प्रस्तुति-- स्वामी शरण
मंगल पांडे
| |
पूरा नाम | मंगल पांडे |
जन्म | 19 जुलाई, 1827 |
जन्म भूमि | नगवा गाँव, बलिया ज़िला अथवा सुरहुरपुर ग्राम, फ़ैज़ाबाद ज़िला, उत्तर प्रदेश[1] |
मृत्यु | 8 अप्रैल, 1857 |
मृत्यु स्थान | बैरकपुर, कलकत्ता (अब कोलकाता) |
मृत्यु कारण | फाँसी |
अविभावक | दिवाकर पांडे और अभय रानी |
नागरिकता | भारतीय |
प्रसिद्धि | स्वतन्त्रता सेनानी |
धर्म | हिन्दू |
आंदोलन | भारतीय स्वाधीनता संग्राम, 1857 |
प्रमुख संगठन | जंग-ए-आज़ादी |
अन्य जानकारी | 8 अप्रैल का दिन मंगल पांडे की फाँसी के लिए निश्चित किया गया। बैरकपुर के जल्लादों ने मंगल पांडे के पवित्र ख़ून से अपने हाथ रँगने से इनकार कर दिया। तब कलकत्ता से चार जल्लाद बुलाए गए। अप्रैल, 1857 के सूर्य ने उदित होकर मंगल पांडे के बलिदान का समाचार संसार में प्रसारित कर दिया। |
जन्म और परिवार
क्रांतिकारी मंगल पांडे का जन्म 19 जुलाई, 1827 को उत्तर प्रदेश के बलिया ज़िले के नगवा गाँव में हुआ था। कुछ सन्दर्भों में इनका जन्म स्थल फ़ैज़ाबाद ज़िले की अकबरपुर तहसील के सुरहुरपुर ग्राम में बताया गया है।[1] इनके पिता का नाम दिवाकर पांडे तथा माता का नाम श्रीमती अभय रानी था। वे कोलकाता (भूतपूर्व कलकत्ता) के पास बैरकपुर की सैनिक छावनी में "34वीं बंगाल नेटिव इन्फैंट्री" की पैदल सेना के 1446 नम्बर के सिपाही थे। भारत की आज़ादी की पहली लड़ाई अर्थात 1857 के संग्राम की शुरुआत उन्हीं के विद्रोह से हुई थी।जंग-ए-आज़ादी
'भारतीय इतिहास' में 29 मार्च, 1857 का दिन अंग्रेजों के लिए दुर्भाग्य के दिन के रूप में उदित हुआ। पाँचवी कंपनी की चौंतीसवीं रेजीमेंट का 1446 नं. का सिपाही वीरवर मंगल पांडे अंग्रेज़ों के लिए प्रलय-सूर्य के समान निकला। बैरकपुर की संचलन भूमि में प्रलयवीर मंगल पांडे का रणघोष गूँज उठा-"बंधुओ! उठो! उठो! तुम अब भी किस चिंता में निमग्न हो? उठो, तुम्हें अपने पावन धर्म की सौगंध! चलो, स्वातंत्र्य लक्ष्मी की पावन अर्चना हेतु इन अत्याचारी शत्रुओं पर तत्काल प्रहार करो।"मंगल पांडे के बदले हुए तेवर देखकर अंग्रेज़ सारजेंट मेजर ह्यूसन उसने पथ को अवरुद्ध करने के लिए आगे बढ़ा। उसने उस विद्रोही को उसकी उद्दंडता का पुरस्कार देना चाहा। अपनी कड़कती आवाज़ में उसने मंगल पांडे को खड़ा रहने का आदेश दिया। वीर मंगल पांडे के अरमान मचल उठे। वह शिवशंकर की भाँति सन्नद्ध होकर रक्तगंगा का आह्वान करने लगा। उसकी सबल बाहुओं ने बंदूक तान ली। उसकी सधी हुई उँगलियों ने बंदूक का घोड़ा अपनी ओर खींचा और घुड़ड़ घूँsss का तीव्र स्वर घहरा उठा। मेजर ह्यसन घायल कबूतर की भाँति भूमि पर तड़प रहा था। उसका रक्त भारत की धूल चाट रहा था। 1857 के क्रांतिकारी ने एक फिरंगी की बलि ले ली थी। विप्लव महायज्ञ के पुरोधा मंगल पांडे की बंदूक पहला 'स्वारा' बोल चुकी थी। स्वातंत्र्य यज्ञ की वेदी को दस्यु-देह की समिधा अर्पित हो चुकी थी।
खबरदार, जो कोई आगे बढ़ा! आज हम तुम्हारे अपवित्र हाथों को ब्राह्मण की पवित्र देह का स्पर्श नहीं करने देंगे।
|
लेफ्टिनेंट बॉब को गिरा हुआ देख एक दूसरा अंग्रेज़ मंगल पांडे की ओर बढ़ा ही था कि मंगल पांडे के साथी भारतीय सैनिक ने अपनी बंदूक डंडे की भाँति उस अंग्रेज़ की खोपड़ी पर दे मारी। अंग्रेज़ की खोपड़ी खुल गई। अपने आदमियों को गिरते हुए देख कर्नल व्हीलर मंगल पांडे की ओर बढ़ा; पर सभी क्रुद्ध भारतीय सिंह गर्जना कर उठे-
"खबरदार, जो कोई आगे बढ़ा! आज हम तुम्हारे अपवित्र हाथों को ब्राह्मण की पवित्र देह का स्पर्श नहीं करने देंगे।"कर्नल व्हीलर जैसा आया था वैसा ही लौट गया। इस सारे कांड की सूचना अपने जनरल को देकर, अंग्रेज़ी सेना को बटोरकर ले आना उसने अपना धर्म समझा। जंग-ए-आज़ादी के पहले सेनानी मंगल पांडे ने 1857 में ऐसी चिंगारी भड़काई, जिससे दिल्ली से लेकर लंदन तक की ब्रिटिश हुकूमत हिल गई।
अंग्रेज़ी सेना द्वारा बंदी
वीर मंगल पांडे ने अपने कर्तव्य की पूर्ति कर दी थी। शत्रु के रक्त से भारत भूमि का तर्पण किया था। मातृभूमि की स्वाधीनता जैसे महत कार्य के लिए अपनी रक्तांजलि देना भी अपना पावन कर्तव्य समझा। मंगल पांडे ने अपनी बंदूक अपनी छाती से अड़ाकर गोली छोड़ दी। गोली छाती में सीधी न जाती हुई पसली की तरफ फिसल गई और घायल मंगल पांडे अंग्रेज़ी सेना द्वारा बंदी बना लिये गये। अंगेज़ों ने भरसक प्रयत्न किया कि वे मंगल पांडे से क्रांति योजना के विषय में उसके साथियों के नाम-पते पूछ सकें; पर वह मंगल पांडे थे, जिनका मुँह अपने साथियों को फँसाने के लिए खुला ही नहीं।कारतूस घटना
1857 के विद्रोह का प्रारम्भ एक बंदूक की वजह से हुआ था। सिपाहियों को 1853 में एनफ़ील्ड बंदूक दी गयी थीं, जो कि 0.577 कैलीबर की बंदूक थी तथा पुरानी और कई दशकों से उपयोग में लायी जा रही ब्राउन बैस के मुकाबले में शक्तिशाली और अचूक थी। नयी बंदूक में गोली दागने की आधुनिक प्रणाली का प्रयोग किया गया था, परन्तु बंदूक में गोली भरने की प्रक्रिया पुरानी थी। नयी एनफ़ील्ड बंदूक भरने के लिये कारतूस को दांतों से काट कर खोलना पड़ता था और उसमे भरे हुए बारूद को बंदूक की नली में भर कर कारतूस में डालना पड़ता था। कारतूस का बाहरी आवरण में चर्बी होती थी, जो कि उसे नमी अर्थात पानी की सीलन से बचाती थी।
बंधुओ! उठो! उठो! तुम अब भी किस चिंता में निमग्न हो? उठो, तुम्हें अपने
पावन धर्म की सौगंध! चलो, स्वातंत्र्य लक्ष्मी की पावन अर्चना हेतु इन
अत्याचारी शत्रुओं पर तत्काल प्रहार करो।
|
29 मार्च सन् 1857 को नए कारतूस को प्रयोग करवाया गया, मंगल पण्डे ने आज्ञा मानने से मना कर दिया और धोखे से धर्म को भ्रष्ट करने की कोशिश के ख़िलाफ़ उन्हें भला-बुरा कहा, इस पर अंग्रेज अफ़सर ने सेना को हुकम दिया कि उसे गिरफ्तार किया जाये, सेना ने हुक्म नहीं माना। पलटन के सार्जेंट हडसन स्वंय मंगल पांडे को पकड़ने आगे बढ़ा तो, पांडे ने उसे गोली मार दी, तब लेफ्टीनेंट बल आगे बढ़ा तो उसे भी पांडे ने गोली मार दी। घटनास्थल पर मौजूद अन्य अंग्रेज़ सिपाहियों नें मंगल पांडे को घायल कर पकड़ लिया। उन्होंने अपने अन्य साथियों से उनका साथ देने का आह्वान किया। किन्तु उन्होंने उनका साथ नहीं दिया। उन पर मुक़दमा (कोर्ट मार्शल) चलाकर 6 अप्रैल, 1857 को मौत की सज़ा सुना दी गई।
निधन
फ़ौजी अदालत ने न्याय का नाटक रचा और फैसला सुना दिया गया। 8 अप्रैल का दिन मंगल पांडे की फाँसी के लिए निश्चित किया गया। बैरकपुर के जल्लादों ने मंगल पांडे के पवित्र ख़ून से अपने हाथ रँगने से इनकार कर दिया। तब कलकत्ता से चार जल्लाद बुलाए गए। 8 अप्रैल, 1857 के सूर्य ने उदित होकर मंगल पांडे के बलिदान का समाचार संसार में प्रसारित कर दिया। भारत के एक वीर पुत्र ने आज़ादी के यज्ञ में अपने प्राणों की आहुति दे दी। वीर मंगल पांडे के पवित्र प्राण-हव्य को पाकर स्वातंत्र्य यज्ञ की लपटें भड़क उठीं। क्रांति की ये लपलपाती हुई लपटें फिरंगियों को लील जाने के लिए चारों ओर फैलने लगीं।टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 Ahuja, M. L.। Eminent Indians: Revolutionaries (हिंदी) गूगल बुक्स। अभिगमन तिथि: 13 अप्रॅल, 2014।
- ↑ प्रथम क्रांतिपुरुष : क्रांतिकारी मंगल पांडे बलिदान दिवस (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल) जय जय भारत। अभिगमन तिथि: 7 जुलाई, 2011।
बाहरी कड़ियाँ
संबंधित लेख
|
प्रमुख विषय सूची | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज
|
श्रेणियाँ: प्रारम्भिक अवस्था | स्वतन्त्रता सेनानी | इतिहास कोश | प्रसिद्ध व्यक्तित्व | प्रसिद्ध व्यक्तित्व कोश | चरित कोश | औपनिवेशिक काल
मीडिया
मंगल पांडे (क्रांतिकारी)
मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
यह लेख भारतीय
विद्रोही मंगल पांडे के बारे में है। उनके जीवन-चरित पर बने चलचित्र के लिए, द राइज़िंग
(2005 फ़िल्म) देखें।
मंगल
पाण्डे
|
|
जन्म
|
१९ जुलाई १८२७
नागवा बलिया, भारत |
मृत्यु
|
|
व्यवसाय
|
बैरकपुर छावनी में बंगाल नेटिव इन्फैण्ट्री की ३४वीं
रेजीमेण्ट में सिपाही
|
जाने–जाते हैं
|
|
धर्म
|
हिन्दू
|
मंगल पाण्डेय ने इसी एन्फील्ड राइफल का प्रयोग २९ मार्च १८५७
को बैरकपुर छावनी में किया था
मंगल पाण्डेय
(बांग्ला:
মঙ্গল পান্ডে; १९ जुलाई १८२७ - ८ अप्रैल १८५७) सन् १८५७
के प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम
के अग्रदूत थे। यह संग्राम पूरे हिन्दुस्तान
के जवानों व किसानों ने एक साथ मिलकर लडा था। इसे ब्रिटिश साम्राज्य
द्वारा दबा दिया गया। इसके बाद ही हिन्दुस्तान
में बरतानिया हुकूमत का आगाज हुआ।
अनुक्रम
संक्षिप्त जीवन वृत्त
वीरवर मंगल पाण्डेय हरजोत कोली कलोली का
पक्का दोस्त था, वीरवर
मंगल पाण्डेय का जन्म १९ जुलाई १८२७ को वर्तमान उत्तर प्रदेश, जो उन दिनों संयुक्त प्रान्त आगरा व अवध
के नाम से जाना जाता था, के
बलिया
जिले में स्थित नागवा गाँव के एक भूमिहार ब्राह्मण परिवार में हुआ था। भारत की
आजादी की पहली लड़ाई अर्थात् १८५७ के विद्रोह की शुरुआत मंगल पाण्डेय से हुई जब
गाय व सुअर कि चर्बी लगे कारतूस लेने से मना करने पर उन्होंने विरोध जताया। इसके
परिणाम स्वरूप उनके हथियार छीन लिये जाने व वर्दी उतार लेने का फौजी हुक्म हुआ।
मंगल पाण्डेय ने उस आदेश को मानने से इनकार कर दिया और २९ मार्च सन् १८५७ को उनकी
राइफल छीनने के लिये आगे बढे अंग्रेज अफसर मेजर ह्यूसन पर आक्रमण कर दिया। आक्रमण
करने से पूर्व उन्होंने अपने अन्य साथियों से उनका साथ देने का आह्वान भी किया था
किन्तु कोर्ट मार्शल के डर से जब किसी ने भी उनका साथ नहीं दिया तो उन्होंने अपनी
ही रायफल से उस अंग्रेज अधिकारी मेजर ह्यूसन को मौत के घाट उतार दिया जो उनकी
वर्दी उतारने और रायफल छीनने को आगे आया था। इसके बाद विद्रोही मंगल पाण्डेय को
अंग्रेज सिपाहियों ने पकड लिया। उन पर कोर्ट मार्शल द्वारा मुकदमा चलाकर ६ अप्रैल
१८५७ को मौत की सजा सुना दी गयी। कोर्ट मार्शल के अनुसार उन्हें १८ अप्रैल १८५७ को
फाँसी
दी जानी थी, परन्तु
इस निर्णय की प्रतिक्रिया कहीं विकराल रूप न ले ले,
इसी कूट रणनीति के तहत क्रूर ब्रिटिश सरकार ने मंगल पाण्डेय को निर्धारित तिथि से
दस दिन पूर्व ही ८ अप्रैल सन् १८५७ को फाँसी पर लटका कर मार डाला।
विद्रोह का परिणाम
सन् १८५७ के सैनिक विद्रोह की एक झलक
मंगल पाण्डेय द्वारा लगायी गयी विद्रोह
की यह चिन्गारी बुझी नहीं। एक महीने बाद ही १० मई सन् १८५७ को मेरठ
की छावनी में बगावत हो गयी। यह विप्लव देखते ही देखते पूरे उत्तरी भारत में फैल
गया जिससे अंग्रेजों को स्पष्ट संदेश मिल गया कि अब भारत पर राज्य करना उतना आसान
नहीं है जितना वे समझ रहे थे। इसके बाद ही हिन्दुस्तान
में चौंतीस हजार सात सौ पैंतीस अंग्रेजी कानून यहाँ की जनता पर लागू किये गये ताकि
मंगल पाण्डेय सरीखा कोई सैनिक दोबारा भारतीय शासकों के विरुद्ध बगावत न कर सके।[कृपया उद्धरण
जोड़ें]
संदर्भ
बाह्य सूत्र
- गदर के पुरोधा (अमर उजाला)
|
NICE POST
जवाब देंहटाएंhttps://jayhindindian.army/category/freedom-fighters-of-india/