रविवार, 16 जनवरी 2022

सूर्य सिद्धांत , आधुनिक खगोलविज्ञान की नीव है।

 

पहली से तीसरी शताब्दी में लिखे इस ग्रन्थ ने जो खोजे कि वह इतनी सटीक बैठी की आज लोग आश्चर्यचकित हो जाते है।

सिंध के पंडित कनक से यह ग्रन्थ बगदाद पहुँचा , मंसूर ने इसका अरबी में अनुवाद किया उस पुस्तक नाम रखा हिंद -सिंध । उस समय स्पेन पर अरबो का कब्जा था , यह पुस्तक वहाँ पहुँची।

यही सूर्यसिद्धांत यूरोप में Astronomy ,  mathmatics का आधार बन गई।

वाह्य आक्रमणों जूझते भारत को यह समय नहीं मिल सका कि इसका प्रयोग कर सके , कुछ हमारी मूढ़ता भी है। हम संस्कृत को मंत्र मानकर जपते रहे।

स्वंत्रता के बाद सारे प्राचीन ज्ञान को हमारी शिक्षा प्रणाली से निकाल दिया गया।

यह घृणा इतनी रक्तरंजित थी कि विज्ञान को भी धर्म बनाकर कूड़ेदान में फेंक दिया गया।

सूर्यसिद्धांत में सबसे पहले बताया गया कि पृथ्वी गोल है -

सर्वश्रेव महिगोले सवस्थानम उपस्थितम,

मन्यन्ते यत्रो गोलस्य तस्यो क्वॉध्वमेव वाधहः। (सूर्यसिद्धांत )

लोग सोचते वह सबसे उचे स्थान पर खड़े है , जबकि पृथ्वी गोल है। उपर नीचे कुछ नहीं है।


कुरान में पृथ्वी चपटी थी तो अरबो ने बसरी आंदोलन के बाद सभी सूर्यसिद्धांत की पुस्तकों को जला दिया।

लेकिन यूरोप में इस पर बहुत शोध हुये।

सूर्य सिद्धांत ने पृथ्वी ही नहीं अन्य ग्रहों की सटीक जानकारी दी, जो 19 वी सदी में विज्ञान के वृहद विकास के बाद सिद्ध हुआ।

शनि ग्रह का व्यास 63882 मील,

बुध ग्रह का व्यास 3006 मील है।यह आधुनिक शक्तिशाली टेलिस्कोप से मात्र 1% से ही कम है।

वर्ष में 365.242 दिन होते है , यह सूर्यसिद्धांत ने ही बताया था।

पृथ्वी पर बैठकर आप यह बता दे कि सूर्य , चंद्रमा , शनि, मंगल की गति क्या है , व्यास क्या है! तो उस पर सुगमता से पहुँच भी सकते है।

हमारी शिक्षा व्यवस्था आने वाली पीढ़ी को शिक्षित करती तो उनको पता चलता , हम क्या थे ?

अब क्या है।


✍🏻रविशंकर सिंह


बड़ा हुआ सो का हुआ…..


pi क्या होता है, ऐसा तो कभी मैंने सोचा ही नहीं ! आज इतने दिनों बाद, पहली बार मुझे अपने मोबाइल की याद आयी, जो गिर्राज जी के कहने के बाद मैंने एक बैग में डाल लिया था, कपड़ों के साथ और आज तक वो वैसा ही पडा है, बिना चार्जिंग के | और अभी वो मोबाइल मेरे होटल में था | मैंने उसे चार्ज भी नहीं किया था, इतने दिनों से | आज इतने दिनों बाद मुझे उस मोबाइल की जरूरत महसूस हुई | अगर मेरे पास मोबाइल होता, तो अभी गूगल करके इनको बता देता क्योंकि मुझे तो सही में नहीं पता था कि pi होता क्या है ! कभी सोचा ही नहीं !!! pi के बारे में शायद पहली बार कक्षा ८ में पढ़ा था और उसके बाद से इन्जिनीरिंग तक हजारों बार उसका प्रयोग भी किया होगा लेकिन कभी ये प्रश्न ही दिमाग में नहीं आया कि ये है क्या बला ! आयी कहाँ से ! 


अब मुझे किशोर जी की बात थोड़ी थोड़ी समझ में आ रही थी | ये सही कह रहे थे कि ऐसी जिज्ञासा कभी पनपने ही नहीं दी गयी, बस बता दिया गया कि pi की वैल्यू क्या होती है | कभी किसी ने समझाया ही नहीं कि ये आया कहाँ से ! क्या मेरे अध्यापको को पता होता होगा ? शायद उन्हें भी न पता हो ! मेरी बेटी जिस स्कूल में पढ़ती है, क्या उसकी गणित की अध्यापिका को पता होगा ! मुझे नहीं लगता | पर पता तो होना चाहिए ! जो पढ़ रहे हैं, उसके बारे में इतना बेसिक ज्ञान तो होना ही चाहिए कि वो आया कहाँ से ! मैंने पूरे जीवन में ऐसी कितनी बातें पढ़ी होंगी, ऐसे तो, जिनके बारे में मुझे आज तक नहीं पता | अब तो बेज्जती होनी ही थी | बिना गूगल के तो मैंने इस प्रश्न का उत्तर नहीं दे सकता था | मैंने शर्मिंदगी में बोला - 


“नहीं, मुझे नहीं पता कि pi क्या होता है |” 


“शाब्बाश !!! यही है शिक्षा पद्धति | यदि मैं अध्यापक होता तो बताता कि सूर्य सिद्धांत में विदित है कि -


योजनानि शतान्यष्टो भूकर्णों द्विगुणानि तु |

तद्वर्गतो दशगुणात्पदे भूपरिधिर्भवते || (1*)


अर्थात पृथ्वी का व्यास ८०० के दूने १६०० योजन है, इसके वर्ग का १० गुना करके गुणनफल का वर्गमूल निकालने से जो आता है, वह पृथ्वी कि परिधि है |


इस श्लोक में pi के बारे में ही बताया गया है | - ये कहते हुए, किशोर जी उठ कर गए और एक पेन और खाली पेन ले आये, दूसरे कमरे से | आगे बताते हुए बोले -


“मान लो कि व्यास A और परिधि P है तो इस श्लोक के हिसाब से जो फार्मूला बनेगा वो होगा 


P = ѵ(A2  x 10) 

P = A x ѵ10

P = A x 3.1631


इसका अर्थ ये हुआ कि वृत्त की परिधि व्यास का ३.१६३१ गुना होती है | आजकल इस सम्बन्ध को ३.१४१६ तक ४ अंको तक शुद्ध माना गया है जो कि ३.१६२३ से थोडा भिन्न है परन्तु इससे ये नहीं समझना चाहिए कि सूर्यसिद्धांत जिसने लिखा उसे व्यास और परिधि का ठीक ठीक सम्बन्ध नहीं मालूम था; क्योंकि दूसरे अध्याय में अर्धव्यास और परिधि का अनुपात ३४३८:२१६०० माना गया है, जिससे परिधि व्यास का ३.१४१३६ गुना ही ठहरती है | इसलिए इस श्लोक में परिधि को व्यास का ѵ10, मात्र सुविधा के लिए और गणित की क्रिया  को संक्षिप्त करने के लिए, माना गया है | ठीक वैसे, जैसे आजकल जब संक्षिप्त में लिखना हो तो कोई २२/७ लिखता है या ३.१४ ही लिखता है और जहाँ बहुत सूक्ष्म गणना करनी हो, मात्र वहां दशमलव के ५-६ अंको तक की गणना की जाती है | 


सूर्य सिद्धांत को बहुत लोगो ने अंग्रेजी में ट्रांसलेट किया, जैसे Ebenezer Burgess. "Translation of the Surya-Siddhanta, a text-book of Hindu Astronomy", Journal of the American Oriental Society 6 (1860): 141–498, Victor J. Katz. A History of Mathematics: An Introduction, 1998, Dwight William Johnson. Exegesis of Hindu Cosmological Time Cycles, 2003. (२*) लेकिन इसका काल वराहमिहिर से भी पुराना माना जाता है | सूर्य सिद्धांत किसने लिखा, ये सही सही प्राप्त नहीं है क्योंकि पुराने समय में अपने नाम से पुस्तकें लिखने का चलन नहीं था | उपलब्ध पाठ में मय नामक दैत्य का नाम है, जिसने इसका उपदेश दिया | ये वही मय दैत्य है, जो रावण का ससुर था और जिसने त्रिपुर बनाया था और जो रचनाकारों में सर्वश्रेष्ठ था | 


pi के सर्वप्रथम प्रयोग के लिये π संकेत का प्रयोग सर्वप्रथम सन् १७०६ में विलियम जोन्स ने सुझाया और बस तबसे pi विदेशी हो गया | हमारे यहाँ के लोग काम बहुत करते थे, पर नाम के लिए नहीं करते थे वर्ना  एक लेखक को ऐसी रचना करने के लिए मयासुर के नाम की जरूरत क्यों पड़ेगी भला ! ठीक वैसे, जैसे शून्य का आविष्कार भारत में ही माना जाता है और इसका श्रेय आर्यभट को दिया जाता है किन्तु क्या आर्यभट से पहले किसी ने शून्य का प्रयोग नहीं किया था ? क्या तुम्हे नहीं पता कि रावण के १० सर थे और कौरवों की संख्या 100 थी ? और पुराने जाओगे तो शुक्ल यजुर्वेद के १८ वें अध्याय में चतस्रश् च मे ऽष्टौ च मे ऽष्टौ च मे द्वादश च मे द्वादश च मे षोडश च मे षोडश च मे विशतिश् च मे विशतिश् च मे चतुर्विशतिश् च मे चतुर्विशतिश् च मे ऽष्टाविशतिश् च मे (३*) का जो पाठ है, वो क्या है ? ४ का पहाड़ा है ! यदि ४ का पहाड़ा पता था कि ४ तीय १२ होता है और ४ चौके १६ होता है तो क्या ये संभव है कि शून्य की खोज आर्यभट ने की हो | आर्यभट के काल में सिर्फ इसे लिखा पाया गया, इसलिए इसे आर्यभट तक सीमित कर दिया गया क्योंकि उस से पहले का कोई लिखित सूत्र प्राप्त नहीं है, क्योंकि हमारे यहाँ श्रौत परम्परा थी, सुनने की और यदि लिखा भी लोगो ने बाद में, तो अपना नाम नहीं लिखा | आर्यभट ने तो सिर्फ इसे अपने प्रयोगों को सहेजने के लिए लिखा और शून्य के अविष्कारक के रूप में उनका नाम हो गया | 


खैर, जब मैं बच्चो को ये बता देता तो बच्चो को सूर्य के बारे में, पृथ्वी के बारे में, ज्योतिष के बारे में, सूर्य सिद्धांत के बारे में पता तो चलता | बच्चो को कोई बात शोर्ट में बताना उनके लिए घातक है, उनकी कल्पनाओं के लिए, उनकी ग्रोथ के लिए | जब आप बच्चे को आगे बताओगे तो उसे मजा भी आएगा और वो उसके २ कदम आगे भी सोच पायेगा | पर आज शिक्षा व्यवस्था रटाने पर आमादा है, जबकि सत्य ये है कि रटंत विद्या, फलंत नाही | 


भारतीय ज्योतिष इतना उन्नत था कि जब विदेशी लोग कपडे पहनना भी नहीं जानते थे, तब हम लोगो ने पृथ्वी से सूर्य की दूरी, सभी ग्रहों की दूरी, व्यास, परिक्रमण इत्यादि निकाल लिया था और तुम बात करते हो कि भारत ने दिया क्या है ! यदि भारत ने ये सब न दिया होता, तो पश्चिमी देश क्या भौतिक विज्ञान में उन्नति पाते और क्या आज हमारे देश को उपदेश दे रहे होते | अफ़सोस, आज हमारे ही शास्त्रों को, आजकल की जनरेशन बिना पढ़े ही रिजेक्ट करना चाहती है | बचपन से पढाये नहीं जाते सो बड़े होने पर ऊट पटांग अवधारणायें, ये लोग पोंगा पंडितों के कहने पर बना लेते हैं जैसे तुमने बना ली कि हमारे देश के विज्ञान ने दुनिया को दिया क्या है | जो आज भी शास्त्रों को पढता है, उन्हें गुनता है, उन पर विश्वास करता है, वो मंजुल भार्गव बन जाता है और आज भी (२०१४) में गणित का फील्ड मैडल (गणित का  नोबल पुरूस्कार) प्राप्त कर लेता है और वो भी pi की वैल्यू को निष्पादित करने के लिए और तुम जैसे मूर्ख लोग, अपने शास्त्रों को संदेह की दृष्टी से ही देखते रह जाते हो |  

✍🏻अभिनंदन शर्मा


ज्‍योतिष के यन्‍त्र : कैसे-कैसे ?


ज्‍योतिष के यन्‍त्रों की अनुपम विरासत है। ज्‍योतिष के प्राचीन यन्‍त्रों का विवरण यदि हमें पंचसिद्धांतिका, सूर्यसिद्धांत, सिद्धांत शेखर, सिद्धांत शिरोमणि, ब्रह्मस्‍फुट सिद्धांत, बटेश्‍वर सिद्धांत आदि में मिलता है तो सौर वेधशालाओं की स्‍थापना के बाद, नए सिरे से विकसित यन्‍त्रों की स्‍थापना हुई तो खगोल-भूगोल की गणनाओं के लिए मानक रूप से यन्‍त्रों की स्‍थापना की जाने लगी। इस कार्य में खास दिलचस्‍पी जयपुर नरेश सवाई जयसिंह (राज्‍यारोहण 1693 ई.) ने ली। जयसिंह ने देश-विदेश की समय गणना पर आधारित ग्रंथों का अध्‍ययन के लिए न केवल संग्रह किया, बल्कि नए सिरे से स्‍वयं ने भी लिखा और अपने आश्रित दैवज्ञों से सौर वेधशालाओं के लिए यन्‍त्र और यन्‍त्रों के निर्माण-नियोजन के प्रयोजन से कृतियों की रचना भी करवाई। 

इनमें ग्रीक भाषा में साबजूस यूस नामक लेखक की कृति को 'उकरा' के नाम से नयनसुख उपाध्‍याय ने संस्‍कृत में अनूदित किया। इसमें गोलीय ज्‍यामिति विषयक सिद्धांत का प्रतिपादन है। इसका संपादन पं. विभूतिभूषण भट्टाचार्य ने किया। जयसिंह ने स्‍वयं 'यन्‍त्रराज रचना' का प्रणयन किया। यह प्रणयन उनके द्वारा स्‍थापित वेधशालाओं में बनवाए जाने वाले यन्‍त्रों की रचना के प्रयोजन से किया गया। यह मूलत: पारिभाषिक ग्रंथ की कोटि का है जिसका संपादन पंडित केदारनाथ ज्‍योतिर्विद ने किया। इसके अतिरिक्‍त जगन्नाथ दैवज्ञ कृत 'सम्राट्सिद्धांत' नामक ग्रंथ में भी वेधशालाओं के यन्‍त्रों का विवरण दिया गया है। श्रीनाथद्विज ने यन्‍त्र प्रभा की रचना की तो पं. केदारनाथ ने 'यन्‍त्रराज प्रभा' का संकलन किया। पंडित  नयनसुख उपाध्‍याय ने 'यन्‍त्रराजविचार विंशाध्‍यायी' की रचना भी की।

इस प्रकार ज्‍योतिष विषयक यन्‍त्रों के संबंध में हमारे यहां ग्रंथों का प्रणयन हुआ। साथ ही साथ ज्‍योतिष के यन्‍त्रों का निर्माण भी हुआ। बूंदी के राज्‍याश्रय में यन्‍त्र निर्माण करने वाले दैवज्ञ का विवरण मुंशी देवीप्रसाद ने दिया है। हाल ही मुझे मित्रवर श्री विक्रमार्क अत्रि ने यन्‍त्रराज का एक चित्र भेजा और इस संबंध में लिखने  को प्रेरित किया। इस यन्‍त्र पर उत्‍कीर्ण है- 

'' संवत् 1700 चैत्र कृष्‍णैकादश्‍यां, 

मणि रामेण कारितं। 

श्रीलीलानाथ्‍ा ज्‍येातिर्विदीयम्।'' 

इससे विदित होता है कि चैत्र माह के कृष्‍ण पक्ष की एका‍दशी संवत् 1700 को इस यंत्र का निर्माण मणिराम ने किया था। यह यत्र ज्‍येातिर्विद श्रीलीलानाथ के लिए बनाया गया था। इसमें जिस तरह सूची आदि का प्रयोग किया गया है, वह इसकी आं‍तरिक रचना को भी जाहिर करता है। इसमें बाह़य, मध्‍य और आन्‍तरिक वृत्‍तों में संख्‍याओं को लिखा गया है। बाह्य चक्र पर छह की संख्‍या से आरंभ करते हुए आगे तक बढ़ाया गया है। यह लेखन उभय क्रम से हुआ है यथा- 6, 12, 18, 24, 30, 36, 42, 48, 54,  60, 66... 90 और फिर छह-छह की संख्‍या को पुन: घटाते हुए संख्‍याओं को उत्‍कीर्ण किया गया है। वृत्‍तीय रूप में ऐसा चार बार हुआ है। मध्‍य के वृत्‍त पर नीचे 1 से लेकर 12 तक अंक है और मध्‍य में छह के अंकों का पूर्वानुसार ही न्‍यास हुआ है। ऐसा हुआ  है और मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्‍या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुंभ और मीन इन बारह राशियों के नाम लिखे गए हैं। मध्‍य में ऊर्ध्‍व रेखा पर 90, उस पर 6 घटाकर 84 का अंक उत्‍कीर्ण किया गया है...।

हमारे लिए तो यह बात ही रोचक है कि ज्‍योतिष में ऐसे यन्‍त्र से राश्‍यानुसार नक्षत्रादि, शर व क्रांति, वेध आदि की गणना की जाती रही होगी मगर यह गणित है जरा कठिन, हमें तो उठते ही वाट्सएप पर पूरा पंचांग मिल जाता है, हम समय देखने के लिए घड़ी तक नहीं बांध रहे हैं तो फिर ऐसा समझना तो कठिन लगेगा ही। बहरहाल, यदि आपके ध्‍यान में भी ऐसे यंत्रों की कोई जानकारी है तो मैं भी देखना चाहूंगा और मित्र भी...। 

✍🏻श्रीकृष्ण जुगनू


....बड़ा रहस्यमयी है यह जंतर मंतर ...


यह जंतर मंतर ग्रहो की गति को माप लेता है, ध्यान रहें, आज विज्ञान इसी में अरबो खरबों खपा रहा है, जो ज्ञान भारतीय राजाओ ने हमे फ्री में दिया .... खुद मेहनत करके ।।


राजा जयसिंह द्वितीय बहुत छोटी आयु से गणित में बहुत ही अधिक रूचि रखते थे। उनकी औपचारिक पढ़ाई ११ वर्ष की आयु में छूट गयी क्योंकि उनकी पिताजी की मृत्यु के बाद उन्हें ही राजगद्दी संभालनी पड़ी थी। २५जनवरी, १७०० में गद्दी संभालने के बाद भी उन्होंने अपना अध्ययन नहीं छोडा। उन्होंने बहुत खगोल विज्ञानं और ज्योतिष का भी गहरा अध्ययन किया। उन्होंने अपने कार्यकाल में बहुत से खगोल विज्ञान से सम्बंधित यंत्र एवम पुस्तकें भी एकत्र कीं। उन्होंने प्रमुख खगोलशास्त्रियों को विचार हेतु एक जगह एकत्र भी किया। कहते है जयसिंह जी ने 40,000 पन्नो की पढ़ाई की थी, मात्र जंतर मंतर के लिए ।। 


जंतर-मंतर के प्रमुख यंत्रों में सम्राट यंत्र, नाड़ी वलय यंत्र, दिगंश यंत्र, भित्ति यंत्र, मिस्र यंत्र, आदि प्रमुख हैं, जिनका प्रयोग सूर्य तथा अन्य खगोलीय पिंडों की स्थिति तथा गति के अध्ययन में किया जाता है। जंतर-मंतर के प्रमुख यंत्रों में सम्राट यंत्र, नाड़ी वलय यंत्र, दिगंश यंत्र, भित्ति यंत्र, मिस्र यंत्र, आदि प्रमुख हैं, जिनका प्रयोग सूर्य तथा अन्य खगोलीय पिंडों की स्थिति तथा गति के अध्ययन में किया जाता है। जो खगोल यंत्र राजा जयसिंह द्वारा बनवाये गए थ, उनकी सूची इस प्रकार से है:


सम्राट यन्त्र

सस्थाम्सा

दक्सिनोत्तारा भित्ति यंत्र

जय प्रकासा और कपाला

नदिवालय

दिगाम्सा यंत्र

राम यंत्र

रसिवालाया

राजा जय सिंह तथा उनके राजज्योतिषी पं। जगन्नाथ ने इसी विषय पर 'यंत्र प्रकार' तथा 'सम्राट सिद्धांत' नामक ग्रंथ लिखे।


५४ वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु के बाद देश में यह वेधशालाएं बाद में बनने वाले तारामंडलों के लिए प्रेरणा और जानकारी का स्रोत रही हैं। हाल ही में दिल्ली के जंतर-मंतर में स्थापित रामयंत्र के जरिए प्रमुख खगोलविद द्वारा शनिवार को विज्ञान दिवस पर आसमान के सबसे चमकीले ग्रह शुक्र की स्थिति नापी गयी थी। इस अध्ययन में नेहरू तारामंडल के खगोलविदों के अलावा एमेच्योर एस्ट्रोनामर्स एसोसिएशन और गैर सरकारी संगठन स्पेस के सदस्य भी शामिल थे।


भारत - ज्ञान के रथ के देश मे जयसिंहजी जैसे राजा का सम्मान नही, किंतु .....

✍🏻शंकर शांडिल्य

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