प्रस्तुति-- अनामिका, साक्षी
पंद्रह साल की नासरीन जहां बिहार में बेतिया के एक छोटे से गांव में रहती है. उसने पीले और लाल रंग की मोतियों का कड़ा पहन रखा है. उसका कहना है कि यह कड़ा उसकी सबसे कीमती चीज है.
इस कड़े में 24 मोतियां हैं, छह लाल रंग की, जो हर महीने उसे मासिक चक्र के
बारे में बताते हैं. जहान ने बेतिया में एक साफ सफाई कार्यशाला के दौरान
खुद यह ब्रेसलेट तैयार किया. कार्यशाला निर्मल भारत यात्रा नाम की संस्था
ने आयोजित की थी, जो पूरे देश में साफ सफाई अभियान चलाती है.
कार्यशाला में जहान और उसकी साथियों को महिलाओं के जैविक चक्र के बारे में बताया गया और समझाया गया कि इन दिनों में किस तरह साफ सफाई रखनी चाहिए. आखिर में उन्हें एक बेहद अहम संदेश दिया गया, "मासिक चक्र बिलकुल प्राकृतिक और स्वभाविक है. वैसे ही, जैसे भूख लगना. और इसे लेकर शर्म करने की बिलकुल जरूरत नहीं." इस साल पहला मौका है, जब विश्व 28 मई को विश्व मासिक चक्र सुरक्षा दिवस मना रहा है.
कैसे टूटे वर्जना
यह बहुत ही तार्किक सलाह है. लेकिन भारत में यह इतनी आसानी से काम नहीं करता, जहां मासिक चक्र को लेकर सामाजिक वर्जनाएं हैं. देश के कई हिस्सों में इस दौरान महिलाओं को "अस्पृश्य" मान लिया जाता है. उन्हें खाना पकाने, पानी पिलाने या पूजा घरों में जाने की इजाजत नहीं दी जाती.
यूनेस्को की 2012 की रिसर्च में सामने आया कि भारत में 22.5 करोड़ किशोरियां स्कूल जाती हैं. इनमें से 66 फीसदी को मासिक चक्र के बारे में कोई जानकारी नहीं. इनमें से 88 फीसदी लड़कियों के पास पानी, साफ सफाई और यहां तक कि साबुन भी नहीं है.
स्कूल तक नहीं जातीं
एसी नीलसन ने 2011 में जो आंकड़े तैयार किए, उसके मुताबिक भारत में 12 से 18 साल की बच्चियां अपर्याप्त सुविधाओं की वजह से कई दिन स्कूल नहीं जातीं और उनमें इसे लेकर जागरूकता नहीं है. इसके अलावा इस उम्र में पहुंचने के बाद लगभग 23 फीसदी बच्चियां स्कूल छोड़ देती हैं. भारत में करीब 33.5 करोड़ वयस्क महिलाएं हैं, जिनमें से सिर्फ 12 फीसदी महिलाओं के पास सैनेट्री नैपकिन की सुविधा है.
चूंकि भारतीय समाज में यह एक वर्जना वाला विषय है, लिहाजा संभ्रांत परिवारों में भी इस पर चर्चा नहीं हो पाती. इसकी वजह से कई महिलाएं पीरियड के दौरान स्वास्थ्य के लिए हानिकारक तरीकों को अपनाती हैं. कई तो पुराने कपड़े, राख या रेत का इस्तेमाल कर बैठती हैं.
ऐसे मौके पर निर्मल भारत यात्रा की मुहिम तर्कसंगत है. यह संयुक्त राष्ट्र के सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों के आधार से भी महत्वपूर्ण है. साल 2000 में तय किए गए इन लक्ष्यों को अगले साल तक पूरा करना है. निर्मल यात्रा ने 2012 में इस अभियान को शुरू किया, जिसमें डेढ़ लाख डॉलर खर्च किए जा रहे हैं. स्विस एजेंसी भी इस काम में उसकी मदद कर रहा है. इसके अलावा बिल और मेलिंडा गेट्स की संस्था भी इसकी मदद कर रहा है और यह 2016 तक चलेगा. इसने अब तक 12,000 युवतियों और महिलाओं तक पहुंच बनाई है, जिनमें से ज्यादातर की उम्र 12 और 18 के बीच है.
शर्म की बात नहीं
हालांकि यह काम आसान नहीं. बैंगलोर की उर्मिला चानम इस प्रोजेक्ट में लगी हैं और उन्होंने इसे लेकर छह राज्यों का दौरा किया है. उनका कहना है कि इस मुद्दे को लेकर लोगों में अजीब तरह की वर्जना है, "जब पहली बार किसी लड़की का पीरियड शुरू होता है, तो लोग उससे कहते हैं कि वह अशुद्ध हो गई क्योंकि उसके शरीर से रक्त निकला है."
वह कहती हैं, "इसके बाद लड़की शर्मिंदगी के भाव से बड़ी होती है और इस मुद्दे पर किसी से बात नहीं करती. पहला काम तो लड़कियों को शर्मिंदगी के इस भाव से बाहर लाना है. उसके बाद ही कुछ और किया जा सकता है." चानम इसकी जागरूकता के लिए एक वेबसाइट भी चलाती हैं.
इससे फर्क भी पड़ रहा है. चेन्नई के पास श्रीरंगम में रहने वाली 10वीं कक्षा की छात्रा सौम्या सेल्वी बताती है कि किस तरह उसकी मां और चाची को कभी भी उन दिनों में घर से बाहर नहीं निकलने दिया जाता था, "मैंने उनसे पूछा कि यह तो तब होगा, जब मैं 50 की हो जाऊंगी या उससे भी ज्यादा उम्र की. तब तक क्या मैं घर पर ही बैठी रहूंगी." मुस्कुराते हुए वह कहती है, "इसके बाद किसी ने मुझे स्कूल जाने से नहीं रोका."
एजेए/एमजी (आईपीएस)
कार्यशाला में जहान और उसकी साथियों को महिलाओं के जैविक चक्र के बारे में बताया गया और समझाया गया कि इन दिनों में किस तरह साफ सफाई रखनी चाहिए. आखिर में उन्हें एक बेहद अहम संदेश दिया गया, "मासिक चक्र बिलकुल प्राकृतिक और स्वभाविक है. वैसे ही, जैसे भूख लगना. और इसे लेकर शर्म करने की बिलकुल जरूरत नहीं." इस साल पहला मौका है, जब विश्व 28 मई को विश्व मासिक चक्र सुरक्षा दिवस मना रहा है.
कैसे टूटे वर्जना
यह बहुत ही तार्किक सलाह है. लेकिन भारत में यह इतनी आसानी से काम नहीं करता, जहां मासिक चक्र को लेकर सामाजिक वर्जनाएं हैं. देश के कई हिस्सों में इस दौरान महिलाओं को "अस्पृश्य" मान लिया जाता है. उन्हें खाना पकाने, पानी पिलाने या पूजा घरों में जाने की इजाजत नहीं दी जाती.
यूनेस्को की 2012 की रिसर्च में सामने आया कि भारत में 22.5 करोड़ किशोरियां स्कूल जाती हैं. इनमें से 66 फीसदी को मासिक चक्र के बारे में कोई जानकारी नहीं. इनमें से 88 फीसदी लड़कियों के पास पानी, साफ सफाई और यहां तक कि साबुन भी नहीं है.
स्कूल तक नहीं जातीं
एसी नीलसन ने 2011 में जो आंकड़े तैयार किए, उसके मुताबिक भारत में 12 से 18 साल की बच्चियां अपर्याप्त सुविधाओं की वजह से कई दिन स्कूल नहीं जातीं और उनमें इसे लेकर जागरूकता नहीं है. इसके अलावा इस उम्र में पहुंचने के बाद लगभग 23 फीसदी बच्चियां स्कूल छोड़ देती हैं. भारत में करीब 33.5 करोड़ वयस्क महिलाएं हैं, जिनमें से सिर्फ 12 फीसदी महिलाओं के पास सैनेट्री नैपकिन की सुविधा है.
चूंकि भारतीय समाज में यह एक वर्जना वाला विषय है, लिहाजा संभ्रांत परिवारों में भी इस पर चर्चा नहीं हो पाती. इसकी वजह से कई महिलाएं पीरियड के दौरान स्वास्थ्य के लिए हानिकारक तरीकों को अपनाती हैं. कई तो पुराने कपड़े, राख या रेत का इस्तेमाल कर बैठती हैं.
ऐसे मौके पर निर्मल भारत यात्रा की मुहिम तर्कसंगत है. यह संयुक्त राष्ट्र के सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों के आधार से भी महत्वपूर्ण है. साल 2000 में तय किए गए इन लक्ष्यों को अगले साल तक पूरा करना है. निर्मल यात्रा ने 2012 में इस अभियान को शुरू किया, जिसमें डेढ़ लाख डॉलर खर्च किए जा रहे हैं. स्विस एजेंसी भी इस काम में उसकी मदद कर रहा है. इसके अलावा बिल और मेलिंडा गेट्स की संस्था भी इसकी मदद कर रहा है और यह 2016 तक चलेगा. इसने अब तक 12,000 युवतियों और महिलाओं तक पहुंच बनाई है, जिनमें से ज्यादातर की उम्र 12 और 18 के बीच है.
शर्म की बात नहीं
हालांकि यह काम आसान नहीं. बैंगलोर की उर्मिला चानम इस प्रोजेक्ट में लगी हैं और उन्होंने इसे लेकर छह राज्यों का दौरा किया है. उनका कहना है कि इस मुद्दे को लेकर लोगों में अजीब तरह की वर्जना है, "जब पहली बार किसी लड़की का पीरियड शुरू होता है, तो लोग उससे कहते हैं कि वह अशुद्ध हो गई क्योंकि उसके शरीर से रक्त निकला है."
वह कहती हैं, "इसके बाद लड़की शर्मिंदगी के भाव से बड़ी होती है और इस मुद्दे पर किसी से बात नहीं करती. पहला काम तो लड़कियों को शर्मिंदगी के इस भाव से बाहर लाना है. उसके बाद ही कुछ और किया जा सकता है." चानम इसकी जागरूकता के लिए एक वेबसाइट भी चलाती हैं.
इससे फर्क भी पड़ रहा है. चेन्नई के पास श्रीरंगम में रहने वाली 10वीं कक्षा की छात्रा सौम्या सेल्वी बताती है कि किस तरह उसकी मां और चाची को कभी भी उन दिनों में घर से बाहर नहीं निकलने दिया जाता था, "मैंने उनसे पूछा कि यह तो तब होगा, जब मैं 50 की हो जाऊंगी या उससे भी ज्यादा उम्र की. तब तक क्या मैं घर पर ही बैठी रहूंगी." मुस्कुराते हुए वह कहती है, "इसके बाद किसी ने मुझे स्कूल जाने से नहीं रोका."
एजेए/एमजी (आईपीएस)
- तारीख 29.05.2014
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पता नहीं किस युग में जी रही हैं हमारी महिलायें। ये गाँव छोड़िये अच्छी भली शहरों की, पढ़ी लिखी लड़कियों का भी हाल और सोच इस मामले में कुछ ज्यादा अच्छा नहीं :(
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