बुधवार, 22 जुलाई 2020

उत्स्व / देवेंद्र कुमार



(कहानी)
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एक नया और अनूठा उत्सव—उसमें वे सब शामिल हुए जिन्हें इससे पहले कभी नहीं बुलाया गया था और फिर...
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मम्मी-पापा ने मना कर दिया। कई बार मनुहार करने पर भी नहीं पसीजे तो रेखा और अजय दादी जयंती के पास जा पहुंचे, लेकिन एकदम चाकलेट की मांग करना ठीक नहीं लगा। अजय बोला—“दादी, क्या आपको याद है कि आज आपका जन्मदिन है।”
“ हाँ, याद क्यों नहीं है, मैं तो कब से तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही थी।”-- दादी ने मुस्कराते हुए कहा और दोनों को चाकलेट के लिए पैसे देते हुए उनके सिर सहला दिए। रेखा और अजय चाकलेट लेने दौड़ गए। इसके बाद जयंती ने अपने बेटे रमेश को बुलाया। कहा—“ अजय ने मुझे बताया है कि आज मेरा जन्म दिन है। इस मौके पर मैं बच्चों को दावत देना चाहती हूँ।” और ठठा कर हंस पड़ी।
बच्चों की इस चाकलेटी शरारत पर रमेश को भी हंसी आ गयी। उन्होंने समझ लिया कि आज माँ आस पड़ोस के बच्चों को दावत देना चाहती हैं। इससे पहले भी उनकी माँ कई बार यह कह कर पूरे घर को चौंका दिया करती थीं कि आज उनका जन्म दिन है, और वह बच्चों को दावत देना चाहती हैं।
अजय और रेखा मित्रों की लिस्ट बनाने लगे तो दादी ने रोक दिया। कहा—“अजय और रेखा के मित्रों को तो हमने न जाने कितनी बार बुलाया है। आज दूसरे बच्चों को बुलाने का मन है, वे बच्चे जिन्हें मैंने आज तक नहीं बुलाया है।’’
माँ की बात ने रमेश को चौंका दिया। पूछा—“ऐसे बच्चे कौन से हैं? बताइए तो सही।”
माँ ने कहा—‘’ उन्हें मैं भी नहीं जानती, कई बार आते जाते हुए देखा है उन बच्चों को-- सड़क पर दौड़ भाग करते हुए। वे हम लोगों की तरह आरामदेह घरों में नहीं रहते, शायद पढने भी न जाते हों। क्या करते हैं यह भी पता नहीं। उनके बारे में ज्यादा जानने के लिए ही मैं आज ऐसे बच्चों को बुलाने की सोच रही हूँ।”
1
रसोई में बर्तन साफ़ करते हुए कंचन भी उनकी बातें सुन रही थी। कई बार काम निपटा कर लौटते समय सोसाइटी के बाहर वाली मुंडेर पर बैठ जाया करती थी कुछ देर के लिए। तब उन बच्चों को निकट से देखने का मौका मिला था कई बार। उस समय सोसाइटी के गार्ड इकट्ठे भोजन किया करते थे। तभी सड़कों पर भाग दौड़ करने वाले कई बच्चे भी वहां आ जाते थे। उनके हाथों में रूखी रोटी, ब्रेड पीस आदि होते थे। सोसाइटी के कर्मचारी उन बच्चों को भी अपने भोजन में से कुछ देकर साथ खाने के लिए बैठा लेते थे। यह दृश्य कंचन को बहुत अच्छा लगता था।
कंचन ने रमेश से कहा—“ बाबू जी, ऐसे कई बच्चों को मैंने सोसाइटी के बाहर अक्सर डोलते देखा है।’’
रमेश ने सुना तो झट बोले—“ तब तो तुम उन बच्चों को जरूर जानती होगी।”
“ जी नहीं, मैं उनमें से मैं किसी को नहीं जानती। सोसाइटी के गार्ड जरूर जानते होंगे।”
रमेश सोसाइटी के गेट पर गार्डों से मिले। उनमें से एक रवि ने कहा—“हाँ बाबूजी, ऐसे बच्चों से तो रोज ही मिलता हूँ।”
रमेश ने उसे माँ की इच्छा के बारे में बताया तो रवि ने कहा—“बाबूजी, एकदम तो कुछ कहना मुश्किल है कि मैं कितने बच्चों को अम्मा की जन्मदिन पार्टी में ला सकता हूँ। क्योंकि ऐसे बच्चों का कोई पता ठिकाना तो होता नहीं। फिर भी मैं कोशिश करूंगा।’’
रमेश ने यही बात अपनी माँ को बता दी। सुन कर जयंती का मन जैसे कुछ बुझ सा गया। उन्हें लगा शायद उनकी इच्छा पूरी न हो सके। लेकिन कुछ देर बाद रवि उनके पास आया। बोला—‘’अम्माजी, कुछ देर पहले वैसे कई बच्चे गेट पर आए थे। मैंने उन्हें आपके जन्म दिन के बारे में बताया तो खूब खुश हुए। उछलते हुए बोले -- हम जरूर जायेंगे।”
2
तय हो गया कि रवि सड़क पर घूम फिर कर मेहनत मजूरी करने वाले सात-आठ बच्चों को कल दोपहर में लेकर आएगा। अगली सुबह जयंती ने रमेश से कहा—“ ऐसा करो पंद्रह बच्चों के लिए सूखा नाश्ता ले आओ। खाना बनाने में झन्झट होगा। बच्चे ज्यादा हुए तो और नाश्ता मंगवा लेंगे।” रमेश ने पूछा-“ लेकिन उन बच्चों को कहाँ बैठा कर खिलाएंगे?”
जयंती बेटे की उलझन समझ गईं। हंस कर बोलीं—‘’इसकी चिंता मत करो। जब बच्चे आयेंगे तब देखा जाएगा।” जब रेखा और अजय के मित्र आते थे तो खूब धमाल मचता था। वे सोफों पर या और कहीं भी बैठ जाते थे। सारे घर में उछल कूद करते थे, लेकिन सड़कों पर मजूरी करने वाले अनजान बच्चों को तो इतनी छूट नहीं दी जा सकती थी।
दोपहर को दरवाजे के बाहर शोर सुनाई दिया। रमेश ने दरवाजा खोला तो रवि के पीछ कई बच्चे खड़े दिखाई दिए। वे जोर जोर से बोल रहे थे। वे वैसे ही थे जैसा रमेश ने सोचा था--
इखरे बिखरे बाल, मैले चेहरे, मैले कपडे लेकिन सब हंस रहे थे। वे खुश थे, दादी की जन्म दिन पार्टी में जो आये थे। जयंती उस समय आराम कर रही थीं। रमेश ने रवि से कहा—“अभी तो माँ आराम कर रही हैं। जैसे ही उनकी नींद खुलेगी मैं तुम्हें बता दूंगा, तब इन्हें ऊपर ले आना।” रवि के इशारे पर बच्चे शोर मचाते हुए नीचे उतर गए। और सोसाइटी के पीछे की तरफ चले गए। वहां पुराना काठ कबाड़ पड़ा था। बच्चे मिल कर सफाई में जुट गए। थोड़ी ही देर में कबाड़ के बीच में अपने खेलने की जगह बना ली उन्होंने। वहाँ कई पिचकी हुई गेंदें मिल गईं, बस खेल शुरू हो गया। कबाड़ में मिली एक फटी हुई दरी बिछा कर वे सब बैठ गए। वे रह रह कर उस फ़्लैट की तरफ देख रहे थे जहाँ से दावत का बुलावा आने वाला था।
3
दादी की नींद टूटी तो उन्होंने बच्चों के बारे में पूछा।
रवि बच्चों को बुलाने गया तो देखा बच्चे फटी दरी पर एक कतार में बैठे थे। उन्होंने कहा –““देखो हमने कितनी मेहनत से सफाई की है। जो खिलाना है यहीं ले आओ।”
जयंती को पता चला तो वह स्वयं बच्चों के पास चली आईं। उन्होंने रमेश से कहा—“ ठीक है यहीं खाना लगवा दो।”
रमेश और रवि ने प्लास्टिक की प्लेटों में बच्चों के सामने नमकीन और मिठाई परोस दीं। जयंती ने हंसकर कहा—“बच्चो, खाना शुरू करो।” लेकिन बच्चे अब भी चुप थे। कुछ समय इसी तरह बीत गया। दादी ने कहा—“ क्या मेरे जन्मदिन की ख़ुशी नहीं है जो इस तरह चुप बैठे हो।” जवाब आया—“ दादी हम सब बहुत खुश हैं, लेकिन आप भी हमारे साथ बैठ कर खाइए, तभी हमें अच्छा लगेगा।”
“ बस इतनी सी बात।”—दादी ने हंस कर कहा और बच्चों के बीच जा बैठीं। अब तक वहां कई लोग आ जुटे थे,और इस अनोखे दृश्य को देख रहे थे। रमेश ने हडबडा कर कहा—“ माँ,आप यहाँ इन बच्चों के साथ बैठ कर …नहीं नहीं, यह ठीक नहीं होगा।”
“ रमेश, इसमें क्या गलत है। ये बच्चे मेरे जन्म दिन की दावत में आये हैं। मुझे इनके साथ खाने से क्यों रोक रहे हो। मेरा बचपन गाँव में बीता है। वहां हम अपनी सहेलियों के साथ इसी तरह खुले में खेलते और मौज करते थे। आज इन बच्चों ने साथ बैठ कर खाने को कहा तो मुझे अपना बचपन याद आ गया। मुझे यह सब बहुत अच्छा लग रहा है।”
4
जन्मदिन की दावत खत्म हुई। बच्चों ने जूठी प्लेटें उठा कर डस्ट बिन में डाल कर उस जगह को पूरी तरह साफ़ कर दिया। जयंती दादी ने कहा—“ शाबाश मेरे नन्हे मेहमानों।”
“ दादी, आपका अगला जन्म दिन कब आएगा?”’-आवाज़ आई।
“ जल्दी ही मेरे जन्म दिन की दावत होगी। और अगली बार अपने ज्यादा दोस्तों के साथ आना।”
बच्चे चुप खड़े थे। उन्होंने कहा—“ दादी, हम तो जन्म दिन पर आपके लिए कोई उपहार नहीं लाये।”
“ तो अगली बार ले आना।”—दादी ने हंस कर कहा। और बारी बारी से हर बच्चे का सिर  सहला दिया।
बच्चे चले गए। दादी कुछ देर तक बच्चों को जाते देखती रहीं फिर धीरे धीरे घर में चली गईं। वह सोच रही थीं कि उन्होंने हर बच्चे से उसका परिचय क्यों नहीं लिया। यह बात काफी देर तक मन में कसकती रही। जयंती सोच रही थीं कि उन बच्चों को जल्दी ही फिर बुलाएंगी। लेकिन इसके लिए ज्यादा इन्तजार नहीं करना पड़ा।
दो घंटे बाद दरवाजे की घंटी बजी। रमेश ने देखा बाहर रवि के साथ वही बच्चे खड़े थे। रवि और उन बच्चों के साथ एक अनजान आदमी और था। उसके हाथ में एक बड़ा गुलदस्ता था। उसने बताया कि वह सड़क के मोड़ पर फूल और गुलदस्ते बेचता है। फिर उसने गुलदस्ता बच्चों के हाथों में थमा दिया। बच्चों ने मिलकर गुलदस्ता दादी को देते हुए कहा--“दादी, हैप्पी बर्थ डे।”
दादी ने फूल वाले से पूछा—“ तुम यह गुलदस्ता क्यों लाये हो? क्या इन बच्चों ने खरीदा है?”
“जी नहीं। इन बच्चों से मैं कई बार काम में मदद लेता हूँ। आज इन्होने आपके जन्म दिन के बारे में बताया। फूल मैंने दिए, गुलदस्ता इन सबने मिलकर बनाया है। “
दादी देखती रहीं, सचमुच बहुत सुंदर गुलदस्ता बनाया था बच्चों ने। उन्होंने फूल वाले से पूछा— “इस गुलदस्ते की कीमत क्या होगी?”
“दादी, यह तो उपहार है –अमूल्य।”
“अगर इसे किसी ग्राहक को बेचो तो कितने दाम लोगे?”
फूल वाला चुप खड़ा था। दादी ने फिर पूछा तो उसने बताया—“कम से कम चार सौ।”
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दादी ने कहा—“ फूल तुमने दिए और बनाने में मेहनत इन बच्चों ने की। मेरा कहना है कि मेरे पास यह गुलदस्ता जल्दी ही मुरझा जायेगा। तुम इसे बेच दो और जो रकम मिले उसे इन बच्चों में बाँट दो। इसे इन बच्चों के लिए मेरी ओर से उपहार समझ लेना।”’
कमरे में कुछ देर तक मौन छाया रहा। बच्चों को दादी का यह प्रस्ताव पसंद नहीं था, लेकिन दादी के समझाने पर वे मान गए। दादी ने कहा—“मेरे अगले जन्म दिन की दावत जल्दी ही होने वाली है। उसमें अपने और दोस्तों को भी साथ लेकर आना”
“ दादी जिंदाबाद।” कमरे में खिल खिल तैरने लगी। सारा घर दादी के अनोखे जन्म दिन का उत्सव मना रहा था। ( समाप्त)

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