शनिवार, 10 अगस्त 2013

भाषाओं को खतरा किससे है





लुप्त हो रही हैं दुनिया की आधी भाषाएं
(10:04:20 PM) 18, Oct, 2011, Tuesday


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 डॉ. विनोद गुप्ता
भाषा अभिव्यक्ति का एक माध्यम है जिसमें दो या उससे अधिक व्यक्ति उसका इस्तेमाल करते हैं। इसका लिपिबध्द होना जरूरी है भाषा तो भाषा ही होती है,
 उत्कृष्ट या निकृष्ट नहीं। विश्व में अनेक भाषाएं और बोलियां हैं, जिसका इस्तेमाल कम अधिक मात्रा में लोग करते हैं।
मनुष्य ने बोलना कब सीखा? यह ठीक ठीक बताना तो बड़ा मुश्किल है, लेकिन भाषा वैज्ञानिकों का मानना है कि 45,000 ई.पू. के आसपास मनुष्य ने बोलना सीखा यह वह काल है जिसमें मनुष्य ने आत्मनिर्भर एवं सभ्य होना सीखा और स्वर यंत्र की ऊंचाई में परिवर्तन हुआ।
कुछ समय पूर्व माउंट कार्मेल, इसराइल की एक गुफा में खोजी गई कंठ की हड्डी की जांच से पता चलता है कि 60,000 वर्ष पूर्व इस गुफा में रहने वाले लोग बोलते थे।
विश्व में कुल कितनी भाषाएं हैं, इस बारे में भाषा वैज्ञानिक एकमत नहीं हैं। फिर भी, इनकी संख्या 3000 से 10,000 के बीच है। हालांकि अधिकांश संदर्भ पुस्तकें 4000 से 5000 बताती हैं कुछ के अनुसार यह संख्या 7000 है।
गिनीज बुक के मुताबिक सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है चीनी, जिसे 1000 मिलियन लोग बोलते हैं। तथाकथित आम भाषा (पुतोनधुवा) चीनी का मानक रूप है जो बीजिंग के उच्चारण पर आधारित है। ताइवान में यह गुओयू (राष्ट्रीय वाणी) और पश्चिम में मैन्डारिन नाम से ख्यात है।
आप को जानकर आश्चर्य होगा कि दुनिया के अधिकांश देशों में अंग्रेजी का बोलबाला है उस के बाद फ्रांसीसी, अरबी, स्पेनी आदि बोलने वाले देश है। इसके अलावा बहुत सी भाषाएं ऐसी भी हैं, जो किसी देश विशेष में ही बोली जाती हैं।
आइए देखते हैं कि किस देश मेेंें कौन सी भाषा की प्रमुखता है या अधिकांश लोग बोलते हैं और व्यवहार में लाते हैं।
अंग्रेजी भाषा की व्यापकता का अनुमान इसी से लगा सकते हैं कि आज संपूर्ण विश्व में लगभग 400000000 लोग अंग्रेजी बोलते हैं। सबसे अधिक जगहों में और द्वितीय सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा भी अंग्रेजी ही है। 700-1400 मिलियन लोग इसे द्वितीय या तृतीय भाषा के रूप में बोलते हैं।
संसार में अंग्रेजी ही एकमात्र ऐसी भाषा है जिसमेंं शब्दों की संख्या सभी भाषाओं से ज्यादा है। इसका शब्द भंडार 790000 है जिनमें से 490000 शब्दों का सामान्य रूप से प्रयोग होता है तथा शेष 300000 शब्द तकनीकी हैं। वैसे कोई भी एक व्यक्ति अपने संपूर्ण जीवनकाल में बोलने या लिखने में इनमें से 60000 शब्दों से अधिक प्रयोग नहीं करता है।
ब्रिटेन के निवासी जिन्होंने 16 वर्षों तक की शिक्षा ली है शायद 5000 शब्द बोलने में तथा 10,000 तक शब्द लिखित सम्प्रेषण में व्यवहार करते हैं।
अंग्रेजी लिखते समय कुछ शब्द बार-बार लिखे जाते हैं। इनमें दि, ऑफ एंड टू, , इन देट, इज, आई, इट, फार तथा ऐज मुख्य है। जहां तक बातचीत का प्रश् है उसमें सर्वाधिक प्रचलित शब्द आई है। वैसे अन्य की तुलना में अधिकतर शब्द एस से आरंभ होते हैं।
किसी भी भाषा के किसी भी एक शब्द के कई अर्थ हो सकते हैं लेकिन किसी एक शब्द को 194 अर्थों में प्रयुक्त किया जाना वाकई कमाल है। जी हां, अंग्रेजी, भाषा में तीन अक्षरों से बना शब्द सेट एक ऐसा शब्द है जिसके सर्वाधिक अर्थ है। इसके संज्ञा की तरह 58, क्रिया की तरह 126 तथा विशेषण की तरह 10 अर्थ है।
क्या आप जानते हैं कि अंग्रेजी भाषा का उद्भव कैसे हुआ? दरअसल अब से कोई पांच हजार वर्ष पहले यूरोप के देशों में इण्डो यूरोपियन भाषा बोली जाती थी। ये लोग संसार में इधर- उधर चले गए और भाषा का रूप बदलता गया। लो जर्मेनिक से अंग्रेजी भाषा का जन्म हुआ। इसमें भी परिवर्तन आते रहे। सन् 1500 के बाद जो अंग्रेजी भाषा विकसित हुई उसे ही आधुनिक अंग्रेजी के नाम से जाना जाता है। न्यू गिनी पपुआ, (आस्ट्रेलिया) में इतनी अलग-अलग घाटियां हैं कि वहां विश्व में अलग- अलग भाषाओं का सर्वाधिक जमाव है। इन घाटियों व्यवहार में लाई जाने वाली भाषाओं की संख्या 869 हैं, जिस का मतलब यह है कि प्रत्येक भाषा को बोलने वाले 4,000 लोग हैं। जहां तक भारत का प्रश्न है, विश्व की लगभग 845 भाषाएं और बोलियां यहां बोली जाती हैं। सबसे पुरानी और एकमात्र शुध्द द्रविड़ भाषा के रूप में भारत में तमिल को मान्यता है। हिन्दी यहां की राज भाषा है। भारत में बोली जाने वाली तमाम भाषाओं में से 15 भाषाएं भारतीय संविधान की 8वीं सूची में वर्णित हैं या मान्यता प्राप्त है। ये हैं, हिन्दी, असमिया, उड़िया, उर्दू, कन्नड़, कश्मीरी, गुजराती, तमिल, तेलगु, पंजाबी, मराठी, मलयालम, संस्कृत और सिंधी। शोधकर्ताओं ने भारत के सुदूर इलाके में एक ऐसी भाषा का पता लगाया है, जिसका वैज्ञानिकों को अब तक पता नहीं था। इस भाषा को ''कोरो'' के नाम से जाना जाता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि यह अपने भाषा समूह की दूसरी भाषाओं से एकदम अलग है लेकिन इस पर भी विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है।
भाषाविदों के एक दल ने उत्तर पूर्वी राज्य अरूणाचल प्रदेश में अपने अभियान के दौरान इस भाषा का पता लगाया। यह दल नेशनल जियोग्राफिक की विलुप्त हो रही देशज भाषाओं पर एक विशेष परियोजना ''एंडयोरिंग वॉयसेस'' का हिस्सा है।
शोधकर्ता तीन ऐसी भाषाओं की तलाश में थे जो सिर्फ एक छोटे से इलाके में बोली जाती है उन्होंने जब इस तीसरी भाषा को सुना और रिकार्ड किया, तो उन्हें पता चला कि यह भाषा तो उन्होंने कभी सुनी ही नहीं थी। यह कहीं दर्ज भी नहीं की गई थी। इस शोधदल के एक सदस्य डॉ. डेविड हैरियन का कहना है कि हमें इस पर बहुत विचार नहीं करना पड़ा कि यह भाषा तो हर दृष्टि से एकदम अलग है। भाषाविदों ने इस भाषा के हजारों शब्द रिकार्ड किए और पाया कि यह भाषा उस इलाके में बोली जाने वाली दूसरी भाषाओं से एकदम अलग है। कोरो भाषा तिब्बतो-बर्मन परिवार की भाषा है। जिसमें कुल मिलाकर 150 भाषाएं हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि यह भाषा अपने परिवार या भाषा समूह की दूसरी भाषाओं से बिलकुल मेल नहीं खातीं।
यह माना जाता है कि इस समय दुनिया की 6909 भाषाओं में से आधी पर विलुप्त हो जाने का खतरा मंडरा रहा है। कोरो भी उनमें से एक है। उनका कहना है कि कोरो भाषा 800 से 1200 लोग बोलते हैं, लेकिन इसे कभी लिखा या दर्ज नहीं किया गया।
नेशनल जियोग्राफिक के ग्रेगरी एंडरसन का कहना है कि हम एक ऐसी भाषा की तलाश में थे जो विलुप्त होने की कगार पर हो। उनका कहना है कि यदि हम इस इलाके का दौरा करने मे दस साल की देरी कर देते तो संभव था कि हमें इस भाषा का प्रयोग करने वाला एक व्यक्ति भी नहीं मिलता। यह टीम कोरो भाषा पर अपना शोध जारी रखने के लिए फिर भारत का दौरा करने वाली है। शोध दल यह जानने की कोशिश करेगा कि यह भाषा आई कहां से और अब तक इसकी जानकारी क्यों नहीं मिल सकी थी।
प्रत्येक भाषा की अपनी वर्णमाला होती है। सबसे अधिक अक्षरों वाली भाषा कम्बोडियाई है जिसे खमेर नाम से भी जाना जाता है। इसें 74 अक्षर है। इसके विपरीत सबसे कम अक्षरों वाली वर्णमाला रोटोकास भाषा में है, मात्र ग्यारह। यह केन्द्रीय बूगेनविल्ले द्वीप पुपुआ न्यूगिनी में बोली जाती है।
अगर धाराप्रवाह और तर्कसम्मत शुध्दता के साथ बोलने की योग्यता का मानदंड बनाया जाए तो यह संदेहास्पद हो जाता है कि कोई भी मनुष्य 20-25 भाषाओं में धारा प्रवाहित बरकरार रख सकता है या अपने जीवनकाल में 40 से अधिक भाषाओं में धाराप्रवाहिता अर्जित कर सकता है। वैसे विश्व के सबसे बड़े बहुभाषाविद् के रूप में न्यूजीलैंड के डॉ. हेरोल्ड विलियम्स का नाम गिनीज बुक में दर्ज है। बचपन में ही उन्होंने अपने आप लेटिन, ग्रीक, हिब्रू तथा अनेक यूरोपियन एवं प्रशांत द्वीपीय भाषाओं को सीखा। वे 58 भाषाओं और बोलियों में धाराप्रवाह बोलते थे। वे एकमात्र व्यक्ति थे, जिन्होंने लीग ऑफ नेशन्स, जेनेवा, स्वीटजरलैंड में भाग लिया और प्रत्येक प्रतिनिधि से उसकी ही भाषा में बात की। वे एक पत्रकार थे। उनका जन्म 1876 में तथा मृत्यु 1928 में हुई।
आधुनिक समय में मौसिक धारा प्रवाहित के क्षेत्र में सबसे बड़े बहुभाषाविद् के रूप में लेरविक शेटलेण्ड के डेरिक हर्निंग का नाम गिनीज बुक में दर्ज है जिन्हें 22 भाषाओं पर वर्चस्व प्राप्त है। 432
सुदामा नगर रामटेकरी मंदसौर (म.प्र.) 458001सतना

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लुप्त हो रही भाषाओं को बचाएगा गूगल
Updated on: Thu, 21 Jun 2012 08:58 PM (IST)
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लुप्त हो रही भाषाओं को बचाएगा गूगल
सैन फ्रांसिस्को। सर्च इंजन गूगल ने विश्व की लुप्त हो रही भाषाओं को नया जीवन देने का बीड़ा उठाया है।
इंटरनेट की यह सरताज कंपनी अब भाषाविदें की मदद से खत्म हो रही या खतरे में पड़ी भाषाओं पर विशेष वेबसाइट तैयार करेगा। गूगल लोगों को इन भाषाओं के बारे में जानकारी खोजने और साझा करने से लेकर इन्हें संरक्षित करने की सुविधा भी देगा।
गूगल ब्लॉग पोस्ट पर प्रोजेक्ट मैनेजर क्लारा रिवेरा रोड्रिग्ज और जेसन रिजमैन के अनुसार लोग इन भाषाओं के बारे में अपनी जानकारी, ज्ञान और अनुसंधान को सीधे तौर पर साइट पर साझा कर सकेंगे। साथ ही वह उस भाषा की विषय सामग्री को हमेशा अपडेट भी कर सकेंगे।
द्गठ्ठस्त्रड्डठ्ठद्दद्गह्मद्गस्त्रद्यड्डठ्ठद्दह्वड्डद्दद्गह्य.ष्श्रद्व वेबसाइट को इस लिहाज से तैयार किया गया है कि उपयोगकर्ता अपने वीडियो, ऑडियो या टेक्सट फाइल्स और उस भाषा के उच्चारण और खास जुमलों को याद करके रिकार्ड कर सकें। विभिन्न भाषाओं से संबंधित समूहों ने यह काम पहले ही शुरू कर दिया है। वे वेबसाइट पर 18वीं सदी तक की पांडुलिपियों को डालते जा रहे हैं। ये पांडुलिपियां वीडियो और ऑडियो के आधुनिक स्वरूप में साइट पर दर्ज हो रही हैं। यू-ट्यूब के जरिये गूगल की इस वेबसाइट पर एक वीडियो में बताया गया है कि विश्व में फिलहाल ज्ञात 7 हजार भाषाओं में से केवल आधी ही इस सदी के अंत तक अपना अस्तित्व बचाए रख पाएंगी।
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प्रत्येक दो सप्ताह में लुप्त हो जाती है एक भाषा
2013-03-04 AM 09:03:19|

http://usimages.punjabkesari.in/admincontrol/all_multimedia/2013_3image_09_03_021347530IndigenouslanguagescareeningintoextinctioninLatinAmerica-ll.jpg
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अधिकतर लातिन अमेरिकी देशों में स्पेनी या पुर्तगाली भाषा ही बोली जाती है जिसकी वजह इन देशों का लम्बे समय तक स्पेन तथा पुर्तगाल के अधीन रहना है। इन्हें आजाद हुए दशकों बीत चुके हैं परंतु वहां पर आज भी स्पेनी तथा पुर्तगाली भाषा का ही बोलबाला दिखाई देता है जिसकी वजह से इन देशों की कई मूल भाषाएं लुप्त हो चुकी हैं तथा अन्य कई सारी लुप्त होने की कगार पर हैं। दुनिया में भाषाओं की सर्वाधिक विविधता लातिन अमेरिकी देशों में ही है। वहां अनुमानत: 250 से 450 भाषाएं जीवित हैं परंतु कई तेजी से लुप्त हो रही हैं। विश्व भर में करीब 600 भाषाएं विलुप्ति की कगार पर हैं और प्रत्येक दो सप्ताह में एक भाषा हमेशा के लिए लुप्त हो रही है। इनमें से भी अधिकतर लातिन अमेरिकी भाषाएं ही हैं।  विशेषज्ञों का कहना है कि यदि बेहतर जीवन तथा सम्भावनाएं दिखाई दें तो लोग सबसे पहले अपनी मूल भाषा को त्यागने को तत्पर दिखाई देते हैं। भाषाओं के संबंध में भी चार्ल्स डार्विन का सर्वाइवल ऑफ द फिट्टैस्ट’ (सर्वाधिक उपयुक्त का ही अस्तित्व रहता है) का सिद्धांत काम करता है यानी दुनिया की जरूरतों के साथ खुद को ढालने में सक्षम भाषाओं के जिंदा रहने की सम्भावना ही सबसे अधिक होती है।
यही वजह है कि अब क्वेंचुआ, आईमारा, नाहुआती या गुआरानी जैसी मूल लातिन अमेरिकी भाषाओं को बचाने के लिए तकनीक का सहारा भी लिया जा रहा है जिसके तहत इन भाषाओं की अधिक से अधिक वैबसाइट्स तथा मोबाइल एप्लीकेशन्स विकसित करने पर भी जोर दिया जा रहा ह
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भारत की सात भाषाएँ लुप्त होने के कगार पर  http://hindi.webdunia.com/img/cm/searchGlass_small.png
नई दिल्लीशनिवार, 4 दिसंबर 2010( 18:21 IST )

दुनिया की कई भाषाओं के साथ अपने देश की भी सात भाषाएँ लुप्त हो रही हैं। अब तो इन्हें बोलने वालों की संख्या दस हजार से कम रह गई है।

मानव संसाधन विकास राज्यमंत्री डी पुरंदेश्वरी के अनुसार 1991 और 2001 की जनगणना से पता चलता है कि सात भारतीय भाषाएँ लुप्त होने के कगार पर पहुँच गई है।

1991
की जनगणना के अनुसार इन्हें बोलने वालों की संख्या दस हजार से अधिक थी, पर 2001 की जनगणना के अनुसार इसकी संख्या दस हजार से कम हो गई है। इन भाषाओं में हिमाचल प्रदेश की भाटेआली भाषा भी शामिल है जो बिहार, असम, पश्चिम बंगाल, मध्यप्रदेश, मेघालय में बोली जाती हैं।

अन्य भाषाओं में गंडो, कुवी, कोर्वा, माओ, निशांग, सनोरी तथा गंडा आदि शामिल है।

श्रीमती पुरंदेश्वरी के अनुसार इन भाषाओं के संरक्षण तथा इनके लुप्त होने कारणों का अध्ययन करने के लिए मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया है। (वार्ता)
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5लुप्त हो रही भाषाओं को बचाने वाले गणेश डेवी

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Published on Wednesday, 10 April 2013 09:25
hindimedia2गणेश डेवी सिर्फ पदेन संस्कृति अध्येता और संस्कृतिकर्मी नहीं हैं बल्कि वे इससे आगे जाकर अपने प्रयासों के लिए चर्चा में रहे हैं। वे पीपल्स लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया के चेअरमैन हैं
hindimedia2गणेश डेवी सिर्फ पदेन संस्कृति अध्येता और संस्कृतिकर्मी नहीं हैं बल्कि वे इससे आगे जाकर अपने प्रयासों के लिए चर्चा में रहे हैं। वे पीपल्स लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया के चेअरमैन हैं और पिछले दिनों एक संक्षिप्त मुलाकात में उन्होंने बताया कि आखिर क्यों वे भाषाओं को लेकर ज्यादा सतर्कता के साथ काम करने में दिलचस्पी लेते हैं।
१९९६ तक वे बड़ौदा की एमएस यूनिवर्सिटी में इंग्लिश लिटरेचर पढ़ा रहे थे। फिर उन्होंने अकादमिक काम से एक मोड़ लिया और लुप्त हो रही भाषाओं के पक्ष में आ खड़े हुए। इसके बाद उन्होंने भाषा को बचाने के लिए जो उपक्रम रचे उनमें भाषा रिसर्च एंड पब्लिकेशन सेंटर, बुधान थिएटर और द आदिवासी एकेडमी प्रमुख हैं।   सबसे पहले उन्होंने उन ११ भाषाओं को लिपि के रूप में दर्ज कियाजो सिर्फ बोलचाल में ही बची थीं। इसके अलावा उन्होंने २६ भाषाओं में साहित्य का प्रकाशन करवाया, करीब २० हजार बच्चों को बहुत ही खास तरह के समुदायों के साथ शिक्षा के संपर्क में लाने का काम किया और गुजरात के गांवों में आर्थिक आत्मनिर्भरता देने वाली गतिविधियों को शुरू किया। उनके साथ बातचीत में कुछ और प्रमुख बातें सामने आई।  
आखिर वह क्या चीज थी जो आपको संकट में जा रही भाषाओं की तरफ खींच लाईजब इस तथ्य की तरफ मेरा ध्यान गया कि भारत की करीब १५०० भाषाओं को अनुसूची में शामिल ही नहीं किया गया। यह मेरे लिए पर्याप्त कारण था कि मैं इन भाषाओं का अध्ययन करूं। सन्‌ १९७१ में जनगणना के अधिकारियों ने तय किया कि उस भाषा के बारे में जो १० हजार से कम लोगों द्वारा बोली जाती है, कोई आंकड़े सार्वजनिक नहीं किए जाएंगे। यह दूसरा प्रमुख कारण था कि मैं भाषाओं के अध्ययन के लिए चेत गया। इनके अलावा, हाल के वर्षों में, देशों ने विकास का जो विचार स्वीकार किया है, वह हमारी भाषाओं के गायब होने से सीधे-सीधे जुड़ा है। इसलिए ही मैंने सोचा कि हम इन लुप्त होती भाषाओं को लेकर अभी अगर काम नहीं करेंगे तो, शायद फिर कभी इन्हें नहीं पा सकेंगे और इनके बारे में सोच भी नहीं सकेंगे। इन भाषाओं को पुनर्जीवन देना मेरा लक्ष्य है। मैं इनके डॉक्यूमेंटेशन का लक्ष्य लेकर नहीं चला हूं।
साभार- दैनिक नईदुनिया से
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7मर रहीं हैं भाषाएं

वैश्वीकरण के जमाने में पूरी दुनिया चुनिंदा भाषाओं के जरिए एक दूसरे से जुड़ने की कोशिश में है. ऐसे में दुनिया की आधी भाषाएं मर रही हैं. इस सदी के अंत तक 6,500 भाषाएं गायब हो चुकी होंगी.
लुप्त होते जानवरों पर पूरी दुनिया का ध्यान खींचा जा रहा है, जगह जगह सम्मलेन हो रहे हैं, अरबों खर्च किए जा रहे हैं, लेकिन लुप्त होती भाषाओं का क्या? शहरीकरण होने से लोग लगातार अपनी मातृभाषा से दूर होते जा रहे हैं. कोलोन यूनिवर्सिटी के भाषा विशेषज्ञ निकोलाउस हिमलमन इसकी वजह बताते हैं कि "भाषा ठोस नहीं है". वह कहते हैं कि भाषा संस्कृति जैसी होती है, वह कोई चीज नहीं है, बल्कि संगीत और नृत्य की ही तरह है, जो समय के साथ गुम हो जाती हैं.
संस्कृति का नुकसान
हिमलमन ने इसी महीने जर्मनी के शहर हनोवर में भाषा पर हुई एक कॉन्फरेंस में हिस्सा लिया. इस अंतरराष्ट्रीय कॉन्फरेंस को नाम दिया गया "लैंग्वेज डॉक्यूमेंटेशन: पास्ट - प्रेजेंट - फ्यूचर". यानी अतीत से ले कर वर्तमान और भविष्य में भाषा के सफर पर ध्यान देना. भाषा के 180 जानकार जब साथ आए तो कोलंबिया के जंगलों से ले कर हिमालय के पहाड़ों में इस्तेमाल होने वाली भाषाओं पर चर्चा हुई.
अल्पसंख्यकों के लिए भाषा की समस्या सबसे गंभीर है, क्योंकि वे अधिकतर समाज के बड़े हिस्से के साथ संघटित होने की कोशिश करते हैं और ऐसे में अपनी भाषा को खोने लगते हैं. भाषा के संस्कृति से जुड़े होने के कारण नुकसान काफी बड़ा होता है. लोग केवल भाषा ही नहीं, बल्कि अपना पारंपरिक ज्ञान भी खोते चले जा रहे हैं, भले ही वह नाव बनाने का तरीका हो या फिर जड़ी बूटियों से दवाएं बनाना.
भाषाओं का रिकॉर्ड
लुप्त होती भाषाओं में सबसे आगे वे हैं जिनकी कोई लिपि नहीं है. इन्हें बचाने के लिए जर्मनी में इन भाषाओं को ऑडियो और वीडियो के माध्यम से सुरक्षित रखा जा रहा है. दरअसल जर्मनी में दुनिया भर की भाषाओं का रिकॉर्ड तैयार किया गया है, जिसे "डॉक्यूमेंटेशन ऑफ एनडेंजर्ड लैंग्वेजेस" या डोब-एस का नाम दिया गया है. इसे भी इस कॉन्फ्रेंस में प्रस्तुत किया गया.
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डोब-एस की शुरुआत साल 2000 में फोल्क्सवागेन फाउंडेशन ने की. यह रिसर्च में निवेश करनी वाली जर्मनी की सबसे बड़ी निजी कंपनी है और अब तक 100 से भी ज्यादा प्रोजेक्ट में निवेश कर चुकी है. डोब-एस जो रिकॉर्ड तैयार करता है, उन्हें फिर "द लैंग्वेज आर्काइव" (टीएलए) में डाला जाता है. टीएलए जर्मनी की माक्स प्लांक इंस्टीट्यूट द्वारा बनाया सॉफ्टवेर है जिस पर 30 लाख यूरो यानी करीब 20 करोड़ रुपये का खर्च आया है. टीएलए का मकसद है भाषाओं को एक डिजिटल रूप देना ताकि भविष्य में भी उन पर शोध किए जा सकें.
पुरानी और बेकार भाषा
इस काम के लिए रिसर्चर दुनिया भर में घूम कर भाषाओं का अध्ययन करते हैं. माक्स प्लांक इंस्टीट्यूट के फ्रांक जाइफर्ट 1998 से इस काम में लगे हैं. बोर और रेसिगारो भाषाओं के रिकॉर्ड तैयार करने के लिए जब वह अमेजन जंगलों के उत्तर पश्चिमी हिस्से में पहुंचे तो उन्होंने पाया कि वहां के युवा स्पैनिश में ही बात करते हैं, "रोजमर्रा के जीवन में वे अपनी ही भाषाओं को पुराना और बेकार मानते हैं".
भारत में भी हालात कुछ ऐसे ही हैं. शहरों में इस्तेमाल होने वाली भाषा अक्सर हिन्दी, अंग्रेजी और स्थानीय भाषाओं का एक मिला जुला सा रूप होती है. 'हिंग्लिश' के इस्तेमाल में हिन्दी अपनी जगह खोती लगती है.
आईबी/एएम (डीपीए)

DW.DE

नहीं रहा सबसे लम्बा शब्द

हिन्दी को छोटे छोटे शब्दों के इस्तेमाल के लिए जाना जाता है, लेकिन जर्मन में एक शब्द के लिए 60 से भी अधिक अक्षरों का इस्तेमाल हो सकता है. इस हफ्ते सबसे बड़ा शब्द का अंत हो गया. लेकिन ऐसे किसी शब्द की मौत कैसे होती है? (05.06.2013) 

भाषा के आतंक का शिकार हिन्दी

भारत में हिन्दी समेत कई स्थानीय भाषाओं को अंग्रेजी की तुलना में कमतर आंका जाता है. अंग्रेजी का आतंक ऐसा है कि उसके साथ नकल तो आती है लेकिन अपनी मौलिक भावनाएं कहीं खो सी जाती हैं. बॉब्स की जूरी में आए रवीश यही मानते हैं. (09.05.2013) 

भाषाओं को मत लड़ाओ

आज के दौर की सल्तनतें अपने लिए सिर्फ ख्वाब ही नहीं बुनतीं वे एक जाल भी बुनती हैं, जिसे अपनी सुविधा या चालाकी या खामख्याली में वे कवच कह लेती हैं. भारत के संदर्भ में अंग्रेजी को ऐसा ही कवच बनाने की फिराक रही है. (26.03.2013) 

हिन्दी बोलने में शर्म

हिन्दी में घट रही दिलचस्पी के चलते भारत में प्रकाशक भी हिन्दी किताबें छापने में हिचकिचाते हैं. युवा लेखक पंकज रामेन्दु खुद अपनी हिन्दी कविता संग्रह के लिए कहते हैं, "एक तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा." (18.01.2013) 

और आर्टिकल

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अलीगढ़ बनेगा 'ग्रीन कैंपस' 10.08.2013

अगर 30,000 छात्रों वाले कैंपस में गाड़ियां नहीं, सिर्फ साइकिलें हों और बिजली के लिए सौर ऊर्जा का भरोसा हो, तो सोचिए पर्यावरण को कितना फायदा होगा? अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय भारत का पहला 'ग्रीन कैंपस' बनने की राह पर है.

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हजारों मंदिर मस्जिद गैरकानूनी 10.08.2013

ऐसा नहीं कि भारत में लंबे समय से चली आ रही कुछ समस्याओं को निपटाने के नियम या कानून नहीं, नियम हैं, कायदे हैं. लेकिन खुद नेता इन्हें ताक पर रखते हैं. इसी वजह से यूपी में अवैध मंदिर मस्जिदों का अंबार लग चुका है.

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ब्राजीली हथियार सौदे पर सवाल 10.08.2013

ब्राजील लुका छिपा कर छोटे हथियारों का बड़ा सौदा कर रहा है. छोटे हथियारों में वह चौथा सबसे बड़ा निर्यातक देश बन गया है. हालांकि संयुक्त राष्ट्र के एक समझौते के बाद उसे बताना पड़ेगा कि हथियार कहां जा रहे हैं.

दुनिया

देहव्यापार में फंसे जर्मन बच्चे

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तुर्कों को वापस भेजना चाहते थे कोल


मद्रास कैफे पर चर्चा तेज


मनोरंजन

अनजान विषयों में बड़ा करियर

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मुझे जर्मन बनाओ


अजी नाम में क्या रखा है


सबको मिलेगा मां का दूध


खेल

50 साल की जर्मन लीग

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पैसों की खान बना बुंडेसलीगा


जर्मन फुटबॉलरों का लेंगे खून


कमाई में नंबर वन शारापोवा


विज्ञान

स्वस्थ खाने से दूर जाता देश

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जंगल जमाने की कोशिश


जलवायु परिवर्तन के आगे बेबस योद्धा


शित्जोफ्रेनिया का खतरनाक जीन


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जिंदगी को मजाक समझते ये युवा

10 August 2013
आखिर क्यों युवा पीढ़ी जिंदगी को इतनी आसानी से खत्म कर रही है. क्या जीवन का उनके नजर में कोई मोल नहीं है. क्या जीवन का उद्देश्य सिर्फ पैसा कमाना और तथाकथित सफलता के सोपान का तय करना भर है...
नीरा सिन्हा
धैर्य और अनुशासन की कमी के कारण आज की प्रतिभावान युवा पीढ़ी आज एक ऐसे दुनिया में विचरण कर रही है, जो हकीकत से कोसों दूर है. व्यक्तिगत सोच और आत्मकेंद्रित चिंतन से युवा पीढ़ी दिग्भ्रमित हो रही है.
youngster-sucide-note
स्पीड, अपराध, नशा, नेटसर्फिंग, लव मैंकिंग, नेट के आभासी रिश्ते युवाओं के प्रमुख शगल बनते जा रहे हैं. सोशल मीडिया मॉनीटरिंग एजेंसी के अनुसार अप्रैल 2013 तक देश में 64 मिलियन फेसबुक यूजर हो चुके हैं, जिसमें से अधिकांश की उम्र 18 से 34 वर्ष बतायी गयी है.
स्पष्ट है कि युवाओं की जिंदगी यांत्रिक होती जा रही है. समाज में फैले अपराध खासकर साइबर अपराध, हिंसा, साजिश, भ्रष्टाचार में जाने-अनजाने संलिप्त होते जा रही है आज की युवा पीढ़ी. इसका मुख्य कारण है उनकी परवरिश और उनकी शिक्षा.
माता-पिता अपने एकल परिवार में इतने आत्मकेंद्रित होते जा रहे हैं कि बच्चों को भी समय नहीं दे पाते हैं और खिलौनों के बजाय मोबाइल फोन, लैपटॉप, डेस्कटॉप, वीडियो गेम दे देते हैं, जिनसे खेलते हुए बच्चों का बालपन खत्म हो रहा है. जब वही बच्चा स्कूल और कॉलेज में पहुंचता है, तो कमाऊ शिक्षा लेकर बाहर निकलता है. ज्ञान की पूंजी उनके पास नहीं होती. हालांकि सूचनाओं को एकत्रित कर वे खुद को ज्ञानी से कम नहीं समझते, लिहाजा धनार्जन उनके जीवन का लक्ष्य बन जाता है.
पैसे को युवा पीढ़ी भगवान मान बैठी हैं, जिसे हासिल करने के लिए मेहनत और दूरदृष्टि के बजाए आत्मकेंद्रित सोच एवं अल्पकालिक चिंतन का रास्ता अपना लेते हैं. सफलता का अपना मापदंड युवा पीढि़यों ने बना रखा है, अगर उस मापदंड पर खरे नहीं उतरे, तो सबसे आसान रास्ता है जान देना.
परीक्षा और प्रतियोगिता में अगर नंबर कम आ गए तो बस कर ली आत्महत्या. मां-बाप ने डांटा, तो कर ली आत्महत्या. मुंहमांगी चीजें अगर खरीद कर नहीं दी गयी, तो कर ली आत्महत्या. देर रात से घर के बाहर रहने पर डांट पड़ी, तो कर ली आत्महत्या. प्रेमी या प्रेमिका नहीं मिल पाये तो भी आत्महत्या का रास्ता अख्तियार कर लिया जाता है.
समझने वाली बात है कि आखिर क्यों युवा पीढ़ी जिंदगी को इतनी आसानी से खत्म कर रही है. क्या जीवन का उनके नजर में कोई मोल नहीं है. क्या जीवन का उद्देश्य सिर्फ पैसा कमाना और तथाकथित सफलता के सोपान का तय करना भर है.
छह अगस्त को बोकारो में दो युवाओं, एक छात्र और एक छात्रा ने अलग-अलग घटनाओं में फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली. पहली घटना सेक्टर-दो, ए आवास संख्या 02-262 में घटी. यहां काली प्रसाद सोरेन के 13 वर्षीय पुत्र अरविंद सोरेन ने अपने पिता के एटीएम से रुपये निकाले. बाद में पिता की डांट और जेल जाने के डर से अरविंद ने कमरे में जाकर अपनी बहन के दुपट्टे से लटक आत्महत्या कर ली. अरविंद 9वीं कक्षा का विद्यार्थी था. आत्महत्या करने के पहले उसने एक सुसाइड नोट भी लिखा था.
दूसरी घटना सेक्टर-छह, डी आवास संख्या 2307 की है. यहां पीसी बाउरी की 18 वर्षीय पुत्री लक्खी कुमारी ने दुपट्टे से फांसी लगा आत्महत्या कर ली. लक्खी बोकारो कॉलेज के बीए पार्ट वन की छात्रा थी. बताया गया कि 6 अगस्त को उसका रिजल्ट निकला था. रिजल्ट उसके अनुसार ठीक नहीं था. इसी बात से दुखी लक्खी ने घर का मेन दरवाजा बंद कर दिया, टीवी का साउंड बढ़ा दिया और दुपट्टे के सहारे फांसी लगा ली.
लक्खी की एक बहन उस वक्त बाथरूम में नहा रही थी. बाथरूम से बाहर आने के बाद बहन ने फंदे में लटकी अपनी बहन को देखा, तो जोर-जोर से चीखने लगी, जिससे आस-पड़ोस के लोग आए और लक्खी का नीेचे उतारा गया, मगर तब तक उसकी मौत हो चुकी थी.
उक्त दोनों दुर्घटनायें युवा पीढ़ी के दिग्भ्रमित होने की दांस्ता कह रही हैं. हमारे समाज में जाने-अनजाने हर दिन कुछ ऐसा किया जा रहा है, जिससे युवा दिग्भ्रमित हो रहे हैं और उनको सबसे आसान रास्ता आत्महत्या का लग रहा है. पलायन कर रहे हैं, क्योंकि उनमें धैर्य की कमी है.
मीडिया के साथ-साथ हमारा समाज भी युवाओं की इस दशा के लिए एक हद तक जिम्मेदार है. समाज में विभिन्न जातिसमूहों द्वारा सफल युवाओं को इतना महिमामंडित किया जा रहा है कि असफल युवा हीनभावना से ग्रसित हो रहे हैं. विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं में सफल होने पर युवाओं को अखबार की सुर्खियां बना दिया जाता है और टीवी पर इंटरव्यूह दिखाए जाते है?
सफलता को महिमामंडित करने का प्रचलन गलत है, क्योंकि आज के युवा पीढ़ी में सोचने-समझने की सलाहियत नहीं है. वे नहीं समझते कि असफलता ही सफलता की सीढ़ी है, अगर ऐसा समझते या उनके अभिभावक, अध्यापक उन्हें ऐसा समझाते तो प्रतिदिन अखबारों में युवकों एवं युवतियों के आत्महत्या सुर्खियां न बनती.
देश के शिक्षा प्रणाली के सुधरने की आशा करना बेकार है, इसलिए अभिभावकों को ही अपने बच्चों को सही दिशा देनी होगी. उनमें धैर्य, सहनशीलता, ज्ञान की अलख जलानी होगी, तभी हमारी युवा पीढ़ी भारत का गौरवपूर्ण भविष्य बन पायेगी. युवा पीढ़ी को समझना होगा कि जीवन एक बार ही मिलता है और यह अनमोल है. जिंदगी को मजाक समझने के बजाय उसकी कीमत समझे.

भाषा

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भाषा वह साधन है जिसके द्वारा हम अपने विचारों को व्यक्त करते है और इसके लिये हम वाचिक ध्वनियों का उपयोग करते हैं। भाषा मुख से उच्चारित होनेवाले शब्दों और वाक्यों आदि का वह समूह है जिनके द्वारा मन की बात बतलाई जाती है। किसी भाषा की सभी ध्वनियों के प्रतिनिधि स्वन एक व्यवस्था में मिलकर एक सम्पूर्ण भाषा की अवधारणा बनाते हैं। व्यक्त नाद की वह समष्टि जिसकी सहायता से किसी एक समाज या देश के लोग अपने मनोगत भाव तथा विचार एक दूसरे पर प्रकट करते हैं । मुख से उच्चारित होनेवाले शब्दों और वाक्यों आदि का वह समूह जिनके द्वारा मन की बात बतलाई जाती है । बोली । जबान । वाणी । विशेषइस समय सारे संसार में प्रायः हजारों प्रकार की भाषाएँ बोली जाती हैं जो साधारणतः अपने भाषियों को छोड़ और लोगों की समझ में नहीं आतीं । अपने समाज या देश की भाषा तो लोग बचपन से ही अभ्यस्त होने के कारण अच्छी तरह जानते हैं, पर दूसरे देशों या समाजों की भाषा बिना अच्छी़ तरह सीखे नहीं आती । भाषाविज्ञान के ज्ञाताओं ने भाषाओं के आर्य, सेमेटिक, हेमेटिक आदि कई वर्ग स्थापित करके उनमें से प्रत्येक की अलग अलग शाखाएँ स्थापित की हैं, और उन शाखाकों के भी अनेक वर्ग उपवर्ग बनाकर उनमें बड़ी बड़ी भाषाओं और उनके प्रांतीय भेदों, उपभाषाओं अथाव बोलियों को रखा है । जैसे हमारी हिंदी भाषा भाषाविज्ञान की दृष्टि से भाषाओं के आर्य वर्ग की भारतीय आर्य शाखा की एक भाषा है; और ब्रजभाषा, अवधी, बुंदेलखंडी आदि इसकी उपभाषाएँ या बोलियाँ हैं । पास पास बोली जानेवाली अनेक उपभाषाओं या बोलियों में बहुत कुछ साम्य होता है; और उसी साम्य के आधार पर उनके वर्ग या कुल स्थापित किए जाते हैं । यही बात बड़ी बड़ी भाषाओं में भी है जिनका पारस्परिक साम्य उतना अधिक तो नहीं, पर फिर भी बहुत कुछ होता है । संसार की सभी बातों की भाँति भाषा का भी मनुष्य की आदिम अवस्था के अव्यक्त नाद से अब तक बराबर विकास होता आया है; और इसी विकास के कारण भाषाओं में सदा परिवर्तन होता रहता है । भारतीय आर्यों की वैदिक भाषा से संस्कुत और प्राकृतों का, प्राकृतों से अपभ्रंशों का और अपभ्रंशों से आधुनिक भारतीय भाषाओं का विकास हुआ है ।
सामान्यतः भाषा को वैचारिक आदान-प्रदान का माध्यम कहा जा सकता है। भाषा आभ्यंतर अभिव्यक्ति का सर्वाधिक विश्वसनीय माध्यम है। यही नहीं वह हमारे आभ्यंतर के निर्माण, विकास, हमारी अस्मिता, सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान का भी साधन है। भाषा के बिना मनुष्य सर्वथा अपूर्ण है और अपने इतिहास तथा परम्परा से विच्छिन्न है।
इस समय सारे संसार में प्रायः हजारों प्रकार की भाषाएँ बोली जाती हैं जो साधारणतः अपने भाषियों को छोड़ और लोगों की समझ में नहीं आतीं । अपने समाज या देश की भाषा तो लोग बचपन से ही अभ्यस्त होने के कारण अच्छी तरह जानते हैं, पर दूसरे देशों या समाजों की भाषा बिना अच्छी़ तरह सीखे नहीं आती । भाषाविज्ञान के ज्ञाताओं ने भाषाओं के आर्य, सेमेटिक, हेमेटिक आदि कई वर्ग स्थापित करके उनमें से प्रत्येक की अलग अलग शाखाएँ स्थापित की हैं, और उन शाखाओं के भी अनेक वर्ग-उपवर्ग बनाकर उनमें बड़ी बड़ी भाषाओं और उनके प्रांतीय भेदों, उपभाषाओं अथाव बोलियों को रखा है । जैसे हिंदी भाषा भाषाविज्ञान की दृष्टि से भाषाओं के आर्य वर्ग की भारतीय आर्य शाखा की एक भाषा है; और ब्रजभाषा, अवधी, बुंदेलखंडी आदि इसकी उपभाषाएँ या बोलियाँ हैं । पास पास बोली जानेवाली अनेक उपभाषाओं या बोलियों में बहुत कुछ साम्य होता है; और उसी साम्य के आधार पर उनके वर्ग या कुल स्थापित किए जाते हैं। यही बात बड़ी बड़ी भाषाओं में भी है जिनका पारस्परिक साम्य उतना अधिक तो नहीं, पर फिर भी बहुत कुछ होता है ।
संसार की सभी बातों की भाँति भाषा का भी मनुष्य की आदिम अवस्था के अव्यक्त नाद से अब तक बराबर विकास होता आया है; और इसी विकास के कारण भाषाओं में सदा परिवर्तन होता रहता है । भारतीय आर्यों की वैदिक भाषा से संस्कृत और प्राकृतों का, प्राकृतों से अपभ्रंशों का और अपभ्रंशों से आधुनिक भारतीय भाषाओं का विकास हुआ है ।
प्रायः भाषा को लिखित रूप में व्यक्त करने के लिये लिपियों की सहायता लेनी पड़ती है। भाषा और लिपि, भाव व्यक्तीकरण के दो अभिन्न पहलू हैं। एक भाषा कई लिपियों में लिखी जा सकती है, और दो या अधिक भाषाओं की एक ही लिपि हो सकती है । उदाहरणार्थ पंजाबी, गुरूमुखी तथा शाहमुखी दोनो में लिखी जाती है जबकि हिन्दी, मराठी, संस्कृत, नेपाली इत्यादि सभी देवनागरी में लिखी जाती है।

अनुक्रम

परिभाषा

भाषा को प्राचीन काल से ही परिभाषित करने की कोशिश की जाती रही है। इसकी कुछ मुख्य परिभाषाएं निम्नलिखित हैं-
  • (१) भाषा शब्द संस्कृत के भाष् धातु से बना है जिसका अर्थ है बोलना या कहना अर्थात् भाषा वह है जिसे बोला जाय।
  • (2) प्लेटो ने सोफिस्ट में विचार और भाषा के संबंध में लिखते हुए कहा है कि विचार और भाषआ में थोड़ा ही अंतर है। विचार आत्मा की मूक या अध्वन्यात्मक बातचीत है पर वही जब ध्वन्यात्मक होकर होठों पर प्रकट होती है तो उसे भाषा की संज्ञा देते हैं।
  • (3) स्वीट के अनुसार ध्वन्यात्मक शब्दों द्वारा विचारों को प्रकट करना ही भाषा है।
  • (4) वेंद्रीय कहते हैं कि भाषा एक तरह का चिह्न है। चिह्न से आशय उन प्रतीकों से है जिनके द्वारा मानव अपना विचार दूसरों पर प्रकट करता है। ये प्रतीक कई प्रकार के होते हैं जैसे नेत्रग्राह्य, श्रोत्र ग्राह्य और स्पर्श ग्राह्य। वस्तुतः भाषा की दृष्टि से श्रोत्रग्राह्य प्रतीक ही सर्वश्रेष्ठ है।
  • (5) ब्लाक तथा ट्रेगर- भाषा यादृच्छिक भाष् प्रतिकों का तंत्र है जिसके द्वारा एक सामाजिक समूह सहयोग करता है।
  • (6) स्त्रुत्वा भाषा यादृच्छिक भाष् प्रतीकों का तंत्र है जिसके द्वारा एक सामाजिक समूह के सदस्य सहयोग एवं संपर्क करते हैं।
  • (7) इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका - भाषा को यादृच्छिक भाष् प्रतिकों का तंत्र है जिसके द्वारा मानव प्राणि एक सामाजिक समूह के सदस्य और सांस्कृतिक साझीदार के रूप में एक सामाजिक समूह के सदस्य संपर्क एवं संप्रेषण करते हैं।
  • (8) ‘‘भाषा यादृच्छिक वाचिक ध्वनि-संकेतों की वह पद्धति है, जिसके द्वारा मानव परम्परा विचारों का आदान-प्रदान करता है।’’[1] स्पष्ट ही इस कथन में भाषा के लिए चार बातों पर ध्यान दिया गया है-
(१) भाषा एक पद्धति है, यानी एक सुसम्बद्ध और सुव्यवस्थित योजना या संघटन है, जिसमें कर्ता, कर्म, क्रिया, आदि व्यवस्थिति रूप में आ सकते हैं।
(२) भाषा संकेतात्कम है अर्थात् इसमे जो ध्वनियाँ उच्चारित होती हैं, उनका किसी वस्तु या कार्य से सम्बन्ध होता है। ये ध्वनियाँ संकेतात्मक या प्रतीकात्मक होती हैं।
(३) भाषा वाचिक ध्वनि-संकेत है, अर्थात् मनुष्य अपनी वागिन्द्रिय की सहायता से संकेतों का उच्चारण करता है, वे ही भाषा के अंतर्गत आते हैं।
(४) भाषा यादृच्छिक संकेत है। यादृच्छिक से तात्पर्य है - ऐच्छिक, अर्थात् किसी भी विशेष ध्वनि का किसी विशेष अर्थ से मौलिक अथवा दार्शनिक सम्बन्ध नहीं होता। प्रत्येक भाषा में किसी विशेष ध्वनि को किसी विशेष अर्थ का वाचक मान लिया जाताहै। फिर वह उसी अर्थ के लिए रूढ़ हो जाता है। कहने का अर्थ यह है कि वह परम्परानुसार उसी अर्थ का वाचक हो जाता है। दूसरी भाषा में उस अर्थ का वाचक कोई दूसरा शब्द होगा।
हम व्यवहार में यह देखते हैं कि भाषा का सम्बन्ध एक व्यक्ति से लेकर सम्पूर्ण विश्व-सृष्टि तक है। व्यक्ति और समाज के बीच व्यवहार में आने वाली इस परम्परा से अर्जित सम्पत्ति के अनेक रूप हैं। समाज सापेक्षता भाषा के लिए अनिवार्य है, ठीक वैसे ही जैसे व्यक्ति सापेक्षता। और भाषा संकेतात्मक होती है अर्थात् वह एक प्रतीक-स्थिति' है। इसकी प्रतीकात्मक गतिविधि के चार प्रमुख संयोजक हैः दो व्यक्ति-एक वह जो संबोधित करता है, दूसरा वह जिसे संबोधित किया जाता है, तीसरी संकेतित वस्तु और चौथी-प्रतीकात्मक संवाहक जो संकेतित वस्तु की ओर प्रतिनिधि भंगिमा के साथ संकेत करता है।
विकास की प्रक्रिया में भाषा का दायरा भी बढ़ता जाता है। यही नहीं एक समाज में एक जैसी भाषा बोलने वाले व्यक्तियों का बोलने का ढंग, उनकी उच्चापण-प्रक्रिया, शब्द-भंडार, वाक्य-विन्यास आदि अलग-अलग हो जाने से उनकी भाषा में पर्याप्त अन्तर आ जाता है। इसी को शैली कह सकते हैं।

बोली, विभाषा, भाषा, और राजभाषा

यों बोली, विभाषा और भाषा का मौलिक अन्तर बता पाना कठिन है, क्योंकि इसमें मुख्यतया अन्तर व्यवहार-क्षेत्र के विस्तार पर निर्भर है। वैयक्तिक विविधता के चलते एक समाज में चलने वाली एक ही भाषा के कई रूप दिखाई देते हैं। मुख्य रूप से भाषा के इन रूपों को हम इस प्रकार देखते हैं-
(१) बोली,
(२) विभाषा, और
(३) भाषा (अर्थात् परिनिष्ठित या आदर्श भाषा)
बोली भाषा की छोटी इकाई है। इसका सम्बन्ध ग्राम या मण्डल से रहता है। इसमें प्रधानता व्यक्तिगत बोली की रहती है और देशज शब्दों तथा घरेलू शब्दावली का बाहुल्य होता है। यह मुख्य रूप से बोलचाल की ही भाषा है। अतः इसमें साहित्यिक रचनाओं का प्रायः अभाव रहता है। व्याकरणिक दृष्टि से भी इसमें असाधुता होती है।
विभाषा का क्षेत्र बोली की अपेक्षा विस्तृत होता है यह एक प्रान्त या उपप्रान्त में प्रचलित होती है। एक विभाषा में स्थानीय भेदों के आधार पर कई बेलियां प्रचलित रहती हैं। विभाषा में साहित्यिक रचनाएं मिल सकती हैं।
भाषा, अथवा कहें परिनिष्ठित भाषा या आदर्श भाषा, विभाषा की विकसित स्थिति हैं। इसे राष्ट्र-भाषा या टकसाली-भाषा भी कहा जाता है।
प्रायः देखा जाता है कि विभिन्न विभाषाओं में से कोई एक विभाषा अपने गुण-गौरव, साहित्यिक अभिवृद्धि, जन-सामान्य में अधिक प्रचलन आदि के आधार पर राजकार्य के लिए चुन ली जाती है और उसे राजभाषा के रूप में या राष्ट्रभाषा घोषित कर दिया जाता है।

राज्यभाषा, राष्ट्रभाषा, और राजभाषा

किसी प्रदेश की राज्य सरकार के द्वारा उस राज्य के अंतर्गत प्रशासनिक कार्यों को सम्पन्न करने के लिए जिस भाषा का प्रयोग किया जाता है, उसे राज्यभाषा कहते हैं। यह भाषा सम्पूर्ण प्रदेश के अधिकांश जन-समुदाय द्वारा बोली और समझी जाती है। प्रशासनिक दृष्टि से सम्पूर्ण राज्य में सर्वत्र इस भाषा को महत्त्व प्राप्त रहता है।
भारतीय संविधान में राज्यों और केन्द्रशासित प्रदेशों के लिए हिन्दी के अतिरिक्त २१ अन्य भाषाएं राजभाषा स्वीकार की गई हैं। राज्यों की विधानसभाएं बहुमत के आधार पर किसी एक भाषा को अथवा चाहें तो एक से अधिक भाषाओं को अपने राज्य की राज्यभाषा घोषित कर सकती हैं।
राष्ट्रभाषा सम्पूर्ण राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करती है। प्राय: वह अधिकाधिक लोगों द्वारा बोली और समझी जाने वाली भाषा होती है। प्राय: राष्ट्रभाषा ही किसी देश की राजभाषा होती है।

इन्हें भी देखें

संदर्भ

  1. A language is a system of arbitrary vocal symbols by means of which a social group co-operates. - Outlines of linguistic analysis ,b. Block and G.L. Trager, page 5.

संबंधित पुस्तकें

  • भाषा विज्ञान - भोला नाथ तिवारी, किताब महल, नई दिल्ली, 1951
  • भाषा और समाज - रामविलास शर्मा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली

इन्हें भी देखें

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