गुरुवार, 5 अगस्त 2021

History_Of_Hindu_Chemistry

 #History_Of_Hindu_Chemistry के लेखक महान रसायनज्ञ, शिक्षक, उद्यमी और #संस्कृत प्रेमी डॉ. #प्रफुल्लचंद्र_राय का जन्म 2 अगस्त, 1861 ई. में #जैसोर ज़िले के #ररौली गांव में हुआ था। यह स्थान अब #बांग्लादेश में है तथा #खुल्ना ज़िले के नाम से जाना जाता है।


उनके पिता हरिश्चंद्र राय इस गाँव के प्रतिष्ठित ज़मींदार थे। वे प्रगतिशील तथा खुले दिमाग के व्यक्ति थे। आचार्य राय की माँ भुवनमोहिनी देवी भी एक प्रखर चेतना-सम्पन्न महिला थीं। जाहिर है, प्रफुल्ल पर इनका प्रभाव पड़ा था। आचार्य राय के पिता का अपना पुस्तकालय भी था। 


सन 1897 में #रसायनशास्त्र के ही एक विद्वान उनसे प्रेसीडेंसी कॉलेज कलकत्ता में जब मिलने आये तो वो उनसे भारतीय रसायनशास्त्र पर किताब लिखवाना चाहते थे। अपने ही क्षेत्र के एक विद्वान् की अपील पर प्रोफेसर पी.सी.रे ने “#रसेन्द्र_सार_संग्रह” को आधार मानकर एक छोटी सी पुस्तिका 1898 में ही तैयार कर दी। अपनी इस किताब को पढ़कर प्रोफेसर पी.सी. रे की रूचि खुद ही हिन्दुओं के प्राचीन रसायनशास्त्र के ज्ञान को दुनिया के सामने लाने में जाग गई। अब उन्होंने हिन्दु रसायनशास्त्र के ज्ञान को वृहद् रूप में दुनिया के सामने लाने की ठानी।


अपने शोध के लिए उन्होंने कविभूषण श्री राम पंडित नवकांत की मदद ली और #चरक, #सुश्रुत जैसे आयुर्वेद और रसायन के ग्रंथों से जानकारी इकठ्ठा की। जैसे जैसे काम आगे बढ़ने लगा, वैसे वैसे प्रोफेसर रे को समझ में आने लगा कि ये कोई छोटा मोटा काम नहीं है। करीब चार साल की मेहनत के बाद किताब का पहला भाग तैयार हुआ। इससे पहले कि किताब का दूसरा भाग तैयार हो पाता, पहले भाग की सारी प्रतियाँ बिक चुकी थी। पहले भाग का दूसरा संस्करण 1904 में निकालना पड़ा। जब तक 1909 में दूसरा भाग तैयार होता किताब लिखने की प्रेरणा देने वाले एम. बेर्थेलॉट गुजर चुके थे। उनकी प्रेरणा को याद करते हुए किताब का दूसरा भाग भी उन्हीं को समर्पित है।


दूसरे भाग को तैयार करने में जब प्रोफेसर पी.सी.रे को अपनी जानकारी कम लगी तो उन्होंने विक्टोरिया कॉलेज के प्रिंसिपल श्री ब्रजेन्द्र नाथ सील से भी मदद ली। दूसरे भाग में यांत्रिक और भौतिक रसायन से जुड़े हिन्दुओं के कई सिद्धांत उन्होंने लिखे हैं। इस किताब में उस दौर की ही भाषा का इस्तेमाल हुआ है जो पढने में थोड़ी कठिन लग सकती है। पुराने संस्करण होने के कारन फ्रांसीसी और ग्रीक भाषा के उद्धृत अंशों का अनुवाद भी नहीं है। उस दौर में रसायन के छात्रों को आम तौर पर बेर्थेलॉट, ब्लूमफील्ड, कोलब्रुक, गॉब्लेट जैसे कई लेखकों का लिखा और साथ ही विदेशी भाषाओं के हिस्से भी पढ़ने की आदत होती थी।


ब्रिटिश शासन में, उनकी ही नौकरी करते हुए भी लेखक ने किताब में कई कड़ी टिप्पणियाँ की हैं। उनकी रसायनशास्त्र की जानकारी पर सवाल नहीं उठाये जा सकते इसलिए टिप्पणियों को भी मान्य करना पड़ता है। वो कोवेल आर गौघ जैसे तथाकथित विद्वानों के गलत अनुवादों को चुनकर बता देते हैं। साथ ही उन्होंने यूल की किताब मार्काे पोलो से निकाल कर योगियों का वर्णन भी अपनी बात के समर्थन में प्रस्तुत कर दिया है। पाश्चात्य विद्वानों के तर्कों के खंडन का तरीका उन्होंने काफी पहले ही सिखा दिया था।


पिछले सौ सालों में हम कह सकते हैं कि हमारे विद्वान उसे बस भूलते-भुलाते रहे। उन्होंने हीरों के ज्वलन पर, सस्यका, गैरिका, कम्कुष्ट, वैक्रंता कई किस्म के अम्लों और क्षार, जेवर बनाने की प्रक्रिया में बंगाल में हो रही सोने की बर्बादी और हिन्दुओं और जापानियों के रस कपूर, मदिरा, और कज्जली बनाने की प्रक्रिया में होने वाले अंतर भी बताया है।


इतिहास की कम जानकारी और तारीखों का वैसा ही निर्धारण जैसा तात्कालिक विदेशियों ने किया था, ये उनकी किताब से स्पष्ट हो जाता है। उस समय तक प्राप्त जानकारी के आधार पर रसहृदय तंत्र ग्यारहवीं सदी की रचना थी और गोविन्द भगवत बौद्ध थे। ऐसे कई मिथक बाद के शोध ने तोड़ दिए हैं।


संस्कृत को पढ़ने में उन्हें होने वाली दिक्कतों की वजह से उन्हें कई दूसरे विद्वानों की मदद लेनी पड़ी थी। वो उद्देश्य (संक्षेप में मुद्दे को रखना), निर्देश (जिस मुद्दे को प्रस्तुत किया गया है, उसकी व्याख्या) और लक्षण (परिभाषा और सार) की प्रक्रिया को समझ नहीं पाते थे। चरक के आयुर्वेद के शास्त्रा से रसायनशास्त्र की जानकारी को अलग निकालने में उन्हें खासी मुश्किल हुई होगी।


अगर विषों और उपविषों का हिस्सा छोड़ दें तो हिन्दुओं के रसायन के सभी मुद्दों को प्रोफेसर पी.सी. रे ने छुआ है। आज ये किताब प्रिंट में जरा मुश्किल से मिलती है। शोध के छात्रों के लिए ये एक महत्वपूर्ण किताब है। प्रोफेसर पी.सी.रे का काम इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि उनके काम की वजह से ही हिन्दुओं के रसायनशास्त्रा की कई पुस्तकें प्रकाश में आई। आम तौर पर बहुसंख्यक हिन्दुओं की रूचि धार्मिक विषयों पर भाव विभोर होने और आह वाह करने तक ही सीमित रही है। आज जैसे पी.सी.रे की खुद की किताब कम छपती है, वैसे ही शायद ये हिन्दुओं के रसायनशास्त्र तो गायब ही हो गए होते।


किताब के पहले भाग की शुरुआत वेदों में रसायनशास्त्र से होती है। शुरुआत में ही वेद से आयुर्वेद, फिर धीरे धीरे तंत्रा का उद्भव, बुद्ध से ठीक पहले के काल में रसायनशास्त्रा की जानकारी का अरब की ओर बढ़ना और फिर बुद्ध के शुरूआती समय में ही आणविक नियमों के बनने और तत्वों की जानकारी का जिक्र है। फिर ये किताब आयुर्वेद में कैसे चरक और सुश्रुत जैसे विद्वानों ने चिकित्सा के लिए आयुर्वेद का इस्तेमाल किया इस बारे में एक हिस्सा है। यहाँ आयुर्वेदिक काल में रसायन का जिक्र है। फिर आगे चलकर सिद्धयोग में वृन्द द्वारा और चक्रपाणी द्वारा सन 900-1000 के बीच रसायन का इस्तेमाल बताया गया है।


सन् 1100 से 1300 के काल को पी.सी. रे तांत्रिक काल कहते हैं। इस दौरान तांत्रिकों ने रसायनशास्त्र में काफी योगदान दिया। इसके बाद रसरत्न समुच्चय जैसी किताबें आई। धातुओं उनके निष्कासन विधियों पर, अम्ल और किस्म किस्म के क्षार, बारूद, कृत्रिम अम्ल ऐसे विषयों पर कई नोट किताब के अंत में दिए गए हैं।


कुल मिला कर ये कहा जा सकता है कि हिन्दुओं के विज्ञान और उसकी तरक्की का जो विदेशी शासन काल में दबाया गया, उसे दोबारा जीवन देने में इस किताब और लेखक का योगदान अभूतपूर्व है। इसकी ऑनलाइन प्रतियाँ भी उपलब्ध हैं। अगर विज्ञान में रूचि हो तो पुनर्जागरण करने वाली इस किताब को एक बार जरूर देखें। यह पुस्तक www.archieve.org से डाउनलोड की जा सकती है 


- आनंद कुमार, "भारतीय धरोहर" में प्रकाशित 

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आचार्य राय केवल आधुनिक रसायन शास्त्र के प्रथम भारतीय प्रवक्ता (प्रोफेसर) ही नहीं थे बल्कि उन्होंने ही इस देश में रसायन उद्योग की नींव भी डाली थी। 'सादा जीवन उच्च विचार' वाले उनके बहुआयामी व्यक्तित्व से प्रभावित होकर #महात्मा_गांधी ने कहा था, "शुद्ध भारतीय परिधान पहने  इस सरल व्यक्ति को देखकर विश्वास ही नहीं होता कि वह एक महान वैज्ञानिक हो सकता है।" आचार्य की प्रतिभा इतनी विलक्षण थी कि उनकी आत्मकथा #Life_and_experiences_of_Bengali_Chemist "एक बंगाली रसायनज्ञ का जीवन एवं अनुभव" के प्रकाशित होने पर अतिप्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय विज्ञान पत्रिका #नेचर ने उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए लिखा था कि "लिपिबद्ध करने के लिए संभवत: प्रफुल्ल चन्द्र राय से अधिक विशिष्ट जीवन चरित्र किसी और का हो ही नहीं सकता।"


आचार्य राय एक समर्पित कर्मयोगी थे। उनके मन में विवाह का विचार भी नहीं आया और समस्त जीवन उन्होंने #प्रेसीडेंसी_कालेज के एक नाममात्र के फर्नीचर वाले कमरे में काट दिया। प्रेसीडेंसी कालेज में कार्य करते हुए उन्हें तत्कालीन महान #फ्रांसीसी_रसायनज्ञ_बर्थेलो की पुस्तक #द_ग्रीक_एल्केमी पढ़ने को मिली। तुरन्त उन्होंने बर्थेलो को पत्र लिखा कि भारत में भी अति प्राचीनकाल से रसायन की परम्परा रही है। बर्थेलो के आग्रह पर आचार्य ने मुख्यत: #नागार्जुन की पुस्तक #रसेन्द्रसारसंग्रह पर आधारित प्राचीन हिन्दू रसायन के विषय में एक लम्बा परिचयात्मक लेख लिखकर उन्हें भेजा। बर्थेलाट ने इसकी एक अत्यंत विद्वत्तापूर्ण समीक्षा #जर्नल_डे_सावंट में प्रकाशित की, जिसमें आचार्य राय के कार्य की भूरि-भूरि प्रशंसा की गई थी। इससे उत्साहित होकर आचार्य ने अंतत: अपनी प्रसिद्ध पुस्तक "हिस्ट्री ऑफ हिन्दू केमिस्ट्री" का प्रणयन किया जो विश्वविख्यात हुई और जिनके माध्यम से प्राचीन भारत के विशाल रसायन ज्ञान से समस्त संसार पहली बार परिचित होकर चमत्कृत हुआ। स्वयं बर्थेलाट ने इस पर समीक्षा लिखी जो "जर्नल डे सावंट" के १५ पृष्ठों में प्रकाशित हुई।


1912 में #इंग्लैण्ड के अपने दूसरे प्रवास के दौरान #डरहम_विश्वविद्यालय के कुलपति ने उन्हें अपने विश्वविद्यालय की मानद डी.एस.सी. उपाधि प्रदान की। रसायन के क्षेत्र में आचार्य ने १२० शोध-पत्र प्रकाशित किए। Mercurous Nitrate एवं Ammonium Nitrite नामक यौगिकों के First preparation से उन्हें अन्तरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हुई।


डाक्टर राय ने अपना अनुसंधान कार्य Mercury के यौगिकों से प्रारंभ किया तथा Mercurous Nitrate  नामक यौगिक संसार में सर्वप्रथम सन् 1896 में आपने ही तैयार किया जिससे आपकी अन्तरराष्ट्रीय प्रसिद्धि प्रारम्भ हुई। बाद में आपने इस यौगिक की सहायता से 80 नए यौगिक तैयार किए और कई महत्वपूर्ण एवं जटिल समस्याओं को सुलझाया। आपने Ammonium, Zinc, Cadmium, Calcium, Strontium, Barium, Magnesium इत्यादि के नाइट्राइटों के संबंध में भी महत्वपूर्ण गवेषणाएँ कीं तथा ऐमाइन नाइट्राइटों को विशुद्ध रूप में तैयार कर, उनके भौतिक और रासायनिक गुणों का पूरा विवरण दिया। आपने (organo-metallic) यौगिकों का भी विशेष रूप से अध्ययन कर कई उपयोगी तथ्यों का पता लगाया तथा #Mercury, #Sulfur और #Iodine का एक नया Compound  (I2Hg2S2), तैयार किया तथा दिखाया कि प्रकाश में रखने पर इसके क्रिस्टलों का वर्ण बदल जाता है और अँधेरे में रखने पर पुनः मूल रंग वापस आ जाता है। सन् 1904 में बंगाल सरकार ने आपको यूरोप की विभिन्न रसायनशालाओं के निरीक्षण के लिये भेजा। इस अवसर पर विदेश के विद्धानों तथा वैज्ञानिक संस्थाओं ने सम्मानपूर्वक आपका स्वागत किया। 

✍🏻साभार : आशुतोष श्रीवास्तव एवं आर.डी. अमरूते


रसायन : भारतीयों की अप्रतिम देन

कीमियागरी यानी कौतुकी विद्या। इसी तरह से भारतीय मनीषियों की जो मौलिक देन है, वह रसायन विद्या रही है। हम आज केमेस्‍ट्री पढ़कर सूत्रों को ही याद करके द्रव्‍यादि बनाने के विषय को रसायन कहते हैं मगर भारतीयों ने इसका पूरा शास्‍त्र विकसित किया था। यह आदमी का कायाकल्‍प करने के काम आता था। उम्रदराज होकर भी कोई व्‍यक्ति पुन: युवा हो जाता और अपनी उम्र को छुपा लेता था।


पिछले दिनो भूलोकमल्‍ल चालुक्‍य राज सोमेश्‍वर के 'मानसोल्‍लास' के अनुवाद में लगने पर इस विद्या के संबंध में विशेष जानने का अवसर मिला। उनसे धातुवाद के साथ रसायन विद्या पर प्रकाश डाला है। बाद में, इसी विद्या पर आडिशा के राजा गजधर प्रतापरुद्रदेव ने 1520 में 'कौतुक चिंतामणि' लिखी वहीं ज्ञात-अज्ञात रचनाकारों ने काकचण्‍डीश्‍वर तंत्र, दत्‍तात्रेय तंत आदि कई पुस्‍तकों का सृजन किया जिनमें पुटपाक विधि से नाना प्रकार द्रव्‍य और धातुओं के निर्माण के संबंध में लिखा गया। 


मगर रसायन प्रकरण में कहा गया है कि रसायन क्रिया दो प्रकार की होती है-1 कुटी प्रवेश और 2 वात तप सहा रसायन। मानसोल्‍लास में शाल्‍मली कल्‍प गुटी, हस्तिकर्णी कल्‍प, गोरखमुण्‍डीकल्‍प, श्‍वेत पलाश कल्‍प, कुमारी कल्‍प आदि का रोचक वर्णन है, शायद ये उस समय तक उपयोग में रहे भी होगे, जिनके प्रयोग से व्‍यक्ति चिरायु होता, बुढापा नहीं सताता, सफेद बाल से मुक्‍त होता... जैसा कि सोमेश्‍वर ने कहा है - 

एवं रसायनं प्रोक्‍तमव्‍याधिकरणं नृणाम्। 

नृपाणां हितकामेन सोमेश्‍वर महीभुजा।। (मानसोल्‍लास, शिल्‍पशास्‍त्रे आयुर्वेद रसायन प्रकरणं 51)


ऐसा विवरण मेरे लिए ही आश्‍चर्यजनक नहीं थी, अपितु अलबीरूनी को भी चकित करने वाला था। कहा, ' कीमियागरी की तरह ही एक खास शास्‍त्र हिंदुओं की अपनी देन है जिसे वे रसायन कहते हैं। यह कला प्राय वनस्‍पतियों से औषधियां बनाने तक सीमित थी, रसायन सिद्धांत के अनुसार उससे असाध्‍य रोगी भी निरोग हो जाते थे, बुढापा नहीं आता,,, बीते दिन लौटाये जा सकते थे, मगर क्‍या कहा जाए कि इस विद्या से नकली धातु बनाने का काम भी हो रहा है। (अलबीरुनी, सचाऊ द्वारा संपादित संस्‍करण भाग पहला, पेज 188-189)


है न अविश्‍वसनीय मगर, विदेशी यात्री की मुहर लगा रसायन...।

✍🏻डॉ श्रीकृष्ण जुगनू

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