गुरुवार, 31 मार्च 2022

सम्वत्सर के वर्षो का नाम

 पिछले लेख में इस बात की चर्चा थी कि भारतीय परंपरा में वर्षों का निरूपण संख्या के साथ साथ नाम से भी होता है, और न सिर्फ निरूपण होता है अपितु  व्यवहारिक प्रयोग भी होता है। संकल्प मंत्र - जिसका प्रयोग प्रत्येक धार्मिक अनुष्ठान से पहले किया जाता है उसमें वर्ष की संख्या नहीं वर्ष का नाम लिया जाता है। बहुत से मित्रों का निवेदन है कि इन वर्षों के नाम भी बताए जाएं। इसीलिए आज की पोस्ट सम्वत्सर के वर्षों के नामों की चर्चा से प्रारंभ करते हैं । वर्षों के नाम और उनकी बोधक संख्या इस प्रकार है - 


बार्हस्पत्य वर्ष को फल की दृष्टि से ५-५ वर्ष के १२ युगों में बांटा गया है। अन्य विभाजन है २०-२० वर्षों के ३ खण्ड-ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र विंशतिका।

ब्रह्मा-१. प्रभव, २. विभव, ३ शुक्ल, ४. प्रमोद, ५. प्रजापति, ६. अङ्गिरा, ७. श्रीमुख, ८. भाव, ९. युवा, १०. धाता, ११. ईश्वर, १२. बहुधान्य, १३. प्रमाथी, १४. विक्रम, १५. वृष, १६. चित्रभानु, १७. सुभानु, १८. तारण, १९. पार्थिव, २०. व्यय। विष्णु-२१. सर्वजित्, २२. सर्वधारी, २३. विरोही, २४. विकृत, २५. खर, २६. नन्दन, २७. विजय, २८. जय, २९. मन्मथ, ३०. दुर्मुख, ३१. हेमलम्ब, ३२. विलम्ब, ३३. विकारी, ३४. शर्वरी, ३५. प्लव, ३६. शुभकृत्, ३७. शोभन, ३८.  क्रोधी, ३९. विश्वावसु, ४०. पराभव, रुद्र-४१. प्लवङ्ग, ४२. कीलक, ४३. सौम्य, ४४. साधारण, ४५. विरोधकृत्, ४६. परिधावी, ४७. प्रमादी, ४८. आनन्द, ४९. राक्षस, ५०. अनल, ५१. पिङ्गल, ५२. कालयुक्त, ५३. सिद्धार्थ, ५४. रौद्र, ५५. दुर्मति, ५६. दुन्दुभि, ५७. रुधिरोद्गारी, ५८. रक्ताक्ष, ५९. क्रोधन, ६०. क्षय।  


कभी ५ वर्ष का एक युग होता था, ६० महीनों का (वेदाङ्ग ज्यौतिष)। जब आप शताब्दियों की परास में कालचक्र का प्रेक्षण करना चाहते हैं तो बड़ी इकाई की भी आवश्यकता पड़ती है। जितनी बड़ी संख्या, त्रुटि की सम्भावना उतनी ही अल्प। 

धरा के १२ माह १२ आदित्यों से जोड़ कर देखे जाते थे, सूर्य नमस्कार मन्त्रों का ध्यान करें। सूर्य के आभासी वार्षिक पथ को १२ आदित्यों में बाँट कर देखा जाता। यह पाया गया कि गुरु ग्रह लगभग एक वर्ष में एक आदित्य की दूरी पूरी करता है। अर्थात् १२ वर्षों में पूरा चक्र। अर्थात् यदि एक पृथ्वी वर्ष को महामास मानें तो महावर्ष हुआ १२ पृथ्वी वर्ष और ऐसे ५ महावर्षों का हुआ एक महायुग (कलि, द्वापर आदि को इसमें न लायें, यह भिन्न बीज वाला गणित है।) १२×५ = ६० वर्षों के संवत्सर चक्र का यही रहस्य है। सबको भिन्न भिन्न नाम दिये गये और एक चक्र पूरा होने पर पुन: उन्हीं नामों का दूसरा चक्र आरम्भ होता। लेखा जोखा व गणना हेतु बड़ी परास मिल गयी। 

किन्तु प्रकृति व पूर्णाङ्क में बैर है। गुरु एक आदित्य से दूसरे के घर  ~३६५.२५ दिनों में न जा कर ~३६१.०३ दिनों में ही पहुँच जाते हैं। आप जानते ही हैं कि चान्द्रवर्ष अर्थात चन्द्रकलाओं वाले २९.५ दिनों के १२ मासों का वर्ष मात्र ३५४ दिनों का होता है तथा लगभग प्रत्येक ८ वर्ष में ३ मलमास लगा कर उसे सौरवर्ष के निकट लाया जाता है, जिसके परिणामस्वरूप प्रत्येक १९वें वर्ष सौर दिनांक व चान्द्रमास तिथि सम्पाती हो जाते हैं। 

अर्थात् जो हमारा सौर-चान्द्र समन्वित वर्ष है, उसे लम्बी परास में सौर वर्ष माना जा सकता है। 

अब देखिये कि किसी वर्ष प्रतिपदा को आपका वर्ष और बार्हस्पत्य संवत्सर एक साथ आरम्भ हुये, परन्तु बार्हस्पत्य संवत्सर का अन्त वर्षान्त से ४.२३ दिन पहले ही हो गया। अगले वर्ष यह अन्तर हो जायेगा २×४.२३ दिन, उसके अगले वर्ष ३×४.२३ दिन... इसी प्रकार यह अन्तर बढ़ता जायेगा और लगभग ८५ या ८६ वर्षों पश्चात ऐसा होगा कि पीछे घटता नया संवत्सर नये वर्ष का स्पर्श ही नहीं कर पायेगा। ऐसा होने पर उसका लोप माना जाता है क्योकि नववर्ष लगने पर उससे आगे वाले संवत्सर का क्रम आ जाता है। चक्र ऐसे ही चलता रहता है।

एक अपर बात। 

६० संवत्सरों को २०-२० कर ब्रह्मा, विष्णु व रुद्र की ३ 'बीसियों' में बाँटा गया है। प्लवङ्ग से ही रुद्र की बीसी चल रही है (विक्रम २०७१, 2014-15 CE) से। रुद्र की बीसी को सामान्यतया ज्योतिषी विनाशी ही बताते हैं किन्तु संहार से निर्माण भी जुड़ा है। केन्द्र में दशक पश्चात हुये सत्ता परिवर्तन को देखें। विष्णु की बीसी में तो वेटिकनी मौनी राज था। उससे तो अच्छा ही है। 

दक्षिण भारत ने लगभग १२०० वर्ष पूर्व आर्यसिद्धान्त को अपनाया और बार्हस्पत्य संवत्सर चक्र से लोप प्रक्रिया का त्याग कर दिया। परिणामत: उनके संवत्सर नाम की संगति उत्तर के सूर्यसिद्धान्तीय पद्धति से नहीं बैठती।


यह भी है कि यदि वह आरम्भ बिन्दु जब बार्हस्पत्य संवत्सर एवं सौर-चांद्र वर्ष सम्पाती माने गये किसी पद्धति में भिन्न हुआ तो उसमें लोप हुआ संवत्सर आनन्द से भिन्न होगा।  


पुनश्च:


१९ वर्षीय सम्पात की बात की न! १९×५ = ९५ वर्षों का एक अन्य युग वैदिक याज्ञिक परम्परा में प्रयुक्त होता था। श्येनवेदी अर्थात पंख पसारे गरुळ की आकृति वाली महावेदी जोकि संवत्सर चक्र की रेखागणितीय प्रारूप होती, उसमें ९५ की संख्या भी मह्त्वपूर्ण थी। अपने आप में बहुत रोचक है जिसका सैद्धान्तिक ज्यौतिष से कोई सम्बन्ध नहीं।

✍🏻सनातन कालयात्री श्री गिरिजेश राव


दो प्रकार के बार्हस्पत्य संवत्सर हैं। दक्षिण भारत में पितामह सिद्धान्त के अनुसार सौर वर्ष को ही बार्हस्पत्य संवत्सर मानते हैं। उत्तर भारत में सूर्य सिद्धान्त के अनुसार बृहस्पति की मध्यम गति से एक राशि में चलने का समय बार्हस्पत्य संवत्सर मानते हैं। यह प्रायः ३६१ दिन ४ घण्टे का होता है, या ८५ सौर वर्ष में ८६ बार्हस्पत्य संवत्सर होते हैं। यदि वर्ष आरम्भ के संवत्सर को ही पूरे वर्ष माना जाए तो ८५ सौर वर्ष में एक क्षय संवत्सर होगा।

नव वर्ष आरम्भ-वर्ष गणना की भारत में २ पद्धति हैं। दिनों की क्रमागत गणना के अनुसार दिन (सूर्योदय से आगामी सूर्योदय) तथा सौर मास-वर्ष की गणना को शक कहते हैं। इसमें प्रत्येक सूर्योदय में (या मध्यरात्रि, सूर्यास्त, मध्याह्न) में १ दिन बदल जाता है, अतः गणना में सुविधा होती है। १-१ की गणना कुश द्वारा होती है, हर भाषा में १ का चिह्न कुश है। उनको मिलाने से वह शक्तिशाली होता है अतः उसे शक कहते हैं। 

पूजा या अन्य पर्व (सौर संक्रान्ति को छोड़ कर) चान्द्र तिथि के अनुसार होते हैं क्यों कि यह मन का कारक है-चन्द्रमा मनसो जातः (पुरुष सूक्त)। तिथि निर्णय के लिये शक दिनों के अनुसार तिथि की गणना होती है। १२ चान्द्र मास का वर्ष प्रायः ३५४ दिन का होता है, अतः ३० या ३१ मासों के बाद १ अधिक मास जोड़ते हैं, जिस मास में सूर्य की संक्रान्ति (राशि परिवर्तन नहीं होता है। यह दीर्घ काल में सौर मास वर्ष के अनुसार चलता है, या इसके अनुसार समाज चलता है, अतः इसे सम्वत्सर (सम्+ वत्+ सरति) कहते हैं। 

बार्हस्पत्य संवत्सर २ प्रकार का होता है। गुरु (बृहस्पति) ग्रह १२ वर्ष में सूर्य की १ परिक्रमा करता है। मध्यम गुरु १ राशि जितने समय में पार करता है वह ३६१.०२६७२१ दिन (सूर्य सिद्धान्त, अध्याय १४) का गुरु वर्ष कहा जाता है।  यह सौर वर्ष से ४.२३२ दिन छोटा है। अतः ८५+ ६५/२११ सौर वर्ष में ८६ + ६५/२११ बार्हस्पत्य वर्ष होते हैं। दक्षिण भारत में पैतामह सिद्धान्त के अनुसार सौर वर्ष को ही गुरु वर्ष कहा गया है। रामदीन पण्डित द्वारा संग्रहीत-बृहद्दैवज्ञरञ्जनम्, अध्याय ४


अतः कलि आरम्भ (१७-२-३१०२ ई.पू. उज्जैन मध्य रात्रि) के समय । उसके ६ मास ११ दिन (१८८ दिन बाद, २९.५ दिन का चान्द्र मास) २५-८-३१०२ ई.पू. को जय संवत्सर आरम्भ हुआ तो परीक्षित को राज्य दे कर पाण्डव अभ्युदय के लिये हिमालय गये। इस दिन से युधिष्ठिर जयाभ्युदय शक आरम्भ हुआ। दक्षिण भारत के पितामह सिद्धान्त के अनुसार कलि आरम्भ से प्रमाथी (१३वां) संवत्सर आरम्भ हुआ। इसके १२ वर्ष पूर्व से प्रभव वर्ष का चक्र आरम्भ हुआ था। अतः मेक्सिको के मय पञ्चाङ्ग का आरम्भ १२ वर्ष पूर्व ३११४ ई.पू. से हुआ था। दोनों प्रकार के बार्हस्पत्य वर्ष चक्र ५१०० (८५x ६०) वर्ष में मिल जाते हैं अतः मय पञ्चाङ्ग ५१०० वर्ष का था। 

 अधिकांश पञ्चाङ्ग निर्माता विक्रम संवत् तथा बार्हस्पत्य संवत्सर का अन्तर भूल गये हैं । गणना की कठिनाई के कारण अधिकतर पञ्चाङ्ग पूरे वर्ष यही संवत्सर मान लेते हैं तथा सङ्कल्प में भी यही पढ़ा जाता है। प्रमादी (४७ वां) है, इसे भूल से प्रमाथी लिख देते हैं जो १३ वां है।

✍🏻अरुण उपाध्याय


वर्ष २०७९ में संवत्सर नल है या अनल

विवेचन

आचार्य चन्द्रशेखर शास्त्री 


इस वर्ष 2079 मे संवत्सर का नाम "नल" या "अनल"

इस वर्ष संवत्सर के नाम पर विवाद चल रहा है नल या अन्य विभिन्न पंचांगकारो ने अपने ज्ञानानुसार अथवा फलित  ग्रंथानुसार संवत्सर का नाम निरूपित किया है।

इस तारतम्य प्राचीन ग्रंथो का अवलोकन करने पर पाया जो निम्नानुसार दर्शाया गया है।

संवत्सर का नाम नल

यह सर्वप्रथम सूर्य सिद्धांत मध्यमाधिकार, मांसाहारी, ज्योतिष सार ओर ज्योतिष रत्न  इनका संस्कृत श्लोक दर्शाता है कि "राक्षसोनल:" जिसके अनुसार नल नाम संवत्सर अनल दृष्टिगत होता है।

नारद संहिता, मुहुर्त गणपति, बाल बोध, ज्योतिष समुच्चय, भारतीय काल मीमांसा आदि ग्रंथो मे अनर्गल लिखा है। इसके संस्कृत श्लोक मे "राक्षसों यदि इस संस्कृत शब्द का अन्वय एवं संधि विच्छेद करे तो अनल नाम ही आता है।

इतने ग्रंथो का अवलोकन करने के बाद मात्र यह समझ आया कि इसमे भी विरोधाभास ही है।

लेकिन इतना अध्ययन करने के उपरांत भी मै किसी निष्कर्ष पर नही पहुंच सका कि संवत्सर का नाम इस वर्ष नल रहेगा या अनल रहेगा। कर्मकांडी ब्राह्मण किस नाम का उच्चारण करे या अगर दैनिक  पूजा संकल्प मे किस नाम का उच्चारण करे। 

विद्वानो से मार्गदर्शन की अपेक्षा के साथ।

आदरणीय आचार्य सुनील शर्मा जी की पोस्ट


हमारा प्रत्युत्तर

यह अनल नामक संवत्सर है। जो राक्षस के बाद आता है। जो विद्वान इसका अर्थ नल कर रहे हैं, वे हिंदी अर्थ में विकृत अनुवाद के कारण कर रहे हैं। वास्तव में यह अनल है। २८ वें श्लोक में स्पष्ट है - राक्षसोSनल:।


 यह समस्या वस्तुत: ज्योतिष की नहीं, व्याकरण की है। पाणिनीनीय सूत्रों के अनुसार ह्रस्व अकारांत शब्द के बाद विसर्ग हो तो विसर्ग का ओ हो जाता है।  राक्षस को राक्षसो हुआ है, क्योंकि उसके आगे ह्रस्व अकार उपस्थित है। 

इसकी सूत्र व्याख्या है 

विसर्ग (:) के बाद स्वर या व्यंजन आने पर विसर्ग में जो विकार होता है उसे विसर्ग-संधि कहते हैं। जैसे- मनः + अनुकूल = मनोनुकूल

व्याकरण की भाषा में इसे इस प्रकार कहेंगे।-


अतोरोरप्लुतादप्लुते।। 

सूत्र 1/1/1 अष्टाध्यायी सूत्रपाठः (पाणिनिनीय प्राच्या व्याकरण)

यदि विसर्ग से पहले व बाद में दोनों स्थानों पर ह्रस्व ‘अ’ आ जाए तो विसर्ग ‘ओ’ में परिवर्तित हो जाता है तथा बाद वाले ‘अ’ के स्थान पर ह्रस्व अ (ऽ) आ जाता है।

उदाहरण के लिए

कः + अपि = कोऽपि

सः + अपि = सोऽपि

सः + अहम् = सोऽहम्

देवः + अस्ति = देवोऽस्ति

नरः + अवदत् = नरोऽवदत्

छात्रः + अयम् = छात्रोऽयम्

इस प्रकार यह अनल नामक संवत्सर है। इसमें कोई संदेह नहीं है। जो कुछ ग्रंथों में नल नाम प्रकाशित हुआ है, वह भाषा विज्ञान की दृष्टि से अशुद्ध है। इसलिए शुद्ध शब्द केवल अनल है।

✍🏻आचार्य चंद्रशेखर शास्त्री

श्री पीतांबरा विद्यापीठ सीकरीतीर्थ

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