पश्चिम का समर्थन व आशीर्वाद प्राप्त सरकारों के पतन का शुभारंभ टयूनीशिया से हो गया। टयूनीशिया वह देश है जिसके बारे में कहा जाता था कि दूसरे अरब देशों की अपेक्षा वहां सबसे अधिक सुधार कार्य हुए हैं और वहां शिक्षा एवं विकास का स्तर अधिक है किन्तु टयूनीशिया की यही विशेषता पचास वर्षों से दो तानाशाहों हबीब बू रक़ीबाह और ज़ैनुल आबेदीन बिन अली की सरकारों से लोगों के अधिक अवगत होने के कारण में परिवर्तित हो गयी। ज़ैनुल आबेदीन बिन अली की तानाशाही एवं भ्रष्ठ सरकार की समाप्ति के लिए टयूनीशियाई जनता के दबे क्रोध को एक चिनगारी की आवश्यकता थी। यह चिनगारी वर्ष २०११ से कई दिन पहले अर्थात १७ दिसंबर वर्ष २०१० को उस समय फूट निकली जब टयूनीशिया के मोहम्मद बू अज़ीज़ी नाम के युवा ने स्वयं को आग लगा ली। अधिक व बुरी तरह जल जाने के कारण इस युवा की चार जनवरी २०११ को मृत्यु हो गयी। मोहम्मद बू अज़ीज़ी विश्व विद्यालय से शिक्षा प्राप्त एक छात्र था जो कोई रोज़गार न होने के कारण सब्ज़ी बेचता था। उसने जब यह देखा कि पुलिस वाले अपने अपमान जनक व्यवहार से उसे सब्ज़ी बेचने की भी अनुमति नहीं दे रहे हैं तो उसने अपने जीवन के अंतिम समाधान स्वयं को आग लगा लेना ही समझा। उस जवान के शरीर से आग की निकली लपटों ने पूरे टयूनीशिया के लोगों को अपनी लपेट में ले लिया। टयूनीशिया के क्रोधित लोग सड़कों पर आ गये यहां तक कि उनका आपत्तिजनक प्रदर्शन राष्ट्रपति भवन के आस- पास पहुंच गया। ज़ैनुल आबेदीन बिन अली ने लोगों के क्रोध की ज्वाला से स्वयं को सुरक्षित रखने के लिए १४ जनवरी वर्ष २०११ को टयूनीशिया से भाग कर सऊद परिवार की शरण में आ गया। इस प्रकार टयूनीशिया से महाजनांदोलन का आरंभ हुआ जो बाद में इस्लामी जागरुकता के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
टयूनीशिया से ज़ैनुल आबेदीन बिन अली की तानाशाही सरकार के गिरने के प्रभाव बड़ी तेज़ी से मिस्र पहुंच गये। मिस्र के लोगों ने इंटरनेट आदि के माध्यम से टयूनीशिया की जनक्रांति से लाभ उठाया और वहां उन्होंने हुस्नी मुबारक की तानाशाही सरकार के विरुद्ध क्रांति आरंभ कर दी जो बाद में फरवरी क्रांति के नाम से प्रसिद्ध हुई। मिस्र में हुस्नी मुबारक ने अपनी तानाशाही सरकार को बचाने के लिए हर संभव प्रयास किया परंतु वह इसमें सफल न हो सका। हुस्नी मुबारक सोचता था कि अपने बेटे जमाल के नेतृत्व में कुछ गुंडों को भेजकर भय व आतंक का वातावरण उत्पन्न करके अपनी सत्ता को बचा लेगा। हुस्नी मुबारक की तानाशाही सरकार से थक चुके लोगों व प्रदर्शन कारियों ने क़ाहेरा के अत्तहरीर स्क्वायर को अपनी मांग स्थल में परिवर्तित कर दिया और मिस्री सुरक्षा बलों के आक्रमण तथा दसियों लोगों के मारे जाने के बाद अंततः ३३ वर्षों से सत्तासुख भोग रहे हुस्नी मुबारक को सत्ता से हटने पर बाध्य कर दिया। हुस्नी मुबारक दूसरा तानाशाह था जिसकी तानाशाही सरकार का अंत हो गया जबकि उसे डेमोक्रेसी एवं आज़ादी का दम भरने वाली पश्चिमी सरकारों का पूर्ण समर्थन व आशीर्वाद प्राप्त था।
लीबिया उत्तरी अफ्रीका का तीसरा देश था जहां इस्लामी जागरुकता की लहर ने क़ज़्ज़ाफ़ी की तानाशाही सरकार का अंत कर दिया। कर्नल कज़्ज़ाफी स्वयं को अफ्रीकी राजाओं का राजा और लीबिया को इस्लामी जागरुकता से प्रभावित मध्यपूर्व के देशों से अलग समझता था। कर्नल क़ज़्ज़ाफ़ी यह सोचता था कि तेल के डालरों और भयावह सुरक्षा तंत्र के माध्यम से वह लोगों की आपत्ति की आवाज़ की अनदेखी करके चार दशक पुरानी अपनी तानाशाही सरकार को बाक़ी रख सकता है परंतु क़ज़्ज़ाफ़ी की अपेक्षा के विपरीत उसकी तानाशाही सरकार के विरुद्ध आपत्ति व प्रदर्शन का दायरा दिन प्रतिदिन विस्तृत होता गया और हज़ारों लोगों की हत्या से यह प्रदर्शन न केवल रुका नहीं बल्कि लीबिया में अमेरिका की अगुवाई में ब्रिटेन और फ्रांस के हस्तक्षेप का मार्ग प्रशस्त हो गया। इन तीनों देशों ने लीबिया के जनांदोलन को अपने हितों के अनुसार दिशा निर्देशित किया और क़ज़्ज़ाफ़ी के अंत के बाद इसे देश के तेल स्रोतों पर वर्चस्व जमाने का बेहतरीन अवसर समझा। इसी दिशा में अमेरिका और उसके युरोपीय घटकों ने सुरक्षा परिषद में एक प्रस्ताव पारित करवाया जिससे क़ज़्ज़ाफी की तानाशाही सरकार के विरुद्ध सैनिक कार्यवाही का मार्ग प्रशस्त हो गया। इस आधार पर अमेरिका और नैटो में उसके घटकों ने सात महीनों तक लीबिया पर आक्रमण करके और क़ज़्ज़ाफ़ी विरोधियों को लैस करके त्रिपोली में सत्ता के गिरने की भूमि समतल कर दी। लीबिया पर नैटो के हवाई आक्रमणों से इस देश की बहुत सी आधारभूत संरचनाएं नष्ट हो गयीं। लोगों के घर और लीबिया की आधारभूत संरचनाएं इस प्रकार तबाह हुईं कि लीबिया की अंतरिम परिषद के कमांडर जनरल अब्दुल फत्ताह युनुस ने कहा कि हम नहीं चाहते कि नैटो आक्रमण करे, उसने क्यों आवासीय घरों और आधार भूत संरचनाओं को लक्ष्य बनाया है? त्रिपोली पर नियंत्रण हो जाने के एक महीने पश्चात क़ज़्ज़ाफ़ी का अंतिम ठिकाना सेर्त नगर भी उसके हाथ से निकल गया और उसका अंत मिस्र और टयूनीशिया के अपदस्त तानाशाहों से भी बुरा हुआ। क़ज़्ज़ाफी का अंत बहुत ही कटु रहा। उसके अंत से विश्ववासी यह जान लें कि संसार लोभी व्यक्ति का अंत कैसा होता है।
चौथा देश जिसके तानाशाह की शक्ति का महत्वपूर्ण भाग लोगों के दबाव के कारण क्षीण हो चुका है, तानाशाही अंत के कगार पर है और यह देश उत्तरी अफ्रीक़ा में नहीं बल्कि ओमान सागर के किनारे स्थित है। अली अब्दुल्लाह सालेह ने वर्ष १९७८ से सत्ता की बाग़डोर अपने हाथ में ले रखी है उसने लोगों की हत्या और प्रदर्शनकारियों को धमकी देने के पश्चात सत्ता से अलग होने का वादा किया और अंततः सत्ता को चरणबद्ध ढंग से हस्तांतरित करने को स्वीकार कर लिया। अली अब्दुल्लाह सालेह विदित में अब तक सत्ता में बना हुआ है परंतु वास्तविकता यह है कि वह मध्यपूर्व का चौथा तानाशाह है जिसकी तानाशाही का इस्लामी जागरुकता के कारण अंत होने वाला है। वर्ष २०११ यह वर्ष पश्चिम का समर्थन प्राप्त तानाशाही सरकारों के पतन के आरंभ का वर्ष है और यह प्रक्रिया वर्ष २०१२ में भी जारी है। मध्यपूर्व में इस्लामी आंदोलन सत्ता में पहुंचे और पहुंच रहे हैं ताकि वे सरकार के नये स्वरुप को पेश कर सकें। सरकार के इस प्रारुप में इस्लामी शिक्षाओं के परिप्रेक्ष्य में डेमोक्रेसी और आज़ादी उनका मूल लक्ष्य है। इस परिवर्तन की ज्वाला अभी शांत नहीं हुई है और वह अभी जारी है यहां तक कि क्षेत्र के दूसरे तानाशाहों को भी अपनी लपटों से जला देगी। मध्यपूर्व के वर्तमान वातावरण में बहरैन, सऊदी अरब, क़तर, कुवैत, जार्डन और मोरक्को वे देश हैं जिन्हें टयूनीशिया और मिस्र से उठने वाली जनचेतना का गम्भीर रूप से सामना है। ख़लीफ़ा और सऊद परिवार अब लोगों की हत्या और दमन को जारी नहीं रख सकते। मध्यपूर्व की पिछले एक वर्ष की घटनाओं ने सिद्ध कर दिया है कि शक्ति के आधार पर लोगों पर शासन नहीं किया जा सकता।
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