मंगलवार, 5 मार्च 2013

राजस्थान और गुजरात नरसंहार

 
मानगढ धाम का इतिहास
Mangarh Dham History ( In English)

राजस्थान, गुजरात और मध्यप्रदेश की लोक संस्कृतियों का त्रिवेणी संगम वागड लोक परम्पराओं, सांस्कृतिक रसों और जन-जीवन के इन्द्रधनुषी रंगों से भरा-पूरा वह अँचल है जहाँ लोक जागरण, समाज सुधार और स्वातंत्र्य चेतना की त्रिवेणी प्रवाहित होती रही है। आर्थिक,सामाजिक व शैक्षिक दृष्टि से भले ही इस जनजाति बहुल दक्षिणाँचल को पिछडा माना जाता रहा हो मगर आत्म स्वाभिमान की दृष्टि से यह क्षेत्र कभी उन्नीस नहीं रहा । आत्म गौरव की रक्षा के निमित्त प्राणोत्सर्ग करने का जज्बा इस क्षेत्र की माटी में हमेशा से रहा है । इसी का ज्वलन्त उदाहरण है- मानगढ धाम । राजस्थान और गुजरात की सरहदी पर्वतीय उपत्यकाओं में बाँसवाडा जिला मुख्यालय से 70 किलोमीटर दूर अवस्थित मानगढ धाम सामाजिक जागृति और स्वातंत्र्य चेतना के लिए लोक क्रांति का बिगुल बजाने वाला महाधाम रहा है जहाँ का जर्रा-जर्रा क्रांति चेता व्यक्तित्व गोविन्द गुरु का पैगाम गुंजा रहा है । 20 वीं सदी के आरंभिक दौर में लोक श्रद्धा के महानायक गोविन्द गुरु के नेतृत्व में आयोजित संप सभा में जमा हजारों श्रद्धालु आदिवासियों पर रियासती व अंग्रेजी फौजों ने तोप, बन्दूकों और मशीनगनों ने इस तरह कहर बरपाया कि देखते ही देखते 1500 से ज्यादा आदिवासी काल के गाल में समा कर शहीद हो गए। जलियांवाला बाग से भी ज्यादा बर्बर इस नर संहार की दिल दहला देने वाली घटना का साक्षी मानगढ धाम भले ही इतिहास में अपेक्षित स्थान प्राप्त नहीं कर पाया हो मगर राजस्थान, गुजरात और मध्यप्रदेश के इस सरहदी दक्षिणांचल के लाखों लोगों के हृदय पटल पर यह श्रद्धा तीर्थ आज भी अमिट रहकर पीढयों से लोक क्रांति के प्रणेता गोविन्द गुरु के प्रति आदर और अगाध आस्था बनाए हुए है। 20 दिसम्बर 1858 को डूँगरपुर जिले के बांसिया(बेडसा) गांव में बंजारा परिवार में जन्मे गोविन्द गुरु ने पढाई-लिखाई के साथ ही सात्विक- आध्यात्मिक विचारों को आत्मसात किया । स्वामी दयानन्द सरस्वती व अन्य संत महापुरुषों के सानिध्य में रहने का यह प्रभाव हुआ कि उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन लोक जागरण और सेवा के लिए समर्पित कर दिया । सामाजिक कुरीतियों, दमन व शोषण से जूझ रहे समाज को उबारने के लिए राजस्थान, गुजरात व मध्यप्रदेश के सरहदी दक्षिणाँचल वागड को कर्म स्थल बनाया और लोकचेतना का शंख फूंका । इसके लिए उन्होंने 1903 में ’ संप सभा ’ नामक संगठन बनाया । मेल-मिलाप का अर्थ ध्वनित करने वाला यह संगठन सामाजिक सौहार्द स्थापित करने, कुरीतियों के परित्याग, विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार करने तथा शिक्षा,सादगी,सदाचार व सरल-सहज जीवन अपनाने की प्रेरणा आदिवासी समाज में भरने लगा । इस संगठन ने आपसी विवादों का निपटारा पंचायत स्तर पर ही करने में विश्वास रखा तथा समाज सुधार की गतिविधियों को बल दिया। परिणामस्वरूप उनके अनुयायियों की तादाद लाखों में पहुँच गई । मानगढ धाम इन गतिविधियों का केन्द्र बना। सन् 1913 में मार्गशीर्ष पूर्णिमा(कहीं-कहीं सन् 1908 का भी उल्लेख मिलता है ) के दिन इसी मानगढ पहाडी पर 3 से 5 लाख आदिवासी भगतों का मेला जमा था जहाँ ये सामाजिक सुधार गतिविधियों और धार्मिक अनुष्ठानों में व्यस्त थे । चारों तरफ श्रद्धा और आस्था का ज्वार हिलोरें ले रहा था। रियासती और अंग्रेजी फौज इस समाज सुधार और आजादी पाने के लिए चलाए जा रहे आन्दोलन को कुचलने के लिए लगातार दमन भरे प्रयासों में जुटे हुए थे। इतनी बडी संख्या में आदिवासियों का जमावडा देख पहले तो तितर-बितर करने की कोशिश की मगर गुरु के प्रति अगाध श्रद्धा और अपने मकसद को पाने के लिए पूरे जज्बे के साथ जुटे इन दीवानों पर इसका कोई असर नहीं पडा। इसी बीच अंग्रेजी फौज के नायक कर्नल शटन के आदेश पर रियासती व अंग्रेजी फौज ने पूरी मानगढ पहाडी को घेर लिया और फायरिंग के आदेश दे दिए। तोप, मशीनगन और बन्दूकें गरजनें लगी और देखते ही देखते आदिवासी भक्तों की लाशें बिछ गई । जिस बर्बरता और क्रूरता के साथ अंग्रेजी फौज ने यह सब कुछ किया उसके आगे जलियांवाला बाग काण्ड की भीषणता भी फीकी पड गई । गोरे लोगों द्वारा ढाए गए जुल्म के इतिहास में मानगढ नरसंहार काले पन्ने की तरह है । इस भीषण नरसंहार में शहीद होने वाले भगतों की संख्या 1500 बताई गई है । गोविन्द गुरु भी पाँव में गोली लगने से घायल हो गए। यहीं उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और अमदाबाद तथा संतरामपुर की जेल में रखा गया। जनसमूह को इकट्ठा करने, आगजनी तथा हत्या का आरोप मढते हुए उन्हें फांसी की सजा सुनायी गई। बाद में इस सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया गया । फिर सजा को कम करते हुए 12 जुलाई 1923 को उन्हें संतरामपुर जेल से इस शर्त पर रिहा किया गया कि वे कुशलगढ, बाँसवाडा,डूँगरपुर तथा संतरामपुर रियासत में प्रवेश नहीं करेंगे । गोविन्द गुरु सन 1923 से 1931 तक भील सेवा सदनझालोद के माध्यम से लोक जागरण, भगत दीक्षा व आध्यात्मिक विचार क्रांति का कार्य करते रहे । 30 अक्टूम्बर 1931 को लाखों भक्तों को अलविदा कह यह महान शख्सयत महाप्रयाण कर गई । गोविन्द गुरु यद्यपि आज हमारे बीच नहीं है मगर उनके उपदेश आज भी लाखों भक्तों के माध्यम से समाज में नई ऊर्जा और प्रेरणा संचरित कर रहे हैं।

दुनिया भर में पहचान कायम होगी मानगढ की

बांसवाडा, जनजाति क्षेत्रीय विकास, जन अभियोग निराकरण, तकनीकी एवं अभियांत्रिकी शिक्षा मंत्री महेन्द्रजीतसिंह मालवीया  ने कहा है कि आजादी के संघर्ष में शहीद हो गए पन्द्रह सौ से दो हजार आदिवासियों की शहादत स्थली  मानगढ धाम शिक्षा और जागरुकता की कमी की वजह से अब तक भले ही इतिहास में यथोचित स्थान प्राप्त नहीं कर पाया है लेकिन अब यह दुनिया में ऐतिहासिक यादगार बनने की ओर अग्रसर है और इसे कोई नहीं रोक सकता।
जनजाति क्षेत्रीय विकास मंत्री महेन्द्रजीतंसंह मालवीयाने बांसवाडा से सत्तर किलोमीटर दूर राजस्थान और गुजरात के सरहदी पहाड पर अवस्थित ऐतिहासिक मानगढ धाम पर मानगढ बलिदान शताब्दी और स्वतंत्रता सेनानी गोविन्द गुरु के 150 वें जन्म दिवस स्मृति समारोह के अन्तर्गत समारोह समिति तथा दयानंद सेवाश्रम बांसवाडा की ओर से आर्य परिवार संस्था कोटा के सहयोग से आयोजित चार दिवसीय समारोह के अंतिम दिन रविवार को आयोजित कार्यक्रम में संबोधित कर रहे थे।
समारोह में मानगढ धाम के महन्त नाथूराम भगत, पं. वेदप्रिय शास्त्री, भजनोपदेशक पं. दिनेशदत्त आर्य, दयानंद सेवाश्रम दिल्ली  के अध्यक्ष वेदव्रत मेहता एवं महामंत्री प्रेमलता शास्त्री, मंत्री ईश्वर नाट्यकृति ’’मोर्चा मानगढ‘‘ पुस्तक का  विमोचन जनजाति क्षेत्रीय विकास मंत्री मालवीया ने समारोह में साहित्यकार घनश्याम प्यासा(गढी) की कृति मोर्चा मानगढ(ऐतिहासिक नाटक) का विमोचन किया। इसमें मानगढ धाम की गाथा को वास्तविक ऐतिहासिक पात्रों को केन्द्रीय भूमिका में रखते हुए वर्णित किया गया है। कृति का मुद्रण गंगा प्रकाशन द्वारा हुआ है। मालवीया ने मानगढ धाम पर प्रकाशित कृति को संदर्भ एवं नई पीढी तक ज्ञान संवहन की दृष्टि से महत्वपूर्ण तथा संग्रहणीय बताया और इसके लिए साहित्यकार घनयश्याम प्यासा को बधाई देते हुए कहा कि आंचलिक विषयों पर इतिहास और साहित्य लेखन के प्रयासों को और अधिक व्यापकता दी जानी चाहिए।

मालवीया ने कहा कि अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष में मानगढ अग्रणी अभियान था जिसमें मानगढ की धरती से अंग्रेजों के खिलाफ सशक्त बिगुल बजा जिसम 1500 से 2000 निहत्थे आदिवासी शहीद हो गए। आजादी की अलख जगाने वाली इस माटी के कण-कण में शौर्य, देशभक्ति और बलिदान की ऊर्जा समाहित है जो सदियों तक प्रेरणा का संचरण करती रहेगी।
उन्होंने कहा कि आज किसी भी वजह से एक की मौत हो जाती है तो इतिहास बन जाता है जबकि मानगढ धाम में सैकडों लोग शहीद हो गए और इतना बडा नरसंहार हुआ कि उनके परिजन शहीदों का दाह संस्कार तक नहीं कर सके। इसका मूल कारण उन दिनों शिक्षा और जागृति का अभाव था। ऐसा होता तो जलियांवाला बाग से भी बडी यह घटना दुनिया में आजादी पाने के सबसे बडे हत्याकाण्ड के रूप में इतिहास में स्थान पा जाती। उन्होंने बताया कि इस घटना में हुई गोलीबारी के कारतूस आज भी देखे जा सकते हैं।
 जनजाति क्षेत्रीय विकास मंत्री ने कहा कि मानगढ धाम के लिए अब सार्थक, ठोस और व्यापक प्रयास किए जाएंगे और इसमें धन की कोई कमी आडे नहीं आएगी। उन्होंने कहा कि मानगढ धाम की सुरक्षा और देखभाल हर व्यक्ति का धर्म है और इसके लिए लोगों को जागरुक रहना चाहिए।

उन्होंने कहा कि मानगढ धाम के स्थलों की सुरक्षा के लिए चहारदीवारी का निर्माण कराया जाएगा। इसके साथ ही धाम पर पक्का पाण्डाल स्थापित किया जाएगा ताकि समारोहों और धार्मिक-साामजिक आयोजनों के लिए टेन्ट की व्यवस्था नहीं करनी पडे।
इसके अलावा आदिवासी क्षेत्र भर में संत-महात्माओं और भगतों की धूंणियों पर गोविन्द गुरु के नाम से बडी संख्या में सामुदायिक भवन बनाए जाएंगे। 
उन्होंने इन धूंणियों और धामों को कुरीतियों के निवारण के लिए संकल्प लेने के साथ ही संस्कार, शिक्षा और चेतना के केन्द्रों के रूप में स्थापित किए जाने पर जोर दिया और लोगों से कहा कि वे इनका पूरा-पूरा उपयोग करते हुए समाज को नई दिशा और तरक्की की दृष्टि दें। उन्होंने कहा कि हर व्यक्ति कोचाहिए कि वह मूल्यांकन करे तथा अच्छे लोगों को हरसंभव सहयोग व सम्बल प्रदान करे।


मानगढ़ हत्याकांड के राज खोलने को तैयार है नई किताब

राजस्थान के जलियावाला मानगढ़ धाम पर आजादी के आंदोलन के दौरान हुए भीषण नरसंहार के शताब्दी वर्ष के शुभारंभ के उपलक्ष्य में राज्य सरकार द्वारा प्रकाशित की जाने वाली किताब ‘शहादत के सौ साल’ में कई अनछुए पहलू सामने आएंगे।
राज्य के जनजाति क्षेत्रीय विकास मंत्री महेंद्रजीत सिंह मालवीया के संपादन में प्रकाशित की जाने वाली इस पुस्तक के लेखन और संपादन का कार्य इन दिनों पूरा होने वाला है। जिला शिक्षा अधिकारी माध्यमिक पुष्पेन्द्र पांडे के निर्देशन में माणिक्यलाल वर्मा आदिम जाति शोध एवं प्रशिक्षण संस्थान उदयपुर के बैनर तले यह किताब प्रकाशित की जाएगी।
इस पुस्तक में आदिवासी अंचल में आजादी का शंखनाद करने वाले क्रांतिकारी संत गोविन्द गुरु के बचपन से लेकर निर्वाण तक के कई अनछुए पहलुओं के बारे में बताया गया है। इसके अलावा 17 नवंबर 1913 को मानगढ़ पहाड़ी पर हुकूमत के ईशारे पर हुए नरसंहार से जुड़े कई रहस्यमयी तथ्य पाठकों के सामने आएंगे। किताब का अहम पहलू गोविन्द गुरु की वर्तमान में जीवनयापन कर रही छठी पीढी तक की वंशावली है।
पुस्तक की तैयारी के लिए गठित टीम पिछले एक सप्ताह से क्रांतिकारी संत गोविन्द गुरु की जन्म स्थली से लेकर निर्वाण स्थली तक के अनेक क्षेत्रों का दौरा कर उन तथ्यों और प्रमाणों को किताब में शामिल करने में जुटी है जो मानगढ़ और गोविन्द गुरु की ऐतिहासिक जीवन गाथा से जुड़े हैं।
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