सोमवार, 28 मार्च 2022

प्राचीन भारतमें विनोद क्रीडा का विनोद

प्रस्तुति - अखौरी प्रमोद 


क्रीडा शव्द क्रीडृँ विहा॒रे अर्थ में मनोरञ्जन क्रिया वोध कराता है । शव्दरत्नावली में क्रीडा का अर्थ परिहास माना गया है । मेदिनीकोष में क्रीडा का अर्थ अवज्ञानम् कहा गया है । यह अवज्ञाकृत परिहास का वोध कराता है । क्रीडा में मनोरञ्जन के लिये प्रतिद्वन्दी को पराभूत करने का इच्छा रहता है – प्रतिशोध का नहीँ । प्रतिशोध के इच्छा रहने से वह द्वन्द वन जाता है – क्रीडा नहीँ । प्राचीन भारतमें क्रीडा विनोद के 20 विभाग किये जाते थे । यहाँ सोमदेव के मत से यह विभाग दर्शाया गया है ।


1. भूधर क्रीडा । (उपवन विधि) ।

2. वन क्रीडा ।

3. आन्दोलन क्रीडा । (झुला झुलना) ।

4. सेचन  (सेवन) क्रीडा । (प्रासाद मध्यस्थ जलक्रीडा) ।

5. तोय क्रीडा ।

6. शाद्वल क्रीडा । (शरत् ऋतु में वन विहार) ।

7. वालुका क्रीडा ।

8. ज्योत्स्ना क्रीडा ।

9. सस्य क्रीडा ।

10. मदिरापान क्रीडा ।

11. प्रहेलिका क्रीडा ।

12. चतुरङ्ग क्रीडा ।

13. पाशक क्रीडा ।

14. वराटिका क्रीडा ।

15. फणिदा क्रीडा । (हस्तलाघव क्रिया) । 

16. फञ्जिका क्रीडा । (एक क्रीडा जो कृष्ण भगवान खेला करते थे) ।

17. तिमिर क्रीडा । (वन्द गृहमें लुका छिपि) ।

18. वीर क्रीडा । (तान्त्रिक सिद्धि लाभ के लिये क्रिया) ।

✍🏻बसुदेव मिश्रा


गाथा गेंद की... खेलते हुए सुनियेगा


बॉल हमारी बहुत जानी पहचानी है। बॉल यानी गोल, गोल यानी बॉल। दादी-दादा खेले। माता-पिता खेले। हम खेले और हमारे बाद बेटी-बेटे। बॉल सबकी प्रिय से भी प्रिय है। कई खेलों का आधार है बॉल। यदि बॉल है तो खेल है, बस हाथ में आ जाए तो खेलने की तरकीब हम ढूंढ ही लेते हैं। बाॅल पकड़ी जाती है। फेंकी जाती है। उछाली और झेली जाती है। धकेली तथा चलाई भी जाती है... इस बाॅल ने हर सभ्‍यता और संस्‍कृति में अपनी मौजूदगी दिखाई है, चाहे माया जैसी सभ्‍यता ही क्‍यों न हो, जिसकी तस्‍वीर मिली है। अन्‍यत्र उत्‍खननों में साबुत बॉलें मिली हैं....। नाम तो है इसका गेंद या गेंदू मगर संस्‍कृत में कन्‍दुक कहा जाता है। यह 'क' हमारे मुखलाघव के लिए 'ग' में बदल गया है, वैसे ही जैसे प्रकट को प्रगट बोलने में सहुलियत होती है, कुछ नियमों के तहत प्राक् भी प्राग् हाे जाता है..।


नींबू, नारियल, कपित्‍थ या कबिती और बेल जैसे किसी फल को देखकर बॉल का निर्माण किया गया होगा। बात गेंद की हो रही है। उत्‍खननों, खासकर हड़प्‍पाकालीन कानमेर-गुजरात याद आता है जहां बजने वाले गेंद भी मिले हैं..। कहीं दौड़ लगवाने वाली होने से इसका नाम दाेड़ी या दड़ी पड़ गया तो कहीं डोट या पीटने वाली होने से डोट कहलाई...।


यो तो बालकों को यह बहुत रुचिकर लगती है। हरिवंश में श्रीकृष्‍ण के कंदुक खेल पर तो कई श्‍लोक मिल जाते है, उसको खोजने की आड़ में कालिया नाथ लिया गया...। नारियों ने भी गेंदों की कई क्रीड़ाएं दिखाई हैं तभी तो 'मूंछों पर नींबू ठहराने' जैसी कहावत की तरह 'कूर्पर (कोहनी) पर कंदुक दिखाना' जैसी कहावत भी रही होगी। क्‍यों नहीं, कुषाणकालीन एक वेदिका स्‍तंभ पर एेसा मोटिफ भी है, जिसमें नायिका अपनी कोहनी पर कंदुक को लिए कौतुक रच रही है। 


मृच्‍छकटिकं के रचयिता शूद्रक जैसे रचनाकार को यह खेल इतना भाया कि अपने एक भाण में उन्‍होंने विट के मुंह से इसकी प्रशंसा करवाई कि इस खेल में शरीर की कई क्रियाएं संपन्‍न होती हैं। इन अंग संचालनों में नत, उन्‍नत, आवर्तन, उत्‍पतन, अपसर्पण, प्रधावन वगैरह वगैरह। विट स्‍वयं इन संचालनों को पसंद करता था। उसने सखी-सहेलियों के साथ प्रियंगुयष्टिका नामक एक नायिका की कंदुक क्रीड़ा का वर्णन करते हुए सौ बार गेंद उछालने पर जीतकर खिताब लेने का संदर्भ दिया है... गुप्‍तकाल की यह दास्‍तान है। अनेकानेक मंदिरों में यह क्रीड़ा अनेकत्र देखी जा सकती है। ऐसी नायिकाओं को 'कंदुकक्रीड़ाकर्त्री' के रूप में शिल्‍पशास्‍त्रों में जाना गया है। 

है न नन्‍हीं सी गेंद की गौरवशाली गाथा...।


 वीटा क्रीड़ा जिसे आजकल गुल्ली-डंडे का खेल कहते हैं। इसका वर्णन 'महाभारत' के आदिपर्व (131/17)मे आया है

गुल्ली डंडा :

काष्ठयुग का खेल। 

वीटा = कनिका अंगुल कम अंगूठे तक का प्रमाण, ये हमारे यहां कहते है। इसी प्रमाण की गुल्ली होती है...


 गिल्ली : उत्तोलक व गणन खेल

#गिच_पिच

गिल्ली-डंडा का खेल ! 

पहले टेल ! 

फिर पेल ! 

फिर नेल ! 

और, फिर मेल। 

संक्रान्ति आती है और खेलों का उत्सव हो जाता है। कहीं पतंग तो कहीं सितोलिया, कहीं मार दड़ी तो कहीं गिल्ली और डंडा। गिल्ली को गुल्ली भी कहते हैं। यह बलिस्त प्रमाण लकड़ी का पर्याय है और कोश में संकलित है।


यूं तो महाभारत में इस गिल्ली-डंडा का "वीटा" नाम से विवरण है लेकिन प्रमाण गिल्ली को शुंगकाल तक ले जाते हैं। बड़ा सच ये भी है कि यह उस काल का खेल है जबकि मानव धातु का प्रयोग करना नहीं सीखा था और लकड़ी का बहुत से क्रिया व्यापार में उपयोग करता था। शालभंजन (डालभांग), शाखकाष्ठ (डाल कामड़ी) जैसे कई खेल है न!


गिल्ली यानी डंडे का टुकड़ा, उसका तीसरा प्रमाण (1: 3)। डंड यानी एक हाथ = 24 अंगुल। कुछ छोटी भी हो सकती है। मगर, तृतीयांश होने पर पीटे जाने पर उछलती अच्छी है। डाट-पाट में उछलती गिल्ली कहां तक पहुंचाई गई, उस आधार पर खेल स्थल से दंड प्रमाण भूमि का अनुमान लगाया जाता है। यह प्रमाण भूमि ही दूसरे पक्ष को अपनी बारी में खेलकर उतारनी पड़ती है।

गिल्ली खेलने के अपने अपने तरीके हैं : 


1. छालण गिल्ली :

इस में गिच पर रखकर दंड से उछाला जाता है। गिच, जिसे गप्पी भी कहा जाता है, गिल्ली के बराबर जमीन पर किया गया छेद है जिस पर आड़ी रखकर गिल्ली को दंडे से इतना जोर से उछाला जाता है कि वह फर्लांग भर दूर जा गिरे। उछलने से पहले खिलाड़ी दूसरे पक्ष वालों से बोलता है : रेडो। यानी सावधान ! कोई खिलाड़ी अगर गिरती गिल्ली को झेल ले तो उछालने वाला खेल से बाहर हो जाता है।


2. अलट गिल्ली

छोटे बच्चे पहले अनुसार ही गिल्ली को गिच से उछालते हैं और या तो उसे झेलने की कोशिश करते या गिरी गिल्ली को गिच पर रखे डंडे तक फेंकते है। यदि डंडे को अलट (छू) जाए तो उछालने वाला बाहर और नहीं छूए तो वह पदाएगा। 

वह बारी बारी डंडे से गिल्ली को उछालकर उसे विपरीत दिशा में पहुंचाता है। जहां कहीं वह चूक जाता है, वहीं से गिच तक दंड प्रमाण को मांगा जाता है...।

गिल्ली चल्ली पल्ली मार।

पल्ली मार, टल्ली मार।

दिल्ली द्वार, हरिद्वार...। 

गिल्ली को लेकर दोबारा गिच के पिच पर पहुंचाने के लिए दूसरे पक्ष का एक खिलाड़ी एक ही टांग पर कूदता हुआ बढ़ता है। यह 'पदाना' है। सजा से कम नहीं, मगर बात मजे की है और इस मजे ने ही गिल्ली डंडा को मजेदार बना रखा है।

है न गिल्ली : गप्पी और गिच-पिच का खेल ! 

हां, तो उठाइये डंडा और उछालिए गिल्ली ... :)

जय-जय।

बालमन रंजक क्रीडनक

#toy_n_toy

बच्चों के लिये माँ के बाद सबसे बड़ा आकर्षण होते हैं खिलौने। खेलकं, खेलां, खिलूने या रमकड़े। टॉय या क्रीड़नक। दुनिया की हर भाषा में खिलौने की पहचान के लिए कोई न कोई शब्द है यानी कि हर सभ्यता और संस्कृति में खिलूने, रमकड़े रहे हैं। माँ ने हर युग में शिशु रंजन के लिए खिलौने दिए। अपने से चिपके रहने की बजाय शिशु का ध्यान खिलौने की आड़ में बांटा और उसकी कल्पना को पंख दिए।


उत्खनन में प्रायः दो ढाई हज़ार वर्ष पुराने, जबकि मौर्यों से लेकर शुंग-कुषाण काल रहा, के खिलौने खास तौर पर मिलते हैं। इस काल में खिलौने बने भी बहुत और अनूठे भी रहे। आपात काल होने पर भी लोग खिलौने खरीद लेते थे, शायद बच्चों की संख्या ज्यादा हो। हारिति का आख्यान बताता है कि वह सौ संतान वाली थी और उसे एक भी बच्चे का खो जाना नागवार गुजरता था। 


उस काल में राजा को भी यह अनुमति थी कि वह अपने गुजारे के लिए खिलौने बनाये और बेचे। अर्थशास्त्र और महाभाष्य में ये सन्दर्भ है और महाभारत इसकी पुष्टि करता है कि व्यक्ति अपने और पराये जिस भी शिशु से लगाव रखता हो, उसके लिए खिलौने लेकर जाये।

इसी काल को प्रगट करने वाला महान आयुर्वेदिक ग्रन्थ है : चरक संहिता। चरक ने शिशु रंजन पर बड़ा ध्यान दिया और कहा है कि तब अथर्वेदीय विधियां बताकर पंडित लोग बच्चों के लिए मणियां और औषध की सलाह देते थे। 


खिलौने बनाने और उनका प्रयोग करने के क्रम में यह निर्देश था : क्रीडनकानि खलु कुमारस्य विचित्राणि...। 


1. खिलौने चित्र विचित्र, अनेक तरह के हों,

2. खिलौने आवाज़ करने वाले हों,

3. सुन्दर लगने वाले और हल्के हों

4. धारदार फलक, जानलेवा न हों

5. मुँह में धुसने वाले न हों,

6. भयावह नहीं लगने चाहिए।


है न आवश्यक बात। आज खिलौनों का बाजार लाखों, करोडों का है और बच्चों के लिए महंगे से महंगे खिलौने मिलते हैं मगर अब चरक की अपेक्षा वाले खिलौने कहाँ! वैसे बच्चे भी नहीं। हम इमली के बीज के खेल से लेकर कंचे, लट्टू, चकरी, झुंझने, झूमर, गाड़ी, हाथी घोड़े, गाय बकरी और बिल्ली से खुश हो जाते लेकिन अब वह बात नहीं, जब निरामय, निरोग शिशु के साथ निर्भय, निष्कंटक, निरूपद्रव, निस्तेज किंतु निराले खिलौने बनाये, मंगवाये, लाये, सजाये, धजाये जाते थे...।

आप भी तो अपने खिलौने की बात बताएं 😊

जय जय।


गेंदनृत्य : कितना ज्ञात


मनोकामना पूर्ति के लिए नृत्य करने की परम्परा उतनी ही  पुरानी है जितना शैलाश्रयों में मानव का निवास। यह किसी वस्तु की प्राप्ति पर उल्लास का उत्सवी अवसर भी होता है और मनौती का भाव भी, जैसा कि संस्कृत कवियों ने सायास माना है। ऐसा ही एक नृत्य है : कंदुक नृत्य अर्थात् गेंद नाच। 


इस नृत्य के विषय में हमें कोई जानकारी नहीं है लेकिन सर्कस में गेंद घूमाने वाली बालाएं तो याद आती ही हैं जो संतुलन से गेंद के कौतुक दिखाकर दर्शकों की पलकें नहीं गिरने देती, खुद भी पलकों के धनुष तानकर थिरकती हैं!  कोणार्क और कोल्हापुर से लेकर मेवाड़ के नागदा और मध्य भारत के खजुराहो तक मन्दिरों के जंघा भागों पर अलस कन्याओं के साथ कंदुक धारिणियों की मूर्तियां मिलती हैं, लेकिन क्यों? गेंद कभी कन्याओं का खेल रहा और खेल ही नहीं, नृत्य भी रहा। लंबे समय से नाम भी रखें जाते हैं : गेंदकुंवर, गेंदीबाई आदि।


कवि दंडी के वर्णन के लिए जिन्होंने पूरा ग्रंथ पढ़ा है, वे जान सकते हैं कि गेंद का खेल क्या है? कैसे होता है? कहां-कहां होता है और उसके पीछे का मनोगत क्या होता है? प्रत्येक कृतिका नक्षत्र में कंदुक नृत्य होता था और विंध्यवासिनी देवी के मन्दिर में होता था। ऐसे आयोजन को "कंदुकोत्सव" के नाम से जाना जाता था। 


इस नृत्य में गेंद को संचालित करने के स्तर, विराम और सोपानों की बड़ी शब्दावली काम आती थी जिसे जानकर कौतुक होता है : हस्तक्रीडनक, अमंदेन, अतिशयेन, प्रसृता, उन्नीय, चटुल्या, भ्रमरमालय, स्तबकमिव, अपतन्त, गगनतल। गति के लिए जो शब्द आए हैं, वे हैं : मध्य, विलंबित, द्रुतलय, मृदुमृदु, प्रहरान्ती आदि लगभग बीस शब्द। 


दंडी ने कन्दुक के खेल, नृत्य के लिए किसी शास्त्रीय नियमावली का भी उल्लेख किया है : कन्दुकतन्त्र। उसमें आए चूर्णक्रिया, दशपद चंक्रमण, निश्चल, निर्दयप्रहार, मंगलिक भ्रमण, पंचावर्त प्रहार जैसे दर्जनों शब्द लिखे हैं। कौन जानता है उन सबका यथा रूप आशय? मैं तो बस पढ़कर ही चकित हूं...

✍🏻डॉ श्री कृष्ण जुगनू

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