शनिवार, 18 सितंबर 2021

समंदर के नीचे जल

 एक पोस्ट में ईरानी मरुस्थल के नीचे बिछी सँसार की सबसे बड़ी कनात नहरों के जाल के बारे में लिखा और उस अभियांत्रिकी को बधाई दी। 


तो कुछ लोगों को यह लगा कि मैं उनकी उस समय की अभियांत्रिकी की तुलना में आर्यावर्त को 'हीन' मान रहा हूँ। ऐसा नहीं है मित्रों, मैं किसी शत्रु की भी अच्छी बात की प्रशंसा कर देता हूँ, वे तो फिर भी अपने थे। 


आइये उस काल के बारे में 'अपनी' बात बताते हैं। 


उन नहरों के बनने का काल तीन हजार वर्ष पूर्व का है, तो हमारे यहाँ 'चार हजार' वर्ष पूर्व ही गुजरात का 'लोथल' बंदरगाह (समुद्री पत्तन) के लिए समूचे विश्व में प्रसिद्ध था और विश्व का सर्वाधिक व्यापार इसी पत्तन से होता था। लोथल नगर की सड़कें तथा घर इस निपुणता से बनाए गए थे कि उनके समक्ष हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की व्यवस्था भी पीछे थी। हालाँकि ये दोनों नगरीय सभ्यताएं भी तब भारत की ही थीं। 


लोथल में मार्ग एक दूसरे को समकोण पर काटते थे तथा उनकी दिशा ऐसी बनाई गई थी कि सुबह शाम सागरीय हवाओं के चलने से ही वे स्वयमेव स्वच्छ हो जाते थे। उनको बनाने में हवाओं की दिशा की गणना उस समय की श्रेष्ठ अभियांत्रिकी का उदाहरण थीं। मोहल्ले के मार्गों की चौड़ाई भी लगभग चालीस फीट तक की थी। 


सबसे मुख्य बात तो यह थी कि मोहल्लों में घरों के प्रवेश द्वार मार्गों पर नहीं खुलते थे, बल्कि पार्श्व में बनी गलियों में खुलते थे। यह व्यवस्था संभवतः इसलिए बनाई गई थी कि मुख्य मार्गों पर भारी वाहनों (हाथगाड़ी या घोडागाड़ी) की दौड़ा-दौड़ी हुआ करती थी क्योंकि यह एक अतिव्यस्त व्यापारिक नगर था। 


सो यदि घरों के द्वार मुख्यमार्ग पर खुलते तो किसी के अचानक से सड़क पर आकर वाहनों से दुर्घटनाग्रस्त होने की सम्भावना थी। विशेषतः छोटे बच्चों के लिए। अब सोचिये कि आज के चार हजार वर्ष पूर्व ही नगर बनाते समय भी इतनी छोटी-छोटी बातों का ध्यान रखा गया तो उस सभ्यता की अभियांत्रिकी कैसी होगी। 


अच्छा, कनात नहरों के निर्माणकाल के आसपास की ही चर्चा किया जाय, तो तीन हजार वर्ष पूर्व गुजरात में ही एक ऋषि थे 'महर्षि कणाद'। हालाँकि उनका मूल नाम तो कश्यप था लेकिन सूक्ष्म कणों पर उनके वैज्ञानिक अनुसंधानों के कारण ही उनका नाम कणाद प्रचलित हुआ। 


'जॉन डाल्टन' ने अभी हाल में अणु-परमाणु की खोज की कोई दो ढाई सौ वर्ष पूर्व, परन्तु कणाद ऋषि ने तीन हजार वर्ष पूर्व ही बता दिया था कि, "धरती की प्रत्येक वस्तु अणुओं से बनी है।" महर्षि कणाद ने परमाणु के संबंध में विस्तार से लिखा है। भौतिक जगत की उत्पत्ति सूक्ष्मातिसूक्ष्म कण परमाणुओं के संघनन से होती है- इस सिद्धांत के जनक महर्षि कणाद थे। यह बात बाद में आधुनिक युग के अणु विज्ञानी जॉन डाल्टन ने भी मानी।


सबकुछ भारत से चोरी करके ले जाया गया और उनको अपने नाम से छाप दिया गया है।

 

महर्षि कणाद ने ही अपने ग्रन्थ 'वैशेषिक दर्शन' में 'न्यूटन' से पूर्व ही गति के तीन नियम बताए थे। 


"वेगः निमित्तविशेषात कर्मणो जायते। 

वेगः निमित्तापेक्षात कर्मणो जायते नियतदिक क्रियाप्रबन्धहेतु। 

वेगः संयोगविशेषविरोधी॥ "


अर्थात्‌ वेग या मोशन (motion) पांचों द्रव्यों पर निमित्त व विशेष कर्म के कारण उत्पन्न होता है तथा नियमित दिशा में क्रिया होने के कारण संयोग विशेष से नष्ट होता है या उत्पन्न होता है।


केवल पश्चिम में ही सेव पेड़ से धरती पर नहीं गिरते थे, हमारे यहाँ भी धरती पर ही गिरते थे।


आज से 2600 वर्ष पूर्व ब्रह्माण्ड का विश्लेषण परमाणु विज्ञान की दृष्टि से सर्वप्रथम एक शास्त्र के रूप में सूत्रबद्ध ढंग से महर्षि कणाद ने अपने 'वैशेषिक दर्शन' में प्रतिपादित किया था। कुछ मामलों में महर्षि कणाद का प्रतिपादन आज के विज्ञान से भी आगे है।


यह थी हमारे यहाँ की बौद्धिक क्षमता। चिकित्सा में चरक एवं सुश्रुत। क्या यह सब ज्ञान बिना उचित यंत्रों या उपकरणों के आविष्कार के ही आ गया होगा?


तथापि, कणाद ऋषि के शाकाहारी होने की सीमा भी देखिये कि वे केवल जमीन पर गिरे हुए फल या चावल के दाने चुन कर लाते थे और उससे अपना पेट भरते थे। उनका मानना था कि पेड़-पौधों में भी जीवन होता है और यूँ उनके फलों को तोड़ कर खाने से उन्हें कष्ट होगा। 

✍🏻इं. प्रदीप शुक्ला 

 "जय हिन्द..!!"


पछमता - सिंधुघाटी के निवासियों के रिश्‍ते का गांव


सिंघुघाटी सभ्‍यता के निवासियों ने जिस भूमि से अपने लिए बहुत से संसाधन जुटाए, उस मेवाड़ क्षेत्र के पछमता गांव के टीलों की खुदाई में हाल ही कई चौंकाने वाले तथ्‍य उजागर हुए हैं। यहां जनार्दनराय नागर राजस्‍थान विद्यापीठ विश्‍व विद्यालय, केनेसा स्‍टेट यूनिवरसिटी अमेरिका तथा डेकन कॉलेज, पुणे के साझे में इन दिनों उत्‍खनन कार्य चल रहा है और हाल ही जो प्रमाण मिले हैं, वे जाहिर करते हैं कि वे करीब पांच हजार साल पुरानी भारतीय सभ्‍यता और संस्‍कृति की झलक लिए हैं। पछमता राजसमंद जिले का गांव है और बनास नदी के प्रवाह क्षेत्र में गिलूंड के पास ही बसा है। इसको आहाड़ और बनास सभ्‍यता का हिस्‍सा माना जाता है और इसके करीब 110 गांवों मे से एक हैं। सचमुच प्राचीनतम गांवों की शृंखला का मेवाड़ बडा क्षेत्र रहा है। बनास को वर्णासा के रूप में पुराणों और स्‍मृतियों में संदर्भित किया गया है। आयुर्वेद के प्राचीनतम ग्रंथों में इस नदी के जल के स्‍वाद और गुणधर्म की चर्चा की गई है। मैंने 'मेवाड़ का प्रारम्भिक इतिहास' में इस संबंध में चर्चा की है।


इस क्षेत्र को खेती के लिहाज से विकसित किया गया था। यह किसानों की बहुलता वाला गांव था। खेती को जीवन का आवश्‍यक अंग मानकर इस क्षेत्र को उत्‍पाद के लिए चुना गया था। उनके पास अपने कार्यों को अंजाम देने के लिए कांसा और जस्‍ता के औजार थे। हमें याद रखना चाहिए कि दुनिया को जस्‍ता देने का श्रेय मेवाड़ काे ही है। ये प्रमाण इस बात को पुष्‍ट कर रहे हैं कि करीब 2500 साल पहले सिंधु घाटी सभ्‍यता के निवासी कांसा और जस्‍ता प्राप्‍त करने के लिए यहां आते थे। यहां से सुरक्षा के लिहाज से बनाया गया परकोटा भी सामने आया है। मिट्टी के बर्तनों का निर्माण काली और लाल मृदा से तैयार किए जाते थे जिन पर खडिया से चित्रकारी की जाती थी। चूल्‍हों का निर्माण भी लाल मिट्टी से किया जाता था और उनको धूप में सेका जाता था। महिलाओं को चूडियां तब भी पसंद थी और खास बात ये कि वे विशेष आभूषण की तरह विशेष अवसरों के लिए बनाई गई थी... कई जानकारियां हैं जाे अभी सामने आएंगी और समय-समय पर राजस्‍थान विद्यापीठ से जुड़े, मित्रवर डाॅ. ललित पांडे बताएंगे। मेरे लिए यह खुशी का विषय है कि पछमता की पुरा सम्‍पदा के संबंध में कुछ सालों पहले मैंने अपनी किताब में खुलासा किया था।


मूषाओं के मकान - आश्‍चर्य का हेतु


दस साल पहले जब मैं 'समरांगण सूत्रधार' ग्रंथ पर काम कर रहा था तो उसमें भवन में मूषाओं के प्रयोग के संबंध में कई निर्देश थे और मैं 'मक्षिका स्‍थाने मक्षिकाम्' की तरह की मूल शब्‍द का ही प्रयोग करके एक बार तो आगे से आगे अर्थ करता चला गया। बाद में जो अर्थ होना चाहिए था, वह पुनर्स्‍थापित किया किंतु उदयपुर जिले के जावर में तो मूषाअों [Retorts] के प्रयोग को देखकर फिर कोई नया अर्थ सामने आ गया। जरूर भोजराज के समय, 10वीं सदी तक जावर जैसा प्रयोग लुप्‍त हो गया होगा।  

जावर दुनिया में सबसे पहले यशद देने वाली खदान के लिए ख्‍यात रहा है। यशद या जिंक का प्रयोग होने से पहले इस धातु को जिन लोगों ने खोजा और वाष्‍पीकृत हाेने से पहले ही धातुरूप में प्राप्‍त करने की विधि को खोजा- वे भारतीय थे और मेवाड़ के जाये जन्‍मे थे। सामान्‍य घरों में रहने वाले और जिस किसी तरह गुजारा करने वाले। जावर की खदान सबसे पहले चांदी के लिए जानी गई और ये पहाड़ाें में होने से इनको 'गिरिकूप' के रूप में शास्‍त्र में जाना गया। पर्वतीय खानों में उत्‍खनन के लिए पहले ऊपर से ही खोदते-खोदते ही भीतर उतरा जाता था। शायद इसी कारण यह नाम हुआ हो। यहां 'मंगरियो कूड़ो' या डूंगरियो खाड़ कहा भी जाता है।

तो, करीब ढाई हजार साल पहले यहां धातुओं के लिए खुदाई ही नहीं शुरू हुई बल्कि अयस्‍कों को निकालकर वहीं पर प्रदावण का कार्य भी आरंभ हुआ। जरूर यह समय मौर्यपूर्व रहा होगा तभी तो चाणक्‍य ने पर्वतीय खदानों की पहचान करने की विधि लिखी है और आबू देखने पहुंचे मेगास्‍थनीज ने भी ऐसी जगहों को पहचान कर लिखा था।

यहां प्रदावण का कार्य इतने विशाल स्‍तर पर हुआ कि यदि कोई जावर देख ले तो अांखें पलक झपकना भूल जाए। हर कदम पर रोमांच लगता है। कदम-दर-कदम मूषाओं का भंडार और उनमें भरा हुआ अयस्‍क चूर्ण जो जब पिघला होगा तो धातु की बूंद बनकर टपका होगा। धातु तत्‍काल हथिया लिया गया मगर मूषाओं का क्‍या करते ? एक मूषा एक ही बार काम में आती है। इसी कारण बड़े पैमाने पर यहां मूषाओं का निर्माण भी हुआ और उनका प्रदावण कार्य में उपयोग भी। प्राचीन भारतीय प्रौद्योगिकी का जीवंत साक्ष्‍य है जावर, जहां कितनी तरह की  मूषाएं बनीं, यह तो उनका स्‍वरूप देखकर ही बताया जा सकता है मगर 'रस रत्‍न समुच्‍चय' आदि ग्रंथों में एक दर्जन प्रकार की मूषाएं बनाने और औषधि तैयार करने के जिक्र मिलते हैं। इनके लिए मिट्टी, धातु, पशुरोम आ‍दि जमा करने की अपनी न्‍यारी और निराली विधियां हैं मगर, रोचक बात ये कि अयस्‍क का चूर्ण भरकर उनका मुख कुछ इस तरह के छिद्रित ढक्‍कन से बंद किया जाता था कि तपकर द्रव सीधे आग में न गिरे अपितु संग्रहपात्र में जमा होता जाए।

प्रदावण के बाद बची, अनुपयोगी मूषाओं का क्‍या उपयोग होता ? तब यूज़ एंड थ्रो की बजाय, यूज़ आफ्टर यूज़ का मन बना और मूषाओं का उपयोग कामगारों ने अपने लिए आवास तैयार करने में किया। कार्यस्‍थल पर ही आवास बनाने के लिए मूषाओं से बेहतर कोई वस्‍तु नहीं हो सकती थी। जिस मिट्टी से मूषाओं को बनाया जा रहा था, उसी मिट्टी के लौंदों से मूषाओं की दीवारें खड़ीकर चौकोर और वर्गाकार घर बना दिए गए। ये घर भी कोई एक मंजिल वाले नहीं बल्कि दो-तीन मंजिल वाले रहे होंगे। है न रोचक भवन विधान। 

ये बात भी रोचक है कि हवा के भर जाने के कारण वे समताप वाले भवन रहे होंगे। अंधड़ के चलने पर और बारिश के होने पर उन घरों की सुरक्षा का क्‍या होता होगा, मालूम नहीं। उनमे रहने का अनुभव कैसा रहा होगा, हममें से शायद ही किसी को ऐसे हवादार घर में रहने का अनुभव हो।

मगर, जावर की पहाडि़यां ऐसे मूषामय घरों की धनी रही हैं। आज केवल उनके अवशेष नजर आते हैं। कोई देखना चाहे तो जावर उनको बुला रहा है। 

अनुज श्रीनटवर चौहान को धन्यवाद कि वह इस नवरा‍त्र में मुझे जावर ले गया और मैं पूरे दिन इन मूषाओं के स्‍वरूप और मूषाओं के मकानों को देख देखकर हक्‍का-बक्‍का रहा। हम सबके लिए अनेक आश्‍चर्य हो सकते हैं, मगर मेरे लिए जावर भी एक बड़ा आश्‍चर्य है जहां आंखें जो देखती है, जबान उसका जवाब नही दे सकती। हां, कुछ वर्णन जरूर मैंने अपनी 'मेवाड़ का प्रारंभिक इतिहास' में किया है।


सूत्रधार देपाक : अद्वितीय अभियंता

( रणकपुर मन्दिर की विशेषताएं)


मेवाड़ और मारवाड़ की सीमा पर रणकपुर / राणकपुर का जो जिनालय प्रसिद्ध है, उसका नाम है : धरण विहार और त्रैलोक्य दीपक। ये दोनों नाम निर्माता पर केंद्रित है : धनदाता और श्रमदाता। यह मंदिर गणित और अगणित का अमित रूपक है। कुछ दिन पहले प्रियवर ताराचन्द ( प्रसिद्ध छायाकार) ने इसके बारे में खूब पूछा : जैसा पहले किसी ने न पूछा और न बताया... मैं भी चकित था।


रणकपुर के नाम और धाम के बारे में यह कौतुक ही होगा कि यह इतिहास, भूगोल, काम, अर्थ व्यवस्था और धार्मिक भावनाओं का अनूठा संगम है। 11वीं सदी में जब इस केंद्र को सूर्यपूजा स्थल के रूप में विकसित किया गया तब प्रत्येक दिशा में सात-सात अश्वों के रथ पर सवार सूर्यदेव की प्रतिमाओं का ऐसा अंकन किया गया कि गुजरात की चालुक्य शक्ति निरंतर प्रगति के पग पर आरूढ़ रहे। इस स्थान का नामकरण सूर्य की पत्नी राणकदे नाम पर हुआ। राजस्थानी लोकगीतों में उनका यशगान गाया जाता है : कालो जी कालो कांई करौं सहेल्यां ए, काला राणी राणकदे रा केश...। राणकदे की कहानियां कही जाती हैं।


यह मेवाड़, मारवाड़ ,आबू, चंद्रावती, सांभर, नागौर जैसे प्राचीन क्षेत्रों के बीच महत्वपूर्ण स्थान रहा है। श्रेष्ठियों ने इसको बहुत महत्व दिया है । इसमें सादड़ी का श्रेष्ठिवर्ग ( सादड़ी के साहूकार) महत्वपूर्ण रहा। महाराणा कुंभा के शासनकाल (1433 – 1468 ई.) में श्री धरणाक शाह ने इस स्थान पर जिनालयों का निर्माण करवाया था। उसका कुंभा के सभागार में विशिष्ट सम्मान था और भीनमाल, अजमेर, जूनागढ़, पाटन तक बड़ा नाम। ( भारतीय ऐतिहासिक प्रशस्तियां और अभिलेख : श्रीकृष्ण जुगनू)


इस काल में देश के चार श्रेष्ठतम शिल्पी (इंजीनियर) थे – सूत्रधार नारद , सूत्रधार जयतो , सूत्रधार मण्डन और सूत्रधार देपाक। इन चारों ने कौतुकप्रद वास्तु रचनाएँ की। नारद ने चित्तौड़गढ़ का प्रसिद्ध सतबीस देवालय बनवाया तो जयतो ने कीर्तिस्तंभ (विजय स्तंभ), मण्डन ने दिव्य दीवार वाला कुंभलगढ़ और देपाक ने रणकपुर का चौमुखा जिनालय। चारों का कोई जोड़ नहीं! चारों ही बेजोड़! (प्रासाद मण्डन की भूमिका, इतिहास के स्रोत : श्रीकृष्ण )


इस मंदिर का प्रतिष्ठा उत्सव इतना भव्य हुआ कि उसके विषय में “सोम सौभाग्य काव्य ” और संस्कृत में प्रशस्तियां रची गईं और पाषाण पर उत्कीर्ण करवाई गईं। देश में किसी मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा पर यह अनूठा काव्य है। उसकी संस्कृत में ही रत्नशेखरा टीका भी है। देपाक को श्रेष्ठी धरणाक शाह ने इतना सम्मान दिया कि उसकी मूर्ति भी बनवाकर मंदिर में लगवाई। कुंभा ने स्वयं सूत्रधार जयतो की मूर्ति उसके पुत्रों सहित कीर्ति स्तंभ में जड़वाई थी। 


रणकपुर के आदिनाथ प्रासाद में मूर्तिकला के अनेक पक्षों को ध्यान में रखा गया है। जैन शासन के देवताओं , इंद्रादि, विक्पालों  के अतिरिक्त लोक मंगल के केतुओं को भी मूर्तिमान किया गया। इनमें कटार में करतब दिखाती नटी की प्रतिमा राजस्थान से गुजरात तक के मंदिरों में मिलती जुलती है। साधु, संतों, यात्राओं के समूह उत्कीर्ण हैं।


क्या आप जानते हैं कि इसमें 1444 स्तंभ उस संवत के सूचक है (यानि 1387) जब धारणा शाह के पूर्वज संघपति हुए, ऐसा माना जाता है कि ये मूलत: 4 का अंक हैं। यह मंदिर भी चौमुखा है। जैन स्थापत्य का अनूठा उदाहरण है रणकपुर जैन मंदिर। ये अकेला मंदिर है जहां दिक्पाल 6 हाथ के हैं जबकि दो और चार हाथ वाले दिक्पाल राज्यभर में मिलते हैं। इसमें स्तंभों को जिस तरह से खड़ा किया गया है, वे चतुर्दिक, चतुर्मुख और चतुर्पीठीय हैं। सूत्रधार देपाक ने लीलावती (पाटी गणित ) के आधार पर इसकी गणना की और मध्य में मूल नायक की चतुर्मुखी प्रतिमा गृर्भगृह सहित विराजित कर चारों और स्तंभों का न्यास किया। 


खंभों की ये गणित जगदीश मंदिर (उदयपुर ) के सोपान से मेल खाती है। हां, 1444 के अंक में से जैन शास्त्र में 14 गुण स्थान माने गए है। तीर्थंकरों के समान ही 20 विहरमान है जो महाविदेह क्षेत्र में अशरीरी रूप में विद्यमान है जबकि 24 तीर्थंकर हैं। इनको मिलाकर 44 होते हैं और इनको गणनापूर्वक स्तंभों के मंडप पर उठाकर इस विशाल मंदिर की रचना की गई है। एक मान्यता यह भी लगती है कि तत्कालीन आचार्य के 36 गुण और 8 संपदाएं होती जिनको मिलाकर भी 44 की संख्या होती है। इस तरह से भी स्तंभों का संख्या क्रम निर्धारित किया गया है जैसा कि मित्र श्री रमेशजी जैन कहते हैं। ताज्जुब यहां की आरती का भी है। कभी संध्या तक रुककर देखिए। उसमें बोली के बोल कैसे होते हैं? गणित की गणना और वास्तविकता क्या होती है?


इसमें कल्पवृक्ष की वह कला मौजूद है जो किसी काल में पत्थरों को सुई से तराशकर सूक्ष्म रूप से तैयार की जाती थी। गुजरात के बाद ये कला यहीं पर हैं। यह पाषाण ढालने जैसी कला भी है। यह कल्पवृक्ष कल्पसूत्र की प्रतिष्ठा का सूचक है। स्तंभ और तोरण रचना में  कीर्तिमुख लुम्बकों, तोड़ों और मकरमुखों का सुंदर प्रयोग किया गया है। जैन ग्रंथों में वर्णित स्वर्गपुरियों ( अमर लोक ) को भूमि पर दिखाने का आयोजन जैसा प्रासाद है। बहुत कम ही लोगों को याद होगा कि पिछली सदी में श्री नर्मदाशंकर सोमपुरा ने इसका जीर्णोद्धार किया था। वे इस कार्य से इतने प्रभावित हुए कि “शिल्प रत्नाकर” जैसा ग्रंथ भी लिख दिया... (प्रासाद मण्डन  की भूमिका)

- ✍🏻डॉ. श्रीकृष्‍ण 'जुगनू'

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