने पर अमूमन लोग पिशाच योनी में ही जाते हैं. पर आम तौर पर, आयु पूर्ण होने पर, कुदरती मौत होने पर ऐसा अंदेशा कम होता है. 

बंधन जो भी, जिस घाट या स्तर का होता है, वह उस स्तर के नाश होने पर कट जाता है. बहुत से देह के बंधन तो दैहिक म्रत्यु होने पर ही कट जाते है. पर जो बंधन ज्यादा गहरा हुआ तो अगले जनम में भी अपना असर ले आएगा . 

संतो का जीव के करम कटवाने का तरीका कुछ अलग है. संत कभी किसी से यह नहीं कहते की, ऐसा करो या ऐसा न करो. संत तो जीव को सिर्फ मालिक की मौज में रहना और जीना बताते है, और अंतर अभ्यास में जीव स्वंय पता है कि, अंतर का आनंद, भौतिक सुखों से कहीं बढ़ कर है. इस तरह संतो के बताय तरीके पर, विशवास की द्ढ़ता और सच्ची लगन और पूर्ण समर्पण के साथ चल कर जीव, जीते जी स्वंय अपने कर्मो के बोझ को कम होते हुए देखता जाता है, जिसका प्रभाव अभ्यासी जीव की सोच और व्यवहार में स्पष्ट रूप से नज़र आने लगता है. और एक दिन मालिक अपनी दया से जीव को सभी कर्मों से मुक्त कर देते हैं, यही मालिक का जीव से प्रेम, दया और मेहर है. 

..... “काल अंग ज़ारी है, पर दया अति भारी है.” 

संत कभी किसी जीव को किसी बुराई या व्यसन से दूर हटने का हुक्म नहीं सुनाते, वे तो बस जीव को, सत्संग में पुकारते हैं, संगत का बड़ा भारी असर होता है और धीरे-धीरे जीव स्वंय व्यसनों से दूर हो जाता है. यही संतों की रीत है, जो जगत से निराली है. भय-भ्रम से कभी कोई काज स्थाई नहीं होता, पर प्रेम की डगर पर चलने से जीवन बदल जाता है, यही संतों का मार्ग, रीत और प्रीत है, ... मालिक की मौज में राजी रहना. 

प्रीत का हाल यह है कि, प्रीत, सुरत के जितने नजदीक के स्तर से होगी उतनी ही भरोसे की और ज्यादा देर तक कायम रहने वाली होगी. सुरत, जीव के पास मालिक की अमानत है, जीव तो बस अमानत का अमीन ही है. तो जीव को उचित है की कुल प्रीत को मालिक कुल के चरणों में अर्पित कर दे, इससे जो आनंद प्राप्त होगा वो जगत के हर सुख से कहीं बढ़ कर होगा. 

जब मालिक, सुरत को प्रीत बख्शता है तब सब “निज प्यारे” लगने लगते है, प्रेमी जन का मन स्वतः ही कोमल हो जाता है. 

मालिक की दया का कोई वारापार नहीं, जीव को उचित है की सब कुछ मालिक की मौज पर ही छोड़ दे, पर इसके लिए ज़रूरी है की स्वंय मालिक की मौज में सदा राजी रहे. राधास्वामी दयाल हैं जी ..... 

राधास्वामी हेरिटेज 

संतमत विश्वविध्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित .

MAY 12


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अंतर्यात्रा ..... १६ 


सुरत रत शगल रूहानी ..... 


परमार्थ की कार्यवाही, तन-मन की सीमाओं से किसी हद तक ऊपर उठ कर, सुरत की लगन से ही हो सकती है. सुरत जो की मालिक का ही अंश है, तो सुरत, जब तक की मन व माया के आवरणों को भेद कर, निर्मल चैतन्य देश में न पहुंचेगी और अपने अंशी में न जा मिलेगी, तब तक उसको परम शांति, संतुष्टि, तृप्ति और परम आनंद प्राप्त नहीं हो सकता.

संसार में आम तौर पर जो भी धार्मिक रीतियाँ और तरीके परमार्थ के नाम पर ज़ारी हैं, उनसे सुरत कभी भी अपने परम लक्ष तक नही पहुँच सकती.. इस तरह के सभी तौर-तरीके सुरत को ब्रह्मांडीय व्यस्था में फसाय रखने के लिए, काल के रचे पाखण्ड ही हैं.

तीर्थ यात्रा से तो कर्मों का बोझा ही बढ़ता जाता है.तीर्थों का हाल यह है की वहां सिवाय व्यापारियों और बाजीगरों के तमाशों की कुछ नहीं बचा और जीव भी इन्हीं के रसों में फस जाता है.साफ नियत और सच्चे दिल से किया गया तीर्थ, विरलों से ही बन पाता है. जो कार्यवाही सच्ची भक्ति से की तो शुभ कर्म फल लाती है, और “पितृ लोक” या कोई विरला “स्वर्ग” तक पहुँच पाता है. पर अधिकतर को तो, देह छूटने पर प्रेत, पिशाच या पशु योनी में ही जाते देखा.

इससे बढ़ कर जो जगत में परमार्थी कार्यवाहियां देखीं, उसमे “विधा योग” की तो कोई वास्तविकता ही नहीं है, बड़े-बड़े विधावानों को तोते की तरह रट कर ज्ञान बघारते देखा है. “प्राण योग” की हद भी मात्र स्थूल देह तक ही सीमित है. “बुद्धि योग” से भी बस अंतःकरण की ही कुछ हद तक सफाई हो सकती है. “परा विधा” या सूक्ष्म प्राण योग की रसाई भी ब्रह्म पद को पार नहीं कर सकती. बशर्ते की ये सब योग विधी पूर्वक किये जाएं, यानि उस विधि के अनुसार किये जाए, जो की इन को जारी करते वक़्त, इनके जारी करता आचार्यों द्वारा बताई गई थीं. बड़े-बड़े सूरमा और पतिव्रता स्त्रियाँ स्वर्ग को गयीं, किन्तु परमार्थ में स्वर्ग की कुछ भी महिमा नहीं है.स्वर्ग पहुँच कर भी न तो आवागमन छूटता है और न ही निर्मल आनंद ही प्राप्त होता है. फिर इन योग मार्गों के लिए जिन संयमो को आवश्यक बताया गया है, वे उस काल में भी अति कठिन होते थे, तभी तो ऋषि और मुनि हजारों वर्ष तपस्या में लगा देते थे. पर आज के समय में न तो जीव को हजारो वर्ष की आयु ही प्राप्त है और न ही जीव में वह काबलियत और ताकत ही बची है की इन सयमों को अपनाते हुए तप कर सके.

जीव की इसी दीन-हीन और दयनीय दशा को देख कर स्वयं राधास्वामी दयाल ने नर देह में, गुरु रूप में अवतरित हो कर, माया और काल के जाल में कुंठित जीव के सच्चे उद्धार के निमित्त “सहज भेद” को खोल कर बताया, जो की अब तक गूढ़ और गुप्त था. इसी सहज मार्ग पर चलने के मार्ग को संतमत और मंजिल को राधास्वामी नाम से प्रकट किया. और “नाम” के भेद का उपदेश किया. साथ ही मुक्ति मार्ग पर चलने के तरीके को, मार्ग के स्तरों, ठहरावों और धुर-धाम दिहानी “राधास्वामी दयाल” तक सुरत को पहुँचाने का भेद खोलते हुए, उसका अभ्यास करवाया. इसी “अभ्यास” को हम “शब्द-योग”, “सुरत-शब्द” व “सहज-योग” अभ्यास के नाम से जानते है. और राधास्वामी दयाल के नर देह में अवतरण को – “ परम पुरुष, पूरन धनि, समद दयाल हुज़ूर स्वामी जी महाराज” के नाम से. जिनका सांसारिक नाम, हुज़ूर शिव दयाल सिंह सेठ रहा. आपके पिता जी महाराज हुज़ूर दिलवाली सिंह जी सेठ, कौम खत्री, मोहल्ला पन्नी गली, शहर आगरा के निवासी थे, जहाँ कुल मालिक राधास्वामी दयाल ने नर देह में अवतरण किया और काल के जाल और गाल में फसे जीवो के सच्चे उद्धार के निमित्त सत्संग रुपी बेड़ा जारी किया और उसे आगे बढ़ाने का जिम्मा अपने गुरमुख शिष्य, परम संत “हुज़ूर महाराज” - श्री सालिग्राम जी माथुर, जो की प्रथम भारतीय पोस्ट मास्टर जनरल हुए, निवासी मोहल्ला पीपल मंडी, शहर आगरा को सोंपा.

आज के युग में सिर्फ संतमत ही वह मार्ग है, जिस पर चल कर निर्बल जीव, मन-माया के देश से निकल कर, सुरत-शब्द द्वारा, जो की सत्पुरुष की जान है, निर्मल चैतन्य और परम आनंद के देश में पहुँच सकता है. यह ज्ञानियों और योगेश्वरो के पद से बहुत ऊपर है. और सिर्फ यहीं पहुँच कर जीव चौरासी के योनी-चक्र से छूट सकता है. इस निर्मल चैतन्य के आनंद के समक्ष स्वर्ग आदि का आनंद बेहद फीका और थोथा है. फिर जो शुभ कर्म, सयंम-तप आदि करनी किसी से बन भी पड़ी तो शुभ कर्मो का फल समाप्त होने पर जगत में फिर से जनम लेना ही पड़ेगा और उस कर्म का जो शेष फल रह जाता है, उसी के अनुसार, जगत में फिर जनम लेने पर जगत की सब माया और कामनाए भी प्राप्त होती है जिस में फस कर काल, जीव को फिर से अधो गति की ओर ले जाता है, शास्त्र ऐसे तमाम उदाहरणों से भरे पड़े हैं. 

इससे साबित होता है की “सुरत-शब्द” अभ्यास के अतिरिक्त अन्य सभी उपायों का फल नाशमान ही है. दान आदि भी नाश्मान चीजो का ही होता है, तो उनका फल भी नशमान ही है. सिर्फ सुरत-शब्द अभ्यास ही एक मात्र उपाय है, जो की चौरासी से बचा सकता है. यह साध, संत और फकीरों का मत है और संसार के सभी मतों से हमेशा से अलग रहा है. फकीरों इसी “सुरत-शब्द अभ्यास” को “शगल सुल्तान-उल-अज़कार” कहा है. यह मालिक के सच्चे प्रेमियों और भक्तों का मार्ग है, इस मार्ग पर हिन्दू, मुस्लमान, सिख, इसाई, बहाई, बौद्ध, जैन आदि का कोई भेद नहीं है, यह हर मज़हब की हर हद से बहुत ऊंचा है. जिसे मालिक के सच्चे भक्त ही समझ पाते हैं. 

प्रसंग वश – अक्सर सत्संगी कारोबार के विषय में, उचित-अनुचित के ख्याल में अटक जाते हैं. तो परमार्थी नुक्ते-नज़र से, हक-हलाल की कमाई वही है जो जीव अपने सात्विक हुनर से कमाता है, जिसमे उसकी मेहनत और पसीना लगा हो, जैसे कारीगरी का काम, शिक्षण कार्य, खेती व ऐसी नौकरी जिसमे जीव सयंम को विकारों से रहित रख सके आदि पर वकालत और पुलिस की नौकरी करते वक़्त संशय बना ही रहता है. 

राधास्वामी सदा सहाय ..... 

राधास्वामी जी,

राधास्वामी हेरिटेज.

संतमत विश्वविध्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित.

MAY 7


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अंतर्यात्रा ..... १५ का शेष 

कुछ बातें भेद की ..... २ . 

अनामी पुरुष प्रेम का अथाह भण्डार है, जिसमे कभी कोई चेष्टा या हलचल नहीं हुई, वह सदा एकरस, सदा चैतन्य और निरंतर है. 

सत्यलोक तक शब्द-सुरत युगल अवस्था में रत हैं यानी एक रूप हैं, जिन्हें अलग-अलग नहीं किया जा सकता. “जुगल रूप की निसदिन टेका”. जैसे समुद्र और उसकी लहर, जो की समुद्र से निकल कर उसी में समा जाती है और कभी अलग नही होती. इस स्तर तक चैतन्य की कशिश अंतर्मुख है यानी स्वयं में ही रत है. जब यही चैतन्य धारा, बहिर्मुख हो कर ब्रह्माण्ड में उतरी, तब इसी आदि धारा का नाम “राधा” हुआ और इसके सिवा परम पुरुष को न कोई निरख सकता है, न निहार.

“ बैठक स्वामी अद्दभुती राधा निरख निहार .“ 

रचना की जो कुछ भी कार्यवाही हुई है, वह भास् रुपी चैतन्य से, जो कि पुरुष अनामी के चरणों में सिमटा था, उसी से हुई है. 

भास् को इस तरह समझना चाहिए जैसे कोई बल्ब या लैंप जल रहा हो, और उसका भास् फैला हुआ हो. तो इस भास् में भी वही चैतन्य प्रकाश बसा होता है, जैसा की बल्ब या लैंप में. पर जैसे-जैसे दायरा बढ़ता जाता है, इसका प्रभाव कम से कमतर होता जाता है. भास् के इसी दायरे से जो चैतन्य, उस प्रथम चैतन्य की तरफ, जिसमे की स्वाभाविक रूप से आकर्षण या खिंचाव होता है, जितना खिंच सका, खिंचता गया. और केंद्र के चारों ओर इकट्ठा होता गया. रचना का मकसद भी यही है की, जितना भी मालिक की ओर और नजदीक खिंचा जा सके, खिंचता चला जाय. इस तरह कम अधिक की तरफ खिंचा और अपने से अधिक या आगे के चैतन्य में समाता चला गया और जो समाने से रह गया, वह अपने से नीचे या की पीछे के चैतन्य का गिलाफ या आवरण होता चला गया. इस तरह चैतन्य जिस स्तर पर कम होता गया, माया उतनी ही दढ़ यानी स्थूल होती चली गयी. और ऊपरी मंडलों में जहां कि चैतन्य द्रढ़ और अधिक द्रढ़ होता गया, उसी अनुपात में माया भी स्थूल से सूक्ष्म और सूक्ष्मतर होती चली गयी. इसे ही माया का शुद्ध होना कहा गया है.

“ एक ठिकाने माया थोरी, सिंध प्रताप शुद्ध हुई जान. ”

तो जो चैतन्य पीछे छूट गया, वही सतलोक की तलछट के सामान है. इसकी दिशा बहिर्मुख हो कर, ब्रह्मांड में माया प्रकट हुई. इस तरह बहिर्मुख बहाव, अंतर्मुख खिंचाव की ही प्रतिक्रिया या प्रतिगति है. प्रत्यक्ष है की पिंड के मुकाबले ब्रह्मांड में माया सूक्ष्म है. यहीं से माया ने सुरतों के बीज से, जो की काल को सतलोक से निकाले जाने के वक़्त, रचना के लिए मिला था, जगत की रचना करी. 

“ निकल जाओ तू यहाँ से खानाखराब. “

पर “निकाल देने” का अर्थ यह नहीं की काल से कोई बैर है. वह तो जगत की रचना और गति का एक अहम् कारक है. ब्रह्मांड में चैतन्य, माया का आवरण हो रहा है. इस स्तर पर भी आनंद और सुख व्याप्त है, पर महा प्रलय के वक़्त इस स्तर का भी ह्रास हो जाता है, यह ब्रह्मांडीय स्तर अज़र, अमर, अविनाशी नहीं है. 

संसार यानी पिंड देश में मन-इच्छा ही काम करती है. माया इसके आधीन और चैतन्य गुप्त है. पर जगत का कोई भी काम बिना चैतन्य खर्च किये, होता भी नहीं. तो सतलोक तक, जहाँ से की चैतन्य धार जारी हुई है और हर चैतन्य बीज का स्वाभाविक जुड़ाव बना ही रहता है जब तक की अंश, अपने अंशी में समा न जाय, तो जीव जो भी चैतन्य जगत में खर्च करता है , स्वाभाविक रूप से उसती खबर सत्पुरुष तक पहुँच ही जाती है. – मालिक से जीव का कोई भी करम नहीं छिप सकता. 

जगत का हाल तो रोज़ कुवां खोदने जैसा है, उंगली की जरा सी हरकत हो या मन का कोई ख्याल, बगैर चैतन्य को खर्च किये कुछ भी हो नहीं पता और चैतन्य की वृद्धि का तरीका एक मात्र “अंतर्मुख शब्द अभ्यास” ही है. तो एक सच्चे खोजी को समझना चाहिए की जगत में रहते हुए ऐसा वर्ताव करे की, अंतर चैतन्य खर्च तो कम हो और बढ़े ज्यादा. तब सुरत का उठान स्वतः ही ऊपरी मंडलों में होने लगेगा. – यही संतमत और संतों का मुख्य सन्देश और उपदेश है. 

माया के विषय में सिर्फ इतना कहा जा सकता है कि उस भास रुपी चैतन्य में उस सामन का वह अंश भर अंग ही था, जिससे माया ने जगत में यह रूप धारण कर लिया. और इसी अंश भर अंग से ही सम्बन्ध वक़्त और बसअत time and space की उत्पत्ति का भी है, पर उसकी व्याख्या करने का अभी उचित प्रसंग नहीं है. 

राधास्वामी सदा सहाय ..... 

राधास्वामी जी 

- राधास्वामी हेरिटेज 

संतमत विश्वविध्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित .

MAY 5


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अंतर्यात्रा ..... १५ 


हैरत हैरत हैरत होई, हैरत रूप धरा एक सोई . 

हैरत रूप अथाह दवामी, अस मेरे प्यारे राधास्वामी ..

कुछ बातें भेद की ..... १ .

आम तौर पर लोग संतमत को मजहबी या धार्मिक विचारों से जोड़ कर देखते हैं. उनको और उन सत्संगियों को भी जो कभी-कभार ही सत्संग में पहुँच पाते हैं, उन्हें यह जानना ज़रूरी है की संतमत कोई मजहब नहीं है, पर दुनिया के हर मजहब की जान और हर मजहब का साझा है. सो संतमत को स... See More

MAY 4


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अंतर्यात्रा ..... १४ 

सारा जग है प्रेम पसारा .....

नशा भी खालिस और नशेबाज भी खालिस चाहिए, वोही प्रेम का मर्म जान सकता है. और धर्म निभा सकता है 

जगत में जो कुछ भी है और स्वयं जगत की भी, उत्त्पत्ति, विकास और पोषण, प्रेम से ही है. और प्रेम ही जगत से उबारता भी है. जगत की लालसाओं में अचेत जीव में, प्रेम भाव का चेता, भक्ति से ही आता है. और जब चेता तब संसार के सभी भोग-विलास फीके लगने लगते हैं. मन तो पारे की तरह चंचल होता है, इसे रोक कर भक्ति में लगाना, ऐसा ही मुश्किल है, जैसे पारे को भस्म बनाना. मन तो गुरु-भक्ति बांध कर ही रुक पाता है. 

भक्ति और प्रेम दो नहीं पर एक ही है, पर व्यवहार में दो रूपों में नज़र आते है और अंत में जा कर एक हो जाते है. दरअसल भक्ति व्यवहार है और प्रेम भाव है. तो भक्ति, प्रेम का ही व्यवहारिक रूप है. जो की स्तर दर स्तर स्थूल से सूक्ष्म, फिर उससे भी सूक्ष्म और अत्यंत सूक्ष्म हो कर, प्रेम भाव में समाहित हो जाती है. 

इस तरह हम समझ सकते हैं कि भक्ति ही प्रेम का मार्ग भी है और पथ भी. जिसने भी अपने भीतर भक्ति के रस को पा लिया, उसे संसार के बाकी सभी रस और भोग-विलास खुद-बा-खुद फीके और बे-मज़ा लगने लगते हैं. वास्तव में रस तो उस शब्द-धुन-अम्रत धार में है जो ऊपरी मंडलों से आ रही है. नशा तो जगत का मजा है, सुन्न पद पर इस नशे की मस्ती भर रह जाती है और इससे भी आगे सत्तलोक में ये मस्ती भी जाती रहती है, सिर्फ सुरूर ही रह जाता है – यही प्रेम है, खालिस प्रेम. तो जैसे-जैसे सुरत ऊपरी मंडलों में उठती जाती है, रूहानी नशे का यह सुरूर भी बढ़ता जाता है.

मन की फितरत ही चंचल है, जब तक कोई ताकत इस मन को खींच कर बाँध न ले यह डोलता ही फिरता है. मन सिर्फ गुरु भक्ति से ही बांध सकता है, पर बेहद मुश्किल काम है, जीते जी मरने के सामान है. इन बातों का यह मतलब हरगिज़ नहीं की भक्त को संसार के सुखों से वंचित रहना होगा, बल्कि सच तो ये है की, मालिक ने सभी सुख, अपने भक्तों के लिए ही पैदा किये हैं.

कुरआन शरीफ की आयत “लौलाक” में खुदा ने फरमाया है की – “मैंने जो कुछ पैदा किया है वो, ऐ मेरे महबूब, तेरे लिए पैदा किया है.” लेकिन हमे इन सुखों में बहुत ही संभल कर वर्तना होता है. उपयोग और उपभोग के फर्क को समझे बिना, ऐसा कर पाना कतई संभव नहीं.

राधास्वामी सदा सहाय..... 

राधास्वामी जी 

राधास्वामी सदा सहाय .....

राधास्वामी हेरिटेज 

संतमत विश्वविध्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित .

MAY 2


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अंतर्यात्रा .....१३ 

सुरत सुहानी मालिक सरना ......

राधास्वामी दयाल ने एक बार जिसे सरन दे दी यानि जिसके भीतर शब्द खुल गया, उसे मालिक फिर कभी नहीं छोरता, तो शब्द भी कभी नहीं बिसरत. हाँ, जीव मन-माया के फेर में अपने स्तर से ज़रूर गिर सकता है, पर द्वार कभी बंद नहीं होता. 

काल बहुत भोकाल मचाता है, माया भी तरह-तरह से घातें लगाती है. दोनों मिल कर बहुत हल्ला-गुल्ला करते हैं, शब्द से छुराना चाहते हैं, मन कितना ही चिल्लाय पर सुरत जो एक बार चेत गई, वो फिर अलग हो नहीं सकती – सुरत तो दयाल का अंश है जी. जैसे सूरज और किरण का साथ, इन्हें अलग नहीं किया ज सकता. 

जिस भी सुरत में जरा सी भी काबलियत पैदा हो गई की उसे जगाया ज सके, उसे दयाल अपनी निज सरन में ले लेते हैं. अन्य सभी जीवों पर, उनकी देहिक और आत्मिक व मानसिक स्थिति के अनुसार दया की धर बहती रहती है.

जिन जीवों में सरन की लगन नहीं होती और संसार के रस ही प्रधान होते हैं, और अंतर रस को व्यर्थ जान कर नकारते हैं, उनके परमार्थी भाग जागने का अभी समय नहीं आया है.

सुरत को मन-माया के सुख-दुःख में फसा देख कर काल बहुत खुश होता है, ऐसी सूरतें उसका भोग जो हैं. काल इन्हीं भटकी हुई सूरतों को भोगता है. हर सुरत का स्वाभाविक खिंचाव दयाल देश की ऑर ही होता है. पर काल और माया का तनाव उसे जगत की दिशा में रोके रहता है. जैसे लकड़ी पानी में डूब नहीं सकती, पर जब उस पर बोझा भारी होता है तब उस बोझ के कारण डूबी रहती है. यही कर्मों का बोझा है जो सुरत को चेतने नहीं देता, पर जब कर्मों का बोझा हल्का पड़ता है, सुरत चैतन्य ऊपरी मंडलों में पैठने लगती है और जो कर्मों का कुछ बोझा बाख रहता है, वही शेष कर्म हैं, जिनका निपटारा सत्संग में होता है.

मालिक चाहे इन सभी बोझों को एक पल में काट दे, पर मौज ऐसी नहीं. यदि एकदम से कर्म कट जाएँ तो सुरत तो सीधे सतलोक में खिंच जायेगी पर अचेत ही रह जायगी, और बेसुधी में मालिक के चरण-सरन के आनंद से वंचित ही रह जायगी साथ ही वह अर्थ भी पूर्ण न होगा जिसलिए सुरत को जगत में भेजा गया है. तो यही मालिक की मौज है की, सुरत अचेत न रहे बल्कि चेते और चेत कर करे – “अंतर्यात्रा” , अनंत की . तो सही तरीका यही है की, कल और कर्म का कर्जा काट कर ही प्रारम्भ करे हर सुरत, ”अंतर्यात्रा”.

सत्संग तो बेड़ा है, बहुतेरे ही इस पर चढ़ आते हैं, सो जिनकी लगन सच्ची है, उनके कर्म जल्दी कट जाते है और जो तमाशबीन है, उनके कर्म देर से कटते हैं पर कटते सभी के है, यही सत्संग की महिमा है. राधास्वामी सदा सहाय ..... 

राधास्वामी जी 

राधास्वामी हेरिटेज 

संतमत विश्वविध्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित.

April 2015

APRIL 30


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अंतर्यात्रा ..... १२ 

भक्ति सच्ची चाहिए, चाहे कच्ची होए. 

संत – साध पूरे के सत्संग से जीव का घाट यानि वर्तमान स्थिति बदल जाती है. सत्संग के प्रभाव से जीव जब उस घाट या स्थिति में पहुँच जाता है, जहाँ से कि संत उपदेश करते है, तब वह प्रेम और आनंद के सागर में सराबोर होता है. इसके लिए ज़रूरी है कि भक्ति सच्ची हो, चाहे कच्ची ही हो. जैसे-जैसे प्रेम बढ़ता जायगा, सतगुरु के स्वरुप और मालिक के चरणों में प्रीत बढ़ती जायगी. 

सच्चा अनुराग सुरत में ही पैदा होता है, इस तरह सुरत का प्रभाव भी अनुराग में शामिल होता है और यही अनुराग सच्चा होता है. तो जब सुरत में अनुराग पैदा होता है, तब ही जीव संतमत के उपदेश का अधिकारी बनता है और संतों के उपदेश को अपने हित में जान कर पूरे चित से सुनेगा. सुरत और चेत मिल कर यानि सुरत जब चेत कर संतों के वचन को सुनती है तब मन भी सथ देने लगता है और धीरे-धीरे जगत से फिरने लगता है. 

बात तो वाही है जिसे संतो ने आदि से कहा है और सब ने उसी बात को दोहराया है, पर हर काल और परिस्थितियों के अनुसार सब ने अपने-अपने समय की भाषा और शैली में कहा, ताकि जीव के अंतर पर उसका असर हो और गहरा होता जाय. स्कूल में जा कर पढ़ाई करने का मकसद भी यही होता है की टीचर के दिलो-दिमाग में जो है वह विधार्थी के भी दिलो-दिमाग में बस जाय यानि शिष्य की समझ को बढ़ा कर,उस घाट तक पहुंचा दिया जाय जो की गुरु का घाट है. पर जितनी समझ गुरु के पास है, उतना ही असर वह शिष्य पर दल सकता है. इसी तरह संत,साध-महात्मा अपने सत्संग और उपदेश से जीव का घाट बदलवाते है. धीरे-धीरे जीव जब उस घाट पर पहुँच जाता है, जहाँ से सतगुरु पूरे उपदेश फरमाते है तब जो असर पैदा होता है उसकी महिमा को बयां नहीं किया ज सकता, वह तो घाट प्रेम का है.

परमार्थ में कोई दिखावा काम नहीं आता, भक्ति सच्ची ही दरकार है, चाहे कच्ची ही हो, मालिक खुद एक दिन अपनी दया से उसको पक्की कर लेगा. 

“कपट भक्ति कुछ काम न आवे.

सच्ची कच्ची कर भक्ति..

कच्ची से पक्की होए एक दिन.

छोर कपट तू कर भक्ति..”

जब तक गुरु की प्रीत से बढ़ कर कोई भी प्रीत है, भक्ति अभी कच्ची ही है. असर तो प्रेम का सतगुरु सब पर डाल देते हैं, जो भी उनके सम्मुख आता है, फिर चाहे जीव विरोध का ही मन ले कर क्यों न उनके सामने जाय. पर फलीभूत वह तब ही होगा, जब की जीव उस घाट पर पहुंचेगा, जहाँ से सतगुरु प्रेम की वर्षा करते हैं. जैसे-जैसे ऊंचे घाट का प्रेम जागता जायगा, सतगुरु और मालिक के प्रति प्रीत बढ़ती जायगी.

राधास्वामी जी 

राधास्वामी हेरिटेज 

संतमत विश्वविध्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित.

APRIL 29


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अंतर्यात्रा ..... ११ 

सच्चा अनुराग – खोजत फिरे साध गुरु जागा .

शब्द धार का सच्चा अनुराग, सुरत के अंतर में ही पैदा होता है. सुरत जो की मालिक की अंश है तो निज देश से उसके अंतर में जो धार आ रही है, उसे ग्रहण करने की सामर्थ भी सुरत में ही है. पर मन,माया और देह के गिलाफों की वजह से शब्द-धुन धार का असर मालूम नहीं देता, जैसे-जैसे मन, माया के ये गिलाफ या की खोल, सूक्ष्म और कमतर होते जाते है, उसी के अनुसार जीव में यह अनहद धार स्पष्ट नज़र आने लगती है.

तो जब तक सुरत में प्रेम नहीं जागा है, जो भी कार्यवाही भक्ति के नाम से की जाती है या की जा रही है, वह स्थाई नहीं हो सकती. सुरत में जो भक्ती, प्रेम और प्रीत से जागेगी, उद्धार तो उसी से होगा. 

भक्ति करने की रीत तो हर स्तर पर समान ही है पर प्रीत की रीत निराली है. प्रीत तो जानवर भी अपने बच्चे से करते हैं और जान क्त दे देते हैं, पर परमार्थी इश्क की किस्म अलग है. ऐसे परमार्थी आशिक, तन-मन की सारी सामर्थ मालिक के चरणों में अर्पित करने की आस में ही जीते हैं. ऐसे ही सच्चे आशिकों की श्रेणी में से भक्त पैदा होते हैं. भक्ति में ही उमंग छिपी होती है. पर भक्ति भी जगत में अलग-अलग होती देखि, कोई माया की भक्ति में लीन, लोभ-मोह में फसां है, कोई ज्ञान की भक्ति में लगा है, जैसे वेदांती और वाचक ज्ञानी, जिन्होंने प्रेम की जड़ ही काट दी. इस तरह की सांसारिक भक्ति में उमंग नहीं होती बल्कि निज स्वार्थ छिपा होता है. 

आसन लगाने या आँखे बंद कर के बैठ जाने से कुछ भी नहीं होगा. यह तो मुंगेरी लाल के हसीं सपनों की तरह ही है. इन बातो में लग कर परमार्थ का भाग नहीं जागता. जब तक मन निर्मल न होगा कुछ भी न होगा. सो सतगुरु पहले जीव को संसार की अग्नि में ही तपाते है और तब मन-माया को कम कर, सुरत अंग को ऊपर उठाते हैं. इसी सुरत अंग में में प्रेम और प्रीत की उमंग छिपी होती है. 

अपने भक्त की मालिक की मौज से हमेशा संभाल होती रहती है, बेशक उसका साधारण जीव की तरह ही पालन-पोषण होता है, वो इंद्री के घाट भी जायगा, उस पर सब तरह की संसारी बातों का असर भी होगा, पर मालिक उसे भोगो में बहने न देगा, डूबने से पहले ही बचा लिया जायगा. मालिक उसे दुनिया का हर तमाशा दिखलाता है, पर सिलसिला अंतर से लगाय रखता है. जो यदि यह सिलसिला टूट गया तो कुछ भी प्राप्त न होगा. भागों वाला है वह जीव जिसे सतगुरु का संग-सानिध्य प्राप्त होता है.

जब सुरत, शब्द को सुनती है तब मन की बढ़त स्वतः ही घटने लगती है. और ऐसा सुरत-शब्द अभ्यास से ही होगा. प्राणायाम बहुत जल्दी असर करता है, पर इसका प्रभाव दैहिक व मानसिक स्तरों तक ही सीमित होता है. इससे मन मजबूत ही होता है, न की उस स्तर तक नरम, जब की सुरत तक पहुँच बन सके. देखा की जीव प्राणायाम तो घंटों तक कर सकता है पर सुरत-शब्द अभ्यास पांच मिनट भी मुश्किल हो जाता है. जो सतगुरु जागा है वही सुरत को जगा सकता है, सिर्फ आँखें बंद कर के बैठने से तो सुरत सोएगी ही. पर जिनमें भक्ति है वह परमार्थ के वातावरण से कभी दूर नहीं रह सकता. और यह वातावरण सच्चे सत्संग में ही मिल सकता है, पुराने किस्से-कहानियों में नहीं. यूँ तो भीड़ बहुतेरे लगा लेते हैं, ये सब तमाशबीन है, सच्चा खोजी तो कोई विरला ही होता है. 

“ खोजत फिरे साध गुरु जागा ”

राधास्वामी जी 

राधास्वामी हेरिटेज

संतमत विश्वविध्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित.

APRIL 28


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अंतर्यात्रा ..... १० 

विशवास ही परमार्थ की नीव है. ...

विश्वास, सुनने से, सुनना मालिक के वचन से और वचन मालिक की दात से प्राप्त होता है.

परमार्थ की समस्त कार्यवाही अंतर से सम्बन्ध रखती है. तो जीव पहले सुन कर, फिर सोच-विचार कर और तब व्यवहार में अपना कर, परमार्थ के धरातल पर कदम रखता है.

इस बात का हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि ऊपरी और बाहरी यानि व्यवहारिक तौर से जीव की करनी चाहे कितनी ही शुद्ध और परमार्थी क्यों न मालूम दे, वह निष्फल तो नहीं जायगी, पर ऐसी करनी से वह परमार्थी लाभ जो की संतों ने बताया है हरगिज़ प्राप्त न होगा. सतयुग में जिनकी भी हिरण्यगर्भ यानी प्रणव पद ओंकार तक पहुँच हुई, वह अंतर अभ्यास से ही हुई, पर उन्हें भी समय के अनुसार, वहां से लौट कर आना ही पड़ा. ओंकार पद का आनंद भी खालिस और अनंत नहीं है. पर यह संतों का मत है, दुनियावी हर मजहब का अंत तो प्रणव पद ही हो जाता है. जब की संतों का मार्ग यहाँ से शुरू होता है.

संत मत के अनुसार जो भी कार्यवाही तन व मन से, बिना सुरत की दखल के की जायगी, वह सब ऊपरी तौर पर की गई बाहरी और संसारी ही है. यह संसार काजल की कोठरी के सामान है, जीव की आँख में जो कला बाँध होता है वाही काजल है और जो पुतली है वाही कोठरी है, अब जब इसके परे जाय, तब ही इस कोठरी से निकल सकता है. जैसे सूरज की किरणों से प्रकाश के कण आ रहे है वैसे ही अँधेरे के कण इस काजल की कोठरी से निकल रहे है. यदि संत-महात्मा भी इस घाट पर ठहरे तो उन पर भी ये अँधेरे के कण अपना प्रभाव डाले बिना न रहेंगे. ऊधो जी, कृष्ण महाराज के अति प्रिय सखा थे, हर वक़्त का साथ था. तो ऊधो जी ने जब कृष्ण जी से वक़्त आखिरी कृष्ण जी से अपने साथ अपने धाम ले चलने के लिए कहा, तब कृष्ण जी ने यही कहा की योग-अभ्यास करो. कहने का मतलब यह है की, हर युग में अपने वक़्त के अनुसार ही अंतरी कार्यवाही करने से काम बना है और बनेगा. पिछले युगों की कार्यवाहियां अगले युगों में जीव से न बन पड़ी है और न पड़ेंगी. संतों की परमार्थी कार्यवाही की शुरूआत छठे चक्र यानि तीसरे तिल से होती है, मन और प्राण के बंधन यहाँ पहुँच कर ढीले पड़ जाते है. सुरत ही मालिक की अंश है, वही मालिक के दरबार में पहुँच सकती है, मन और माया की वहां कोई रसाई नहीं. 

अंतरी कमाई के लिए आदि भाग्य यानि पूर्व जन्मों के संकलित संस्कार, का जागना ज़रूरी है , बिना इनके जागे अंतर्यात्रा शुरू नहीं हो सकती. संतमत में कोरे बैराग का कोई महत्त्व नहीं है, बैराग – अनुराग सहित होना चाहिए. मालिक के दरबार में सच्चे अनुराग की ही परख होती है.

सच्चे अनुराग से ही विरह पैदा होती है. पर यदि कोई यह सोचे की सिर्फ विरह से ही उसका काम बन जायगा, तो यह गलत है. यदि विरही को वक़्त रहते संत-साध का साथ न मिला तो यह विरह की बेल सूख जाती है. भाग से जो संत-साध का संग और सत्संग मिल जाय तो वे इस घाट की विरह को सुखा कर, ऊंचे घाट की विरह को जगा देते है और फिर उससे ऊंचे घाट की. इस तरह एक दिन धुर पद में भी पहुंचा देते है. नाम प्रदान करते वक़्त सतगुरु जो फरमाते है , वह व्यथा नहीं है. वे अपनी दात कभी वापस नहीं लेते. वे यही दात बक्श्ने ही तो आये हैं. उनका हुक्म इस धरा पर टल नहीं सकता, वह तो हो कर रहेगा. यागी एक जनम में सुरत न पक सकी तो अगले जनम में पकेगी, पर पकेगी. जिसने सतगुरु पूरे की और सतगुरु पूरे ने जिसकी उंगली एक बार थाम ली उसे तो वे सत देश पहुंचा कर ही रहेंगे . यही दयाल की निज दात है, जिसे सतगुरु पूरे के रूप में जीव भाग से पाता है. 

राधास्वामी दयाल की दया , राधास्वामी सदा सहाय .

राधास्वामी जी 

राधास्वामी हेरिटेज 

संतमत विश्वविध्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित.

APRIL 27


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अंतर्यात्रा ..... ९ 

सतगुरु दीजे दात प्रेम की .....

सिर्फ सुरत ही ,मालिक से प्रेम कर सकती है, क्यूंकि सुरत ही मालिक का अंश है. और अंश को अपने अंशी से प्रेम करने का पूरा हक है. “सुरत व शब्द” और “राधा व स्वामी” एक ही है और सुरत मालिक को प्यारी है.

“राधा आदि सुरत का नाम, स्वामी शब्द निज धाम.

सुरत-शब्द और राधा-स्वामी, दोनों नाम एक कर जानी.” 

पर जब तक मन में मलीनता यानी मैल है, जीव को सच्चे और खालिस प्रेम की दात कभी नहीं मिल सकती. लेकिन जिस भी जीव ने सतगुरु वक़्त और पूरे की शरण ले ली, उसके भीतर से मलीनता तो धीरे-धीरे कम होती जाती है, पर इस मलीनता की जड़ तो तभी कटेगी जब राधास्वामी दयाल की दया की दात मिलेगी. इसीलिए मत में द्रढ़ है की हमारा ईष्ट राधास्वामी दयाल है.

प्रीत तो जानवर भी करते है, जैसे गाय बछड़े के साथ करती है और बछरा भी गाय के पीछे-पीछे घूमता फिरता है. पर यह प्रीत कुछ ही दिन की होती है, बाद में वे एक-दुसरे को पहचानते तक नही. पशुओं में मुख्यता इन्द्री व देह का भाव ही अहम होता है, तो वे गुदा व नाभी कँवल तक ही सीमित होते है, अंतःकरण के स्तर पर पहुँचने से उनकी म्रत्यु हो जाती है. उनमे मन व आत्मा का भेद नही होता, दोनों एक ही है और यही मनुष्य व अन्य सभी योनियों के बीच मुख्य अंतर है. मनुष्यों में भी मन की तरंगें है, पर हमारी जान सुरत में बस्ती है, मन में नहीं. मनुष्य चोले में अंतःकरण के स्तर से प्रीत की जा सकती है, मन से मन का मिलन भी हो सकता है और ये मोहब्बत सारा जीवन निभाई भी जा सकती है जैसे लैला-मजनू , राधा-कृष्ण , हीर-रांझा कई उदहारण मिलते है. और कभी-कभी देखा गया है की इन्तेहाई मोहब्बत का असर एक जनम के बाद दूसरे जनम तक भी पहुँच जाता है. पर ऐसे में प्रेमी को अपने प्रीतम के सिवा कुछ भी नहीं सूझता.

मनुष्य चोला मिलने पर भी अक्सर पशुता अपना प्रभाव बनाय रखती है. अक्सर कोई लोमरी की तरह चालाक मिल जाता है , कोई कौवे की तरह घाग, कोई बाघ की तरह अपने ही अहम् से चूर, क्रोधी और हर किसी पर रौब गांठता फिरता है, कोई गाय की तरह सीधा तो कोई गधे की याद दिला देता है. दरअसल मनुष्य पहले नरपशु, फिर नर होता है. हर एक मनुष्य में अन्य सभी योनियों के संस्कार मौजूद होते है. न जाने कब कौन अपना सर उठा ले कुछ कहा नहीं ज सकता , सब प्रारब्ध के अनुसार ही होता है.

तो जीव जब मनुष्यता में पूर्ण होता है, तब ही अंतःकरण के घाट से पूरे स्तर की प्रीत कर सकता है, जब अंतःकरण में प्रीत जग जाती है, तब ही मन से मन का मिलन होता है. फिर जब तीसरे तिल, जहाँ पर की अंतर मन का घाट है में समाई होती है तब उस घाट के प्रभाव से बहुत ही गहरी और ऊंचे स्तर की प्रीत जगती है और अथाह प्रेम का द्वार खुलना शुरू होता है, जो कभी नही घटता पर बढ़ता ही जाता है. और जब हर स्तर के मन से पार हो कर सुरत, प्रेम के अमोघ सागर को प्राप्त होती है – तब यही निर्मल आनंद है.

तो जैसे-जैसे मालिक के चरणों में प्रेम बढ़ता जायगा, जगत के प्रति प्रीत कम होती जायगी, पर इसका यह मतलब हरगिज़ नहीं कि जगत के सारे काम बंद हो जायेंगे , जैसे एक पतिव्रता स्त्री अपने सास-ससुर, जेठ, देवर-देवरानी आदी सभी का ध्यान रखती है, पर मुख्य रूप से प्रेम-प्रीत अपने पति से ही करती है. ऎसी ही प्रेम-प्रीत हमें मालिक से करनी चाहिए. अभी जो प्रीत हम कर रहे हैं वो ऊपरी प्रीत है, तन,मन व इन्द्रियाँ सब बाहरी बाते हैं. मालिक से प्रेम माँगना मालिक को ही मांग लेना है, मालिक ही प्रेम स्वरुप है, ऎसी ही प्रेम दात के लिए सतगुरु से विनय करनी चाहिए – “प्रेम दात गुरु दीजिये, मेरे समरथ दाता हो.”

राधास्वामी जी 

राधास्वामी हेरिटेज 

संतमत विश्वविध्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित.

APRIL 26


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अंतर्यात्रा ..... ८ 

लूट सके तो लूट .....

नाम का सिमरन और कमाई सिर्फ मनुष्य चोले में ही हो सकती है. जीवन का क्या भरोसा ? वह तो थोरा ही है. इसलिए चाहिए की जीव हर सांस के साथ, दोनों हाथों से नाम की लूट करता रहे, परमार्थ में लूट का अर्थ यही है की हर वक़्त नाम की याद बनी रहे, वह कभी भी भूलने न पाय.

“ लहना है सतनाम का , जो चाहे सो ले .”

जो विषयी भोगी जीव है वे जीवन को कम जान कर, आराम और सुविधा में ही जीवन व्यतीत करना पसंद करते है. पर संतों को तो नाम की कमाई का उपदेश करना ही फर्ज है.

मनुष्य देह सबसे उत्तम और अनमोल और दुर्लभ है. सिर्फ इसी चोले में नाम की कमाई हो सकती है. इंसान और हैवान में यही फर्क है – हैवान नाम से दूर भागता है. विषयों का भोग तो जानवर भी अपनी स्थिति के अनुसार कर लेते है, पर नाम की कमाई नहीं कर सकते. मात्र मनुष्य चोले में ही सभी चक्र, कँवल और पदम् , चैतन्य धार के अभ्यास से चैतन्य और जाग्रत किये जा सकते है. जानवरों का जन्म व म्रत्यु अंतःकरण के घाट से ही होती है, पर मनुष्य चोले में म्रत्यु छठे चक्र से नीचे नही होती. कितना ही पापी मनुष्य क्यों न हो, पर छठे चक्र पर ज्योत के समक्ष उपस्थित हुए बिना, म्रत्यु भी वरण नही करती. छठे चक्र पर ही नाम की गाज सुनी जा सकती है.

नाम का रस बहुत मीठा है. पर यह तब आता है जब सुरत तन-मन से खिंच कर ऊपर उठ जाती है, यही जीते जी मरना और मर कर जी उठना है. अंतर में ही मरने के इस रस का पाता चलता है, जब की जीव अंतर में मर कर जी उठता है. यही वास्तव में मर कर जी उठाना है, जैसा की हज़रात ईसा ने अपनी शिक्षाओं में स्पष्ट किया है. 

इस देह में अमृत और विष की दोनों धारे सामान रूप से मौजूद हैं. अमृत की धार ऊपर से आ रही है, यही नाम की धार है, जो जीव इस धार के आसरे ऊपर को चढ़ेगा सो अमरत्व को प्राप्त होगा और जो निचले घाटों से आने वाली विष की धार के आसरे विषय-भोगों में बढ़ेगा, उसके लिए तो रसातल का द्वार ही खुलेगा. और विषय-वासनाओं में ही डूब मरेगा .

जीव को उचित है की जगत के प्रति धीरे-धीरे जगत के प्रति उदासीन होता जाय और अंतर्यात्रा पर नाम की कमाई करता जाय. 

गुरु गोविन्द दोउ खड़े, काके लागू पायं .

बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय.

राधास्वामी जी 

राधास्वामी हेरिटेज 

संतमत विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित.

APRIL 25


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अंतर्यात्रा ........ ७ 

सच्चा मीत , परम हितकारी .....

कुल मालिक राधास्वामी दयाल , सदा अपनी मेहर द्रष्टि जीव के हित पर ही रखता है. इसी को मालिक की मौज कहा गया है. 

मालिक ने सुरत को होश में लाने के लिए ही जगत में भेजा है और काल मन के द्वारा अपना आप दे कर इसे होश में लाया है और सुरत के जरिये माया के रस लेता है – यही काल का कर्जा है. यह कर्जा हर जीव को हर हाल में चुकाना ही होता है. जब जीव चेत कर, मन और माया के गिलाफों को झार कर, अंतर्यात्रा पर चलता है, तब एक दिन मालिक के चरणों में पहुँचने के योग्य बन पाता है. सो मालिक की याद हर दम बनी रहनी चाहिए – यही याद दीहानी है.

मालिक की द्रष्टि हमारे अवगुणों पर नही होती है, वह हमेशा हमारे हित पर ही अपनी द्रष्टि रखता है – इसे ही मालिक की मौज कहा गया है.

“अनामी पुरुष” हर मौज, शब्द, रूप, रंग, आकर व रेखा से रहित है. जब मौज हुई तब नीचे का चैतन्य केंद्र की तरफ खिंचा. मौज में कोई स्पंदन या हरकत नही है, दयाल देश सदा स्थिर, निश्चल और निर्मल है. वहां का सारा खिंचाव अंतर्मुख है. स्पंदन जहाँ से शुरू हुआ, वहां से झुकाव बहिर्मुख है और चंचलता – मलीनता में परिवर्तित होती चली गयी – यही “माया” की तहें है.

मालिक न तो हमारी बुराइयों पर क्रोधित होता है, न ही किसी को दंड देता है और न ही बदला लेता है. उसकी दया की धार हर पापी और पुण्यात्मा पर सामान रूप से जारी है और बिना परिश्रम सभी जीवों को मिलती है. यही कारन है कि जीव को दया की कद्र नहीं. ज़रा सोचो यदि हवा न रहे तो ? ..... पर जारी है और सभी के लिए जारी है. युग बदले, जीव बदले, मनुष्य की सोच, मान्यताए और विशवास बदल गये, डील-डौल और व्यवहार बदले पर दया न बदली, वह तो सदा से जारी है और यही उसके सदा जारी रहने का आश्वासन भी.

मालिक में कोई क्रोध – विरोध नहीं है. ये सभी बातें तो निचले घाटो पर जारी हुई, वह तो इन सब घाटो से परे है. क्रोध की जड, काम में छिपी है, काम के होने से ही कामनाए उठती है और जब कामनाए पूर्ण न हों तो क्रोध में परिवर्तित हो जाती है इस तरह विरोध पैदा हो जाता है. 

ऐसा नहीं कि मालिक को किसी की खबर नहीं, उससे कोई न छिप सका और न ही सकता है. उसकी आम दया की धार में रह कर ही चोर-चोरी करता है, विषयी-विषय भोगता है, जुआरी-जुआ और शराबी-शराब पीता है, पर वह किसी पर जोर दबाव नहीं डालता, बल्की स्वयं ही “गुरु” रूप धारण कर के धरा पर आता है और सत्य वचन का उपदेश करता और मार्ग बताता है. पर उसका उपदेश सुने कौन ? सुने तो वही जो चेता हो. अभी तो जगत में माया की ठिठोली ही गूंज रही है.

“हंस हंस माया जाल बिछाया.

निक्सन की कोई राह न पाया..”

जगत में काल जीव को मन के द्वारा भुलावे दे देकर और माया हर तरह के भोगों में फसां कर, खुद मज़ा ले रहे हैं. काल और माया में यह सामर्थ नहीं कि रस का आनंद ले सके, तो वे सुरत को अपने जाल में फसां कर, अपनी इस कमी को पूरा कर रहे है. असल सामर्थ तो सुरत की है, पर काल अपना आप दे कर मन के माध्यम से इसे जगत में होश में लाता है और इन्द्रियाँ औजार के रूप में दे दी, देखा जाय तो सुरत के लिए जगत में यही उचित भी था, क्योंकि और कोई तरीका सुरत को जगत में होश में नहीं ला सकता था. – यही काल का कर्जा है, जिसे हर जीव को चुकाना ही होगा. जिसे पूरा किये बिना कोई भी काल और माया के जाल से छूट नही सकता. जरा सोच कर देखो कि, जब सुरत की बूंद भर सामर्थ से जगत में इतना रस है, तो सुरत जब अपने घाट पर पहुंचेगी तब वहां के रस और आनंद की तो तुम इस जगत में कल्पना भी नहीं कर सकते. 

लेकिन सुरत तो चेते तब, जब जगत और माया की आस कुछ कम हो. संतो ने सदा जीव को चेताया की सतगुरु की खोज करो, पर आज कौन चेता है ? किसने सतगुरु को खोज कर पाया ? सब तमाशबीन बने डोल रहे है. जितना बड़ा तमाशा, उतनी बड़ी भीड़. जगत में पाया की लाउडस्पीकर लगा कर “नाम दान” किया जा रहा है – ये तमाशा नहीं तो और क्या है ? तो कौन रहा है कर उपदेश, और कौन रहा है सुन ? मालिक हमारी संभाल ऐसे ही करता है जैसे माता निज पुत्र की. माँ – बच्चे को गोद में ले कर टीका लगवाती है, ताकि बच्चे को कम से कम तकलीफ हो. ऐसे ही मालिक, जगत में हमारे आदि कर्म कटवाता है और दया की संभाल भी बनाए रखता है, पर टीका लगना बच्चे के लिए ज़रूरी भी है, इसके बिना बच्चा स्वस्थ कैसे होगा. जीव के कर्म ऐसे ही कटवाए जाते है. मालिक अपने भक्तों का इस तरह ध्यान रखता है की – 

दास दुखी तो मै दुखी, आदि अंत तिहूँ काल.

पलक एक में प्रकट होए, छिन में करूँ निहाल..

सुरत जब माया के मोह से छूट कर ऊपरी मंडलों में बढ़े, तब ही वह मालिक के चरणों में पहुँचने के काबिल हो सकती है. सुरत ही वहां पहुँच सकती है क्योंकि वह मालिक का अंश है. काल और माया तो बस ऊपरी खोल ही है और उस स्तर के प्रबल चैतन्य से, जहाँ से की वे प्रकट हैं, जितना चैतन्य हो सकते थे, वे हो गये. इनका सत लोक में प्रवेश संभव नही.

अब देखना यह है की मोह के बंधन छूटे कैसे ? सिमरन. बस सिमरन ही एक मात्र साधन है. हमारा ध्यान जगत की माया में फंसा रहता है, याद भी बनी रहती है और ध्यान को जगत में फंसाय रखती है, अब यही याद हर वक़्त जो मालिक की बनी रहे तो ? ध्यान अंतर में खिंच जायगा और जगत के बंधन खुद बा खुद ही ढीले परते जायेंगे – यही सिमरन है यानि याद करना. तो नाम सिमरन ही मोह के बन्धनों को काटने का अचूक अस्त्र है.

जिसे मालिक से मिलने का दर्द होगा, उसे टीस भी उठेगी. दर्द जितना ज्यादा होगा टीस भी उतनी ही ज्यादा उठेगी. तो जब देह में दर्द की टीस उठती है तब उठती ही है, हम उसे याद कर के नही उठाते, वह तो बस उठती ही है. मालिक भी ऐसी ही टीस से मिलेगा. जो हर वक्त – हर दम बस उठती ही रहे. जैसे पानी के जहाज का कप्तान पूरे जहाज की संभाल करता है पर ध्यान हर दम कम्पस पर ही रहता है. इसी तरह जीव को भी जीवन का यापन करते हुए लोंव घाट-भीतर ही लगाय रखनी उचित है और वाही सच्चे मायनों में अंतर्यात्री है. यह हालत गुरमुख की होती है, पर देखता हूँ की कुछ गुरु, जो खुद को परम संत भी कहलवाना पसंद करते है, अपने अनुयायियों से पर्चे भरवा कर गुरमुख होने का प्रमाण मांगते है. और न जाने किस-किस को प्रमाणित करते रहते है.

इस वक़्त तो ये बाते किस्से-कहानी ही लगेंगे, पर जो गुरु पूरा और चेला सच्चा गुरमुख ठहरा तो एक दिन वे अपनी दया से अवश्य ही परम पद में पहुंचा देंगे.

राधास्वामी सदा सहाय .....

राधास्वामी जी 

राधास्वामी हेरिटेज 

संतमत विश्वविध्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित .

APRIL 23


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अंतर्यात्रा ..... ६ 

जब तक मन में संसार की वासनाए भरी है, मन शैतान है, इस शैतान का बड़ा ही भयानक रूप है, कुरूप है. स्वरुप तो सिर्फ मालिक का है, जो कुछ भी जगत में सुन्दरता दिखाई पड़ती है, वही मालिक की दया और सुरत के अंश से है. जो जीव पर मालिक की दया न हो तो सुन्दरता भी, काल अंश मन के वसीले से कुरूप ही दिखेगी. और, कुरूपता और विक्रति भली मालूम देती है. इस तरह सुरत पर जगत में माया की इतनी तहे जम गई है कि, जगत में सुरत का स्वरुप अति कठोर हो गया है और उतार निरंतर नीचे की ओर जारी है. तो जब तक जीव अंतर की दिशा में यात्रा न करेगा और ऊपर न उठेगा, तो अंत निश्चित ही रसातल ही है. 

जो जीव चेते और इस भारी बोझ से छुटकारा पाना चाहे तो उसे अवश्य है की, जो उपदेश, वचन और हिदायत सतगुरु फरमाते है, उन्हें पूरे ध्यान से सुने और अपनाए तभी उसके हिये का सिंगार होगा.

“ गुरु के वचन मेरे हिये सिंगारी ” ... 

इस शरीर का हिया (चित) – अंतःकरण है पर वहां तो घोर अँधेरा छाया हुआ है और भारी शोर मचा हुआ है. जीव जब सतगुरु के वचन, हिदायते और शब्द को अंतर से ग्रहण करता है, जो कि सुरत का हिया है तब सुरत तीसरे तिल पर पहुँच कर, शब्द-डोर को साध पाने के योग्य बन पाती है, यही सुरत का वास्तविक और सच्चा श्रिंगार है और तीसरा हिया त्रिकुटी में है.

बानी में कहा है –

हिया त्रिकुटी मांही – यहाँ पहुँच कर सुरत, काल के पंजो यानी भय व भ्रमों से मुक्त हो कर और हर विकार से रहित हो कर खालिस, शुद्ध और शफ्फ़ाफ़ हो जाती है.

शीश महल सम निर्मल जान – इस तरह पूर्ण सिंगार हो कर सुरत जब सत्तलोक में पहुंचेगी तब सत् पुरुष उसे स्वीकार करता है और सुरत सत् पुरुष संग ब्याह कर सुहागिन बनती है. यही सुरत-प्यारी है.

गुरु स्वरुप दिन रैन सम्हारी – त्रिकुटी पर सुरत को सतगुरु के साकार रूप के दर्शन होते है और सत्तलोक में सतगुरु के स्वरुप का वासा है.

गुरु का संग कर छिन छिन प्यारी – सतगुरु के स्वरुप का ध्यान, हर पल - हर छिन और हर सुलभ अवसर पर संग-साथ करते रहना चाहिए. सतगुरु के रूप से बेशक दूरी हो पर संग – नाम, स्वरुप और शब्द के ध्यान के द्वारा होता है. जिसका शब्द खुल गया वह तो विरला है, फिर चाहें नाम वर्णात्मक ही हो पर स्वरुप का ध्यान हर वक़्त हिय में बसा रहना चाहिए. जब हम ज़रूरी कामों में लगे होते है तब भी नाम के भास् में तो बने ही रह सकते हैं. नाम का ऐसा अभ्यास हो कि सोते वक़्त भी अंतर से न बिसरे.

जीव का मन तो चोरों के साथ मिला है, और चोर हैं की नौ द्वारों से जीव की हर पूँजी चुराय लिए जा रहे हैं. तो जब भाग से संत मिल जायं और भक्ति की कमाई से नाम की प्राप्ति हो तब संत ही संतरी बन कर जीव की आत्मिक कमाई की रक्षा करते हैं, तब सुरत की कमाई में कोई कमी नहीं आती और वोह घट-भीतर दौड़ी चली जाती है और लगाम सतगुरु के हाथों में होती है.

- घुड़ दौड़ करूँ मै घाट में .

मुझे मिले सिपाही संत री ..

राधास्वामी जी 

राधास्वामी हेरिटेज 

संतमत विश्वविध्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित .

APRIL 22


Radha Soami Heritage updated his status.

अंतर्यात्रा ..... ५ 


इस जगत में सुरत सब भूल गई है, अपना देश, कुल और वंश भी भूल गई है. विकारों में लालायित और भ्रमित भटक रही है. और जगत की तपन में तप तो रही है, पर बचने का कोई जतन नहीं सूझता. तो जीव जो चेता उसे अवश्य है कि मन की सांगत को छोड़ने का प्रयत्न व प्रण करे और उसे निभाय.

वक़्त का यह दौर नाज़ुक है, कहीं बीमारी, कहीं दंगे, फसाद और युद्ध का माहौल है, ऐसे में जीव क्लांत और जीना मुश्किल होता जा रहा है. पर दयाल की मौज है कि सच्चा सत्संगी मौज से जीता है, यही राधास्वामी दयाल की दया और मैहर है.

“भूल भरम को दूर निकारो, प्रेम चरण में लाओ री.”

सुरत अपना कुल, वंश और देश भूल गयी है, यह भुलावा काल की तरफ से फैलाया हुआ है और माया ने अपने नश्वर भोगों में जीव को फंसाया हुआ है, सो यही भरम है. तो जब जीव मन की संगत से दूर होगा तब ही वह चेतेगा और उसे अपना देश, कुल और वंश याद आएगा. इस तरह सुरत पर से भरम और भूल के सभी परदे हट जायेंगे और सुरत अपने निज माता-पिता – राधास्वामी दयाल के चरणों में लीन हो जायेगी.

अभी तो हाल यह है की माया के भोग सामने आते ही मन मोम की भांति पिघलने लगता है और इच्छाए बलवती हो उठती है. इसलिए ज़रूरी है की पहले अपनी आदतों में बदलाव लाने का प्रयत्न किया जाय, इसमें तकलीफ तो होगी पर जब आदतों में एक बार बदलाव आ जाय तब द्रढ़ता के सथ प्रण कर ले कि अब न फिरूंगा. इस तरह दया-मेहर से फिर माया की कोई घात न चलेगी, पर पीछा तो देर से ही छूटेगा . 

संसार तो जल रहा है और चल भी रहा है. सभी तप रहे है और काल ताप रहा है. रेत-रेत कर मारता है. जीव इस तकलीफ को तो बर्दाश्त करता जाता है पर यदि कहो कि कुछ यात्रा अंतर की कर लो, जहाँ छाँव, शांति और सुकून है, तो जरा सी लौव अंतर की बर्दाश्त नहीं होती. पर जो लगा रहा तो दया और मौज से एक दिन ज़रूर पहुंचेगा. यही मेहर है.

जब तीसरे तिल पर पहुंचेगा तब संसार की तपिश कम व्यापेगी. पर अभी परदे पड़े है, मन मोटा है, इसलिए संसार की तपिश महसूस नहीं होती. पर जब परदे हट जायेंगे तब संसार का दावानल स्पष्ट दिखलाई देने लगेगा.

तो क्या है यह दावानल ? 

पहले काम यानि कामनाएं जागती है. पर जब मुश्किल आती है और कामनाए पूरी नहीं हो पाती तब क्रोध पैदा होता है, फिर जब क्रोध का नशा चढ़ता है, तो यही मद है. अपने ज़रा से फायदे के लिए दूसरों को भारी तकलीफ में डालना, लालच के वश नीच से नीच कर्मों में लिप्त हो जाना, यही मन की विशेषता है.

तो एक सत्संगी को अवश्य है कि सदा अपने प्रण पर द्रढ़ रहने का प्रयत्न करता रहे और मात्र अपने कर्तव्यों एवं दायित्वों का पालन करता रहे, इस तरह जीव कर्मों के बोझ से बच जाता है.

राधास्वामी सदा सहाय .

राधास्वामी जी 

राधास्वामी हेरिटेज 

संतमत विश्वविध्यालय की स्थापना के प्रति समर्पित .

APRIL 21


Radha Soami Heritage updated his status.

अंतर्यात्रा ..... ४ 

संतमत में सुरत-शब्द अभ्यास की ही महिमा बताई गयी है, अन्य किसी भी अभ्यास से तन व मन स्थिर नहि हो सकते. तो जब तक तन और मन स्थिर न होंगे, जीव में दीनता नही आ सकती, दीनता ही प्रेम और लगन है.

अंतर में भारी ताकत जारी है, इसी ताकत से तन और मन काम करते है. जवानी में भारी जोश होता है, लगता है की ताकत का अथाह भंडार है. इसमें तो कोई शक नही कि सुरत की जिस ताकत से तन और मन ताकत पाते है वो तो अथाह ही है. पर सामान्य रूप से तन और मन में सुरत की सामर्थ एक अनुपात के अनुसार ही आती है. और इससे अधिक, जिससे की तन, मन और इंद्री के घाटों पर, जिससे की तन-मन भोगों का रस लेते है, नहीं आती है. यदि इस अनुपात से अधिक आ जय तो अन्तःकरण 

के स्तर पर भरी तोड़-फोड़ हो जाय. यह ताकत समय और अवस्था के अनुसार और जीव जो देह धारण करता है या की जिस योनी में जनम लेता है, उसी के अनुसार जारी होती है. बाल अवस्था में यह अनुपात कुछ होता है, जवानी में वेग 

कुछ होता है, और बूढ़ा होने पर दूसरो का मोहताज हो जाता है, तो इस तरह की उदासीनता का कोई अर्थ नहीं, यह दैहिक थकावट ही है और कुदरत की व्यवस्था के अनुसार होता रहता है, अक्सर देखा जाता है की घर, कुटुंब के तनावों या गर घर वाली से न बनी या परिवार की जिम्मेदारी न उठा पाय या किसी अपराध की सजा से बचने के लिए कपड़े रंग लिए, कंठी-माला पहन ली और हर कर्त्तव्य और दायित्व से विमुख हो कर खुद को साधू बता दिया, जब की भीतर लालसाओं और कामनाओं का जोर न छूटा, ये तो मात्र उदासीनता का दिखावा ही है, समाज ऐसे रंगे सियारों से भरा है, तभी तो खुद को साधू कहलवाने वाले चुनाव के सीजन में लोक सभा और विधान सभा में पहुँच जाते है. क्या वहां सत्संग या प्रवचन करते है ? इसका आत्मिक उद्धार से कोई लेना-देना नहीं . 

सुरत-शब्द के अतिरिक्त और जो भी अभ्यास है, उनसे मन की ही ताकते जागती है.

जब सुरत तीसरे टिल के ऊपर शब्द के घोर को सुनती है, तब ही मन में जगत के प्रति उदासीनता आती है, मन गलता है और आशा-तृष्णा का नाश होता है.

जब से अनहद घोर सुनी .

इंद्री थकित गलित मन हुआ , 

आसा सकल भुनी .

इस तरह मन में दीनता आती है और वह स्वयं को तिनके से भी कम आंकता है. तो जो राधास्वामी दयाल की सरन में आ कर और उनके बल का सहारा ले कर सत्य पथ पर बढ़ते हैं, उनको दयाल अपनी दया से अवश्य ही एक दिन दीनता बख्शते हैं.

राधास्वामी दयाल की दया, राधास्वामी सदा सही.

राधास्वामी जी

राधास्वामी हेरिटेज

APRIL 20


Radha Soami Heritage updated his status.

अंतर्यात्रा ..... ३ .

प्रीत का भाव शुद्ध और प्रभाव भारी है, इस जगत में जीव जो भी सुख का अनुभव करता है, उसका कारन प्रीत ही है. देखा जाय तो इस जीवन का कारन ही प्रीत है, इस तरह जीवन ही प्रीत है. पर नश्वर है. पिंड देश का हर सुख क्षण भंगुर ही है. ब्रह्मांडीय स्तर का सुख बहुत भारी है, पर महा-प्रलय या की मलय के वक़्त ब्रह्म-सृष्टि का भी लय हो जाता है. सभी सुखों की यही अंतिम सीमा है. तो यदि सुरत, अजर, अमर और अविनाशी पुरुष से प्रीत करे तो वोह भी सदा के लिए अजर, अमर और अनंत आनंद की भागी हो जाय. 

इस जगत में जहाँ कहीं भी और जो भी सुख है, वह प्रीत से ही है. जीव जो कुछ भी कर्ता है वो प्रीत वश ही करता है. ज्ञान इन्द्रियों के माध्यम से जहाँ भी ध्यान जाता है – जैसे, आँख से देखने का सुख, नाक से खुशबू का सुख आदि सब प्रीत वश ही तो है. ऊपरी मंडलों का जो सुख व आनंद है वह भी प्रीत के ही वश है. जीव जिस स्तर की प्रीत करता है, उसी स्तर के सुख व आनंद को प्राप्त करता है. और उसके मिलने की आशा में जो इंतज़ार है उसमे भी अपना एक अलग ही सुख है. 

इस म्रत्यु लोक, ब्रह्मा-विष्णु-शिव लोक और ब्रह्म सृष्टि, सभी की अवधि निर्धारित है, सभी काल के बंधन में है, अंततः काल इन्हें लील ही लेता है. तब भला इनके सुखों का क्या मोल ? यानि जगत और ब्रह्मांड के सभी सुख अंततः नाशमान ही है. देह और इन्द्रियां जिनसे कि जीव जगत का रस और सुख पाता है, ये भी एक दिन थक कर मिट जाती है पर “सुरत” अविनाशी है. सुरत का जगत में कभी लय नहीं होता. जगत में सुरत, काल और माया के बन्धनों में फंसी है, पर जो चेत गई तो हर बंधन से मुक्त है. 

उपलब्धि का ह्रास ही दुःख है. काल जब देह को खता है और व्र्द्धावस्था में जब इन्द्रियों में रस लेने की सामर्थ भी नही रह जाती, तब त्रष्णा और बढ़ जाती है. सुरत तो मूल तत्व, कुल का सार और अजर-अमर है जैसे फूल में खुशबू , काष्ठ में अग्नि, ऐसे ही सुरत सभी में जान रूप है. अगर वह उस अजर, अमर और अविनाशी पुरुष से, जिसकी कि वह अंश है, प्रीत करे तो यह प्रीत हमेशा कायम रह सकती है. और हमेशा बढ़ती रह सकती है. इसमें कभी कोई कमी नही आ सकती, जो यदि प्रीत सच्ची है तो. मतलब यह कि, चाहे कोई भी तकलीफ क्यों न उठानी पड़े या कैसी ही परिस्थितियां क्यों न हों पर “शब्द-डोर” कभी न छूटे, उसमे रस आये और बढ़ता ही जाय. 

समझदार और सयाना वही मनुष्य है जो जगत के हर हाल और प्रभाव को परख कर और विचार व निर्णय के सथ सुरत के द्वारा उस अजर, अमर और अविनाशी पुरुष से प्रीत करे जिसका कभी ह्रास न होगा. यही निर्वियोग-योग, सच्चा मिलाप और लीनता है. जिसे प्राप्त हो कर एक संत सुरत पूर्ण होती है.

- राधा आदि सुरत का नाम, 

स्वामी शब्द निज धाम.

सुरत शब्द और राधा स्वामी

दोनों नाम एक कर जानी.

राधास्वामी-राधास्वामी.

सुरत में बड़ा भारी आकर्षण है, यहाँ जगत में उसी की धार स्तर दर स्तर समाई हुई है और काम कर रही है. 

सुरत अनमोल है, तन – मन मूल्यवान है. जब मन को कोई स्वाद चाहिए होता है तब वह तन को बा ज़बर उठा कर वहां ले जाता है और धन से वो स्वाद प्राप्त कर लेता है. यह सब बाजारू प्रीत है, मन जिसका मोल चुकता और स्वाद लेता रहता है, पर जब तन, मन और धन चुक जाता है तब जो शेष रहता है वही “सुरत” है. इसका मेल जगत से नही पर “शब्द” से होगा. 

तन, मन, धन से जो प्रीत है, उसे धीरे-धीरे गुरु से प्रीत में बदल कर , संसारी प्रीत जिसमे सुरत फसी हुई है, जैसे भी बन सके निकल आये तो सुरत के घाट पर चैतन्य का एक स्तर और बढ़ जायगा, होते-होते यह समूह बन जायगा तो उसमे कितना भारी आकर्षण होगा और एक दिन यह मालिक तक पहुंचा कर ही रहेगा. पर मुश्किल यह है कि, जीव से जगत की प्रीत छोड़ी नही जाती. लेकिन जब गुरु से प्रीत लग गई और तन, मन, धन की मालिक के घर गुज़र है नहीं, तो यह सब सतगुरु पर न्योछावर कर के फेंक दिए जाते है. सतगुरु से प्रीत – जगत से न्यारी है.

- मोटे बंधन जगत के, गुरु भक्ति से काट.

झीने बंधन चित्त के कटें नाम परताप.

जगत के मोटे बंधन तो सतगुरु प्रीत से ही कटेंगे, उनके कटने का और कोई उपाय नहीं है. झीने जो बंधन है वे बाद में नाम के प्रताप से कटेंगे. इन्ही झीने बन्धनों से मोटे बंधन पैदा होते है.

• संत सतगुरु वक़्त से, यदि वे प्रकट रूप से हों, उनके मिल जाने पर और यदि विराजमान न हों तो साध गुरु के सत्संग से ही, जीव में भक्ति का बीज पड़ता है. जो समझता है कि उसे कुछ न मिला, यह भूल है. बीजा कभी बेकार नहीं जाता. मुख्य तो प्रीत का न पैद बीज ही है, जिसकी दात तो सतगुरु की दया से ही मिलेगी.

अंतःकरण के स्तर पर जो चैतन्य राई सा मालूम देता है, आगे बढ़ने पर वही पहाड़ बन जाता है. सुरत जब दसवें द्वार पर पहुंचेगी तब असीम आनंद को प्राप्त होगी.

- एक जनम गुरु भक्ति कर, जनम दुसरे नाम.

जनम तीसरे मुक्ति पद, चौथे में निज धाम.

राधास्वामी दयाल की दया, राधास्वामी सदा सहाय.

APRIL 19


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अंतर्यात्रा ..... २ 


चैतन्य पूँजी – राधास्वामी नाम.

जीव जितनी चैतन्य शक्ति ले कर जगत में आता है, वही उसकी पूँजी है. और इसी के अनुसार जीव, मनुष्य चोले में बैठ कर, अंतःकरण के घाट से जगत की सभी कार्यवाही कर रहा है. अंतःकरण का प्रभाव क्षेत्र बहुत विस्तृत है, और जीव अपनी इसी चैतन्य पूंजी के अनुसार, इसके ओर और छोर यानि सबसे ऊंचे और सबसे निचले स्तरों के बीच कहीं पर ठहराव पाता है. जीवन काल में यह चैतन्यता, कर्मो के वेग और प्रारब्ध कर्म आदि में लगातार खर्च होती रहती है. जितनी ज्यादा खर्च होती है, उतनी ही कमी आती जाती है.

यदि इस चैतन्य पूँजी को स्थिर रखने का प्रयास किया जाय और संभाल की जाय, पर इसकी बढ़होतरी या की व्रद्धी का उपाय न किया जाय, तो मनुष्य चोला तो अन्य मतों के अनुसार शुभ कर्म कर के भी दुबारा प्राप्त किया जा सकता है, पर पुनर्जन्म चक्र से मुक्ति नही हो सकती. तो यह असल परमार्थ नही है. इस तरह तो यह जनम जुए में हार देने के सामान है, और यदि पूंजी कम हो गयी तो जीव नर से पशु योनी में भी जा सकता है. असल परमार्थ तो यह है कि जीव जन्म – मरन के चक्र से ही छूट जाय.

संतो के सानिध्य और उनकी हिदायतों पर अमल करके, अंतर में बा-होश जाने से ही जीव चौरासी के फेर से छूट सकता है. यम की त्रास और लेखा मिट जाता है और काल से नाता टूट जाता है. सिर्फ शेष कर्म ही इतने शेष रह जाने चाहिए कि नर चोला मिले और कर्म कट जाएं, क्यूंकि अंतर की कमाई के लिए तो नर देह ही निर्धारित है.

उन जीवो को भी जो संतो के सानिध्य में तो आय, पर भाव न ला सके, उनके भी उद्धार का मार्ग संतो ने दया से जारी किया है. चाहे वे सत्संग में फ़ौरन न भी लगाय ज सके, पर उन सभी के भाग बढ़ जाते है और किसी स्तर के सत्संग में देर सबेर लग ही जाते है. संतो को मालिक ने, जीव की सुरत को प्रलय और मलय से एक घाट ऊपर उठाने की दात बक्शी है, जो संतो की दया पर निर्भर होती है. 

स्वतः संत और जागे संत का चेता सदा ऊपर के घाट पर ही रहता है, पर उनके भास् से नीचे के सभी घाट चक्र रोशन रहते है. और उससे नर देह में रहते हुए, अंतःकरण के घाट पर सभी काम स्वतः ही पूर्ण होते रहते है. और अति आवश्यक स्थिति में उस चेत से जो ऊपर के घाट पर जागता है, मदद लेते है. अगर वे अपने चेते के साथ नीचे के घाटों पर आ भी जाएं तो ये देह उसी क्षण ढेर हो जाय, इन्द्रियाँ दरक जाएं और शिराएं फट जाएं. और अंतर, चैतन्य के नूर में समा जाय. संतो का भास् ऐसे काम करता है जैसे मैग्नीफाइन ग्लास से सूरज की किरणों को इकट्ठा कर के कागज़ में आग लग जाती है, दूसरी ओर साधारण जीवो की स्थिति एक लैंप या दिए की तरह है, जिसकी रोशनी जमा करने से कभी आग नहीं लगती और जहाँ ज़रुरत होती है उसे उठा कर वहां ले जाते है. 

ये नर चोला धारण कर के जीव जब अंतःकरण के घाट पर बैठ कर, इन्द्रियों और देह के माध्यम से कार्यवाही कर्ता है, तब जितनी भी कामनाए है, सभी जाग उठती है. पर विकारी अंग से दूर रहना ही चाहिए. अक्सर संतों ने अल्पच्छ नाम के एक पक्षी का ज़िक्र किया है, जो की आकाश में ही अंडा देता और उसे सेह भी लेता है और भूमि पर पहुँचने से पहले ही अंडे में से बच्चा निकल कर वापस आकाश में उड़ जाता है. तो जीव को आवश्यक है कि ऐसे ही विकारी अंग से बच कर, इन्द्रियों या देहिक स्तर पर विकार के प्रकट होने से पूर्व ही, अंतर की ओर लौट पड़े. 

राधास्वामी मत में सतगुरु वक़्त की ही महिमा बतलाई गई है. तो जिसने भी साध-संत को एक बार भी प्रीत की नज़र से देखा और ऎसी द्रष्टी से छिन भर के लिए भी उनके शब्द स्वरुप को जाना और उस पर ठहरा, तो उसी का काम बन गया. जो एक छिन के लिए भी जीव ने शब्द में रस को पा लिया तो उसका जनम सुफल हो गया. क्यूंकि जहाँ तक उसकी सुरत अंतर में एक बार भी सचेत पहुंची तो वहां तक वो ज़रूर ही पहुंचाया जायगा. जो एक बार भी सुरत उठी और शब्द में रस को पा लिया तो, फिर काल और यम के बस में नही रहती. इस तरह जो प्रीत सतगुरु में लगी तो कल्प का काम अल्प में हो जाता है. और जीव पर उद्धार की मोहर लग जाती है – अब वह सुरत है . पर सतगुरु वक़्त, सच्चा और पूरा चाहिए.

सच तो यह है की दयाल सतगुरु रूप धर नर देह में आप ही आते है और आप ही उद्धार करते है, पर जिस पर ऐसी द्रष्टि डाली की वह ठहर गई तो वही गुरमुख है. गुरमुख की बढ़ाई भला कौन कर सकता है.

बड़े-बड़े उभरे उस संगा,

गुरमुख है इन सब से चंगा.

- वह हर दशा और दिशा में मगन रहता है, मालिक की मौज में राजी.

पर जिसकी ऐसी द्रष्टि नही है वह अभी उम्मीदवार ही है, इससे भला क्या लाभ की पहले तो अपने भौतिक कामो को महत्त्व दिया और फिर जब कुछ समय मिला तो उसे काटने सत्संग में आ बैठे. पर ये भी बे मतलब नही, पर इनकी स्थिति बस इतनी ही है की जैसे एक चिंगारी जली और अगले ही पल राख में दब गई. 

राधास्वामी नाम और राधास्वामी मत एक ही है . और यही संतो का मत, संतमत है. बहुत से लोग है जो की सतनाम की टेक बांध कर, राधास्वामी नाम को मात्र रस्मी तौर पर इस्तेमाल कर रहे है. यह तो ठीक है की जो सत्तलोक तक पहुंचा वह जनम-मरण से न्यारा हुआ, पर पूरा उद्धार न हुआ, सत्तलोक तक ही रहा आगे न बढ़ सका. जब तक राधास्वामी दयाल ने स्वयं नर देह में गुरु रूप धारण कर के धुर धाम राधास्वामी का भेद न खोला, सभी सुरतो का बस यही ठिकान था. पर जब अलख, अगम के परदे उठा दिए तो मकसद यही था कि, सुरत का अब पूरा और मुकम्मल उद्धार ही मंज़ूर है, अधूरा नही. यही सच्ची और पूरी मुक्ति है, वर्ना तो बात अधूरी है. 

तो जब राधास्वामी नाम मालूम होगा तब क्या सतनाम न मालूम होगा ? तो जिसने राधास्वामी नाम को समझा , उसने सतनाम भी समझ लिया. पर जिसने सतनाम की टेक बांध ली , उसे राधास्वामी नाम न मिला. अलख और अगम को लांघे बिना कोई भी राधास्वामी नाम तक नही पहुँच सकता. 

- इन तीनो में मेरा रूप, 

यहाँ से उतरी कला अनूप.

पञ्च शब्द और सतनाम घोटने से कभी राधास्वामी नाम और धाम नही मिल सकता. राधास्वामी दयाल का ईष्ट पक्का किये बिना और अलख, अगम को साधे बिना अब की गई हर कार्यवाही अधूरी है, इससे कभी सच्चा और पूरा उद्धार न होगा.

- राधास्वामी नाम जो गावे सोई तरे, काल क्लेश सब नाश सुख पावे सब दुःख हरे.

APRIL 18


Radha Soami Heritage updated his status.

अंतर्यात्रा .......

एक प्रयास है गूढ़ता को सरलता से समझने और समझाने का. पाता हूँ कि, जीव तो जिज्ञासु है, पाना भी चाहता है, उपलब्द्ध भी है पर उस रूप में नही, उस भाषा और शैली मै नही, जिसे आज के समय की पीढ़ी समझ सके, तब भला आत्मसात कैसे कर पायगी ? तो पाता हूँ कि अधिकतर बच्चे संतमत को एक टैग की तरह इस्तेमाल कर रहे है, एक फैशन सा बनता जा रहा है, लोग एक-दूसरे की देखा-देखी दौड़े जा रहे है और भीढ़ बढ़ती ही जा रही है.

तो जरा ठहरो ..., रुको . और पूछो अपने भीतर जा कर, खुद से, कि तुम्हे आखिर चाहिए क्या ? किसे ख़ोज रहे हो तुम और किसे पाना चाहते हो ?

जीव को काल के भारी जाल में फसा, भ्रमित और भयभीत पाया, जो यह भी नही जानता कि आखिर उसका भय और भ्रम है क्या ?

हालात देखता हूँ कि छह दिन तो काल और माया के न जाने किन-किन रूपों के आगे माथे पटकता है और सातवे दिन सत्संग दौड़ा चला जाता है, पर हालात है कि जस के तस.

क्यों नही आ पाता वह बदलाव जो बाक़ी के छह दिन भी टिका रह सके ? पाया कि कुछ कहने की कमी , कुछ सुनने की और फिर कुछ समझने की.

“ अंतर्यात्रा ” लेख माला बस एक प्रयास मात्र है, कुछ कहने का, कुछ सुनने का और कुछ-कुछ समझने का. मालिक की दया मेहर नादान के इस प्रयास को पूरा करे. जो मालिक की मौज से संतमत विश्वविद्यालय के रूप में सामने आने को द्ढ़संकल्पित है.

राधास्वामी सदा सहाय ..... राधास्वामी जी .


अंतर्यात्रा ... १.


सुरत यानी शुभ में रत.

प्रेम, इश्क और वफ़ा ये वो गुण है जो मालिक हर सुरत में स्वतः ही पैदा कर देता है. तो एक सुरत को आवश्यक है कि, मालिक की मौज में सदा राजी रहे और चेतन रहे और मालिक को भी यही मंजूर और मौज है कि चेता कभी अचेत अवस्था में न रहे.

सुरत उस मालिक कुल की अंश है जो स्वयं में आनंदमय, चैतन्य और प्रेमस्वरूप है. तो हर चेते हुए के लिए यही मालिक कुल की बंदगी और इबादत है कि वो सदा चैतन्य और आनंदमय रहे, प्रेम स्वतः ही उसके व्यवहार में प्रकट हो जायगा. इस तरह मालिक भी आनंदमय और सुरत भी आनंदमय – यही मालिक को मंजूर है.

पर जीव और मालिक के बीच कुछ परदे पड़े हुए है. अगर ये परदे दूर हो जाएँ तो कोई फर्क न रहे, सुरत का आनंद – मालिक के आनंद में लीन हो जाय और सुरत – मालिक में.

इन्ही पर्दों की वजह से जीव में अशांति, अतृप्ति और बेहोशी आ गयी है और इन्ही पर्दों को दूर करने के लिए सुरत जगत में भेजी गयी है. चेत कभी अचेत रह ही नही सकता इसका चैतन्य रहना ही आनंद है और पर्दों में रहना ही दुःख है. 

सुरत स्वयं में सदा चैतन्य ही है, माया की जड़ता के कारण ही थकती और नींद में है. वरना वो कभी न सोए. जब तक मालिक के सानिध्य में सूरते, उसके प्रभाव में सचेत हो कर, मालिक के आनंद में आनंदमय रही, तब तक किसी रचनात्मक कार्यवाही की कोई ज़रुरत ही न थी. 

चैतन्य, प्रकाश कुल का है और सदा ऊपर की ओर खिचता है, तो जिस स्तर से सारा प्रकाश ऊपर खिच गया, उस स्तर पर अन्धकार व्याप गया. तब एक अलग किस्म की कार्यवाही की ज़रुरत हुई . इस तरह काल और माया पैदा हुए. 

प्रकाश के ऊपर की ओर खिंचाव की प्रक्रिया में जो चैतन्य ऊपर न खिंच सका और नीचे छूटता गया वह अपने से नीचे के चैतन्य की देह होता गया. इस तरह जो चैतन्य ऊपर खिंच गया वह खुद भी चैतन्य और उसकी देह भी चैतन्य और जो चैतन्य नीचे रहा, उसके भाव यानी गुण में तो कोई कमी नही आई पर भास् यानी प्रभाव में कमी आती गयी. इस तरह प्रकाश के खिंचते-खिंचते अन्धकार हो गया. जहाँ से काल और माया की उत्पत्ति होती है और सूक्ष्म व स्थूल जगत की कार्यवाही शुरू होती है. 

प्रेम, इश्क और वफ़ा – सुरत के खास गुण है और वह सदा चेतन, सत् और आनंदस्वरूप है. जितने भी सुख-दुःख है वो तन और मन के है. सुरत तो सदा चैतन्य गुण ही गाती है पर मन शिकवा-शिकायत करता है, शक-शुबहा करता है, भ्रमित होता और शंका करता है. खुद दोष कर के दूसरो पर मढ़ देता है. जैसे बर्र के छत्ते में खुद ही हाथ डाले और दोष बर्र पर कि उसने काट लिया. अतः सुरत को आवश्यक है की सचेत रहे और मालिक को भी यही मंजूर है कि सुरत कभी अचेत अवस्था में न रहे.

सूक्ष्म और स्थूल जगत की कार्यवाहियों में काल और माया की ताकते पूरी लीनता से लगी हुई है. तो जो सुरते रूहानी रचना के वक़्त चेते में न आ सकी उनको चेते में लाने के लिए, काल और माया के मेले में भेज दिया गया, कि अगर और किसी तरह से न सही तो जगत का तमाशा देख कर ही सही, पर जागती तो रहे, क्यूंकि अगर जागती रहेंगी तो कभी न कभी हित की बात सुन ही लेंगी. पर अगर जागती न रही तो किससे कहें और कौन सुने ? देह में सारी खटपट छह चक्रों की है और मन तो है ही नटखट, ऊपर से माया महा ठगनी .

“ मन तो नटवा नाचे रे ,

माया ठगनी हांसे रे. ” 

जगत में जीव का हाल तो यह है की विकारों की अग्नि में तो आठों पहर जागता रहे, पर यदि प्रेम अंग जगाओ तो कठिन हो जाता है. पर देखा जाय तो यदि जीव में यह विकार भी न जागते तो वह अचेत हो कर अन्धकार में ही रह जाता और कभी भी चेत न पाता. आग लगाने का काम इन्ही से लिया जाता है, क्यूंकि आग लगाने का काम इन्ही जीवो से लिया जाता है, जहाँ आग ही न हो वहां शीतलता कहाँ से आएगी ? इस तरह संत जीव को साधने से पहले जगत से थका देते है. पर इससे यह नही समझ लेना चाहिए की जगत में थकने के नाम पर विकारों में नथने की खुली छूट मिल गयी. यह बात कभी नही भूलनी है की जो कर्म किये है उनका फल भुगते बिना उद्धार का मार्ग कभी न खुलेगा. और जितना यह मन जिद कर के सुख के पीछे भागेगा उतना ही दंड भी कमाता जाएगा. पर मालिक की मौज में राजी रहना और विरूद्ध न जाना ही “दया” में समाए रहना है. पर मन है की विरोध के घाट ही रहना चाहता है, ऐसे नही वैसे – वैसे नही जैसे , बस इन्ही विचारों में फसा कर मन जीव को “दया” से दूर कर देता है.

तो क्या है उचित, और अनुचित ? संतो का मत कहता है कि, वह कर्म पुण्य है जो सुरत के खिचाव को ऊपर की ओर ले जाय, और जिससे उतार नीचे की दिशा में हो, वही पाप कर्म है. निचले घाटों के जीवो को जगाना अवश्य है, यही वह क्रिया है जो संतो का कर्म है, प्रसंगवश कहता हूँ कि, संत न तो कर्म करते हैं और न ही प्रतिक्रिया, उनके हिस्से में सिर्फ क्रिया ही है, जो की वास्तव में दयाल की आज्ञा ही होती है. तो जो एक बार जाग गया वो फिर कभी न सोएगा, मालिक की ऐसी ही दया, मेहर और मौज है. जीव को पहले उतारा गया कि उसे चढ़ाया जा सके और अब, चढ़ाया जाता है. 

पहले जीव पाप की आस करता है, फिर त्रास में तपता है, और तब जग से निरास हो कर मालिक की आस में जागता है.

जब आया तो पाया कि, जगत में तो भीड़ लगी है, मालिक के नाम का उपदेश चाहने वालो का रेला चला आता है, साथ में ठेला और मेला भी, पर हुक्म मानने को कोई तैयार नही. हो भी कैसे, जब देने वाला ही कोई नही. तो, दे तो वही न, जिसके पास हो, यही कारण है कि, पांच नाम के उपदेश के वक़्त, पांचवे नाम के स्तर पर सब डगमगा जाते है और कुछ का कुछ ..... 

तो जब नाम सच्चा न मिला तो धाम भी सच्चा न मिलेगा. देखता हूँ कि मदारी झोली से डमरू निकालता है और नटवा बन्दर नाचता है, डमरू बंद, तो नाच भी बंद. लुटा-पिटा नटवा फिर एक कोने में, दिशा हीन, अगले डमरू के इंतज़ार में. वास्तव में हुक्म मालिक का मांगने और लेने वाला कोई नज़र में नही आता, जिसको हुक्म दिया जाय, सभी बस नाचने में ही मगन है. दरअसल हम सभी मन के घाट पर बैठे है. जो वास्तव में “संत सत्गुरु” प्रगट हो, तो वो भी जीव को उसके भौतिक बन्धनों और आत्मिक स्थिति के अनुसार ही उपदेश करते है, आम तौर से सीधे हुक्म नही थमा देते. जीव की हालत , जगत में इस कदर बिगड़ चुकी है कि माया की मिलावट तो उसे भली लगती है, पर सत् को सच में सह पाना उसे कठिन हो जाता है. रसातल में रस मालूम पड़ता है और हितकारी – बैरी .....

राधास्वामी सदा सहाय .....

राधास्वामी जी .

राधास्वामी हैरिटेज 

- संतमत विश्वविद्द्यालय की स्थापना के

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