रविवार, 24 अक्तूबर 2021

रानी चेनम्मा का जन्म औऱ संघर्ष



रानी चेन्नम्मा की  वीरता 💐  । 


स्वतंत्रता संग्राम के संदर्भ में दक्षिण भारत  कर्नाटक में वही स्थान कित्तूर की रानी  चेन्नम्मा ने लक्ष्मीबाई से पहले ही अंग्रेजों की सत्ता को सशस्त्र चुनौती दी थी और अंग्रेजों की सेना को उनके सामने दो बार मुंह की खानी पड़ी थी। रानी चेनम्मा के साहस एवं उनकी वीरता के कारण देश के विभिन्न हिस्सों खासकर कर्नाटक में उन्हें विशेष सम्मान हासिल है और उनका नाम आदर के साथ लिया जाता है। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के संघर्ष के पहले ही रानी चेनम्मा ने युद्ध में अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए थे। हालांकि उन्हें युद्ध में कामयाबी नहीं मिली और उन्हें कैद कर लिया गया। अंग्रेजों के कैद में ही रानी चेनम्मा का निधन हो गया।

चेन्नम्मा का अर्थ होता है सुंदर कन्या। इस सुंदर बालिका का जन्म 1778 ई. में दक्षिण के काकातीय राजवंश में हुआ था। पिता धूलप्पा और माता पद्मावती ने उसका पालन-पोषण राजकुल के पुत्रों की भांति किया। उसे संस्कृत भाषा, कन्नड़ भाषा, मराठी भाषा और उर्दू भाषा के साथ-साथ घुड़सवारी, अस्त्र शस्त्र चलाने और युद्ध-कला की भी शिक्षा दी गई।

चेन्नम्मा का विवाह कित्तूर के राजा मल्लसर्ज के साथ हुआ। कित्तूर उन दिनों मैसूर के उत्तर में एक छोटा स्वतंत्र राज्य था। परन्तु यह बड़ा संपन्न था। यहां हीरे-जवाहरात के बाजार लगा करते थे और दूर-दूर के व्यापारी आया करते थे। चेन्नम्मा ने एक पुत्र को जन्म दिया, पर उसकी जल्दी मृत्यु हो गई। कुछ दिन बाद राजा मल्लसर्ज भी चल बसे। तब उनकी बड़ी रानी रुद्रम्मा का पुत्र शिवलिंग रुद्रसर्ज गद्दी पर बैठा और चेन्नम्मा के सहयोग से राजकाज चलाने लगा। शिवलिंग के भी कोई संतान नहीं थी। इसलिए उसने अपने एक संबंधी गुरुलिंग को गोद लिया और वसीयत लिख दी कि राज्य का काम चेन्नम्मा देखेगी। शिवलिंग की भी जल्दी मृत्यु हो गई।

अंग्रेजों की नीति डाक्ट्रिन आफ लैप्स के तहत दत्तक पुत्रों को राज करने का अधिकार नहीं था। ऐसी स्थिति आने पर अंग्रेज उस राज्य को अपने साम्राज्य में मिला लेते थे। कुमार के अनुसार रानी चेनम्मा और अंग्रेजों के बीच हुए युद्ध में इस नीति की अहम भूमिका थी। 1857 के आंदोलन में भी इस नीति की प्रमुख भूमिका थी और अंग्रेजों की इस नीति सहित विभिन्न नीतियों का विरोध करते हुए कई रजवाड़ों ने स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया था। डाक्ट्रिन आफ लैप्स के अलावा रानी चेनम्मा का अंग्रेजों की कर नीति को लेकर भी विरोध था और उन्होंने उसे मुखर आवाज दी। रानी चेनम्मा पहली महिलाओं में से थीं जिन्होंने अनावश्यक हस्तक्षेप और कर संग्रह प्रणाली को लेकर अंग्रेजों का विरोध किया।

अंग्रेजों की नजर इस छोटे परन्तु संपन्न राज्य कित्तूर पर बहुत दिन से लगी थी। अवसर मिलते ही उन्होंने गोद लिए पुत्र को उत्तराधिकारी मानने से इन्कार कर दिया और वे राज्य को हड़पने की योजना बनाने लगे। रानी चेन्नम्मा ने सन् 1824 में (सन् 1857 के भारत के स्वतंत्रता के प्रथम संग्राम से भी 33 वर्ष पूर्व) उन्होने हड़प नीति (डॉक्ट्रिन आफ लेप्स) के विरुद्ध अंग्रेजों से सशस्त्र संघर्ष किया था।

आधा राज्य देने का लालच देकर उन्होंने राज्य के कुछ देशद्रोहियों को भी अपनी ओर मिला लिया। पर रानी चेन्नम्मा ने स्पष्ट उत्तर दिया कि उत्तराधिकारी का मामला हमारा अपना मामला है, अंग्रेजों का इससे कोई लेना-देना नहीं। साथ ही उसने अपनी जनता से कहा कि जब तक तुम्हारी रानी की नसों में रक्त की एक भी बूंद है, कित्तूर को कोई नहीं ले सकता। रानी का उत्तर पाकर धारवाड़ के कलेक्टर थैकरे ने 500 सिपाहियों के साथ कित्तूर का किला घेर लिया। 23 सितंबर, 1824 का दिन था। किले के फाटक बंद थे। थैकरे ने बस कुछ मिनट के अंदर आत्मसमर्पण करने की चेतावनी दी। इतने में अकस्मात किले के फाटक खुले और दो हजार देशभक्तों की अपनी सेना के साथ रानी चेन्नम्मा मर्दाने वेश में अंग्रेजों की सेना पर टूट पड़ी। थैकरे भाग गया। दो देशद्रोही को रानी चेन्नम्मा ने तलवार के घाट उतार दिया। अंग्रेजों ने मद्रास और मुंबई से कुमुक मंगा कर 3 दिसंबर, 1824 को फिर कित्तूर का किला घेर डाला। परन्तु उन्हें कित्तूर के देशभक्तों के सामने फिर पीछे हटना पड़ा। दो दिन बाद वे फिर शक्तिसंचय करके आ धमके। छोटे से राज्य के लोग काफी बलिदान कर चुके थे। चेन्नम्मा के नेतृत्व में उन्होंने विदेशियों का फिर सामना किया, पर इस बार वे टिक नहीं सके। रानी चेन्नम्मा को अंग्रेजों ने बंदी बनाकर जेल में डाल दिया। उनके अनेक सहयोगियों को फांसी दे दी। कित्तूर की मनमानी लूट हुई। 02 फरवरी 1829 ई. को जेल के अंदर ही इस वीरांगना रानी चेन्नम्मा का देहांत हो गया।

भले ही रानी चिन्नम्मा अंग्रेजों को परास्त ना कर पायी हो लेकिन मातृभूमि के प्रति अपने प्रेम और अपनी वीरता के कारण अंग्रेज उनके विश्वास को अडिग नहीं कर पाए। स्त्री के साहस की मिसाल रानी चिन्नम्मा भले ही इतिहास के पन्नों में समा गई हों लेकिन उनका जीवन और साहस उन्हें उन विजित राजाओं से कहीं ऊपर रखता है जो आत्मसम्मान और गुलामी की कीमत पर अपनी साख और राज्य को बचाकर रखते हैं। ✍️ 🚩

✍🏻करंजे के यस


झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, रानी चेनम्मा, रानी अब्बक्का जैसी अंग्रेजों की गुलामी से ठीक पहले की रानियों का जिक्र होते ही एक सवाल दिमाग में आता है | युद्ध तलवारों से, तीरों से, भाले – फरसे जैसे हथियारों से लड़ा जाता था उस ज़माने में तो ! इनमे से कोई भी 5-7 किलो से कम वजन का नहीं होता | इतने भारी हथियारों के साथ दिन भर लड़ने के लिए stamina भी चाहिए और training भी |


रानी के साथ साथ उनकी सहेलियों, बेटियों, भतीजियों, दासियों के भी युद्ध में भाग लेने का जिक्र आता है | इन सब ने ये हथियार चलाने सीखे कैसे ? घुड़सवारी भी कोई महीने भर में सीख लेने की चीज़ नहीं है | उसमे भी दो चार साल की practice चाहिए | ढेर सारी खुली जगह भी चाहिए इन सब की training के लिए | Battle formation या व्यूह भी पता होना चाहिए युद्ध लड़ने के लिए, पहाड़ी और समतल, नदी और मैदानों में लड़ने के तरीके भी अलग अलग होते हैं | उन्हें सिखाने के लिए तो कागज़ कलम से सिखाना पड़ता है या बरसों युद्ध में भाग ले कर ही सीखा जा सकता है |


अभी का इतिहास हमें बताता है की पुराने ज़माने में लड़कियों को शिक्षा तो दी ही नहीं जाती थी | उनके गुरुकुल भी नहीं होते थे ! फिर ये सारी महिलाएं युद्ध लड़ना सीख कैसे गईं ? ब्राम्हणों के मन्त्र – बल से हुआ था या कोई और तरीका था सिखाने का ?


लड़कियों की शिक्षा तो नहीं होती थी न ? लड़कियों के गुरुकुल भी नहीं ही होते थे ?


आम तौर पर आपको दल हित चिन्तक और एक आयातित विचारधारा के प्रवर्तक ये बताएँगे कि भारत में स्त्री शिक्षा का कोई प्रावधान नहीं था | लड़कियों को कहने के लिए तो दुर्गा-काली कहा जाता था लेकिन उन्हें हथियार चलाना नहीं सिखाया जाता था | अगर आप रानी लक्ष्मीबाई का उदाहरण देंगे तो वो कहेंगे वो तो रानी थी | जब आप बताएँगे कि उन्होंने कुछ ही दिनों में 5000 स्त्री सैनिक कैसे जमा कर लिए थे तो वो कोई और कुतर्क गढ़ेंगे |


ऐसा करते समय वो एक बुरी सी चीज़ भूल जाते हैं | भारत श्रुति की परम्पराओं से चलता है | अब किताबें लिखने के बदले अगर लोगों ने उसे पूरा का पूरा याद ही कर रखा हो तो उसे मिटाना संभव नहीं होता | हर याद कर चुके व्यक्ति की हत्या कर डालेंगे तभी वो पूरी तरह ख़त्म होगा | एक भी अगर बचा रह गया तो वो किसी ना किसी को सिखा देने में कामयाब हो जायेगा | गुरुकुलों और अखाड़ों की परम्पराओं को तोड़ने के लिए हर घृणित षडयंत्र रचने के वाबजूद गोर साहब और उनके ये भूरे गुलाम नाकाम ही रहे |


इन तथाकथित दल हित चिंतकों और आयातित विचारधारा वाले प्रख्यात कहे जाने वाले नारीवादियों ने बड़े प्यार से जिनका नाम मनु-स्मृति इरानी रखा है उन्होंने कुछ दिन पहले एक फोटो लगाने का अभियान और चला दिया | उन्होंने हस्तशिल्प और हथकरघा को बढ़ावा देने के लिए हथकरघा से निर्मित साड़ी में अपनी तस्वीर डाल दी | सोशल मीडिया पर ये एक मुहीम की तरह जब शुरू हुआ तो कई महिलाओं ने इसमें शिरकत की | इसी कड़ी में चेन्नई के लॉयला कॉलेज की एक शिक्षिका ऐश्वर्या मानिवान्नन ने तस्वीर के बदले अपना विडियो डाला | वो सिलम्वम नाम से जाने जाने वाली लाठी चलाने की कला में भी अभ्यस्त हैं | उनका विडियो वायरल हो चला है |


याद दिलाते चलें, कि इस दौर में भारत में रानी चेनम्मा, k के विरुद्ध लड़ रही थी | इसी दौर में रानी अबक्का पुर्तगालियों के खिलाफ लड़ रही थी | इसके बाद रानी लक्ष्मीबाई की पांच हज़ार महिलाओं की सैन्य टुकड़ी थी | बाकी तथाकथित नारीवादियों के हिसाब से हिन्दुओं में नारी को पैर की जूती और पश्चिम में आजादी की अवधारणा भी समझिये | काहे कि परसेप्शन (perception) और रियलिटी (reality) का फर्क तो हैएये है |

ये सारे पन्ने हमारी किताबों से गायब हो गए हैं | शुक्र है की रानी चेनम्मा और रानी लक्ष्मीबाई ज्यादा पुराने समय की नहीं हैं | लोक कथाओं ने इन्हें भारत के कल्पित इतिहास में विलुप्त होने से बचा लिया |

✍🏻आनन्द कुमार

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