चिपको आंदोलन की नेत्रीअपने ही गांव में बेगानी हुई गौरा गौरा देवी
जोशीमठ के समीप स्थित है चिपको आंदोलन की नेत्री गौरा देवी
का गांव रैणी -वर्ष 1974 में यहीं से शुरू किया था वृक्षों के संरक्षण का
अभियान -गौरा के निधन के बाद सरकारी मशीनरी ने नहीं ली गांव की सुध ,
गोपेश्वर(चमोली): रैणी गांव का नाम आते ही जेहन में उभर आती है उस महिला की
तस्वीर,
जिसने गंवई होते हुए भी एक ऐसे आंदोलन का सूत्रपात किया, जो
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उसकी पहचान बन गया। बात हो रही है चिपको आंदोलन की
नेत्री गौरा देवी की। प्रथम महिला वृक्षमित्र के पुरस्कार से नवाजी गई गौरा देवी
ने न सिर्फ जंगलों को कटने से बचाया, बल्कि वन माफियाओं को भी वापस लौटने
पर मजबूर कर दिया। जीवनपर्यंत गौरा लोगों में पेड़ों के संरक्षण की अलख
जगाती रहीं, लेकिन उन्होंने कभी सोचा भी नहीं होगा कि उनके निधन के बाद खुद
उनके ही गांव में सरकारी मशीनरी व चंद निजी स्वार्थों के लोभी लोग उनके
सपनों का गला घोंट देंगे। आलम यह है कि गांव के नजदीक ही जलविद्युत
परियोजना के लिए सुरंगों का ताबड़तोड़ निर्माण किया जा रहा है। इससे गांव
के लोग पलायन को मजबूर हो गए हैं। जोशीमठ से करीब 27 किमी दूर स्थित है
रैणी गांव। 26 मार्च 1974 का दिन इस गांव को इतिहास में अमर कर गया। सरकारी
अधिकारियों की नजर लंबे समय से गांव के नजदीक स्थित जंगलों पर थी। यहां
पेड़ों के कटान के लिए साइमन कंपनी को ठेका दिया गया था, जिसके तहत सैकड़ों
मजदूर व ठेकेदार गांव पहुंच गए थे। गांव वालों के विरोध को देखते हुए
अधिकारियों ने साजिश के तहत उन्हें चमोली तहसील में वार्ता के लिए बुलाया
और पीछे से ठेकेदारों को पेड़ कटान के लिए गांव भेज दिया गया, लेकिन उनका
यह कदम आत्मघाती साबित हुआ। गांव में मौजूद गौरा देवी
को जैसे ही खबर मिली वह ठेकेदारों के सामने आ गई और पेड़ पर चिपक गई।
देखादेखी अन्य महिलाओं ने भी ऐसा ही किया। ठेकेदारों, मजदूरों ने उन्हें
हटाने की बहुत कोशिश की, लेकिन एक नहीं चली। इस तरह चिपको आंदोलन का
सूत्रपात हुआ और गौरा ने 2451 पेड़ों को कटने से बचा दिया। चिपको जननी के
नाम से विख्यात गौरा का कहना था कि 'जंगल हमारा मायका है हम इसे उजाडऩे
नहीं देंगे।' जीवन भर वृक्षों के संरक्षण को संघर्ष करते हुए चार जुलाई
1991 को तपोवन में उनका निधन हो गया। इससे पूर्व भारत सरकार ने वर्ष 1986
में गौरा देवी को प्रथम
महिला वृक्ष मित्र पुरस्कार से नवाजा था। मृत्यु से पूर्व गौरा ने कहा
'मैंने तो शुरुआत की है, नौजवान साथी इसे और आगे बढाएंगे', लेकिन वक्त
बदलने के साथ लोग गौरा के सपनों से दूर होते गए। सरकार ने गौरा के गांव में
उनके नाम से एक 'स्मृति द्वार' बनाकर खानापूर्ति तो की, लेकिन पिछले 17
साल में शायद ही कभी कोई मौका आया हो, जब इस पर्यावरण हितैषी की याद में
कभी सरकारी मशीनरी ने दो पौधे भी रोपे हों। हद तो तब हो गई, जब गौरा के
गांव के जनप्रतिनिधियों ने ही उनके अभियान से मुंह मोड़ लिया। स्थिति यह है
कि गांव में गौरा के नाम पर बनाए गए मिलन स्थल को गांव के नजदीक बनाए जा
रहे बांध की कार्यदायी संस्था 'ऋषिगंगा पावर प्रोजेक्ट' को किराए पर दे
दिया गया है। इतना ही नहीं, गांव के नजदीक इन दिनों सुरंगों का निर्माण
कार्य जोरों पर है, जिसके लिए पेड़ भी काटे जा रहे हैं। परियोजना निर्माण
के लिए हो रहे धमाकों से कई घरों में दरारें पड़ गई हैं। ऐसे में लोग यहां
से पलायन करने को मजबूर हो गए हैं। पूर्व ग्राम प्रधान मोहन सिंह राणा
व्यथित स्वर में कहते हैं कि सरकार ने गांव को हमेशा ही नजर अंदाज किया।
उन्होंने यह भी कहा कि गौरा के सपनों को पूरा करने के लिए दोबारा चिपको
जैसे आंदोलन शुरू करने की जरूरत है। गौरा देवी
के पुत्र चंद्र सिंह व ग्रामीण गबर सिंह का कहना है कि सुरंग निर्माण को
रोकने व गांव की अन्य समसयओं के बाबत कई बार शासन-प्रशासन से गुहार कर चुके
हैं, लेकिन कोई सुनवाई नहीं हो रही।॥
"हिमांशु बिष्ट"
"हिमांशु बिष्ट"
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